यौ निक्षेपं नार्पयति यश्चानिक्षिप्य याचते।
तावुभौ चैरवच्चासयो दाप्यौ या तस्समं दभम्।।
हिंदी में भावार्थ-किसी की धरोहर नहीं लौटाने वाले तथा बिना ही रखे उसे मांगने वालो को चोर के समान दंड देना चाहिये। धरोहर की राशि के बराबर ही उन पर दंड लगाना चाहिये।
उपाधनिश्च यः कश्चित्परद्रव्यं हरेन्नरः।
न सहायः स हन्तव्यः प्रकाशंविविधैर्वधेः।।
हिंदी में भावार्थ-जो राज्य कर्मचारी अपने आपको राज्य प्रमुख का प्रिय जताकर तथा राज्य कृपा का आश्वासन देकर प्रजा से धन लेता है उसे सभी के सामने अनेक प्रकार की यातनायें देकर मृत्यु दंड देना चाहिये।
यौ निक्षेपं नार्पयति यश्चानिक्षिप्य याचते।
तावुभौ चैरवच्चासयो दाप्यौ या तस्समं दभम्।।
हिंदी में भावार्थ-किसी की धरोहर नहीं लौटाने वाले तथा बिना ही रखे उसे मांगने वालो को चोर के समान दंड देना चाहिये। धरोहर की राशि के बराबर ही उन पर दंड लगाना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कहना कठिन है कि भ्रष्टाचार के लिये शायद संस्कृत में कोई पर्यायवायी शब्द नहीं है या फिर राज्य कर्मचारियों द्वारा प्रजा से अनावश्यक रूप से धन ऐंठने को भ्रष्टाचार से अधिक घृणित अपराध माना गया है जिसके कारण उसके लिये भारी संताप देने के बाद मृत्युदंड का प्रावधान है। यहां अपने देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला है और भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को शिक्षा पद्धति से दूर शायद इसलिये रखा गया है कि लोग प्राचीन भारत को न जान सकें जिसमें आचरण और वैचारिक दृढ़ता को बहुत महत्व दिया जाता है। मनुस्मृति में नारी तथा जाति विषय श्लोकों लेकर इसकी आलोचना करने वाले बहुत मिल जायेंगे पर इसमें भ्रष्टाचार के लिये जो सजा है उसकी कोई जानकारी नहीं देता। भ्रष्टाचार को एक मामूली अपराध की तरह लेना ही हमारे समाज के नैतिक पतन का परिचायक है। हालत तो यह है कि आदमी स्वयं कहीं ने अनाधिकार धन लेता है तो उसे वह अपनी मौलिक आय लगती है और अगर दूसरा करे तो भ्रष्टाचार नजर आता है। वैचारिक रूप से अक्षम हो चुके समाज को जगाने के लिये अनेक प्रकार के लोग अभियान चलाते हैं पर उनका ध्येय केवल नारे लगाकर अपनी उपस्थिति प्रचार माध्यमों के द्वारा दर्ज कराना होता है न कि बदलाव लाना।
एक सामान्य व्यक्ति अगर किसी की धरोहर को वापस नहीं करता या फिर बिना रखे मांगता है तो उस पर उसकी नियत राशि के बराबर जुर्माना किया जा सकता है पर जनता की धरोहर के रूप में प्राप्त धन का दुरुपयोग करने वाले राज्य कर्मचारियों को मामूली सजा नहीं बल्कि भारी पीड़ा देकर मौत जैसी सजा देने का प्रावधान करना इस बात का प्रमाण है कि मनुस्मृति की कुछ बातें आज भी प्रासंगिक हैं। अपने आपको राज्य का प्रिय बताकर या उसकी कृपा का आश्वासन देकर धन लेने वाले के लिये हत्या जैसे जघन्य आरोप की सजा देने का प्रावधान करने से तो यही जाहिर होता है कि मनुस्मृति में भ्रष्टाचार को राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध मानते हैं। हालांकि आज के इस कथित सभ्य युग में मृत्युदंड को पाशविक माना जाता है पर उन अपराधों के बारे में क्या कहा जाये जो आज भी प्रासंगिक हैं? क्या इस बात का मतलब यह समझा जाये कि प्रजा से अनावश्यक रूप से धन ऐंठने को सहज अपराध मान जाये क्योंकि आज के समाज में कुछ रूप में प्रासंगिक है? क्या यह समझा जाये कि आज विश्व में सक्रिय राजकीय व्यवस्थाओं में इसका होना अनिवार्य है और लोगों को इसके साथ जीने की आदत पड़ गयी है? अब तो हालत यह है कि विश्व की अनेक संस्थायें इस तरह की सूची जारी करती हैं जिसमें भ्रष्टाचार के हिसाब से उनका क्रम भी बताया जाता है। एशियाई देशों का ही नहीं वरन् यूरोपीय राष्ट्र भी इससे अछूते नहीं है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
————————
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in adhyatma, आध्यात्म, संदेश, समाज, हिन्दी साहित्य
|
Tagged adhyatma, आध्यात्म, कला, संदेश, समाज, हिन्दी साहित्य, हिन्दू धर्म, hindu dharama, Religion
|
पर-प्रौक्तगुणो वस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-जिसके गुणों की प्रशंसा अन्य लोग भी करें उसका ज्ञान भले ही अल्प हो पर फिर भी उसे गुणवान माना जायेगा। इसके विपरीत जिसे ज्ञान में पूर्णता प्राप्त हो वह अगर स्वयं उनका बखान करे तो गुणहीन माना जायेगा भले ही वह साक्षात देवराज इंद्र ही क्यों न हो।
गुणैरुत्तमतां याति नीच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडायते।।
हिन्दी में भावार्थ-ऊंचे स्थान पर बैठने से कोई ऊंचा या महान नहीं हो जाता। गुणवान ही ऊंचा माना जाता। महल की अटारी पर बैठने से कौआ, गरुड़ नहीं कहलाने लगता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल की भौतिक दुनियां में संचार साधन अत्यंत प्रभावशाली हो गये हैं। अखबार, टीवी चैनल, मोबाईल, कंप्यूटर तथा अन्य साधनों से अधिकतर लोग जुड़े हुए हैं। अपनी व्यवसायिक बाध्यताओं के चलते प्रचार प्रबंधकों ने फिल्म, राजनीति, टीवी चैनल, साहित्य, कला, तथा पत्रकारिता में अनेक मिथक स्थापित कर दिये हैं। दुनियां भर में ऐसे मिथक एक दो हजार से अधिक नहीं होंगे। अपने ही देश में भी सौ दो सौ ऐसे अधिक प्रभावशाली नाम और चेहरे नहीं होंगे जो प्रचार माध्यमों में छाये हुए हैं। प्रचार माध्यम उनके चेहरे, नाम और बयान प्रस्तुत कर लोगों को व्यस्त रखते हैं। यह देखकर आजकल के अनेक युवा भ्रमित हो जाते हैं। उनको लगता है कि यह काल्पनिक चरित्र ही जीवन का सत्य है। राजनीति, अर्थतंत्र, प्रशासन, साहित्य, पत्रकारिता, फिल्म तथा कला के शिखर पर स्थापित लोग त्रिगुणमयी माया के गुणों से परे हैं-यह भ्रम पता नहीं कैसे लोगों में हो जाता है। जबकि सच यह है कि यह शिखर ही अपने आप में मायावी हैं इसलिये इन पर बैठे लोगों के सात्विक होने की आशा ही करना बेकार है। बाजार और प्रचार केवल उनके चेहरे, नाम और बयान भुनाने का प्रयास करते हैं। फिल्मों के कल्पित नायक सदी के महानायक और गायक सुर सम्राट कहलाते हैं पर सच यह है कि उनका कोई सामाजिक योगदान नहीं होता।
महान वही है जिसका कृत्य समाज में चेतना, आत्मविश्वास तथा दृढ़ता लाने का काम करता है। इतना ही नहीं उनका बदलाव लंबे समय तक रहता है। कहने का तात्पर्य यही है कि आर्थिक, सामाजिक तथा सामाजिक शिखरों पर विराजमान लोगों को महान समझने की गलती नहीं करना चाहिये। वह भी आम आदमी की तरह होते हैं। जिस तरह आम आदमी अपने परिवार की चिंता करता है वैसे ही वह करते हैं। महान आदमी वह है जो पूरी तरह से समाज की चिंता करते हुए उसे हित के लिये काम करता है। बड़े आदमी बनने के लिये यह आवश्यक है कि आप दूसरे लोगों के काम निस्वार्थ भाव से करें और अहंकार भी न दिखायें।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
————————
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in अध्यात्म, ज्ञान, संदेश, समाज, हिन्दी साहित्य
|
Tagged अध्यात्म, कला, ज्ञान, संदेश, समाज, हिन्दी साहित्य, हिन्दू धर्म
|
रहिमन वहां न जाइये, जहां कपट को हेत।
हम तन ढारत ढेकुली, संचित अपनी खेत।
कविवर रहीम कहते हैं कि उस स्थान पर बिल्कुल न जायें जहां कपट होने की संभावना हो। कपटी आदमी हमारे शरीर के खून को पानी की तरह चूस कर अपना खेत जोतता है/अपना स्वार्थ सिद्ध करता है।
रहिमन सीधी चाल सों, प्यादा होत वजीर।
फरजी साह न हुइ सकै, गति टेढ़ी तासीर।।
कविवर रहीम कहते हैं कि शतरंज के खेल में सीधी चाल चलते हुए प्यादा वजीर बन जाता है पर टेढ़ी चाल के कारण घोड़े को यह सम्मान नहीं मिलता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य कपट से चाहे जितनी भी भौतिक उपलब्धि प्राप्त कर ले पर समाज में उसका सम्मान बिल्कुल नहीं होता। डर और लालच के के मारे लोग दिखावे का सम्मान देते हैं पर दिल में तो सभी गालियां बकते हैं। हम देख सकते हैं कि कई वर्षों से अनेक ऐसे लोग हमारी आखों में चमक रहे हैं या चमकाये जा रहे हैं जो किसी भी दृष्टि से सज्जन नहीं है पर उनके पास ढेर सारी भौतिक उपलब्धियां हैं। उनको भगवान का अवतार या महापुरुष कहकर प्रचारित किया जाता है जबकि समाज के लोग उनको वक्र दृष्टि से देखते हैं। यह अलग बात है कि सामने कोई नहीं कहता। इधर आजकल के विज्ञापन युग में तो पैसा देकर लोग अपना नाम सभी प्रकाशित करवा रहे हैं। इससे यह भ्रम हो जाता है कि झूठ और अयोग्यता पुज रही है। सच बात तो यह है कि जिस व्यक्ति का अपने न रहने या पीठ पीछे भी सम्मान होता है वही सच्चा कहा जा सकता है। अनेक कथित महापुरुष मर गये पर अब उनका कोई नाम भी नहीं लेता। कई जग तो उनको गालियां पड़ती हैं पर ऐसे भी लोग हैं जो अल्प धनिक होने के बावजूद सज्जन थे उनको समाज आज भी याद करता है। इसलिये कपट के द्वारा भौतिक सफलता प्राप्त करने को विचार छोड़ते हुए किसी कपटी मनुष्य के पास जाना भी नहीं चाहिये। कपट करने से कपटी का साथ लेेने से कोई न तो राजा बन सकता है और न ही सम्मान पा सकता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.wordpress.com
—————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in आध्यात्म, धर्म, संदेश, समाज, हिन्दी साहित्य, हिन्दू
|
Tagged आध्यात्म, कला, धर्म, संदेश, समाज, हिन्दी साहित्य, हिन्दू
|
अंतर्गतमलो दृष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि।
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।
हिंदी में भावार्थ-जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैस मदिरा का पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता।
न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरात्वमेति।।
हिंदी में भावार्थ-दुष्ट व्यक्ति को कितना भी सिखाया या समझाया जाये पर वह अपना अभद्रता व्यवहार नहीं छोड़कर सज्जन नहीं बन सकता जैसे नीम का वृक्ष, दूध और घी से सींचा जाये तो भी उसमें मधुरता नहीं आती।
अंतर्गतमलो दृष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि।
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।
हिंदी में भावार्थ-जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैस मदिरा का पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की प्रकृत्ति का निर्माण बचपन काल में ही हो जाता है। मनुष्य के माता पिता, दादा दादी तथा अन्य वरिष्ठ परिवारजन जिस तरह का आचार विचार तथा व्यवहार करते हैं उसी से ही उसमें संस्कार और विचार का निर्माण होता है। इसके अलावा बचपन के दौरान ही जैसा खानपान होता है वैसे ही स्थाई गुणों का भी निर्माण होता है जो जीवन पर्यंत अपना कार्य करते हैं। एक बार जैसी प्रकृत्ति मनुष्य की बन गयी तो फिर उसमें बदलाव बहुत कठिन होता है।
इसलिये जिनमें दुष्टता का भाव आ गया है उनके साथ संपर्क कम ही रखें तो अच्छा है। चाहे जितना प्रयास कर लें दुष्ट अपना रवैया नहीं बदलता और अगर उसने किसी व्यक्ति विशेष को अपने दुव्र्यवहार का शिकार बनने का विचार कर लिया है तो फिर उससे बाज नहीं आता। ऐसे में सज्जन व्यक्ति को चाहिये कि वह खामोशी से दुष्ट के व्यवहार को नजरअंदाज करे क्योंकि उनकी प्रकृत्ति ऐसी होती है कि बिना किसी को तकलीफ दिये उनको चैन नहीं पड़ता। ऐसे दुष्ट किसी की मजाक उड़ाकर तो किसी के साथ अभद्र व्यवहार कर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। सज्जन के लिये दो ही उपाय है कि वह चुपचाप अपने रास्ते चले या अगर उसे नियंत्रण करने के लिये शारीरिक या आर्थिक बल है तो उस पर प्रहार करे पर इसके बावजूद भी यह संभावना कम ही होती है कि वह नालायक आदमी सुधर जाये। ऐसे दुष्ट लोग चाहे जितनी बार तीर्थ स्थान पर जाकर स्नान करें पर उनका उद्धार नहीं होता। तीर्थ पर जाने से शरीर का मल निकल सकता है पर मन का तो कोई योगी ही निकाल पाता है।
अभिप्राय यह है कि सत्संग और तीर्थस्थानों पर जाकर मन का मैल नहीं निकलता बल्कि उसके लिये अंतमुर्खी होकर आत्म चिंतन करना चाहिये। इतना ही नहीं अपने को ही सुधारने का प्रयास करना चाहिये। दूसरे से यह अपेक्षा न करें कि वह आपके समझाने से समझ जायेगा। कुछ लोगों में कुसंस्कार ऐसे भरे होते हैं कि उन्हें उपदेश देने से अपना ही अपमान होता है। अतः उससे दूर होकर ही अपना काम करें।
…………………………………….
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in अध्यात्म, संस्कार, सत्संग, समाज, हिन्दी साहित्य
|
Tagged अध्यात्म, कला, संस्कार, सत्संग, समाज, हिन्दी साहित्य, हिन्दू धर्म
|
पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्ज च यच्छाति।
अपूजितं च तद्भुक्तमूभयं नाशयेदिदम्।।
हिंदी में भावार्थ-सदाशयता से ग्रहण किया भोजन बल और वीर्य में वृद्धि करता है जब निंदा करते हुए उदरस्थ करने से उसके तत्व नष्ट होते हैं।
पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चेतकुत्सयन्
दृष्टवा हृध्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः।।
हिंदी में भावार्थ-मनुष्य को जैसा भोजन मिले उसे देखकर प्रसन्नता हासिल करना चाहिए। उसे ईश्वर प्रदत्त मानकर गुण दोष न निकालते हुए उदरस्थ करें। भोजन करते हुए अपनी झूठन न छोड़ें। यह कामना करें कि ऐसा अन्न हमेशा ही मिलता रहे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिनको भोजन आराम से मिलता है उनको उसका महत्व नहीं पता इसलिये वह उसे ऐसे करते हैं जैसे कि उसकी उनको परवाह ही नहीं है। भोजन करते समय उनको यह अहंकार आता है कि यह तो हमारा अधिकार ही है और हमारे लिये बना है। सच तो यह है कि भोजन का महत्व वही लोग जानते हैं जिनको यह नसीब में पर्याप्त मात्रा में नहीं होता। स्वादिष्ट भोजन की चाह आदमी को अंधा बना देती है। अनेक बार ऐसा समय आता है जब वह सब्जी के कारण भोजन नहीं करता या उसे त्याग देता है। भोजन करते समय उसकी निंदा करेंगे। शादी विवाह में तो अब यह भी होने लगा है कि लोग भोजन थाली में भरकर लेते हैं पर उसमें से ढेर सारा झूठन में छोड़े देते हैं। सार्वजनिक अवसरों पर ऐसे भोजन की बरबादी देखी जा सकती है।
यह समझ लेना चाहिये कि भोजन तो ईश्वरीय कृपा से मिलता है। यह सही है कि दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, पर यह भी नहीं भूलना कि अपने कर्म और भाव से भी भाग्य का निर्माण होता है। अगर हम भोजन करते हुए अहंकार पालेंगे तो संभव है कि दानों पर लिखा हमारा नाम मिट भी जाये। अपनी गृहिणी को कभी भी सब्जी आदि को लेकर ताना नहीं देना चाहिये। यह भगवान की कृपा समझें कि एक ऐसी गृहिणी आपके साथ है जो अपने हाथ से खाना बनाकर देती है वरना तो अनेक लोग घर के खाने के लिये तरस जाते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि खाते हुए अपना भाव सौम्य और सरल रखना चाहिए तभी भोजन के तत्व संपूर्ण रूप से काम करते हैं अगर मन में क्लेश या अप्रसन्नता है तो फिर खाना न खाना बराबर है। एक बात निश्चित है कि अगर तनाव में खाना खाया तो समझ लीजिये केवल पेट भरा पर उससे मिलने वाली ऊर्जा निरर्थक हो जाती है। आपने अक्सर सुना होगा कि जिनको दिमागी तनाव रहता है उन्हीं को उच्च रक्तचाप और मधुमेह की शिकायत होती है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.wordpress.com
———————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in आध्यात्म, धर्म, संदेश, समाज, हिंदी साहित्य, हिन्दू, hindi sahitya, sandesh
|
Tagged आध्यात्म, कला, धर्म, संदेश, समाज, हिंदी साहित्य, हिन्दू, hindi sahitya, hindu dharama, sandesh
|
अकस्मादेव यः कोपादभीक्ष्णं बहु भाषते।
तसमाबुद्धिजते लोकः सस््फुलिंगदिवानलात्।।
हिंदी में भावार्थ-जो व्यक्ति अचानक ही क्रोध में अनापशनाप बकने लगता है वह संसार को वैसे ही अपने विपरीत बना लेता है जैसे आग से निकलने वाली चिंगारी से लोग उत्तेजित होकर उससे दूर हो जाते हैं।
वाक्पारुष्यपरं लोक उद्वेजनमनर्थम्।
न कुर्यात्प्रियया वाचा प्रकृर्यात्ज्जगदात्मताम्।।
हिंदी में भावार्थ-जिस मनुष्य के वाक्यों में कठोरता है उससे लोग उत्तेजित हो जाते हैं। ऐसी अनर्थकारी वाणी न बोलें। इस जगत को अपने मधुर वाणी से वश में किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर इतिहास का अवलोकन करें तो अधिकतर संघर्ष अहंकार को लेकर हुऐ हैं वरना किसी को किसी पर आक्रमण करने की आवश्यकता क्या है? अपने आसपास होने वाली हिंसक वारदातों को देखें तो उनके पीछे बात का बतंगड़ अधिक होता है। हर समस्या का हल होता है पर उसे व्यक्त करने का अपना एक तरीका होता है। कहीं पानी को लेकर झगड़ा है तो कहीं जमीन का झगड़ा है। किसी की वजह से अगर पानी नहीं मिल रहा है तो उससे प्रेम से भी अपनी बात भी कही जा सकती है तो दूसरा व्यक्ति सहजता से मान भी जाये पर जहां दादागिरी, क्रोध या घृणा से बात कही गयी वहां अच्छे परिणाम की संभावना नगण्य हो जाती है। मनुष्य में अहंकार होता है और जहां उससे लगता है कि वह प्रेम से बोलने पर सामने वाले की आंखों में छोटा हो जायेगा या कड़ा बोलकर बड़प्पन दिखायेगा वहां विवाद होता है वहीं उसके अंदर अहंकार के कारण जो क्रोध पैदा होता है वही झगड़े का कारण बनता है।
इसलिये जहां तक हो सके मधुरवाणी बोलना चाहिये। इसे सज्जनता समझें या चालाकी पर इस संसार को इसी तरह ही जीता जा सकता है। आज जब मनुष्य में विवेक की कमी है वहां तो बड़ी सहजता से किसी में हवा से फुलाकर काम निकलवाया जा सकता है तब क्रोध करने की आवश्यकता है? दूसरी बात यह है कि लोगों में सहिष्णुता के भाव की कमी हो गयी है जिससे वह किसी की बात को सहन नहीं कर सकते। ऐसे समय में उनसे जरा सी कटु बात कहना भी उनको शत्रु बनाना है। अतः अच्छा यही है कि सभी से मधुरवाणी में बोलकर अपना काम निकालें।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.wordpress.com
………………………….
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in adhyatma, आध्यात्म, धर्म, समाज, हिन्दी साहित्य, हिन्दू, hindi sahitya, society
|
Tagged adhyatma, आध्यात्म, कला, धर्म, समाज, हिन्दी साहित्य, हिन्दू, hindi sahitya, hindu dharma, society
|
पश्यदिभ्र्दूरतोऽप्रायान्सूपायप्रतिपत्तिभिः।
भवन्ति हि फलायव विद्वादभ्श्वन्तिताः क्रिया।।
हिन्दी में भावार्थ-विद्वान तो दूर से विपत्तियों को आता देखकर पहले ही से उसकी प्रतिक्रिया का अनुमान कर लेता है और इसी कारण अपनी क्रिया से उसका सामना करता है।
अशिक्षितनयः सिंहो हन्तीम केवलं बलात्।
तच्च धीरो नरस्तेषां शतानि जतिमांजयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-सिंह किसी नीति की शिक्षा लिये बना सीधे अपने दैहिक बल से ही आक्रमण करता है जबकि शिक्षित एवं धीर पुरुष अपनी नीति से सैंकड़ों को मारता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सिंह बुद्धि बल का आश्रय लिये बिना अपने बल पर एक शिकार करता है पर जो मनुष्य ज्ञानी और धीरज वाला है वह एक साथ सैंकड़ों शिकार करता है। महाराज कौटिल्य का यह संदेश आज के संदर्भ में देखें तो पता लगता है कि हमारे देश में लोगों की समझ इसलिये कम है क्योंकि वह अपने अध्यात्मिक साहित्य आधुनिक शिक्षा में पढ़ाया नहीं जाता। अंग्रेज हिंसा से इस देश में राज्य नहीं कर पा रहे थे तब उन्होंने अपने विद्वान मैकाले का यह जिम्मेदारी दी कि वह कोई मार्ग निकालें। उन्होंने ऐसी शिक्षा पद्धति निकाली कि अब तो अंग्रेज ब्रिटेन में हैं पर अंग्रेजियत आज भी राज्य कर रही है। अब तलवारों से लड़कर जीतने का समय गया। अब तो फिल्म, शिक्षा, धारावाहिक, समाचार पत्र, किताबें तथा रेडियो से प्रचार कर भी सैंकड़ों लोगों को गुलाम बनाया जा सकता है। इनमें फिल्म और टीवी तो एक बड़ा हथियार बन गया है। आप फिल्में और टीवी की विषय सामग्रंी देखकर उसका मनन करें तो पता लग जायेगा कि जाति, धर्म, और भाषा के गुप्त ऐजेडे वहीं से लागू किये जा रहे हैं। फिल्म और टीवी वाले तो कहते हैं कि समाज में जो चल रहा है वही दिखा रहे हैं पर सच तो यह है कि उन्होंने अपनी कहानियों में ईमानदार लोगों का परिवार समेत तो हश्र दिखाया वह कहीं नहीं हुआ पर उनकी वजह से समाज डरपोक होता चला गया और आज इसलिये अपराधियों में सार्वजनिक प्रतिरोध का भय नहीं रहा। वजह यह थी कि इन फिल्मों में अपराधियों का पैसा लगता रहा था। फिल्मों के अपराधी पात्र गोलियों से दूसरों को निशाना बनाते थे पर उनको नायक के हाथ से पिटते हुए दिखाया गया। स्पष्टतः संदेश था कि आप अगर नायक नहीं हो तो आतंक या बेईमानी से लड़ना भूल जाओ। इस तरह समाज को डरपोक बना दिया गया और अब तो पूरी तरह से अपराधियों को महिमा मंडन होने लगा है।
अगर आप कभी फिल्म या टीवी धारवाहिकों की पटकथा तथा अन्य सामग्री देखें और उस पर चिंतन करें तो हाल पता लग जायेगा कि उसके पीछे किस तरह के प्रायोजक हैं? यह एक चालाकी है जो धनवान और शिक्षित लोग करते हैं। अंग्रेज लोग हमारे धार्मिक ग्रंथों को खूब पढ़ते रहे होंगे इसलिये उन्होंने एसी शिक्षा पद्धति थोपी कि उनसे यह देश अपनी प्राचीन विरासत से दूर हो जाये। अब क्या हालत है कि जो अंग्रेज जो कहें वही ठीक है। वह अपनी परंपराओं तथा भाषा के कारण आज भी यहां राज्य कर रहे हैं। उनकी दी हुई शिक्षा पद्धति यहां गुलाम पैदा करती है जो अंग्रेजों की सेवा के लिये वहां जाकर उनकी सेवा के लिये तत्पर रहते हैं। सच यह बात है कि अंग्रेजी की यह शिक्षा केवल गुलाम ही बना सकती है जबकि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान मनुष्य को एक ऐसा विद्वान बना सकता है जो हर जगह शासन कर सकता है।
————-
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
————————
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in adhyatm, अध्यात्म, संदेश, समाज, हिन्दी साहित्य, dharm, hindi sahitya, sandesh
|
Tagged adhyatm, अध्यात्म, कला, संदेश, समाज, हिन्दी साहित्य, हिन्दू धर्म, dharm, hindi sahitya, sandesh
|
भक्ष्योत्तमप्रतिच्छन्नं मत्स्यो वङिशमायसम्।
लोभाभिपाती ग्रसते नानुबन्धमवेक्षते।।
यच्छक्यं ग्रसितुं ग्रस्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्।
हितं च परिणामे यत् तदाद्यं भतिमिच्छता।।
हिंदी में भावार्थ-मछली कांटे से लगे चारे को लोभ में पकड़ कर अपने अंदर ले जाती है उस समय वह उसके परिणाम पर विचार नहीं करती। उससे प्रेरणा ग्रहण कर उन्नति चाहने वाले पुरुष को ऐसा ही भोजन ग्रहण करना चाहिये जो खाने योग्य होने के साथ पेट में पचने वाला भी हो। जो भोजन पच सकता है वह ग्रहण करना ही उत्तम है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-हमारे देश में फास्ट फूड संस्कृति का प्रचार निरंतर बढ़ता जा रहा हैं। क्या जवान, क्या अधेड़ और बूढ़े और क्या स्त्री और पुरुष, बाजारों में बिकने वाले फास्ट फूड पदार्थों को खाने में आनंद अनुभव करते हैं। यह पश्चिम से आया फैशन है पर वहीं के स्वास्थ्य विशेषज्ञ उसे पेट के लिये खराब और अस्वास्थ्यकर मानते हैं। इसके अलावा मांस खाना भी पश्चिम के ही विशेषज्ञ गलत मानते हैं।
इन्हीं पश्चिमी स्वास्थ्य विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि मांस खाने से मनुष्य में अनावश्यक आक्रामकता आती है और वह जल्दी ही हिंसा पर उतारु हो जाता है। यह जरूरी नहीं है कि भोजन में विष मिला हो तभी वह बुरा प्रभाव डालता है। विष मिले भोजन को पता तो तत्काल चल जाता है क्योंकि उसकी देह पर तत्काल प्रतिक्रिया होती है पर असात्विक और बीमारी वाले भोजन का पता थोड़े समय बाद चलता है। खाने के बाद भोजन पचने से आशय केवल उसका भौतिक रूप नहीं है बल्कि भावनात्मक रूप से पचने से है। अगर मांस वाला भोजन किया तो लगता है कि वह पच गया पर उसके लिये जिस जीव की हत्या हुई उसकी भावनायें भी उसी मांस में मौजूद होती है और सभी जानते है कि भावनाओं का कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता जो किसी को दिखाई दे। अतः मांस खाने वाले के पेट में वह कलुषित भावनायें भी चली जाती हैं जो उस समय उस जीव के अंदर मौजूद थी जब उसे काटा गया। यही हाल ऐसे भोजन का भी है जिसके बहुत से पदार्थ अपच्य है पर वह पेट में धीरे धीरे जमा होकर बड़ी बीमारी का स्वरूप लेते हैं। ऐसा अशुद्ध पेय पदार्थों के सेवन पर भी होता है।
श्रीमदभागवत गीता में ‘गुण ही गुणों के बरतते है’ का जो सिद्धांत बताया गया है उसका यह भी तात्पर्य है कि जैसे अन्न और जल का भोजन हम करते हैं वैसा ही उसका प्रभाव हम पर होता है और हम उससे बच नहीं सकते। अतः प्रयास यही करना चाहिये कि सात्विक भोजन करें ताकि हमारे विचार भी पवित्र रहें जो कि आनंदपूर्ण जीवन के अति आवश्यक हैं। अगर हम स्वच्छ और पवित्र भोजन करेंगे तो हमारे विचार वैसे ही होंगे फलस्वरूप हमारे कर्म भी अच्छे होंगे और जीवन में आनंद प्राप्त होगा।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.wordpress.com
…………………………………….
