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काला या लूट का धन या भ्रष्टाचार-हिन्दी लेख (black money or loot aur curruption-hindi lekh)


भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान छेड़ने वालों को अपना समय फालतू बहसों में नहीं उलझनी चाहिए। अनेक भारतीयों का विदेशी बैंकों में धन जमा है पर उसे काला कहकर भी सम्मानित नहीं किया जाना चाहिए। किसी भी व्यक्ति के पास धन दो ही प्रकार से आता है-एक कमाकर दूसरा लूटकर। मतलब धन या तो कमाई का होता है या लूट का। काले धन से आशय केवल यह होता है कि उसके लिये कर नहीं चुकाया गया, या जिसे सरकार के समक्ष घोषित नहीं किया जा सकता। यह काला धन ऐसे स्तोत्रों से आ सकता है जो कानून की दृष्टि से बुरे नहीं है, कानून की दृष्टि से बुरे धंधों से भी आया धन काला होता है पर वह लूट का नहीं होता। हम विदेशी बैंकों में जमा जिस धन को काला कह रहे हैं वह लूट का धन ही हो सकता है जिसके स्त्रोत न एक नंबर के हैं न दो नंबर के ।
इस प्रकरण में एक चर्चा करना रोचक लगती है। अभी हाल ही में एक धर्म विशेष की बैंक प्रणाली को अपनाने की बात चल रही थी। इस प्रणाली में बिना ब्याज के धन रखने की सुविधा होती है। कई लोगों ने इसका धार्मिक आधार पर विरोध किया पर लगता है कि वह असली बात समझे ही नहीं। इस प्रणाली के समर्थकों ने तर्क दिया कि चूंकि उस धर्म विशेष के लोग ब्याज को बुरा समझते हैं इसलिये उसका ध्यान रखते हुए उनको बिना ब्याज के बैंकों की तरफ आकर्षित किया जाये ताकि वह विनिवेश कर सकें। संभव है कि उस धर्म विशेष के गरीब और विद्वान लोग इस बात से प्रसन्न हों कि उनके धर्म की मान्यता बढ़ रही है तो भ्रम में हैं। दरअसल जिन विदेशी बैंकों में यह काला धन रखा जाता है उस वह वह ब्याज मिलना तो दूर बल्कि रखने की की फीस लगती है-ऐसा कुछ विशेषज्ञ दावा करते हैं। इसी फीस से बचने के लिये ही उस धर्म विशेष की नज़ीर के आधार पर अगर भारत में बैंक खोले गये तो यकीन मानिए ऐसे लूट के धन रखने वाले उस फीस से भी बच जायेंगे। संभव है कि ऐसे बैंक स्थापित हो गये तो उनको अपने धार्मिक आधार पर अपने यहां के जमाकर्ताओं की जानकारी किसी को न देने की भी छूट मिल जाये और फिर उसे व्यवस्थापक दूसरे धर्म के इस तरह का धन रखने वालों को भी सुविधा देने लगे-यानि विदेशों जैसी सुविधा देश में ही मिल जाये तो कहना ही क्या? अगर उस धर्म के विशेष के लोगों को बिना ब्याज के पैसा रखना है तो वर्तमान राष्ट्रीयकृत बैंकों में कानून बनाकर यह सुविधा दी जा सकती है। मतलब कहीं  न कहीं  इसमें चाल हो सकती है जो कि कथित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की आड़ में दी जा रही है।
प्रसंगवश उस धर्म के लोगों की बात भी कर लें। दरअसल उस धर्म के आम लोगों को लंबे समय तक अंग्र्रेजी और हिन्दी की शिक्षा से दूर रखा गया। देश की मुख्यधारा से भी परे रखकर धर्म की अफीम पिलाई गयी। जिसके कारण उस धर्म के लोगों का एक बहुत बड़ा समूह समय के साथ बदलाव का लाभ नहीं उठा पाया। अब समय बदल रहा है। उस धर्म के लोग भी अब असलियत समझ गये हैं। उसके पुरुष और स्त्रियां अब बैंकों में आते जाते देखे जा सकते हैं। जहां तक इस धर्म के शिक्षित तबके का सवाल है तो वह बिना हिचक के बैंकों में आता जाता है। इसी प्रसंग में यह बात भी कहना रोचक लगता है कि इस ब्याज रहित प्रणाली वाले बैंकों की संकल्पना तब जोर मार रही है जब यह डर सताने लगा है कि विदेशी बैंक अब लंबे समय तक साथ नहीं देने वाले। मतलब बात सीधी है कि धर्म आधारित बैंक प्रणाली कथित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की बजाय कर्मनिरपेक्षता पर आधारित है जिसमें किसी भी तरह अपना धन मज़बूत रखा जाये कर्म चाहे जैसे भी हों इसे कोई नहीं जान पाये। अगर ब्याज रहित बैंक प्रणाली की बात है तो भारतीय धर्म ग्रंथों में भी ब्याज खाने का विरोध किया गया है पर उसे सांप्रदायिक माना जाता है इसलिये उसके संदेशों पर चर्चा नहंी की जा सकती। पापपूर्ण धन का खेल निराला है जिसकी मात्रा अपने देश के कुछ लोगों के पास अधिक है।
कहने का अभिप्राय यह है कि इस देश में गरीबी, बेकारी और महंगाई का प्रकोप है यह प्रकृति या सामाजिक स्थिति की वजह से नहीं बल्कि राजकीय कुप्रबंधन और आर्थिक लुटेरों की वजह से है। कुछ लोग अपना पैसा छिपाकर रखना चाहते हैं क्योंकि उन्हें अपने कर्म भी छिपाने हैं। वह ब्याज लेना तो दूर रखने के लिये फीस भी देने के लिए तैयार हैं और उनकी चालों को धार्मिक या सामाजिक ढांचे की आड़ में छिपाने की सुविधा नहीं मिलना चाहिये। हम यहां किसी धर्म या उसकी बैंकिंग प्रणाली का विरोध नहंी कर रहे पर यह भी देखना होगा कि कहीं इसकी आड़ में ऐसा प्रयास तो नहीं हो रहा। आखिर इस देश में अनेक लोगों के पास धन नहीं है तो अनेक इसके लिये पूरा दिन संघर्ष करते हुए बिता देते हैं जबकि कुछ लोगों का न धन से पेट भरता है न हवस मिटती है। मगर सच यह भी है कि गरीब वर्ग ही अमीरों का आधार है। उसके खाने, बीमारी, यात्रा तथा सामाजिक कर्मकांडों के निवर्हन से ही लोग अमीर बन रहे हैं। कुछ लोग उनकी मज़बूरी को बेचकर तो कुछ उससे बचकर अमीर बन रहे हैं। अमीर वर्ग के दम पर कोई अमीर नहीं  बन रहा। गरीब के कल्याण के नाम पर जितना पैसा खर्च होता  है वही लुट रहा है। इसके लिये एक नहीं लाखों उदाहरण मिल जायेंगे।
यही कारण है कि नये आर्थिक कार्यक्रम तथा प्रणाली बनाते समय लुटेरों के धन रखने की आदत पर भी ध्यान रखना चाहिए।
वैसे जिस तरह देश में चिंतन और अध्ययन की स्थिति है उसे देखते हुए कोई यह तर्क भी दे सकता है कि किसी धर्म विशेष के आधार पर बने बैंक में यही लूट का धन देश में ही रखा जाये तो क्या बुराई है? आखिर यह पश्चिमी देशों की पकड़ से बाहर तो रहेगा! अमेरिका के पास तो नहीं जायेगा। देश के पैसा देश में ही तो रहेगा फिर इससे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का भी निर्वहन हो जायेगा! वैसे आने वाला समय नये प्रकार के विवादों को जन्म देने वाला है। लूट का धन कहें या काला उसकी ताकत कम नहीं है। जिनके पास है उनके चेहरे यहां चमकदार और व्यक्त्तिव इज्जतदार है। वह अपना खेल मज़बूती से खेलेंगे और उसे रोकना आसान नहीं होगा। उनकी तरफ से निरर्थक बहस करने वाले बुत भी खड़े होंगे और उनसे बचना होगा।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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एक सौर मंडल जो धरती पर रहता है-हिन्दी व्यंग्य (dharti par rahane wala saurmandal-hindi vyangya)


धरती को जिंदा रखने के लिऐ उसके पास सौरमंडल होना चाहिए, ऐसा वैज्ञानिक कहते हैं। इसका सीधा आशय यह है कि सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति तथा अन्य ग्रहों के रक्षा कवच पर ही धरती और उस पर विचरण करने वाला जीवन टिका रहता है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र तो यह भी मानता है कि इन सब ग्रहों की चाल का मनुष्य के जीवन पर प्रभाव पड़ता है। इधर हमारे मन में यह भी ख्याल आया कि एक सौर मंडल इस धरती पर भी विचरता है जो सामने है पर दिखता नहीं क्योंकि इसके सारे ग्रह इतने पर्दों मे रहते हैं ं कि सभी ग्रह एक दूसरे को देख तक नहीं पाते, अलबत्ता दोनों का एक दूसरे से मिलन नहीं होता क्योंकि उनके परिक्रमा पथ कभी आपस में टकराते नहीं है। राजा और प्रजा दो भागों में बंटे मनुष्य जीवन पर इसका प्रभाव पड़ता है भले ही दोनों को यह दिखाई नहीं देता।
इस सौर मंडल के ग्रह हैं पूंजीपति, बाहूबली, धार्मिक ठेकेदार तथा अपराधियों के गिरोह ओर उनके दलाल। पूंजीपति तो सूरज की तरह है जिनकी रौशनी से सारे सारे छोटे ग्रह चमत्कृत होते हैं। सृष्टि के निर्माण से ही यह गिरोह चलते रहे होंगे पर आजकल कृत्रिम दूरदृष्टि मिल जाने के कारण आम लोगों को भी दिखाई देने लगे हैं-बुद्धिमानों तो इनके प्रभाव का आभास कर लेते हैं पर सामान्य लोगों को शायद ही होता हो।
जब बात पूंजीपतियों की बात चली है तो आजकल अमेरिका नाम का एक धरती पर स्वर्ग है जहां इनकी बस्ती बन गयी है और तय बात है कि वहां का कोई भी राज्यप्रमुख उनके लिये एक तरह से बहुत बड़ा सुरक्षाकवच की तरह काम करता है। हालांकि वह स्वतंत्र दिखता है पर लगता नहीं है। वह अपनी चाल चल रहा है पर लगता है कि उसे चलना भर है बाकी काम तो उसके मातहत ही करते होंगे।
पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के विमान की बात कर लें। विमान का अधिक वर्णन तो हमारे लिये संभव नहीं है क्योंकि अपने खटारा स्कूटर की याद आने लगती है और लिखना बंद हो जाता है। विमान एक तरह से महल होने के साथ अभेद्य किला है। वहां बैठा राष्ट्रपति यात्रा के दौरान ही अपनी सेना और प्रशासन के अधिकारियों से संपर्क कर सकता है-करता होगा इसमें शक ही है क्योंकि अमेरिका की व्यवस्था ऐसी ही दिखती है। कोई आपत्ति आ जाये तो राष्ट्रपति वहां से कोई भी कार्यवाही करने का आदेश दे सकता है-इसकी आवश्यकता पड़ती होगी यह संभावना नगण्य है। कहने का अभिप्राय यह है कि उसमें महल जैसी सारी व्यवस्था है, विमान तो बस नाम है।
भारतीय प्रचार माध्यम अमेरिकी राष्ट्रपति के आगमन पर उसके विमान, पत्नी तथा वक्तव्यों का खूब वर्णन करते हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने ताज होटल पर हुए हमले की निंदा की पर पाकिस्तान का नाम नहीं लिया।
शायद आगे लेंगे जब भारतीय समकक्षों से मिलेंगें।
वह पाकिस्तान नहीं जा रहे, इससे यह संदेश तो मिल ही रहा है कि वह भारत में अपना हित अधिक देखते हैं।
ऐसे बहुत से जुमले हैं जो ओबामा के आने पर तीसरी बार सुने गये। पहले क्लिंटन आये फिर जार्ज बुश, तब भी यही नज़ारा था। तीनों राष्ट्रपति पहले बैंगलौर या मुंबई आये फिर नई दिल्ली। दोनों पाकिस्तान नहीं गये इस पर बहस! संदेश ढूंढने की कोशिश! हमने तीनों को देखा। हम सोचते हैं कि क्या वह इतने विराट व्यक्तित्व के स्वामी है जितना वर्णन किया जाता है या उनका पद ही उनको विराटता प्रदान कर रहा है। दूसरी ही बात सही लगती है।
जार्ज बुश को तो राष्ट्रपति बनने से पहले तक यही नहीं मालुम था कि भारत देश किस दिशा में है, पर बाद में भारत का लोहा मानते हुए दिखाये और बताये गये।
अब ओबामा की चाल ढाल पर नज़र रखी। एक ऐसे इंसानी बुत नज़र आये जिसे विराट व्यक्तित्व का स्वामी बना दिया गया है। कोई कसर नहीं रहे इसलिये उनको शांति का नोबल भी दिया गया। अनेक लोग हैरान हुए थे पर उस समय भी हमने लिखा था कि विश्व का बाज़ार अपना यह बुत चमका रहा है। यह बात अब सत्य लगती है।
उनके साथ 250 पूंजीपतियों का समूह आया है। मुंबई में भारतीय पूंजीपतियों के साथ ही उनका सम्मेलन है। अमेरिका चाहता है कि भारतीय पूंजीपति उनके यहां निवेश करे। इस सम्मेलन को एक मुखिया की तरह ओबामा संबोधित कर चुके हैं। पहले भी राष्ट्रपति ऐसा ही कर चुके हैं। पूंजीपति यानि इस धरती का सूर्य जिससे सभी को जीवन मिलता है। अमेरिका में यह सच होगा पर भारत में आज भी कृषि आधारित व्यवस्था है। अगर यहां कृषि ठप्प हो जाये तो फिर पैसा नहीं मिलने का। भारत का पानी भी अब बाहर बिकने लगा है जो यहां के पूंजीपतियों के पैट्रोल जैसा कीमती हो गया है। कहा जाता है कि भारत में जलस्तर जितना ऊपर है उतना कहीं नहीं है। यह प्रकृति की कृपा है पर अब पानी भी पैट्रोल की तरह दुर्लभ होता जा रहा है। धरती पर स्थित सौर मंडल का भगवान बस, पद पैसा और प्रतिष्ठा कमाना है सो उसे कई बातों से मतलब नहीं है। वह राजा और प्रजा दोनों को अपनी गिरफ्त में रखता है। ऐसे में अब भारत दोहन अभियान शुरु हो गया है लगता है।
आज जार्ज बुश उनके पिता तथा दादा की भी चर्चा हुई। पता लगा कि वह हथियार कंपनियों के मालिक थे इसलिये ही उन्होंने अपने समय में युद्ध का रास्ता अपनाया ताकि माल की खपत हो सके। यह पहली बार पता लगा कि अमेरिका में हथियार बेचने वाली लॉबी इतनी दमदार है। इसका मतलब हमारा यह दावा सही होता जा रहा है कि दुनियां में अब अनेक जगह अब इंसानी बुत सौदागरों के मुखौटे बनकर राजा के पद पर सुशोभित हो रहे हैं।
प्रचार माध्यम कहते हैं कि ओबामा उन सबसे अलग हैं। इसे हम यूं भी मान सकते हैं कि वह हथियार लॉबी से इतर किसी अन्य लॉबी के इंसानी बुत हैं। वैसे वह हथियारों की बिक्री बढ़ाने तो वह भारत यात्रा पर पधार हैं पर साथ ही अन्यत्र क्षेत्रों में वह यहां का सहयोग चाहते हैं। अन्य व्यापारियों ने हथियार व्यापारियों से कहा होगा कि‘भई, कुछ हमारा काम हो जाये, इसलिये इस बार हमारी पंसद का राष्ट्रपति आने दो।’
हथियार लॉबी का काम तो होना ही था सो वह मान गये होंगे। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार ओबामा के प्रतिद्वंद्वी का नाम आखिर तक किसी को पता नहीं चला। आज ओबामा यह कर रहे हैं, आज वहां बोलेंगे, ओबामा के बारे में यह अफवाह फैली-ऐसी बातें भारतीय प्रचार माध्यम ही नहीं इंटरनेट पर भी आती रहीं। न आया तो उनके प्रतिद्वंद्वी का नाम। वैसे ओबामा चेहरे से भले लगे। धरती के सौरमंडल के ग्रहों ने बहुत सोच समझकर उनको चुना। हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है। अगर हम कहें कि उनको क्यों लाये तो यह बात भी तय है कि उनकी जगह कोई दूसरा चेहरा या इंसानी बुत आना था। वह जो भी बोलेंगे अपने सहायकों के इशारे से ही बोलेंगे। कई बार तो लिखा हुआ पढ़ेंगे। इसका मतलब यह है कि उनको एक ऐसे इंसानी बुत की तरह प्रस्तुत किया गया है कि जो समझकर बोलता हो। बाकी तो उनको गुड्डे की तरह खूब चलाया जायेगा। कभी कभी तो लगता है कि उनको भी यही पता न होगा कि उनको अगली बार कौनसी लाईन बोलनी है या अगले कार्यक्रम में आखिर विषय क्या है? अमेरिका का राष्ट्रपति दुनियां का सबसे दबंग आदमी है-ऐसा कहा गया पर हम सोच रहे थे कि वाकई क्या यह सच है?
धरती का सौर मंडल उस पर तथा यहां विचरण करने वाले जीवों पर क्या प्रभाव डालता है हमें नहीं दिखता लगभग उसी तरह ही धरती पर विचरने वाला सौर मंडल किस तरह राजा और प्रजा को चला रहा है यह आम आदमी नहीं जानते। जो जानते हैं वह बता नहीं सकते क्योंकि वह खुद उसका हिस्सा होते हैं।
आखिरी बात यह है कि 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले ताज के अलावा दो अन्य जगह भी हुए थे। जिसमें रेल्वे स्टेशन भी शामिल था जहां आम आदमी अधिक होते हैं। ओबामा ने केवल ताज के शहीदों को ही श्रद्धांजलि दी। आतंकियों को चुनौती देने के लिये ही वह ताज होटल में रुके ऐसा कहा जा रहा है। इससे भी हमें कोई शिकायत नहीं पर धरती के सौरमंडल की प्रतिबद्धता साफ दिखाई दे रही है कि वह कुछ विषयों पर प्रजा के जज़्बातों की परवाह नहीं करता। वह अपने इंसानी बुत को रेल्वे स्टेशन नहीं ले जा सकता क्योंकि सौर मंडल के ग्रहों में इतनी ताकत है कि उनकी परिक्रमा प्रजा की चाल से प्रभावित नहीं होती।

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श्रीगुरुवाणी-दहेज में हरि का नाम मांगे वही श्रेष्ठ पुत्री (hari ka nam mange vah shreshth purti-shri guruvani


‘हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
दहेज प्रथा पर ही प्रहार करते हुए यह भी कहा गया है कि
होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
इसका आशय यह है कि ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे यहां विवाद एक धार्मिक संस्कार माना जाता है मगर जब लोग रिश्ते तय करते हैं तो इस तरह लगता है जैसे कि व्यापार कर रहे हों। धर्म और रीति के नाम पर लड़की की शादी में दान देने की पंरपरा को लोगों ने पुत्र पैदा करने के दाम वसूल करने की नीति में बदल दिया है। भले ही लोग यह दावा करते हों कि हमारी विवाह परंपरा श्रेष्ठ है पर इसके निर्वहन के समय पैसे का खेल खेलने का जो प्रयास होता है वह सीधी धर्म के विरुद्ध लगता है। इस पर श्रीगुरुनानक जी जो अपनी बात कही है वह सचमुच में भारतीय धर्म की परंपरा का प्रतीक है।
दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो मिटने नहीं चाहे कोई भी धर्म हो? समाज कथित रूप से इसी पर इतराता है।
इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने यहां धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं।
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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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