Category Archives: आध्यात्म

भर्तृहरि नीति शतक-अपने स्वार्थ हो तो भी गजराज की तरह व्यवहार करें


      इस संसार में भूख सभी को लगती है पर भोजन पाने और करने के सभी के तरीके अलग हैं।  अपना कमाकर खाने वाले लोग जहां जीवन में आत्मविश्वास से भरे होते हैं वही दूसरे से कर्ज, भीख अथवा मदद मांगने वाले लोग हमेशा ही हृदय में दीनता का भाव लेकर जीते हैं। कहा जाता है कि जैसा खायें अन्न वैसा ही होता है मन। इसका आशय अन्न के दानों का स्वरूप ही नहीं वरन् उसके लिये अर्जित धन से साधन से भी जोड़ना चाहिये।  यह भी कहा जाता है कि परमात्मा पेट देने से ही पहले अन्न के दानों पर खाने वाले का नाम लिख देता है। यह ज्ञान रखने वाले लोग आत्मविश्वास से जीवन में अपना हर काम करते हैं। इसके विपरीत जो मन में कर्ता का भाव लिये होते हैं उन्हें परमात्मा की इस सांसरिक कृति पर यकीन नहीं होता इसलिये अपनी आवश्यकताओं के लिये वह अतिरिक्त सक्रियता दिखाते हैं। उनके मस्तिष्क में चिंताओं का ढेर भरा होता है।  जिसके चलते न केवल वह दैहिक बल्कि मानसिक रूप से भी अस्वस्थ हो जाते हैं।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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ङ्गल चालनमधरश्चरणावपातं भूमी निपत्य वदनोदर दर्शनं च।

श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्वते।।

     हिन्दी में भावार्थ-कुत्ता भोजन देने वाले के आगे पूंछ हिलाकर उसके सामने मुंह वह पेट दिखाते हुए लोटपोट उसके  अपनी दीनता प्रदर्शित करता है जबकि हाथी उसे गंभीरता से देखता है और कई बार मनाने पर ही भोजन ग्रहण करता है।

कृमिकुलचित्तं लालक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितमु निरुपमरसं प्रीत्या खादनन्नरास्थि निरामिषम्।

सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्यं विलोक्य न शंकते न हि गणवति क्षुद्रो जन्तु पिरग्रहफलगुनाम्।।

हिन्दी में भावार्थ-कीड़ों से युक्त, रसहीन, दुर्गंध से भरी, स्वादरहित, घृणित हड्डी को पकड़ कर बहुत उत्साह से चबाता है। उस सयम अपने पास आये देवता की भी उसे परवाह नहीं होती।

      हम देख रहे हैं कि हमारा परंपरागत भारतीय समाज पूरी तरह से बिखर चुका है।  यह कहा जरूर जाता है कि हम एक संगठित भारतीय समाज के सदस्य हैं पर  सभी को पता है कि यह दावा एकदम खोखला है।  सभी दावा करते हैं कि वह किन्हीं जातीय, धार्मिक, भाषाई अथवा विशिष्ट समाज के सदस्य होने के कारण सुरक्षित अनुभव करते हैं पर सच यह है किसी को हृदय से अपनी ही बात पर ही यकीन नहीं होता है।  पाश्चात्य वस्तुओं को अपनी दैनिक तथा सांस्कारिक आवश्यकताओं के मूल से जोड़ने वाले हमारे  भारतीय समाज का मनोबल गिरा हुआ है।  हम भ्रष्टाचार तथा बेईमानी के विरुद्ध प्रत्यक्ष रूप से अभियान छेड़ने की बात तो करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि इसमें लिप्त लोग इसी भारतीय समाज के सदस्य हैं।  भ्रष्टाचार और बेईमानी में लगे लोगों को दूसरे का अपराध तो दिखता है पर अपना धन का लोभ इस आशंका के मारे नहीं छोड़ पाते कि अगर संपन्नता नहीं है तो समाज उनको पूछेगा भी नहीं-यही नहीं वह लोग अपने बेईमानी को मेहनत की कमाई मानने का तर्क स्वयं को देकर ही समझाते हैं।

