चाणक्य महाराज के अनुसार
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निस्पृहो नाऽधिकारी स्यान्नाकामी मण्डनप्रियः।
नाऽविदग्धः प्रियं ब्रूयात् स्पष्टवक्ता न वंचकः।।
हिंदी में भावार्थ-अधिकारी कभी इच्छा और लोभ रहित, श्रृंगार का रसिक निष्काम, मूर्ख मधुरवाणी तथा स्पष्टवादी कभी धोखा देने वाला नहीं होता।
अभ्यासाद्धर्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते।।
हिंदी में भावार्थ-अभ्यास से ज्ञान और गुण और शील से कुलप्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती है। मनुष्य अपने गुणों से पहचाना जाता है और उसका क्रोध नेत्रों से प्रकट होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां किसी व्यक्ति को कोई अधिकार मिला है वहां वह लोभ और कामना रहित नहीं हो सकता। कहते हैं न कि ‘घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या?‘ मनुष्य में अधिकार आने पर अहंकार आ ही जाता है। ऐसे विरले ही लोग होत हैं जो आत्मज्ञान से युक्त होने पर अधिकार आने पर पर लालची नहीं होते। सच बात तो यह है कि आदमी अपने कर्तव्य बोध से अधिक अपने अधिकार पर अहंकार करता है।
जहां मनुष्य अधिकारी है वहां इस बात को भूल जाता है कि उसका कर्तव्य क्या है? वह बस अधिकार की बात करता और सोचता है। अगर उसके साथ वह अपने कर्तव्य के निर्वहन का अभ्यास करे तो उसके अधिकार स्वतः बने रह सकते हैं पर इसके विपरीत वह बिना कर्तव्य के अधिकार चाहता है। इसी कारण वह अलोकप्रिय होता है। अपने कर्तव्य निर्वाह के अभ्यास करने पर जहां मनुष्य की लोक प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है और न करने पर वह अपयश का भागी बनता है। विश्व में जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने लोक प्रतिष्ठा इसलिये अर्जित की क्योंकि उन्होंने अपने कर्तव्य निर्वहन का निरंतर अभ्यास किया। जहां केवल अपने लिये अधिकारों की लड़ाई होती है वहां लड़ाई झगड़े और वैमनस्य फैलता है। विश्व में जो हम इस समय तनाव का वातावरण देख रहे हैं उसका कारण यही है कि लोग अपने अधिकार की बात तो करते हैं पर कर्तव्य के विषय में खामोश हो जाते हैं। अगर अधिकारी अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति सजग हों तो ही परिवार, समाज और राष्ट्र में शांति रह सकती है। मगर यह संभव भी नहीं लगता कि जिसके पासे अधिकार हो वह लोभ छोड़ दे।
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संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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नर नारायन रूप है, तू मति जाने देह।
जो समझे तो समझ ले, खलक पलक में खेह।।
मनुष्यों तुम अपने को देह मत समझो बल्कि स्वयं को परमात्मा ही समझो। यह शरीर तो जड़ है और उसमें सांस प्रवाहित कर रहा आत्मा है वही स्वयं को समझो। यह समझ लो यह शरीर एक दिन माटी हो जायेगा पर आत्मा तो अमर है।
आंखि न देखि बावरा, शब्द सुनै नहिं कान।
सिर के केस उज्जल भये, अबहुं निपट अजान।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के लोग आंख से देखने और कान से ज्ञान समझने सुनने का काम नहीं कर पाते। उनके सिर के बाल सफेद हो जाते हैं पर फिर भी अज्ञानी बने रहते हैं।
वर्तमान सदंर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारा अध्यात्मिक दर्शन स्पष्ट करता है कि यह शरीर पंच तत्वों से बना है और उसमें मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती हैं। आंख हैं तो देखती है, कान हैं तो सुनते हैं, नासिका है तो सुगंध ग्रहण करती है, मुख है तो भोजन ग्रहण करता है और मस्तिष्क है तो विचार करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि गुण ही गुणों को बरत रहे हैं पर हम सोचते हैं कि यह सभी हम कर रहे हैं हृदय में दृष्टा भाव होने की जगह कर्तापन का अहंकार आ जाता है। इसी अहंकार में मनुष्य के बाल सफेद हो जाते हैं पर वह अज्ञान के अंधेरे में ही अपना जीवन गुजार देता है।
हम आत्मा हैं और परमपिता का अंश है। यह आत्मा अनश्वर है पर हम अपने नष्ट होने के भय में रहते हैं। कर्तापन का अहंकार हमें माया का गुलाम बनाकर रख देता है। संत कबीर दास जी के मतानुसार सत्य का ज्ञान प्राप्त कर हमें अपने अंदर आत्मविश्वास पैदा करना चाहिये कि हम परमात्मा का अंश या स्वरूप हैं। जिस परमात्मा को हम दर दर ढूंढते हैं वह हम स्वयं ही हैं या कहें कि वह हमारे अंदर ही हैं। जरूरत है तो बस शब्द ज्ञान को समझने की है। इस संसार में आकर अपने दैहिक कर्तव्य पूरा तो करना चाहिये पर अपनी बुद्धि और मन को उसमें अपनी संलिप्पता की अनुभूति से परे रखें।
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संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं
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देखा देखी भक्ति का, कबहूँ न चढ़सी रंग
विपत्ति पडे यों छाड्सी, केचुली तजत भुजंग
संत शिरोमणी कबीरदास जी के अनुसार देखा-देखी की हुई भक्ति का रंग कभी भी आदमी पर नहीं चढ़ता और कभी उसके मन में स्थायी भाव नहीं बन पाता। जैसे ही कोई संकट या बाधा उत्पन्न होती है आदमी अपनी उस दिखावटी भक्ति को छोड़ देता है। वैसे ही जैसे समय आने पर सांप अपने शरीर से केंचुली का त्याग कर देता है।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग दूसरों को देख कर भगवान की भक्ति करते हैं। उनका अपना कोई इष्ट तो होता नहीं है और जो जैसा कहता है वैसी उसकी भक्ति करना लगते हैं। इससे उनको कोई लाभ नहीं होता। दूसरे के कहने से उसके इष्ट की पूजा करने से स्वयं को कोइ लाभ नहीं होता है। भक्ति से लाभ का आशय यह है की स्वयं के मन में हमेशा ही प्रसन्नता का भाव रहे और कभी किसी से डर न लगे या किसी बात की चिंता न हो। हमेशा मन प्रसन्न रहे यही है भक्ति का लाभ। कई बार ऐसा होता है कि पत्नी विवाह से पहले किसी इष्ट को मानती थी तो विवाह के बाद पति के इष्ट को ही मानने लगी। उसी तरह कहीं पति भी यही करता है। सच बात तो यह है कि बचपन से जिस इष्ट को पूजने की आदत बचपन से हो जाए उसे ही पूजना चाहिए। किसी दूसरे के कहने से इष्ट के स्वरूप को नहीं बदलना चाहिए। कहा जाता है की परमात्मा तो एक ही है उसके स्वरूप आलग हैं तो क्या? ऐसे में किसी को देखकर या कहने में आकर उसमें बदलाव करना इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य के मन में भक्ति का भाव नहीं है।
भक्त और ध्यान तो एकांत में किये जाते हैं। इससे उसी व्यक्ति के मन में शुद्धता और शान्ति होती है। दूसरे को दिखाकर या दूसरे को देखकर भक्ति करने से कोई लाभ नहीं है।
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ग्रहीत्वां दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति यजमानकम्।
प्राप्तविद्यां गुरुं शिष्या दग्धाऽरण्यं मृगास्तथा।
हिंदी में भावार्थ-ब्राह्मण दक्षिणा लेकर यजमान का घर छोड़ देते हैं। गुरु से शिक्षा प्राप्त कर शिष्य उसे दक्षिण देकर आश्रम से चले जाते हैं। उसी तरह जंगल जल जाने पर मृग उसका त्याग कर देते हैं।
दुराचारी च दुर्दृष्टिराऽवासी च दुर्जनः।
यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्रं विनश्यति।।
हिन्दी में भावार्थ-दुराचारी, कुदृष्टि रखने और बुरे स्थान पर रहने वाले व्यक्ति से संबंध बनाने पर श्रेष्ठ और सज्जन व्यक्ति शीघ्र नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-संबंध बनाने में हमेशा सतर्कता बरतना चाहिये। देखा गया है कि आजकल के युवक युवतियां अक्सर संबंध तात्कालिक आकर्षण में फंसकर मित्रता ऐसे लोगों से कर बैठते हैं जिनके स्वभाव और इतिहास का पता उनको नहीं होता। बाद में जब वह उनकी वजह से कहीं फंस जाते हैं तब उनको अपनी गलती की अनुभूति होती है मगर तब देर भी हो जाती है। ऐसी एक नहीं अनेक घटनायें घटित हो चुकी हैं जिसमें किसी भले युवक ने किसी गलत साथी का चुनाव किया और बाद में उसके अपराध के छींटे उस पर भी पड़े। उसी तरह युवतियों ने भी प्रारंम्भिक आकर्षण में आकर ऐसे लड़कों से प्रेम प्रसंग स्थापित किये जिसका परिणाम उनके लिये घातक रहा। कई बार तो वह ऐसे युवकों से विवाह भी कर बैठती हैं जो दिखाने के लिये अपने संस्कर अच्छे दिखाते हैं पर बाद में उनकी असलियत सामने आती है तो युवतियों को पछतावा होता है। अनेक युवतियां पहले अपने घरेलू संस्कारों को भुलाकर ऐसे लड़कों से विवाह कर बैठती हैं जिनके घरेलू संस्कार बिल्कुल विपरीत होते हैं। विवाह से पहले तो उनके घर से लड़कियों का संबंध नहीं होता पर बाद विवाह बाद जब उसके परिवार वाले अपने संस्कार अपनाने को विवश करते हैं तब लड़कियों को बहुत परेशानी आती है और इसी बात पर सबसे अधिक तनाव उनको ही झेलना पड़ता है क्योंकि पुरुष तो घर से बाहर रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लड़का हो या लड़की उसे अपने संबंध बनाने से पहले सामने वाले व्यक्ति की पूरी जांच करना चाहिये।
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि जब कहीं से अपना उद्देश्य पूरा हो जाये तो उस स्थान पर अधिक नहीं ठहरना चाहिये। कहने का तात्पर्य यह है कि इस जीवन में अपने कार्य और उद्देश्य पूर्ति के लिये अनेक स्थानों पर जाने के साथ ही लोगों से संपर्क भी बनाने पड़ते हैं। उनमें अपनी लिप्तता उतनी ही रहना चाहिये जितनी अपने हित के लिये आवश्यक हो। अधिक लिप्तता कार्य और उद्देश्य पर बुरा प्रभाव डाल सकती है।
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कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसने प्रतिहिसंनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टे सामचरेत्
हिंदी में भावार्थ-अपने प्रति अपराध और हिंसा करने वाले के विरुद्ध प्रतिकार और प्रतिहिंसा का भाव रखने में कोई दोष नहीं है। उसी तरह दुष्ट व्यक्ति के साथ वैसे ही व्यवहार करना कोई अपराध नहीं है।
संसार विषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे।
सुभाषितं च सुस्वादु संगतिः सुजने जनै।।
हिन्दी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य जी कहते हैं कि इस विषरूपी संसार में दो तरह के फल अमृत की तरह लगते हैं। एक तो सज्जन लोगों की संगत और दूसरा अच्छी वाणी सुनना।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में वैसे तो दुःख और विष के अलावा अन्य कुछ नहीं दिखता पर दो तरह के फल अवश्य हैं जिनका मनुष्य अगर सेवन करे तो उसका जीवन संतोष के साथ व्यतीत किया जा सकता है। इसमें एक तो है ऐसे स्थानो पर जाना जहां भगवत्चर्चा होती हो। दूसरा है सज्जन और गुणी लोगों से संगत करना। दरअसल इस स्वार्थी दुनियां में निष्काम भाव से कुछ समय व्यतीत करने पर ही शांति मिलती है और यह तभी संभव है जब हम स्वार्थ की वजह से बने रिश्तों से अलग ऐसे संतों और सत्पुरुषों की संगत करें जिनका हम में और हमारा उनमें स्वार्थ न हो। इसके अलावा आत्मा को प्रसन्न करने वाली कहीं कोई बात सुनने को मिले तो वह अवश्य सुनना चाहिये।
कहते हैं कि मन में बुरा भाव नहीं रखना चाहिये पर अगर कोई हमारे साथ बुरा बर्ताव करता है तो उससे चिढ़ हो ही जाती है। पंच तत्व से बनी इस देह में बुद्धि, मन और अहंकार ऐसी प्रकृतियां हैं जिन पर चाहे जितना प्रयास करो पर नियंत्रण हो नहीं पाता। सज्जन लोग किसी अन्य द्वारा बुरा बर्ताव करने पर उससे मन में चिढ़ जाते हैं पर बाद में वह इस बात से पछताते हैं कि उनके मन में बुरी बात आई क्यों? अगर किसी बुरे व्यक्ति के बर्ताव से गुस्सा आता है तो उससे विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। वैसे जीवन में सतर्कता और सक्रियता आवश्यक है। कोई व्यक्ति हमारे अहित के लिये तत्पर है तो उसका वैसा ही प्रतिकार करने में कोई बुराई नहीं है। बस! इतना ध्यान रखना चाहिये कि उससे हम बाद में स्वयं मानसिक रूप से स्वयं प्रताड़ित न हों।
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फूटी आँख विवेक की, लखें न संत असतं
जिसके संग दस बीच हैं, ताको नाम महंत
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जिन लोगों की ज्ञान और विवेक नष्ट हो गये है वह सज्जन और दुर्जन का अन्तर नहीं बता सकता है और सांसरिक मनुष्य जिसके साथ दस-बीस चेले देख लेता है वह उसको ही महंत समझा करता है.
बाहर राम क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम
कहा काज संसार से, तुझे घनी से काम
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दिखावटी रूप से राम का भजन करने से कोई लाभ नहीं होता. राम का स्मरण हृदय से करो. इस संसार में तुम्हारा क्या काम है तुम्हें तो भगवान का स्मरण मन में करना चाहिऐ.
वर्तमान सन्दर्भ में व्याख्या-लोगों की बुद्धि जब कुंद हो जाती है तब उनको सज्जन और दुर्जन व्यक्ति की पहचान नहीं रहती है। सच बात यही की इसी कारण अज्ञानी व्यक्ति संकटों में फंस जाते हैं। झूठी प्रशंसा करने वाले, चिकनी चुपड़ी बातें कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले, पहले दूसरों की निंदा करने के लिए प्रेरित कर फ़िर झगडा कराने वाले लोग इस दुनिया में बहुत हैं। ऐसे दुष्ट लोगों की संगत से बचना चाहिए। इसके अलावा ऊंची आवाज़ में भक्ति कर लोगों में अपनी छबि बनाने से भी कोई लाभ नहीं है। इससे इंसान अपने आपको धोखा देता है। जिनके मन में भगवान् के प्रति भक्ति का भाव है वह दिखावा नहीं करते। मौन रहते हुए ध्यान करना ही ईश्वर सबसे सच्ची भक्ति है।
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तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।
कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।
असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।
हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।
कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।
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नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्यद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-किसी भी जीव की हत्या कर ही मांस प्राप्त किया जाता है लेकिन उससे स्वर्ग नहीं मिल सकता इसलिये सुख तथा स्वर्ग को प्राप्त करने की इच्छा करने वालो को मांस के उपभोग का त्याग कर देना चाहिये।
यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च।
तद्वाघ्नोत्ययत्नेन यो हिनस्तिन किंचन।।
हिंदी में भावार्थ-जो मनुष्य किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करता, वह जिस विषय पर एकाग्रता के साथ विचार और कर्म करता है वह अपना लक्ष्य शीघ्र और बिना विशेष प्रयत्न के प्राप्त कर लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में मनुष्य के चलने के दो ही मार्ग हैं-एक सत्य और परमार्थ और दूसरा असत्य और हिंसा। यदि मनुष्य का मन लोभ, लालच और अहंकार से ग्रस्त हो गया तो वह नकारात्मक मार्ग पर चलेगा और उसमें सहृदयता का भाव है तो वह सकारात्मक मार्ग पर चलता है। श्रीगीता के संदेशों का सार यह है कि जैसा मनुष्य अन्न जल ग्रहण करता है तो वैसा ही उसका स्वभाव हो जाता है तब वह उसी के अनुसार ही कर्म करता हुआ फल भोगता है।
वैसे पश्चिम के वैज्ञानिक भी अपने अनुसंधान से यह बात प्रमाणित कर चुके हैं कि शाकाहारी भोजन और मांसाहारी भोजन करने वालों के स्वभाव में अंतर होता है। वह यह भी प्रमाणित कर चुके हैं कि शाकाहारी भोजन करने वालों के विचार और चिंतन में सकारात्मक पक्ष अधिक रहता है जबकि मांसाहारी लोगों का स्वभाव इसके विपरीत होता है। अतः जितना संभव हो सके भोजन में मांसाहार से परहेज करना चाहिये।
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संत कबीर दास जी कहते हैं कि
कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय
खीर खीड भोजन मिलै, साकट संग न जाय
साधु की संगत में अगर भूसी भी मिलै तो वह भी श्रेयस्कर है। खीर तथा तमाम तरह के व्यंजन मिलने की संभावना हो तब भी दुष्ट व्यक्ति की संगत न करें।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
कबीर संगत साधु की, कभी न निष्फल जाय
जो पै बोवै भूनिके, फूलै फलै अघाय साधुओं की संगति कभी भी व्यर्थ नहीं जाती और उसका समय पर अवश्य लाभ मिलता है। जैसे बीज भूनकर भी बौऐं तो खेती लहलहाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कई बार हम अपने कमजोर दिल और रिश्तों की बाध्यता के चलते मूर्खों और अज्ञानियों की संगत नहीं छोड़ते यह सोचकर कि इससे हमारी क्या हानि होगी? यह भ्रम है क्योंकि मूर्ख और अज्ञानी कभी भी हमें संकट में डाल सकते हैं। कुछ लोग अपनी मूर्खतावश दूसरे को हानि पहुंचाने के हमेशा तत्पर रहते हैं उनको इस बात का ज्ञान नहीं होता कि उसका बाद में क्या परिणाम होगा? अगर ऐसे लोगों के साथ हम रहेंगे तो उनके किसी कुकृत्य के छींटे हमारे ऊपर भी आ सकते है। कई बार आपने देखा होगा कि कोई आदमी अपराध करता है तो उसके संगी साथियों की तलाश होती हैं। आजकल तो आपने देखा होगा कि किसी अपराध के होने पर मोबाइल के विवरण भी निकाले जाते हैं। अगर किसी ने अपराध किया जाता है तो उससे बात करने वाले सभी लोगों की छानबीन भी होती है।
आधुनिक संवाद साधनों ने लोगों के संपर्क बहुत सहज बना लिये हैं ऐसे में अपना व्यवहार करने वालों के प्रति अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है। खासतौर से युवक युवतियों को इस तरफ ध्यान देना चाहिये। हो सकता है कि उनको कुछ मित्र पंच सितारा होटलों में भोजन करने के लिये निमंत्रण देते हों पर उनका आचरण ठीक न हो। इसलिये मित्रता और व्यवहार में ऐसे मूर्खों और अज्ञानियों से दूर ही रहें जिनका लक्ष्य अपवित्र या अज्ञात है। उससे अच्छा तो साधु स्वभाव और अच्छे आचरण के लोगों से अपनी संगत करें जो भले ही न तो पंचसितारा होटल में भोजन करायें और न लच्छेदार बातें करें।
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भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेंिद्रयशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने तु कुपखननं प्रत्युद्यम कीदृशः
हिंदी में भावार्थ- जब शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था परे है, इंद्रियां सही ढंग से काम कर रही हैं और आयु भी ढलान पर नहीं है विद्वान और ज्ञानी लोग तभी तक अपनी भलाई का काम प्रारंभ कर देते हैं। घर में आग लगने पर कुंआ खोदने का प्रयास करने से कोई लाभ नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भर्तृहरि महाराज का यहां आशय यह है कि जब तक हम शारीरिक रूप से सक्षम हैं तभी तक ही अपने मोक्ष के लिये कार्य कर सकते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि प्रारंभ से ही मन, वचन, और शरीर से हम भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखें। कुछ लोग यह कहते हैं कि अभी तो हम सक्षम हैं इसलिये भगवान की भक्ति क्यों करें? जब रिटायर हो जायेंग्रे या बुढ़ापा आ जायेगा तभी भगवान की भक्ति करेंगे। सच बात तो यह है कि भगवान की भक्ति या साधना की आदत बचपन से ही न पड़े तो पचपन में भी नहीं पड़ सकती। कुछ लोग अपने बच्चों को इसलिये अध्यात्मिक चर्चाओंे में जाने के लिये प्रेरित नहीं करते कि कहीं वह इस संसार से विरक्त होकर उन्हें छोड़ न जाये जबकि यह उनका भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान किसी भी आदमी को जीवन से सन्यास होने के लिये नहीं बल्कि मन से सन्यासी होने की प्रेरित करता है। सांसरिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए उसके फल की कामना से परे रहना कोई दैहिक सन्यास नहीं होता।
हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यह कहता है कि आदमी अपने स्वभाव वश अपने नित्यप्रति के कर्तव्य तो वैसे ही करता है पर भगवान की भक्ति और साधना के लिये उसे स्वयं को प्रवृत्त करने के लिये प्रयास करना होता है। एक तो उसमें मन नहीं लगता फिर उससे मिलने वाली मन की शांति का पैमाना धन के रूप में दृश्यव्य नहीं होता इसलिये भगवान की भक्ति और साधना में मन लगाना कोई आसान काम नहीं रह जाता। बुढ़ापे आने पर जब इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं तब मोह और बढ़ जाता है ऐसे में भक्ति और साधना की आदत डालना संभव नहीं है। सच बात तो यह है कि योगसाधना, ध्यान, मंत्रजाप और भक्ति में अपना ध्यान युवावस्था में ही लगाया जाये तो फिर बुढ़ापे में भी बुढ़ापे जैसा भाव नहीं रहता। अगर युवावस्था में ही यह आदत नहीं डाली तो बुढ़ापे में तो नयी आदत डालना संभव ही नहीं है।
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