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in आध्यात्म, विचार, समाज, हिंदी साहित्य, hindi sahitya, hindu dharm
|
Tagged आध्यात्म, कला, विचार, समाज, हिंदी साहित्य, हिन्दू धर्म, hindi sahitya, hindu dharm
|
पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष के , भिस्त बसै क्यौं नांहि
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।
आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगों में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये । आजकल विश्व में अहिंसा का आशय केवल ; मनुष्यों के प्रति हिंसा निषिद्ध करने से लिया जाता है जबकि अहिंसा का वास्तविक आशय समस्त जीवों के प्रति हिंसा न करने से है। किसी को मानसिक पीड़ा देना भी हिंसा के श्रेणी में आता है।
——————————
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in adhyatm, आध्यात्म, दर्शन, धर्म, समाज, हिन्दू, hindi article
|
Tagged adhyatm, आध्यात्म, कला, दर्शन, धर्म, समाज, हिन्दी, हिन्दू, hindi article, Religion
|
रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय
पसु खर खात सवाद सों, गुर बुलियाए खाय
कविवर रहीम कहते है कि भगवान राम को हृदय में धारण करने की बजाय लोग भोग और विलास में डूबे रहते है। पहले तो अपनी जीभ के स्वाद के लिए जानवरों की टांग खाते हैं और फिर उनको दवा भी लेनी पड़ती है।
वर्तमान सदंर्भ में व्याख्या-वर्तमान समय में मनुष्य के लिये सुख सुविधाएं बहुत उपलब्ध हो गयी है इससे वह शारीरिक श्रम कम करने लगा हैं शारीरिक श्रम करने के कारण उसकी देह में विकार उत्पन्न होते है और वह तमाम तरह की बीमारियों की चपेट में आ जाता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन भी रहता है। इसके अलावा जैसा भोजन आदमी करता है वैसा ही उसका मन भी होता है।
आज कई ऐसी बीमारिया हैं जो आदमी के मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न होती है। इसके अलावा मांसाहार की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। मुर्गे की टांग खाने के लिय लोग बेताब रहते हैं। शरीर से श्रम न करने के कारण वैसे ही सामान्य भोजन पचता नहीं है उस पर मांस खाकर अपने लिये विपत्ति बुलाना नहीं तो और क्या है? फिर लोगों का मन तो केवल माया के चक्कर में ही लगा रहता है। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि अगर कोई आदमी एक ही तरफ ध्यान लगाता है तो उसे उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसे विकास घेर लेते हैं। माया के चक्कर से हटकर आदमी थोड़ा राम में मन लगाये तो उसका मानसिक व्यायाम भी हो, पर लोग हैं कि भगवान श्रीराम चरणों की शरण की बजाय मुर्गे के चरण खाना चाहते हैं। यह कारण है कि आजकल मंदिरों में कम अस्पतालों में अधिक लोग शरण लिये होते हैं। भगवान श्रीराम के नाम की जगह डाक्टर को दहाड़ें मारकर पुकार रहे होते है।
अगर लोग शुद्ध हृदय से राम का नाम लें तो उनके कई दर्दें का इलाज हो जाये पर माया ऐसा नहीं करने देती वह तो उन्हें डाक्टर की सेवा कराने ले जाती है जो कि उसके भी वैसे ही भक्त होते हैं जैसे मरीज। अब तो दुनिया में डाक्टर हो या मरीज, गुरु हो या चेला और दर्शक हो या अभिनेता सभी राम का नाम लेते हैं पर उनके हृदय में माया का वास होता है।
—————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in adhyatm, आध्यात्म, दर्शन, धर्म, समाज, हिंदी, हिन्दू, hindi, hindu, rahim ke dohe
|
Tagged adhyatm, आध्यात्म, कला, दर्शन, धर्म, समाज, हिंदी, हिन्दू, hindi, hindu, rahim ke dohe, Religion
|