      कहने का अभिप्राय यह है कि हम दूसरे की तरफ न देखें वरन् अपने व्यवहार, विचार तथा व्यक्तित्व पर दृष्टिपात करें।  अगर हम दृढ़ता पूर्वक सत्य का मार्ग लेंगे तो कभी जीवन में कुंठा का अनुभव नहीं होगा।  जो व्यक्ति सिद्धांत पर दृढ़ रहता है उसके मुख मंडल पर तेज स्वतः प्रकट होता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

 

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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भर्तृहरि नीति दर्शन-मदिरा से भरी आंखों को न देखा होता तो संसार पार हो जाता (hindu dharma sandesh-kuleenta,vivek aur kam vasna)


तावन्महत्तवं पाण्डितयं केलीनत्वं विवेकता।
यावज्जवलति नांगेषु हतः पंचेषु पावकः।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी भी मनुष्य में सज्जनता, कुलीनता, तथा विवेक का भाव तभी तक रहता है जब उसके हृदय में कामदेव की ज्वाला नहीं धधकी होती। कामदेव का हमला होने पर पर सारे अच्छे भाव नष्ट हो जाते है।
संसार! तव पर्यन्तपदवी न दवीयसी।
अन्तरा दुस्तराः न स्युर्यदि ते मदिरेक्षणा।।
हिन्दी में भावार्थ-
यहां भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि ‘ओ संसार, तुझे पार पाना कोई कठिन काम नहीं था अगर मदिरा से भरी आखों में न देखा होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- किसी मनुष्य को देवता नहीं समझना चाहिये क्योंकि पंच तत्वों से बनी इस देह में राक्षस भी रहता है। अगर कोई मनुष्य सात्विक कर्म में लिप्त है तो उसकी परीक्षा लेने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए।  श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते है’, और ‘इंद्रियां ही इंद्रियों बरत रहीं है’। इसका आशय यह है कि इस देह में मौजूद तत्व कब किसे अपने प्रभाव में लाकर मार्ग से भटका दें यह कहना कठिन है। इतना जरूर है कि तत्व ज्ञान इस बात को जानते हैं तो मार्ग से भटकते हैं और भटक जायें तो अपने किये पर पश्चाताप करते हैं इसके विरुद्ध अज्ञानी लोग बजाय पश्चाताप करने के अपनी झूठी सफाई देने लगते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में लिखा हुआ है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते है।’ इस सूत्र में बहुत बड़ा विज्ञान दर्शन अंतर्निहित हैं। इस संसार में जितने भी देहधारी जीव हैं सभी को रोटी और काम की भूख का भाव घेरे रहता है अलबत्ता पशु पक्षी कभी इसे छिपाते नहीं पर मनुष्यों में कुछ लोग अपने को सचरित्र दिखने के लिये अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण का झूठा दावा करते है। सच तो यह है कि पंचतत्वों से बनी इस देह मे तन और मन दोनों प्रकार की भूख लगती है। भूख चाहे रोटी की हो या कामवासना की चरम पर आने पर मनुष्य की बुद्धि और विवेक को नष्ट कर देती है। मनुष्य चाहे या नहीं उसे अपनी भूख को शांत रखने का प्रयास करना पड़ता है। जो लोग दिखावा नहीं  करते वह तो सामान्य रूप से रहते हैं पर जिनको इंद्रिय विेजेता दिखना है वह ढेर सार नाटकबाजी करते हैं। देखा यह गया है कि ऐसे ही नाटकबाज धर्म के व्यापार में अधिक लिप्त हैं और उन पर ही यौन शोषण के आरोप लगते हैं क्योंकि वह स्वयं को सिद्ध दिखाने के लिये छिपकर अपनी भूख मिटाने का प्रयास करते हैं और अंतत: उनका रास्ता अपराध की ओर जाता है।
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संत कबीर वाणी-परिवार की मर्यादा ने मनुष्य को बिगाड़ दिया (parivar ki maryada-sant kabir wani)


