Category Archives: दीपक भारतदीप

वाह रे माया तेरा खेल, कभी बिठाये महल में तो कभी पहुंचाये जेल-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (play of money-hindi religius thought)


इस संसार की रचना सत्य और माया के संयोग से हुई है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का अध्ययन करें तो सत्य का कोई न रंग है, न रूप है, न चाल है चेहरा है और न ही उसका कोई नाम है न पहचान है। इसके विपरीत माया अनेक रंगों वाली है क्योंकि वह संसार को बहुत सारे रूप प्रदान करती है। वह पंचतत्वों से हर चीज बनाती है पर सबका रूप रंग अलग हो जाता है। इस धरती के अधिकतर लोग अपने मस्तिष्क में सत्य के तत्वज्ञान का संग्रह करने का प्रयास नहीं करते क्योंकि वह माया के रंग और रूप से मोहित हैं।
वैसे देखा जाये तो मनुष्य को क्या चाहिये? खाने को रोटी, पहने को कपड़े और रहने के लिये आवास! मगर इससे वह संतुष्ट नहीं होता। रोटी का संग्रह वह पेट में अधिक नहीं कर सकता। पेट में क्या वह लोहे की पेटी में भी कई दिन तक नहीं रोटी नहीं रख सकता। इसलिये गेंहूं खरीदकर रख लेता है। सब्जियां भी वह छह सात दिन से अधिक अपने यहां नहीं रख सकता। उसे हमेशा ताजी खरीदनी पड़ती हैं। इसे खरीदने के लिये चाहिये उसे मुद्रा।
मुद्रा यानि रुपया या पैसा। देखा जाये तो यह रुपया और पैसा तो झूठी माया में भी झूठा है। जितने में नोट या सिक्के का निर्माण होता है उससे अधिक तो उनका मूल्य होता है। राज्य के यकीन पर उसका मूल्य अधिक होता है। राज्य का यह वादा रहता है कि अगर कोई उस नोट या सिक्के का धारक उसके पास लायेगा तो वह उतने मूल्य का उसे सोना प्रदान करेगा। इस हिसाब से हम कह सकते हैं कि इस धरती पर माया का ठोस स्वरूप में सोना सबसे अधिक प्रिय है। सोना ठोस तथा दीर्घायु है पर उसका प्रतिनिधित्व कागज का जो नोट करता है वह समय के साथ पुराना पड़ जाता है। अब सोने का भी उपयोग समझ लें। उसे खाकर कोई पेट नहीं भर सकता। पेटी में रखकर लोग खुश रहते हैं कि उनका वह बड़ा सहारा है। यह सोच अपने आप में एक बहुत बड़ा भ्रम है। अगर कोई आपत्ति आ जाये तो उसी सोने को बाजा़ार में बेचकर फिर कागज के उसका प्रतिनिधित्व करने वाले रुपये या सिक्के प्राप्त करने पड़ते हैं। कहां दीर्घायु सोना अपने से अल्पजीवी कागज पर आश्रित हो जाता है।
एक विद्वान ने कहा था कि भारत में इतना सोना है कि सारी दुनियां एक तरफ और भारत एक तरफ। यकीन नहीं होता पर जिस तरह यहां गड़े धन मिलते हैं इस पर यकीन तो होता है कि यह देश हमेशा ही सोने का गुलाम रहा है। स्त्रियां गहने पहनती हैं। माता पिता दहेज में अपनी बेटी को गहने इस विश्वास के साथ देते हैं कि जब पहनेगी तो अपने मायके तथा ससुराल के में श्रीवृद्धि होगी। यदि कहीं उसे आर्थिक आपदा का सामना करना पड़ा तो वह सोना पितृतुल्य सेवा करेगा। उसके बाद कुछ लोग इस आशा से सोना करते हैं कि वही असली मुद्रा है। जैसे जैसे आदमी की दौलत बढ़ती है वह नोट और सिक्के की बजाय सोने की ईंटें रखने लगता है।
वह सोना सबको प्रिय है जो प्रत्यक्ष रूप से प्यास लगने पर पानी का एक घूंट नहीं पिला सकता और भूख लगने पर एक दाना भी नहीं खिला सकता मगर जिस अनाज से पेट भरता है उसे हमारे देश का आदमी पांव तले रौंदता है और जिस पानी से प्यास बुझती है उसे मुफ्त में बहाता है। सोना भारत में नहीं पैदा होता पर वह बड़ी मात्रा में इसलिये यहां है कि यहां प्रकृति की सबसे बड़ी कृपा है। दुनियां में भारत ही ऐसा देश है जहां भूजलस्तर सबसे ऊपर है। इसलिये यहां अधिकांश भाग में हरियाली बरसती है। जहां सोना या पेट्रोल पैदा होता है वहां रेत के पहाड़ हैं। लोग पानी को सोने की तरफ खर्च करते हैं।
माया स्वयं सक्रिय है और आदमी को भी सक्रिय रखती है। अपने आंख, कान, नाक और मुख को बाहरी दृश्यों में व्यस्त आदमी आत्म चिंतन नहीं करता। उसे अंदर झांकने से भय लगता है। कहीं न बोलने वाला सत्य बोलने लगा तो क्या कहेगा? न देखने वाला सत्य क्या देखेगा? उसके लिये लिये अंदर झांकने की सोचना भी कठिन है। ऐसे में वह माया के खेल में फंसा रहना ही वह जिंदगी समझता है। धीरे धीरे वह सत्य से इतना दूर हो जाता है कि लूट और मज़दूरी की कमाई का अंतर तक नहीं समझता। अनेक भ्रष्टाचारियों के यहां छापे मारने पर एक से दस किलो तक सोना मिला। इन घटनाओं से यह बात साबित हो गयी है कि हमारे देश में चिंतन की कमी है। यही कारण है कि दूसरे के मुंह में जाता निवाला भी लोग छीनकर उसे सोने में बदलते हैं।
प्रस्तुत है एक छोटी कविता
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वाह ने माया तेरा खेल,
कभी बिठाती महल में
कभी पहुंचाती जेल।
इंसान है इस भ्रम में जिंदा है
कि वह तुझसे खेल रहा है,
अपनी अल्मारी और खातों में
कहीं रुपया तो कही सोना ठेल रहा है,
ज़माने का लहू चूसकर
अपने घर सजा रहा है,
नचाती तू हैं
पर लगता इंसान को कि वह तुझे नचा रहा है,
अपने आगोश में तू भी फंसाये रहती है
इस दुनियां के इंसानो को
फिर सोने के घरों से निकालकर
लोहे की सलाखों के पीछे पहुंचाकर
निकाल देती है पूरी जिंदगी का तेल।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’
http://deepkraj.blogspot.com

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होली और 19 मार्च का इंतजार, चंद्रमा जो निकट आना है-हिन्दी लेख (holi parva ka din aur super moon-hindi lekh)


