Category Archives: अध्यात्म

भर्तृहरि नीति शतक-अपने स्वार्थ हो तो भी गजराज की तरह व्यवहार करें


      इस संसार में भूख सभी को लगती है पर भोजन पाने और करने के सभी के तरीके अलग हैं।  अपना कमाकर खाने वाले लोग जहां जीवन में आत्मविश्वास से भरे होते हैं वही दूसरे से कर्ज, भीख अथवा मदद मांगने वाले लोग हमेशा ही हृदय में दीनता का भाव लेकर जीते हैं। कहा जाता है कि जैसा खायें अन्न वैसा ही होता है मन। इसका आशय अन्न के दानों का स्वरूप ही नहीं वरन् उसके लिये अर्जित धन से साधन से भी जोड़ना चाहिये।  यह भी कहा जाता है कि परमात्मा पेट देने से ही पहले अन्न के दानों पर खाने वाले का नाम लिख देता है। यह ज्ञान रखने वाले लोग आत्मविश्वास से जीवन में अपना हर काम करते हैं। इसके विपरीत जो मन में कर्ता का भाव लिये होते हैं उन्हें परमात्मा की इस सांसरिक कृति पर यकीन नहीं होता इसलिये अपनी आवश्यकताओं के लिये वह अतिरिक्त सक्रियता दिखाते हैं। उनके मस्तिष्क में चिंताओं का ढेर भरा होता है।  जिसके चलते न केवल वह दैहिक बल्कि मानसिक रूप से भी अस्वस्थ हो जाते हैं।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

——————

ङ्गल चालनमधरश्चरणावपातं भूमी निपत्य वदनोदर दर्शनं च।

श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्वते।।

     हिन्दी में भावार्थ-कुत्ता भोजन देने वाले के आगे पूंछ हिलाकर उसके सामने मुंह वह पेट दिखाते हुए लोटपोट उसके  अपनी दीनता प्रदर्शित करता है जबकि हाथी उसे गंभीरता से देखता है और कई बार मनाने पर ही भोजन ग्रहण करता है।

कृमिकुलचित्तं लालक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितमु निरुपमरसं प्रीत्या खादनन्नरास्थि निरामिषम्।

सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्यं विलोक्य न शंकते न हि गणवति क्षुद्रो जन्तु पिरग्रहफलगुनाम्।।

हिन्दी में भावार्थ-कीड़ों से युक्त, रसहीन, दुर्गंध से भरी, स्वादरहित, घृणित हड्डी को पकड़ कर बहुत उत्साह से चबाता है। उस सयम अपने पास आये देवता की भी उसे परवाह नहीं होती।

      हम देख रहे हैं कि हमारा परंपरागत भारतीय समाज पूरी तरह से बिखर चुका है।  यह कहा जरूर जाता है कि हम एक संगठित भारतीय समाज के सदस्य हैं पर  सभी को पता है कि यह दावा एकदम खोखला है।  सभी दावा करते हैं कि वह किन्हीं जातीय, धार्मिक, भाषाई अथवा विशिष्ट समाज के सदस्य होने के कारण सुरक्षित अनुभव करते हैं पर सच यह है किसी को हृदय से अपनी ही बात पर ही यकीन नहीं होता है।  पाश्चात्य वस्तुओं को अपनी दैनिक तथा सांस्कारिक आवश्यकताओं के मूल से जोड़ने वाले हमारे  भारतीय समाज का मनोबल गिरा हुआ है।  हम भ्रष्टाचार तथा बेईमानी के विरुद्ध प्रत्यक्ष रूप से अभियान छेड़ने की बात तो करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि इसमें लिप्त लोग इसी भारतीय समाज के सदस्य हैं।  भ्रष्टाचार और बेईमानी में लगे लोगों को दूसरे का अपराध तो दिखता है पर अपना धन का लोभ इस आशंका के मारे नहीं छोड़ पाते कि अगर संपन्नता नहीं है तो समाज उनको पूछेगा भी नहीं-यही नहीं वह लोग अपने बेईमानी को मेहनत की कमाई मानने का तर्क स्वयं को देकर ही समझाते हैं।

      कहने का अभिप्राय यह है कि हम दूसरे की तरफ न देखें वरन् अपने व्यवहार, विचार तथा व्यक्तित्व पर दृष्टिपात करें।  अगर हम दृढ़ता पूर्वक सत्य का मार्ग लेंगे तो कभी जीवन में कुंठा का अनुभव नहीं होगा।  जो व्यक्ति सिद्धांत पर दृढ़ रहता है उसके मुख मंडल पर तेज स्वतः प्रकट होता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

 

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

 

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग

3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

 5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 

धर्म निंदा विरोधी कानून से ठेकेदारों को आसरा-हिन्दी लेख


पाकिस्तान में एक ईसाई महिला ने राष्ट्रपति से क्षमादान की अपील की है। उस पर ईश निंदा के तहत मामला दर्ज था और जाहिर है सजा मौत से कम क्या हो सकती है? उस पर तरस आया क्योंकि उसकी स्थिति इस दुनियां के शर्म की बात है? आखिर यह ईश निंदा का मामला क्या है? पाकिस्तान तो मज़हबी राष्ट्र होने के कारण बदनाम है पर दुनियां के सभ्य देश भी धार्मिक आलोचना को लेकर असंवेदनशील है। जब अपने देश में देखता हूं तब यह सोचता हूं कि किसी भी धर्म की आलोचना किसी को भी करने की छूट होना चाहिए! अगर किसी धर्म की आलोचना या व्यंग्य से बवाल फैलता है तो रचनाकार पर नहीं बल्कि उपद्रव करने वालों पर कार्यवाही करना चाहिए। कुछ लोग शायद इसका विरोध करें कि अभिव्यक्ति की सुविधा का लाभ इस तरह नहीं उठाना चाहिए कि दूसरे की धाार्मिक आस्था आहत हो।
जिन लोगों ने इस लेखक के ब्लाग पढ़े हैं उनको पता होगा कि उन पर हिन्दू धर्म से संबंधित बहुत सारी सामग्री है। महापुरुषों के संदेश वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या सहित अनेक पाठ प्रकाशित हैं! सामान्य भाषा में कहें कि यह लेखन धार्मिक प्रवृत्ति का है और आस्था इतनी मज़बूत है कि इंटरनेट पर हिन्दू धर्म की निंदा पढ़कर भी विचलित नहीं होती। वजह साफ है कि अपने धर्म के मूल तत्व मालुम है और यह भी कि आलोचक तो छोड़िये धर्म के प्रशंसक भी उनको नहीं समझ पाते। आलोचक भारतीय धर्मग्रंथों के वही किस्से सुनाकर बदनाम कर रहे है जिनको पढ़ते सुनते भी तीस बरस हो गये हैं। मुख्य बात तत्व ज्ञान की है जिसे भारतीय क्या विदेशी तक भागते नज़र आते हैं।
ईश या धर्म निंदा पर हमला या कार्यवाही करना इस बात का प्रमाण है कि हमारी आधुनिक सभ्यता पहले से कहीं अधिक असहिष्णु हुई है। अगर आज कबीरदास जी होते तो पता नहीं उन पर कितने मुकदमे चलते और शायद ही उनको कोई वकील मुकदमा लड़ने के लिये नहीं मिलता। स्थिति यह है कि हम उनके कई दोहे इसलिये नहीं लिखते क्योंकि असहिष्णुता से भरे समाज में ऐसी लड़ाई अकेले लड़ना चाणक्य नीति की दृष्टि से वर्जित है।
आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है? दरअसल आधुनिक लोकतंत्र में धर्म के ठेकेदारों के माध्यम से समाज को नियंत्रित किया जा रहा है। वह समाज की बजाय राज्य से अधिक निकट हैं और उसकी वजह से उनको अपना नियंत्रण करना आसान लगता है। सर्वशक्तिमान के किसी भी स्वरूप के नाम का दरबार बना लो, चंदा आयेगा, राज्य भी सहायता देगा और जरूरत पड़ी तो बागी पर ईश निंदा का आरोप लगा दो। सच बात तो यह है कि महापुरुषों के नाम पर धर्म चलाने वाले ठेकेदार अपनी राजनीति कर रहे हैं। आखिर ईश निंदा को खौफ किसे है? हमें तो नहीं है। मनुस्मृति पर इतनी गालियां लिखी जाती हैं पर इस लेखक ने उनके बहुत सारे संदेशों को पढ़ा है जो आज भी प्रासांगिक है उनको छांटकर व्याख्या सहित प्रकाशित किया जाता है। मनुस्मृति के समर्थकों का कहना है कि उसमें वह सब बातें बाद में जोड़ी गयी हैं जिनकी आलोचना होती है। इसका मतलब साफ है कि किसी समय में राज्य की रक्षा की खातिर ही विद्वानों से वह सामग्री बढ़ाई गयी होगी।
यह आश्चर्य की बात है कि जो पश्चिमी देश पाकिस्तान के खैरख्वाह हैं वह उसे इस कानून को हटाने का आग्रह नहीं करते क्योंकि उनको भी कहीं न कहीं उसके धर्म की सहायता की आवश्यकता है। उसके सहधर्मी देशों में तेल के कुऐं हैं जो इस तरह के कानूनों के हामी है और पश्चिमी देशों के तेल तथा धन संपदा के मामले में सहायक भी हैं। इतना ही नहीं पश्चिमी देश भी अपने ही धर्म की आलोचना सहन नहीं  कर पाते। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि वह आधुनिक सभ्यता के निर्माण के बहाने अपना धर्म बाज़ार के माध्यम से ला रहे हैं।
