‘जीवन जीने की कला’ का मतलब है कि कभी विचलित न होना-हिन्दी लेख (meaning of art of living-hindi article


कथित रूप से जीने की कला सिखाने वाले एक संत के आश्रम पर गोली चलने की वारदात हुई है। टीवी चैनलों तथा समाचार पत्रों की जानकारी के अनुसार इस विषय पर आश्रम के अधिकारियों तथा जांच अधिकारियों के बीच मतभेद हैं। आश्रम के अधिकारी इसे इस तरह प्रचारित कर रहे हैं कि यह संत पर हमला है जबकि जांच अधिकारी कहते हैं कि संत को उस स्थान से निकले पांच मिनट पहले हुए थे और संत वहां से निकल गये थे। यह गोली सात सो फीट दूरी से चली थी। अब यह कहना कठिन है कि इस घटना की जांच में अन्य क्या नया आने वाला है।
संतों की महिमा एकदम निराली होती है और शायद यही कारण है कि भारतीय जनसमुदाय उनका पूजा करता है। भारतीय अध्यात्म ग्रंथों के प्रचार प्रसार तथा उनके ज्ञान को अक्षुण्ण बनाये रखने में अनेक संतों का योगदान है वरना श्रीमदभागवतगीता जैसा ग्रंथ आज भी प्रासंगिक नहीं बना रहता है।
मगर यह कलियुग है जिसके लिये कहा गया है कि ‘हंस चुनेगा दाना, कौआ मौती खायेगा’। यह स्थिति आज के संत समाज के अनेक सदस्यों में लागू होती है जो अल्पज्ञान तथा केवल भौतिक साधना की पूजा करते हुए भी समाज की प्रशंसा पाते हैं । कई तो ऐसे लोग हैं कि जिन्होंने पहनावा तो संतों का धारण कर लिया है पर उनका हृदय साहूकारों जैसा ही है। ज्ञान को रट लिया है पर उसको धारण अनेक संत नहीं कर पाये। हिन्दू समाज में संतों की उपस्थिति अब कोई मार्गदर्शक जैसी नहीं रही है। इसका एक कारण यह है कि सतों का व्यवसायिक तथा प्रबंध कौशल अब समाज के भक्ति भाव के आर्थिक् दोहन पर अधिक केंद्रित है जिसे आम जनता समझने लगी है। दूसरा यह कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से शिक्षित बुद्धिजीवी अब संतों की असलियत को उजागर करने में झिझकते नहीं। बुद्धिजीवियों की संत समाज के प्रतिकूल अभिव्यक्तियां आम आदमी में चर्चित होती है। एक बात यह भी है कि पहले समाज में सारा बौद्धिक काम संतों और महात्माओं के भरोसे था जबकि अब आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर यह काम ऐसे बुद्धिजीवी करने लगे हैं जो धार्मिक चोगा नहीं पहनते।
ऐसे अनेक बौद्धिक रूप से क्षमतावान लोग हैं जो भारतीय अध्यात्म के प्रति रुझान रखते हैं पर संतों जैसा पहनावा धारण नहीं करते। इनमें जो अध्यात्मिक ज्ञान के जानकार हैं वह तो इन कथित व्यवसायिक संतों को पूज्यनीय का दर्जा देने का ही विरोध करते हैं।