इस संसार में अनेक प्रकार के जीव हैं और सभी के लिये प्रकृति ने भोजन पानी का इंतजाम किया है। मनुष्य भी उनमें एक है पर जितनी बुद्धि उसमें अधिक है उतना ही वह भ्रमित होता है। लोग दावा करते हैं कि वह अपने कर्म से अपना परिवार पाल रहे हैं पर यह नहीं जानते कि वह तो केवल कारण है वरना कर्ता तो परमात्मा ही है। इसी भ्रम में मनुष्य जीवन गुजार लेता है पर उस परमात्मा का स्मरण नहीं करता जिसे उसे मनुष्य योनि प्रदान की है।
कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।
दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?
वर्तमान  सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य मन को हंस भी कहा जाता है पर उसे कोई उड़ने दे  तभी उसे  समझा जा सकता है। हर कोई अपने विचार और लक्ष्यों का दायरा संकीर्ण कर लेता है। अपने और परिवार के हित के आगे उसे कुछ नहीं सूझता। कई लोग मन में शांति न होने की बात कहते हैं पर उसके पाने लिये कोई यत्न नहीं करते। मन एकरसता से ऊब जाता है। स्वार्थ सिद्धि में डूबा मन   एकरसता से ऊब जाता है पर बुद्धि परमार्थ के लिए प्रेरित नहीं होती। अगर थोड़ा परमार्थ भी कर लें तो एक सुख का अनुभव होता है। परमार्थ का यह आशय कतई नहीं है कि अपना सर्वस्व लुटा दें बल्कि हम किसी सुपात्र व्यक्ति की सहायता करने के साथ  किसी बेबस का सहारा बने। वैसे लुटाने को लोग लाखों लुटा रहे हैं। अपने परिवार के नाम प्याऊ या किसी मंदिर में बैच या पंखा लगवाकर उस पर अपने परिवार का परिचय अंकित करवा देते हैं और स्वयं ही दानी होने का प्रमाणपत्र ग्रहण करते हैं। इससे मन को शांति नहीं मिलती। दूसरों से दिखावा कर सकते हो पर अपने आप से वह संभव नहीं है। हम हर जगह अपने कुल की परिवार की प्रतिष्ठा लिये घूमते हैं पर अपनी आत्मा से कभी परिचित नहीं होते। इसके लिये जरूरी है कि समय निकालकर भक्ति और संत्संग के कार्यों में बिना किसी दिखावे के निष्काम भाव से सम्मिलित हों। कामना के साथ दान या भक्ति करने से मन को कभी शांति नहीं मिलती। उस पर अगर कुल प्रतिष्ठा किए रक्षा का विचार में में आ जाए तो फिर मनुष्य अपना जीवन ही नारकीय हो जाता है।  दूसरी बात यह ही कि इस संसार का पालनहार तो परमात्मा है तब हम अपने परिवार को पालने का दावा कर सवयं को धोखा देते हैं । 

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मनु स्मृति-धर्मं ही मनुष्य का अनुसरण करता है (manushya aur dharma-hindi sandesh)


मनु स्मृति के अनुसार 
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मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ।
विमुखः बान्धवाः यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-
मरे हुए मनुष्य की देह को उसके बंधु लोग मिट्टी का मानकर उसे गाड़ देते हैं या जलती हुई लकड़ियों में छोड़ जाते हैं। उस समय धर्म ही जीव का अनुगमन करता है।


एकःप्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते।
एकोऽनुभुंक्ते सृकृतमेक ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः।।
हिन्दी में भावार्थ-
इस संसार में हर मनुष्य अकेले आता और जाता है। उसे अपने अच्छे और बुरे कर्म का फल भी अकेले ही भुगतना है। यह अकाट्य सत्य है।

वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या –चाहे कोई अपने को कितना भी समझाये पर सच यह है कि जब तक देह है सभी लोग एक दूसरे के आत्मीय बनते हैं पर जैसे ही इसमें से आत्मा निकल गया वैसे ही यह बंधु बान्धवों के लिये यह देह मिट्टी का ढेला हो जाती है। वह इसे गाड़कर या जलती लकड़ियों में छोड़कर मुंह फेर चले जाते हैं। कहने कहा अभिप्राय यह है कि आदमी इस धरती पर अकेला ही है। वह कर्म करते हुए धन संग्रह यह सोचकर करता है कि वह अपने और परिवार का भला कर रहा है? अनेक लोग तो धन के लोभ में कदाचरण करते हुए भी नहीं हिचकिचाते। अपने साथ परिवार, रिश्तेदार और मित्रों के होने की अनुभूति उनके अंदर यह भाव नहीं आने देती कि वह हर प्रकार के अपराध के लिये अकेले ही जिम्मेदार हैं। आपने देखा होगा कि अनेक लोग भ्रष्टाचार, हत्या, तथा अन्य अपराधों में अकेले ही फंसते हैं और जिनके लिये काम करने का दावा करते हैं वह बाहर ही बैठे रहते हैं। परिवार, रिश्तेदार, या मित्रों में कोई भी आदमी उनके साथ कारावास में नहीं जाता।

अपराध, भ्रष्टाचार तथा कदाचरण से धन कमाने वाले अनेक लोग यह कहते हैं कि अपना परिवार पालने के लिये यह कर रहे हैं पर वह स्वयं को ही धोखा देते हैं। सबका दाता तो परमात्मा है। यहां भला कोई परिवार क्या पालेगा? जो गलत काम कर रहा है वही बदनाम होता है। इसके विपरीत जो भले काम कर अपना धर्म निभाते हैं उनकी छबि अच्छी बनती है। दोनों ही स्थितियों में आदमी जिम्मेदारी स्वयं ही होता है। अगर बुरे काम करेगा तो मरने के बाद वह उसके साथ ही जायेंगे। अच्छा काम किया है तो देहावसान के बाद धर्म साथ चलेगा।
यह एक अंतिम सत्य है कि यहाँ इन्सान अकेला आया है और अकेला ही जाएगा।  हम इस  सत्य को भुलाकर अपने को धोखा देते हैं। 

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विदुर दर्शन-सत्य से ही धर्म की रक्षा संभव (satya se hi dharma ki raksha sanbhav)


सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
सत्य से धर्म, योग से विद्या, सफाई से सुंदरता और सदाचार से कुल की रक्षा होती है। 


पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मन्त्रिबान्धवाः।।
पतयो बान्धवा स्त्रीणां ब्राह्मण वेदबान्धवा।।
हिन्दी में भावार्थ-
पशुओं के सहायक बादल, राजाओं के सहायक मंत्री, स्त्रियों के सहायक पति के साथ बंधु और विद्वानों का सहायक ज्ञान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में ज्ञान का होना जरूरी है अन्यथा हम अपने पास मौजूद व्यक्तियों, वस्तुओं तथा उपलब्धियों का सही उपयोग नहीं कर सकते। एक बात याद रखना चाहिये कि हमारे साथ जो लोग होते हैं उनका महत्व होता है।  अंधेरे में तीर चलाने से कुछ नहीं होता, इसलिये जीवन के सत्य को समझ लेना चाहिये। राजाओं के सहायक मंत्री होते हैं। इसका आशय साफ है कि अपने मित्र और सलाहकार के चयन में हर आदमी को सतर्कता बरतना चाहिये।
स्त्रियों की स्वतंत्रता बुरी नहीं है पर उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि उनकी रक्षा उसके परिवार के पुरुष सदस्य ही कर सकते हैं।  उनको बाहर के व्यक्तियों से यह अपेक्षा नहीं करना चाहिये कि वह उनकी रक्षा करेंगे भले ही चाहे वह कितना भी दावा करें।  हम अक्सर ऐसी वारदातें देखते हैं जिसमें स्त्रियों के साथ धोखा होता है और इनमें अधिकतर उनमें अपने ही  लोग होते हैं। इनमें भी अधिक संख्या उनकी होती है  जो परिवार के बाहर के होने के बावजूद उनसे निकटता प्राप्त करते हैं।  स्त्रियों के मामले में यह भी दिखाई देता है कि उनके साथ विश्वासघात अपने ही करते हैं पर इनमें अधिकतर संख्या  उन लोगों की होती है जो बाहर के होने के साथ  अपने बनने का नाटक हुए   उनको धर्म और चरित्र पथ से भ्रष्ट भी करते हैं।
हम लोगों का यह भ्रम होता है कि बादल हमारे लिये बरस रहे हैं।  जब बादल नहीं बरसते तब तमाम तरह के धार्मिक कर्मकांड किये जाते हैं। बरसते हैं तो धर्म के ठेकेदार अनेक प्रकार के दावे करते हैं जबकि सच्चाई यह है कि बादल धरती पर स्थित पेड़ पौद्यों तथा पशुओं के रक्षक हैं और इसलिये उनका तो बरसना ही है।
आजकल भारतीय योग साधना का प्रचार हो रहा है। दरअसल यह योग साधना न केवल स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त है बल्कि उससे हमारी विद्या तथा ज्ञान की रक्षा भी होती है। इसलिये जो लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे प्रतिभाशाली हों उन्हें चाहिये कि वह इसके लिये उनको प्रेरित करें।  आजकल कठिन प्रतियोगिता का समय है और ऐसे में योग साधना ही एक ऐसा उपाय दिखती है जिससे उनकी प्रतिभा को सोने जैसी चमक मिल सकती है। सच बात तो यह है कि इस संसार में खुश रहने के लिये योग साधना के अलावा कोई अन्य उपाय है इस पर विश्वास करना कठिन है। 