होली का दिन चंदामामा और जापान में सुनामी 
खबरिया लोगों के अनुसार चंद्रमा 19 मार्च को धरती के सबसे अधिक निकट होगा। साथ ही यह भी बता रहे हैं कि जब चंद्रमा धरती के निकट होता है तब भयानक स्थिति होती है। प्रथ्वी पर अनेक तरह के अनेक प्राकृतिक प्रकोप  बरसते हैं। चूंकि यह चंद्रमा प्रथ्वी के निकट आने का दौर शुरु हो चुका है और उसका पहला झटका जापान में लग चुका है इसलिये लोग अब 19 मार्च का इंतजार कर रहे हैं कि देखें अब विध्वंस का कौनसा रूप सामने आयेगा? संभव है कहीं कोई दूसरी बड़ी दुर्घटना हो और उसमें ऐसे ही इंतजार करने वाले भी कुछ लोग निपट जायें पर तब उनका हादसा दूसरे के लिये मनोरंजन बन जायेगा। सीधी बात यह है कि यह मानवीय स्वभाव है कि वह अपने मनोरंजन के लिये कभी प्रेम प्रसंग तो कभी हादसे देखना चाहता है।
प्रसंगवश 19 मार्च को होली का पर्व आ रहा है। इधर चंद्र महाराज भी हमारे निकट चले आ रहे हैं। एक बात तो सत्य है कि समुद्र में ज्वार भाटा रात्रि के समय चंद्रमा की उपस्थिति में आता है। इसलिये समंदर के पानी और चांद की रौशनी की मोहब्बत समझी जा सकती है। जब होली के दिन चंद्रमा दुनियां के निकट होगा तब कहीं न कहीं दुर्धटना तो जरूर होगी क्योंकि उनका क्रम तो अनवरत रहना ही है। सवाल यह है कि चंद्रमा के निकट न होने पर भी तो दुर्घटनाऐं होती हैं । इसलिये चंद्रमा के निकट होने से उनको जोड़ा क्यों जाये? हत्यायें, डकैती, बलात्कार, ठगी तथा बहुत सारे पाप कर्म हर समय इस संसार में होते हैं और आगे भी होंगे। चंद्रमा दूर रहे या पास दुनियां के पापकर्म निरंतर जारी रहेंगे। कुछ लोगों को दंड भी मिलता है और कुछ साफ सुथरे बने रहते हैं। जिसको इन दिनों पापकर्म का दंड मिल जायेगा वह चंद्रमा के निकट होने को दोष देंगे। कुछ लोग पापकर्म नहीं करने पर भी किसी हादसे का शिकार हो सकते हैं तब वह भी चंद्रमा के निकट होने को दोष देंगे।
इधर टीवी चैनल कह रहे हैं कि अगले 48 घंटे जापान के लिये बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके परमाणु संयंत्र संकट में हैं और उनमें कोई बड़ा विस्फोट हो सकता है। हम यह लेख 17 मार्च रात्रि नौ बजे लिख रहे हैं। मतलब यह कि 19 मार्च 2011 को अगर कोई दुर्घटना हुई तो चंद्रमा पर आक्षेप आयेगा। अब सवाल यह है कि इंसानों को किसने कहा था कि परमाणु संयंत्र बनाओ। वह भी भूकंप वाले ऐसे देश में जो पहले ही दो परमाणु बमों का विस्फोट झेल चुका है।
बहरहाल जापान की स्थिति अनिश्चित है। पहले सुनामी आई और अब रेडियम फैलने से उसको किस तरह कितना नुक्सान होगा यह अनुमान किसी ने नहीं लगाया है पर एक बात तय है कि वायु अगर विषाक्त हुई तो वहां किसी का भी रहना मुश्किल है। जब वायु विषाक्त हुई तो जल नहीं भी वैसा हो जायेगा। इसका मतलब यह कि जीवन का आधार खत्म ही हो जायेगा। यह इंसान का भ्रम है कि दौलत से वह ंिजंदा है। वह दौलत जो अब कागज के रूप में ही दिखती है उसे सांसें नहीं दे सकती। खाना, दारु, और दूसरे सामान खरीदते हुए आदमी अपनी प्राकृतिक सांसों की कीमत भूल जाता है। जल को केवल प्यास बुझाने वाला द्रव्य समझता है। उसे लगता है कि वह स्वचालित कंप्यूटर है। ऐसी प्राकृतिक आपदाऐं उसे अपनी और माया की औकात बताती हैं।
भारत से कुछ ऐसे लोगों के वहां जाने की जानकारी भी मिली जिन्होंने वहां नौकरी पाने के लिये लाखों रुपये खर्च किये। ऐसे में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जब लाखों रुपये हैं तो नौकरी किसलिये करने गये। जापान में मौजूद भारतीयों की हालत पर भारतीय चैनल बड़ा हो हल्ला बचा रहे थे। कुछ ने तो वहां काम कर रहे भारतीयों का आर्तनाद भी दिखाया जो कह रहे थे कि‘उनको भारत बुलाया जाये। वह भूखे मर रहे हैं। सरकार बाहर का खाना खाने के लिये मना कर रही है और घर में कुछ मिल नहीं रहा’ इधर कुछ भारतीय वापस लौटे तो कह रहे थे कि ‘वहां सब ठीक है। बस तीन दिन में तीन सौ भूकंप के झटके लगे।
ऐसे में सवाल यह है कि फिर वह वापस क्यों लौटे? अगर उनके लिये वहां सब ठीक था तो उन बिचारों को आने देते जो लाचारी की हालत में हैं। जो लोग जल्दी भारत लौटे हैं उनको शायद यहां ज्यादा अच्छा नहीं लगेगा। अगर वहां दस पंद्रह दिन रह लेते तब पता लगता कि अपने देश की जलवायु की कीमत क्या है? वैसे धन्य है वह लोग जो भूकंप के झटके झेलने वाले देश जापान में बसते रहे। हम एक दिन योग साधना कर रहे थे कि अचानक धरती के अंदर हलचल अनुभव हुई। शवासन में थे और उस हलचल ने विचलित कर दिया तो उठकर बैठ गये। साथी साधक बैठा था उसने पूछा-‘क्या हुआ।’
हमने कहा-‘जमीन में हलचल लग रही थी।’
उसने कहा-‘ऐसे ही कहीं से आवाज आई होगी।’
ऐसी आवाज दो बार आई। हम योग साधना समाप्त कर घर लौटे। एक घंटे में पता चल गया कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में भूकंप आया था। उसकी हलचल हमारे शहर में भी पायी गयी थी। समय वही था जब हमने अनुभव किया कि जमीन में हलचल हो रही है। अगर ऐसी हलचल हमें प्रतिदिन अनुभव हो तो शायद हमारी मनस्थिति बिगड़ जाये और पलंग पर आसन कर उसे तोड़ना प्रारंभ कर दें। पता नहीं कितने पलंग तोड़ डालें क्योंकि हम अब योगसाधना से विरक्त नहीं हो सकते। ऐसा निरंतर आने वाला भूकंप आदमी की मनोदशा नहीं बिगाड़ेगा इस पर यकीन करना कठिन है। जापान और अमेरिका हम जैसे भारतीयों के लिये सपने में आने वाले देश हैं। हम उनको भाग्यशाली समझते है जो बाहर जाते हैं। मगर उनका इस तरह वापस लौटना या कहें भाग कर आना अजीब लगता है। प्रसंगवश बता दें कि विश्व के अनेक विशेषज्ञ प्राकृतिक रूप से भारत को संपन्न राष्ट्र मानते हैं। यह अलग बात है कि हम भारतीय यह बात आज तक नहीं समझ पाये। बहरहाल हमें 19 मार्च और होली का इंतजार तो रहना ही है। यह जानते हुए कि समय निकल ही जाता है। हम जिंदा रहें या नहीं।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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योग बाबा की संपत्ति में कितने शून्य-हास्य व्यंग्य (yoga baba ki sampatti mein kitne shoonya-hasya vyangya)