वैसे संत का आशय क्या है यह किसी के समझ में नहीं आया पर हम परंपरागत रूप से देखें तो संत केवल वही हैं जो निष्काम भाव से भक्ति में करते हैं और उसका प्रभाव इतना बढ़ जाता है कि अन्य सामान्य लोग उसने ज्ञान लेने उनके पास आते हैं। पहले ऐसे संत सामान्य कुटियाओं मे रहते थे-रहते तो आज भी कुटियाओं में कहते हैं यह अलग बात है कि वह संगममरमर की बनी होती हैं और उनके वातानुकूलित यंत्र लगे रहते हैं और नाम भी कुटिया या आश्रम रखा जाता है। सीधी बात कहें कि संत अब साहूकार, राजा तथा शिक्षक की संयुक्त भूमिका में आ गये हैं। नहीं रहे तो संत, क्योंकि जिस त्याग और तपस्या की अपेक्षा संतों से की जाती है वह अनेक में दिखाई नहीं देते। यही कारण है कि समाज में उनके प्रति सद्भावना अब वैसी नहीं रही जैसे पहले थी। ऐसे में आश्रम के व्यवसाय तथा व्यवस्था में अप्रिय प्रसंग संघर्ष का कारण बनते हैं पर उनको समूचे धर्म पर हमला कहना अनुचित है।
उपरोक्त आक्रमण को लेकर जिस तरह टीवी चैनलों ने भुनाने का प्रयास किया उसे बचा जाना चाहिए। भारतीय धर्म एक गोली से नष्ट नहीं होने वाला और न ही किसी एक आश्रम में गोली चलने से उसके आदर्श विचलित होने वाले हैं।
बात संतों की महिमा की है तो यकीनन कुछ संत वाकई संत भी हो सकते हैं चाहे भले ही उनके आश्रम आधुनिक साजसज्जा से सुसज्तित हों। इनमें एक योगाचार्य हैं जो योगसाधना का पर्याय बन गये हैं। यकीनन यह उनका व्यवसाय है पर फिर भी उनको संत कहने में कोई हर्ज नहीं। मुश्किल यह है कि यह संत हर धार्मिक विवाद पर बोलने लगते हैं और व्यवसायिक प्रचार माध्यम उनके बयानों को प्रकाशित करने के लिये आतुर रहते हैं। चूंकि यह हमला एक आश्रम था इसलिये उनसे भी बयान लिया गया। .32 पिस्तौल से निकली एक गोली को लेकर धर्म पर संकट दिखाने वाले टीवी चैनलों पर जब वह इस घटना पर बोल रहे थे तब लग रहा था कि यह भोले भाले संत किस चक्कर में पड़े गये। कुछ और भी संत बोल रहे थे तब लग रहा था कि कथित जीने की कला सिखाने वाले संत को यह लोग व्यर्थ ही प्रचार दे रहे हैं। जीवन जीने की कला सिखाने वाले कथित संत की लोकप्रियता से कहीं अधिक योगाचार्य की है और लोग उनकी बातों पर अभी भी यकीन करते हैं। कुछ अन्य संत कभी जिस तरह इस घटना को लेकर धर्म को लेकर चिंतित हैं उससे तो लगता है कि उनमें ज्ञान का अभाव है।
जहां तक जीवन जीने की कला का सवाल है तो पतंजलि योग दर्शन तथा श्रीमदभागवतगीता का संदेश इतना स्वर्णिम हैं कि वह कभी पुरातन नहीं पड़ता। इनके रचयिता अब रायल्टी लेने की लिये इस धरती पर मौजूद नहीं है इसलिये उसमें से अनेक बातें चुराकर लोग संत बन रहे हैं। वह स्वयं जीवन जीने की कला सीख लें जिसमें आदमी बिना ठगी किये परिश्रम के साथ दूसरों का निष्प्रयोजन भला करता है, तो यही बहुत है। जो संत अभी इस विषय पर बोल रहे हैं उनको पता होना चाहिए कि अभी तो जांच चल रही है। जांच अधिकारियों पर संदेह करना ठीक नहीं है। जीवन जीने की कला शीर्षक में आकर्षण बहुत है पर उसके बहुत व्यापक अर्थ हैं जिसमें अनावश्यक रूप से बात को बढ़ा कर प्रस्तुत न करना और जरा जरा सी बात पर विचलित न होना भी शामिल है। 
—————————–

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Post a comment or leave a trackback: Trackback URL.

एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s

%d bloggers like this: