Category Archives: मस्त राम

वाह रे माया तेरा खेल, कभी बिठाये महल में तो कभी पहुंचाये जेल-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (play of money-hindi religius thought)


इस संसार की रचना सत्य और माया के संयोग से हुई है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का अध्ययन करें तो सत्य का कोई न रंग है, न रूप है, न चाल है चेहरा है और न ही उसका कोई नाम है न पहचान है। इसके विपरीत माया अनेक रंगों वाली है क्योंकि वह संसार को बहुत सारे रूप प्रदान करती है। वह पंचतत्वों से हर चीज बनाती है पर सबका रूप रंग अलग हो जाता है। इस धरती के अधिकतर लोग अपने मस्तिष्क में सत्य के तत्वज्ञान का संग्रह करने का प्रयास नहीं करते क्योंकि वह माया के रंग और रूप से मोहित हैं।
वैसे देखा जाये तो मनुष्य को क्या चाहिये? खाने को रोटी, पहने को कपड़े और रहने के लिये आवास! मगर इससे वह संतुष्ट नहीं होता। रोटी का संग्रह वह पेट में अधिक नहीं कर सकता। पेट में क्या वह लोहे की पेटी में भी कई दिन तक नहीं रोटी नहीं रख सकता। इसलिये गेंहूं खरीदकर रख लेता है। सब्जियां भी वह छह सात दिन से अधिक अपने यहां नहीं रख सकता। उसे हमेशा ताजी खरीदनी पड़ती हैं। इसे खरीदने के लिये चाहिये उसे मुद्रा।
मुद्रा यानि रुपया या पैसा। देखा जाये तो यह रुपया और पैसा तो झूठी माया में भी झूठा है। जितने में नोट या सिक्के का निर्माण होता है उससे अधिक तो उनका मूल्य होता है। राज्य के यकीन पर उसका मूल्य अधिक होता है। राज्य का यह वादा रहता है कि अगर कोई उस नोट या सिक्के का धारक उसके पास लायेगा तो वह उतने मूल्य का उसे सोना प्रदान करेगा। इस हिसाब से हम कह सकते हैं कि इस धरती पर माया का ठोस स्वरूप में सोना सबसे अधिक प्रिय है। सोना ठोस तथा दीर्घायु है पर उसका प्रतिनिधित्व कागज का जो नोट करता है वह समय के साथ पुराना पड़ जाता है। अब सोने का भी उपयोग समझ लें। उसे खाकर कोई पेट नहीं भर सकता। पेटी में रखकर लोग खुश रहते हैं कि उनका वह बड़ा सहारा है। यह सोच अपने आप में एक बहुत बड़ा भ्रम है। अगर कोई आपत्ति आ जाये तो उसी सोने को बाजा़ार में बेचकर फिर कागज के उसका प्रतिनिधित्व करने वाले रुपये या सिक्के प्राप्त करने पड़ते हैं। कहां दीर्घायु सोना अपने से अल्पजीवी कागज पर आश्रित हो जाता है।
एक विद्वान ने कहा था कि भारत में इतना सोना है कि सारी दुनियां एक तरफ और भारत एक तरफ। यकीन नहीं होता पर जिस तरह यहां गड़े धन मिलते हैं इस पर यकीन तो होता है कि यह देश हमेशा ही सोने का गुलाम रहा है। स्त्रियां गहने पहनती हैं। माता पिता दहेज में अपनी बेटी को गहने इस विश्वास के साथ देते हैं कि जब पहनेगी तो अपने मायके तथा ससुराल के में श्रीवृद्धि होगी। यदि कहीं उसे आर्थिक आपदा का सामना करना पड़ा तो वह सोना पितृतुल्य सेवा करेगा। उसके बाद कुछ लोग इस आशा से सोना करते हैं कि वही असली मुद्रा है। जैसे जैसे आदमी की दौलत बढ़ती है वह नोट और सिक्के की बजाय सोने की ईंटें रखने लगता है।
वह सोना सबको प्रिय है जो प्रत्यक्ष रूप से प्यास लगने पर पानी का एक घूंट नहीं पिला सकता और भूख लगने पर एक दाना भी नहीं खिला सकता मगर जिस अनाज से पेट भरता है उसे हमारे देश का आदमी पांव तले रौंदता है और जिस पानी से प्यास बुझती है उसे मुफ्त में बहाता है। सोना भारत में नहीं पैदा होता पर वह बड़ी मात्रा में इसलिये यहां है कि यहां प्रकृति की सबसे बड़ी कृपा है। दुनियां में भारत ही ऐसा देश है जहां भूजलस्तर सबसे ऊपर है। इसलिये यहां अधिकांश भाग में हरियाली बरसती है। जहां सोना या पेट्रोल पैदा होता है वहां रेत के पहाड़ हैं। लोग पानी को सोने की तरफ खर्च करते हैं।
माया स्वयं सक्रिय है और आदमी को भी सक्रिय रखती है। अपने आंख, कान, नाक और मुख को बाहरी दृश्यों में व्यस्त आदमी आत्म चिंतन नहीं करता। उसे अंदर झांकने से भय लगता है। कहीं न बोलने वाला सत्य बोलने लगा तो क्या कहेगा? न देखने वाला सत्य क्या देखेगा? उसके लिये लिये अंदर झांकने की सोचना भी कठिन है। ऐसे में वह माया के खेल में फंसा रहना ही वह जिंदगी समझता है। धीरे धीरे वह सत्य से इतना दूर हो जाता है कि लूट और मज़दूरी की कमाई का अंतर तक नहीं समझता। अनेक भ्रष्टाचारियों के यहां छापे मारने पर एक से दस किलो तक सोना मिला। इन घटनाओं से यह बात साबित हो गयी है कि हमारे देश में चिंतन की कमी है। यही कारण है कि दूसरे के मुंह में जाता निवाला भी लोग छीनकर उसे सोने में बदलते हैं।
प्रस्तुत है एक छोटी कविता
………………………………….
वाह ने माया तेरा खेल,
कभी बिठाती महल में
कभी पहुंचाती जेल।
इंसान है इस भ्रम में जिंदा है
कि वह तुझसे खेल रहा है,
अपनी अल्मारी और खातों में
कहीं रुपया तो कही सोना ठेल रहा है,
ज़माने का लहू चूसकर
अपने घर सजा रहा है,
नचाती तू हैं
पर लगता इंसान को कि वह तुझे नचा रहा है,
अपने आगोश में तू भी फंसाये रहती है
इस दुनियां के इंसानो को
फिर सोने के घरों से निकालकर
लोहे की सलाखों के पीछे पहुंचाकर
निकाल देती है पूरी जिंदगी का तेल।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’
http://deepkraj.blogspot.com

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होली और 19 मार्च का इंतजार, चंद्रमा जो निकट आना है-हिन्दी लेख (holi parva ka din aur super moon-hindi lekh)


होली का दिन चंदामामा और जापान में सुनामी 
खबरिया लोगों के अनुसार चंद्रमा 19 मार्च को धरती के सबसे अधिक निकट होगा। साथ ही यह भी बता रहे हैं कि जब चंद्रमा धरती के निकट होता है तब भयानक स्थिति होती है। प्रथ्वी पर अनेक तरह के अनेक प्राकृतिक प्रकोप  बरसते हैं। चूंकि यह चंद्रमा प्रथ्वी के निकट आने का दौर शुरु हो चुका है और उसका पहला झटका जापान में लग चुका है इसलिये लोग अब 19 मार्च का इंतजार कर रहे हैं कि देखें अब विध्वंस का कौनसा रूप सामने आयेगा? संभव है कहीं कोई दूसरी बड़ी दुर्घटना हो और उसमें ऐसे ही इंतजार करने वाले भी कुछ लोग निपट जायें पर तब उनका हादसा दूसरे के लिये मनोरंजन बन जायेगा। सीधी बात यह है कि यह मानवीय स्वभाव है कि वह अपने मनोरंजन के लिये कभी प्रेम प्रसंग तो कभी हादसे देखना चाहता है।
प्रसंगवश 19 मार्च को होली का पर्व आ रहा है। इधर चंद्र महाराज भी हमारे निकट चले आ रहे हैं। एक बात तो सत्य है कि समुद्र में ज्वार भाटा रात्रि के समय चंद्रमा की उपस्थिति में आता है। इसलिये समंदर के पानी और चांद की रौशनी की मोहब्बत समझी जा सकती है। जब होली के दिन चंद्रमा दुनियां के निकट होगा तब कहीं न कहीं दुर्धटना तो जरूर होगी क्योंकि उनका क्रम तो अनवरत रहना ही है। सवाल यह है कि चंद्रमा के निकट न होने पर भी तो दुर्घटनाऐं होती हैं । इसलिये चंद्रमा के निकट होने से उनको जोड़ा क्यों जाये? हत्यायें, डकैती, बलात्कार, ठगी तथा बहुत सारे पाप कर्म हर समय इस संसार में होते हैं और आगे भी होंगे। चंद्रमा दूर रहे या पास दुनियां के पापकर्म निरंतर जारी रहेंगे। कुछ लोगों को दंड भी मिलता है और कुछ साफ सुथरे बने रहते हैं। जिसको इन दिनों पापकर्म का दंड मिल जायेगा वह चंद्रमा के निकट होने को दोष देंगे। कुछ लोग पापकर्म नहीं करने पर भी किसी हादसे का शिकार हो सकते हैं तब वह भी चंद्रमा के निकट होने को दोष देंगे।
इधर टीवी चैनल कह रहे हैं कि अगले 48 घंटे जापान के लिये बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके परमाणु संयंत्र संकट में हैं और उनमें कोई बड़ा विस्फोट हो सकता है। हम यह लेख 17 मार्च रात्रि नौ बजे लिख रहे हैं। मतलब यह कि 19 मार्च 2011 को अगर कोई दुर्घटना हुई तो चंद्रमा पर आक्षेप आयेगा। अब सवाल यह है कि इंसानों को किसने कहा था कि परमाणु संयंत्र बनाओ। वह भी भूकंप वाले ऐसे देश में जो पहले ही दो परमाणु बमों का विस्फोट झेल चुका है।
बहरहाल जापान की स्थिति अनिश्चित है। पहले सुनामी आई और अब रेडियम फैलने से उसको किस तरह कितना नुक्सान होगा यह अनुमान किसी ने नहीं लगाया है पर एक बात तय है कि वायु अगर विषाक्त हुई तो वहां किसी का भी रहना मुश्किल है। जब वायु विषाक्त हुई तो जल नहीं भी वैसा हो जायेगा। इसका मतलब यह कि जीवन का आधार खत्म ही हो जायेगा। यह इंसान का भ्रम है कि दौलत से वह ंिजंदा है। वह दौलत जो अब कागज के रूप में ही दिखती है उसे सांसें नहीं दे सकती। खाना, दारु, और दूसरे सामान खरीदते हुए आदमी अपनी प्राकृतिक सांसों की कीमत भूल जाता है। जल को केवल प्यास बुझाने वाला द्रव्य समझता है। उसे लगता है कि वह स्वचालित कंप्यूटर है। ऐसी प्राकृतिक आपदाऐं उसे अपनी और माया की औकात बताती हैं।
भारत से कुछ ऐसे लोगों के वहां जाने की जानकारी भी मिली जिन्होंने वहां नौकरी पाने के लिये लाखों रुपये खर्च किये। ऐसे में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जब लाखों रुपये हैं तो नौकरी किसलिये करने गये। जापान में मौजूद भारतीयों की हालत पर भारतीय चैनल बड़ा हो हल्ला बचा रहे थे। कुछ ने तो वहां काम कर रहे भारतीयों का आर्तनाद भी दिखाया जो कह रहे थे कि‘उनको भारत बुलाया जाये। वह भूखे मर रहे हैं। सरकार बाहर का खाना खाने के लिये मना कर रही है और घर में कुछ मिल नहीं रहा’ इधर कुछ भारतीय वापस लौटे तो कह रहे थे कि ‘वहां सब ठीक है। बस तीन दिन में तीन सौ भूकंप के झटके लगे।
ऐसे में सवाल यह है कि फिर वह वापस क्यों लौटे? अगर उनके लिये वहां सब ठीक था तो उन बिचारों को आने देते जो लाचारी की हालत में हैं। जो लोग जल्दी भारत लौटे हैं उनको शायद यहां ज्यादा अच्छा नहीं लगेगा। अगर वहां दस पंद्रह दिन रह लेते तब पता लगता कि अपने देश की जलवायु की कीमत क्या है? वैसे धन्य है वह लोग जो भूकंप के झटके झेलने वाले देश जापान में बसते रहे। हम एक दिन योग साधना कर रहे थे कि अचानक धरती के अंदर हलचल अनुभव हुई। शवासन में थे और उस हलचल ने विचलित कर दिया तो उठकर बैठ गये। साथी साधक बैठा था उसने पूछा-‘क्या हुआ।’
हमने कहा-‘जमीन में हलचल लग रही थी।’
उसने कहा-‘ऐसे ही कहीं से आवाज आई होगी।’
ऐसी आवाज दो बार आई। हम योग साधना समाप्त कर घर लौटे। एक घंटे में पता चल गया कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में भूकंप आया था। उसकी हलचल हमारे शहर में भी पायी गयी थी। समय वही था जब हमने अनुभव किया कि जमीन में हलचल हो रही है। अगर ऐसी हलचल हमें प्रतिदिन अनुभव हो तो शायद हमारी मनस्थिति बिगड़ जाये और पलंग पर आसन कर उसे तोड़ना प्रारंभ कर दें। पता नहीं कितने पलंग तोड़ डालें क्योंकि हम अब योगसाधना से विरक्त नहीं हो सकते। ऐसा निरंतर आने वाला भूकंप आदमी की मनोदशा नहीं बिगाड़ेगा इस पर यकीन करना कठिन है। जापान और अमेरिका हम जैसे भारतीयों के लिये सपने में आने वाले देश हैं। हम उनको भाग्यशाली समझते है जो बाहर जाते हैं। मगर उनका इस तरह वापस लौटना या कहें भाग कर आना अजीब लगता है। प्रसंगवश बता दें कि विश्व के अनेक विशेषज्ञ प्राकृतिक रूप से भारत को संपन्न राष्ट्र मानते हैं। यह अलग बात है कि हम भारतीय यह बात आज तक नहीं समझ पाये। बहरहाल हमें 19 मार्च और होली का इंतजार तो रहना ही है। यह जानते हुए कि समय निकल ही जाता है। हम जिंदा रहें या नहीं।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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महंगाई पर दो हिन्दी क्षणिकायें (two hindi short poem on mahangai)


सर्दी हो या गर्मी
या हो बरसात,
दिन हो या रात,
उन मज़दूरों के हाथ पांव
चलते ही जाते हैं,
मौसम की मार से भय नहीं है
पर महंगाई से उनके
पेट नहीं लड़ पाते हैं।
————–
आसमान पर जाते
जरूरी चीजों के भाव
भले ही विकास दर को बढ़ायेंगे,
पर महंगाई से टूट रहे समाज को
विश्व के नक्शे पर कब तक
अटूट देश के रूप में बतायेंगे।
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बिग बॉस के लिये फतवा फिक्सिंग-हिन्दी व्यंग्य (big boss ke liye fatva fixing-hindi vyangya)


पाकिस्तान के एक मौलवी ने बिग बॉस धारावाहिक में काम कर रही अपने देश की एक अभिनेत्री वीना मलिक की गतिविधियों का इस्लाम विरोधी बताया है। उन्होंने वीना मालिक को इस्लाम के लिये बहुत बड़ा खतरनाक घोषित कर दिया है। अब यह तो इस्लाम से जुड़े व्यंग्यगकार ही यह विषय उठा सकते हैं कि एक अभिनेत्री को उसके अश्लील अभिनय से 14 सौ वर्ष पुराने इस्लाम को खतरा बताकर उसे शक्तिमूर्ति कह रहे हैं या अपने धर्म को कमजोर बता रहे हैं। उनके इस बयान का विरोध उनके देश में ही किया गया है और एक आदमी ने तो सवाल उठाया है कि मौलवी को आखिर बिग बॉस देखने की फुर्सत मिल कैसे जाती है? इसे यूं भी कहा जा सकता है कि आखिर वह मौलवी अगर धार्मिक प्रवृत्ति के हैं तो ऐसे धारावाहिक देखते ही क्यों हैं?

यह प्रश्न काफी जोरदार है और धर्म के नाम पर फतवे या निर्देश जारी करने वाले सभी धर्म के ठेकेदारों से पूछा जाना चाहिए कि वह मनोरंजन के नाम पर हो रही गतिविधियों को देखते ही क्यों हैं? अगर नहीं देखते तो उसके बारे में फैसला कैसे करते हैं? केवल सुनकर! तब तो उनको कान का कच्चा और बात का बच्चा कहना चाहिए।
बात अगर पाकिस्तानी मौलवी की चली है तो वहां के क्रिकेटरों की भी चर्चा हो जाती है जिन पर फिक्सिंग का लेबल चिपका हुआ है। हमें तो वह मौलवी भी फिक्सर दिखाई दे रहा है। उसके इस फतवे पर पाकिस्तान की ही एक महिला ने सवाल उठाया है कि जब पारदर्शी कपड़े पहनकर पाकिस्तानी के टीवी चैनलों पर नाचती है तब ऐसे फतवे क्यों नहंीं जारी हुए?
अब इसका जवाब तो यही हो सकता है कि बिग बॉस को पाकिस्तान तथा भारत में लोकप्रिय बनाये रखने के प्रयास में शायद वह मौलवी ने फिक्स फतवा जारी किया है। सच तो यह है कि बिग बॉस को निरंतर चर्चा में बनाये रखने के लिये विवादों को फिक्स किया गया है। इतना ही नहीं जिस वीना मलिक को इसमें शामिल किया गया उससे पहले एक पाकिस्तानी फिक्सर क्रिकेटर के खिलाफ उससे बयान दिलाया गया जो एक फिक्सिंग प्रकरण में ताजा ताजा फंसा था। बस, हो गयी वीना मलिक हिट! सप्ताह भी नहीं बीता कि उसके बिग बॉस में आने की खबर आ गयी। ऐसे में हमने यह लिखा था कि पाकिस्तानी क्रिकेटर इंग्लैंड पुलिस के हाथ फिक्सिंग में पकड़े गये तो संभव है कि पूरा घटनाक्रम ही फिक्स हो सकता है। इस प्रकरण में लोगों को सत्य लगे इसलिये इंग्लैंड की गोरी पुलिस को फिक्स किया गया होगा क्योंकि भारत में गोरों को अभी तक ईमानदार माना जाता है। हमें इसी प्रकरण के बाद लगा कि गोरी पुलिस ने ही अपनी छवि का लाभ उठाने के लिये यह प्रकरण फिक्स किया होगा-शायद केवल वीना मलिक को बिग बॉस लाने के लिये यह प्रकरण रचा गया यही कारण है कि बाद में यह पूरा मामला ही टांय टांय फिस्स हो गया।
क्रिकेट, मनोरंजन, व्यापार तथा अपराध जगत का ऐसा गठजोड़ है कि उनमें सक्रिय दलाल कोई प्रकरण किसी भी आदमी से कुछ भी फिक्स कर सकता है। अरे, बड़े बड़े दिग्गज उनके सामने बिकने के लिये तैयार हैं तब एक मौलवी भला कैसे बच सकता है? संभव है मौलवी ने यह बयान इस इरादे से दिया हो कि कि कहीं इस फतवे से मिले प्रचार की वजह से आर्थिक, अपराधिक, मनोरंजन तथा धर्म के आधार पर संयुक्त उद्यम बने इस वैश्विक गठजोड़ से शायद कुछ फायदा हो? बिग बॉस की तो फिल्म पिट रही है। इसका प्रचार अधिक है पर लोकप्रियत कम! इस वैश्विक गठजोड़ के लिये यह एक चिंता की बात हो सकती है। एक बात याद रखें कि यह कार्यक्रम एक अंतर्राष्ट्रीय शैली का है और भारत पाकिस्तान में प्रसारित कर यहां के लोगों को मनोरंजन मेें व्यस्त किया जा रहा है ताकि उनका ध्यान अपने शिखर पुरुषों के नकारापन की तरफ न जाये। दोनों ही देशों की अंदरूनी हालतों पर नज़र डालें तो संतोषप्रद नहीं लगते-अगर कहें कि डरावने हैं तो भी गलत नहीं है।
मौलवी ने इस्लाम की परंपरागत शैली की आड़ ली पर आजकल यह एक फैशन हो गया है कि चाहे जहां विरोध करना हो वहीं धर्म की आड़ लो। मौलवी के फिक्स होने का संदेह यूं भी होता है कि भारतीय चैनलों पर इसे पर्याप्त स्थान दिया गया या कहें कि विज्ञापनों के बीच प्रसारण के लिये उनको एक संवदेनशील सामग्री मिल गयी। वैसे हम लोग यहां सुनते हैं कि पाकिस्तान भारतीय चैनलों पर प्रतिबंध लगा चुका है पर बिग बॉस वहां दिखने का मतलब यह है कि वह प्रतिबंध भी एक तरह से फिक्स है। हमें पहले से ही शक है कि पाकिस्तान के फिक्स शासकों के बूते की यह बात नहीं है कि वह भारतीय चैनलों पर प्रतिबंध लगा सकें। संभवतः वह ऐसी घोषणाऐं भी इसलिये फिक्स करते हैं कि भारतीय टीवी चैनल इसके माध्यम से अपने देश के लोगों पर देशभक्ति का भाव फिक्स कर अपना विज्ञापन समय अच्छी तरह पास करें।
आज के समय कौनसी कंपनी कहां कैसे काम कर रही है इसका पता नहंी चलता! ऐसे में अगर भारतीय कंपनियों या उनके दलालों का कोई अस्तित्व पाकिस्तान में न हो यह मानना संभव नहीं है। यही कंपनियां भारत में में चैनलों को तो उधर पाकिस्तान में उसके शिखर पुरुषों को मदद करती हैं। विश्व में सक्रिय मनोरंजन के दलालों को लगा कि भारत में किसी मौलवी को पटाया नहीं जा सकता या उससे कोई फायदा नहीं इसलिये पाकिस्तान में कोई मौलवी ढूंढ लें। इससे धर्म और देशभक्ति के भाव से बिग बॉस कार्यक्रम का विज्ञापन हो जायेगा। अब अगर वह इस्लाम के मौलवी हैं तो यह बात निश्चित है कि कोई दूसरा मौलवी उसका विरोध करने का खतरा नहंी उठायेगा। कम से कम भारत में तो यह संभव नहीं है खासतौर से तब जब अन्य धर्म के ठेकेदार भी इस कार्यक्रम को पंसद नहीं कर रहे। पसंद तो हम भी नहीं करते पर मालुम है कि देश में मूर्खों की कमी नहीं है और उनको ऐसे ही कार्यक्रमों में फिक्स कर अन्य लोगों को उनका शिकार होने से बचाया जा सकता है।
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फतवा फिक्सिंग-हिन्दी व्यंग्य
हिन्दी

एक सौर मंडल जो धरती पर रहता है-हिन्दी व्यंग्य (dharti par rahane wala saurmandal-hindi vyangya)


धरती को जिंदा रखने के लिऐ उसके पास सौरमंडल होना चाहिए, ऐसा वैज्ञानिक कहते हैं। इसका सीधा आशय यह है कि सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति तथा अन्य ग्रहों के रक्षा कवच पर ही धरती और उस पर विचरण करने वाला जीवन टिका रहता है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र तो यह भी मानता है कि इन सब ग्रहों की चाल का मनुष्य के जीवन पर प्रभाव पड़ता है। इधर हमारे मन में यह भी ख्याल आया कि एक सौर मंडल इस धरती पर भी विचरता है जो सामने है पर दिखता नहीं क्योंकि इसके सारे ग्रह इतने पर्दों मे रहते हैं ं कि सभी ग्रह एक दूसरे को देख तक नहीं पाते, अलबत्ता दोनों का एक दूसरे से मिलन नहीं होता क्योंकि उनके परिक्रमा पथ कभी आपस में टकराते नहीं है। राजा और प्रजा दो भागों में बंटे मनुष्य जीवन पर इसका प्रभाव पड़ता है भले ही दोनों को यह दिखाई नहीं देता।
इस सौर मंडल के ग्रह हैं पूंजीपति, बाहूबली, धार्मिक ठेकेदार तथा अपराधियों के गिरोह ओर उनके दलाल। पूंजीपति तो सूरज की तरह है जिनकी रौशनी से सारे सारे छोटे ग्रह चमत्कृत होते हैं। सृष्टि के निर्माण से ही यह गिरोह चलते रहे होंगे पर आजकल कृत्रिम दूरदृष्टि मिल जाने के कारण आम लोगों को भी दिखाई देने लगे हैं-बुद्धिमानों तो इनके प्रभाव का आभास कर लेते हैं पर सामान्य लोगों को शायद ही होता हो।
जब बात पूंजीपतियों की बात चली है तो आजकल अमेरिका नाम का एक धरती पर स्वर्ग है जहां इनकी बस्ती बन गयी है और तय बात है कि वहां का कोई भी राज्यप्रमुख उनके लिये एक तरह से बहुत बड़ा सुरक्षाकवच की तरह काम करता है। हालांकि वह स्वतंत्र दिखता है पर लगता नहीं है। वह अपनी चाल चल रहा है पर लगता है कि उसे चलना भर है बाकी काम तो उसके मातहत ही करते होंगे।
पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के विमान की बात कर लें। विमान का अधिक वर्णन तो हमारे लिये संभव नहीं है क्योंकि अपने खटारा स्कूटर की याद आने लगती है और लिखना बंद हो जाता है। विमान एक तरह से महल होने के साथ अभेद्य किला है। वहां बैठा राष्ट्रपति यात्रा के दौरान ही अपनी सेना और प्रशासन के अधिकारियों से संपर्क कर सकता है-करता होगा इसमें शक ही है क्योंकि अमेरिका की व्यवस्था ऐसी ही दिखती है। कोई आपत्ति आ जाये तो राष्ट्रपति वहां से कोई भी कार्यवाही करने का आदेश दे सकता है-इसकी आवश्यकता पड़ती होगी यह संभावना नगण्य है। कहने का अभिप्राय यह है कि उसमें महल जैसी सारी व्यवस्था है, विमान तो बस नाम है।
भारतीय प्रचार माध्यम अमेरिकी राष्ट्रपति के आगमन पर उसके विमान, पत्नी तथा वक्तव्यों का खूब वर्णन करते हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने ताज होटल पर हुए हमले की निंदा की पर पाकिस्तान का नाम नहीं लिया।
शायद आगे लेंगे जब भारतीय समकक्षों से मिलेंगें।
वह पाकिस्तान नहीं जा रहे, इससे यह संदेश तो मिल ही रहा है कि वह भारत में अपना हित अधिक देखते हैं।
ऐसे बहुत से जुमले हैं जो ओबामा के आने पर तीसरी बार सुने गये। पहले क्लिंटन आये फिर जार्ज बुश, तब भी यही नज़ारा था। तीनों राष्ट्रपति पहले बैंगलौर या मुंबई आये फिर नई दिल्ली। दोनों पाकिस्तान नहीं गये इस पर बहस! संदेश ढूंढने की कोशिश! हमने तीनों को देखा। हम सोचते हैं कि क्या वह इतने विराट व्यक्तित्व के स्वामी है जितना वर्णन किया जाता है या उनका पद ही उनको विराटता प्रदान कर रहा है। दूसरी ही बात सही लगती है।
जार्ज बुश को तो राष्ट्रपति बनने से पहले तक यही नहीं मालुम था कि भारत देश किस दिशा में है, पर बाद में भारत का लोहा मानते हुए दिखाये और बताये गये।
अब ओबामा की चाल ढाल पर नज़र रखी। एक ऐसे इंसानी बुत नज़र आये जिसे विराट व्यक्तित्व का स्वामी बना दिया गया है। कोई कसर नहीं रहे इसलिये उनको शांति का नोबल भी दिया गया। अनेक लोग हैरान हुए थे पर उस समय भी हमने लिखा था कि विश्व का बाज़ार अपना यह बुत चमका रहा है। यह बात अब सत्य लगती है।
उनके साथ 250 पूंजीपतियों का समूह आया है। मुंबई में भारतीय पूंजीपतियों के साथ ही उनका सम्मेलन है। अमेरिका चाहता है कि भारतीय पूंजीपति उनके यहां निवेश करे। इस सम्मेलन को एक मुखिया की तरह ओबामा संबोधित कर चुके हैं। पहले भी राष्ट्रपति ऐसा ही कर चुके हैं। पूंजीपति यानि इस धरती का सूर्य जिससे सभी को जीवन मिलता है। अमेरिका में यह सच होगा पर भारत में आज भी कृषि आधारित व्यवस्था है। अगर यहां कृषि ठप्प हो जाये तो फिर पैसा नहीं मिलने का। भारत का पानी भी अब बाहर बिकने लगा है जो यहां के पूंजीपतियों के पैट्रोल जैसा कीमती हो गया है। कहा जाता है कि भारत में जलस्तर जितना ऊपर है उतना कहीं नहीं है। यह प्रकृति की कृपा है पर अब पानी भी पैट्रोल की तरह दुर्लभ होता जा रहा है। धरती पर स्थित सौर मंडल का भगवान बस, पद पैसा और प्रतिष्ठा कमाना है सो उसे कई बातों से मतलब नहीं है। वह राजा और प्रजा दोनों को अपनी गिरफ्त में रखता है। ऐसे में अब भारत दोहन अभियान शुरु हो गया है लगता है।
आज जार्ज बुश उनके पिता तथा दादा की भी चर्चा हुई। पता लगा कि वह हथियार कंपनियों के मालिक थे इसलिये ही उन्होंने अपने समय में युद्ध का रास्ता अपनाया ताकि माल की खपत हो सके। यह पहली बार पता लगा कि अमेरिका में हथियार बेचने वाली लॉबी इतनी दमदार है। इसका मतलब हमारा यह दावा सही होता जा रहा है कि दुनियां में अब अनेक जगह अब इंसानी बुत सौदागरों के मुखौटे बनकर राजा के पद पर सुशोभित हो रहे हैं।
प्रचार माध्यम कहते हैं कि ओबामा उन सबसे अलग हैं। इसे हम यूं भी मान सकते हैं कि वह हथियार लॉबी से इतर किसी अन्य लॉबी के इंसानी बुत हैं। वैसे वह हथियारों की बिक्री बढ़ाने तो वह भारत यात्रा पर पधार हैं पर साथ ही अन्यत्र क्षेत्रों में वह यहां का सहयोग चाहते हैं। अन्य व्यापारियों ने हथियार व्यापारियों से कहा होगा कि‘भई, कुछ हमारा काम हो जाये, इसलिये इस बार हमारी पंसद का राष्ट्रपति आने दो।’
हथियार लॉबी का काम तो होना ही था सो वह मान गये होंगे। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार ओबामा के प्रतिद्वंद्वी का नाम आखिर तक किसी को पता नहीं चला। आज ओबामा यह कर रहे हैं, आज वहां बोलेंगे, ओबामा के बारे में यह अफवाह फैली-ऐसी बातें भारतीय प्रचार माध्यम ही नहीं इंटरनेट पर भी आती रहीं। न आया तो उनके प्रतिद्वंद्वी का नाम। वैसे ओबामा चेहरे से भले लगे। धरती के सौरमंडल के ग्रहों ने बहुत सोच समझकर उनको चुना। हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है। अगर हम कहें कि उनको क्यों लाये तो यह बात भी तय है कि उनकी जगह कोई दूसरा चेहरा या इंसानी बुत आना था। वह जो भी बोलेंगे अपने सहायकों के इशारे से ही बोलेंगे। कई बार तो लिखा हुआ पढ़ेंगे। इसका मतलब यह है कि उनको एक ऐसे इंसानी बुत की तरह प्रस्तुत किया गया है कि जो समझकर बोलता हो। बाकी तो उनको गुड्डे की तरह खूब चलाया जायेगा। कभी कभी तो लगता है कि उनको भी यही पता न होगा कि उनको अगली बार कौनसी लाईन बोलनी है या अगले कार्यक्रम में आखिर विषय क्या है? अमेरिका का राष्ट्रपति दुनियां का सबसे दबंग आदमी है-ऐसा कहा गया पर हम सोच रहे थे कि वाकई क्या यह सच है?
धरती का सौर मंडल उस पर तथा यहां विचरण करने वाले जीवों पर क्या प्रभाव डालता है हमें नहीं दिखता लगभग उसी तरह ही धरती पर विचरने वाला सौर मंडल किस तरह राजा और प्रजा को चला रहा है यह आम आदमी नहीं जानते। जो जानते हैं वह बता नहीं सकते क्योंकि वह खुद उसका हिस्सा होते हैं।
आखिरी बात यह है कि 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले ताज के अलावा दो अन्य जगह भी हुए थे। जिसमें रेल्वे स्टेशन भी शामिल था जहां आम आदमी अधिक होते हैं। ओबामा ने केवल ताज के शहीदों को ही श्रद्धांजलि दी। आतंकियों को चुनौती देने के लिये ही वह ताज होटल में रुके ऐसा कहा जा रहा है। इससे भी हमें कोई शिकायत नहीं पर धरती के सौरमंडल की प्रतिबद्धता साफ दिखाई दे रही है कि वह कुछ विषयों पर प्रजा के जज़्बातों की परवाह नहीं करता। वह अपने इंसानी बुत को रेल्वे स्टेशन नहीं ले जा सकता क्योंकि सौर मंडल के ग्रहों में इतनी ताकत है कि उनकी परिक्रमा प्रजा की चाल से प्रभावित नहीं होती।

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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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यह बिग बॉस नाटक या धारावाहिक देशप्रेम रखने वालों के लिये नहीं है-हिन्दी व्यंग्य (Big Boss natak ya dharavahik aur deshprem-hindi vyangya)


कहा जाता है बद अच्छा बदनाम बुरा-हमें पता नहीं यह कहावत उल्टी भी हो सकती है। मतलब आदमी बुरा हो पर बदनाम नहीं होना चाहिए। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि अपने में कोई बुराई हो पर उसकी चर्चा बाहर नहीं होना चाहिऐ। लब्बोलुआब यह कि बदनाम नहीं होना चाहिए। लगता है अब यह कहावत अब उलट देना चाहिये या फिर यह कहना करें कि बद अच्छा तो उससे अच्छा बदनाम है।
कम से कम टीवी चैनल में बदनाम लोगों को अभिनय करने को लेकर चल रहे विवाद से तो ऐसा लगता है कि अब नयी पीढ़ी यह भी सोचेगी कि कोई ऐसा काम किया जाये जिससे बदनाम होने पर कहीं  किसी टीवी चैनल पर अपना थोबड़ा दिखाने का अवसर तो मिल ही जायेगा। पूरे देश पर आक्षेप करना ठीक नहीं है पर कुछ कमजोर दिमाग के लोग ऐसे हैं जो पद, प्रतिष्ठा और पैसा पाने के लिये कुछ भी गलत सीख सकते हैं। एक चैनल है जिसमें एक पुराने चोर, आतंकवादियों के वकील तथा एक समलैंगिक को शामिल किया गया है। हम अपने व्यंग्य या आलेख में किसी का नाम इसलिये नहीं लिखते क्योंकि अप्रायोजित लेखक हैं और किसी का बिना पैसे लिये प्रचार करना अपनी शान के खिलाफ है-भले ही आलोचनात्मक टिप्पणियों से वह भरा हो। वैसे तो अब तो हमें लगने लगा है कि यहां कुछ लोग प्रसिद्ध होने के लिये अपनी आलोचना पैसा देकर करवाते हैं। चैनलों पर चले रहे धारावाहिकों के नाम लेकर उनकी आलोचना करना भी हमें  प्रायोजित करने जैसा  लगता है। बहरहाल जिस चैनल के जिस धारावाहिक की हम चर्चा कर रहे हैं उसका हिन्दी नामकरण  करते हैं ‘बड़ा मुखिया’। यह नाम इसलिये किया क्योंकि उस चैनल के नाटक की पृष्ठभूमि घर पर ही आधारित है। इसमें पहले ऐसे प्रसिद्ध लोगों को शामिल किया गया जिन पर दुर्भाग्यवश (?)बदनामी का धब्बा लगा-कुछ के लिये कहा गया कि उनका अपराध बालपन की नादानी से हुआ। कुछ ऐसे लोग भी उसमें आये जो जीतने के बाद बदनाम हुए, यानि उनमें ऐसे गुण पहले से मौजूद थे।
अब यह चैनल अपना धारावाहिक बड़े प्रचार से दिखा रहा है। इसमें पाकिस्तान से भी बदनाम लोग मंगवाये गये हैं। हम बहुत समय पहले से कहते रहे हैं कि टीवी चैनलों के अदृश्य प्रायोजक बहुत सारे धंधों में हैं। दुनियां भर के व्यापार में अब काले सफेद धंधे का प्रश्न नहीं रहा और सभी प्रचार माध्यमों पर अपनी पकड़ बनाये हुए हैं । अब तो समाज में ही यह हालत है कि जिसके पास धन है वही सेठ और समाज का भाई कहलाता है-अब भाई कहिने भी हो सकता है, भारत हो  या पाकिस्तान। सारी व्यवस्था के साथ ही सारे प्रचार माध्यमों पर उनकी श्रेष्ठता प्रमाणिक हैं चाहे भले ही बदनाम हों। क्रिकेट, फिल्म और टीवी चैनलों का घालमेल हो गया है। पाकिस्तान की एक फिल्मी नायिका ने वहां के क्रिकेट खिलाड़ी पर फिक्सर होने का आरोप लगाया था। उस समय हमें हैरानी हुई क्योंकि वह ऐसा कर धनपतियों से बैर ले रही थी-आर्थिक उदारीकरण से धनपति अब कंपनियों के पीछे अदृश्य होकर काम करते हैं इसलिये अब यह प्रश्न नहंी रहा कि कौनसा सेठ कहां का है? अब समझ में आया कि संभवतः उस अभिनेत्री को भारतीय चैनल में लाने के लिये यही फिक्सिंग प्रकरण या नाटक  ब्रिटेन में रचा गया होगा। चूंकि ब्रिटेन इसमें शामिल है इसलिये किसी का शक हो न हो पर अब हमें होने लगा है क्योंकि आर्थिक उदारीकरण के चलते अपराध का भी वैश्वीकरण होता जा रहा है अंग्रेज भला कौन से दूध के धुले हैं-पैसा कमाने के लिये ही तो भारत आये थे। चूंकि चैनलों की भूमिका पहले से ही बननी होती है इसलिये कोई बड़ी बात नहीं कि उसके एक भावी को प्रसिद्ध दिलाने के लिये पाकिस्तानी क्रिकेट को पकड़ा गया और फिर उस अभिनेत्री से बयान दिलाया गया। संभव है कि वह अभिनेत्री अधिक रहस्य न खोले इसलिये भी उसे भारतीय चैनल में काम दिलाया गया हो। बहरहाल एक फिक्सर की पुरानी दोस्त होने की बदनामी उसने पहले मोल ली और भारत में उसका नाम भी तभी आया। इधर नाम आया और उधर चैनल में उसको काम मिल गया।
जितने भी आकर्षक व्यवसाय हैं वह अब आर्थिक शिखर पुरुषों के हाथ में हैं और अगर जार्ज बर्नाड शॉ की बात पर यकीन किया जाये तो बिना बेईमानी के कोई भी अमीर नहीं  बन सकता। ऐसे में अपने ही संरक्षण में वह बदनाम लोगों को संरक्षण देते हुए उसके नकदीकरण का अवसर भी यह सेठ लोग नहीं चूकते। भला कोई व्यापारी अपनी चीज़ को खराब बताता है! एक नहीं तो दूसरे ग्राहक को बेच ही देता है। ऐसे में कोई फिल्म में बदनाम हुआ हो या क्रिकेट में चल जायेगा मगर चोर और डकैत भी चल जायेंगे! क्या माने? ऐसे लोग भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों ने पहले से ही प्रायोजित कर रखे हैं। हम बहुत समय से कहते रहे हैं कि व्यवसायिक संस्थान या व्यवस्थापक प्रतिष्ठानों में आर्थिक शिखर पुरुषों के अनेक लोग मुखौटे की तरह हैं जो सज्जनता से काम करते दिखते हैं तो क्या अब यह भी मान लें कि अपराधिक जगत में भी अब मुखौटे आने लगे हैं। क्या अब यह तय हो गया कि आतंकवाद भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों के मुखौटे ही फैला रहे हैं। ऐसे में अपराध और आतंक से प्रत्यक्ष जुड़े लोग वाकई मासूम लगते हैं मगर ऐसे में हर आर्थिक शिखर पुरुष संदेह की परिधि में आता जायेगा। माना जायेगा कि हर छोटे बड़े अपराध और आतंक का असली जिम्मेदार कोई न कोई आर्थिक पुरुष ही है। तब यह भी होगा कि हर आर्थिक शिखर पर विराजमान हर पुरुष समाज के लिये संदिग्ध होगा क्योंकि यह माना जाने लगेगा कि इसके खिलाफ तो कभी सबूत मिल ही नहीं सकता पर यह अपराध में लिप्त जरूर होगा।
मुद्दा यह भी है कि क्या ऐसे प्रसारण पर रोक लगनी चाहिए। हम अब भी कहेंगे नहीं। हमारे कुछ मित्र इस जवाब पर नाराज हो सकते हैं क्योंकि आतंकवादियों तथा अपराधियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी, सामाजिक न्याय, शोषण से मुक्ति तथा धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर बौद्धिक संरक्षण देने वाले बहुत सारे बुद्धिजीवी इस देश में है और कम से कम हमने ही दसियों बार उन पर प्रतिकूल टिप्पणियां करते हुए अपने पाठ लिखे हैं। तब ऐसा क्या है जो हम अभिव्यक्ति के नाम पर इस प्रसारण को रोकने के खिलाफ हैं?
हम तो दूसरी बात कह रहे हैं कि जिस तरह बीड़ी सिगरेट और शराब के डिब्बों पर लिखा रहता है कि इनका सेवन शरीर के लिये हानिकारक है उसी तरह पाकिस्तानी अभिनेता अभिनेत्रियों के अभिनय वाले धारावाहिकों का  प्रचार करने वाले विज्ञापनों पर ही यह लिखना होना चाहिए कि ‘देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत या देशप्रेम रखने वाले लोगों को यह धारावाहिक नहीं देखना चाहिए।’
इससे कुछ लोगों की भवनें आहत होने से बच जाएँगी। उसी तरह बदनामशुदा लोगों के धारावाहिकों के विज्ञापनों में भी यह लिखना चाहिये कि ‘यह सभ्य और सज्जन भाव रखने वालों को नहीं देखना चाहिये और न बच्चों को देखने देना चाहिऐ।
इससे लोग स्वयं ही बच्चों के बिगड़ने के दर से वह चैनल धारावाहिक के समय बंद रखेंगे ।  चेतावनी लिखी होने पर लोगों को कार्यक्रम प्रसारित होने का अफसोस कम होगा।  जिस तरह बीडी,सिगरेट और शराब की बोतल पर चेतावनी होने पर उसके बिकने का अफसोस कम होता है।
एक बात जो अभी तक हमारी समझ में नहीं आती। आखिर दक्षिण एशिया में एकता के नाम पर हमारे पास केवल पाकिस्तान का नाम ही क्यों आता है? सच मानिए पाकिस्तान के आम आदमी से हमारा कोई बैर नहीं है मगर वहां के बदनामशुदा लोग ही यहां क्यों आकर प्रचार पाते हैं? यह हमारी समझ में नहीं आता। मजे की बात यह है कि इनसे कई सभ्य चेहरे वाले मुखौटे मिलकर कहते हैं कि ‘यह तो खेल और फिल्म सें संबंधित मुलाकात है।’
पाकिस्तान के क्रिकेट फिक्सरों को भारत आने का वीज़ा बहुत जल्दी मिल जाता है। यह भी चर्चा का विषय बनता है। कहने का अभिप्राय यह है कि सफेद काले का घालमेल हो गया है। ऐसे में नैतिकता की मांग कमजोर जरूर हुई है पर मरी नहीं है क्योंकि जो लोग अपराध और आतंक के मुखौटो को अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो बुद्धिजीवी लेखक सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर
खलनायक की बजाय नायक की तरह प्रतिपादित करते हैं वह भी नैतिक आदर्शों की बात तो करते यह अलग बात है कि आर्थिक उदारीकरण के साथ ही अपराध और आतंक के वैश्वीकरण के विषय से मुख क्यों मोड़ लेते हैं? इसलिये ही न कि वह सभी भी प्रायोजित हैं। उससे भी मजे की बात है कि पूंजीवाद के विरोधी बुद्धिजीवी इस खेल को तो इस तरह अनदेखा करते हैं जैसे कि कोई लेना देना ही न हो-होते तो वह भी प्रायोजित हैं पर कभी कभी सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भावनाओं की बात वह भी करते हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर होने के बावजूद सरकारी डंडे के सहारे सारे कल्याण का सपना भी वही पालते हैं।
एक धारावाहिक से कुछ बनता बिगड़ता नहीं है क्योंकि हमारे देश का अध्यात्मिक स्वरूप बहुत दमदार है। अगर खान पान ठीक होने के साथ उनका सेवन सीमित हो तो बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू और शराब जैसे व्यवसनों का भी दुष्प्रभाव कम हो जाता है-रोका बिल्कुल नहीं जा सकता यह बात तय है-उसी तरह बच्चों का मन मस्तिष्क मज़बूत हो वह ऐसे चैनलों को नहीं देखेंगे पर फिर भी इन चैनलों के ऐसे धारावाहिकों का वर्गीकरण तो करना ही होगा। कम से कम हमारी यह मांग आज़ादी की अभिव्यक्ति पर प्रहार नहीं करती यह निश्चित है।

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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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अंग्रेजी के लेखक यूं हिन्दी में पढ़े जाते-हिन्दी दिवस पर विशेष लेख (inglish writer, hindi readar-hindi diwas par vishesh lekh)


वह नब्बे साल के अंग्रेजी लेखक हैं मगर उनको हिन्दी आती होगी इसमें संदेह है पर हिन्दी के समाचार पत्र पत्रिकाऐं उनके लेख अपने यहां छापते हैं-यकीनन ऐसा अनुवाद के द्वारा ही होता होगा। वह क्या लिखते हैं? इसका सीधा जवाब यह है कि विवादों को अधिक विवादास्पद बनाना, संवेदनाओं को अधिक उभारना और कल्पित संस्मरणों से अपने अपने आप को श्रेष्ठ साबित करना। अगर हिन्दी के सामान्य लेखक से भी उनकी तुलना की जाये तो उनका स्तर कोई अधिक ऊंचा नहीं है मगर चूंकि हमारे प्रकाशन जगत का नियम बन गया है कि वह केवल एक लेखक के रूप में किसी व्यक्ति को तभी स्वीकार करेंगे जब उसके साथ दौलत, शौहरत तथा ऊंचे पद का बिल्ला लगा होना चाहिये। यह तभी संभव है जब कोई लेखक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का सानिध्य प्राप्त करे और दुर्भाग्य कि वह उनको ही मिलता है जिनको अंग्रेजी आती है और तय बात है कि देश के अनेक हिन्दी संपादक उनके प्रशंसक बन जाते हैं।
उन वृद्ध लेखक ने अपने एक लेख में भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन से वीर सावरकर की तुलना कर डाली। यकीनन यह चिढ़ाने वाली बात है। अगर अंग्रेजी अखबार में ही यह सब छप जाता तो कोई बात नहीं मगर उसे हिन्दी अखबार में भी जगह मिली। यह हिन्दी की महिमा है कि जब तक उसमें कोई लेखक न छपे तब तक वह अपने को पूर्ण नहीं मान सकता और जितने भी इस समय प्रतिष्ठित लेखक हैं वह अंग्रेजी के ही हैं इसलिये ही अपने अनुवाद अखबारों में छपवाते हैं। इससे प्रकाशन जगत और लेखक दोनों का काम सिद्ध होता है। अंग्रेजी का लेखक पूर्णता पाता है तो हिन्दी प्रकाशन जगत के कर्णधार भी यह सोचकर चैन की संास लेते हैं कि किसी आम हिन्दी लेखक की सहायता लिये बगैर ही हिन्दी में अपना काम चला लिया।
वह लेखक क्या लिखते हैं? उनका लिखा याद नहीं आ रहा है। चलिये उनकी शैली में कुछ अपनी शैली मिलाकर एक कल्पित संस्मरण लिख लेते हैं।
मैं ताजमहल पहुंच गया। उस समय आसमान में बादल थे पर उमस के कारण पसीना भी बहुत आ रहा था। कभी कभी ठंडी हवा चल रही थी तब थोड़ा अच्छा लगता था। बीच बीच में धूप भी निकल आती थी। ताजमहल के प्रवेश द्वार पर खड़ा होकर मैं उसे निहार रहा था। तभी वहां दो विदेशी लड़किया आयीं। बाद में पता लगा कि एक फ्रांस की तो दूसरी ब्रिटेन की है।
फ्रांसीसी  लड़की मुझे एकटक निहारते हुए देखकर बोली-‘‘आप ताजमहल को इस तरह घूर कर देख रहे हैं लगता है आप यहां पहली बार आये हैं। आप तो इसी देश के ही हैं शायद….आप इस ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं।’
मैं अवाक होकर उसे देख रहा था। वह बहुत सुंदर थी। उसने जींस पहन रखी थी। उसके ऊपर लंबा  पीले रंग का कुर्ता  उसके घुटनों तक लटक रहा था। मैने उससे कहा-‘‘ मैं ताजमहल देखने आज नहीं आया बल्कि एक प्रसिद्ध लेखक की किताब यहां ढूंढने आया हूं। उस किताब को अनेक शहरों में ढूंढा पर नहीं मिली। सोच रहा हूं कि यहां कोई हॉकर शायद उसे बेचता हुए मिल जाये। वह किताब मिल जाये तो उसे पढ़कर कल तसल्ली से ताज़महल देखूंगा और सोचूंगा।’
वह फ्रांसीसी  लड़की पहले तो मेरी शक्ल हैरानी से देखने लगी फिर बोली-‘पर आप तो एकटक इसे देखे जा रहे हैं और कहते हैं कि कल देखूंगा।’’
मैंने कहा-‘‘मेरी आंखें वहां जरूर हैं पर ताजमहल को नहीं  देख रहा और न सोच रहा  क्योंकि उसके लिये मुझे उस प्रसिद्ध लेखक की एक अदद किताब की तलाश है जिसमें यह दावा किया गया है कि ताजमहल किसी समय तेजोमहालय नाम का एक शिव मंदिर था।’’
उसके पास खड़ी अंग्रेज लड़की ने कहा-‘हमारा मतलब यह था कि आप इस समय ताजमहल के बारे में क्या सोच रहे हैं? वह किताब पढ़ने के बाद आप जो भी सोचें, हमारी बला से! आप किताब पढ़ने की बात बताकर अपने आपको विद्वान क्यों साबित करना चाहते हैं?’
मैंने कहा-‘नहीं, बिना किताब पढ़े हम आधुनिक हिन्दी लोगों की सोच नहीं चलती। मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूं, बस मुझे वह किताब मिल जाये तो….अपना विचार आपको बता दूंगा।’
अंग्रेज लड़की ने कहा-‘कमाल है! एक तो हम यहां ताज़महल देख रहे है दूसरा आपको! जो किताब पढ़े बिना अपनी सोच बताने को तैयार नहीं है।’
मैंने कहा-‘क्या करें? आपके देश की डेढ़ सौ साल की गुलामी हमारी सोचने की ताकत को भी गुलाम बनाकर रख गयी। इसलिये बिना किताब के चलती नहीं।’
बात आयी गयी खत्म हो गयी थी। मैं शाम को बार में बैठा अपने एक साथी के साथ शराब पी रहा था। मेरा साथी उस समय मेरे सामने बैठा सिगरेट के कश लेता हुआ मेरी समस्या का समाधान सोच रहा था।’
नशे के सरूर में मेरी आंखें भी अब कुछ सोच रही थीं। अचानक मेरे पास दो कदम आकर रुके और सुरीली आवाज मेरी कानों गूंजी-‘हलौ, आप यहां क्या ताज़महल पर लिखी वह किताब ढूंढने आये हैं।’
मैने अचकचा कर दायें तरफ ऊपर मुंह कर देखा तो वह फ्रांसिसी लड़की खड़ी थी। उसके साथ ही वह अंग्रेज लड़की कुछ दूर थी जो अब पास आ गयी। वह फ्रांसिसी लड़की मुस्करा रही थी और यकीनन उसका प्रश्न मजाक उड़ाने जैसा ही था।
मैंने हंसकर कहा-‘हां, इस कबाड़ी को इसलिये ही यहां लाया हूं क्योकि इसने वादा किया है कि एक पैग पीने का बाद याद करेगा कि इसने वह किताब कहां देखी थी। वह किताब उसके कबाड़ की दुकान पर भी हो सकती है, ऐसा इसने बताया।’’
अंग्रेज लड़की बोली-‘अच्छा! आप अगर किताब पा लें तो पढ़कर कल हमें जरूर बताईयेगा कि ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं? कल हम वहां फिर आयेंगीं।’
मैंने कहा-‘ताजमहल एक बहुत अच्छी देखने लायक जगह है। उसे देखकर ऐसा अद्भुत अहसास होता है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।’
दोनों लड़कियां चौंक गयी। अंग्रेज लड़की बुझे घूरते हुए बोली-‘पर आपने तो वह किताब पढ़ी भी नहीं। फिर यह टिप्पणी कैसे कर दी। आप तो बिना किताब पढ़े कुछ सोचते ही नहीं’।
मैंने कहा-‘हां यह एक सच बात है पर दूसरा सच यह भी है कि शराब सब बुलवा लेती है जो आप सामान्य तौर से नहीं बोल पाते।’’
यह था एक कल्पित संस्मरण! यह कुछ बड़ा हो गया और इसे ताज़महल से बार तक इसे खींचकर नहीं लाते तो भी चल जाता पर लिखते लिखते अपनी शैली हावी हो ही जाती है क्योकि ताज़महल तक यह संस्मरण ठीक ठाक था पर उससे आगे इसमें कुछ अधिक प्रभाव लग रहा है।
मगर हम जिस लेखक की चर्चा कर रहे हैं वह इसी तरह ही दो तीन संस्मरण लिखकर और साथ में विवादास्पद मुद्दों पर आधी अधूरी होने के साथ ही बेतुकी राय रखकर लेख बना लेते हैं।
वैसे भी अंग्रेजी में लिखने पर हिन्दी में प्रसिद्धि पाने वाले लेखक को शायद ही हिन्दी लिखना आती हो पर अपने यहां एक कहावत हैं न कि ‘घर का ब्राह्म्ण बैल बराबर, आन गांव का सिद्ध’। अंग्रेजी लेखक को ही सिद्ध माना जाता है और हिन्दी को बेचारा। अंग्रेजी के अनेक लेखक बेतुकी, और स्तरहीन लिखकर भी हिन्दी में छाये रहते हैं। इनमें से अधिकतर राजनीतिक घटनाओं पर संबंधित पात्रों का नाम लिखकर ही उनका प्रसिद्ध बनाते हैं-अब यह उस पात्र की प्रशंसा करें या आलोचना दोनों में उसका नाम तो होता ही है। इनमें इतनी तमीज़ नहीं है कि जो व्यक्ति देह के साथ जीवित नहीं हो उस पर आक्षेपात्मक तो कभी नहीं लिखना चाहिये। कम से कम उनकी मूल छबि से तो छेड़छाड़ नहीं करना चाहिये। भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन की छबि अच्छी नहीं है पर सावरकर को एक योद्ध माना जाता है। उनके विचारों से किसी को असहमति हो सकती है पर इसको लेकर उनकी छबि पर प्रहार करना एक अनुचित कृत्य हैं। बहरहाल हिन्दी में ऐसे ही चिंदी लेखक प्रसिद्ध होते रहे हैं और यही शिकायत भी करते हैं कि हिन्दी में अच्छा लिखा नहीं जा रहा। चिंदी लेखक यानि अंग्रेजी में टुकड़े टुकड़े लिखकर उसके हिन्दी में बेचने वाले
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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गणेश चतुर्थी-श्री गणेश जी का लेखक रूप स्मरण करने योग्य (ganesh chaturthi par vishesh hindi lekh)


        आज पूरे देश में गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जा रहा है। देश के लगभग सभी शहरों और गांवों में उनकी जगह जगह मूर्तियों की स्थापना की जा रही है। इस अवसर पर गणेशोत्सव मनाया जाता है जिस पर अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। गणेश उत्सव के दौरान होने वाले कार्यक्रमों में लोग बहुत उत्साह से शामिल होते हैं।
भगवान श्रीगणेश ही का हमारे जीवन में कितना धार्मिक महत्व यह इसी बात से समझा जा सकता है कि किसी भी शुभ कार्य के प्रारंभ में उनका स्मरण किया जाता है। इसका कारण उनको भगवान शिव तथा अन्य देवताओं द्वारा दिया गया है वह वरदान है जो उनको अपने बौद्धिक कौशल के कारण मिला था।
    एक समय देवताओं में अपनी श्रेष्ठता को लेकर होड़ लगी थी। श्रेष्ठ देवता के चयन के लिये यह तय किया गया कि जो इस प्रथ्वी का दौरा सबसे पहले कर लौटेगा वही उसका दावेदार होगा। सारे देवतागण उसके लिये दौड़ पड़े मगर श्री गणेश महाराज अपने माता पिता के पास बैठे अपनी लीला करते रहे। जब बाकी देवताओं के वापस लौटने की संभावना देखी तो तत्काल उठे और अपने माता पिता भगवान शिव और पार्वती की प्रदक्षिणा कर घोषणा की कि उन्होंने तो सारी सृष्टि का दौरा कर लिया क्योंकि भगवान शिव और माता पार्वती ही उनके लिये सृष्टि स्वरूप हैं। उनके इस तर्क को स्वीकार किया गया और यह आशीर्वाद दिया गया कि जो मनुष्य किसी भी शुभ कर्म के प्रारंभ में उनकी छबि की स्थापना करेगा उसे उसका अच्छा फल प्राप्त होगा। उसके बाद से उनको शुभफलदायक माना जाने लगा।
मगर उनका यह रूप सकाम भक्तों के लिये ही सर्वोपरि है जबकि निष्काम तथा ज्ञानी भक्त उनको महाभारत ग्रंथ के लेखक के रूप में भी उनकी याद करते हैं जिसमें सम्मिलित श्रीगीता संदेश बाद में भारतीय अध्यात्म का एक महान स्त्रोत बन गया और जिसा आज पूरा विश्व लोहा मानता है। वैसे महाभारत के रचनाकार तो ऋषि वेदव्यास जी है पर उसकी रचना श्री गणेश महाराज की कलम से ही हुई है।
        श्री गणेशजी का चेहरा हाथी का है और सवारी चूहे की है जो कि उनके भक्तों में विनोद का भाव भी पैदा करता है। उनको यह चेहरा उनके पिता भगवान शिव ने ही दिया जिन्होंने क्रोधवश उसे काट दिया था। एक बार माता पार्वती जी नहा रही थी और उन्होंने अपने पुत्र बालक गणेश को यह निर्देश दिया कि वह दरवाजे पर बैठकर पहरा दें और किसी को घर के अंदर न आने दें। आज्ञाकारी बालक गणेश जी वहीं जम गये। थोड़ी देर बात भगवान शिव आये तो श्री गणेश जी ने उनको अंदर जाने से रोका। पिता पुत्र में विवाद हुआ और भगवान शिव ने अपने ही बेटे का सिर अपने फरसे से काट दिया। बाद में उनको पछतावा हुआ और फिर उनको हाथी का सिर लगाकर पुनः जीवन प्रदान किया गया।
भगवान श्रीगणेश का चरित्र बहुत विशाल है। जब श्री वेदव्यास महाभारत की रचना कर रहे थे तब उन्होंने उसके लेखन के लिये श्रीगणेश जी का स्मरण किया। लिखने के लिये श्रीगणेश जी यह शर्त रखी कि जब तक वेदव्यास की वाणी चलती रहेगी वह लिखते रहेंगे और जब वह रुक जायेगी तो लिखना बंद कर देंगे।
           हमारे अध्यात्म में अनेक भगवान हैं मगर श्री गणेश जी की हस्तलिपि में लिखी गयी श्री मद्भागवत गीता को एक अनुपम ग्रंथ है जिसके कारण सकाम था निष्काम दोनों ही प्रकार के भक्तों में उनको श्रेष्ठ माना जाता है। सकाम भक्ति तथा राजस भाव वाले मनुष्य श्रीमद्भागवत गीता का पूज्यनीय तो मानते हैं पर उसके ज्ञान से यह सोचकर घबड़ाते हैं कि वह उनको सांसरिक कर्म से विरक्त कर देगी। यह उनका वहम है। जबकि इसके विपरीत श्रीमद्भागवत गीता तो निष्काम भक्ति तथा निष्प्रयोजन दया के साथ ही देह, मन और विचारों में शुद्धता लाने का मंत्र बताने वाला एक महान ग्रंथ है और हृदय में पवित्र भाव लाकर उसका अध्ययन करने से जीवन के ऐसे रहस्य हमारे सामने प्रकट हो जाते हैं जो हमारे ज्ञान चक्षु खोल देते हैं। इस संसार वह स्वरूप हमारे सामने आता है जो सामान्य रूप से नहीं दिखता। मूर्तिमान श्रीगणेश जी का वह अमूर्तिमान लेखकीय स्वरूप उन ज्ञानियों को बहुत लुभाता है जो श्री गीता संदेश का महत्व समझते हैं।
            गणेश चतुर्थी के अवसर पर हिन्दी ब्लाग जगत के साथी लेखकों और पाठकों को हार्दिक बधाई तथा शुभ कामनायें। ॐ  नमो गणेशायनमः।
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लेखक संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,Gwalior
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क्रिकेट मैच में अब फिक्स नॉबोल-हिन्दी व्यंग्य (now nobol fix in cricket match-hindi vyangya)


पाकिस्तान के सात खिलाड़ी मैच फिक्सिंग के आरोपों में फंस गये हैं। फंसे भी क्रिकेट के जनक इंग्लैंड में हैं जहां पाकिस्तानी पहले से बदनाम हैं। यह खबरें तो उन्हीं प्रचार माध्यमों से ही मिल रही हैं जो उस बाज़ार के ही भौंपू हैं जिसके अनेक शिखर सौदागरों पर भूमिगत माफिया से संबंध रखने का आरोप है। कभी कभी ऐसी खबरें देखकर हैरानी होती है कि आखिर यह क्रिकेट जो इन प्रचार समाचार माध्यमों के रोजगार का आधार है क्योंकि इससे उनको प्रतिदिन आधे घंटे की सामग्री मिलती है तो कैसे उसे बदनाम करने पर तुल जाते हैं।
पहली बार पता चला कि नोबॉल भी फिक्स होती है। पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों ने गेंद फैंकते समय अपना पांव लाईन से इतना बाहर रखा था कि अंपायर के लिये यह संभव नहीं था कि वह उसकी अनदेखी करे। जब खिलाड़ी फिक्स हैं तो अंपायर भी फिक्स हो सकता है पर पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने इतना पांव निकाला कि नोबॉल न देने के लिये फिक्स करने वाला अंपायर भी कैमरें की वजह से उसे संदेह का लाभ नहीं दे सकता था।
आरोप लगे हैं कि पाकिस्तानी खिलाड़ी औरतों, पैसे तथा मस्ती करने के शौकीन हैं। पाकिस्तानी खिलाड़ियों का चरित्र तो वहीं के लोग बयान करते हैं। कुछ पर तो मादक द्रव्य पदार्थों की तस्करी का भी आरोप है। जब पाकिस्तानी खिलाड़ी पकड़े जाते हैं तो उनकी एकाध प्रेमिका भी सामने आती है जो उनकी काली करतूतों का बयान करती है। एक चैनल के मुताबिक पाकिस्तान का एक गेंदबाज की प्रेमिका के अनुसार वह तो बिल्कुल अपराध प्रवृत्ति का और यह भी उसी ने बताया था कि ‘2010 में पाकिस्तानी कोई मैच जीतने वाला नहीं है, ऐसा तय कर लिया गया है। पिछले 82 मैचों से फिक्सिंग चल रही है। वगैरह वगैरह।
जिस बात पर हमारी नज़र अटकी वह थी कि ‘पाकिस्तान खिलाड़ियों ने 2010 में मैच न जीतने की कसम खा रखी है। संभवत आजकल उनको हारने के पैसे मिल रहे हैं। हां, यह क्रिकेट में होता है। श्रीलंका में हुए एक मैच में आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान दोनों की टीमें मैच हारना चाहती थीं क्योंकि पर्दे के पीछे उनको अधिक पैसा मिलने वाला था। यानि जो जीतता वह कम पैसे पाता तोे बताईये पैसे के लिऐ खेलने वाले खिलाड़ी क्यों जीतना चाहेंगे। ऐसे आरोप टीवी चैनलों ने लगाये थे। बहरहाल पाकिस्तान टीम के खिलाड़ी अपनी आक्रामक छबि भुनाते हैं। उनके हाव भाव ऐसे हैं जैसे कि तूफान हो और इसलिये उनकी जीत पर अधिक पैसा लग जाता है। सट्टेबाज उसके हारने पर ही कमाते होंगे इसलिये ही शायद वह उनको हारने के लिये पैसा देते होंगे।
इधर अपने देश की बीसीसीआई की टीम भी लगातर जीतने में विश्वास नहंीं रखती। यकीनन इस टीम के कर्णधारों को पाकिस्तानी खिलाड़ियों की इस कसम का पता लगा होगा कि वह 2010 में जीतेंगे नहीं इसलिये उसके साथ न खेलने का फैसला किया होगा ।
बात अगर पाकिस्तान की हो तो अपने देश के सामाजिक, आर्थिक, खेल तथा कला जगत के शिखर पुरुषों के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। अगर संबंध अच्छे रखने हों तो कहना पड़ता है कि ‘इंसान सब कर सकता है पर पड़ौसी नहीं बदल सकता‘ या फिर ‘आम आदमी के आदमी से संपर्क करना चाहिऐ।’
अगर संबंध खराब करने हों तो आतंकवाद का मुद्दा एक पहले से ही तय हथियार है कहा जाता है कि ‘पहले पाकिस्तान अपने यहां आतंकवादी का खत्मा करे।
पिछली बार आईपीएल में पाकिस्तान के खिलाड़ियों को नहीं खरीदा गया था तो देश के तमाम लोगों ने भारी विलाप किया था। यहां तक कि इस विलाप में वह लोग भी शामिल थे जो प्रत्यक्षः इन टीमों के मालिक माने जाते हैं-इसका सीधा मतलब यही था कि यह मालिक तो मुखौटे हैं जबकि उनके पीछे अदृश्य आर्थिक शक्तियां हैं जो इस खेल का अपनी तरीके से संचालन करती हैं।
बाद में आईपीएल में फिक्सिंग के आरोप लगे थे। उसमें पाकिस्तान के खिलाड़ियों का न होना इस बात का प्रमाण था कि अकेले पाकिस्तानी ही ऐसा खेल नहीं खेलते बल्कि हर देश के कुछ खिलाड़ी शक के दायरे में हैं। यह अलग बात है कि पाकिस्तान बदनाम हैं तो उसके खिलाड़ियों को चाहे जब पकड़ कर यह दिखाया जाता है कि देखो बाकी जगह साफ काम चल रहा है। किसी अन्य देश का नाम नहीं आने दिया जाता क्योंकि उसकी बदनामी से मामला बिगड़ सकता है। पाकिस्तान के बारे में तो कोई भी कह देगा कि ‘वह तो देश ही ऐसा है।’ इससे प्रचार में मामला हल्का हो जाता है और प्रचार माध्यमों के लिये भी सनसनीखेज सामग्री बन जाती है।
पाकिस्तानी या तो चालाक नहीं है या लापरवाह हैं जो पकड़े जाते हैं। संभव है वह कमाई के लिये हल्के सूत्रों का इस्तेमाल करते हों। भारतीय प्रचार माध्यमों को तो सभी जानते हैं। निष्पक्ष दिखने के नाम पर तब इन खिलाड़ियों के कारनामों की चर्चा से बचते हैं जब यह भारत आते हैं। अभी पाकिस्तानी के एक खिलाड़ी ने एक भारतीय महिला खिलाड़ी से शादी की। वह भारत आया तो उसके लोगों ने ही उस पर आरोप लगाया था कि ‘वह तो फिक्सर है।’ मगर भारत की एक अन्य महिला ने जब उसी पाकिस्तानी खिलाड़ी से विवाह होने की बात कही और बिना तलाक दिये दूसरी शादी का विरोध किया तो यह प्रचार माध्यम एक बूढ़े अभिनेता को पाकिस्तानी खिलाड़ी के समर्थन में लाये। मामला सुलट गया और भारतीय खिलाड़िन से उस खिलाड़ी का विवाह हुआ। वह बूढ़े अभिनेता भी उस शादी में गया। आज तक एक बात समझ में नहीं आयी कि इन फिल्म वालों से क्रिकेट वालों रिश्ते बनते कैसे हैं। संभवत कहीं न कहीं धन के स्त्रोत एक जैसे ही होंगे।
इस देश में क्रिकेट खेल का आकर्षण अब उतना नहीं रहा जितना टीवी चैनल और अखबार दिखा रहे हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि उनके पास मज़बूरी है क्योंकि इसके अलावा वह कुछ नया कर ही नहीं सकते।
एक दो नहीं पूरे सात पाकिस्तनी खिलाड़ी ब्रिटेन से मैच हारना चाहते थे। हारे भी! इससे उनके धार्मिक लोग नाराज़ हो गये हैं। इसलिये नहीं कि पैसा खाकर हारे बल्कि धर्म का नाम नीचा किया। कट्टर लोग धमकियां दे रहे हैं। कोरी धमकियां ही हैं क्योंकि इन कट्टर धार्मिक लोगों को पैसा भी उन लोगों से मिलता है जो क्रिकेट में मैदान के बाहर से इशारों में खिलाड़ियों को नचाते हैं और फिर उनको रैम्प पर भी नाचने का अवसर प्रदान करते हैं।
बहरहाल पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने 2010 में हारने की कसम खाई है। यह आरोपी सात खिलाड़ी हटे तो दूसरे नये लोग आकर भी उस कसम को निभायेंगे। इधर बीसीसीआई की टीम भी तब तक नहीं उनके साथ खेलेगी जब तक उनकी कसम खत्म की अवधि नहीं होती। आखिर बीसीसीआई के खिलाड़ी जीत कर थक जायेंगे तो उनको तो हराकर कर विश्राम कौन देगा। पाकिस्तानी खिलाड़ी यह अवसर देने को तैयार नहीं लगते। यही कारण है कि आतंक का मुद्दे की वजह से दोनों नहीं खेल रहे अब यह बात बड़े लोग कहते हैं तो माननी पड़ती है। 2011 में फिर मित्रता का नारा लगेगा क्योंकि तब पाकिस्तानी खिलाड़ियों की कसम की अवधि खत्म हो जायेगी। इधर आईपीएल की तैयारी भी चल रही है। लगता नहीं है कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों को इस बार भी मौका मिलेगा। कहीं किसी क्लब को जीतने का आदेश हो और उसमें अपनी कसम से बंधे एक दो पाकिस्तानी खिलाड़ी हारने के लिए खेले तो…….अब तो उनके लिये 2011 में ही दरवाजे खुल सकते हैं।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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इंटरनेट पर देवनागरी में हिन्दी लिखना सरल-हिन्दी लेख (hindi and devnagari lipi writing essey on in internet-hindi article)


अंतर्जाल पर लिखने में कोई संकट नहीं है जितना कि लोगों की कमेंट पढ़ने में लगती है। जो लोग अपनी टिप्पणियों में वाह वाह या बढ़िया लिख जाते हैं धन्य हैं, और जो थोड़ा विस्तार से लिखे गये पाठ के संदर्भ में नयी बातें लिख जाते हैं वह तो माननीय ही हैं शर्त यह है कि उनकी लिपि देवनागरी होना चाहिए। अगर कहीं रोमन लिपि में हुआ तो भारी तकलीफदेह हो जाता है और काफी देर तक तो यही संशय रहता है कि कहीं वह टिप्पणीकर्ता मजाक तो नहीं उड़ा रहा।
हम बात करें उन लोगों की जो रोमन लिपि में हिन्दी लिखना और पढ़ना चाहते हैं। अपना विचार तो यह है कि रोमन लिपि में हिन्दी लिखने से तो अच्छा है कि सीधे अंग्रेजी में लिखो। इधर सुन रहे हैं कि कुछ विद्वान आधिकारिक रूप से हिन्दी को रोमन लिपि में बांधने के लिये तैयार हो चुके हैं।
अरे, रुको यार पहले हमारी सुनो।
हम तो कह रहे हैं कि नहीं तुम तो बिल्कुल अंग्रेजी को भारत में लादने के लिये कमर कसे रहो। इस पर हमारा पूरा समर्थन है। इधर हम अपने ब्लाग पर हिन्दी में लिखते जायेंगे उधर तुम्हें भी अंग्रेजी के लिये समर्थन देते रहेंगे। कम से कम रोमन लिपि में हिन्दी लिखकर हमारे लिये टैंशन यानि तनाव मत पैदा करो।
होता यह है कि कुछ लोग हमारे लिखने से नाराज होते हैं। अगर वह अंग्रेजी में नकारात्मक टिप्पणी लिखते हैं तो उसे पढ़कर अफसोस नहीं होता।
लिख देते हैं ‘bed poem, you are a bed writer वगैरह वगैरह। हम उनको उड़ा देते हैं। कोई चिंता नहीं! अंग्रेजी में ही हो तो है। किसी ने हिन्दी तो नहीं लिखा। यह तसल्ली इसी तरह की है कि किसी दूसरे शहर में पिटकर आया आदमी अपनी ताकत का बयान अपने शहर में करता है।
अंग्रेजी नहीं आती पर पढ़ लेते है। कोई बात समझ में नहीं आये तो डिक्शनरी की मदद लेते हैं। एक बार एक शब्द आया था जो कविता के बुरे होने की तरफ इशारा कर रहा था। शब्द देखकर लगा कि कम से कम यह अच्छी बात तो नहीं कह रहा। फिर डिक्शनरी की मदद ली। बाद में उस टिप्पणी को हटा दिया। हिन्दी में होती तो सोचते। इससे कुछ लोगों को गलत फहमी हो गयी कि इस लेखक को अंग्रेजी नहीं आती तो अब कभी कभार रोमन लिपि में हिन्दी लिखकर अपनी नकारात्मक राय रखते हैं। यह तकलीफ देह होता है। रखते तो वह भी नहीं है पर पढ़ने में भारी तकलीफ होती है।
अगर कोई लिख देता है कि bakwas तो पढ़ने में क्रष्ट जरूर होता है पर समझने में नहींपर अगर कोई लिखता है bed तो वह तत्काल समझ में आ जाता है उसको भी धन्यवाद देते हैं कि पढ़ने में तकलीफ नहीं हुई। चलो इनसे तो निपट लेते ही हैं पर कुछ लोग पाठों की प्रशंसा में ऐसी टिप्पणियां लिखते हैं जो वाकई उस उसकी चमक बढ़ाते हैं और कहना चाहिये कि पाठ से अधिक प्रशंसनीय तो उनकी टिप्पणी होती है मगर दुःख यह कि वह रोमन लिपि में होती हैं। उनका हटाना पाप जैसा लगता है पर एक बात निश्चित यह है कि हिन्दी का पाठक जब उस पाठ को पढ़ते हुए जब टिप्पणियां पढ़ना चाहेगा तो वह उसे रोमन लिपि में देखकर अपना विचार त्याग देगा और टिप्पणीकर्ता अन्याय का स्वयं ही शिकार होगा।
जिन लोगों को हिन्दी से परहेज है वह उसमें लिखा हुआ लिपि रोमन हो या देवनागरी में कतई नहीं पढ़ेगा क्योंकि उसकी नाराजगी भाषा से है न कि लिपि से। वैसे तो देवनागरी में हिन्दी लिखना इंटरनेट पर कठिन था पर टूलों की उपलब्धता ने उसे समाप्त कर दिया है। अब तो जीमेल पर ही हिन्दी में लिखकर अपना संदेश कट पेस्ट कर कहीं भी रखा जा सकता है। इसलिये आम पाठकों को भी ऐसी शिकायत नहीं करना चाहिये क्योंकि इंटरनेट पर पढ़े लिखे लोग ही सक्रिय हो पाते हैं।
भाषा का संबंध हृदय के भाव से तो लिपि का संबंध मस्तिष्क से होता है। जो लोग रोमन लिपि में हिन्दी लिखना चाहते हैं उनकी निराशाओं को समझ सकते। बहुत प्रयास के बावजूद हिन्दी आम भारतीय की भाषा है। यह अलग बात है कि हिन्दी बाज़ार अंग्रेजीदांओं के कब्जे में है। दरअसल मोबाइल पर एसएमएस लिखवाने के लिये यह बाज़ार विशेषज्ञ अपने प्रायोजित विद्वानों को सक्रिय किये हुए हैं जो रोमन लिपि को यह स्थाई रखना चाहते हैं। उनको लगता है कि बस, रोमन लिपि में यहां का आम आदमी अपना एसएमएस कर अपने हाथ बर्बाद करे। याद रहे कि अधिक एसएमएस करने से लोगों के हाथ बीमार होने की बात भी सामने आ रही है। यह एसएमएस की प्रथा नयी है इसलिये अभी चल रही है और एक दिन लोग इससे बोर हो जायेंगे तब यह रोमन का भूत भी उतर जायेगा। वैसे अनेक लोग यह भी कोशिश कर रहे हैं कि रोमन लिपि से ही ऐसे संदेश हों।
आखिरी बात यह है कि इंटरनेट ने सभी को दिग्भ्रमित कर दिया है। अभी तक देश के आर्थिक, सामाजिक, तथा अन्य प्रतिष्ठित क्षेत्रों में जिन समूहों या गुटों का कब्जा रहा है वह अब आम आदमी पर नियंत्रण खोते जा रहे हैं। अगर भाषा की बात करें तो आज़ादी के बाद हिन्दी में जो लिखा गया है लोग उस पर असंतोष जता रहे हैं। फिल्में पिट रही हैं, अखबार भी अधिक महत्व के नहीं रहे, टीवी चैनल तो आपस में ही लड़ रहे हैं। पहले उनकी सामग्री की चर्चा लोगों के बीच में होती है पर अब बहुतायत के कारण कोई किसी से जुड़ा है तो कोई किसी से।
आम आदमी को भेड़ की तरह चलाने के आदी कुछ लोग इंटरनेट पर सक्रिय लोगों को आज़ाद देखकर घबड़ा रहे हैं। इसलिये अपने चेले चपाटों के माध्यम से अपना खत्म हो रहा अस्तित्व बचाने में जुटे हैं। इसके लिये पहले उन्होंने हिन्दी के फोंट न होने की बात प्रचारित की और वह जब सार्वजनिक हो गये तो अब वह बता रहे हैं कि रोमन लिपि में लिखकर विश्व पर राज करेंगे क्योंकि दूसरे देश भी इसे सीखेंगे। भाषा के सहारे सम्राज्यवाद का उनका सपना केवल एक ढोंग है क्योंकि हिन्दी में लिपि संबंधी बहस से अधिक समस्या उसमें सार्थक लिखने की है। वह भी इस तरह का लेखन करना होगा जो अभी तक बाज़ार में न दिखा हो। जिन्होंने हिन्दी के बाज़ार पर कब्जा कर रखा है वह इंटरनेट पर भी ऐसे सपने देखने लगे हैं। जबकि हमारा मानना है कि जैसे जैसे इंटरनेट पर लोगों की सक्रियता बढ़ेगी उनके बहुत सारे भ्रम टूटेंगे जो उन पर थोपे गये। इंटरनेट पर देवनागरी में हिन्दी लिखने की बढ़ती जा रही सरलता उनको अंततः अपना मार्ग छोड़ने को बाध्य कर देगी। इस तरह हिन्दी भाषा के अंग्रेजीकरण की कोशिश एक निरर्थक कदम है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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