दीपक बापू को गंजू उस्ताद का इस तरह सुबह सुबह मिलना अपशकुन जैसा लगता है, पर अपनी हास्य कविताई के लिये विषय मिलने का मोह उनको अपनी राह बदलने या उससे मुंह फेरने की अनुमति नहीं देता। गंजू उस्ताद सामने से आ रहा था और दीपक बापू भी सड़क पर उसी दिशा में बढ़ रहे थे। पास आते ही गंजू उस्ताद ने दीपक बापू से बिना किसी औपचारिकता के कहा-‘‘कहां जा रहे हो?’’
दीपक बापू ने कहा-‘‘जरा, उस पान वाले को बीड़ी के पैसे देने जा रहा हूं। कल उससे खरीदी पर खुले पैसे नहीं थे तो उसने उधार ही दे दिया। कह दिया कल सुबह दस बजे तक पैसे पहुंचाने स्वयं आ जाना नहीं तो मेरा लड़का घर पर तकादा करने आ जायेगा।’’
गंजू उस्ताद ने कहा-‘‘उसे छोड़ो। चलो मेरे साथ, ज्ञानीजी से तुम्हारा शास्त्रार्थ करवाना है। वह उधर पेड़ के नीचे बैठे अपना ज्ञान बघार रहे हैं। पान वाला तुमसे बाद में पैसे ले लेगा।’’
दीपक बापू बोले-‘‘पगला गये हो! इतने बड़े ज्ञानी से भला हम क्या शास्त्रार्थ करेंगे? कभी कोई शास्त्र नहीं पढ़ा। ताउम्र हास्य कविताई करते गुजारी, उसमें भी फ्लाप रहे। पहले हम अपना उधार चुकाकर अपनी पड़ौस में अपनी इज्जतदार होने की छवि बचा लें फिर सोचेंगे। कहंी उसका लड़का घर पहुंचा और पड़ौसियों को पता लगा कि हम उधार लेकर बीड़ी पीते हैं तो कितनी हमारे मान सम्मान का जनाजा निकल जायेगा।’’
गंजू उस्ताद ने कहा-‘‘तुम चिंता मत करो। ज्ञानी जी तो अभी इसी रास्ते में बैठे हैं उनको दो तीन मिनट हास्य कविता सुनाकर चले जाना।’’
दीपक बापू ने कहा-‘‘कमबख्त, कवि समझ रखा है या क्लर्क कि चाहे जब कुछ भी लिखने लगो। वैसे तुम वहां चलो जहां ज्ञानी जी विराजमान हैं। पहले पता तो चले कि वह क्या कह रहे हैं।’’
गंजू उस्ताद कहने लगा कि ‘‘वह अपने देश के महान योग बाबा की मज़ाक उड़ा रहे हैं। कह रहे है कि ‘काहेके के बाबा ओर कैसी उनकी शिक्षा, वह तो बारह सौ करोड़ कमाकर सेठ जैसे हो चुके हैं’।’’
दीपक बापू बोले‘‘यह तुम हमें कहां फंसाने चले। भला इस प्रसंग में हमारी समझ कितनी है। हमसे महंगाई, भ्रष्टाचार, शादी, गमी, गमी, सर्दी और बरसात पर हास्य कवितायें लिखवा लो मगर इस तरह बारह सौ करोड़ रुपये पर हम क्या लिखेंगे? यही पता नहीं कि 12 के बाद उसमें कितने सौ के शून्य लिखने होंगे? तुम चाहे तो योग पर ही कुछ लिखवा लो जिसके बारे में हमें भले नहंी पता पर उस लिखा जा सकता है। सभी लोग लिख रहे हैं।’’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘नहीं, यह राष्ट्रीय स्वाभिमान का विषय है? ज्ञानी जो ललकारना है।
दोनों बातचीत करते हुए वहीं आये जहां ज्ञानी जी पेड़ के नीचे अपने चेलों के साथ बैठे थे। गंजू उस्ताद को देखते ही वह बोले-‘‘फिर तू आ गया बहस करने! तेरे योग बाबा पर हमने तेरे से जो कहा वह समझ में नहीं आया जो इस फटीचर हास्य कविता को हमारे सामने लाया है।’’
दीपक बापू बोले-‘‘महाराज, आप कैसी बात करते हो। हम तो किराने वाले को पैसे देने जा रहे थे। यह बोला कि ‘चलो ज्ञानी से मिलवाता चलूं‘, भला हमारी क्या औकात कि आपके साथ बहस करें।’’
ज्ञानी जी बोले-‘‘अच्छा, हमसे तू झूठ बोल रहा है। तू उस पान वाले को बीड़ी के पैसे देने जा रहा है जिससे कल उधार करवाकर कर गया था। उसने तुम्हें धमकी दी कि सुबह दस बजे तक पैसे भिजवा देना वरना अपना आदमी घर भेज दूंगा। अरे, अपने चेले चारों तरफ फैले हैं, सबकी खबर मिल जाती है।’’
दीपक बापू ने देखा कि उनका वहां विराजमान एक चेला कल उसी दुकान पर खड़ा होकर पान खा रहा था, जिसने शायद अब उनको आते देखकर यह बात अपने ज्ञानी गुरु को बता दी थी।
दीपक बापू ने कहा-‘’महाराज, आपके चेले ने यह नहीं बताया कि हमारे पास पांच सौ का नोट था, इसलिये यह उधार लिया। बहरहाल आपके सूचना संगठन की शक्ति बहुत प्रशंसनीय है भले ही उसमें दो टके की खबरों का आदान प्रदान होता है।’’
ज्ञानी महाराज बोले-‘‘दो टके के लोग मिलते हैं तो उनको अपनी औकात के अनुसार ही खबर देनी पड़ती है। अगर बाहर सौ करोड़ की हो तो वह भी बड़े लोगों के साथ चर्चा में काम आती है।’’
गंजू उस्ताद ने दीपक बापू को कोहनी मारी और कहा-‘‘देखा दीपक बापू! सुबह से योग बाबा के बारह सौ करोड़ की संपत्ति की बात उनके दिमाग में भरी पड़ी है। जरा, सुनाओ इनको हास्य कविता!’’
ज्ञानी जी बोले-‘‘अरे, इनकी औकात नहीं है जो बारह सौ करोड़ रुपये पर हास्य कविता लिखें। यह तो पांच दस रुपये पर लिख सकते हैं। तुम्हारे योग बाबा जिनको तुम भगवान मानते हो बारह सौ रुपये करोड़ की संपत्ति बना चुका है। वह धंधेबाज है!’’
दीपक बापू थोड़ा चौंकते हुए बोले-‘‘महाराज योग में भगवान! कैसी बात कर रहे हैं आजकल तो भगवान क्रिकेट में होते हैं।‘’
ज्ञानी जी गंजू उस्ताद की तरफ देखकर बोले-‘‘देख ली हास्य कवि की समझ! जैसे टीवी वालों न रटाया वैसा ही रट लिया। क्रिकेट में इसे भगवान नज़र आते हैं और योग में नहीं!’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘हां, आप भी तो कह रहे हैं कि योग बाबा भगवान नहीं हैं। कभी यह नहीं कहा कि क्रिकेट में भगवान नहीं हो सकते।’
ज्ञानी जी बोले-‘‘अबे चुप! ऐसी बात हम नहीं कह सकते जिससे हमारा हुक्कापानी बंद हो जाये। तेरे इस हास्य कवि की तरह हम भी फ्लाप होकर घर बैठ जायें। अबे दीपक बापू तू निकल यहां से! वरना मेरे चेलों को गुस्सा आ जायेगा।’’
गंजू उस्ताद बोले-‘‘इन पर आप अपना रौब न दिखाओ। इनकी कोई गलती नहीं है हम ही लाये थे इनको आपसे शास्त्रार्थ कराने। वह योग बाबा पर आपकी बात हमें पसंद नहीं आयी।’’
ज्ञानी जी बोले-‘‘तो इससे बाबा की बारह सौ करोड़ की संपत्ति पर एक हास्य कविता लिखा तो जाने! उसके काले धन पर यह क्या सोचता है हम भी तो सुने।’’
दीपक बापू बोले-‘‘बाबा के पास केवल बारह सौ करोड़ की संपत्ति है, बस! बहुत कम है! हम तो सोचते थे कि दो चार लाख करोड़ की संपत्ति होगी। उनका नाम फोर्ब्स पत्रिका में शायद इसलिये ही नहीं आता क्योंकि उसके हिसाब से बहुत कम है।
ज्ञानी जी दीपक बापू को घूरकर बोले-‘‘अच्छा! पांच रुपये की बीड़ी पंद्रह दिन चलाने वाले को बारह सौ करोड़ रुपये कम नज़र आ रहे हैं? क्या बात है! घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने! अरे हास्य कवि, पहले यह बता कि लाख में कितने शून्य आते हैं। जवाब दे तब पूछेंगे इससे कठिन सवाल कि करोड़ में कितने अंक होते हैं।
दीपक बापू बोले-‘‘महाराज कहा जाता है कि जब अपनी औकात देखनी है तो नीचे देखो कि कितने लोग हैं तब मन को शांति मिलेगी। उसमें हमने यह भी जोड़ा है कि अगर ऊपर के आदमी को देखना है तो फिर उससे ऊपर भी देखना चाहिये कि उससे आगे कितने हैं तब दूसरे के प्रति ईर्ष्या कम होगी। इधर हमारा गणित गरीब हो गया है। इधर टीवी पर अनेक ऐसे समाचार आते हैं जिसमें कभी दो हजार करोड़ तो कभी पांच हजार करोड़ की चर्चा भी होती है। अमुक ने अमुक चीज इधर17 करोड़ में खरीदी और उसे पांच हजार करोड़ में उधर बेची। इसका मतलब यह है कि लाखों करोड़ वाले लोग हो गये हैं। यह बारह सौ करोड़ हमें कम लगती है तो अच्छा ही है क्योंकि तब किसी से ईर्ष्या नहंी होती।’’
ज्ञानी जी को अपना ज्ञान अब गणित से पिटता नजर आ रहा था। वह बोले-‘अरे यार तुम्हारा राजनीतिक दृष्टिकोण शून्य है। अब तुम जाओ, हमारा समय खराब न करो।’’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘पहले यह बताओ दोनों में से कौन जीता! यह लाखोंकरोड़ रुपये की बात हमारी समझ में नहीं आयेगी। इसलिये तो टीवी देखना ही बंद कर दिया है।’
दीपक बापू उस पर गुस्सा दिखाते हुए बोले-‘चल मूर्ख कहीं के! ज्ञानी जी की मजाक बनाता है, भला इनसे कौन जीत सकता है।’
गंजू उस्ताद और दीपक बापू वहां से चल दिये। थोड़ा आगे चलकर गंजू उस्ताद बोला-‘यार, दीपक बापू हमें यह तो बताओ कि करोड़ में कितने अंक होते हैं।’
दीपक बापू बोले-‘चल मूर्ख कहीं के! हमें क्या पता! अच्छा हुआ अपनी पोल खुलने से बच गयी। चल तो पान वाले को बीड़ी के पांच सौ करोड़ रुपये दे आते हैं।’
गंजू उस्ताद एक चौंक गया-‘‘कितने दीपक बापू!’
दीपक बापू बोले-‘अरे, यह ज्ञानी जी वजह से हमारा दिमागी संतुलन बिगड़ गया और बहुत सारी बिंदियां दिमाग में आ गयी इसलिये पांच रुपये को…………कितना बोला था! पता नहीं कितनी बिंदियां दिमाग में आ गयीं।’

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नोट-‘यह हास्य व्यंग्य काल्पनिक है तथा किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई लेना देना नहीं है। किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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काला या लूट का धन या भ्रष्टाचार-हिन्दी लेख (black money or loot aur curruption-hindi lekh)


भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान छेड़ने वालों को अपना समय फालतू बहसों में नहीं उलझनी चाहिए। अनेक भारतीयों का विदेशी बैंकों में धन जमा है पर उसे काला कहकर भी सम्मानित नहीं किया जाना चाहिए। किसी भी व्यक्ति के पास धन दो ही प्रकार से आता है-एक कमाकर दूसरा लूटकर। मतलब धन या तो कमाई का होता है या लूट का। काले धन से आशय केवल यह होता है कि उसके लिये कर नहीं चुकाया गया, या जिसे सरकार के समक्ष घोषित नहीं किया जा सकता। यह काला धन ऐसे स्तोत्रों से आ सकता है जो कानून की दृष्टि से बुरे नहीं है, कानून की दृष्टि से बुरे धंधों से भी आया धन काला होता है पर वह लूट का नहीं होता। हम विदेशी बैंकों में जमा जिस धन को काला कह रहे हैं वह लूट का धन ही हो सकता है जिसके स्त्रोत न एक नंबर के हैं न दो नंबर के ।
इस प्रकरण में एक चर्चा करना रोचक लगती है। अभी हाल ही में एक धर्म विशेष की बैंक प्रणाली को अपनाने की बात चल रही थी। इस प्रणाली में बिना ब्याज के धन रखने की सुविधा होती है। कई लोगों ने इसका धार्मिक आधार पर विरोध किया पर लगता है कि वह असली बात समझे ही नहीं। इस प्रणाली के समर्थकों ने तर्क दिया कि चूंकि उस धर्म विशेष के लोग ब्याज को बुरा समझते हैं इसलिये उसका ध्यान रखते हुए उनको बिना ब्याज के बैंकों की तरफ आकर्षित किया जाये ताकि वह विनिवेश कर सकें। संभव है कि उस धर्म विशेष के गरीब और विद्वान लोग इस बात से प्रसन्न हों कि उनके धर्म की मान्यता बढ़ रही है तो भ्रम में हैं। दरअसल जिन विदेशी बैंकों में यह काला धन रखा जाता है उस वह वह ब्याज मिलना तो दूर बल्कि रखने की की फीस लगती है-ऐसा कुछ विशेषज्ञ दावा करते हैं। इसी फीस से बचने के लिये ही उस धर्म विशेष की नज़ीर के आधार पर अगर भारत में बैंक खोले गये तो यकीन मानिए ऐसे लूट के धन रखने वाले उस फीस से भी बच जायेंगे। संभव है कि ऐसे बैंक स्थापित हो गये तो उनको अपने धार्मिक आधार पर अपने यहां के जमाकर्ताओं की जानकारी किसी को न देने की भी छूट मिल जाये और फिर उसे व्यवस्थापक दूसरे धर्म के इस तरह का धन रखने वालों को भी सुविधा देने लगे-यानि विदेशों जैसी सुविधा देश में ही मिल जाये तो कहना ही क्या? अगर उस धर्म के विशेष के लोगों को बिना ब्याज के पैसा रखना है तो वर्तमान राष्ट्रीयकृत बैंकों में कानून बनाकर यह सुविधा दी जा सकती है। मतलब कहीं  न कहीं  इसमें चाल हो सकती है जो कि कथित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की आड़ में दी जा रही है।
प्रसंगवश उस धर्म के लोगों की बात भी कर लें। दरअसल उस धर्म के आम लोगों को लंबे समय तक अंग्र्रेजी और हिन्दी की शिक्षा से दूर रखा गया। देश की मुख्यधारा से भी परे रखकर धर्म की अफीम पिलाई गयी। जिसके कारण उस धर्म के लोगों का एक बहुत बड़ा समूह समय के साथ बदलाव का लाभ नहीं उठा पाया। अब समय बदल रहा है। उस धर्म के लोग भी अब असलियत समझ गये हैं। उसके पुरुष और स्त्रियां अब बैंकों में आते जाते देखे जा सकते हैं। जहां तक इस धर्म के शिक्षित तबके का सवाल है तो वह बिना हिचक के बैंकों में आता जाता है। इसी प्रसंग में यह बात भी कहना रोचक लगता है कि इस ब्याज रहित प्रणाली वाले बैंकों की संकल्पना तब जोर मार रही है जब यह डर सताने लगा है कि विदेशी बैंक अब लंबे समय तक साथ नहीं देने वाले। मतलब बात सीधी है कि धर्म आधारित बैंक प्रणाली कथित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की बजाय कर्मनिरपेक्षता पर आधारित है जिसमें किसी भी तरह अपना धन मज़बूत रखा जाये कर्म चाहे जैसे भी हों इसे कोई नहीं जान पाये। अगर ब्याज रहित बैंक प्रणाली की बात है तो भारतीय धर्म ग्रंथों में भी ब्याज खाने का विरोध किया गया है पर उसे सांप्रदायिक माना जाता है इसलिये उसके संदेशों पर चर्चा नहंी की जा सकती। पापपूर्ण धन का खेल निराला है जिसकी मात्रा अपने देश के कुछ लोगों के पास अधिक है।
कहने का अभिप्राय यह है कि इस देश में गरीबी, बेकारी और महंगाई का प्रकोप है यह प्रकृति या सामाजिक स्थिति की वजह से नहीं बल्कि राजकीय कुप्रबंधन और आर्थिक लुटेरों की वजह से है। कुछ लोग अपना पैसा छिपाकर रखना चाहते हैं क्योंकि उन्हें अपने कर्म भी छिपाने हैं। वह ब्याज लेना तो दूर रखने के लिये फीस भी देने के लिए तैयार हैं और उनकी चालों को धार्मिक या सामाजिक ढांचे की आड़ में छिपाने की सुविधा नहीं मिलना चाहिये। हम यहां किसी धर्म या उसकी बैंकिंग प्रणाली का विरोध नहंी कर रहे पर यह भी देखना होगा कि कहीं इसकी आड़ में ऐसा प्रयास तो नहीं हो रहा। आखिर इस देश में अनेक लोगों के पास धन नहीं है तो अनेक इसके लिये पूरा दिन संघर्ष करते हुए बिता देते हैं जबकि कुछ लोगों का न धन से पेट भरता है न हवस मिटती है। मगर सच यह भी है कि गरीब वर्ग ही अमीरों का आधार है। उसके खाने, बीमारी, यात्रा तथा सामाजिक कर्मकांडों के निवर्हन से ही लोग अमीर बन रहे हैं। कुछ लोग उनकी मज़बूरी को बेचकर तो कुछ उससे बचकर अमीर बन रहे हैं। अमीर वर्ग के दम पर कोई अमीर नहीं  बन रहा। गरीब के कल्याण के नाम पर जितना पैसा खर्च होता  है वही लुट रहा है। इसके लिये एक नहीं लाखों उदाहरण मिल जायेंगे।
यही कारण है कि नये आर्थिक कार्यक्रम तथा प्रणाली बनाते समय लुटेरों के धन रखने की आदत पर भी ध्यान रखना चाहिए।
वैसे जिस तरह देश में चिंतन और अध्ययन की स्थिति है उसे देखते हुए कोई यह तर्क भी दे सकता है कि किसी धर्म विशेष के आधार पर बने बैंक में यही लूट का धन देश में ही रखा जाये तो क्या बुराई है? आखिर यह पश्चिमी देशों की पकड़ से बाहर तो रहेगा! अमेरिका के पास तो नहीं जायेगा। देश के पैसा देश में ही तो रहेगा फिर इससे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का भी निर्वहन हो जायेगा! वैसे आने वाला समय नये प्रकार के विवादों को जन्म देने वाला है। लूट का धन कहें या काला उसकी ताकत कम नहीं है। जिनके पास है उनके चेहरे यहां चमकदार और व्यक्त्तिव इज्जतदार है। वह अपना खेल मज़बूती से खेलेंगे और उसे रोकना आसान नहीं होगा। उनकी तरफ से निरर्थक बहस करने वाले बुत भी खड़े होंगे और उनसे बचना होगा।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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बिग बॉस के लिये फतवा फिक्सिंग-हिन्दी व्यंग्य (big boss ke liye fatva fixing-hindi vyangya)


पाकिस्तान के एक मौलवी ने बिग बॉस धारावाहिक में काम कर रही अपने देश की एक अभिनेत्री वीना मलिक की गतिविधियों का इस्लाम विरोधी बताया है। उन्होंने वीना मालिक को इस्लाम के लिये बहुत बड़ा खतरनाक घोषित कर दिया है। अब यह तो इस्लाम से जुड़े व्यंग्यगकार ही यह विषय उठा सकते हैं कि एक अभिनेत्री को उसके अश्लील अभिनय से 14 सौ वर्ष पुराने इस्लाम को खतरा बताकर उसे शक्तिमूर्ति कह रहे हैं या अपने धर्म को कमजोर बता रहे हैं। उनके इस बयान का विरोध उनके देश में ही किया गया है और एक आदमी ने तो सवाल उठाया है कि मौलवी को आखिर बिग बॉस देखने की फुर्सत मिल कैसे जाती है? इसे यूं भी कहा जा सकता है कि आखिर वह मौलवी अगर धार्मिक प्रवृत्ति के हैं तो ऐसे धारावाहिक देखते ही क्यों हैं?

यह प्रश्न काफी जोरदार है और धर्म के नाम पर फतवे या निर्देश जारी करने वाले सभी धर्म के ठेकेदारों से पूछा जाना चाहिए कि वह मनोरंजन के नाम पर हो रही गतिविधियों को देखते ही क्यों हैं? अगर नहीं देखते तो उसके बारे में फैसला कैसे करते हैं? केवल सुनकर! तब तो उनको कान का कच्चा और बात का बच्चा कहना चाहिए।
बात अगर पाकिस्तानी मौलवी की चली है तो वहां के क्रिकेटरों की भी चर्चा हो जाती है जिन पर फिक्सिंग का लेबल चिपका हुआ है। हमें तो वह मौलवी भी फिक्सर दिखाई दे रहा है। उसके इस फतवे पर पाकिस्तान की ही एक महिला ने सवाल उठाया है कि जब पारदर्शी कपड़े पहनकर पाकिस्तानी के टीवी चैनलों पर नाचती है तब ऐसे फतवे क्यों नहंीं जारी हुए?
अब इसका जवाब तो यही हो सकता है कि बिग बॉस को पाकिस्तान तथा भारत में लोकप्रिय बनाये रखने के प्रयास में शायद वह मौलवी ने फिक्स फतवा जारी किया है। सच तो यह है कि बिग बॉस को निरंतर चर्चा में बनाये रखने के लिये विवादों को फिक्स किया गया है। इतना ही नहीं जिस वीना मलिक को इसमें शामिल किया गया उससे पहले एक पाकिस्तानी फिक्सर क्रिकेटर के खिलाफ उससे बयान दिलाया गया जो एक फिक्सिंग प्रकरण में ताजा ताजा फंसा था। बस, हो गयी वीना मलिक हिट! सप्ताह भी नहीं बीता कि उसके बिग बॉस में आने की खबर आ गयी। ऐसे में हमने यह लिखा था कि पाकिस्तानी क्रिकेटर इंग्लैंड पुलिस के हाथ फिक्सिंग में पकड़े गये तो संभव है कि पूरा घटनाक्रम ही फिक्स हो सकता है। इस प्रकरण में लोगों को सत्य लगे इसलिये इंग्लैंड की गोरी पुलिस को फिक्स किया गया होगा क्योंकि भारत में गोरों को अभी तक ईमानदार माना जाता है। हमें इसी प्रकरण के बाद लगा कि गोरी पुलिस ने ही अपनी छवि का लाभ उठाने के लिये यह प्रकरण फिक्स किया होगा-शायद केवल वीना मलिक को बिग बॉस लाने के लिये यह प्रकरण रचा गया यही कारण है कि बाद में यह पूरा मामला ही टांय टांय फिस्स हो गया।
क्रिकेट, मनोरंजन, व्यापार तथा अपराध जगत का ऐसा गठजोड़ है कि उनमें सक्रिय दलाल कोई प्रकरण किसी भी आदमी से कुछ भी फिक्स कर सकता है। अरे, बड़े बड़े दिग्गज उनके सामने बिकने के लिये तैयार हैं तब एक मौलवी भला कैसे बच सकता है? संभव है मौलवी ने यह बयान इस इरादे से दिया हो कि कि कहीं इस फतवे से मिले प्रचार की वजह से आर्थिक, अपराधिक, मनोरंजन तथा धर्म के आधार पर संयुक्त उद्यम बने इस वैश्विक गठजोड़ से शायद कुछ फायदा हो? बिग बॉस की तो फिल्म पिट रही है। इसका प्रचार अधिक है पर लोकप्रियत कम! इस वैश्विक गठजोड़ के लिये यह एक चिंता की बात हो सकती है। एक बात याद रखें कि यह कार्यक्रम एक अंतर्राष्ट्रीय शैली का है और भारत पाकिस्तान में प्रसारित कर यहां के लोगों को मनोरंजन मेें व्यस्त किया जा रहा है ताकि उनका ध्यान अपने शिखर पुरुषों के नकारापन की तरफ न जाये। दोनों ही देशों की अंदरूनी हालतों पर नज़र डालें तो संतोषप्रद नहीं लगते-अगर कहें कि डरावने हैं तो भी गलत नहीं है।
मौलवी ने इस्लाम की परंपरागत शैली की आड़ ली पर आजकल यह एक फैशन हो गया है कि चाहे जहां विरोध करना हो वहीं धर्म की आड़ लो। मौलवी के फिक्स होने का संदेह यूं भी होता है कि भारतीय चैनलों पर इसे पर्याप्त स्थान दिया गया या कहें कि विज्ञापनों के बीच प्रसारण के लिये उनको एक संवदेनशील सामग्री मिल गयी। वैसे हम लोग यहां सुनते हैं कि पाकिस्तान भारतीय चैनलों पर प्रतिबंध लगा चुका है पर बिग बॉस वहां दिखने का मतलब यह है कि वह प्रतिबंध भी एक तरह से फिक्स है। हमें पहले से ही शक है कि पाकिस्तान के फिक्स शासकों के बूते की यह बात नहीं है कि वह भारतीय चैनलों पर प्रतिबंध लगा सकें। संभवतः वह ऐसी घोषणाऐं भी इसलिये फिक्स करते हैं कि भारतीय टीवी चैनल इसके माध्यम से अपने देश के लोगों पर देशभक्ति का भाव फिक्स कर अपना विज्ञापन समय अच्छी तरह पास करें।
आज के समय कौनसी कंपनी कहां कैसे काम कर रही है इसका पता नहंी चलता! ऐसे में अगर भारतीय कंपनियों या उनके दलालों का कोई अस्तित्व पाकिस्तान में न हो यह मानना संभव नहीं है। यही कंपनियां भारत में में चैनलों को तो उधर पाकिस्तान में उसके शिखर पुरुषों को मदद करती हैं। विश्व में सक्रिय मनोरंजन के दलालों को लगा कि भारत में किसी मौलवी को पटाया नहीं जा सकता या उससे कोई फायदा नहीं इसलिये पाकिस्तान में कोई मौलवी ढूंढ लें। इससे धर्म और देशभक्ति के भाव से बिग बॉस कार्यक्रम का विज्ञापन हो जायेगा। अब अगर वह इस्लाम के मौलवी हैं तो यह बात निश्चित है कि कोई दूसरा मौलवी उसका विरोध करने का खतरा नहंी उठायेगा। कम से कम भारत में तो यह संभव नहीं है खासतौर से तब जब अन्य धर्म के ठेकेदार भी इस कार्यक्रम को पंसद नहीं कर रहे। पसंद तो हम भी नहीं करते पर मालुम है कि देश में मूर्खों की कमी नहीं है और उनको ऐसे ही कार्यक्रमों में फिक्स कर अन्य लोगों को उनका शिकार होने से बचाया जा सकता है।
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फतवा फिक्सिंग-हिन्दी व्यंग्य
हिन्दी

