कबीर के दोहे: काजल कालापन और मोती सफेदी नहीं त्यागता (kabir ke dohe-kajal and moti)


दुक्ख महल को ढाहने, सुक्ख महल रहु जाय
अभि अन्तर है उनमुनी, तामें रहो समाय

संत कबीरदास जी के अनुसार इस संसार में रहना है तो दुख के महल को गिराकर सुख महल में रहो। यह तभी संभव है जब जो हमारे अंदर आत्मा है उसमें ही समा जायें।

काजल तजै न श्यामता, मुक्ता तर्ज न श्वेत
दुर्जन तजै न कुटिलता, सज्जन तजै न हेत

आशय यह है कि जिस तरह काजल अपना कालापन और मोती अपनी सफेदी को नहीं त्यागता वेसे ही दुर्जन अपनी कुटिलता और सज्जन अपनी सज्ज्नता नहीं त्यागता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-देने वाला परमात्मा है और जो कर्म करता है उसे उसका परिणा मिलता ही है। फिर भी आदमी में अपना अहंकार है कि ‘मैं कर्ता हूं।’ वह अपने देह से किये गये कर्म से प्राप्त माया के भंडार को ही अपना फल समझता है और बस उसकी वृद्धि में ही अपना जीवन धन्य समझता है और भक्ति भाव को वह केवल एक समय पास काम मानता है। कितना बड़ा भ्रम मनुष्य में है यह अगर हम अपना आत्म मंथन करें तो समझ में आ जायेगा। हम कहीं दुकान कर रहे हैं या नौकरी उससे जो आय होती है वह फल नहीं होता। वह जो पैसा प्राप्त होता है उससे अपने और परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति पर ही व्यय करते हैं। वह पैसा प्राप्त करना तो हमारे ही कर्म का हिस्सा है। कहीं से मजदूरी या वेतन प्राप्त होता है वह भला कैसे फल हो सकता है जबकि उसे प्राप्त करना भी हमारा कर्तव्य है ताकि हम अपनी इस देह का और साथ ही अपने परिवार का भरण भोषण कर सकें। इसलिये माया की प्राप्त को फल समझना एक तरह से दुःख का महल है और उसे एक सामान्य कर्म मानते हुए उसे त्याग कर देना चाहिये। भगवान की भक्ति करना ही सुख के महल में रहना है।

अगर हमें यह अनुभूति हो जाये कि अमुक व्यक्ति के मूल स्वभाव में ही दुष्टता का भाव है तो उसे त्याग देना चाहिये। यह मानकर चले कि यहां कोई भी अपना स्वभाव नहीं बदल सकता। जिसत तरह काजल अपनी कालापन और मोती आपनी सफेदी नहीं छोड़ सकता वैसे ही जिनके मूल में दुष्टता का भाव है वह उसे नहीं छोड़ सकता। उसी तरह जिन में हमें सज्जनता का भाव लगता है उनका साथ भी कभी नहीं छोड़ना चाहिये।
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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टिप्पणियाँ

  • Vaudha kamat  On 04/03/2011 at 2:19 अपराह्न

    I am vasudha kamat I like kabir das k dohe because he says everything directly i like it for ex: “log puje kankar ko to mai pujun pahar agar mile mohe Bhagawan,mulla kyo bang bajaye kya alla bahira hai“adi realy something in his dohe and I attracted one more doha I like to say : acha dundan chala mai magar acha mila na koy jab bura dundan chala to mujhase bura na koy real it is yar

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