Category Archives: ज्ञान

भर्तृहरि नीति शतक-अपने स्वार्थ हो तो भी गजराज की तरह व्यवहार करें


      इस संसार में भूख सभी को लगती है पर भोजन पाने और करने के सभी के तरीके अलग हैं।  अपना कमाकर खाने वाले लोग जहां जीवन में आत्मविश्वास से भरे होते हैं वही दूसरे से कर्ज, भीख अथवा मदद मांगने वाले लोग हमेशा ही हृदय में दीनता का भाव लेकर जीते हैं। कहा जाता है कि जैसा खायें अन्न वैसा ही होता है मन। इसका आशय अन्न के दानों का स्वरूप ही नहीं वरन् उसके लिये अर्जित धन से साधन से भी जोड़ना चाहिये।  यह भी कहा जाता है कि परमात्मा पेट देने से ही पहले अन्न के दानों पर खाने वाले का नाम लिख देता है। यह ज्ञान रखने वाले लोग आत्मविश्वास से जीवन में अपना हर काम करते हैं। इसके विपरीत जो मन में कर्ता का भाव लिये होते हैं उन्हें परमात्मा की इस सांसरिक कृति पर यकीन नहीं होता इसलिये अपनी आवश्यकताओं के लिये वह अतिरिक्त सक्रियता दिखाते हैं। उनके मस्तिष्क में चिंताओं का ढेर भरा होता है।  जिसके चलते न केवल वह दैहिक बल्कि मानसिक रूप से भी अस्वस्थ हो जाते हैं।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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ङ्गल चालनमधरश्चरणावपातं भूमी निपत्य वदनोदर दर्शनं च।

श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्वते।।

     हिन्दी में भावार्थ-कुत्ता भोजन देने वाले के आगे पूंछ हिलाकर उसके सामने मुंह वह पेट दिखाते हुए लोटपोट उसके  अपनी दीनता प्रदर्शित करता है जबकि हाथी उसे गंभीरता से देखता है और कई बार मनाने पर ही भोजन ग्रहण करता है।

कृमिकुलचित्तं लालक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितमु निरुपमरसं प्रीत्या खादनन्नरास्थि निरामिषम्।

सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्यं विलोक्य न शंकते न हि गणवति क्षुद्रो जन्तु पिरग्रहफलगुनाम्।।

हिन्दी में भावार्थ-कीड़ों से युक्त, रसहीन, दुर्गंध से भरी, स्वादरहित, घृणित हड्डी को पकड़ कर बहुत उत्साह से चबाता है। उस सयम अपने पास आये देवता की भी उसे परवाह नहीं होती।

      हम देख रहे हैं कि हमारा परंपरागत भारतीय समाज पूरी तरह से बिखर चुका है।  यह कहा जरूर जाता है कि हम एक संगठित भारतीय समाज के सदस्य हैं पर  सभी को पता है कि यह दावा एकदम खोखला है।  सभी दावा करते हैं कि वह किन्हीं जातीय, धार्मिक, भाषाई अथवा विशिष्ट समाज के सदस्य होने के कारण सुरक्षित अनुभव करते हैं पर सच यह है किसी को हृदय से अपनी ही बात पर ही यकीन नहीं होता है।  पाश्चात्य वस्तुओं को अपनी दैनिक तथा सांस्कारिक आवश्यकताओं के मूल से जोड़ने वाले हमारे  भारतीय समाज का मनोबल गिरा हुआ है।  हम भ्रष्टाचार तथा बेईमानी के विरुद्ध प्रत्यक्ष रूप से अभियान छेड़ने की बात तो करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि इसमें लिप्त लोग इसी भारतीय समाज के सदस्य हैं।  भ्रष्टाचार और बेईमानी में लगे लोगों को दूसरे का अपराध तो दिखता है पर अपना धन का लोभ इस आशंका के मारे नहीं छोड़ पाते कि अगर संपन्नता नहीं है तो समाज उनको पूछेगा भी नहीं-यही नहीं वह लोग अपने बेईमानी को मेहनत की कमाई मानने का तर्क स्वयं को देकर ही समझाते हैं।

      कहने का अभिप्राय यह है कि हम दूसरे की तरफ न देखें वरन् अपने व्यवहार, विचार तथा व्यक्तित्व पर दृष्टिपात करें।  अगर हम दृढ़ता पूर्वक सत्य का मार्ग लेंगे तो कभी जीवन में कुंठा का अनुभव नहीं होगा।  जो व्यक्ति सिद्धांत पर दृढ़ रहता है उसके मुख मंडल पर तेज स्वतः प्रकट होता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

 

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

 

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एक सौर मंडल जो धरती पर रहता है-हिन्दी व्यंग्य (dharti par rahane wala saurmandal-hindi vyangya)


धरती को जिंदा रखने के लिऐ उसके पास सौरमंडल होना चाहिए, ऐसा वैज्ञानिक कहते हैं। इसका सीधा आशय यह है कि सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति तथा अन्य ग्रहों के रक्षा कवच पर ही धरती और उस पर विचरण करने वाला जीवन टिका रहता है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र तो यह भी मानता है कि इन सब ग्रहों की चाल का मनुष्य के जीवन पर प्रभाव पड़ता है। इधर हमारे मन में यह भी ख्याल आया कि एक सौर मंडल इस धरती पर भी विचरता है जो सामने है पर दिखता नहीं क्योंकि इसके सारे ग्रह इतने पर्दों मे रहते हैं ं कि सभी ग्रह एक दूसरे को देख तक नहीं पाते, अलबत्ता दोनों का एक दूसरे से मिलन नहीं होता क्योंकि उनके परिक्रमा पथ कभी आपस में टकराते नहीं है। राजा और प्रजा दो भागों में बंटे मनुष्य जीवन पर इसका प्रभाव पड़ता है भले ही दोनों को यह दिखाई नहीं देता।
इस सौर मंडल के ग्रह हैं पूंजीपति, बाहूबली, धार्मिक ठेकेदार तथा अपराधियों के गिरोह ओर उनके दलाल। पूंजीपति तो सूरज की तरह है जिनकी रौशनी से सारे सारे छोटे ग्रह चमत्कृत होते हैं। सृष्टि के निर्माण से ही यह गिरोह चलते रहे होंगे पर आजकल कृत्रिम दूरदृष्टि मिल जाने के कारण आम लोगों को भी दिखाई देने लगे हैं-बुद्धिमानों तो इनके प्रभाव का आभास कर लेते हैं पर सामान्य लोगों को शायद ही होता हो।
जब बात पूंजीपतियों की बात चली है तो आजकल अमेरिका नाम का एक धरती पर स्वर्ग है जहां इनकी बस्ती बन गयी है और तय बात है कि वहां का कोई भी राज्यप्रमुख उनके लिये एक तरह से बहुत बड़ा सुरक्षाकवच की तरह काम करता है। हालांकि वह स्वतंत्र दिखता है पर लगता नहीं है। वह अपनी चाल चल रहा है पर लगता है कि उसे चलना भर है बाकी काम तो उसके मातहत ही करते होंगे।
पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के विमान की बात कर लें। विमान का अधिक वर्णन तो हमारे लिये संभव नहीं है क्योंकि अपने खटारा स्कूटर की याद आने लगती है और लिखना बंद हो जाता है। विमान एक तरह से महल होने के साथ अभेद्य किला है। वहां बैठा राष्ट्रपति यात्रा के दौरान ही अपनी सेना और प्रशासन के अधिकारियों से संपर्क कर सकता है-करता होगा इसमें शक ही है क्योंकि अमेरिका की व्यवस्था ऐसी ही दिखती है। कोई आपत्ति आ जाये तो राष्ट्रपति वहां से कोई भी कार्यवाही करने का आदेश दे सकता है-इसकी आवश्यकता पड़ती होगी यह संभावना नगण्य है। कहने का अभिप्राय यह है कि उसमें महल जैसी सारी व्यवस्था है, विमान तो बस नाम है।
भारतीय प्रचार माध्यम अमेरिकी राष्ट्रपति के आगमन पर उसके विमान, पत्नी तथा वक्तव्यों का खूब वर्णन करते हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने ताज होटल पर हुए हमले की निंदा की पर पाकिस्तान का नाम नहीं लिया।
शायद आगे लेंगे जब भारतीय समकक्षों से मिलेंगें।
वह पाकिस्तान नहीं जा रहे, इससे यह संदेश तो मिल ही रहा है कि वह भारत में अपना हित अधिक देखते हैं।
ऐसे बहुत से जुमले हैं जो ओबामा के आने पर तीसरी बार सुने गये। पहले क्लिंटन आये फिर जार्ज बुश, तब भी यही नज़ारा था। तीनों राष्ट्रपति पहले बैंगलौर या मुंबई आये फिर नई दिल्ली। दोनों पाकिस्तान नहीं गये इस पर बहस! संदेश ढूंढने की कोशिश! हमने तीनों को देखा। हम सोचते हैं कि क्या वह इतने विराट व्यक्तित्व के स्वामी है जितना वर्णन किया जाता है या उनका पद ही उनको विराटता प्रदान कर रहा है। दूसरी ही बात सही लगती है।
जार्ज बुश को तो राष्ट्रपति बनने से पहले तक यही नहीं मालुम था कि भारत देश किस दिशा में है, पर बाद में भारत का लोहा मानते हुए दिखाये और बताये गये।
अब ओबामा की चाल ढाल पर नज़र रखी। एक ऐसे इंसानी बुत नज़र आये जिसे विराट व्यक्तित्व का स्वामी बना दिया गया है। कोई कसर नहीं रहे इसलिये उनको शांति का नोबल भी दिया गया। अनेक लोग हैरान हुए थे पर उस समय भी हमने लिखा था कि विश्व का बाज़ार अपना यह बुत चमका रहा है। यह बात अब सत्य लगती है।
उनके साथ 250 पूंजीपतियों का समूह आया है। मुंबई में भारतीय पूंजीपतियों के साथ ही उनका सम्मेलन है। अमेरिका चाहता है कि भारतीय पूंजीपति उनके यहां निवेश करे। इस सम्मेलन को एक मुखिया की तरह ओबामा संबोधित कर चुके हैं। पहले भी राष्ट्रपति ऐसा ही कर चुके हैं। पूंजीपति यानि इस धरती का सूर्य जिससे सभी को जीवन मिलता है। अमेरिका में यह सच होगा पर भारत में आज भी कृषि आधारित व्यवस्था है। अगर यहां कृषि ठप्प हो जाये तो फिर पैसा नहीं मिलने का। भारत का पानी भी अब बाहर बिकने लगा है जो यहां के पूंजीपतियों के पैट्रोल जैसा कीमती हो गया है। कहा जाता है कि भारत में जलस्तर जितना ऊपर है उतना कहीं नहीं है। यह प्रकृति की कृपा है पर अब पानी भी पैट्रोल की तरह दुर्लभ होता जा रहा है। धरती पर स्थित सौर मंडल का भगवान बस, पद पैसा और प्रतिष्ठा कमाना है सो उसे कई बातों से मतलब नहीं है। वह राजा और प्रजा दोनों को अपनी गिरफ्त में रखता है। ऐसे में अब भारत दोहन अभियान शुरु हो गया है लगता है।
आज जार्ज बुश उनके पिता तथा दादा की भी चर्चा हुई। पता लगा कि वह हथियार कंपनियों के मालिक थे इसलिये ही उन्होंने अपने समय में युद्ध का रास्ता अपनाया ताकि माल की खपत हो सके। यह पहली बार पता लगा कि अमेरिका में हथियार बेचने वाली लॉबी इतनी दमदार है। इसका मतलब हमारा यह दावा सही होता जा रहा है कि दुनियां में अब अनेक जगह अब इंसानी बुत सौदागरों के मुखौटे बनकर राजा के पद पर सुशोभित हो रहे हैं।
प्रचार माध्यम कहते हैं कि ओबामा उन सबसे अलग हैं। इसे हम यूं भी मान सकते हैं कि वह हथियार लॉबी से इतर किसी अन्य लॉबी के इंसानी बुत हैं। वैसे वह हथियारों की बिक्री बढ़ाने तो वह भारत यात्रा पर पधार हैं पर साथ ही अन्यत्र क्षेत्रों में वह यहां का सहयोग चाहते हैं। अन्य व्यापारियों ने हथियार व्यापारियों से कहा होगा कि‘भई, कुछ हमारा काम हो जाये, इसलिये इस बार हमारी पंसद का राष्ट्रपति आने दो।’
हथियार लॉबी का काम तो होना ही था सो वह मान गये होंगे। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार ओबामा के प्रतिद्वंद्वी का नाम आखिर तक किसी को पता नहीं चला। आज ओबामा यह कर रहे हैं, आज वहां बोलेंगे, ओबामा के बारे में यह अफवाह फैली-ऐसी बातें भारतीय प्रचार माध्यम ही नहीं इंटरनेट पर भी आती रहीं। न आया तो उनके प्रतिद्वंद्वी का नाम। वैसे ओबामा चेहरे से भले लगे। धरती के सौरमंडल के ग्रहों ने बहुत सोच समझकर उनको चुना। हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है। अगर हम कहें कि उनको क्यों लाये तो यह बात भी तय है कि उनकी जगह कोई दूसरा चेहरा या इंसानी बुत आना था। वह जो भी बोलेंगे अपने सहायकों के इशारे से ही बोलेंगे। कई बार तो लिखा हुआ पढ़ेंगे। इसका मतलब यह है कि उनको एक ऐसे इंसानी बुत की तरह प्रस्तुत किया गया है कि जो समझकर बोलता हो। बाकी तो उनको गुड्डे की तरह खूब चलाया जायेगा। कभी कभी तो लगता है कि उनको भी यही पता न होगा कि उनको अगली बार कौनसी लाईन बोलनी है या अगले कार्यक्रम में आखिर विषय क्या है? अमेरिका का राष्ट्रपति दुनियां का सबसे दबंग आदमी है-ऐसा कहा गया पर हम सोच रहे थे कि वाकई क्या यह सच है?
धरती का सौर मंडल उस पर तथा यहां विचरण करने वाले जीवों पर क्या प्रभाव डालता है हमें नहीं दिखता लगभग उसी तरह ही धरती पर विचरने वाला सौर मंडल किस तरह राजा और प्रजा को चला रहा है यह आम आदमी नहीं जानते। जो जानते हैं वह बता नहीं सकते क्योंकि वह खुद उसका हिस्सा होते हैं।
आखिरी बात यह है कि 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले ताज के अलावा दो अन्य जगह भी हुए थे। जिसमें रेल्वे स्टेशन भी शामिल था जहां आम आदमी अधिक होते हैं। ओबामा ने केवल ताज के शहीदों को ही श्रद्धांजलि दी। आतंकियों को चुनौती देने के लिये ही वह ताज होटल में रुके ऐसा कहा जा रहा है। इससे भी हमें कोई शिकायत नहीं पर धरती के सौरमंडल की प्रतिबद्धता साफ दिखाई दे रही है कि वह कुछ विषयों पर प्रजा के जज़्बातों की परवाह नहीं करता। वह अपने इंसानी बुत को रेल्वे स्टेशन नहीं ले जा सकता क्योंकि सौर मंडल के ग्रहों में इतनी ताकत है कि उनकी परिक्रमा प्रजा की चाल से प्रभावित नहीं होती।

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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हिन्दू धर्म संदेश-तप बल के अलावा उद्धार को कोई अन्य मार्ग नहीं (tapbal se uddhar-hindu dharma sandesh)


महाराज भर्तृहरि के अनुसार 
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दुराराध्याश्चामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं तु स्थूलेच्छाः सुमहति फले बद्धमनसः।
जरा देहं मृत्युर्हरति दयितं जीवितमिदं सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
हिन्दी में भावार्थ-
राजाओं का चित तो घोड़े की गति से इधर उधर भागता इसलिये उनको भला कब तक प्रसन्न रखा जा सकता है। हमारे अंदर भी ऊंचे ऊंचे पद पाने की लालसा हैं। इधर शरीर को बुढ़ापा घेर रहा है। ऐसे में लगता है कि विवेकवान पुरुषों के लिये तप बल के अलावा अन्य कोई उद्धार का मार्ग नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मनुष्य का यह मूल स्वभाव है कि वह हमेशा  ही अपने लिये मान पाना चाहता है और इसलिये ही धन संग्रह करने के साथ प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये पूरा जीवना गुज़ार देता है।  उच्च पद पाने की उसमें महत्वाकांक्षा हमेशा बलवती रहती है और इसलिये ही अवने अपने से उच्च लोगों की चाटुकारित करने को हमेशा तैयार रहता है।
इस संसार में धनी, उच्च पदस्थ, तथा बाहुबली आदमी की कितनी भी सेवा कर लीजिये पर उनको प्रसन्न नहीं किया जा सकता क्योंकि उनका मन तो घोड़े की तरह दौड़ता है। उनकी सेवा में रत इंसान को लगता है कि स्वामी उनकी तरफ देख रहा है पर सच तो यह है कि राजसी लोगों के पास ढेर सारे सेवक होते हैं और उनमें किसी को वह विशिष्ट नहीं मानते। इतना ही नहीं अगर उनकी सेवा कोई ऐसा व्यक्ति करे जो उनके यहां कार्यरत न हो, उसको लेकर भी उनके मन में यह शंका उत्पन्न होती है कि वह भविष्य में हमारी सेवा पाने का प्रयास कर रहा है।
किसी आदमी को एक पद मिल गया तो फिर उससे बड़े पद की चाहत उसमें होने लगती है। वह भी मिल गया तो फिर उससे ऊंचे पद की आस करने लगता है। यह इच्छा अनंत है और इसका कहीं अंत नहीं है। आदमी अपने भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति में लगा रहता कि उसे बुढ़ापा घेर लेता है। ऐसे में तो केवल एक ही बात उचित लगती है कि अपना समय सत्संग, भक्ति तथा अध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण करने में भी बिताना चाहिये ताकि तत्व ज्ञान होने पर इस संसार में दुःख तथा मानसिक संताप से छुटाकारा पाया जा सके।

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’, ग्वालियर 
editor and writter-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep
http://anant-shabd.blogspot.com————————

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श्रीगुरुवाणी-दहेज में हरि का नाम मांगे वही श्रेष्ठ पुत्री (hari ka nam mange vah shreshth purti-shri guruvani


‘हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
दहेज प्रथा पर ही प्रहार करते हुए यह भी कहा गया है कि
होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
इसका आशय यह है कि ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे यहां विवाद एक धार्मिक संस्कार माना जाता है मगर जब लोग रिश्ते तय करते हैं तो इस तरह लगता है जैसे कि व्यापार कर रहे हों। धर्म और रीति के नाम पर लड़की की शादी में दान देने की पंरपरा को लोगों ने पुत्र पैदा करने के दाम वसूल करने की नीति में बदल दिया है। भले ही लोग यह दावा करते हों कि हमारी विवाह परंपरा श्रेष्ठ है पर इसके निर्वहन के समय पैसे का खेल खेलने का जो प्रयास होता है वह सीधी धर्म के विरुद्ध लगता है। इस पर श्रीगुरुनानक जी जो अपनी बात कही है वह सचमुच में भारतीय धर्म की परंपरा का प्रतीक है।
दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो मिटने नहीं चाहे कोई भी धर्म हो? समाज कथित रूप से इसी पर इतराता है।
इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने यहां धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं।
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चाणक्य दर्शन-धीरज हो तो गरीबी का दर्द नहीं होता


