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मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ।
विमुखः बान्धवाः यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-मरे हुए मनुष्य की देह को उसके बंधु लोग मिट्टी का मानकर उसे गाड़ देते हैं या जलती हुई लकड़ियों में छोड़ जाते हैं। उस समय धर्म ही जीव का अनुगमन करता है।
एकःप्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते।
एकोऽनुभुंक्ते सृकृतमेक ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः।।
हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में हर मनुष्य अकेले आता और जाता है। उसे अपने अच्छे और बुरे कर्म का फल भी अकेले ही भुगतना है। यह अकाट्य सत्य है।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या –चाहे कोई अपने को कितना भी समझाये पर सच यह है कि जब तक देह है सभी लोग एक दूसरे के आत्मीय बनते हैं पर जैसे ही इसमें से आत्मा निकल गया वैसे ही यह बंधु बान्धवों के लिये यह देह मिट्टी का ढेला हो जाती है। वह इसे गाड़कर या जलती लकड़ियों में छोड़कर मुंह फेर चले जाते हैं। कहने कहा अभिप्राय यह है कि आदमी इस धरती पर अकेला ही है। वह कर्म करते हुए धन संग्रह यह सोचकर करता है कि वह अपने और परिवार का भला कर रहा है? अनेक लोग तो धन के लोभ में कदाचरण करते हुए भी नहीं हिचकिचाते। अपने साथ परिवार, रिश्तेदार और मित्रों के होने की अनुभूति उनके अंदर यह भाव नहीं आने देती कि वह हर प्रकार के अपराध के लिये अकेले ही जिम्मेदार हैं। आपने देखा होगा कि अनेक लोग भ्रष्टाचार, हत्या, तथा अन्य अपराधों में अकेले ही फंसते हैं और जिनके लिये काम करने का दावा करते हैं वह बाहर ही बैठे रहते हैं। परिवार, रिश्तेदार, या मित्रों में कोई भी आदमी उनके साथ कारावास में नहीं जाता।
यह एक अंतिम सत्य है कि यहाँ इन्सान अकेला आया है और अकेला ही जाएगा। हम इस सत्य को भुलाकर अपने को धोखा देते हैं।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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