मन और माया की चाल योग से जानना संभव-हिन्दी चिंत्तन लेख(man aur maya ki chal yog se hi janna sambhav-hindi thought article)


            हमारा मानना है कि मन, माया और मय के विचित्र खेल को योगी ही समझ सकता है। यह तीनों उतार चढ़ाव या कहा जाये अस्थिर प्रकृति के हैं। मन पता नहीं कब  कहां और कैसे मनुष्य को चलने के लिये बाध्य कर दे। माया पता नहीं कब हाथ आये और निकल जाये।  मय का नशा चढ़ता है फिर उतर भी जाता है। अंतर इतना है कि मनुष्य देह में स्थित मन ही है जो माया और मय के पीछे भागता है।  इस तरह उसे सहज लगता है।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन में कहा जाता है कि मन पर नियंत्रण कर उसका स्वामी होने मनुष्य  प्रसन्न रह सकता है पर वह इसके विपरीत स्वयं बंधुआ बन जाता है जिससे जीवन में उसकी स्थिति उस मोर की तरह हो जाती है जो नाचने के बाद अपने गंदे पांव देखकर रोता है। मनुष्य भी एक के बाद एक भौतिक उपलब्धि प्राप्त करता है पर तन और मन पर आयी थकावट उसे कभी अपनी ही सफलता का पूर्ण आनंद नहीं लेने देती। एक सामान मिलने पर वह  दूसरी, तीसरी और चौथी की कामना होने से  वह भागता रहता है।  चिंत्तन के लिये उसे समय ही नहीं मिलता। सामानों से सुख नहीं मिलता यह अंतिम सत्य है।  सुख कोई बाहर लटकी वस्तु नहीं है जो हाथ लग जाये।  सुख तो एक अनुभूति जो अंदर प्रकट होती है।

            इस संसार को समझने के लिये बाह्य विषयों पर दक्षता से अधिक अपनी ही इस देह रूपी क्षेत्र को जानने की आवश्यकता है। यह योग साधना से ही पूरी हो सकती है।  योग साधना का विषय ऐसा है जिसमें एक बार अगर सिद्धि मिल जाये तो फिर संसार के सभी विषयों का सत्य सहजता से समझा जा सकता है।  एक योग साधक के खाने का भूख से और पानी पीने का प्यास से संबंध नहीं होता। वह  भोजन दवा की गोली या कैप्सूल की तरह यह सोचते हुए उदरस्थ करता है कि कहीं आगे भूख आक्रमण न करे।  वह समय तय कर लेता है कि निश्चित समय पर वह भोजन करेगा चाहे भूख लगे या नहीं।  वह पानी भी दवा की तरह पीता है ताकि उससे प्राणवाणु सहजता से देह में प्रवाहित होती रहे।  एक पारंगत योग साधक भोजन और जल का सेवन करते हुए भी भूख प्यास के अधीन नहीं होता। इससे वह सांसरिक विषयों में भी दृढ़ता पूर्वक निर्लिप्त भाव से स्थित हो जाता है।

            मनुष्य के बाह्य चक्षु सदैव बाहर के विषयों पर केंद्रित रहते हैं इसलिये बुद्धि भी केवल उन्हीं का चिंत्तन करती है।  मन भी विषयों में इतना अभ्यस्त हो जाता है कि मनुष्य परमात्मा की कृपा से प्राप्त इस देह का महत्व नहीं समझ पाता।  देह के बाह्य विकार जल और साबुन से नष्ट किये जा सकते हैं पर अंदर स्थित दोषों के निवारण का उपाय केवल योग साधक ही कर सकता है। सच यह है कि देह के बाह्य विकार भी आंतरिक दोषों से उत्पन्न होते हैं।  आंतरिक दोषों से मन और बुद्धि भ्रमित होती है और अंततः तनाव चेहरे पर प्रकट होता ही है। ऐसा नहीं है कि योग साधक कभी विकार या तनाव ग्रस्त नहीं होते पर वह आसन, प्राणायाम तथा ध्यान की कला से उनका निवारण कर लेते हैं।

            हमारे देश में योग साधना सिखाने वाले बहुत से विद्वान और संस्थान सकिय  हैं पर भारतीय योग संस्थान के शिविरों में  सक्रिय विशारद निष्काम भाव से जिस तरह यह काम करते हैं वह प्रशंसनीय है। सबसे बड़ी बात यह कि वहां निशुल्क सेवा होती है।  शुल्क लेना और देना माया का ही रूप है। भारतीय योग संस्थान के साथ जुड़ने अनेक साधकों के विभिन्न कार्यक्रमों मिलने जो सुखद अनुभव होता उसका शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है।  इस तरह का सत्संग दुर्लभ होता है।  हम अन्य कार्यक्रमों में सामान्य लोगों से मिलते हैं तो सांसरिक विषयों पर उबाऊ चर्चा होती है पर योग साधकों से मिलने पर हुई योग विषय पर चर्चा अध्यात्मिक शांति मिलती है। तब यह ज्ञान सहज रूप से होता है कि माया, मन और मय के खेल से बचने के लिये योग साधना से बेहतर उपाय नहीं हो सकता।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak Raj kurkeja “Bharatdeep”

Gwalior Madhya Pradesh

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

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