आखिर धर्म के ठेकेदार ऐसा क्यों करते हैं? अपने धर्म की जानकारी किसी ठेकेदार को नहीं है। समयानुसार वह अपनी व्याख्या करते हैं। अगर बागी कोई माफिया, नेता या दौलत वाला हुआ तो उसके आगे नतमस्तक हो जाते हैं पर आम आदमी हुआ तो उस राज्य का दंडा चलवाते हैं। यह अलग बात है कि आज समाज के शिखर पुरुष अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं धर्म के ठेकेदारों को समाज पर लादते हैं जो उनके हितैषी हैं। दूसरी बात यह भी है कि भारतीय अध्यात्म को छोड़ दें तो विश्व की अधिकतर विचाराधारायें नये संदर्भों के अप्रसांगिक होती जा रही हैं। भारतीय अध्यात्म में श्रीमद्भागवत गीता ही एक ऐसा ग्रंथ है जो आज भी निर्विवाद है। उसके बाद आता है पतंजलि योग दर्शन का नंबर। रामायण, वेद, उपनिषद, पुराण, रामचरित मानस तथा अन्य बहुत सारे ग्रंथ हैं पर अपने रचनाकाल के परिप्रेक्ष्य में उनकी संपूर्ण सामग्री भले ही श्रेष्ठ रही हो पर कालांतर में समाज के बदलते स्वरूप में उनमें वर्णित कई घटनायें तथा दर्शन अजीब लगता है। संभव है कि रचना के बाद कुछ ग्रंथों में बदलाव हुआ हो या फिर उनका भाव वैसा न हो जैसा हम समझते हैं, पर उनकी आलोचना होती है। होना चाहिए और इसका उत्तर देना आना चाहिए। वेदों की आलोचना पर तो इस लेखक का स्पष्ट कहना है कि श्रीमद्भागवत गीता में सभी ग्रंथों का उचित सार शामिल हो गया है इसलिये उसके आधार पर वेदों का अध्ययन किया जाये। मज़े की बात यह है कि हिन्दू धर्म का कोई भी आलोचक श्रीमद्भागवत गीता को नहीं पढ़ता जिसमें भेदात्म्क बुद्धि को अज्ञान का प्रतीक माना गया है। मतलब मनुष्य में जाति, धर्म, लिंग, भाषा, धन तथा शिक्षा के आधार पर भेद करना और देखना ही तामस बुद्धि का प्रमाण है।
भारत में ऐसे सारे कानूनों पर भी विचार होना चाहिए जो धार्मिक आलोचना को रोकते हैं। यह जरूरी भी नहीं है कि किसी धर्म की आलोचना उस धर्म का ही आदमी करे दूसरे को भी इसका अधिकार होना चाहिए। दंगे फैलने की आशंका का मतलब यह है कि कहींे न कहीं हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि राज्य ऐसे झगड़ों से निपटने के लिये तैयार नहीं है। धार्मिक ठेकेदार धर्म के नाम पर मलाई तो खाते हैं पर आलोचना का प्रतिकार करने की क्षमता उनमेें नहीं है। इस समय देश में जो वातावरण है वह दमघोंटु बना दिया गया है। कहीं किसी को तस्वीर से एतराज है तो कहीं किसी को निबंध से चिढ़ होती है। जो दावा करते हैं कि हमारा समाज नयापन और खुलापन ले रहा है वह इस बात को भूल जाते हैं कि संत कबीर और रहीम ने बहुत पहले ही सभी धर्मो और उनके ठेकेदारों पर उंगली उठाई है। आज की पीढ़ी खुलेपन वाली है तो फिर यह धार्मिक आलोचना पर रोक लगाने का काम क्यों और कौन कर रहा है? हमारा मानना है कि जो धार्मिक ठेकेदार मलाई खा रहे हैं उनको इन आलोचनाओं के सामने खड़ा कर उसका मुकाबला करने के लिये प्रेरित या बाध्य करो। यह क्या हुआ कि शंाति भंग की आशंका से ऐसे मामलों में कार्टूनिस्टों, लेखकों और पत्रकारों पर कार्यवाही की जाये?
भारत के बुद्धिजीवी पाकिस्तान की कार्यप्रणाली पर टिप्पणियां तो करते हैं पर अपने देश की स्थिति को नहीं देखते जहां धर्म के नाम पर आलोचना रोककर अभिव्यक्ति को आतंकित किया जा रहा है। पाकिस्तान में तो यह आम हो गया है। अगर समाचार पत्रों में छपी विभिन्न खबरों को देखें तो ऐसा लगता है कि लोग अपनी धार्मिक किताब को कबाड़ी के यहां बेच देंगे। उसमें अगर अपने धर्म का आदमी सेव बेचे तो कोई बात नहीं अगर दूसरा बेचे तो लगा दो ईश निंदा का आरोप। मज़े की बात यह कि यह खबर भारत में पढ़ी है पर उसमें ईश निंदा लिखी है पर यह नहीं बताया कि वह किस तरह की है। स्पष्टतः डर की वजह से यह छिपाया गया है। यह खौफ खुलेपन के दावे की पोल खोलकर रख देता है। क्या यह माना जाये कि इस देश में दो तरह के लोग रहते हैं एक असहिष्णु और दूसरे डरपोक।
—————

