घर में भर लिया
लोहे, लकडी और प्लास्टिक का
मनुष्य ने बदबूदार सामान
बेचैन मन के साथ
बाहर चैन की तलाश करता है।
पैसे के जोर पर
बनाता सर्वशक्तिमान के दरबार
नकली तारे लाकर
अपने घर का आकाश भरता है।
कहें दीपक बापू मन का खेल
योग खिलाड़ी ही जाने
नियंत्रण में हो तो
गेंद की तरह आगे बढ़ायें
नहीं तो दौड़ाकर
माया की तरफ
देह का नाश करता है।
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अपना खून सभी को
प्यारा है
पराया पानी लगता है।
दूसरे के दर्द पर
झूठे आंसु बहाते
या हास्य रस बरसाते
अपने दिल पर लगे भाव जैसा
नहीं सानी लगता है।
कहें दीपक बापू औपचारिकता से
निभाते हैं लोग संबंध,
नहीं रहती आत्मीयता की सुगंध
भावनाओं की आड़ में
हर कहीं शब्दों का
दानी ही सभी को ठगता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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टिप्पणियाँ
“अपना खून -खून दूसरे का खून पानी “क्या बात है ?
यहाँ से कविता में और भी जोश आना चाहिए था।
सुधीर सिंह,राष्ट्रीय संयोजक,
मंज़िल ग्रुप साहित्यिक मंच ,दिल्ली
On Thu, Dec 25, 2014 at 8:31 PM, “*** दीपक भारतदीप की हिंदी