अधमा धनमिच्छन्ति मानं च मध्यमाः।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।
हिंदी में भावार्थ-
अधम प्रकृत्ति का मनुष्य केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम प्रकृत्ति के धन के साथ मान की तथा उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हैं।


दरिद्रता श्रीरतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीतया विराजते।।
हिंदी में भावार्थ-
अगर मनुष्य में धीरज हो तो गरीबी की पीड़ा नहीं होती। घटिया वस्त्र धोया जाये तो वह भी पहनने योग्य हो जाता है। बुरा अन्न भी गरम होने पर स्वादिष्ट लगता है। शील स्वभाव हो तो कुरूप व्यक्ति भी सुंदर लगता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस विश्व में धन की बहुत महिमा दिखती है पर उसकी भी एक सीमा है। जिन लोगों के अपने चरित्र और व्यवहार में कमी है और उनको इसका आभास स्वयं ही होता है वही धन के पीछे भागते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि वह स्वयं किसी के सहायक नहीं है इसलिये विपत्ति होने पर उनका भी कोई भी अन्य व्यक्ति धन के बिना सहायक नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने ऊपर यकीन तो करते हैं पर फिर भी धन को शक्ति का एक बहुत बड़ा साधन मानते हैं। उत्तम और शक्तिशाली प्रकृत्ति के लोग जिन्हें अपने चरित्र और व्यवहार में विश्वास होता है वह कभी धन की परवाह नहीं करते।
धन होना न होना परिस्थितियों पर निर्भर होता है। यह लक्ष्मी तो चंचला है। जिनको तत्व ज्ञान है वह इसकी माया को जानते हैं। आज दूसरी जगह है तो कल हमारे पास भी आयेगी-यह सोचकर जो व्यक्ति धीरज धारण करते हैं उनके लिये धनाभाव कभी संकट का विषय नहीं रहता। जिस तरह पुराना और घटिया वस्त्र धोने के बाद भी स्वच्छ लगता है वैसे ही जिनका आचरण और व्यवहार शुद्ध है वह निर्धन होने पर भी सम्मान पाते हैं। पेट में भूख होने पर गरम खाना हमेशा ही स्वादिष्ट लगता है भले ही वह मनपसंद न हो। इसलिये मन और विचार की शीतलता होना आवश्यक है तभी समाज में सम्मान प्राप्त हो सकता है क्योंकि भले ही समाज अंधा होकर भौतिक उपलब्धियों की तरफ भाग रहा है पर अंततः उसे अपने लिये बुद्धिमानों, विद्वानों और चारित्रिक रूप से दृढ़ व्यक्तियों की सहायता आवश्यक लगती है। यह विचार करते हुए जो लोग धनाभाव होने के बावजूद अपने चरित्र, विचार और व्यवहार में कलुषिता नहीं आने देते वही उत्तम पुरुष हैं। ऐसे ही सज्जन पुरुष समाज में सभी लोगों द्वारा सम्मानित होते हैं।  इसलिए सज्जनता और धीरज  का कभी त्याग नहीं करना चाहिए। 

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चाणक्य नीति-स्वयं अपने गुणों का बखान करना अल्पज्ञानी का काम (apni tarif svyan na karen-hindi sandesh)


पर-प्रौक्तगुणो वस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिसके गुणों की प्रशंसा अन्य लोग भी करें उसका ज्ञान भले ही अल्प हो पर फिर भी उसे गुणवान माना जायेगा। इसके विपरीत जिसे ज्ञान में पूर्णता प्राप्त हो वह अगर स्वयं उनका बखान करे तो गुणहीन माना जायेगा भले ही वह साक्षात देवराज इंद्र ही क्यों न हो।
गुणैरुत्तमतां याति नीच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडायते।।
हिन्दी में भावार्थ-
ऊंचे स्थान पर बैठने से कोई ऊंचा या महान नहीं हो जाता। गुणवान ही ऊंचा माना जाता। महल की अटारी पर बैठने से कौआ, गरुड़ नहीं कहलाने लगता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल की भौतिक दुनियां में संचार साधन अत्यंत प्रभावशाली हो गये हैं। अखबार, टीवी चैनल, मोबाईल, कंप्यूटर तथा अन्य साधनों से अधिकतर लोग जुड़े हुए हैं। अपनी व्यवसायिक बाध्यताओं के चलते प्रचार प्रबंधकों ने फिल्म, राजनीति, टीवी चैनल, साहित्य, कला, तथा पत्रकारिता में अनेक मिथक स्थापित कर दिये हैं। दुनियां भर में ऐसे मिथक एक दो हजार से अधिक नहीं होंगे। अपने ही देश में भी सौ दो सौ ऐसे अधिक प्रभावशाली नाम और चेहरे नहीं होंगे जो प्रचार माध्यमों में छाये हुए हैं। प्रचार माध्यम उनके चेहरे, नाम और बयान प्रस्तुत कर लोगों को व्यस्त रखते हैं। यह देखकर आजकल के अनेक युवा भ्रमित हो जाते हैं। उनको लगता है कि यह काल्पनिक चरित्र ही जीवन का सत्य है। राजनीति, अर्थतंत्र, प्रशासन, साहित्य, पत्रकारिता, फिल्म तथा कला के शिखर पर स्थापित लोग त्रिगुणमयी माया के गुणों से परे हैं-यह भ्रम पता नहीं कैसे लोगों में हो जाता है। जबकि सच यह है कि यह शिखर ही अपने आप में मायावी हैं इसलिये इन पर बैठे लोगों के सात्विक होने की आशा ही करना बेकार है। बाजार और प्रचार केवल उनके चेहरे, नाम और बयान भुनाने का प्रयास करते हैं। फिल्मों के कल्पित नायक सदी के महानायक और गायक सुर सम्राट कहलाते हैं पर सच यह है कि उनका कोई सामाजिक योगदान नहीं होता।
महान वही है जिसका कृत्य समाज में चेतना, आत्मविश्वास तथा दृढ़ता लाने का काम करता है। इतना ही नहीं उनका बदलाव लंबे समय तक रहता है। कहने का तात्पर्य यही है कि आर्थिक, सामाजिक तथा सामाजिक शिखरों पर विराजमान लोगों को महान समझने की गलती नहीं करना चाहिये। वह भी आम आदमी की तरह होते हैं। जिस तरह आम आदमी अपने परिवार की चिंता करता है वैसे ही वह करते हैं। महान आदमी वह है जो पूरी तरह से समाज की चिंता करते हुए उसे हित के लिये काम करता है। बड़े आदमी बनने के लिये यह आवश्यक है कि आप दूसरे लोगों के काम निस्वार्थ भाव से करें और अहंकार भी न दिखायें।
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चाणक्य नीति शास्त्र-कुसंस्कारी लोगों का साथ करने से यश नहीं मिलता


अर्थार्थीतांश्चय ये शूद्रन्नभोजिनः।
त द्विजः कि करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः।।

हिंदी में भावार्थ- नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अर्थोपासक विद्वान समाज के लिये किसी काम के नहीं है। वह विद्वान जो असंस्कारी लोगों के साथ भोजन करते हैं उनको यश नहीं मिल पता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- इस देश का अध्यात्मिक ज्ञान सदेशों के अनमोल खजाने से भरा पड़ा है। उसका कारण यह है कि प्राचीन विद्वान अर्थ के नहीं बल्कि ज्ञान के उपासक थे। उन्होंने अपनी तपस्या से सत्य के तत्व का पता लगाया और इस समाज में प्रचारित किया। आज भी विद्वानों की कमी नहीं है पर प्रचार में उन विद्वानों को ही नाम चमकता है जो कि अर्थोपासक हैं। यही कारण है कि हम कहीं भी जाते हैं तो सतही प्रवचन सुनने को मिलते हैं। कथित साधु संत सकाम भक्ति का प्रचार कर अपने भोले भक्तों को स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। यह साधु लोग न केवल धन के लिये कार्य करते हैं बल्कि असंस्कारी लोगों से आर्थिक लेनदेने भी करते हैं। कई बार तो देखा गया है कि समाज के असंस्कारी लोग इनके स्वयं दर्शन करते हैं और उनके दर्शन करवाने का भक्तों से ठेका भी लेते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक चर्चा तो बहुत होती है पर ज्ञान के मामले में हम सभी पैदल हैं।
समाज के लिये निष्काम भाव से कार्य करते हुए जो विद्वान सात्विक लोगों के उठते बैठते हैं वही ऐसी रचनायें कर पाते हैं जो समाज में बदलाव लाती हैं। असंस्कारी लोगों को ज्ञान दिया जाये तो उनमें अहंकार आ जाता है और वह अपने धन बल के सहारे भीड़ जुटाकर वहां अपनी शेखी बघारते हैं। इसलिये कहा जाता है कि अध्यात्म और ज्ञान चर्चा केवल ऐसे लोगों के बीच की जानी चाहिये जो सात्विक हों पर कथित साधु संत तो सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा कर व्यवसाय कर रहे हैं। वह अपने प्रवचनों में ही यह दावा करते नजर आते हैं कि हमने अमुक आदमी को ठीक कर दिया, अमुक को ज्ञानी बना दिया।
अतः हमेशा ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लये ऐसे लोगों को गुरु बनाना चाहिये जो एकांत साधना करते हों और अर्थोपासक न हों। उनका उद्देश्य निष्काम भाव से समाज में सामंजस्य स्थापित करना हो। वैसे भी जीवन में संस्कारों के बहुत महत्व है और संगत का प्रभाव आदमी पर पड़ता है। इसलिये न केवल संस्कारवान लोगों के साथ संपर्क रखना चाहिये बल्कि जो लोग कुसंस्कारी लोगों में उठते बैठते हैं उनसे भी अधिक संपर्क नहीं रखना चाहिये।
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चाणक्य नीति संदेश-गुणों की पहचान न हो तो लोग निंदा करते हैं (hindu dharm sandesh-gunon ki pahchan)


न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्ष स तं सदा निन्दति नाऽत्र चित्रम्।
यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ताः परित्यज्य विभति गुंजाः।।
हिंदी में भावार्थ- अगर कोई मनुष्य किसी वस्तु या अन्य मनुष्य के गुणों को नहीं पहचानता तो तो उसकी निंदा या उपेक्षा करता है। ठीक उसी तरह जैसे जंगल में रहने वाली कोई स्त्री हाथी के मस्तक से मिलने वाली मोतियों की माला मिलने पर भी उसे त्यागकर कौड़ियों की माला पहनती है।
अकृष्टफलमूलेन वनवासरतः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
वह विद्वान ऋषि कहलाता है जो जमीन को जोते बिना पैदा हृए फल एवं कंधमूल आदि खाकर हमेशा वन में जीवन व्यतीत करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य का कहना है कि अगर किसी व्यक्ति या वस्तु के गुणों का ज्ञान नहीं है तो उसकी उपेक्षा हो ही जाती है। यह स्थिति हम अपने भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के बारे में आज समाज द्वारा बरती जा रही उपेक्षा के बारे में समझ सकते हैं। हमारे देश के प्राचीन और आधुनिक ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों ने बड़े परिश्रम से हमें जीवन और सृष्टि के रहस्यों को जानकर उसका ज्ञान हमारे लिये प्रस्तुत किया पर हमारे देश के विद्वानों ने उसकी उपेक्षा कर दी। यही कारण है कि आज हमारे देश में विदेशी विद्वानों के ज्ञान की चर्चा खूब होती है। देश में पश्चिम खान पान ही सामान्य जीवन की दिनचर्या का भाग बनता तो ठीक था पर वहां से आयातित विचार और चिंतन ने हमारी बौद्धिक क्षमता को लगभग खोखला कर दिया है। यही कारण है कि सामान्य व्यक्ति को शिक्षित करने वाला वर्ग स्वयं भी दिग्भ्रमित है और भारतीय अध्यात्म उसके लिये एक फालतू का ज्ञान है जिससे वर्तमान सभ्यता का कोई लेना देना नहीं है।
जबकि इसके विपरीत पश्चिम में भारतीय अध्यात्म ज्ञान की पुस्तकों पर अब जाकर अनुसंधान और विचार हो रहा है। अनेक महापुरुषों के संदेश वहां दिये जा रहे हैं। हमारी स्थिति भी कुछ वैसी है जैसे किसी घर में हीरों से भरा पात्र हो पर उसे पत्थर समझकर खेत में चिड़ियों को भगाने के लिये कर रहा हो। हमें यह समझना चाहिए कि अज्ञान और मोह में मनुष्य के लिये हमेशा तनाव का कारण बनता है।
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चाणक्य नीति-भक्ति और दान में असंतुष्ट रहना ही अच्छा (chankya niti-bhakti aur dan)


संतोषस्त्रिशु कत्र्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु चैव न कत्र्तव्योऽध्ययने तपदानयोः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को अपनी पत्नी, भोजन और धन से ही संतोष करना चाहिये पर ज्ञानार्जन, भक्ति और दान देने के मामले में हमेशा असंतोषी रहे यही उसके लिये अच्छा है।
संतोषाऽमृत-तुप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम्।
न च तद् धनलूब्धानामितश्चयेतश्च धावताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य संतोष रूप अमृत से तुप्त है उसका ही हृदय शांत रह सकता है। इसके विपरीत जो मनुष्य असंतोष को प्राप्त होता है उसे जीवन भर भटकना ही पड़ता है उसे कभी भी शांति नहीं मिल सकती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य के संदेशों के ठीक विपरीत हमारा देश चल रहा है। जिन लोगों के पास धन है उनके पास भी संतोष नहीं है और जिनके पास नहीं है उनसे तो आशा करना ही व्यर्थ है। अपनी पत्नी और घर के भोजन से धनी लोगों को संतोष नहीं है। जीभ का स्वाद बदलने के लिये ऐसी वस्तुओं का सेवन बढ़ता जा रहा है जो स्वास्थ्य के लिये हितकर नहीं है। कहा जाता है कि खाने पीने की वस्तुओं को स्वच्छता होना चाहिये पर होटलों और बाजार की वस्तुओं में कितनी स्वच्छता है यह हम देख सकते हैं। किसी रात एक साफ रुमाल घर में रख दीजिये और सुबह देखिये तो उस पर धूल जमा है तब बाजार में कई दिनों से रखी चीजों में स्वच्छता की अपेक्षा कैसे रखी जा सकती है। घर में गृहिणी सफाई से भोजन बनाती है पर क्या वैसी अपेक्षा होटलों के भोजन में की जा सकती है। ढेर सारे ट्रक, ट्रेक्टर,बसें, मोटर साइकिलें तथा अन्य वाहन सड़कों से गुजरते हुए तमाम तरह की धूल और धूंआ उड़ाते हुए जाते हैं उनसे सड़कों पर स्थित दुकानों,चायखानों और होटलों में रखी वस्तुओं के विषाक्त होने की आशंका हमेशा बनी रहती है। ऐसे में बाजारों में खाने वाले लोगों के साथ अस्पतालों में मरीजों की संख्या भी बढ़ रही है तो आश्चर्य की बात क्या है?
इसके विपरीत लोगों की आध्यात्मिक ज्ञान और भक्ति के भाव के प्रति कमी भी आ रही है। लोगों को ऐसा लगता है कि यह तो पुरातनपंथी विचार है। असंतोष को बाजार उकसा रहा है क्योंकि वहां उसे अपने उत्पाद बेचने हैं। प्रचार के द्वारा बैचेनी और असंतोष फैलाने वाले तत्वों की पहचान करना जरूरी है और यह तभी संभव है कि जब अपने पास आध्यात्मिक ज्ञान हो। आध्यामिक ज्ञान से ही जीवन का अर्थ समझकर इस संसार के सभी कार्य अच्छी तरह किये जा सकते हैं।
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श्रीमद्भागवत गीता सन्देश-मनुष्य खुद ही अपना दोस्त और दुश्मन (shri madbhagvat geeta darshan-admi svyan apna mitra aur dushman)


बन्धुरात्मात्मनस्तस्य यैनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्ः।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस जीवात्मा द्वारा मन और इंद्रियों सहित देह जीत ली गयी है उस जीवात्मा के लिये वह मित्र जिसके द्वारा नहीं जीता गया उसके लिये वह शत्रु है।
उद्धरेदात्मनाऽमानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैय ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
हिंदी में भावार्थ-
स्वयं ही अपना संसार रूप समुद्र से उद्धार करते हुए अधोगति से बचे, क्योंकि मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र और शत्रु है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-किसी दूसरे में अपना मित्र ढूंढना या सहयोग की आशा करना व्यर्थ है। हम अपने मित्र और शत्रु स्वयं हैं। मनुष्य स्वयं खोटे काम करते हुए धर्म का दिखावा करता है पर अंततः उसे बुरे परिणाम भोगने हैं यह वह नहीं सोचता। हर कोई दूसरे को धर्म का ज्ञान देता है पर स्वयं उसे धारण नहीं करता। सच तो यह है कि लोगों में धर्म और अधर्म की पहचान ही नहीं रही। देश में आप देखिये कितने जोर शोर से धार्मिक कार्यक्रम होते हैं पर समाज का आचरण देखें तो कितना निकृष्ट दिखाई देता है। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध, दहेज प्रथा तथा भ्रुण हत्या जैसे प्रतिदिन होने वाले कृत्य इस बात का प्रमाण है कि हमारे लिये देह केवल उपभोग करने के लिये ही एक साधन बन गयी है भक्ति तो हम सांसरिक लोगों को दिखाने के लिये करते हैं न कि भगवान को पाने के लिये। धर्म के नाम पर ऐसे आस्तिकों के हाथ से ऐसे काम हो रहे हैं कि नास्तिक इंसान करने की भी न सोचे। अधर्म से धन कमाकर उसे धर्म के नाम पर व्यय कर लोग सोचते हैं कि हमने पुण्य कमा लिया।
सच बात तो यह है कि हमें आत्मंथन करना चाहिये। दूसरा क्या कर रहा है यह देखने की बजाय यह सोचना चाहिये कि हम क्या कर रहे हैं। दूसरे ने भ्रष्टाचार से संपत्ति अर्जित की तो हम भी वैसा ही करे यह जरूरी नहीं है। एक बात याद रखिये जिस तरह से धन आता है वैसे जाता ही है। जिन लोगों ने भ्रष्टाचार या अपराध से पैसा कमाया है वह उसका परिणाम भोगते हैं। अगर हम स्वयं करेंगे तो वह भी हमें भोगना ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम अपने मित्र और शत्रु स्वयं ही हैं। इसलिए हमें सदैव सोच समझकर काम करना चाहिए।
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