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

—————————–
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
usdtad aur shagird
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

अयोध्या में राम मंदिर प्रचार माध्यमों ने खूब भुनाया-हिन्दी लेख (ram mandir in ayodhya and hindi media-hindi article)


कभी कभी तो ऐसा लगता है कि आम लोगों का ध्यान अन्य विषयों से हटाकर राष्ट्र या समाज की तरफ लगाने के लिये ज्वलंत मुद्दे फिक्स होते हैं। नयी दुनियां में आधुनिक लोकतंत्र में समाज सेवकों, सौदागरों तथा प्रचार प्रबंधकों का संगठित समूह लोगों को बहलाये रखने के लिये अपने साथ किराये के बुद्धिजीवी भी रखने भी लगा है जो अपने से संबंधित विषय का कोई ज्वलंत मुद्दा सामने आने पर संगठित प्रचार माध्यमों में अपनी बात कहने के लिये सजधजकर आते है। जिस तरह राजनीति, व्यवसाय, फिल्मों के साथ ही कला साहित्य के क्षेत्र में में व्यक्तिवाद तथा वंशवाद का बोलबाला प्रारंभ हो गया है। वंशवाद और व्यक्तिवाद अब बौद्धिक क्षेत्र में भी स्थापित किया जा रहा है।
प्रसंग रामजन्म भूमि के संबंध में अदालती फैसले का है। जिस पर भारतीय प्रचार माध्यम पुराने चेहरों को सामने लाकर उनकी प्रतिक्रिया जानने का प्रयास करते रहे। इतना ही नहीं एक चैनल में एक प्रतिष्ठित वकील के पुत्र वकील को ही न्यायिक समीक्षा के लिये बुलवा लिया। उन महाशय ने अपने विचार रखे भी पर तब ऐसा लग लगा कि अपने वकील पिता की वजह से वह उस समय कैमरे के सामने हैं। वरना दूसरे विद्वान वकीलों की कमी है क्या?
कुछ मुद्दों को ज्वलंत बनाये रखने के लिये प्रचार माध्यम सक्रिय रहते हैं। अयोध्या के राम मंदिर पर अदालत के फैसला एक महत्वपूर्ण घटना थी पर कई बरसों तक चले इस प्रसंग में अदालत के बाहर कुछ लोगों ने इससे लोगों की भगवान राम से जुड़ी भावनाओं को उबारे रखा ताकि उनकी लोकप्रियता बनी रहे। आधुनिक लोकतंत्र में यह सब होता है पर सवाल यह है कि अपने देश के समाज सेवा, व्यापार, प्रचार तथा कला समूहों के शिखर पुरुष अपनी बढ़ती उम्र के साथ रूढ़ता का शिकार हो रहे हैं। वह नयी उम्र के युवाओं को अवसर देने की बात तो करते हैं पर उसका दायर अपने परिवार और रिश्तेदारों से आगे नहीं जाता। रामजन्मभूमि के विषय में प्रचार चैनलों में बूढ़े, थके और निरंतर उबाने वाले चेहरों की उपस्थिति इस बात को दर्शाती है कि अदालत में चलने और वही निर्णायक स्थिति में पहुंचने वाले इस मुद्दे पर अनावश्यक रूप से सार्वजनिक बहसें और विवाद हुए। जिसमें आम इंसानों का समय बर्बाद हुआ तो प्रचार माध्यमों ने विज्ञापनों से खूब कमाया।
प्रचार चैनलों के लोग बार बार नयी पीढ़ी की दुहाई देते रहे। उनका कहना था कि 1992 के बाद यह देश बदल गया है। आज की नई पीढ़ी इस तरह के विवाद नहीं चाहती। वह आधुनिक भारत चाहती है। कई चैनल संयमित समाचार देने का दावा कर देश में बनी शांति का श्रेय भी खुद लेते रहे। देश में शांति रही इसका पूरा श्रेय अदालत तथा जजों को जाता है जिन्होंने इतना संतुलित फैसला दिया न कि किसी अन्य व्यक्ति या सस्था को। नयी पीढ़ी को राम जन्मभूमि में दिलचस्पी नहीं है यह सोचना भी गलत है। नयी पीढ़ी राम से दूर हो रही है यह सोचने वाले अंधेरे दिखाकर रौशनी बेचने वाले हैं। पश्चिमी विकास में रची बसी नयी पीढ़ी अध्यात्मिक विषय में दिलचस्पी नहीं लेती ऐसे लोग मंदिरों में नहीं जाते और जाते हैं तो आंखें बंद किये रहते हैं। वहां युवक युवतियों का उतना ही प्रतिशत आता है जितना जनसंख्या में है। देश में कोई धार्मिक उन्माद नहीं था तो इसलिये कि हर उम्र के लोग अब अनेक ऐसे सच इन्हीं प्रचार माध्यमों से जान गये हैं जो पहले छिपाये जाते थे। देश में अब उन्माद नहीं फैलाया जा सकता क्योंकि आम आदमी-इसे आयु वर्ग में बांटना गलत है-इसके पक्ष में नहीं था। जब उन्माद फैला था तब आम आदमी के पास संचार माध्यम इतनी मात्रा में उपलब्ध नहीं थे। कहने का मतलब यह है कि यह दावा कि नयी पीढ़ी के लोग अध्यात्म ज्ञान या धर्म में रुचि नहीं रखते यह वजह शांति की वजह नहीं है बल्कि वह सब जानने लगे हैं कि किस तरह आजकल सभी जगह फिक्सिंग होने लगी है। आखिर अदालत में चलने वाले एक मामले की लंबे समय तक हुई सार्वजनिक बहस किस बात को दर्शाती है? कैसे लोग बातचीत के माध्यम से विवादित मुद्दों पर फैसला करने की बात कहकर अपने विचार व्यक्त करते हैं और अदालत की उपस्थिति छिपाने का प्रयास करते हैं यह समझने की अब जरूरत नहीं है। विज्ञापन के बीच में समय पास करने के लिये कोई विषय प्रचार माध्यमों को चाहिऐ और इसके लिये उन्होंने तोते के रूप में बुद्धिजीवी पाल रखे हैं जो रटी रटाई बात करते हैं।
एक चैनल में बाबा रामदेव आये। बहुत सुखद लगा। यकीनन वह प्रायोजित तोते नहीं है यह बात साफ लगी। उनके आने से पहले दो धर्मों के ठेकेदार वहां बहस कर रहे थे। वही पुरानी बातें। बाबा रामदेव ने कहा कि ‘बाबर एक आक्रमणकारी था और देश को एक भी आदमी उसके नाम के साथ खड़ा नहीं देखा जा सकता। और तो और ओरंगजेब ने भी इतने बरस राज्य किया पर उसकी कौम के लोग उसके नाम के साथ अब खड़े होने की बात नहीं करते। जहां तक राम की बात है तो वह सभी धर्मो के लोगों के घट घट के वासी है और कोई उनके नाम का विरोध कर ही नहीं सकता।’
उनकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। उस बहस में ऐसा लगा कि जैसे बाज़ार के तयशुदा तोतों के बीच कोई बाहरी आदमी आ गया है तब लगने लगा कि योग की वजह से प्रतिष्ठत  हो चुके बाबा रामदेव को बुलाना एक मजबूरी थी क्योंकि चैनल वालों को भी पता है कि उनके तोता बुद्धिजीवियों के सहारे कार्यक्रम अधिक नहीं चल सकते।
कुछ प्रचार प्रबंधकों को अफसोस है कि कहीं इस मुद्दे का पटाक्षेप होने से उनका घाटा न हो जाये क्योंकि इससे उनका अनेक बार अच्छा समय पास हो जाता था। सच बात तो यह है कि अब इस मद्दे की हवा ही निकल गयी है। हालांकि अभी उच्च न्यायालय का फैसला है और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा अभी बाकी है पर माननीय ज़जों ने अपने परिश्रम, विवेक और सदाशयता उपयोग कर जो निर्णय दिया है उससे देश के आम नागरिकों ने चैन की सांस ली है।
आखिरी बात यह है कि प्रचार माध्यम कल सहमे हुए लग रहे थे। बार बार यह कहना कि यह अंतिम फैसला नहीं है बल्कि आगे यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी जा सकता है, उनके डरपोक होने का प्रमाण है। साथ ही यह भी दर्शाता है कि बड़े शहरों के बाहर वह आम जनता को नहीं जानते। कभी राम जन्म भूमि पर घर घर चर्चा होती थी क्योंकि सीमित प्रचार माध्यम सच से हटकर उकसाने की बात करते थे। दूसरा यह भी कि समाज में चेतना का अभाव था। अब अनेक प्रकार के संचार माध्यमों उनके पास है। सबसे बड़ी बात यह कि इंटरनेट और अनेक टीवी चैनलों ने समाज में लोगों की रुचियों के अनुसार उसेे विभक्त कर दिया है और किसी एक विषय को लेकर उसे संगठित करना अब समाज के ठेकेदारों के लिए दुरुह कार्य हो गया है। ऐसे में राममंदिर या बाबरी मस्जिद के नाम पर समुदायों को संगठित करने का प्रयास यूं भी जोखिम भरा हो सकता था कि कहीं वह निष्फल न हो जाये। इससे अनेक शिखर पुरुषों की पोल खुल जाती। राम मंदिर पर आगे क्या होगा? हम जैसा आम ब्लाग लेखक भविष्यवाणी नहीं कर सकता पर अब इसकी हवा निकल गयी है और अदालत के फैसले का पालन कर ही शिखर पुरुष अपनी प्रतिष्ठा बचा सकते हैं। प्रचार माध्यमों ने भी इस विषय पर संयमित खबरें इसलिये दी क्योंकि उनको मिलने वाले विज्ञापनों के उत्पाद बाज़ार में बिकते हैं। उनके विज्ञापनदाता इधर कॉमलवेल्थ और उधर आस्ट्रेलिया भारत क्रिकेट टेस्ट से भी जुड़े हैं। देश में तनाव होगा तो हानि उनके राजस्व की होगी।
जय श्री राम जय श्री कृष्ण
________________________

