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भर्तृहरि नीति शतक-अपने स्वार्थ हो तो भी गजराज की तरह व्यवहार करें


      इस संसार में भूख सभी को लगती है पर भोजन पाने और करने के सभी के तरीके अलग हैं।  अपना कमाकर खाने वाले लोग जहां जीवन में आत्मविश्वास से भरे होते हैं वही दूसरे से कर्ज, भीख अथवा मदद मांगने वाले लोग हमेशा ही हृदय में दीनता का भाव लेकर जीते हैं। कहा जाता है कि जैसा खायें अन्न वैसा ही होता है मन। इसका आशय अन्न के दानों का स्वरूप ही नहीं वरन् उसके लिये अर्जित धन से साधन से भी जोड़ना चाहिये।  यह भी कहा जाता है कि परमात्मा पेट देने से ही पहले अन्न के दानों पर खाने वाले का नाम लिख देता है। यह ज्ञान रखने वाले लोग आत्मविश्वास से जीवन में अपना हर काम करते हैं। इसके विपरीत जो मन में कर्ता का भाव लिये होते हैं उन्हें परमात्मा की इस सांसरिक कृति पर यकीन नहीं होता इसलिये अपनी आवश्यकताओं के लिये वह अतिरिक्त सक्रियता दिखाते हैं। उनके मस्तिष्क में चिंताओं का ढेर भरा होता है।  जिसके चलते न केवल वह दैहिक बल्कि मानसिक रूप से भी अस्वस्थ हो जाते हैं।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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ङ्गल चालनमधरश्चरणावपातं भूमी निपत्य वदनोदर दर्शनं च।

श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्वते।।

     हिन्दी में भावार्थ-कुत्ता भोजन देने वाले के आगे पूंछ हिलाकर उसके सामने मुंह वह पेट दिखाते हुए लोटपोट उसके  अपनी दीनता प्रदर्शित करता है जबकि हाथी उसे गंभीरता से देखता है और कई बार मनाने पर ही भोजन ग्रहण करता है।

कृमिकुलचित्तं लालक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितमु निरुपमरसं प्रीत्या खादनन्नरास्थि निरामिषम्।

सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्यं विलोक्य न शंकते न हि गणवति क्षुद्रो जन्तु पिरग्रहफलगुनाम्।।

हिन्दी में भावार्थ-कीड़ों से युक्त, रसहीन, दुर्गंध से भरी, स्वादरहित, घृणित हड्डी को पकड़ कर बहुत उत्साह से चबाता है। उस सयम अपने पास आये देवता की भी उसे परवाह नहीं होती।

      हम देख रहे हैं कि हमारा परंपरागत भारतीय समाज पूरी तरह से बिखर चुका है।  यह कहा जरूर जाता है कि हम एक संगठित भारतीय समाज के सदस्य हैं पर  सभी को पता है कि यह दावा एकदम खोखला है।  सभी दावा करते हैं कि वह किन्हीं जातीय, धार्मिक, भाषाई अथवा विशिष्ट समाज के सदस्य होने के कारण सुरक्षित अनुभव करते हैं पर सच यह है किसी को हृदय से अपनी ही बात पर ही यकीन नहीं होता है।  पाश्चात्य वस्तुओं को अपनी दैनिक तथा सांस्कारिक आवश्यकताओं के मूल से जोड़ने वाले हमारे  भारतीय समाज का मनोबल गिरा हुआ है।  हम भ्रष्टाचार तथा बेईमानी के विरुद्ध प्रत्यक्ष रूप से अभियान छेड़ने की बात तो करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि इसमें लिप्त लोग इसी भारतीय समाज के सदस्य हैं।  भ्रष्टाचार और बेईमानी में लगे लोगों को दूसरे का अपराध तो दिखता है पर अपना धन का लोभ इस आशंका के मारे नहीं छोड़ पाते कि अगर संपन्नता नहीं है तो समाज उनको पूछेगा भी नहीं-यही नहीं वह लोग अपने बेईमानी को मेहनत की कमाई मानने का तर्क स्वयं को देकर ही समझाते हैं।

