श्रीगीता का ज्ञान हैं सत्य स्वरूप-आलेख


इस बार गुडफ्राइडे के अवसर पर वैटिकन सिटी में आयोजित एक प्रार्थना में हिन्दू धर्म के महान ग्रंथ श्रीगीता सार भी उल्लेख किया गया। इसके साथ ही वहां भारत के अन्य महानपुरुषों के संदेशों पर चर्चा हुई। श्रीगीता के निष्काम भाव तथा महात्मा गांधी के अहिंसा संदेश का भी उल्लेख किया गया। दरअसल इसका श्रेय भारत के ही एक पादरी को जाता है जिनको उनके प्रभावी भाषण बाद उनको खास प्रार्थना के लिये चुना गया था।
कुछ लोग इसे ईसाई धर्म के नजरिए में अन्य धर्म के प्रति बदलाव के संकेत के रूप में देख रहे हैं। यह एक अलग से चर्चा का विषय है पर इतना जरूर है कि भारत विश्व में अध्यात्मिक गुरु के रूप में जाना जाता है और श्रीगीता के मूल तत्वों को विश्व का कोई अन्य धर्मावलंबी अपने हृदय में स्थान देता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मुख्य बात यह है कि इसे उनकी सदाशयता माने या विद्वता? यकीनन दोनों ही बातें हैं। सदाशयता इस मायने में कि वह भारतीय विचारों के मूल तत्वों को पढ़ने और समझने में अपनी कट्टरता को आड़े आने नहीं देते। विद्वता इस मायने में कि वह उसे समझते हैं।
यहां ईसाई और हिंदूओं समाजों के आपसी एकता से अधिक यह बात महत्वपूर्ण है कि पूरा विश्व अब पुरानी धार्मिक परंपराओं पर अंधा होकर चलने की बजाय तार्किक ढंग से चलना चाहता है। विश्व में आर्थिक उदारीकरण ने जहां बाजार की दूरियां कम की हैं वही प्रचार माध्यमों ने भी लोगों के विचारों और विश्वासों में आपस समझ कायम करने में कोई कम योगदान नहीं दिया है-भले ही उसमें काम करने वाले कुछ लोग कई विषयों में लकीर के फकीर है।
वैसे देखा जाये तो आज जो आधुनिक भौतिक साधन उपलब्ध हैं उनके अविष्कारों का श्रेय पश्चिम देशों के वैज्ञानिकों को ही जाता है जो कि ईसाई बाहुल्य है। ईसाई धर्म को आधुनिक सभ्यता का प्रवर्तक भी माना जा सकता है पर उसका दायरा केवल भौतिकता तक ही सीमित है। हम यहां किसी धर्म के मूल तत्वों की चर्चा करने की बजाय उनके वर्तमान भौतिक स्वरूप की पहले चर्चा करें। अगर हम पूरे विश्व के खान पान रहन सहन और सोचने विचारने का तरीका देखें तो वह अब पश्चिम से प्रभावित है। आज भारत के किसी भी शहर में चले जायें वहा आपको पैंट शर्ट और जींस पहने लोग मिल जायेंगे और यकीनन वह भारत की पहचान नहीं है। खान पान में भी आप देखें तो पता लगेगा कि उस पर पश्चिमी प्रभाव है। इसे ईसाई प्रभाव कहना संकुचित मानसिकता होगी पर यह भी सच है कि पश्चिम की पहचान इसी धर्म के कारण ही यहां अधिक है।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे समाज पर भौतिक रूप से विदेशी प्रभाव हुआ है पर इसके बावजूद हमारी मूल सोच आज भी अपने प्राचीन अध्यात्मिक ज्ञान से जुड़ी हुई है। भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आधुनिक विश्व में भारत को पहचान दी यह भी एक बहुत बड़ी सच्चाई है-इसका विरोध करना रूढ़वादिता से अधिक कुछ नहीं है। अन्य धार्मिक ग्रंथों से श्रीगीता सबसे छोटा ग्रंथ है पर जीवन और सृष्टि के ऐसे सत्य उसमें वर्णित हैं जो कभी नहीं बदल सकते। इस संसार में समस्त जीवों का दैहिक रूप और उसके पोषण के साधन कभी नहीं बदल सकते -हां उसके वस्त्र, वाहन और व्यापर में बदलाव आ सकता है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि सृष्टि द्वारा प्रदत्त देह में मन, बुंद्धि अहंकार तीन ऐसी प्रवृत्तियों हैं जो हर जीव को पूरा जीवन नचाती हैं। इन पर नियंत्रण करना ही एक बहुत बड़ा यज्ञ है। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीगीता का सत्य सार कभी बदल नहीं सकता।
कुछ लोग इतिहास की बातें कर अपने धर्म की प्रशंसा करते हुए दूसरे धर्म की आलोचना करने लगते हैं। ऐसे लोग हर धर्म में हैं ऐसे में ईसाई धार्मिक स्थान पर श्रीगीता की चर्चा एक महत्वपूर्ण घटना है। विश्व में अनेक ऐसे धार्मिक संगठन है जो धर्म के नाम पर भ्रांति फैलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और धार्मिक सिद्धांतों से उनका वास्ता बस इतना ही होता है कि उनके पास पोथियां होती है।
एक पश्चिमी विद्वान ने ही कहा था कि भारतीय की असली शक्ति श्रीगीता का ज्ञान और ध्यान है। उसने यह बात धर्म से ऊपर उठकर प्रमाण के साथ यह बात कही थी। इतिहास लिखने में गड़बड़ियां होती हैं-लेखक अपने नायकों और खलनायकों की अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। इसलिये उसके साथ चिपक कर बैठना पौंगेपन के अलावा कुछ नहीं है।
आखिरी बात श्रीगीता के उल्लेख पर हमें अधिक प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं है। सच बात तो यह है कि हमारा समाज उससे दूर होकर चल रहा है। कहने को सभी कहते हैं कि ‘हमारे लिये वह पावन ग्रंथ हैं’पर उसका ज्ञान कितने लोग धारण करते हैं यह अलग से शोध का विषय है। पश्चिम के लोग भौतिकता से ऊब गये हैं इसलिये वह अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि रखते हैं और उसका महान स्त्रोत श्रीगीता है। पश्चिम के अनेक लोग अपने धर्म से उठकर श्रीगीता के संदेश को सर्वोत्तम मानते हैं। भारत में भी हिंदुओं के अलावा अन्य धर्म के वह लोग श्रीगीता को समझते हैं जो कट्टरता छोड़कर इसका अध्ययन करते हैं। इतना ही नहीं कबीर और रहीम जैसे महापुरुषों के संदेशों में में भी पूरा विश्व रुचि ले रहा है जिनको हम पुरानी बातें कहकर भूलना चाहते हैं। श्रीगीता का संदेश हो या कबीर दर्शन उस पर अपना अधिकार इसलिये जताते हैं क्योंकि उनका सृजन हमारे देश में हुआ पर याद रखें कि ज्ञान किसी की पूंजी नहीं होता और उसका उपयोग कोई भी कर सकता है। हमने परमाणु तकनीकी इसलिये तो नहीं छोड़ी कि उसका पश्चिम में हुआ है-उसकी बिजली बनाने के अनेक संयंत्र हमारे देश में हैं-उसी तरह पश्चिम भी इसलिये तो हमारे अध्यात्म से मूंह नहीं फेरेगा कि उनका सृजक भारत है। ऐसे में उस भारतीय पादरी की प्रशंसा करना जरूरी है जिसने ईसाई धर्म के लोगों को भारतीय अध्यात्म के मूल तत्वों से परिचय कराने का निष्काम प्रयास किया है।
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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