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
http://dpkraj.blogspot.com
—————————–

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

हिन्दी साहित्य,समाज,अध्यात्म,अयोध्या में राम मंदिर पर अदालत का फैसला,अयोध्या में राम जन्मभूमि,न्यायालय का निर्णय,ram mandir par adalat ka faisla,rammandir ka result,ayodhya men ram janamabhoomi,ayodhya mein ram janmabhoomi,ayodhya men ram mandir,aydhya mein rammandir,ayodhya men ramlala,ayodhya mein ram ramlala,court vardict on ram mandir and ram janmabhoomi,vardict on ayodhya of court,धार्मिक विचार,हिन्दू धार्मिक विचार,hindi dharmik vichar,dharmik vichar,Religious thought,hindu Religious thought

हिन्दू धर्म संदेश-अभक्ष्य पदार्थों को ग्रहण करना ही अनुचित


शब्दश्चातोऽकामकारे।।
हिन्दी में भावार्थ-
इच्छानुसार अभक्ष्य भोजन करना निषेध ही है।


सर्वानन्नुमतिश्च प्राणात्ययेतद्दर्शनात्।।
हिन्दी में भावार्थ
अन्न बिना प्राण न रहने की आशंका होने पर ही सब प्रकार के अन्न भक्षण करने की अनुमति है।

आबधाच्च
हिन्दी में भावार्थ-
वैसे आपातकाल में भी आचार का त्याग नहीं करना चाहिए।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल फास्ट फूड के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ रही है जिसे स्वास्थ्य विशेषज्ञ अच्छा नहीं मानते। इसके अलावा तंबाकू की रसायन युक्त पुड़िया की आज की युवा पीढ़ी भक्त हो गयी है जो कि हर दृष्टि से खतरनाक है। समस्या यह है कि यह सब लोग अपनी इच्छानुसार कर रहे हैं। देश का उच्च तथा उच्च मध्यम वर्ग घर में खाने की बजाय बाहर के भोजन करने को उत्सुक रहता है। परिणाम यह है कि देश के अंदर अस्वस्थ लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। अब स्थिति यह है कि हर बड़े शहर में फाइव स्टार चिकित्सालय खुल गये हैं जिनमें अपने स्वस्थ जीवन की तलाश करने वाले लोगों की भारी भीड़ रहती है। शीतल पेयों को पीना फैशन हो गया है। गर्मी के अवसर पर लोग सादा पानी पीने की बजाय शीतल पेयों से प्यास बुझाते हैं जिससे अनेक प्रकार की बीमारियां होती हैं।

कहने का आशय यह है कि पूरे विश्व में अपने अध्यात्मिक ज्ञान की पहचान रखने वाला भारतीय समाज फैशन की वजह से अंधे रास्ते पर चल रहा है। जिन भक्ष्य पदार्थों तथा अशुद्ध पेयों के सेवन से परे रहना चाहिए उनको फैशन बना लिया है यह जाने बिना कि उनका उपयोग तभी करना चाहिये जब भक्ष्य पदार्थ तथा शुद्ध पेय उपलब्ध न हों। हमारे देश पर प्रकृति की विशेष कृपा है इसलिये ही यहां आज भी भूजल स्तर अन्य देशों से अधिक है। अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ तथा प्रकृति संपदा उपलब्ध हैं। हम प्रकृति के आभारी होने की बजाय उससे दूर जा रहे हैं। जिसके कारण हम स्वर्ग में रहते हुए भी नरक के होने का आभास करते हैं। मनुष्य होकर भी पशु पक्षियों की तरह बाध्य होकर फैशन की मार झेल रहे हैं। अतः अपने खान पान को लेकर सजग होना चाहिये ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां स्वस्थ और सजग रहें। वैसे भी एक बात याद रखना चाहिए कि हम अपने खाने और पीने के दौरान जो पदार्थ लेते हैं उनमें दोष होने पर हमारे शरीर में भी दोष उत्पन्न होता है अर्थात हम बीमार पड़ते हैं।

————-
संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
http://teradipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन


मान बड़ाई ऊरमी, ये जग का व्यवहार।
दीन गरीबी बन्दगी, सतगुरु का उपकार।।
मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि जिस तरह दुनियां का व्यवहार है उससे देखकर तो यही आभास होता है कि मान और बड़ाई दुःख का कारण है। सतगुरु की शरण लेकर उनकी कृपा से जो गरीब असहाय की सहायता करता है, वही सुखी है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे अनेक लोग हैं जो अपनी धार्मिक छबि बनाये रखने के लिये भक्ति का दिखावा करते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो गुरु बनकर अपने लिये शिष्य समुदाय का निर्माण कर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं। ऐसे दिखावे की भक्ति करने वाले अनेक लोग हैं। इसके विपरीत जो भगवान की वास्तव में भक्ति करते हैं वह उसका प्रयार नहीं करते न ही अपना ज्ञान बघारते हैं।
भक्त और ज्ञानी की पहचान यह है कि वह कभी अपनी भक्ति और ज्ञान शक्ति का बखान नहीं करते बल्कि निर्लिप्त भाव से समाज सेवा करते हुए अपना जीवन यापन करते हैं। अपनी सच्ची भक्ति और ज्ञान के कारण कुछ लोग महापुरुषों की श्रेणी में आ जाते हैं उनको देखकर अन्य लोग भी यही प्रयास करते हैं कि उनकी पूजा हो। यह केवल अज्ञान का प्रमाण है अलबत्ता अपने देश में धार्मिक प्रवचन एक व्यवसाय के रूप में चलता रहा है। इस कारण तोते की तरह किताबों को रटकर लोगों को सुनाते हुए खूब कमाते हैं। उनको देखकर कुछ लोग यह सोचते हुए भक्ति का दिखावा करते हैं कि शायद उनको भी ऐसा ही स्वरूप प्राप्त हो। अनेक लोग संतों की सेवा में इसलिये जाते हैं कि हो सकता है कि इससे उनको किसी दिन उनकी गद्दी प्राप्त हो जाये। ऐसे में भक्ति और ज्ञान तो एक अलग विषय हो जाता है और वह मठाधीशी के चक्कर में राजनीति करने लगते हैं। किताबों को रटने की वजह से उनको शब्द ज्ञान याद तो रहता है ऐसे में वह थोड़ा बहुत प्रवचन भी कर लेते हैं पर उनकी भक्ति और ज्ञान प्रमाणिक नहीं है। वैसे भी अपने पौराणिक ग्रंथों का अध्ययन हर आदमी इतना तो कर ही लेता है कि उसे सारी कथायें याद रहती हैं। नहीं भी अध्ययन करे तो इधर उधर सुनकर उसे बहुत सारी कथायें याद आ ही जाती हैं। । किसी आदमी ने वह भी नहीं किया हो तो अपने अध्यात्मिक दर्शन के कुछ सूक्ष्म सत्य-निष्काम कर्म करो, परोपकार करो, दया करो और माता पिता की सेवा करे जैसे जुमले- सुनाते हुए श्रोताओं और दर्शकों की कल्पित कहानियों से मनोरंजन करता है। उनको सम्मानित होते देख अन्य लोग भक्ति में जुट जाते हैं यह अलग बात है कि कामना सहित यह भक्ति किसी को भौतिक फल दिलाती है किसी को नहीं।
फिर भक्ति हो या ज्ञानार्जन अगर कामना सहित किया जाये और सफलता न मिले तो आदमी संसार में दोष ढूंढने लगता है। यह केवल भक्ति या ज्ञान के विषय में नहीं है बल्कि साहित्य और कला के विषयों में भी यही होता है। आदमी आत्ममुग्ध होकर अपना काम शुरु करता है पर जब उसे सफलता नहीं मिलती तो वह निराश हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि सम्मान पाने का मोह आदमी के लिये दुःख का कारण बनता है। एक बात याद रखें सम्मान पाने की चाह पूरी नहीं हुई तो दुःख तो होगा और अगर पूरी भी हो गयी तो अपमान भी हो सकता है। जहां सुख है वहां दुःख भी है। जहां आशा है वहां निराशा भी है। जहां सम्मान है वहां अपमान भी है। अगर सम्मान मिल गया तो चार लोग आपके दोष निकालकर अपमान भी कर सकते हैं।
इसलिये अच्छा यही है कि अपने कर्म निष्काम भाव से करें। इस संसार में निर्विवाद सम्मान पाने का बस एक ही तरीका है कि आप गरीब को धन और अशिक्षित को शिक्षा प्रदान करें। प्रयोजन रहित दया करें। ऐसे काम बहुत कम लोग करते हैं। जो सभी कर रहे हैं उसे आप भी करें तो कैसा सम्मान होगा? सम्मान तो उसी में ही संभव है जो दूसरे लोग न करते हों।  वैसे भी अपने काम में निष्काम भाव से लगे रहने से उसमें सफलता मिलती है तो समाज स्वयं ही सम्मान करता है।
———————–

संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,Gwalior
editor-Deepak raj kukreja ‘Bharatdeep’
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मन तो जल के समान चंचल है (man jal ke saman chanchal hai-hindu dharma sandesh)


जलान्तश्वन्द्रवशं जीवनं खलु देहिनाम्
तथा विद्यमति ज्ञात्वा शशवत्कल्याणमाचारेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पानी के के भीतर लहलहाते हुए चंद्रमा के बिम्ब के समान चंचल स्वभाव ही समस्त जीवों का जीवन है। यह विचार ज्ञान लोग निरंतर सत्कर्म में लिप्त रहते हैं।
सतः शीलोपसम्पन्नानकस्मादेव दुज्र्जनः।
अन्तः प्रविश्य दहति शुष्कवृक्षानिवालः।।
हिन्दी में भावार्थ-
पर्वत के समान दृढ़ चरित्र वाले सत्पुरुषों के अंतःकरण में दुर्जन भाव प्रविष्ट होकर अग्नि के समान उनको जला कर नष्ट कर डालता है। यह भाव सज्जन व्यक्ति के लिये आत्मघाती होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समस्त जीवों की देह पंचतत्वों के संयोग से निर्मित होती है और मन उसकी एक ऐसी प्रकृत्ति है जो उसका संचालन करती है। पानी से भी पतले इस मन की चाल विरले ही ज्ञानी देख पाते हैं। अपने जीवन में कार्यरत रहते हुए हमारे मन में अनेक विचार आते हैं-वह अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। दरअसल हर जीव को उसका मन चलाता है पर वह यह भ्रम पालता है कि स्वयं चल रहा है। इस मन में काम, क्रोध, लोभ, लालच और घृणा के भाव स्वाभाविक रूप से विचरते रहते हैं। अगर वहां सत्विचारों की स्थापना करनी है तो उसके लिये यह आवश्यक है कि योगासन, ध्यान, मंत्रजाप और नाम स्मरण किया जाये। कहना आसान है पर करना कठिन है। मुख्य बात है कि संकल्प मनुष्य किस प्रकार का करता है। जो मनुष्य दृढ चरित्र के होते हैं वह मन में आये विचार का अवलोकन करते हैं और जिनको ज्ञान नहीं है वह उसी राह चलते हैं जहां मन प्रेरित करता है।
यह मन इतना चंचल होता है कि अनेक बार सज्जन आदमी को भी दुर्जन बना देता है। यह उन्हीं सज्जन लोगों के साथ होता है जो स्वाभाविक रूप से भले होते हैं पर उनके पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं रहता। जब उनके अंदर दुर्जन भाव का प्रवेश होता है तब वह अपराध कर बैठते हैं।
अतः योगाभ्यास तथा सत्संग में निरंतर लगे रहना चाहिये ताकि अपने अंदर ज्ञान का प्रादुर्भाव हो और सज्जन प्रकृत्ति होने के बावजूद कभी किसी भी स्थिति में मन में उत्पन्न कुविचार मार्ग से विचलित न कर सकें। यदि अपने मन पर नियंत्रण किया जाये तो सारे संसार पर नियंत्रण किया जा सकता है और अगर उससे हार गये तो किसी से भी जीतना संभव नहीं है।
——————

