पहरेदार और कातिल-हास्य कविताएँ (paharedar aur qatil-hasya kavitaen)


खज़ाने की सलामती का जिम्मा हैं जिन पर
वही उसे लुटा रहे हैं,
लुटेरों की महफिल में भी
अपने लोगों को जुटा रहे हैं।
दलालों के ठगने से दर्द नहीं होता
यहां तो पहरेदार ही
कातिलों के लिये मजबूरों को उठा रहे हैं।
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जिंदा लोगों की जिंदगी के
जज़्बातों से खेलना व्यापार के लिये जरूरी है,
इसलिये मरने वालों पर आंसु बहाना
सौदागरों की मजबूरी है।
ज़माने का यही रिवाज है
जिंदा प्यासे इंसान को पानी कोई पिलाता नहीं
जन्नत में बैठे पुरखों के लिये
लुटाते लोग समंदर
कोई नहीं जानता जिसके बारे में
धरती से उसकी कितनी दूरी है।
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कवि लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग दीपक भारतदीप की हिंदी एक्सप्रेस पत्रिका पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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टिप्पणियाँ

  • seema gupta  On 08/07/2010 at 9:09 पूर्वाह्न

    दोनों हास्य कविता रोचक लगी regards

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