धर्म निंदा विरोधी कानून से ठेकेदारों को आसरा-हिन्दी लेख


पाकिस्तान में एक ईसाई महिला ने राष्ट्रपति से क्षमादान की अपील की है। उस पर ईश निंदा के तहत मामला दर्ज था और जाहिर है सजा मौत से कम क्या हो सकती है? उस पर तरस आया क्योंकि उसकी स्थिति इस दुनियां के शर्म की बात है? आखिर यह ईश निंदा का मामला क्या है? पाकिस्तान तो मज़हबी राष्ट्र होने के कारण बदनाम है पर दुनियां के सभ्य देश भी धार्मिक आलोचना को लेकर असंवेदनशील है। जब अपने देश में देखता हूं तब यह सोचता हूं कि किसी भी धर्म की आलोचना किसी को भी करने की छूट होना चाहिए! अगर किसी धर्म की आलोचना या व्यंग्य से बवाल फैलता है तो रचनाकार पर नहीं बल्कि उपद्रव करने वालों पर कार्यवाही करना चाहिए। कुछ लोग शायद इसका विरोध करें कि अभिव्यक्ति की सुविधा का लाभ इस तरह नहीं उठाना चाहिए कि दूसरे की धाार्मिक आस्था आहत हो।
जिन लोगों ने इस लेखक के ब्लाग पढ़े हैं उनको पता होगा कि उन पर हिन्दू धर्म से संबंधित बहुत सारी सामग्री है। महापुरुषों के संदेश वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या सहित अनेक पाठ प्रकाशित हैं! सामान्य भाषा में कहें कि यह लेखन धार्मिक प्रवृत्ति का है और आस्था इतनी मज़बूत है कि इंटरनेट पर हिन्दू धर्म की निंदा पढ़कर भी विचलित नहीं होती। वजह साफ है कि अपने धर्म के मूल तत्व मालुम है और यह भी कि आलोचक तो छोड़िये धर्म के प्रशंसक भी उनको नहीं समझ पाते। आलोचक भारतीय धर्मग्रंथों के वही किस्से सुनाकर बदनाम कर रहे है जिनको पढ़ते सुनते भी तीस बरस हो गये हैं। मुख्य बात तत्व ज्ञान की है जिसे भारतीय क्या विदेशी तक भागते नज़र आते हैं।
ईश या धर्म निंदा पर हमला या कार्यवाही करना इस बात का प्रमाण है कि हमारी आधुनिक सभ्यता पहले से कहीं अधिक असहिष्णु हुई है। अगर आज कबीरदास जी होते तो पता नहीं उन पर कितने मुकदमे चलते और शायद ही उनको कोई वकील मुकदमा लड़ने के लिये नहीं मिलता। स्थिति यह है कि हम उनके कई दोहे इसलिये नहीं लिखते क्योंकि असहिष्णुता से भरे समाज में ऐसी लड़ाई अकेले लड़ना चाणक्य नीति की दृष्टि से वर्जित है।
आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है? दरअसल आधुनिक लोकतंत्र में धर्म के ठेकेदारों के माध्यम से समाज को नियंत्रित किया जा रहा है। वह समाज की बजाय राज्य से अधिक निकट हैं और उसकी वजह से उनको अपना नियंत्रण करना आसान लगता है। सर्वशक्तिमान के किसी भी स्वरूप के नाम का दरबार बना लो, चंदा आयेगा, राज्य भी सहायता देगा और जरूरत पड़ी तो बागी पर ईश निंदा का आरोप लगा दो। सच बात तो यह है कि महापुरुषों के नाम पर धर्म चलाने वाले ठेकेदार अपनी राजनीति कर रहे हैं। आखिर ईश निंदा को खौफ किसे है? हमें तो नहीं है। मनुस्मृति पर इतनी गालियां लिखी जाती हैं पर इस लेखक ने उनके बहुत सारे संदेशों को पढ़ा है जो आज भी प्रासांगिक है उनको छांटकर व्याख्या सहित प्रकाशित किया जाता है। मनुस्मृति के समर्थकों का कहना है कि उसमें वह सब बातें बाद में जोड़ी गयी हैं जिनकी आलोचना होती है। इसका मतलब साफ है कि किसी समय में राज्य की रक्षा की खातिर ही विद्वानों से वह सामग्री बढ़ाई गयी होगी।
यह आश्चर्य की बात है कि जो पश्चिमी देश पाकिस्तान के खैरख्वाह हैं वह उसे इस कानून को हटाने का आग्रह नहीं करते क्योंकि उनको भी कहीं न कहीं उसके धर्म की सहायता की आवश्यकता है। उसके सहधर्मी देशों में तेल के कुऐं हैं जो इस तरह के कानूनों के हामी है और पश्चिमी देशों के तेल तथा धन संपदा के मामले में सहायक भी हैं। इतना ही नहीं पश्चिमी देश भी अपने ही धर्म की आलोचना सहन नहीं  कर पाते। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि वह आधुनिक सभ्यता के निर्माण के बहाने अपना धर्म बाज़ार के माध्यम से ला रहे हैं।
आखिर धर्म के ठेकेदार ऐसा क्यों करते हैं? अपने धर्म की जानकारी किसी ठेकेदार को नहीं है। समयानुसार वह अपनी व्याख्या करते हैं। अगर बागी कोई माफिया, नेता या दौलत वाला हुआ तो उसके आगे नतमस्तक हो जाते हैं पर आम आदमी हुआ तो उस राज्य का दंडा चलवाते हैं। यह अलग बात है कि आज समाज के शिखर पुरुष अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं धर्म के ठेकेदारों को समाज पर लादते हैं जो उनके हितैषी हैं। दूसरी बात यह भी है कि भारतीय अध्यात्म को छोड़ दें तो विश्व की अधिकतर विचाराधारायें नये संदर्भों के अप्रसांगिक होती जा रही हैं। भारतीय अध्यात्म में श्रीमद्भागवत गीता ही एक ऐसा ग्रंथ है जो आज भी निर्विवाद है। उसके बाद आता है पतंजलि योग दर्शन का नंबर। रामायण, वेद, उपनिषद, पुराण, रामचरित मानस तथा अन्य बहुत सारे ग्रंथ हैं पर अपने रचनाकाल के परिप्रेक्ष्य में उनकी संपूर्ण सामग्री भले ही श्रेष्ठ रही हो पर कालांतर में समाज के बदलते स्वरूप में उनमें वर्णित कई घटनायें तथा दर्शन अजीब लगता है। संभव है कि रचना के बाद कुछ ग्रंथों में बदलाव हुआ हो या फिर उनका भाव वैसा न हो जैसा हम समझते हैं, पर उनकी आलोचना होती है। होना चाहिए और इसका उत्तर देना आना चाहिए। वेदों की आलोचना पर तो इस लेखक का स्पष्ट कहना है कि श्रीमद्भागवत गीता में सभी ग्रंथों का उचित सार शामिल हो गया है इसलिये उसके आधार पर वेदों का अध्ययन किया जाये। मज़े की बात यह है कि हिन्दू धर्म का कोई भी आलोचक श्रीमद्भागवत गीता को नहीं पढ़ता जिसमें भेदात्म्क बुद्धि को अज्ञान का प्रतीक माना गया है। मतलब मनुष्य में जाति, धर्म, लिंग, भाषा, धन तथा शिक्षा के आधार पर भेद करना और देखना ही तामस बुद्धि का प्रमाण है।
भारत में ऐसे सारे कानूनों पर भी विचार होना चाहिए जो धार्मिक आलोचना को रोकते हैं। यह जरूरी भी नहीं है कि किसी धर्म की आलोचना उस धर्म का ही आदमी करे दूसरे को भी इसका अधिकार होना चाहिए। दंगे फैलने की आशंका का मतलब यह है कि कहींे न कहीं हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि राज्य ऐसे झगड़ों से निपटने के लिये तैयार नहीं है। धार्मिक ठेकेदार धर्म के नाम पर मलाई तो खाते हैं पर आलोचना का प्रतिकार करने की क्षमता उनमेें नहीं है। इस समय देश में जो वातावरण है वह दमघोंटु बना दिया गया है। कहीं किसी को तस्वीर से एतराज है तो कहीं किसी को निबंध से चिढ़ होती है। जो दावा करते हैं कि हमारा समाज नयापन और खुलापन ले रहा है वह इस बात को भूल जाते हैं कि संत कबीर और रहीम ने बहुत पहले ही सभी धर्मो और उनके ठेकेदारों पर उंगली उठाई है। आज की पीढ़ी खुलेपन वाली है तो फिर यह धार्मिक आलोचना पर रोक लगाने का काम क्यों और कौन कर रहा है? हमारा मानना है कि जो धार्मिक ठेकेदार मलाई खा रहे हैं उनको इन आलोचनाओं के सामने खड़ा कर उसका मुकाबला करने के लिये प्रेरित या बाध्य करो। यह क्या हुआ कि शंाति भंग की आशंका से ऐसे मामलों में कार्टूनिस्टों, लेखकों और पत्रकारों पर कार्यवाही की जाये?
भारत के बुद्धिजीवी पाकिस्तान की कार्यप्रणाली पर टिप्पणियां तो करते हैं पर अपने देश की स्थिति को नहीं देखते जहां धर्म के नाम पर आलोचना रोककर अभिव्यक्ति को आतंकित किया जा रहा है। पाकिस्तान में तो यह आम हो गया है। अगर समाचार पत्रों में छपी विभिन्न खबरों को देखें तो ऐसा लगता है कि लोग अपनी धार्मिक किताब को कबाड़ी के यहां बेच देंगे। उसमें अगर अपने धर्म का आदमी सेव बेचे तो कोई बात नहीं अगर दूसरा बेचे तो लगा दो ईश निंदा का आरोप। मज़े की बात यह कि यह खबर भारत में पढ़ी है पर उसमें ईश निंदा लिखी है पर यह नहीं बताया कि वह किस तरह की है। स्पष्टतः डर की वजह से यह छिपाया गया है। यह खौफ खुलेपन के दावे की पोल खोलकर रख देता है। क्या यह माना जाये कि इस देश में दो तरह के लोग रहते हैं एक असहिष्णु और दूसरे डरपोक।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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यह बिग बॉस नाटक या धारावाहिक देशप्रेम रखने वालों के लिये नहीं है-हिन्दी व्यंग्य (Big Boss natak ya dharavahik aur deshprem-hindi vyangya)


कहा जाता है बद अच्छा बदनाम बुरा-हमें पता नहीं यह कहावत उल्टी भी हो सकती है। मतलब आदमी बुरा हो पर बदनाम नहीं होना चाहिए। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि अपने में कोई बुराई हो पर उसकी चर्चा बाहर नहीं होना चाहिऐ। लब्बोलुआब यह कि बदनाम नहीं होना चाहिए। लगता है अब यह कहावत अब उलट देना चाहिये या फिर यह कहना करें कि बद अच्छा तो उससे अच्छा बदनाम है।
कम से कम टीवी चैनल में बदनाम लोगों को अभिनय करने को लेकर चल रहे विवाद से तो ऐसा लगता है कि अब नयी पीढ़ी यह भी सोचेगी कि कोई ऐसा काम किया जाये जिससे बदनाम होने पर कहीं  किसी टीवी चैनल पर अपना थोबड़ा दिखाने का अवसर तो मिल ही जायेगा। पूरे देश पर आक्षेप करना ठीक नहीं है पर कुछ कमजोर दिमाग के लोग ऐसे हैं जो पद, प्रतिष्ठा और पैसा पाने के लिये कुछ भी गलत सीख सकते हैं। एक चैनल है जिसमें एक पुराने चोर, आतंकवादियों के वकील तथा एक समलैंगिक को शामिल किया गया है। हम अपने व्यंग्य या आलेख में किसी का नाम इसलिये नहीं लिखते क्योंकि अप्रायोजित लेखक हैं और किसी का बिना पैसे लिये प्रचार करना अपनी शान के खिलाफ है-भले ही आलोचनात्मक टिप्पणियों से वह भरा हो। वैसे तो अब तो हमें लगने लगा है कि यहां कुछ लोग प्रसिद्ध होने के लिये अपनी आलोचना पैसा देकर करवाते हैं। चैनलों पर चले रहे धारावाहिकों के नाम लेकर उनकी आलोचना करना भी हमें  प्रायोजित करने जैसा  लगता है। बहरहाल जिस चैनल के जिस धारावाहिक की हम चर्चा कर रहे हैं उसका हिन्दी नामकरण  करते हैं ‘बड़ा मुखिया’। यह नाम इसलिये किया क्योंकि उस चैनल के नाटक की पृष्ठभूमि घर पर ही आधारित है। इसमें पहले ऐसे प्रसिद्ध लोगों को शामिल किया गया जिन पर दुर्भाग्यवश (?)बदनामी का धब्बा लगा-कुछ के लिये कहा गया कि उनका अपराध बालपन की नादानी से हुआ। कुछ ऐसे लोग भी उसमें आये जो जीतने के बाद बदनाम हुए, यानि उनमें ऐसे गुण पहले से मौजूद थे।
अब यह चैनल अपना धारावाहिक बड़े प्रचार से दिखा रहा है। इसमें पाकिस्तान से भी बदनाम लोग मंगवाये गये हैं। हम बहुत समय पहले से कहते रहे हैं कि टीवी चैनलों के अदृश्य प्रायोजक बहुत सारे धंधों में हैं। दुनियां भर के व्यापार में अब काले सफेद धंधे का प्रश्न नहीं रहा और सभी प्रचार माध्यमों पर अपनी पकड़ बनाये हुए हैं । अब तो समाज में ही यह हालत है कि जिसके पास धन है वही सेठ और समाज का भाई कहलाता है-अब भाई कहिने भी हो सकता है, भारत हो  या पाकिस्तान। सारी व्यवस्था के साथ ही सारे प्रचार माध्यमों पर उनकी श्रेष्ठता प्रमाणिक हैं चाहे भले ही बदनाम हों। क्रिकेट, फिल्म और टीवी चैनलों का घालमेल हो गया है। पाकिस्तान की एक फिल्मी नायिका ने वहां के क्रिकेट खिलाड़ी पर फिक्सर होने का आरोप लगाया था। उस समय हमें हैरानी हुई क्योंकि वह ऐसा कर धनपतियों से बैर ले रही थी-आर्थिक उदारीकरण से धनपति अब कंपनियों के पीछे अदृश्य होकर काम करते हैं इसलिये अब यह प्रश्न नहंी रहा कि कौनसा सेठ कहां का है? अब समझ में आया कि संभवतः उस अभिनेत्री को भारतीय चैनल में लाने के लिये यही फिक्सिंग प्रकरण या नाटक  ब्रिटेन में रचा गया होगा। चूंकि ब्रिटेन इसमें शामिल है इसलिये किसी का शक हो न हो पर अब हमें होने लगा है क्योंकि आर्थिक उदारीकरण के चलते अपराध का भी वैश्वीकरण होता जा रहा है अंग्रेज भला कौन से दूध के धुले हैं-पैसा कमाने के लिये ही तो भारत आये थे। चूंकि चैनलों की भूमिका पहले से ही बननी होती है इसलिये कोई बड़ी बात नहीं कि उसके एक भावी को प्रसिद्ध दिलाने के लिये पाकिस्तानी क्रिकेट को पकड़ा गया और फिर उस अभिनेत्री से बयान दिलाया गया। संभव है कि वह अभिनेत्री अधिक रहस्य न खोले इसलिये भी उसे भारतीय चैनल में काम दिलाया गया हो। बहरहाल एक फिक्सर की पुरानी दोस्त होने की बदनामी उसने पहले मोल ली और भारत में उसका नाम भी तभी आया। इधर नाम आया और उधर चैनल में उसको काम मिल गया।
जितने भी आकर्षक व्यवसाय हैं वह अब आर्थिक शिखर पुरुषों के हाथ में हैं और अगर जार्ज बर्नाड शॉ की बात पर यकीन किया जाये तो बिना बेईमानी के कोई भी अमीर नहीं  बन सकता। ऐसे में अपने ही संरक्षण में वह बदनाम लोगों को संरक्षण देते हुए उसके नकदीकरण का अवसर भी यह सेठ लोग नहीं चूकते। भला कोई व्यापारी अपनी चीज़ को खराब बताता है! एक नहीं तो दूसरे ग्राहक को बेच ही देता है। ऐसे में कोई फिल्म में बदनाम हुआ हो या क्रिकेट में चल जायेगा मगर चोर और डकैत भी चल जायेंगे! क्या माने? ऐसे लोग भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों ने पहले से ही प्रायोजित कर रखे हैं। हम बहुत समय से कहते रहे हैं कि व्यवसायिक संस्थान या व्यवस्थापक प्रतिष्ठानों में आर्थिक शिखर पुरुषों के अनेक लोग मुखौटे की तरह हैं जो सज्जनता से काम करते दिखते हैं तो क्या अब यह भी मान लें कि अपराधिक जगत में भी अब मुखौटे आने लगे हैं। क्या अब यह तय हो गया कि आतंकवाद भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों के मुखौटे ही फैला रहे हैं। ऐसे में अपराध और आतंक से प्रत्यक्ष जुड़े लोग वाकई मासूम लगते हैं मगर ऐसे में हर आर्थिक शिखर पुरुष संदेह की परिधि में आता जायेगा। माना जायेगा कि हर छोटे बड़े अपराध और आतंक का असली जिम्मेदार कोई न कोई आर्थिक पुरुष ही है। तब यह भी होगा कि हर आर्थिक शिखर पर विराजमान हर पुरुष समाज के लिये संदिग्ध होगा क्योंकि यह माना जाने लगेगा कि इसके खिलाफ तो कभी सबूत मिल ही नहीं सकता पर यह अपराध में लिप्त जरूर होगा।
मुद्दा यह भी है कि क्या ऐसे प्रसारण पर रोक लगनी चाहिए। हम अब भी कहेंगे नहीं। हमारे कुछ मित्र इस जवाब पर नाराज हो सकते हैं क्योंकि आतंकवादियों तथा अपराधियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी, सामाजिक न्याय, शोषण से मुक्ति तथा धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर बौद्धिक संरक्षण देने वाले बहुत सारे बुद्धिजीवी इस देश में है और कम से कम हमने ही दसियों बार उन पर प्रतिकूल टिप्पणियां करते हुए अपने पाठ लिखे हैं। तब ऐसा क्या है जो हम अभिव्यक्ति के नाम पर इस प्रसारण को रोकने के खिलाफ हैं?
हम तो दूसरी बात कह रहे हैं कि जिस तरह बीड़ी सिगरेट और शराब के डिब्बों पर लिखा रहता है कि इनका सेवन शरीर के लिये हानिकारक है उसी तरह पाकिस्तानी अभिनेता अभिनेत्रियों के अभिनय वाले धारावाहिकों का  प्रचार करने वाले विज्ञापनों पर ही यह लिखना होना चाहिए कि ‘देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत या देशप्रेम रखने वाले लोगों को यह धारावाहिक नहीं देखना चाहिए।’
इससे कुछ लोगों की भवनें आहत होने से बच जाएँगी। उसी तरह बदनामशुदा लोगों के धारावाहिकों के विज्ञापनों में भी यह लिखना चाहिये कि ‘यह सभ्य और सज्जन भाव रखने वालों को नहीं देखना चाहिये और न बच्चों को देखने देना चाहिऐ।
इससे लोग स्वयं ही बच्चों के बिगड़ने के दर से वह चैनल धारावाहिक के समय बंद रखेंगे ।  चेतावनी लिखी होने पर लोगों को कार्यक्रम प्रसारित होने का अफसोस कम होगा।  जिस तरह बीडी,सिगरेट और शराब की बोतल पर चेतावनी होने पर उसके बिकने का अफसोस कम होता है।
एक बात जो अभी तक हमारी समझ में नहीं आती। आखिर दक्षिण एशिया में एकता के नाम पर हमारे पास केवल पाकिस्तान का नाम ही क्यों आता है? सच मानिए पाकिस्तान के आम आदमी से हमारा कोई बैर नहीं है मगर वहां के बदनामशुदा लोग ही यहां क्यों आकर प्रचार पाते हैं? यह हमारी समझ में नहीं आता। मजे की बात यह है कि इनसे कई सभ्य चेहरे वाले मुखौटे मिलकर कहते हैं कि ‘यह तो खेल और फिल्म सें संबंधित मुलाकात है।’
पाकिस्तान के क्रिकेट फिक्सरों को भारत आने का वीज़ा बहुत जल्दी मिल जाता है। यह भी चर्चा का विषय बनता है। कहने का अभिप्राय यह है कि सफेद काले का घालमेल हो गया है। ऐसे में नैतिकता की मांग कमजोर जरूर हुई है पर मरी नहीं है क्योंकि जो लोग अपराध और आतंक के मुखौटो को अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो बुद्धिजीवी लेखक सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर
खलनायक की बजाय नायक की तरह प्रतिपादित करते हैं वह भी नैतिक आदर्शों की बात तो करते यह अलग बात है कि आर्थिक उदारीकरण के साथ ही अपराध और आतंक के वैश्वीकरण के विषय से मुख क्यों मोड़ लेते हैं? इसलिये ही न कि वह सभी भी प्रायोजित हैं। उससे भी मजे की बात है कि पूंजीवाद के विरोधी बुद्धिजीवी इस खेल को तो इस तरह अनदेखा करते हैं जैसे कि कोई लेना देना ही न हो-होते तो वह भी प्रायोजित हैं पर कभी कभी सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भावनाओं की बात वह भी करते हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर होने के बावजूद सरकारी डंडे के सहारे सारे कल्याण का सपना भी वही पालते हैं।
एक धारावाहिक से कुछ बनता बिगड़ता नहीं है क्योंकि हमारे देश का अध्यात्मिक स्वरूप बहुत दमदार है। अगर खान पान ठीक होने के साथ उनका सेवन सीमित हो तो बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू और शराब जैसे व्यवसनों का भी दुष्प्रभाव कम हो जाता है-रोका बिल्कुल नहीं जा सकता यह बात तय है-उसी तरह बच्चों का मन मस्तिष्क मज़बूत हो वह ऐसे चैनलों को नहीं देखेंगे पर फिर भी इन चैनलों के ऐसे धारावाहिकों का वर्गीकरण तो करना ही होगा। कम से कम हमारी यह मांग आज़ादी की अभिव्यक्ति पर प्रहार नहीं करती यह निश्चित है।