      कहने का अभिप्राय यह है कि हम दूसरे की तरफ न देखें वरन् अपने व्यवहार, विचार तथा व्यक्तित्व पर दृष्टिपात करें।  अगर हम दृढ़ता पूर्वक सत्य का मार्ग लेंगे तो कभी जीवन में कुंठा का अनुभव नहीं होगा।  जो व्यक्ति सिद्धांत पर दृढ़ रहता है उसके मुख मंडल पर तेज स्वतः प्रकट होता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

 

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

 

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चाणक्य दर्शन-वाणी और मन की शुद्धि ही असली धर्म (chankya darshan-vani aur man ki shuddhi asli dharam)


वाचः शौचं च मनसः शौचन्द्रियनिग्रहः।
सर्वभूतिे दया शौचं एतच्छौत्रं पराऽर्थिनाम्।।
हिंदी में भावार्थ-
वाणी की पवित्रता, मन की स्वच्छता, इंन्द्रियों पर नियंत्रण, समस्त जीवों पर दया और भौतिक साधनों की शुद्धता ही वास्तव में धर्म है।
पुष्पे गंधं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम्।।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्चाऽऽत्मानं विवेकतः।।
हिंदी में भावार्थ-
पुष्पों में सुंगध, तिल में तेल, लकड़ी में आग और ईख में गुड़ प्रकार विद्यमान होते हुए भी दिखाई नहीं देता वैसे ही शरीर में आत्मा का निवास है। इस बात को विवेकशील व्यक्ति ही समझ पाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस विश्व में अनेक प्रकार के धर्म प्रचलन में आये हैं और हरेक में एक मध्यस्थ होता है जो उसका आशय समझाता है-आम आदमी उसकी बात पर ही यकीन कर लेता है। अनेक तरह की कहानियां सुनाकर लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन किया जाता है। धर्म के नाम पर शांति की बात इसलिये की जाती है क्योंकि उसी के नाम पर सबसे अधिक झगड़े होते हैं। कहीं धार्मिक मध्यस्थ का प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ होता है तो कहीं उसका सामाजिक महत्व ही इस प्रकार का होता है उसे राज्य और समाज से अप्रत्यक्ष रूप में लाभ मिलता है। धर्म के आशय इतने बड़े कर दिये गये हैं कि लोगों को यही पता नहीं रह जाता कि वह क्या है?
धर्म का आशय है वाणी, मन और विचारों में शुद्धता होना साथ ही अपने नियमित कर्म मेें पवित्रता रखना। केवल मनुष्य ही नहीं सभी प्रकार के जीवों पर दया करना ही मनुष्य का धर्म है। शेष बातें तो केवल सामाजिक एवं जातीय समूह बनाकर शक्तिशाली लोग उन पर नियंत्रण बनाये रखने के लिये करते हैं।

अक्सर लोग आत्मा को लेकर भ्रमित रहते हैं। उनके लगता है कि अपनी इंद्रियों से जो सुनने, बोलने, देखने और खाने की क्रियायें हम कर रहे हैं। यह केवल एक संकीर्ण सोच है। यह हमारी देह है जिसकी समस्त इंद्रियां स्वतः इसलिये कर पाती हैं क्योंकि आत्मा उनको ऊर्जा देती है। वही आत्मा हम है। जिस तरह ईख (गन्ने) में गुड़ दिखाई नहीं देता उसी तरह आत्मा भी नहीं दिखाई देता। जिस तरह एक गन्ने को निचोड़कर उसमें से गुड़ निकालने पर दिखाई देता है इसलिये इंद्रियों पर नियंत्रण कर जब उनहें निचोड़ा जाये तभी वह आत्मा दिखाई देता है। ध्यान योगासन,प्राणायम और भक्ति भाव से जीवन गुजारना ही वह प्रक्रिया है जिससे अपने आत्मा का दर्शन किया जा सकता है। इसे ही आध्यामिक ज्ञान भी कहा जाता है जिसे समझने के बात जीवन में कोई भ्रम नहीं रहता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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