Category Archives: हिंदी साहित्य

हास्य कविताएँ-काले धन के फेर में गुरू चेला (hasya kavitaen-black money and guru chela)


चेले ने कहा गुरु से
‘‘इस समय चारों तरफ
काले धन के विरुद्ध
अभियान चल रहा है,
आप भी इसमें शामिल होकर
अपने आश्रम और हम जैसे चेलों
का रुतवा बढ़ाओ
यह विचार मेरे दिमाग में पल रहा है।’

सुनकर गुरुजी बोले
‘‘मुझे तेरी जन्म कुंडली
देखकर अपने दल में शामिल करना था,
तेरे ख्याल देखकर
अपने आश्रम में तुझे भरना था,
धंधा नहीं तेरा कोई भी
फिर भी रोज पीता है शराब,
क्या जानता है उसका पैसा कहां से आता है
स्वच्छ है कि खराब,
नित नित नये चमकदार कपड़े भेंट मे जो तू लाता है,
कभी समझ में आयी है यह बात तुझे कि
अपने भक्तों में किसके पास सफेद और
किसके पास काला धन आता है,
ज्यादा चक्कर में नहीं पड़ना,
फंस जायेगा वरना,
अभी तक लोगों की नज़र अपने से दूर है,
कहीं छपने लगे रोज अखबार में तो
समझ लो आगे अपनी जांच होना भी जरूर है।
सफेद धन तो बस, गरीबों के पास ही होता है,
जिनका धर्म से नहीं नाता
आत्मा जिनका पेट भरकर ही सोता है,
ज्यादा आंदोलन के चक्कर में
पड़े तो दानदाता नाराज हो सकते हैं
तब काले धन के बिना
हम लोग ही बेरोजगार हो जायेंगे,
जल्दी आश्रम को भी अतिक्रमण विरोधी अभियान से
ध्वस्त पायेगे,
हमें अपने वातानुकूलित आश्रम में रहना चाहिए
क्या करना शहर बेईमानी की आग में जल रहा है।’’
——–
मुर्दे के कफन से भी
वह टुकड़ा चुरा लाते हैं,
बच्चे के मुख की रोटी छीनकर
अपना बैंक बढ़ाते हैं,
कमबख्त!
कल्याण का ठेका उन्हीं का नाम चढ़ता है
जो बेईमानी के ढंग सीख जाते हैं।
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लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior
writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

रहीम दर्शन-सज्जन लोग समाज सेवा के लिए संपत्ति संचय करते हैं


तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिसत तर पेड़ कभी स्वयं अपने फल नहीं खाते और तालाब कभी अपना पानी नहीं पीते उसी तरह सज्जनलोग दूसरे के हित के लिये संपत्ति का संचय करते हैं।
तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।
जल में उल्टी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर।
कविवर रहीम कहते हैं कि अपना शरीर तो कर्म के फल के नियंत्रण में है पर मन को भगवान की भक्ति में लीन रखा जा सकता है। जैसे जल में उल्टी नाव को रस्सी से खींचा जाता है वैसे ही मन को भी खींचना चाहिए।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-सामान्य मनुष्य स्वभाव का यह मूल स्वभाव होता है कि वह अपने लिये आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करता है पर जो दूसरे के हित का विचार करते हैं उनका उद्देश्य दूसरों का हित भी करना होता है। अपने अपने सोचने का तरीका है। कुछ लोग अपने लिये धन संचय करते चले जाते हैं यह सोचकर कि उनकी सात पीढ़ियां उनको याद करेंगीं। समाज में वैमनस्य फैल रहा है तो उसकी वह परवाह नहीं करते। गरीब के साथ अन्याय और मजदूरी के शोषण से धन संचय करने में उनको हिचक नहीं होती। वह सोचते हैं कि उनका और आने वाली पीढ़ियाों का जीवन इसी तरह ही चलता रहेगा। उनके कृत्यों से समाज में जो विद्रोह फैलता है उसकी आशंका से परे होकर वह केवल अपने स्वार्थ पूरे करने में लगते हैं। मगर जब उनके पापों और कृत्यों की अति हो जाती है तब वह उसका परिणाम भोगते हैं और कभी कभी यह दुष्परिणाम उनकी पीढ़ियों को भोगना पड़ता है।

समझदार मनुष्य समाज को देखभाल कर ही आगे बढ़ते हैं। मिल बांटकर खाओ की नीति अपनाकर न केवल वह अपने लिये सुविधायें जुटाते हैं बल्कि उसके उपभोग में समाज को भागीदार बनाकर यश प्राप्त करते हैं। एक बात तय है कि शरीर की आवश्यकता भौतिक पदार्थों से ही पूरी होती है अतः यह समझना चाहिये कि किसी दूसरे को भी ऐसी सुविधा देकर ही उसका हृदय जीता जा सकता है।
यह शरीर तो सांसरिक कर्म फल के अधीन है। इसकी पूर्ति के लिये भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करना जरूरी है पर भगवान भक्ति और परोपकार से जो आत्मिक सुख मिलता है उसकी अनुभूति अगर नहीं की तो यह जीवन व्यर्थ है। मन तो केवल साधनों के संग्रह में ही रहना चाहता है और उस पर नियंत्रण तभी किया जा सकता है जब हम अपने अंदर दृढ़ता पूर्वक संकल्प लेकर भक्ति तथा परोपकार के काम करें। हम जितना ही सात्विक कर्म करेंगे उतना ही हमारा मन शांत रहेगा।
 
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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मनु संदेश-नाम पाने के लिये ढोंग करने वाले ‘बिडाल’ (manu darsha sandesh in hindi)


धर्मघ्वजी सदा लुब्धश्छाद्यिको लोकदम्भका।
बैडालवृत्ति को ज्ञेयो हिस्त्रः सर्वाभिसन्धकः।।
हिंदी में भावार्थ-
अपनी कीर्ति पाने की इच्छा पूर्ति करने के लिये झूठ का आचरण करने वाला, दूसरे के धरन कर हरण करने वाला, ढौंग रचने वाला, हिंसक प्रवृत्ति वाला तथा सदैव दूसरों को भड़काने वाला ‘बिडाल वृत्ति’ का कहा जाता है।’
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल ऐसे लोगों की बहुतायत है जो अपनी कीर्ति पाने के लिये झूठ और ढौंग के आचरण का अनुकरण करते हुए दूसरे के धन और रचनाकर्म का अपहरण करते हैं। इतना ही नहीं समाज के विद्वेष फैलाने के लिये दूसरो को भड़काते हैं। आज जो हम समाज में वैमनस्य का बढ़ता हुआ प्रभाव देख रहे हैं वह ऐसे ही ‘बिडाल वृत्ति’ के लोगों के दुष्प्रयासों का परिणाम है। अनेक लोग ऐसे हैं जो दूसरों का धन हरण कर शक्ति और पद प्राप्त कर लेते हैं। वह काम तो दूसरों से करवाते हैं पर उन पर अपने नाम का ठप्पा लगवाते हैं। अनेक बार ऐसी शिकायते अखबारों में छपने को मिलती है कि किसी के शोध या अनुसंधान को किसी ने चुरा कर अपने नाम से कर लिया। इसके अलावा ऐसे भी समाचार आते हैं कि सार्वजनिक और सामाजिक धन संपदा खर्च कहीं की जानी थी पर कहीं अन्यत्र उसका स्थानांतरण कर दिया-सीधी सी बात कहें तो भ्रष्टाचार भी ‘बिडाल वृत्ति’ है।
इसके अलावा अनेक रचना तथा अनुसंधानकर्मी भी यह शिकायत करते हैं कि उनकी रचना या अनुसंधान की चोरी कर ली गयी है। यह मनोवृत्ति आजकल बढ़ गयी है। इसके पीछे कारण यह है कि लोगों के अंदर मान पाने की वृत्ति श्वान की तरह हो गयी है जिसकी चर्चा माननीय संत कवि कबीरदास जी भी करते हैं। मजे की बात यह है कि जो लोग वास्तव में रचना और अनुसंधान करने वाले होते हैं वह इस तरह के प्रपंच में नहीं पड़ते। अगर हम यह कहें कि जो वास्तव में रचनात्मक भाव वाले हैं वह मान की चाहते से परे होते हैं और जो मान पाने की इच्छा रखते हैं वह दूसरे के धन की चोरी और रचनाकर्म के अपहरण का मार्ग अपनाते हैं। इसलिये हमें ऐसे लोगों की पहचान करना चाहिये। जो व्यक्ति सम्मानित होते दिखे उसके पीछे क्या है यह जरूर देखना चाहिये। आजकल हर क्षेत्र में सम्मान और पुरस्कार बांटे जाते हैं और उनको पाने के लिये अनेक लोग छल, कपट, दावपैंच और चाटुकारिता करते हैं। सच बात तो यह है कि अब तो भाषा, कला, विज्ञान तथा अन्य क्षेत्रों में सद्प्रयासों से सम्मान मिलने वाली बात ही नहीं रही। इसलिये जो लोग स्वांत सुखाय रचनाकर्म कर रहे हैं उनको यह नहीं समझना चाहिये कि अगर सम्मान नहीं मिला तो वह कोई कमतर रचनाकार हैं।

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रहीम संदेश-स्वार्थ के अनुसार लोगों का दृष्टिकोण बदलता है (svarth aur drishtikon-rahim sandesh)


स्वारथ रचत रहीम सब, औगुनहूं जग मांहि
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छांहि।।
कविवर रहीम कहते हैं कि लोग अपने स्वार्थ के अनुसार दूसरे में गुण और अवगुण ढूंढते रहते हैं। जो कभी अपना स्वार्थ साधने के लिये रथ के हरसो की टेढ़ी मेढ़ी छाया को अशुभ कहते हैं वह लोग उसकी छाया में भी बैठ जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर आपको अपने जीवन में तरक्की करनी हैं तो फिर लोगों के कहने सुनने की परवाह छोड़ दो। लोग तो अपने स्वार्थ के अनुसार गुण और अवगुण देखते हैं। अगर आपका कार्य किसी के अनुकूल नहीं है तो वह कभी आपको उसे करने के लिये प्रेरित नहीं करेगा। यदि प्रतिकूल हुआ तो वह जमकर आलोचना करेगा। यह मनुष्य स्वभाव है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि एक आदमी दूसरे की तरक्की को रोकने के लिये उसके लक्ष्य से भटकाते हुए अनेक दोष गिनाता है। जब कोई मनुष्य वास्तव में समाज सेवा के लिये प्रेरित होता है तो लोग उसे पागल तक कहते हैं। लोगों के कहने की परवाह करने वाले कभी भी विकास नहीं कर पाते। इसलिये जब आपने कोई लक्ष्य तय कर लिया है तो उस पर बढ़ चलिये। जब उसमें आपको सफलता मिलेगी तो वही लोग प्रशंसा कर आपकी छाया में बैठने का प्रयास करेंगे जिन्होंने आपकी आलोचना की थी। यह इस संसार की प्रकृति है कि वह गरीब को देता नहीं है और अमीर को सहन नहीं करता। गुणवान की गाता नहीं वरन् अवगुणी का बखान कर अपनी प्रशंसा कराना चाहता है। इसलिये अपने पथ पर चलते रहो। किसी की परवाह न करो। लोग अपने स्वार्थ के अनुसार समय समय दृष्टिकोण बदलते रहते हैं और अगर उन पर विचार किया तो फिर कोई भी काम ही नहीं कर सकेंगे।

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कौटिल्य दर्शन-कभी पर्वत की तरह सहनशील तो कभी अग्नि की तरह तीक्ष्ण बन जायें


काले सहिष्णुगिंरिवदसहिश्णुश्चय वह्वित्।।
स्कन्धेनापि वहेच्छत्रन्प्रियाणि समुदाहरन्।।
हिन्दी में भावार्थ-
समय आने पर पर्वत के समान सहनशील और अग्नि के समान असहनशील हो जायें। समय पर मित्र के कंधे पर हाथ रखें तो शत्रु पर भी उसका प्रयोग करें।
असत्यता निष्ठुरता कृताज्ञता भयं प्रमादोऽलसता विषादिता।
वृथाभिमानों ह्यतिदीर्घसूत्रतातथांनाक्षदिविनाशनंश्रियः।।
हिन्दी में भावार्थ
असत्य बोलने, निष्ठुरता बरतने, कृतज्ञता न दिखाने, भय, प्रमाद, आलस्य, विषाद, वृथा प्रयास, अभिमान, अतिदीर्घसूत्रता निरंतर  स्त्री समागम तथा पासे खेल से लक्ष्मी का विनाश होता है।
वर्तमान समय में संपादकीय व्याख्या-जीवन में उतार चढ़ाव तो आते हैं। इन उतार चढ़ावों तथा अन्य घटनाक्रमों का अच्छा या बुरा परिणाम हमारे कर्म, विचार तथा  संकल्प के अनुसार ही प्राप्त होता है।  झूठ बोलने, क्रूरता का भाव रखने, दूसरे के उपकार का आभार न मानने, आलस्य करने वाले तथा थोड़े कष्ट में ही आर्तनाद करने वाले लोग अपनी लक्ष्मी का विनाश कर डालते हैं।  कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो छोटी छोटी बातों पर भयभीत हो जाते हैं।  अगर आज हम सभी तरफ राक्षसी वृत्तियों का शासन देख रहे हैं तो वह केवल इसलिये कि भले लोग भय के कारण निष्क्रिय हो गये हैं।  समाज अपने ही अध्यात्मिक ज्ञान से विमुख हो गया है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति का मोह तथा अभाव का भय उसे आशंकित किये रहता है। यही कारण है कि वह अपने समाज के प्रति एकता नहीं दिखाता या दिखाता है तो केवल तब तक जब शांति है और संकट आने पर हर कोई अपने घर में दुबक जाता है।  इतना ही नहीं दूसरे के उपकार सदाशयता तथा अनुसंधान का कोई आभार ज्ञापित नहीं करता। कृत्घनता चालाकी का प्रमाण मान ली गयी है।
मृत्यु तय है यह सभी जानते हैं पर उसका भय ऐसा है कि लोग मर मर की जीने को तैयार हैं।  नतीजा यह है कि कायरों पर महाकायर राज कर रहे हैं जो शीर्ष पर इसलिये पहुंचते हैं क्योंकि उनको भय रहता है कि अगर वहां नहीं रहे तो कोई भी उनको क्षति पहुंचा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान के बिना समाज पशुओं का समूह बन गया है।  कब मित्र से निभाना है या कब शत्रु पर प्रहार करना है इसका ज्ञान लोगों को नहीं रहा।  आत्म प्रवंचना करना तथा प्रशंसा पाने के मोह लोगों को चोर बना दिया है। वह दूसरे का धन, अविष्कार तथा विचार चुराकर अपने नाम से प्रस्तुत करते हैं।  कहने को समाज देवताओं को मानता है पर कृत्य दानवों जैसे हो गये हैं। मगर सभी लोग ऐसे नहीं है। यही कारण है कि आज भी यह समाज इतने सारे हमलों और दबावों के बाद जिंदा है। आज भी दानवीर, कर्मवीर तथा धर्मवीर हैं जो निष्काम कर्म में लिप्त रहते हुए निष्प्रयोजन दया करते हैं। समय पड़ने पर अपने घर, परिवार तथा समाज की रक्षा के लिये कृत संकल्पित होकर अभियान चलाने के लिये तैयार होना आवश्यक है क्योंकि तभी समाज में शांति रह सकती है अन्यथा शत्रु आक्रमण कर समूह का नाश कर देते हैं।


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विदुर नीति-पैसे का बुद्धि से कोई रिश्ता नहीं (hindu dharma sandesh-buddhi aur paise ka rishta)


न बुद्धिर्धनलाभाय न जाह्यमसद्धये।
लोकपर्यावृतांत प्राज्ञो जानाति नेतरः।।
हिंदी में भावार्थ-
धन केवल बुद्धि से ही प्राप्त होता है या मूर्खता के कारण आदमी दरिद्र रहता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस संसार के नियमों को केवल विद्वान पुरुष ही जानते हैं।
असंविभागो दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः।
तादृंनारिधपो लोके वर्जनीवो नारधिपः।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने व्यक्ति अपने आश्रितों में अपनी धन संपत्ति को ठीक से बंटवारा नहीं करे तो दुष्ट कृतघ्न और निर्लज्ज है उसे इस लोक में त्याग देना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिन लोगों के पास धन नहीं है या अल्पमात्रा में है उन्हें धनवान लोग मूर्ख और अज्ञानी मानते हैं। अक्सर धनवाल लोग कहते हैं कि ‘अक्ल की कमी के कारण लोग गरीब होते हैं।’
उनका यह तर्क गलत और बेहूदा है। अगर ऐसा है तो अनेक धनवान गरीब क्यों हो जाते हैं? जिनके पास धन और संपत्ति विपुल मात्रा में वह अपने व्यवसाय में हानि उठाने या अपने बच्चों की गलत संगत के कारण उनके द्वारा किये जा रहे अपव्यय के से संकटग्रस्त हो जाने से निर्धनता को प्राप्त हो जाते हैं। तब उनके बारे में क्या यह कहना चाहिये कि ‘वह अक्ल के कारण ही अमीर हुए और अब उसके न रहने से गरीब हो गये।’ या ‘अब धन नहीं है तो उनके पास अक्ल भी नहीं होगी।’
कहने का तात्पर्य है कि यह धारणा भ्रांत है कि बुद्धि या अक्ल के कारण कोई अमीर या गरीब बनता है। संसार का अपना एक चक्र है। शाश्वत सत्य कभी नहीं बदलता पर माया तो महाठगिनी है। आज इस घर में सुशोभित है तो कल वह किसी दूसरे दरवाजे पर जायेगी। लक्ष्मी के नाम का एक पर्यायवाची शब्द ‘चंचला’ भी है। वह हमेशा भ्रमण करती हैं। अतः हमेशा ही अमीरों को बुद्धिमान और गरीबों को बुद्धिहीन मानने वालों को अपने विचार बदलना चाहिए। इस तरह के सोच ने ही समाज में जो वैमनस्य फैलाया है उसे अब दूर करने की आवश्यकता है। जिस तरह आज चारों तरफ हिंसक संघर्ष का वातावरण दिख रहा है उसके पीछे ऐसी ही सोच जिम्मेदार है।

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विदुर नीति-पवित्र संकल्प वाला ही वीर होता है


अपनीतं सुनीतेन योऽयं प्रत्यानिनीषते।
मतिमास्थाय सुदृढां तदकापुरुषव्रतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो अन्याय के कारण नष्ट हुए धन को अपनी स्थिर बुद्धि का आश्रय लेकर पवित्र नीति से वापस प्राप्त करने का संकल्प लेता है वह वीरता का आचरण करता है।
मार्दव सर्वभूतनामसूया क्षमा धृतिः।
आयुष्याणि बुधाः प्राहुर्मित्राणा चाभिमानना।।
हिंदी में भावार्थ-
संपूर्ण जीवों के प्रति कोमलता का भाव, गुणों में दोष न देखना, क्षमा, धैर्य और मित्रों का अपमान न करना जैसे गुण मनुष्य की आयु में वृद्धि करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के स्वयं के अंदर ही गुण दोष होते हैं। उनको पहचानने की आवश्यकता है। दूसरे लोगों के दोष देखकर उनके प्रति कठोरता का भाव धारण करना स्वयं के लिये घातक है। जब किसी के प्रति क्रोध आता है तब हम अपने शरीर का खून ही जलाते हैं। अवसर आने पर हम अपने मित्रों का भी अपमान कर डालते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अपने हृदय में कठोरता या क्रोध के भाव लाकर मनुष्य अपनी ही आयु का क्षरण करता है।
कोमलता का भाव न केवल मनुष्य के प्रति वरन् पशु पक्षियों तथा अन्य जीवों के प्रति रखना चाहिए। कभी भी अपने सुख के लिये किसी जीव का वध नहीं करना चाहिये। आपने सुना होगा कि पहले राजा लोग शिकार करते थे पर अब उनका क्या हुआ? केवल भारत में ही नहीं वरन् पूरे विश्व में ही राजशाही खत्म हो गयी क्योंकि वह लोगा पशुओं के शिकार का अपना शौक पूरा करते थे। यह उन निर्दोष और बेजुबान जानवरों का ही श्राप था जो उनकी आने वाली पीढ़ियां शासन नहीं कर सकी।
हम जब अपनी मुट्ठियां भींचते हैं तब पता नहीं लगता कि कितना खून जला रहे हैं। यह मानकर चलिये कि इस संसार में सभी ज्ञानी नहीं है बल्कि अज्ञानियों के समूह में रह रहे हैं। लोग चाहे जो बक देते हैं। अपने को ज्ञानी साबित करने के लिये न केवल उलूल जुलूल हरकतें करते हैं बल्कि घटिया व्यवहार भी करते हैं ताकि उनको देखने वाले श्रेष्ठ समझें। ऐसे लोग दिमाग से सोचकर बोलने की बजाय केवल जुबान से बोलते हैं। उनकी परवाह न कर उन्हें क्षमा करें ताकि उनको अधिक क्रोध आये या वह पश्चाताप की अग्नि में स्वयं जलें। अपनी आयु का क्षय करने से अच्छा है कि हम अपने अंदर ही क्षमा और कोमलता का भाव रखें। दूसरे ने क्या किया और कहा उस कान न दें। दूसरों के प्रति द्वेष रखने, अपने काम में उतावली करने तथा मित्रों का अपमान करने से अपने ही मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न होता है जो कालांतर में आयु को क्षीण करता है।

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मनु स्मृति-तनाव में भोजन करने से उसके तत्व नष्ट होते है (no tension time on eating)


पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्ज च यच्छाति।
अपूजितं च तद्भुक्तमूभयं नाशयेदिदम्।।
हिंदी में भावार्थ-
सदाशयता से ग्रहण किया भोजन बल और वीर्य में वृद्धि करता है जब निंदा करते हुए उदरस्थ करने से उसके तत्व नष्ट होते हैं।

पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चेतकुत्सयन्
दृष्टवा हृध्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को जैसा भोजन मिले उसे देखकर प्रसन्नता हासिल करना चाहिए। उसे ईश्वर प्रदत्त मानकर गुण दोष न निकालते हुए उदरस्थ करें। भोजन करते हुए अपनी झूठन न छोड़ें। यह कामना करें कि ऐसा अन्न हमेशा ही मिलता रहे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिनको भोजन आराम से मिलता है उनको उसका महत्व नहीं पता इसलिये वह उसे ऐसे करते हैं जैसे कि उसकी उनको परवाह ही नहीं है। भोजन करते समय उनको यह अहंकार आता है कि यह तो हमारा अधिकार ही है और हमारे लिये बना है। सच तो यह है कि भोजन का महत्व वही लोग जानते हैं जिनको यह नसीब में पर्याप्त मात्रा में नहीं होता। स्वादिष्ट भोजन की चाह आदमी को अंधा बना देती है। अनेक बार ऐसा समय आता है जब वह सब्जी के कारण भोजन नहीं करता या उसे त्याग देता है। भोजन करते समय उसकी निंदा करेंगे। शादी विवाह में तो अब यह भी होने लगा है कि लोग भोजन थाली में भरकर लेते हैं पर उसमें से ढेर सारा झूठन में छोड़े देते हैं। सार्वजनिक अवसरों पर ऐसे भोजन की बरबादी देखी जा सकती है।
यह समझ लेना चाहिये कि भोजन तो ईश्वरीय कृपा से मिलता है। यह सही है कि दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, पर यह भी नहीं भूलना कि अपने कर्म और भाव से भी भाग्य का निर्माण होता है। अगर हम भोजन करते हुए अहंकार पालेंगे तो संभव है कि दानों पर लिखा हमारा नाम मिट भी जाये। अपनी गृहिणी को कभी भी सब्जी आदि को लेकर ताना नहीं देना चाहिये। यह भगवान की कृपा समझें कि एक ऐसी गृहिणी आपके साथ है जो अपने हाथ से खाना बनाकर देती है वरना तो अनेक लोग घर के खाने के लिये तरस जाते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि खाते हुए अपना भाव सौम्य और सरल रखना चाहिए तभी भोजन के तत्व संपूर्ण रूप से काम करते हैं अगर मन में क्लेश या अप्रसन्नता है तो फिर खाना न खाना बराबर है। एक बात निश्चित है कि अगर तनाव में खाना खाया तो समझ लीजिये केवल पेट भरा पर उससे मिलने वाली ऊर्जा निरर्थक हो जाती है। आपने अक्सर सुना होगा कि जिनको दिमागी तनाव रहता है उन्हीं को उच्च रक्तचाप और मधुमेह की शिकायत होती है।
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संत कबीर के दोहे-मन के चोर को मारना कठिन (man ka chor-hindu dharm sandesh)



अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार
मेरा चोर मुझको मिलै, सरबस डारूं वार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के सब तो अपने अपने चोर को मार डालते हैं, परंतु मेरा चोर तो मन है। वह अगर मुझे मिल जाये तो मैं उस पर सर्वस्व न्यौछावर कर दूंगा।
सुर नर मुनि सबको ठगै, मनहिं लिया औतार
जो कोई याते बचै, तीन लोक ते न्यार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह मन तो एक महान ठग है जो देवता, मनुष्य और मुनि सभी को ठग लेता है। यह मन जीव को बार बार अवतार लेने के लिये बाध्य करता है। जो कोई इसके प्रभाव से बच जाये वह तीनों लोकों में न्यारा हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की पहचान तो मन है और वह उसे जैसा नचाता। आदमी उसके कारण स्थिर प्रज्ञ नहीं रह पाता। कभी वह किसी वस्तु का त्याग करने का निर्णय लेता है पर अगले पर ही वह उसे फिर ग्रहण करता है। अर्थात मन हमेशा ही व्यक्ति का अस्थिर किये रहता है। कई बार तो आदमी किसी विषय पर निर्णय एक लेता है पर करता दूसरा काम है। यह अस्थिरता मनुष्य को जीवन पर विचलित किये रहती है और वह इसे नहीं समझ सकता है। यह मन सामान्य मनुष्य क्या देवताओं और मुनियों तक को धोखा देता है। इस पर निंयत्रण जिसने कर लिया समझा लो तीनों को लोकों को जीत लिया। वरना तो यह मन ऐसा है कि आदमी उसका गुलाम हो जाता है और जिसने उसके मन को गुलाम बन लिया उसकी गुलामी करने लगता है। आजकल आदमी पर हिंसा के द्वारा दैहिक रूप से जीतने की बजाय उसके मन को ललचा कर उसको बौद्धिक रूप से गुलाम बनाया जाता है। जिन लोगों को इसका ज्ञान है वही जीवन में स्वतंत्र रूप से तनावमुक्त जीवन बिता सकते हैं।

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चाणक्य नीति शास्त्र-कुसंस्कारी लोगों का साथ करने से यश नहीं मिलता


अर्थार्थीतांश्चय ये शूद्रन्नभोजिनः।
त द्विजः कि करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः।।

हिंदी में भावार्थ- नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अर्थोपासक विद्वान समाज के लिये किसी काम के नहीं है। वह विद्वान जो असंस्कारी लोगों के साथ भोजन करते हैं उनको यश नहीं मिल पता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- इस देश का अध्यात्मिक ज्ञान सदेशों के अनमोल खजाने से भरा पड़ा है। उसका कारण यह है कि प्राचीन विद्वान अर्थ के नहीं बल्कि ज्ञान के उपासक थे। उन्होंने अपनी तपस्या से सत्य के तत्व का पता लगाया और इस समाज में प्रचारित किया। आज भी विद्वानों की कमी नहीं है पर प्रचार में उन विद्वानों को ही नाम चमकता है जो कि अर्थोपासक हैं। यही कारण है कि हम कहीं भी जाते हैं तो सतही प्रवचन सुनने को मिलते हैं। कथित साधु संत सकाम भक्ति का प्रचार कर अपने भोले भक्तों को स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। यह साधु लोग न केवल धन के लिये कार्य करते हैं बल्कि असंस्कारी लोगों से आर्थिक लेनदेने भी करते हैं। कई बार तो देखा गया है कि समाज के असंस्कारी लोग इनके स्वयं दर्शन करते हैं और उनके दर्शन करवाने का भक्तों से ठेका भी लेते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक चर्चा तो बहुत होती है पर ज्ञान के मामले में हम सभी पैदल हैं।
समाज के लिये निष्काम भाव से कार्य करते हुए जो विद्वान सात्विक लोगों के उठते बैठते हैं वही ऐसी रचनायें कर पाते हैं जो समाज में बदलाव लाती हैं। असंस्कारी लोगों को ज्ञान दिया जाये तो उनमें अहंकार आ जाता है और वह अपने धन बल के सहारे भीड़ जुटाकर वहां अपनी शेखी बघारते हैं। इसलिये कहा जाता है कि अध्यात्म और ज्ञान चर्चा केवल ऐसे लोगों के बीच की जानी चाहिये जो सात्विक हों पर कथित साधु संत तो सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा कर व्यवसाय कर रहे हैं। वह अपने प्रवचनों में ही यह दावा करते नजर आते हैं कि हमने अमुक आदमी को ठीक कर दिया, अमुक को ज्ञानी बना दिया।
अतः हमेशा ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लये ऐसे लोगों को गुरु बनाना चाहिये जो एकांत साधना करते हों और अर्थोपासक न हों। उनका उद्देश्य निष्काम भाव से समाज में सामंजस्य स्थापित करना हो। वैसे भी जीवन में संस्कारों के बहुत महत्व है और संगत का प्रभाव आदमी पर पड़ता है। इसलिये न केवल संस्कारवान लोगों के साथ संपर्क रखना चाहिये बल्कि जो लोग कुसंस्कारी लोगों में उठते बैठते हैं उनसे भी अधिक संपर्क नहीं रखना चाहिये।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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