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विदुर नीति-धर्म का दिखावा करना अहंकार का प्रमाण (dharma aur ahnakar-hindi sandesh)


इन्याध्ययनदानादि तपः सत्यं क्षमा घृणा।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः समृतः।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर का कहना है कि यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और अलोभ वह गुण है जो धर्म के मार्ग भी हैं। 


तत्र पूर्वचतुर्वर्गो दम्भार्थमपि सेव्यते।
उत्तरश्च चतुर्वर्गो नामहात्मसु तिष्ठति।।
हिन्दी में भावार्थ-
इनमें पहले चार का तो अहंकार वश भी पालन किया जाता है जबकि आखिरी चार के मार्ग पर केवल महात्मा लोग ही चल पाते हैं।  


वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ऐसा नहीं है कि किसी मनुष्य में कोई गुण नहीं होता और न ही कोई बिना भला काम किये रह जाता है।  अलबत्ता उसकी मूल प्रकृत्ति के अनुसार ही उसके पुण्य या भले काम का मूल्यांकन भी होता है।  देखा जाये तो दुनियां के अधिकतर लोग अपने  धर्म के अनुसार यज्ञ, अध्ययन, दान और परमात्मा की भक्ति सभी करते हैं पर इनमें कुछ लोग दिखावे के लिये अहंकार वश करते हैं।  उनके मन में कर्तापन का अहंकार इतना होता है कि उसे देखकर हंसी ही आती है।  हमारे देश के प्रसिद्ध संत रविदास जी ने कहा है कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ जिसका आशय यही है कि अगर हृदय पवित्र है तो वहीं भगवान का वास है।  लोग अपने घरों पर रहते हुए हृदय से परमात्मा का स्मरण नहीं कर पाते जिससे उनके मन में विकार एकत्रित होते हैं।  फिर वही लोग  दिल बहलाने के लिये पर्यटन की दृष्टि से धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं यह दिखाने के लिये कि वह धार्मिक प्रवृत्ति के हैं।  फिर वहां से आकर सभी के सामने बधारते हैं कि ‘मैंने यह किया’, ‘मैंने वह किया’ या ‘मैंने दान किया’-यह उनकी अहंकार की प्रवृत्ति का परिचायक है। इससे यह भी पता चलता है कि उनके मन का विकार तो गया ही नहीं।
इतना ही नहीं कुछ लोग अक्सर यह भी कहते हैं कि ‘हमारे धर्म के अनुसार यह होता है’, या ‘हमारे धर्म के अनुसार ऐसा होना चाहिये’।  इससे भी आगे बढ़कर वह खान पान, रहन सहन तथा चाल चलन को लेकर अपने धार्मिक ग्रंथों के हवाले देते हैं।  उनका यह अध्ययन एक तरह से अहंकार के इर्दगिर्द आकर सिमट जाता है।  सत्संग चर्चा होना चाहिये पर उसमें अपने आपको भक्त या ज्ञानी साबित करना अहंकार का प्रतीक है।  कहने का तात्पर्य यही है कि यज्ञ, अध्ययन, तप और दान करना ही किसी मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति होने का प्रमाण नहीं है जब तक उसके व्यवहार में वह अपने क्षमावान, दयालु, सत्यनिष्ठ, और लोभरहित नहीं दिखता।  यह चारों गुण ही आदमी के सात्विक होने का प्रतीक हैं। जिन लोगों के मन में सात्विकता का भाव है वह कभी दिखावा
नहीं करते और उनकी भक्ति का तेज उनके चेहरे पर वैसे ही दिखता है।
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मनुस्मृति-श्रमिक का हाथ सदैव पवित्र रहता है (worker is hollyman-hindu dharma sandesh)


नित्यमास्यं शुचिः स्त्रीणां शकुनि फलपातने।
प्रस्त्रवे च शुचर्वत्सः श्वा मृगग्रहणे शुचिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
नारियों का मुख, फल गिराने के लिये उपयोग  में लाया गया पक्षी, दुग्ध दोहन के समय बछड़ा तथा शिकार पकड़ने के लिये उपयोग में लाया गया कुत्ता पवित्र है।
नित्यं शुद्धः कारुहस्तः पण्ये यच्च प्रसारितम्।
ब्रह्मचारिगतं भैक्ष्यं नित्यं मेध्यमिति स्थितिः।
हिन्दी में भावार्थ-
शास्त्रों के अनुसार कारीगर का हाथ, बाजार में बेचने के लिये रखी गयी वस्तु तथा ब्रह्मचार को दी गयी भिक्षा सदा ही शुद्ध है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में पाश्चात्य सभ्यता के अनुसरण ने लोगों के दिमाग में श्रम की मर्यादा को कम किया है। आधुनिक सुख सुविधाओं के उपभोग करने वाले धनपति मजदूरों और कारीगरों को हेय दृष्टि से देखते हैं। उनके श्रम का मूल्य चुकाते हुए अनेक धनपतियों का मुख सूखने लगता है। जबकि हमारे मनु महाराज के अनुसार कारीगर का हाथ हमेशा ही शुद्ध रहता है। इसका कारण यह है कि वह अपना काम हृदय लगाकर करता है। उसके मन में कोई विकार या तनाव नहीं होता। यह शुद्ध भाव उसके हाथ को हमेशा पवित्र तथा शुद्ध करता रहता है। भले ही सिर पर रेत, सीमेंट या ईंटों को ढोते हुए कोई मजदूर पूरी तरह मिट्टी से ढंक जाता है पर फिर भी वह पवित्र है। उसी तरह मैला ढोले वालों का भले ही कोई अछूत कहे पर यह उनका नजरिया गलत है। मैला ढोले वाले के हाथ भले ही गंदे हो जाते हैं पर उसके हृदय की पवित्रता उनको शुद्ध रखती है।
जो लोग मजदूरों, कारीगरों या मैला ढोले वालों को अशुद्ध समझते है वह बुद्धिहीन है क्योंकि श्रमसाध्य कार्य करना एक तो हरेक के बूते का नहीं होता दूसरे उनको करने वाले अत्यंत पवित्र उद्देश्य से यह करते हैं इसलिये उनके हाथों को अशुद्ध मानना या उनकी देह को अछूत समझना अज्ञानता का प्रमाण है।
यहां बाजार में रखी वस्तु के शुद्ध होने से आशय यह कतई न लें कि हम चाहे जो भी वस्तु रखें वह पवित्र ही होगी। दरअसल इसका यह भी एक आशय है कि आप जो चीज बेचने के लिये रखें वह पवित्र और शुद्ध होना चाहिये। इसके अलावा इस बात का ध्यान रखें कि जो लोग अपने हाथों से कुशल या अकुशल श्रम करते हैं उनको हेय दृष्टि से न देखों तथा उनके परिश्रम का उचित मूल्य चुकायें।

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संत कबीर दास के दोहे-परोपकार पर ही यश मिलना संभव (kabir ke dohe-paropkar aur yash)


धन रहै न जोबन रहे, रहै न गांव न ठांव।
कबीर जग में जस रहे, करिदे किसी का काम।

    संत कबीर दास जी कहते हैं कि एक दिन यह न धन रहेगा न यह यौवन ही साथ होगा। गांव और घर भी छूट जायेगा पर रहेगा तो अपना यश, यह तभी संभव है कि हमने किसी का काम किया हो।
स्वारथ सूका लाकड़ा, छांह बिहना सूल।
पीपल परमारथ भजो, सुख सागर को मूल।।

    संत कबीरदास जी का कहना है कि स्वार्थ तो सूखी लकड़ी के समान हैं जिसमें न तो छाया मिलती है और न ही सुख। एक तरह से वह कांटे की तरह है। इसके विपरीत परमार्थ पीपल के पेड़ के समान हैं जो सुख प्रदान करता है।
    वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह लोगों की गलतफहमी है कि वह भौतिक उपलब्धियों के कारण सम्मान पा रहे हैं। लोग अपनी आर्थिक उपलब्धियों, परिवार की प्रतिष्ठा और अपने कर्म का बखान स्वयं करते हैं। मजा तो तब है जब दूसरे आपकी प्रशंसा करें और यह तभी संभव है कि आप अपने काम से दूसरे की निस्वार्थ भाव से सहायता कर उसको प्रसन्न करें।
    आप कहीं किसी धार्मिक स्थान, उद्यान या अन्य सार्वजनिक स्थान पर जाकर बैठ जायें। वहां आपसे मिलने वाले लोग केवल आत्मप्रवंचना में लगे मिलेंगे। हमने यह किया, वह किया, हमने यह पाया और हमने यह दिया जैसे जुमले आप किसी के भी श्रीमुख से नहीं सुन पायेंगे।
    दरअसल बात यह है कि सामान्य मनुष्य पूरा जीवन अपने और परिवार के लिये धन का संचय कर यह सोचता है कि वह सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित कर रहा है और परमार्थ करना उसके लिये एक फालतू विषय है। जब उससे धन और यौवन विदा होता है तब वह खाली बैठे केवल अपने पिछले जीवन को गाता है पर सुनता कौन है? सभी तो इसमें ही लगे हैं। इसलिये अगर ऐसा यश पाना है जिससे जीवन में भी सम्मान मिले और मरने पर भी लोग याद करें तो दूसरों के हित के लिये काम करें। जब समय निकल जायेगा तब पछताने से कोई लाभ नहीं होगा। बिना परोपकर के यश या प्रतिष्ठा मिल जाने की सोचना भी व्यर्थ है।
   अतः समय रहते हुए ज्ञान प्राप्त करने के साथ ही परोपकार भी करना चाहिये।
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विदुर दर्शन-सत्संग से बुद्धि प्राप्त करे वही पण्डित (satasang kare vahi pandit-hindu dharma sandesh)


प्रज्ञामेवागमयति यः प्राज्ञेभ्यःस पण्डितः।
प्राज्ञो ह्यवापप्य धर्मार्थौं शक्नोति सुखमेधितम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी के मतानुसार जो मनुष्य बुद्धिमानों की संगत कर सद्बुद्धि प्राप्त करता है वही पण्डित है। बुद्धिमान पुरुष ही धर्म और अर्थ को प्राप्त कर अनायास ही अपना विकास करता है।


अन्नसूयुः कुतप्रज्ञः शोभनान्याचरन् सदा।
न कृच्छ्रम् महादाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिसकी बुद्धि दोषदृष्टि से रहित है वह मनुष्य सदा ही पवित्र और शुभ करता हुआ जीवन में महान आनंद प्राप्त करता है। जिससे उसका अन्य लोग भी सम्मान करते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस जीवन का रहस्य वही समझ सकते हैं जिनकी बुद्धि दूसरे में दोष नहीं देखती। जीवन भर आदमी सत्संग सुने या ईश्वर की वंदना करे पर जब तक उसमें ज्ञान नहीं है तब तक वह भी यह जीवन प्रसन्नता से व्यतीत नहीं कर सकता। सच बात तो यह है कि जैसी अपनी दृष्टि होती है वैसा ही दृश्य सामने आता है और वैसी ही यह दुनियां दिखाई देती है। इतना ही नहीं जब हम किसी में उसका दोष देखते हैं तो वह धीरे धीरे हम में आकर निवास करने लगता है। जब हम अपना समय दूसरो की निंदा करते हुए बिताते हैं तो यही काम दूसरे लोग हमारी निंदा करते हुए करते हैं। यही कारण है कि अक्सर लोग यही कहते हैं कि ‘इस संसार में सुख नहीं है।’

सच्चाई तो यह है कि इस संसार में न तो कभी सतयुग था न अब कलियुग है। यह बस बुद्धि से देखने का नजरिया है। जिन लोगों की बुद्धि दोष रहित है वह प्रातःकाल योगसाधना, ध्यान तथा मंत्रोच्चार करते हुए अपना दिन प्रारंभ करते हैं। उनके लिये वह काल स्वर्ग जैसा होता है। मगर जिनकी बुद्धि दोषपूर्ण है वह सुबह उठते ही निंदात्मक विचार व्यक्त करना प्रारंभ कर देते हैं। कई लोग तो प्रातःकाल ही चीखना चिल्लाना प्रारंभ करते हैं और उनको भगवान के नाम जगह अपने कष्टों का जाप करते हुए सुना जा सकता है। सुबह उठते ही अगर मनुष्य में प्रसन्नता का अनुभव न हो तो समझ लीजिये वह नरक में जी रहा है। यह तभी संभव है जब आदमी अपनी बुद्धि को पवित्र रखते हुए दूसरे में दोष देखना बंद कर दे। दूसरे के दोषों को देखना तो क्या उन्क्स स्मरण तक नहीं करना चाहिए क्योंकि वह अपने अन्दर आ जाते हैं।

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लेखक,संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चाणक्य दर्शन-आमदनी से अधिक खर्च मुसीबत का कारण (amdani aur kharcha-chankya niti)


अनालोक्य व्ययं कर्ता ह्यनाथःः कलहप्रियः।
आतुर सर्वक्षेत्रेपु नरः शीघ्र विनश्चयति ।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि बिना विचारे ही अपनी आय के साधनों से अधिक व्यय करने वाला सहायकों से रहित और युद्धों में रुचि रखने वाला तथा कामी आदमी का बहुत शीघ्र विनाश हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-आज समाज में आर्थिक तनावों के चलते मनुष्य की मानसिकता अत्यंत विकृत हो गयी है। लोग दूसरों के घरों में टीवी, फ्रिज, कार तथा अन्य साधनों को देखकर अपने अंदर उसे पाने का मोह पाल लेते हैं। मगर अपनी आय की स्थिति उनके ध्यान में आते ही वह कुंठित हो जाते हैं। इसलिये कहीं से ऋण लेकर वह उपभोग के सामान जुटाकर अपने परिवार के सदस्यों की वाहवाही लूट लेते हैं पर बाद में जहां ऋण और ब्याज चुकाने की बात आयी वहां उसके लिये आय के साधनों की सीमा उनके लिये संकट का कारण बन जाती है। अनेक लोग तो इसलिये ही आत्महत्या कर लेते हैं क्योंकि उनको लेनदार तंग करते हैं या धमकी देते हैं। इसके अलावा कुछ लोग ठगी तथा धोखे की प्रवृत्ति अपनाते हुए भी खतरनाक मार्ग पल चल पड़ते हैं जिसका दुष्परिणाम उनको बाद में भोगना पड़ता है। इस तरह अपनी आय से अधिक व्यय करने वालें जल्दी संकट में पड़ जाने के कारण अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं। समझदार व्यक्ति वही है जो आय के अनुसार व्यय करता है। आय से अधिक व्यय करना हमेशा ही दुःख का मूल कारण होता है।
यही स्थिति उन लोगों की भी है जो नित्य ही दूसरों से झगड़ा और विवाद करते हैं। इससे उनके शरीर में उच्च रक्तचाप और हृदय रोग संबंधी विकास अपनी निवास बना लेते हैं। अगर ऐसा न भी हो तो कहीं न कहीं उनको अपने से बलवान व्यक्ति मिल जाता है जो उनके जीवन ही खत्म कर देता है या फिर ऐसे घाव देता है कि वह उसे जीवन भर नहीं भर पाते। अतः प्रयास यही करना चाहिये कि शांति से अपना काम करें। जहाँ तक हो सके अपने ऊपर नियत्रण रखें।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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