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

श्रीगुरुवाणी-दहेज में हरि का नाम मांगे वही श्रेष्ठ पुत्री (hari ka nam mange vah shreshth purti-shri guruvani


‘हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
दहेज प्रथा पर ही प्रहार करते हुए यह भी कहा गया है कि
होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
इसका आशय यह है कि ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे यहां विवाद एक धार्मिक संस्कार माना जाता है मगर जब लोग रिश्ते तय करते हैं तो इस तरह लगता है जैसे कि व्यापार कर रहे हों। धर्म और रीति के नाम पर लड़की की शादी में दान देने की पंरपरा को लोगों ने पुत्र पैदा करने के दाम वसूल करने की नीति में बदल दिया है। भले ही लोग यह दावा करते हों कि हमारी विवाह परंपरा श्रेष्ठ है पर इसके निर्वहन के समय पैसे का खेल खेलने का जो प्रयास होता है वह सीधी धर्म के विरुद्ध लगता है। इस पर श्रीगुरुनानक जी जो अपनी बात कही है वह सचमुच में भारतीय धर्म की परंपरा का प्रतीक है।
दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो मिटने नहीं चाहे कोई भी धर्म हो? समाज कथित रूप से इसी पर इतराता है।
इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने यहां धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं।
———

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

रहीम के दोहे-समय के अनुसार बदलाव आता है (rahim ke dohe-samay aur badlav)



     मनुष्य जब संकट में होता है तब उसका धैर्य जवाब देता है और लगता है कि वह कभी खत्म होने वाला नहीं है। यह सोच अज्ञान के कारण ही आती है। जिस तरह पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा अपनी धुरी पर घूमते हुए रात्रि और दिन लाते हैं वैसे ही समय के अनुसार सब बदलता है।    आदमी के सुख के पल कट जाते हैं तो उसे पता नहीं लगता पर दुःख के समय वह तमाम तरह के ऐसे कदम उठाता है जिससे उसकी परेशानी बढ़ जाती है। अतः विवेकी मनुष्य सुख के समय तो अधिक प्रसन्न होते हैं और न ही दुःक्ष के समय विचलित। समय की अपनी महिमा है और वह अपने अनुसार सुख दुःख लाकर निकलता है।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय
सदा रहे नहिं एक सौ, का रहीम पछिताय
    कविवर रहीम कहते हैं कि समय आने पर अपने अच्छे कर्मों के फल की प्राप्ति अवश्य होती है। वह सदा कभी एक जैसा नहीं रहता इसीलिये कभी बुरा समय आता है तो भयभीत या परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।
समय परे ओछे बचन, सब के सहे रहीम
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम
    कविवर रहीम कहते हैं कि बुरा समय आने पर तुच्छ और नीच वचनों का सहना करना पड़ा। जैसे भरी सभा में देशासन ने द्रोपदी का चीर हरण किया और शक्तिशाली भीम अपनी गदा हाथ में लिए रहे पर द्रोपदी की रक्षा नहीं कर सके।
    वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में सभी के पास कभी न कभी अच्छा समय आता है ऐसे में अपना काम करते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है। आजकल लोग जीवन में बहुत जल्दी सफलता हासिल करने को बहुत आतुर रहते हैं और कुछ को मिल भी जाती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है।
    कई लोग जल्दी सफलता हासिल करने के लिये ऐसे मार्ग पर चले जाते हैं वहां उन्हें शुरूआत में बहुत अच्छा लगता है पर बाद में वह पछताते है।
    यह सही है कि कुछ लोगों के लिये जीवन का संघर्ष बहुत लंबा होता है पर उन्हें अपना धीरज नहीं खोना चाहिए। कई बार ऐसा लगता है कि हमें जीवन में किसी क्षेत्र मे सफलता नहीं मिलेगी पर सत्य तो यह है कि आदमी को अपने अच्छे कर्मों का फल एक दिन अवश्य मिलता है।
    जिस तरह दिन रात हैं और धूप छांव है वैसे ही जीवन में समय का फेर आता है। कभी दुःख तो कभी सुख की अनुभूति के साथ ही जीवन आगे बढ़ता है। जब आदमी तकलीफ में होता है तो संसार वाले उसका मजाक बनाते हुए कटु वचन तक कहते हैं। जब आदमी शक्तिशाली होता है तब सभी उसके सामने नतमस्तक होते हैं। ऐसे में जीवन में आये हर पल को सहजता से स्वीकार करना चाहिए।

