भर्तृहरि महाराज कहते है कि
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दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनष्यति यतिः सङगात्सुतालालनात् विप्रोऽन्ध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात्
ह्यीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्मैत्री चाप्रणयात्सृद्धिरनयात् त्यागपमादाद्धनम्
हिंदी में भावार्थ-कुमित्रता से राजा, विषयासक्ति और कामना योगी, अधिक स्नेह से पुत्र, स्वाध्याय के अभाव से विद्वान, दुष्टों की संगत से सदाचार, मद्यपान से लज्जा, रक्षा के अभाव से कृषि, परदेस में मित्रता, अनैतिक आचरण से ऐश्वर्य, कुपात्र को दान देने वह प्रमाद से धन नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ संक्षिप्त व्याख्या-आशय यह है कि जीवन में मनुष्य जब कोई कर्म करता है तो उसका अच्छा और बुरा परिणाम यथानुसार प्राप्त होता है। कोई मनुष्य ऐसा नहीं है जो हमेशा बुरा काम करे या कोई हमेशा अच्छा काम करे। कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है। अच्छे कर्म से अर्थ और सम्मान की प्राप्ति होती है। ऐसे में अपनी उपलब्ध्यिों से जब आदमी में अहंकार या लापरवाही का भाव पैदा होता है तब अपनी छबि गंवाने लगता है। अतः सदैव अपने कर्म संलिप्त रहते हुए अहंकार रहित जीवन बिताना चाहिये।
अगर हमें अपने कुल, कर्म या कांति से धन और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है तो उसका उपयोग परमार्थ में करना चाहिये न कि अनैतिक आचरण कर उसकी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए लोगों का प्रभावित करने का प्रयास करें। इससे वह जल्दी नष्ट हो जाता है।
यह मानकर चलना चहिये कि हमें मान, सम्मान तथा लोगों का विश्वास प्राप्त हो रहा है वह अच्छे कर्मों की देन है और उनमें निरंतरता बनी रहे उसके लिये कार्य करना चाहिये। अगर अपनी उपलब्धियों से बौखला कर जीवन पथ से हट गये तो फिर वह मान सम्मान और लोगों का विश्वास दूर होने लगता है।
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भारत के किसी भी भाग में जाकर वहां रह रहे किसी ऐसे आदमी से बात करिये जिस पर अपने परिवार के पालन पोषण और रक्षा का जिम्मा है। उससे सवाल करिये कि क्या वह अपने समाज से विपत्ति के समय सहायता की आशा करता है तो उसका जवाब होगा ‘‘नहीं’
उससे पूछिये कि ‘क्या वह अपने समाज के शीर्षस्थ लोगों से कभी किसी प्रकार के सहयोग या रक्षा की आशा करता है? तब भी उसका जवाब होगा ‘नहीं’’।
यह आश्चर्य की बात है कि इस देश में एक भी आदमी अपनी भाषा,धर्म,जाति,और क्षेत्र के नाम पर बने हुए समूहों के प्रति एक सीमित सद्भाव रखता है वह भी भविष्य में किसी प्रकार बच्चों आदि के विवाह के समय। सामान्य आदमी अपने कार्य के सिलसिले में प्रतिदिन अपने से पृथक समूहों और समुदायों के संपर्क में आता है पर उस समय उसका ध्यान केवल अपने काम तक ही सीमित रहता है न तो उसके दिमाग में अपने समूह का ध्यान रहता है न ही दूसरे का। शायद उसे कभी अपने समूहों या समाज याद भी न आये-क्योंकि लोग आपस बातचीत में भी किसी के समूह में रुचि नहंी दिखाते- पर कहीं न कहीं कुछ लोग ऐसे होते हैं जो इन समूहों को नाम लेकर चर्चा करते हैं क्योंकि उनके अपने स्वार्थ होते हैं।
आजकल तो दूसरी स्थिति है कि प्रचार माध्यमों में विभिन्न समूहों और समाजों के आपसी झगड़ों का जमकर प्रचार हो रहा है। अगर न ध्यान हो तो भी आदमी के सामने उनके नाम आ जाते हैं। कितनी मजे की बात है कि जितनी एकता की बात की जाती है उतनी समाजों के बीच विभाजन रेखा बढ़ती जाती है। अब यह समझना कठिन है कि यह विभाजन रेखा कहीं इसलिये तो नहीं बढ़ाई जा रही कि एकता की बात करते रहना चाहिये या वास्तव में एकता की बात इसलिये की जा रही है कि क्योंकि विभाजन रेखा बढ़ रही है।
पिछले एक डेढ़ वर्ष से विभिन्न समाजों, जातियों,भाषाओं,धर्मों और क्षेत्रों के बीच जिस तरह तनाव बढ़ रहा है वह आश्चर्य का विषय है। इधर भारत की प्रगति की चर्चा हो रही है-अभी भारत ने चंद्रयान छोड़ा है और उसके कारण विज्ञान जगत मं उसका रुतबा बढ़ा है-उधर ऐसे विवाद बढ़ते जा रहे हैं। पहले अनेक घटनाओं में विदेशी हाथ होने का संदेह किया जाता था पर अब तो ऐसा लगता है कि इस देश के ही कुछ लोग भी अब सक्रिय है। सबसे बड़ी बात यह है कि अब तो कोई विदेशी हाथ की बात अब कम ही हो रही है अंंदरूनी संघर्ष में कुछ लोग खुलेआम सक्रिय हैं। विदेशी हस्तक्षेप की संभावना को तो अब नकारा भी नहीं जा सकता-क्योंकि भारत के बढ़ती ताकत कई अन्य देशों के लिये ईष्र्या का विषय है।
वैसे तो पूरे विश्व में उथल पुथल है पर भारत में कुछ अधिक ही लग रही है। पहले कहा जाता था कि भारत में जाति,भाषा,धर्म,और क्षेत्रों के नाम बने समूहों के आपसी तनावों की वजह से विकास हीं हो रहा है क्योंकि लोग अपनी अशिक्षा के वजह से इन झगड़ों में फंसे रहते हैं पर अब तो उल्टी ही हालत लग रही है। जिन लोगों को हम अशिक्षित और गंवार कहते हैं वह तो चुप बैठे हैं पर जो पढ़े लिखे हैं वही ऐसे झगड़े का काम रहे हैं। आखिर यह शिक्षा किस काम की?
दरअसल हमारे देश की शिक्षा तो गुलाम पैदा करती है और नौकरी के लिये आदमी इधर से उधर भाग रहे हैं। इतनी नौकरियां हैं नहीं जितनी लोग ढूंढ रहे हैं और इसलिये बेरोजगार युवकों में कुंठा बढ़ रही है और वह उन्हीं समूहों और समाजों के आधार पर चल रहे संघर्षों में शामिल हो जाते हैं जिनसे वह स्वयं नफरत करते हैं।
सच तो यह है कि जाति,भाषा,धर्म,और क्षेत्रों के नाम पर बने समूहों का अस्तित्व शायद अभी तक समाप्त ही हो जाता पर लगता है कि कुछ लोग अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति पर चलते हुए उनको बनाये रखना चाहते हैं। यही कारण है कि वर्तमान युग में अस्तित्व हीन हो चुके समाज और समूह केवल नाम से चल रहे हैं। सभी लोग धन कमाने में लगे हैं-सभी को अपने लिये रोटी के साथ सुख साधन भी चाहिये-किसी को अपने समाज या समूह से कोई मतलब नहीं है पर कुछ लोग ऐसे हैं जो ऐसे द्वंद्वों से लाभ उठाते हैं। यह लाभ सीधे आर्थिक रूप से होता है या धुमाफिराकर यह अलग बात है पर उसी के लिये यह सब कर रहे है। ऐसे में भारत की प्रगति से चिढ़ने वाले अन्य देश भी अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से लाभ दे सकते हैं।
अक्सर विदेशी हाथ में पाकिस्तान का नाम लिया जाता है पर वह तो केवल मुहरा है। अभी तक पश्चिम देश उसकी पीठ पर हाथ रखे हुए थे और अब जिस तरह चीन इस तरफ बढ़ा है वह ध्यान देने योग्य है। ऐसे में देश के बुद्धिजीवी वर्ग को गहनता से विचार करना चाहिये कि देश की स्थिति में जो इस तरह के उतार-चढ़ाव हैं उसकी वजह क्या है? जबकि हो रहा है उसका उल्टा! सभी बुद्धिजीवी हमेशा की तरह अपने पक्षों की बात ही आंखें बंद कर रख रहे हैं। गहन चिंतन और मनन का अभाव है। वह अपने आसपास चल रही घटनाओं को अनदेखा करते हैं जबकि उनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे देश की स्थिति पर प्रभाव पड़ता है। अगर देश के अंदरूनी विषयों पर ही विचार करते हुए वादविवाद करते रहेंगे और बाहरी घटनाओं का अध्ययन नहीं करेंगे तो शायद तब सच ढूंढना कठिन होगा कि आखिर क्या कोई अन्य देश हैं जो हमारे देश को अस्थिर करना चाहते हैं। इसलिये बुद्धिजीवी वर्ग को देश में एकता और सद्भाव बनाये रखने के लिये काम करना चाहिये। शेष अगले अंक में।
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