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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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हिन्दू धार्मिक विचार-ज़हरीली चीज और चर्चा से दूर रहें (zaharili cheejon aur charcha se door rahe-hindu dharmik vichar)


according to kautilya arthshashastra कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार
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नित्यं जीवस्य च ग्लानिर्जायते विषदर्शनात्।
एषामन्यतमेनापि समश्नीयत्परीक्षितम्।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रतिदिन विष को देखने से ही मन में ग्लानि हो जाती है इसलिये किसीके  सहयोग से भोजन की परीक्षा करें।
चकोरस्य विरज्येत नयने विषदर्शनात्।
सुव्यक्तं माघति क्रोंचो प्रियते कोकिलः किल।
हिन्दी में भावार्थ-
विष को देखने मात्र से चकोर पक्षी की आंख लाल हो जाती है और कोकिल तो मृत्यु के गाल में ही समाज जाता है।
वर्तमानं संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कौटिल्य का अर्थशास्त्र राजाओं के लिये लिखा गया है पर एक बात याद रखने लायक है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में व्यंजना विद्या में ही विषय प्रस्तुत किया जाता है जिससे हर वर्ग के मनुष्य के लिये उसका कोई न कोई अर्थ निकले। उनके राजा और प्रजा के लिये समान अर्थ हैं पर उनका भाव प्रथक हो सकता है। हर मनुष्य कहीं न कहीं राजा या प्रमुख पद पर प्रतिष्ठत होता है। आखिर परिवार भी तो राज्य की तरह चलते हैं। यहां कौटिल्य महाराज के विष को अन्य विषयों के साथ व्यापक रूप में लेना चाहिये। वैसे आजकल तो अनेक जगह खानपान की चीजों में जिस तरह विष डाला जा रहा है उसे देखते हुए अत्यधिक सतर्कता के आवश्यकता है।
हम प्रतिदिन ऐसे समाचार पढ़ रहे हैं कि दुग्ध तथा खाद्य पदार्थों  में ऐसे रसायन मिलाये जा रहे हैं जो शरीर के लिए हानिकारक हैं और जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती  हैं, अत: जहाँ तक हो सके बाज़ार की खुली वस्तुओं के सेवन से बचना चाहिए।
 अगर हम विष की बात करें तो  वह खाने के अलावा   अन्य सांसरिक विषयों से भी संबंधित  है। कुछ विषय विष प्रदान करते हैं-जैसे परनिंदा, ईर्ष्या तथा दूसरे का दुःख देकर मन में हंसना। कुछ ऐसे स्थान भी होते हैं जहां जाकर हमारा मन खराब होता है। उसी तरह कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनसे मिलने पर हमारे अंदर विकार पैदा होते हैं जिससे दुष्कर्म करने की प्रेरणा आती है। कहने का अभिप्राय यह है कि मन में विष पैदा करने वाले विषयों और व्यक्तियों  से संपर्क नहीं रखना चाहिये।
इसलिये समय समय पर आत्म मंथन अवश्य करते हुए यह देखना चाहिये कि कौनसे व्यक्ति, विषय या स्थान हमारी मनस्थिति को डांवाडोल करते हैं। जहां तक हो सके उनसे दूर रहें। प्रतिदिन उनसे संपर्क रखने से न केवल अपना मन कलुषित होता है जिससे जीवन में आचरण में कलुषिता आती है और जो अंततः कर्ता के लिये ही संकट का कारण बनती है। जहां मन में प्रसन्नता रूपी अमृत मिलता हो वहीं जाना चाहिये। जिससे हृदय में पवित्रता, निर्मलता तथा दृढ़ता का भाव बना रहे उन्हीं विषयों की संगति करना ही उचित है। जिनसे विष का अनुभव हो उनसे दूर रहना ही अच्छा है। तभी जीवन तनाव मुक्त रह सकता है।

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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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अयोध्या में राम मंदिर और राम-हिन्दी कविता (ayodhya mein ram mandir aur ram-hindi poem)


उन्होंने कहा कि
‘तुम अयोध्या के राम मंदिर पर लिखो
उस पर फैसला होने वाला है
जरूर इससे सनसनी फैल जायेगी
तुम्हारी प्रसिद्ध होने भूख भी तभी शांत हो पायेगी।’
मुझे तब अपने घर रखी राम की
तस्वीर दिखाई दी
जिसमें मेरे पूज्य मुस्करा रहे थे
बरबस मैं भी मुस्करा दिया
जैसे इष्ट ने आनंद के झूले में झुला दिया।
मुझे नहीं लगा कि
मेरी कलम इन क्षणो पर अभिव्यक्त हो पायेगी।
मेरे मन में जो हर पल विचरे हैं
उनके प्रति आस्था के बीज
रक्त के कण कण में बिखरे हैं,
अमूर्त रूप से बसे हैं जो आंखों में
तस्वीरों जितने चेहरे भी हैं लाखों में
उनके स्मरण से बढ़ती हुई ताकत
खड़ा कर देती है ज़िदगी के खुशनुमा पलों के सामने
शीतल होती जा रही देह की उंगलियां
ऐसे में कहां आग उगल पायेंगी।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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अंग्रेजी के लेखक यूं हिन्दी में पढ़े जाते-हिन्दी दिवस पर विशेष लेख (inglish writer, hindi readar-hindi diwas par vishesh lekh)


वह नब्बे साल के अंग्रेजी लेखक हैं मगर उनको हिन्दी आती होगी इसमें संदेह है पर हिन्दी के समाचार पत्र पत्रिकाऐं उनके लेख अपने यहां छापते हैं-यकीनन ऐसा अनुवाद के द्वारा ही होता होगा। वह क्या लिखते हैं? इसका सीधा जवाब यह है कि विवादों को अधिक विवादास्पद बनाना, संवेदनाओं को अधिक उभारना और कल्पित संस्मरणों से अपने अपने आप को श्रेष्ठ साबित करना। अगर हिन्दी के सामान्य लेखक से भी उनकी तुलना की जाये तो उनका स्तर कोई अधिक ऊंचा नहीं है मगर चूंकि हमारे प्रकाशन जगत का नियम बन गया है कि वह केवल एक लेखक के रूप में किसी व्यक्ति को तभी स्वीकार करेंगे जब उसके साथ दौलत, शौहरत तथा ऊंचे पद का बिल्ला लगा होना चाहिये। यह तभी संभव है जब कोई लेखक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का सानिध्य प्राप्त करे और दुर्भाग्य कि वह उनको ही मिलता है जिनको अंग्रेजी आती है और तय बात है कि देश के अनेक हिन्दी संपादक उनके प्रशंसक बन जाते हैं।
उन वृद्ध लेखक ने अपने एक लेख में भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन से वीर सावरकर की तुलना कर डाली। यकीनन यह चिढ़ाने वाली बात है। अगर अंग्रेजी अखबार में ही यह सब छप जाता तो कोई बात नहीं मगर उसे हिन्दी अखबार में भी जगह मिली। यह हिन्दी की महिमा है कि जब तक उसमें कोई लेखक न छपे तब तक वह अपने को पूर्ण नहीं मान सकता और जितने भी इस समय प्रतिष्ठित लेखक हैं वह अंग्रेजी के ही हैं इसलिये ही अपने अनुवाद अखबारों में छपवाते हैं। इससे प्रकाशन जगत और लेखक दोनों का काम सिद्ध होता है। अंग्रेजी का लेखक पूर्णता पाता है तो हिन्दी प्रकाशन जगत के कर्णधार भी यह सोचकर चैन की संास लेते हैं कि किसी आम हिन्दी लेखक की सहायता लिये बगैर ही हिन्दी में अपना काम चला लिया।
वह लेखक क्या लिखते हैं? उनका लिखा याद नहीं आ रहा है। चलिये उनकी शैली में कुछ अपनी शैली मिलाकर एक कल्पित संस्मरण लिख लेते हैं।
मैं ताजमहल पहुंच गया। उस समय आसमान में बादल थे पर उमस के कारण पसीना भी बहुत आ रहा था। कभी कभी ठंडी हवा चल रही थी तब थोड़ा अच्छा लगता था। बीच बीच में धूप भी निकल आती थी। ताजमहल के प्रवेश द्वार पर खड़ा होकर मैं उसे निहार रहा था। तभी वहां दो विदेशी लड़किया आयीं। बाद में पता लगा कि एक फ्रांस की तो दूसरी ब्रिटेन की है।
फ्रांसीसी  लड़की मुझे एकटक निहारते हुए देखकर बोली-‘‘आप ताजमहल को इस तरह घूर कर देख रहे हैं लगता है आप यहां पहली बार आये हैं। आप तो इसी देश के ही हैं शायद….आप इस ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं।’
मैं अवाक होकर उसे देख रहा था। वह बहुत सुंदर थी। उसने जींस पहन रखी थी। उसके ऊपर लंबा  पीले रंग का कुर्ता  उसके घुटनों तक लटक रहा था। मैने उससे कहा-‘‘ मैं ताजमहल देखने आज नहीं आया बल्कि एक प्रसिद्ध लेखक की किताब यहां ढूंढने आया हूं। उस किताब को अनेक शहरों में ढूंढा पर नहीं मिली। सोच रहा हूं कि यहां कोई हॉकर शायद उसे बेचता हुए मिल जाये। वह किताब मिल जाये तो उसे पढ़कर कल तसल्ली से ताज़महल देखूंगा और सोचूंगा।’
वह फ्रांसीसी  लड़की पहले तो मेरी शक्ल हैरानी से देखने लगी फिर बोली-‘पर आप तो एकटक इसे देखे जा रहे हैं और कहते हैं कि कल देखूंगा।’’
मैंने कहा-‘‘मेरी आंखें वहां जरूर हैं पर ताजमहल को नहीं  देख रहा और न सोच रहा  क्योंकि उसके लिये मुझे उस प्रसिद्ध लेखक की एक अदद किताब की तलाश है जिसमें यह दावा किया गया है कि ताजमहल किसी समय तेजोमहालय नाम का एक शिव मंदिर था।’’
उसके पास खड़ी अंग्रेज लड़की ने कहा-‘हमारा मतलब यह था कि आप इस समय ताजमहल के बारे में क्या सोच रहे हैं? वह किताब पढ़ने के बाद आप जो भी सोचें, हमारी बला से! आप किताब पढ़ने की बात बताकर अपने आपको विद्वान क्यों साबित करना चाहते हैं?’
मैंने कहा-‘नहीं, बिना किताब पढ़े हम आधुनिक हिन्दी लोगों की सोच नहीं चलती। मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूं, बस मुझे वह किताब मिल जाये तो….अपना विचार आपको बता दूंगा।’
अंग्रेज लड़की ने कहा-‘कमाल है! एक तो हम यहां ताज़महल देख रहे है दूसरा आपको! जो किताब पढ़े बिना अपनी सोच बताने को तैयार नहीं है।’
मैंने कहा-‘क्या करें? आपके देश की डेढ़ सौ साल की गुलामी हमारी सोचने की ताकत को भी गुलाम बनाकर रख गयी। इसलिये बिना किताब के चलती नहीं।’
बात आयी गयी खत्म हो गयी थी। मैं शाम को बार में बैठा अपने एक साथी के साथ शराब पी रहा था। मेरा साथी उस समय मेरे सामने बैठा सिगरेट के कश लेता हुआ मेरी समस्या का समाधान सोच रहा था।’
नशे के सरूर में मेरी आंखें भी अब कुछ सोच रही थीं। अचानक मेरे पास दो कदम आकर रुके और सुरीली आवाज मेरी कानों गूंजी-‘हलौ, आप यहां क्या ताज़महल पर लिखी वह किताब ढूंढने आये हैं।’
मैने अचकचा कर दायें तरफ ऊपर मुंह कर देखा तो वह फ्रांसिसी लड़की खड़ी थी। उसके साथ ही वह अंग्रेज लड़की कुछ दूर थी जो अब पास आ गयी। वह फ्रांसिसी लड़की मुस्करा रही थी और यकीनन उसका प्रश्न मजाक उड़ाने जैसा ही था।
मैंने हंसकर कहा-‘हां, इस कबाड़ी को इसलिये ही यहां लाया हूं क्योकि इसने वादा किया है कि एक पैग पीने का बाद याद करेगा कि इसने वह किताब कहां देखी थी। वह किताब उसके कबाड़ की दुकान पर भी हो सकती है, ऐसा इसने बताया।’’
अंग्रेज लड़की बोली-‘अच्छा! आप अगर किताब पा लें तो पढ़कर कल हमें जरूर बताईयेगा कि ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं? कल हम वहां फिर आयेंगीं।’
मैंने कहा-‘ताजमहल एक बहुत अच्छी देखने लायक जगह है। उसे देखकर ऐसा अद्भुत अहसास होता है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।’
दोनों लड़कियां चौंक गयी। अंग्रेज लड़की बुझे घूरते हुए बोली-‘पर आपने तो वह किताब पढ़ी भी नहीं। फिर यह टिप्पणी कैसे कर दी। आप तो बिना किताब पढ़े कुछ सोचते ही नहीं’।
मैंने कहा-‘हां यह एक सच बात है पर दूसरा सच यह भी है कि शराब सब बुलवा लेती है जो आप सामान्य तौर से नहीं बोल पाते।’’
यह था एक कल्पित संस्मरण! यह कुछ बड़ा हो गया और इसे ताज़महल से बार तक इसे खींचकर नहीं लाते तो भी चल जाता पर लिखते लिखते अपनी शैली हावी हो ही जाती है क्योकि ताज़महल तक यह संस्मरण ठीक ठाक था पर उससे आगे इसमें कुछ अधिक प्रभाव लग रहा है।
मगर हम जिस लेखक की चर्चा कर रहे हैं वह इसी तरह ही दो तीन संस्मरण लिखकर और साथ में विवादास्पद मुद्दों पर आधी अधूरी होने के साथ ही बेतुकी राय रखकर लेख बना लेते हैं।
वैसे भी अंग्रेजी में लिखने पर हिन्दी में प्रसिद्धि पाने वाले लेखक को शायद ही हिन्दी लिखना आती हो पर अपने यहां एक कहावत हैं न कि ‘घर का ब्राह्म्ण बैल बराबर, आन गांव का सिद्ध’। अंग्रेजी लेखक को ही सिद्ध माना जाता है और हिन्दी को बेचारा। अंग्रेजी के अनेक लेखक बेतुकी, और स्तरहीन लिखकर भी हिन्दी में छाये रहते हैं। इनमें से अधिकतर राजनीतिक घटनाओं पर संबंधित पात्रों का नाम लिखकर ही उनका प्रसिद्ध बनाते हैं-अब यह उस पात्र की प्रशंसा करें या आलोचना दोनों में उसका नाम तो होता ही है। इनमें इतनी तमीज़ नहीं है कि जो व्यक्ति देह के साथ जीवित नहीं हो उस पर आक्षेपात्मक तो कभी नहीं लिखना चाहिये। कम से कम उनकी मूल छबि से तो छेड़छाड़ नहीं करना चाहिये। भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन की छबि अच्छी नहीं है पर सावरकर को एक योद्ध माना जाता है। उनके विचारों से किसी को असहमति हो सकती है पर इसको लेकर उनकी छबि पर प्रहार करना एक अनुचित कृत्य हैं। बहरहाल हिन्दी में ऐसे ही चिंदी लेखक प्रसिद्ध होते रहे हैं और यही शिकायत भी करते हैं कि हिन्दी में अच्छा लिखा नहीं जा रहा। चिंदी लेखक यानि अंग्रेजी में टुकड़े टुकड़े लिखकर उसके हिन्दी में बेचने वाले
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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