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

हिंदू धर्मं सन्देश-विषैले पदार्थ और विषयों से दूर रहना श्रेयस्कर


कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार
—————————
नित्यं जीवस्य च ग्लानिर्जायते विषदर्शनात्।
एषामन्यतमेनापि समश्नीयत्परीक्षितम्।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रतिदिन विष को देखने से ही मन में ग्लानि हो जाती है इसलिये किसीके  सहयोग से भोजन की परीक्षा करें।
चकोरस्य विरज्येत नयने विषदर्शनात्।
सुव्यक्तं माघति क्रोंचो प्रियते कोकिलः किल।
हिन्दी में भावार्थ-
विष को देखने मात्र से चकोर पक्षी की आंख लाल हो जाती है और कोकिल तो मृत्यु के गाल में ही समाज जाता है।
वर्तमानं संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कौटिल्य का अर्थशास्त्र राजाओं के लिये लिखा गया है पर एक बात याद रखने लायक है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में व्यंजना विद्या में ही विषय प्रस्तुत किया जाता है जिससे हर वर्ग के मनुष्य के लिये उसका कोई न कोई अर्थ निकले। उनके राजा और प्रजा के लिये समान अर्थ हैं पर उनका भाव प्रथक हो सकता है। हर मनुष्य कहीं न कहीं राजा या प्रमुख पद पर प्रतिष्ठत होता है। आखिर परिवार भी तो राज्य की तरह चलते हैं। यहां कौटिल्य महाराज के विष को अन्य विषयों के साथ व्यापक रूप में लेना चाहिये। वैसे आजकल तो अनेक जगह खानपान की चीजों में जिस तरह विष डाला जा रहा है उसे देखते हुए अत्यधिक सतर्कता के आवश्यकता है।
हम प्रतिदिन ऐसे समाचार पढ़ रहे हैं कि दुग्ध तथा खाद्य पदार्थों  में ऐसे रसायन मिलाये जा रहे हैं जो शरीर के लिए हानिकारक हैं और जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती  हैं, अत: जहाँ तक हो सके बाज़ार की खुली वस्तुओं के सेवन से बचना चाहिए।
 अगर हम विष की बात करें तो  वह खाने के अलावा   अन्य सांसरिक विषयों से भी संबंधित  है। कुछ विषय विष प्रदान करते हैं-जैसे परनिंदा, ईर्ष्या तथा दूसरे का दुःख देकर मन में हंसना। कुछ ऐसे स्थान भी होते हैं जहां जाकर हमारा मन खराब होता है। उसी तरह कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनसे मिलने पर हमारे अंदर विकार पैदा होते हैं जिससे दुष्कर्म करने की प्रेरणा आती है। कहने का अभिप्राय यह है कि मन में विष पैदा करने वाले विषयों और व्यक्तियों  से संपर्क नहीं रखना चाहिये।
इसलिये समय समय पर आत्म मंथन अवश्य करते हुए यह देखना चाहिये कि कौनसे व्यक्ति, विषय या स्थान हमारी मनस्थिति को डांवाडोल करते हैं। जहां तक हो सके उनसे दूर रहें। प्रतिदिन उनसे संपर्क रखने से न केवल अपना मन कलुषित होता है जिससे जीवन में आचरण में कलुषिता आती है और जो अंततः कर्ता के लिये ही संकट का कारण बनती है। जहां मन में प्रसन्नता रूपी अमृत मिलता हो वहीं जाना चाहिये। जिससे हृदय में पवित्रता, निर्मलता तथा दृढ़ता का भाव बना रहे उन्हीं विषयों की संगति करना ही उचित है। जिनसे विष का अनुभव हो उनसे दूर रहना ही अच्छा है। तभी जीवन तनाव मुक्त रह सकता है।

—————– 

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

पतंजलि योग दर्शन-स्थिर होकर सुख से बैठने का नाम आसन है (patanjali yog sahitya in hindi)


स्थिरसुखमासनम्।
हिन्दी में भावार्थ.
स्थिर होकर सुख से बैठने का नाम आसन है।
प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापतिभ्याम्।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन के समय प्रयत्न रहित होने के साथ परमात्मा का स्मरण करने से ही वह सिद्ध होता है।
ततोद्वन्द्वानभिघातः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसनों से सांसरिक द्वंद्वों का आघात नहीं लगता।
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन की सिद्धि हो जाने पर श्वास ग्रहण करने और छोड़ने की गति रुक जाती है उसे प्राणायाम कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना कोई सामान्य व्यायाम नहीं है बल्कि ऐसी कला है जिसे जीवन में हमेशा ही आनंद का अनुभव किया जा सकता है। सबसे पहली बात तो यह है कि हम सुखपूर्वक अपने मन और इंद्रियों का निग्रह कर बैठ सकें वही आसन है। इस दौरान अपने हाथ से कोई प्रयत्न न कर केवल परमात्मा का स्मरण करना चाहिये। उस समय अपनी श्वास को आते जाते एक दृष्टा की तरह देखें न कि कर्ता के रूप में स्थित हों। बीच बीच में उसे रोकें और फिर छोड़ें। इस प्राणायाम कहा जाता है। यह प्राणायाम मन और बुद्धि के विकारों को निकालने में सहायक होता है। इससे इतनी सिद्धि मिल जाती है कि आदमी गर्मीए सर्दी तथा वर्षा से उत्पन्न शारीरिक द्वंद्वों से दूर हो जाता है। इतना ही नहीं संसार में आने वाले अनेक मानसिक कष्टों को वह स्वाभाविक रूप से लेता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह दुःख और सुख के भाव से परमानन्द भाव को प्राप्त होता है।
इस संसार में दो ही मार्ग हैं जिन पर इंसान चलता है। एक तो है सहज योग का दूसरा असहज योग। हर इंसान योग करता है। एक वह हैं जो सांसरिक पदार्थों में मन को फंसाकर कष्ट उठाते हैं दूसरे उन पदार्थों से जुड़कर भी उनमें लिप्त नहीं होते। इसलिये कहा जाता है कि योग जीवन जीने की एक कला है और यह भी अन्य कलाओं की तरह अभ्यास करने पर ही प्राप्त होती है। जो सतत योगाभ्यास करते हैं उनके चेहरे और वाणी में तेज स्वत: आता है और उससे दूसरे लोग प्रभावित होते हैं। इसके अलावा जीवन में अपने दायित्वों का निर्वहन करने में सहजता का अनुभव होता  है।

———————————
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
————————
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन