राष्ट्र भाषा का महत्त्व समझने पर ही समाज में एकता संभव-हिंदी दिवस पर लेख


          14 सितंबर 2014 को हिन्दी दिवस है यह बात मातृभाषा बोलने, लिखने तथा समझने वाले अधिकतर बुद्धिजीवियों को मालुम है।   इस लेखक ने अपने ब्लॉग पर अनेक लेख लिखे हैं इसलिये उन पर अनेक पाठक आ रहे है।  हिन्दी के महत्व शब्द से सर्च इंजिनों पर खोज अधिक होती दिखती है। हिन्दी के महत्व पर लिखे गये एक लेख पर अनेक प्रकार की प्रतिक्रियायें

प्राप्त हो रही हैं। उसमें पुराने लेख परक अक्सर एक शिकायत आती है कि उसमें आपने हिन्दी का महत्व तो बताया ही नहीं।  हमने उनको नजरअंदाज किया पर आज एक प्रतिक्रिंया मिली कि आप राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी का महत्व बतायें तो अच्छा रहेगा।  उस पाठक की इस प्रतिकिया ने इस लेख को लिखने की प्रेरणा दी।

                        राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में हिन्दी के महत्व का बखान बहुत लोगों ने किया है पर शायद ही कोई यह बता पाया हो कि आखिर राष्ट्रीय एकता की जरूरत किसे और क्यों है? इस एकता की जरूरत समाज को है या व्यक्ति को है? हमारा यह प्रश्न अटपटा जरूर लगता है पर चिंत्तन के संदर्भ में अत्यंत महतवपूर्ण है।  हमारे यह बुद्धिजीवियों का झुण्ड  अब राष्ट्र, प्रदेश, शहर, मोहल्ला, परिवार और व्यक्ति के क्रम में सोचता है और यही कारण है कि वह राजकीय संस्थाओं से ही हिन्दी के विकास का सपना देखता है।  हम व्यक्ति से राष्ट्र के क्रम में सोचते हैं। हमारा मानना है कि व्यक्ति मजबूत हो तो ही राष्ट्र मजबूत हो सकता है।  इस मजबूती को आधार  अपनी भूमि, भाव तथा भाषा के प्रति विश्वास दिखाने और उसे निभाने से ही मिल सकता है।  हम आज देश में अनेक प्रकार के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक संकटों के आक्रमण का सामना कर रहे हैं।  समाज डोलता दिख रहा है। यही स्थिति हमारी राष्ट्रभाषा की भी है।  हमारा मानना है कि इस संकट का कारण यही है कि हम अपनी भाषा के प्रति उदासीन रवैया अपनाये हुए हैं  हर कोई हिन्दी  के विकास की बात कर  रहा है पर पुरस्कारों तथा सम्मान का मोह ऐसा है कि लोग अपनी भाषा की सच्चाई के प्रति उदासीन है। आखिर हिन्दी के प्रति हमें सतर्क क्यों होना चाहिये। इसी उत्तर की खोज ही राष्ट्रीय एकता में हिन्दी का महत्व सिद्ध कर सकती है।

                        जब तक सरकारी नौकरी ही इस देश में मध्यम वर्ग का आधार था तब सरकारी कामकाज में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व था। उस समय इसकी आलोचना के जवाब में कहा जाता था कि हिन्दी को रोजगारमूलक बनाया जाना चाहिये।  कालांतर में  हिन्दी में कामकाज का प्रभाव बढ़ा। अब मध्यम वर्ग के लिये नोकरियां सरकारी क्षेत्र में कम हैं और निजी क्षेत्र इसके लिये आगे आता जा रहा है।  ले-देकर बात वहीं आकर अटकती है कि वहां हिन्दी वाले को कोई सफेद कॉलर वाली नौकरी नहंी मिल सकती।  यही कारण है कि आज की युवा पीढ़ी जो नौकरी का लक्ष्य लेकर पढ़ रही है वह अंगेजी के साथ आगे बढ़ रही है।  प्रश्न यह है कि क्या वह बिना हिन्दी के कितना आगे बढ़ पायेगी।  एक बात साफ कर दें कि नौकरी में योग्यता एक अलग मायने रखती है।  संभव है कि ग्यारहवीं पास अंग्रेजी न जानने वाला कहीं प्रबंधक बन जाये और उसके नीचे अंग्रेजीदां इंजीनियर काम करें।  प्रबंध कौशल अपने आप में एक अलग विधा है और जिनमें यह गुण है उनके लिये अंग्रेजी कोई मायने नहीं रखती। ऐसे में कहीं अगर किसी संस्थान में शक्ति का कें्रद्र किसी हिन्दी भाषी के पास रहा तो उसे अपनी भाषा में बातकर प्रभावित किया जा सकता हैं। सभी जानते हैं कि भारत में विकास के लिये कभी चाटुकारिता भी करनी होती है जो केवल हिन्दी में सहज हो सकती है।  ऐसे में व्यक्ति को अपनी विकास यात्रा के लिये हिन्दी भाषा न होने या अल्प होने से बाधा लगेगी तो वह क्या करेगा? अगर हिन्दी के सहारे कोई विकास करता है यकीनन वह राष्ट्र का ही कल्याण करेगा! उसका विकास अंततः कहीं न कहंी राष्ट्र के प्रति उसका आत्मविश्वास बढ़ाता है जिससे वह दूसरे लोगों के साथ एक होकर रहना चाहता है। 

                        दूसरी बात यह है कि हमारे देश में समय के साथ राष्ट्रीय स्तर पर इधर से उधर रोजगार के कारण पलायन बहुत  हुआ है। पहले हम अपने देश का मानसिक भूगोल समझें।  हमारा पूर्व क्षेत्र वन के साथ खनिज, पश्चिम उद्योग, उत्तर प्रकृति के साथ ही मनुष्य तथा दक्षिण बौद्धिक संपादा की दृष्टि अत्यंत संपन्न हैं। हम यहां उत्तर की  प्रकृति तथा मनुष्य संपदा की बात करेंगे। दरअसल हमारे उत्तरी मध्य क्षेत्र में कृषि संपदा है तो यहां जनसंख्या घनत्व भी अधिक है।  जहां जहां बौद्धिक रूप से श्रेष्ठता का प्रश्न हों वहां दक्षिणवासी लोगों का  कोई जवाब नहीं तो श्रम का प्रश्न हो तो उत्तर भारतीय लोगों को लोहा माना जाता है। खासतौर से बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से श्रम शक्ति पूरे भारत में फैली है। जिस तरह भारत से बाहर गये श्रमशील मनुष्यों ने हिन्दी का विदेश में विस्तार किया वैसे ही इन हिन्दी भाषी श्रमिकों ने भारत के अंदर ही हिन्दी का विस्तार किया है।  यहां यह भी बता दें भारत के बाहर नौकरी के लिये ही अं्रेग्रेजी का महत्व है वरना व्यापार में केवल बुद्धि की ही आवश्यकता होती है।  भारत के अनेक लोग ऐसे भी हैं जो गुलामी के समय में  विदेशों में गये और अंग्रेजी न आने के बावजूद व्यापार किया।  वह सफल और बडे व्यापारी बने।  पंजाब से गये अनेक लोगों ने बिना अंग्रेजी के अपना काम किया। स्थिति यह है कि अनेक लोग तो यह कहने लगे हैं कि विदेशों में कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां हिन्दी का प्रभाव साफ दिखता है।  इतना ही नहीं वहां आपसी संपर्क में हिन्दी का महत्वपूर्ण योगदान है।  हम भारत में भी यही देख सकते हैं।  अनेक गैर हिन्दी प्रदेशों में जाने पर वहां हिन्दी में वार्तालाप किया जा सकता है।  कहीं कहीं तो अंग्रेजी का ज्ञान न होने वालेे भी हैं पर हिन्दी में वहां भी काम हो जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि भले ही कोई हिन्दी न जानता हो पर उससे आप अपनी भाषा के कारण आत्मीय का व्यवहार तो पा ही सकते हो जो कि समय पड़ने पर अत्यंत आवश्यक होता है।

            हम देख रहे हैं कि भारत में कंपनियां अपना विस्तार सभी जगह कर रही है। वह चाहें या न चाहें उन्हें शारीरिक काम करने वाले लोगों  की आवश्यकता हो्रती है। तय बात है कि अंग्रेजी वालों में शारीरिक क्षमता अधिक नही हो्रती। अब सिथति यह भी हो सकती है कि कहीं प्रबंधक अंग्रेजीदां है तो बौद्धिक काम वालों को उसे प्रभावित करने के लिये अंग्रेजी का आवश्यकता पड़ सकती है पर अगर कहीं शारीरिक श्रम की बहुलता है तो  प्रबंधक को   भी श्रमिकों से काम लेने के लिये  हिन्दी पूर्णरूपेश आनी ही चाहिये। कहनें का मलब यही है कि पूंजी, श्रम और बुद्धि का तारतम्य अब इस देश में केवल हिन्दी भाषा से जम सकता है। औद्योगिक विकास के लिये तीनों की आवश्यकता होती है।  श्रम शक्ति पर निर्भर रहने वाले पढ़ाई नहीं करते या कम करते हैं उनसे काम लेने के लिये पूंजी और बौद्धिक वर्ग को उसकी भाषा आना चाहिये।

            हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि हम जब कृषि पर निर्भर थे तब जितनी हिन्दी भाषा की आवश्यकता थी। उससे ज्यादा अब है।  पूजी, बुद्धि और श्रम का तारतम्य अब हिन्दी के बिना संभव नही है। तय बात है कि जब तीनों के बीच एकरूपता होगी तो उनसे जुड़े तीनों व्यक्तियों को भी उसका प्रतिफल मिलेगा।  तब उनमें स्वयमेव एकता होगी। अगर भाषा संबंधी परेशानी रही तो तो तीनों परेशान होंगे।  अतः उनमें हिन्दी भाषा ही एकता ला सकती है। यहां हम बता दें एकता से हमारा आशय व्यक्तियों की एकता से ही है। खालीपीली राष्ट्रीय एकता का नारा लगाने वालो  में हम नहीं है।  इससे ज्यादा हम राष्ट्रीय एकता पर हम क्या लिखें? वैसे हम लिख तो गये पर यह तय नहीं कर पाये कि हमने हिन्दी का महत्व पूरी तरह से बताया कि नहीं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

४.दीपकबापू कहिन
५,हिन्दी पत्रिका
६,ईपत्रिका
७.जागरण पत्रिका

Post a comment or leave a trackback: Trackback URL.

टिप्पणियाँ

  • Suman  On 02/06/2014 at 11:07 पूर्वाह्न

    I need an essay on “aaj jo hamare desh me gandgi hai aur sab log hindi ko chodkar english ko apna rahe hai” plz help me.

  • Tarasha  On 31/08/2014 at 9:54 अपराह्न

    Helped me a lot!!!!
    Thanxxxxxx

  • mawa  On 02/05/2015 at 2:56 अपराह्न

    hi

एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s

%d bloggers like this: