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योग बाबा की संपत्ति में कितने शून्य-हास्य व्यंग्य (yoga baba ki sampatti mein kitne shoonya-hasya vyangya)


दीपक बापू को गंजू उस्ताद का इस तरह सुबह सुबह मिलना अपशकुन जैसा लगता है, पर अपनी हास्य कविताई के लिये विषय मिलने का मोह उनको अपनी राह बदलने या उससे मुंह फेरने की अनुमति नहीं देता। गंजू उस्ताद सामने से आ रहा था और दीपक बापू भी सड़क पर उसी दिशा में बढ़ रहे थे। पास आते ही गंजू उस्ताद ने दीपक बापू से बिना किसी औपचारिकता के कहा-‘‘कहां जा रहे हो?’’
दीपक बापू ने कहा-‘‘जरा, उस पान वाले को बीड़ी के पैसे देने जा रहा हूं। कल उससे खरीदी पर खुले पैसे नहीं थे तो उसने उधार ही दे दिया। कह दिया कल सुबह दस बजे तक पैसे पहुंचाने स्वयं आ जाना नहीं तो मेरा लड़का घर पर तकादा करने आ जायेगा।’’
गंजू उस्ताद ने कहा-‘‘उसे छोड़ो। चलो मेरे साथ, ज्ञानीजी से तुम्हारा शास्त्रार्थ करवाना है। वह उधर पेड़ के नीचे बैठे अपना ज्ञान बघार रहे हैं। पान वाला तुमसे बाद में पैसे ले लेगा।’’
दीपक बापू बोले-‘‘पगला गये हो! इतने बड़े ज्ञानी से भला हम क्या शास्त्रार्थ करेंगे? कभी कोई शास्त्र नहीं पढ़ा। ताउम्र हास्य कविताई करते गुजारी, उसमें भी फ्लाप रहे। पहले हम अपना उधार चुकाकर अपनी पड़ौस में अपनी इज्जतदार होने की छवि बचा लें फिर सोचेंगे। कहंी उसका लड़का घर पहुंचा और पड़ौसियों को पता लगा कि हम उधार लेकर बीड़ी पीते हैं तो कितनी हमारे मान सम्मान का जनाजा निकल जायेगा।’’
गंजू उस्ताद ने कहा-‘‘तुम चिंता मत करो। ज्ञानी जी तो अभी इसी रास्ते में बैठे हैं उनको दो तीन मिनट हास्य कविता सुनाकर चले जाना।’’
दीपक बापू ने कहा-‘‘कमबख्त, कवि समझ रखा है या क्लर्क कि चाहे जब कुछ भी लिखने लगो। वैसे तुम वहां चलो जहां ज्ञानी जी विराजमान हैं। पहले पता तो चले कि वह क्या कह रहे हैं।’’
गंजू उस्ताद कहने लगा कि ‘‘वह अपने देश के महान योग बाबा की मज़ाक उड़ा रहे हैं। कह रहे है कि ‘काहेके के बाबा ओर कैसी उनकी शिक्षा, वह तो बारह सौ करोड़ कमाकर सेठ जैसे हो चुके हैं’।’’
दीपक बापू बोले‘‘यह तुम हमें कहां फंसाने चले। भला इस प्रसंग में हमारी समझ कितनी है। हमसे महंगाई, भ्रष्टाचार, शादी, गमी, गमी, सर्दी और बरसात पर हास्य कवितायें लिखवा लो मगर इस तरह बारह सौ करोड़ रुपये पर हम क्या लिखेंगे? यही पता नहीं कि 12 के बाद उसमें कितने सौ के शून्य लिखने होंगे? तुम चाहे तो योग पर ही कुछ लिखवा लो जिसके बारे में हमें भले नहंी पता पर उस लिखा जा सकता है। सभी लोग लिख रहे हैं।’’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘नहीं, यह राष्ट्रीय स्वाभिमान का विषय है? ज्ञानी जो ललकारना है।
दोनों बातचीत करते हुए वहीं आये जहां ज्ञानी जी पेड़ के नीचे अपने चेलों के साथ बैठे थे। गंजू उस्ताद को देखते ही वह बोले-‘‘फिर तू आ गया बहस करने! तेरे योग बाबा पर हमने तेरे से जो कहा वह समझ में नहीं आया जो इस फटीचर हास्य कविता को हमारे सामने लाया है।’’
दीपक बापू बोले-‘‘महाराज, आप कैसी बात करते हो। हम तो किराने वाले को पैसे देने जा रहे थे। यह बोला कि ‘चलो ज्ञानी से मिलवाता चलूं‘, भला हमारी क्या औकात कि आपके साथ बहस करें।’’
ज्ञानी जी बोले-‘‘अच्छा, हमसे तू झूठ बोल रहा है। तू उस पान वाले को बीड़ी के पैसे देने जा रहा है जिससे कल उधार करवाकर कर गया था। उसने तुम्हें धमकी दी कि सुबह दस बजे तक पैसे भिजवा देना वरना अपना आदमी घर भेज दूंगा। अरे, अपने चेले चारों तरफ फैले हैं, सबकी खबर मिल जाती है।’’
दीपक बापू ने देखा कि उनका वहां विराजमान एक चेला कल उसी दुकान पर खड़ा होकर पान खा रहा था, जिसने शायद अब उनको आते देखकर यह बात अपने ज्ञानी गुरु को बता दी थी।
दीपक बापू ने कहा-‘’महाराज, आपके चेले ने यह नहीं बताया कि हमारे पास पांच सौ का नोट था, इसलिये यह उधार लिया। बहरहाल आपके सूचना संगठन की शक्ति बहुत प्रशंसनीय है भले ही उसमें दो टके की खबरों का आदान प्रदान होता है।’’
ज्ञानी महाराज बोले-‘‘दो टके के लोग मिलते हैं तो उनको अपनी औकात के अनुसार ही खबर देनी पड़ती है। अगर बाहर सौ करोड़ की हो तो वह भी बड़े लोगों के साथ चर्चा में काम आती है।’’
गंजू उस्ताद ने दीपक बापू को कोहनी मारी और कहा-‘‘देखा दीपक बापू! सुबह से योग बाबा के बारह सौ करोड़ की संपत्ति की बात उनके दिमाग में भरी पड़ी है। जरा, सुनाओ इनको हास्य कविता!’’
ज्ञानी जी बोले-‘‘अरे, इनकी औकात नहीं है जो बारह सौ करोड़ रुपये पर हास्य कविता लिखें। यह तो पांच दस रुपये पर लिख सकते हैं। तुम्हारे योग बाबा जिनको तुम भगवान मानते हो बारह सौ रुपये करोड़ की संपत्ति बना चुका है। वह धंधेबाज है!’’
दीपक बापू थोड़ा चौंकते हुए बोले-‘‘महाराज योग में भगवान! कैसी बात कर रहे हैं आजकल तो भगवान क्रिकेट में होते हैं।‘’
ज्ञानी जी गंजू उस्ताद की तरफ देखकर बोले-‘‘देख ली हास्य कवि की समझ! जैसे टीवी वालों न रटाया वैसा ही रट लिया। क्रिकेट में इसे भगवान नज़र आते हैं और योग में नहीं!’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘हां, आप भी तो कह रहे हैं कि योग बाबा भगवान नहीं हैं। कभी यह नहीं कहा कि क्रिकेट में भगवान नहीं हो सकते।’
ज्ञानी जी बोले-‘‘अबे चुप! ऐसी बात हम नहीं कह सकते जिससे हमारा हुक्कापानी बंद हो जाये। तेरे इस हास्य कवि की तरह हम भी फ्लाप होकर घर बैठ जायें। अबे दीपक बापू तू निकल यहां से! वरना मेरे चेलों को गुस्सा आ जायेगा।’’
गंजू उस्ताद बोले-‘‘इन पर आप अपना रौब न दिखाओ। इनकी कोई गलती नहीं है हम ही लाये थे इनको आपसे शास्त्रार्थ कराने। वह योग बाबा पर आपकी बात हमें पसंद नहीं आयी।’’
ज्ञानी जी बोले-‘‘तो इससे बाबा की बारह सौ करोड़ की संपत्ति पर एक हास्य कविता लिखा तो जाने! उसके काले धन पर यह क्या सोचता है हम भी तो सुने।’’
दीपक बापू बोले-‘‘बाबा के पास केवल बारह सौ करोड़ की संपत्ति है, बस! बहुत कम है! हम तो सोचते थे कि दो चार लाख करोड़ की संपत्ति होगी। उनका नाम फोर्ब्स पत्रिका में शायद इसलिये ही नहीं आता क्योंकि उसके हिसाब से बहुत कम है।
ज्ञानी जी दीपक बापू को घूरकर बोले-‘‘अच्छा! पांच रुपये की बीड़ी पंद्रह दिन चलाने वाले को बारह सौ करोड़ रुपये कम नज़र आ रहे हैं? क्या बात है! घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने! अरे हास्य कवि, पहले यह बता कि लाख में कितने शून्य आते हैं। जवाब दे तब पूछेंगे इससे कठिन सवाल कि करोड़ में कितने अंक होते हैं।
दीपक बापू बोले-‘‘महाराज कहा जाता है कि जब अपनी औकात देखनी है तो नीचे देखो कि कितने लोग हैं तब मन को शांति मिलेगी। उसमें हमने यह भी जोड़ा है कि अगर ऊपर के आदमी को देखना है तो फिर उससे ऊपर भी देखना चाहिये कि उससे आगे कितने हैं तब दूसरे के प्रति ईर्ष्या कम होगी। इधर हमारा गणित गरीब हो गया है। इधर टीवी पर अनेक ऐसे समाचार आते हैं जिसमें कभी दो हजार करोड़ तो कभी पांच हजार करोड़ की चर्चा भी होती है। अमुक ने अमुक चीज इधर17 करोड़ में खरीदी और उसे पांच हजार करोड़ में उधर बेची। इसका मतलब यह है कि लाखों करोड़ वाले लोग हो गये हैं। यह बारह सौ करोड़ हमें कम लगती है तो अच्छा ही है क्योंकि तब किसी से ईर्ष्या नहंी होती।’’
ज्ञानी जी को अपना ज्ञान अब गणित से पिटता नजर आ रहा था। वह बोले-‘अरे यार तुम्हारा राजनीतिक दृष्टिकोण शून्य है। अब तुम जाओ, हमारा समय खराब न करो।’’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘पहले यह बताओ दोनों में से कौन जीता! यह लाखोंकरोड़ रुपये की बात हमारी समझ में नहीं आयेगी। इसलिये तो टीवी देखना ही बंद कर दिया है।’
दीपक बापू उस पर गुस्सा दिखाते हुए बोले-‘चल मूर्ख कहीं के! ज्ञानी जी की मजाक बनाता है, भला इनसे कौन जीत सकता है।’
गंजू उस्ताद और दीपक बापू वहां से चल दिये। थोड़ा आगे चलकर गंजू उस्ताद बोला-‘यार, दीपक बापू हमें यह तो बताओ कि करोड़ में कितने अंक होते हैं।’
दीपक बापू बोले-‘चल मूर्ख कहीं के! हमें क्या पता! अच्छा हुआ अपनी पोल खुलने से बच गयी। चल तो पान वाले को बीड़ी के पांच सौ करोड़ रुपये दे आते हैं।’
गंजू उस्ताद एक चौंक गया-‘‘कितने दीपक बापू!’
दीपक बापू बोले-‘अरे, यह ज्ञानी जी वजह से हमारा दिमागी संतुलन बिगड़ गया और बहुत सारी बिंदियां दिमाग में आ गयी इसलिये पांच रुपये को…………कितना बोला था! पता नहीं कितनी बिंदियां दिमाग में आ गयीं।’

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नोट-‘यह हास्य व्यंग्य काल्पनिक है तथा किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई लेना देना नहीं है। किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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किसान आंदोलन का प्रचार दिग्भ्रमित करने वाला-हिन्दी लेख (kisan andolan ka prachar-hindi lekh)


देश में चल रहे विभिन्न किसान आंदोलनों को लेकर टीवी समाचार चैनलों और समाचार पत्रों में आ रहे समाचार तथा चर्चायें दिग्भ्रमित करती हैं। समाचारों का अवलोकन करें तो संपादकीयों तथा चर्चाओं का उनसे कोई तारतम्य नहीं बैठता। सिद्धांतों और आदर्शों की बात करते हैं पर उनका मुद्दे से कोई संबंध नहीं दिखता। अगर गरीब किसानों को उनकी जमीन का सही मूल्य दिलाने की बात हो रही है तो फिर कृषि योग्य भूमि का महत्व किसलिये बखान किया जा रहा है? अगर पूरी बात को समझें तो लगता है कि ऐसे किसानों को भी आगे लाकर समूह में जुटाने का प्रयास किया जा रहा है जो जमीन बेचने को इच्छुक नहीं हैं और बेचने के इच्छुक लोगों के साथ मिलाकर बाद में वह स्वेच्छा से इसके लिये तैयार हो जायेंगे। कहीं यह आंदोलन इसलिये तो नहीं हो रहा कि बिखरे किसानों को एक मंच पर लाया जाये ताकि जमीन का कोई टुकड़ा बिकने से न रह जाये।
समाचार कहते हैं कि ‘किसान जमीन का उचित मूल्य न मिलने से नाराज हैं।’ मतलब वह जमीन बेचने के लिये तैयार हैं। अगर उनका आंदोलन उचित मुआवजे के लिये है तो उसमें कोई बुराई नहीं है। दूसरी बात यह भी कि किसी ने जबरन जमीन अधिग्रहण का आरोप नहीं लगाया है। पुराने कानून को बदलने की मांग हुई है पर पता नहीं उसका क्या उद्देश्य है? केवल दिल्ली ही नहीं कहीं भी किसानों का आंदोलन जमीन बचाने के लिये होता नहीं दिख रहा, अलबत्ता उचित मुआवजे की बात अखबारों में पढ़ने को मिली है। इधर चर्चाओं को देखें तो उसमें जमीन को मां बताते हुए उसे निजी औद्योगिक तथा व्यापारिक क्षेत्र को न बेचने की बात हो रही है। बताया जा रहा है कि निजी क्षेत्र केवल उपजाऊ क्षेत्र में ही अपनी आंखें गढ़ाये हुए हैं। आदि आदि।
अब सवाल यह है कि किसान आंदोलन पर चर्चायें उनकी मांगों के न्यायोचित होने पर हो रही हैं या जमीन के महत्व के प्रतिपादन पर! किसान अपनी ज़मीन बेचने के लिए तैयार हैं पर उनको उचित मुआवजा चाहिए तब जमीन को मां बताकर उनको क्या समझाया जा रहा है? आंदोलन से जुड़े कुछ लोग जमीन को लेकर इस तरह हल्ला मचा रहे हैं कि जैसे वह उसे बिकने से बचाने वाले हैं जबकि सच यह है वह उचित मूल्य की बात करते हैं।
हम यहां आंदोलन के औचित्य या अनौचित्य की चर्चा नहीं कर रहे न ही देश में कम होती जा रही कृषि तथा वन्य भूमि से भविष्य में उत्पन्न होने वाले संकटों पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं क्योंकि यह विषय आंदोलन और उसकी पृष्ठभूमि पर होने के साथ ही प्रचार माध्यमों के बौद्धिक ज्ञान पर भी है। अब यह अज्ञानता अध्ययन और चिंतन के अभाव में है या प्रयोजन के कारण ऐसा किया जा रहा है यह अलग विषय है।
जहां जमीनें हैं वहां हजारों किसान हैं जिनमें एक तो वह हैं जो मालिक है तो दूसरे वह भी जो कि कामगार हैं। शहरों में अनेक ऐसे लोग रहते है जो अपनी ज़मीन बंटाई पर देकर आते हैं और हर फसल में अपना हिस्सा उनको पहुंचता है। उनको अगर जमीन की एक मुश्त राशि अच्छी खासी मिल जाये तो वह प्रसन्न हो जायेंगे मगर कामगार के लिये तो सिवाय बेकारी के कुछ नहीं आने वाला। संभव है अनेक कामगार यह न जानते हों और ज़मीन बचाने की चर्चा के बीच वह भी भीड़ में शामिल हो गये हों। फिर कुछ किसान ऐसे भी हो सकते हैं जो अपनी तात्कालिक जरूरतों के लिये एक मुश्त रकम देकर खुश हो रहे हों और वह अगर बढ़ जाये तो कहना ही क्या? ऐसे किसान कोई भारी व्यापार नहीं करेंगे बल्कि अपने घरेलू कार्यक्रमों में-शादी तथा गमी की परंपराओं में हमारे देश के नागरिक अपनी ताकत से अधिक खर्च कर देते है-ही खर्च कर देंगे और फिर क्या करेंगे यह तो उनकी किस्मत ही जानती है। संभव है कुछ किसान ऐसे समझदार हों और वह एक ही दिन में मुर्गी के सारे अंडे निकालने की बजाय रोजाना खाना पंसद करते हों। देश में अज्ञान और ज्ञान की स्थिति है उससे देखकर यह तो लगता है कि कुछ लोग इस आंदोलन को ज़मीन बचाने का आंदोलन समझ रहे हैं जो कि वास्तव में प्रतीत नहीं होता क्योंकि उचित मुआबजा कोई इसके लिये नहीं हो सकता।
जहां तक कृषि व्यवसाय से लाभ का प्रश्न है तो सभी जानते हैं कि छोटे किसानों को खेती करने से इतना लाभ नहीं होता बल्कि उनको अपना पेट पालने के लिये उससे जुड़े व्यवसाय भी करने होते हैं जिनमें पशुपालन भी है। अकेले कृषि के दम पर अमीर बनने का ख्वाब कोई भी नहीं देखता यह अलग बात है कि आयकर से बचने के लिये अनेक अमीर इसकी आड़ लेते हैं। कृषि में आय से स्थिर रहती है और वृद्धि न होने की दशा में किसान कर्ज लेता है। यह कर्ज अधिकतर शादी और गमी जैसे कार्यक्रमों पर ही खर्च करता है। देश की सामाजिक स्थिति यह है कि घर बनाने, शादी और गमी में तेरहवीं में अच्छा खर्च करना सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय माना जाता है। रूढ़िवादिता में होने वाला अपव्यय आदमी करने से बाज़ नहंी आता क्योंकि वह गरीब होकर भी गरीब नहीं दिखना चाहता-अलबत्ता कहीं से कुछ मिलने वाला हो तो अपना नाम गरीबों की सूची में लिखा देगा।
ऐसे में एकमुश्त राशि सभी को आकर्षित कर रही है पर वह बढ़ जाये तो बुराई क्या है? जिनको जमीन से सीधे पैसा मिलना है वह तो इसमें शामिल हो गये पर उनके साथ ऐसे कामगार भी आ गये होंगे जो वहां काम करते हैं। अगर प्रचार माध्यमों में यह ज़मीन बचाने की मुहिम का प्रचार न होता तो प्रदर्शनकारियो की संख्या कम ही होती। फिर देश के अन्य भागों से सहानूभूति भी शायद नहीं मिल पाती। शायद इसलिये ही ‘ज़मीन बचाने’ वाला नारा इसमें शामिल होते दिखाया गया जबकि है नहीं।
अलबत्ता ऐसे किसान जो किसी भी कीमत में ज़मीन नहीं बेचना चाहते वह आंदोलन की छत्रछाया में आ गये हैं और अब उनको किसी किसी तरह आगे भी मुआवजा लेकर ज़मीन छोड़नी होगी। संभव कुछ मूल्य बढ़ जाये पर शायद इसे कम ही इसलिये रखा गया है कि कोई ऐसा आंदोलन चलवाया जाये जिससे सब किसान एक ही छत के नीचे आ जायें। जमीन मां है यह सच है। कृषि योग्य जमीन का कम होना अच्छी बात नहीं है पर मुआबजे के खेल में उसकी चर्चा करना व्यर्थ है। याद रहे यह लेख टीवी चैनलों और समाचार पत्रों के आधार पर लिखा गया है इसलिये हो सकता है सब वैसा न हो पर यह बात उनको साबित भी करनी होगी। अलबत्ता इस विचार से अलग भिन्नता ही सहृदयजनों को हो सकती है पर अंततः एक आम लेखक के पास अधिक स्त्रोत और समय नहीं होता कि वह व्यापक रूप से अन्वेषण कर सके।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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स्वर्ग एक ख्याल है-हिन्दी शायरी


स्वर्ग की परियां किसने देखी

स्वयं जाकर

बस एक पुराना ख्याल है।

धरती पर जो मिल सकते हैं,

तमाम तरह के सामान

ऊपर और चमकदार होंगे

यह भी एक पुराना ख्याल है।

मिल भी जायें तो

क्या सुगंध का मजा लेने के लिये

नाक भी होगी,

मधुर स्वर सुनने के लिये

क्या यह कान भी होंगे,

सोना, चांदी या हीरे को

छूने के लिये हाथ भी होंगे,

परियों को देखने के लिये

क्या यह आंख  भी होगी,

ये भी  जरूरी  सवाल है।

धरती से कोई चीज साथ नहीं जाती

यह भी सच है

फिर स्वर्ग के मजे लेने के लिये

कौनसा सामान साथ होगा

यह किसी ने नहीं बताया

इसलिये लगता है स्वर्ग और परियां

बस एक ख्याल है।


कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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हिन्दू धर्म संदेश-बड़ा वही है जो गरीब पर कृपा करे (garib par kripa karen-hindu dharm sandesh)


जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग

कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।

जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।वैसे भी बड़े तथा अमीर लोगों को अपने छोटे और गरीब पर दया के लिये काम करते रहना चाहिये क्योंकि इससे समाज में समरसता का भाव बना रहता है। जब तक समाज का धनी तबका गरीब पर दया नहीं करेगा तब तक आपसी वैमनस्य कभी ख़त्म नहीं हो सकता है।


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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फरिश्ते होने का अहसास जताते-व्यंग्य कविता


किताबों में लिखे शब्द
कभी दुनियां नहीं चलाते।
इंसानी आदतें चलती
अपने जज़्बातों के साथ
कभी रोना कभी हंसना
कभी उसमें बहना
कोई फरिश्ते आकर नहीं बताते।

ओ किताब हाथ में थमाकर
लोगों को बहलाने वालों!
शब्द दुनियां को सजाते हैं
पर खुद कुछ नहीं बनाते
कभी खुशी और कभी गम
कभी हंसी तो कभी गुस्सा आता
यह कोई करना नहीं सिखाता
मत फैलाओं अपनी किताबों में
लिखे शब्दों से जमाना सुधारने का वहम
किताबों की कीमत से मतलब हैं तुम्हें
उनके अर्थ जानते हो तुम भी कम
शब्द समर्थ हैं खुद
ढूंढ लेते हैं अपने पढ़ने वालों को
गूंगे, बहरे और लाचारा नहीं है
जो तुम उनका बोझा उठाकर
अपने फरिश्ते होने का अहसास जताते।।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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परीक्षा परिणाम-हास्य व्यंग्य कविता


उतरा मूंह लेकर फंदेबाज
घर आया और बोला-
‘दीपक बापू,
बड़ा बुरा दिन आया
हाईस्कूल के इम्तहान में
मोहल्ले के बच्चों ने डुबाया नाम
होकर बुरी तरह फेल
आदर्श मोहल्ला बनाने का हमारा इरादा था
पर बिगड़ गया सारा खेल।‘
उसकी बात सुनकर
आंखों और नाक पर लटके चश्में के बीच से
झांकते हुए बोले दीपक बापू
‘’तुम कभी अच्छी खबर भी कहां लाते हो
दर्द उभार कर कविता लिखवाते हो
मगर खैरियत है तुम यहां आये
इम्तहान के परिणाम से दुःखी मोहल्ले वालों ने
नहीं की होगी पाश्च् समीक्षा
इसलिये ही यहाँ पहुंच पाये
वरना तुम भी क्या कम हो
मोहल्ले का पीछा नहीं छोड़ते
हमारी नज़र में तुम वह गम हो
बीस ओवरीय प्रतियोगिता में
देश क्या जीता
बाजार के साथ तुम्हारे हाथ लग गया
जैसे जनता को बहलाने वाला एक पपीता
बच्चों को क्रिकेटर बनने का सपने दिखाने लगे
स्कूल में पढ़ते क्या बच्चे
उनके नाम क्रिकेट कोच के पास लिखाने लगे
एक दिन की बात होती तो समझ में आती
डूबते क्रिकेट में एक छोटे कप की जीत से
फट गयी पूरे देश की छाती
किकेट मैच होता था कभी सर्दियों में
अब तो होने लगा गर्मियों में
कुछ बच्चे खेलते हैं
तो कुछ अपने पैसे का दांव भी पेलते हैं
फिर भारतीय आदर्श प्रतियोगता का
प्रचार माध्यमों में प्रचार
इधर रीयल्टी शो की भरमार
लाफ्टर शो में बेकार की मजाक
समझ कोई नहीं रहा पर सब रहें हैं ताक
तुम भी तो अपने बच्चों को
आदर्श मोहल्ला बनाने के नाम पर
क्रिकेट, संगीत, और नृत्य सीखने के लिये
संदेश दिया करते थे
कहीं जाकर इनाम जीतें
इसलिये रोज उनका प्रगति प्रतिवेदन लिया करते थे
जब बच्चों के पढ़ने की उम्र है
तब उन पर टिका रहे हो
उनके माता पिता और पड़ौसी होने के प्रचार का
कभी पूरा न हो सकने वाला खेल
बिचारे, कैसे न होते फेल।
गनीमत है जिन छोटे शहरों को
अभी बेकार के खेलों की हवा नहीं लगी है
वहीं शिक्षा की उम्मीद बची है
वहीं परिणामों का प्रतिशत अच्छा रहा है
क्योंकि वहां के बच्चों ने आधुनिकता से
परे रहने की कमी को सहा है
पास होकर निकल पड़े तो
ऐसे खेल और खिलाड़ी उनके पीछे आयेंगे
समय के साथ वह भी मजे उठायेंगे
हमारा संदेश तो यही है कि
हर काम और कामयाबी का अपना समय होता है
जिंदगी में बिना सोचे समझे
चल पड़ने से आती है हाथ नाकामी
सेवा करते हुए ही बनता कोई स्वामी
समय से पहले मजे उठाने के लिये
जो खेलते हैं खेल
वही होते हैं हर इम्तहान में फेल।’’

————————
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गुलामी जैसी आज़ादी-व्यंग्य कविता


नजरें फेरकर वह चले जाते हैं।
देखने में लगते हैं हमसे बेपरवाह
पर हकीकत यह है कि
हमारी आंखों में उनको अपने
पुराने सच दिखते नजर आते है।
हम तो भूल चुके उनके पुराने कारनामे
पर उनकी नजरें फेरने से
फिर वही यादों मे तैर जाते हैं।।
…………………………
कुछ हकीकतें बयां करने में
कलम कांप जाती है
इरादा यह नहीं होता कि
किसी कि दुःखती रग सभी को दिखायें
जरूरत पड़ी तो उनका नाम भी छिपायें
पर खौफ जमाने का जिसकी
रिवाजों पर उठ सकती है उंगली
कही लोग भड़क न जायें
कायदों में बंधी आजादी
तब गुलामी से बुरी नज़र आती है।
………………………..

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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चाणक्य नीतिः महल पर बैठने से कौआ गरुड़ नहीं हो जाता।


न निर्मितः केन न दृष्टपूर्वः न श्रूयते हेममयः कुरंगः।
तथापि तृष्णा रघुनंदनस्य विनाशकाले विपरीत बुद्धि।।

हिंदी में भावार्थ- न तो किसी ने पहले ही सोने का मृग बनाया न ही किसी ने सुना तब भी भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुष के मन में उसे पाने की इच्छा हुई। सही कहते हैं कि विनाशकाल में बुद्धि विपरीत हो जाती है।
गुणैरुत्तमतां याति नोच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडावते।।
हिंदी में भावार्थ-
गुण की वजह से कोई ऊंचा कहलाता है न कि उच्च स्थान पर विराजमान होने से ही सम्मान पाया जा सकताहै। महल के शिखर पर बैठने से कौआ गरुड़ नहीं हो जाता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-उच्च पद, धन या बाहूबल से संपन्न व्यक्तियों से समाज का बहुत बड़ा वर्ग डरता है। इसी कारण लोग उनके सामने होने पर उनकी झूठी प्रशंसा जरूर करते हैं पर इससे उनको बड़ा आदमी नहीं मान लेना चाहिये। जब तक बड़े आदमी में छोटे के प्रति उदारता और सम्मान का भाव नहीं है उसका समाज के लिये केाई महत्व नहीं है किसी आदमी में दया, दान, उदारता और दूसरों की सहायता के लिये तत्पर रहने का गुण नहीं है तब तक वह अपने आपको कितना भी बड़ा समझे पर यह उसका वहम हैं। सच बात ेतो यह है कि जो अपने गुण से सभी प्रकार के लोगों का हृदय प्रसन्न कर देता है वही गुणवान बड़ा आदमी है। उच्च पद, पैसा और प्रतिष्ठा दांव पैंच से अर्जित किये जा सकते हैं पर समाज का हृदय केवल अपने गुणों से ही जीता जा सकता है।

मन की तृष्णा मनुष्य को इधर से उधर नचाती है-इसलिये वह असंभव से चीजों को अपना लक्ष्य बना लेता है। मन की तृष्ण का यह हाल है कि सामान्य इंसान की बात तो छोड़िये भगवान श्रीराम जैसे गुणी भी उस स्वर्णमय हिरन के पीछे दौड़ पड़े जो पहले कभी नहीं बना न सुना गया। तृष्णा ने उनको भ्रम में डाल दिया।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

व्यंग्य सामग्री के लिये संस्कृति की आड़ की क्या जरूरत-आलेख


यह कोई आग्रह नहीं है यह कोई चेतावनी भी नहीं है। यह कोई फतवा भी नहीं है और न ही यह अपने विचार को किसी पर लादने का प्रयास है। यह एक सामान्य चर्चा है और इसे पढ़कर इतना चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। हां, अगर मस्तिष्क में अगर चिंतन के तंतु हों तो उनको सक्रिय किया जा सकता है। किसी भी लेखक को किसी धर्म से प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिये पर उसे इस कारण यह छूट भी नहीं लेना चाहिये कि वह अपने ही धार्मिक पुस्तकों या प्रतीकों की आड़ में व्यंग्य सामग्री (गद्य,पद्य और रेखाचित्र) की रचना कर वाह वाही लूटने का विचार करे।
यह विचित्र बात है कि जो लोग अपनी संस्कृति और संस्कार से प्रतिबद्धता जताते हैंे वही ऐसी व्यंग्य सामग्रियों के साथ संबद्ध(अंतर्जाल पर लेखक और टिप्पणीकार के रूप में) हो जाते हैं जो उनके धार्मिक प्रतीकों के केंद्र बिंदु में होती है।
यह लेखक योगसाधक होने के साथ श्रीगीता का अध्ययनकर्ता भी है-इसका आशय कोई सिद्ध होना नहीं है। श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण की आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर हमें कोई पीड़ा नहीं हुई न मन विचलित हुआ। अगर अपनी इष्ट पुस्तक और देवता के आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर परेशानी नहीं हुई तो उसका श्रेय भी उनके संदेशों की प्रेरणा को ही जाता है।
यह कोई आक्षेप नहीं है। हम यहां यह चर्चा इसलिये कर रहे हैं कि कम से कम अंतर्जाल पर सक्रिय लेखक इससे बाहर चल रही पुरानी परंपरागत शैली से हटकर नहीं लिखेंगे तो यहां उनकी कोई पूछ परख नहीं होने वाली है। अंतर्जाल से पूर्व के लेखकों ने यही किया और प्रसिद्धि भी बहुत पायी पर आज भी उन्हें इस बात के लिये फिक्रमंद देखा जा सकता है कि वह कहीं गुमनामी के अंधेरे में न खो जायें।
स्वतंत्रता से पूर्व ही भारत के हिंदी लेखकों का एक वर्ग सक्रिय हो गया था जो भारतीय अध्यात्म की पुस्तकों को पढ़ न पाने के कारण उसमें स्थित संदेशों को नहीं समझ पाया इसलिये उसने विदेशों से विचारधारायें उधार ली और यह साबित करने का प्रयास किया कि वह आधुनिक भारत बनाना चाहते हैं। उन्होंने अपने को विकासवादी कहा तो उनके सामने खड़े हुए परंपरावादियों ने अपना मोर्चा जमाया यह कहकर कि वह अपनी संस्कृति और संस्कारों के पोषक हैं। यह लोग भी कर्मकांडों से आगे का ज्ञान नहीं जानते थे। बहरहाल इन्हीं दो वर्गों में प्रतिबद्ध ढंग से लिखकर ही लोगों ने नाम कमाया बाकी तो संघर्ष करते रहे। अब अंतर्जाल पर यह अवसर मिला है कि विचाराधाराओं से हटकर लिखें और अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचायें।
पर यह क्या? अगर विदेशी विचाराधाराओं के प्रवर्तक लेखक भगवान श्रीकृष्ण या श्रीगीता की आड़ में व्यंग्य लिखें तो समझा जा सकता है और उस पर उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है। निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया और ज्ञान-विज्ञान में अभिरुचि रखने का संदेश देने वाली श्रीगीता का नितांत श्रद्धापूर्वक अध्ययन किया जाये तो वह इतना दृढ़ बना देती है कि आप उसकी मजाक उड़ाने पर भी विचलित नहीं होंगे बल्कि ऐसा करने वाले पर तरस खायेंगे।
अगर श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण में विश्वास करने वाले होते तो कोई बात नहीं पर ऐसा करने वाले कुछ लेखक विकासवादी विचाराधारा के नहीं लगे इसलिये यह लिखना पड़ रहा है कि अगर ऐसे ही व्यंग्य कोई अन्य व्यक्ति करता तो क्या वह सहन कर जाते? नहीं! तब वह यही कहते कि हमारे प्रतीकों का मजाक उड़ाकर हमारा अपमान किया जा रहा है। यकीनन श्रीगीता में उनकी श्रद्धा होगी और कुछ सुना होगा तो कुछ ज्ञान भी होगा मगर उसे धारण किया कि पता नहीं। श्रीगीता का ज्ञान धारण करने वाला कभी उत्तेजित नहीं होता और न ही कभी अपनी साहित्य रचनाओं के लिये उनकी आड़ लेता है।
सच बात तो यह है कि पिछले कुछ दिनों से योगसाधना और श्रीगीता की आड़ लेकर अनेक जगह व्यंग्य सामग्री देखने,पढ़ने और सुनने को मिल रही है। एक पत्रिका में तो योगसाधना को लेकर ऐसा व्यंग्य किया गया था जिसमें केवल आशंकायें ही अधिक थी। ऐसी रचनायें देखकर तो यही कहा जा सकता है कि योगसाधना और व्यंग्य पर वही लोग लिख रहे हैं जिन्होंने स्वयं न तो अध्ययन किया है और न उसे समझा है। टीवी पर अनेक दृश्यों में योगसाधना पर व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति देखकर इस बात का आभास तो हो गया है कि यहां गंभीर लेखन की मांग नहीं बल्कि चाटुकारिता की चाहत है। लोगों को योग साधना करते हुए हादसे में हुई एक दो मौत की चर्चा करना तो याद रहता है पर अस्पतालों में रोज सैंकड़ों लोग इलाज के दौरान मरते हैं उसकी याद नहीं आती।
देह को स्वस्थ रखने के लिये योगसाधना करना आवश्यक है पर जीवन शांति और प्रसन्नता से गुजारने के लिये श्रीगीता का ज्ञान भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस धरती पर मनुष्य के चलने के लिये दो ही रास्ते हैं। मनुष्य को चलाता है उसका मन और वह श्रीगीता के सत्य मार्ग पर चलेगा या दूसरे माया के पथ पर। दोनों ही रास्तों का अपना महत्व है। मगर आजकल एक तीसरा पथ भी दिखता है वह दोनों से अलग है। माया के रास्ते पर चले रहे हैं पर वह उस विशाल रूप में साथ नहीं होती जो वह मायावी कहला सकें। तब बीच बीच में श्रीगीता या रामायण का गुणगान कर अनेक लोग अपने मन को तसल्ली देते हैं कि हम धर्म तो कर ही रहे हैं। यह स्थिति तीसरे मार्ग पर चलने वालों की है जिसे कहा जा सकता है कि न धन साथ है न धर्म।
अगर आप व्यंग्य सामग्री लिखने की मौलिक क्षमता रखते हैं तो फिर प्राचीन धर्म ग्रंथों या देवताओं की आड़ लेना कायरता है। अगर हमें किसी पर व्यंग्य रचना करनी है तो कोई भी पात्र गढ़ा जा सकता है उसके लिये पवित्र पुस्तकों और भगवान के स्वरूपों की आड़ लेने का आशय यह है कि आपकी सोच की सीमित क्षमतायें है। जो मौलिक लेखक हैं वह अध्यात्म पर भी खूब लिखते हैं तो साहित्य व्यंग्य रचनायें भी उनके हाथ से निकल कर आती हैं पर कभी भी वह इधर उधर से बात को नहीं मिलाते। अगर किसी अध्यात्म पुरुष पर लिखते हैं फिर उसे कभी अपने व्यंग्य में नहीं लाते।
अरे इतने सारे पात्र व्यंग्य के लिये बिखरे पड़े हैं। जरूरी नहीं है कि किसी का नाम दें। अगर आप चाहें तो रोज एक व्यंग्य लिख सकते हैं इसके लिये पवित्र पुस्तकों यह देवताओं के नाम की आड़ लेने की क्या आवश्यकता है? वैसे भी जब अब किसी का नाम लेकर रचना करते हैं और वह सीधे उसकी तरफ इंगित होती है तो वह व्यंजना विधा नहीं है इसलिये व्यंग्य तो हो ही नहीं सकती।
यह पाठ किसी प्रकार का विवाद करने के लिये नहीं लिखा गया है। हम तो यह कहते हैं कि दूसरा अगर हमारी पुस्तकों या देवताओं की मजाक उड़ाता है तो उस पर चर्चा ही नहीं करो। यहां यह भी बता दें कुछ लोग ऐसे है जो जानबूझकर अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित करने के लिये अपने ही देवताओं और पुस्तकों पर रची गयी विवादास्पद सामग्री को सामने लाते हैं ताकि अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित कर सकें। उनकी उपेक्षा कर दो। ऐसा लगता है कि कुछ लोग वाकई सात्विक प्रवृत्ति के हैं पर अनजाने में या उत्साह में ऐसी रचनायें कर जाते हैं। उनका यह समझाना भर है कि जब हम अपनी पवित्र पुस्तकों या देवताओं की आड़ में कोई व्यंग्य सामग्री लिखेंगे- भले ही उसमें उनके लिये कोई बुरा या मजाकिया शब्द नहीं है-तो फिर किसी ऐसे व्यक्ति को समझाइश कैसे दे सकते हैं जो बुराई और मजाक दोनों ही करता है। याद रहे समझाईश! विरोध नहीं क्योंकि ज्ञानी लोग या तो समझाते हैं या उपेक्षा कर देते हैं। यह भी समझाया अपने को जाता है गैर की तो उपेक्षा ही की जानी चाहिये। हालांकि जिन सामग्रियों को देखकर यह पाठ लिखा गया है उनमें श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण के लिये कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं थी पर सवाल यह है कि वह व्यंग्यात्मक सामग्रियों में उनका नाम लिखने की आवश्यकता क्या है? साथ ही यह भी कि अगर कोई इस विचार से असहमत है तो भी उस पर कोई आक्षेप नहीं किया जाना चाहिये। सबकी अपनी मर्जी है और अपने रास्ते पर चलने से कोई किसी को नहीं रोक सकता, पर चर्चायें तो होती रहेंगी सो हमने भी कर ली।
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कबीर के दोहे: काजल कालापन और मोती सफेदी नहीं त्यागता (kabir ke dohe-kajal and moti)


दुक्ख महल को ढाहने, सुक्ख महल रहु जाय
अभि अन्तर है उनमुनी, तामें रहो समाय

संत कबीरदास जी के अनुसार इस संसार में रहना है तो दुख के महल को गिराकर सुख महल में रहो। यह तभी संभव है जब जो हमारे अंदर आत्मा है उसमें ही समा जायें।

काजल तजै न श्यामता, मुक्ता तर्ज न श्वेत
दुर्जन तजै न कुटिलता, सज्जन तजै न हेत

आशय यह है कि जिस तरह काजल अपना कालापन और मोती अपनी सफेदी को नहीं त्यागता वेसे ही दुर्जन अपनी कुटिलता और सज्जन अपनी सज्ज्नता नहीं त्यागता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-देने वाला परमात्मा है और जो कर्म करता है उसे उसका परिणा मिलता ही है। फिर भी आदमी में अपना अहंकार है कि ‘मैं कर्ता हूं।’ वह अपने देह से किये गये कर्म से प्राप्त माया के भंडार को ही अपना फल समझता है और बस उसकी वृद्धि में ही अपना जीवन धन्य समझता है और भक्ति भाव को वह केवल एक समय पास काम मानता है। कितना बड़ा भ्रम मनुष्य में है यह अगर हम अपना आत्म मंथन करें तो समझ में आ जायेगा। हम कहीं दुकान कर रहे हैं या नौकरी उससे जो आय होती है वह फल नहीं होता। वह जो पैसा प्राप्त होता है उससे अपने और परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति पर ही व्यय करते हैं। वह पैसा प्राप्त करना तो हमारे ही कर्म का हिस्सा है। कहीं से मजदूरी या वेतन प्राप्त होता है वह भला कैसे फल हो सकता है जबकि उसे प्राप्त करना भी हमारा कर्तव्य है ताकि हम अपनी इस देह का और साथ ही अपने परिवार का भरण भोषण कर सकें। इसलिये माया की प्राप्त को फल समझना एक तरह से दुःख का महल है और उसे एक सामान्य कर्म मानते हुए उसे त्याग कर देना चाहिये। भगवान की भक्ति करना ही सुख के महल में रहना है।

अगर हमें यह अनुभूति हो जाये कि अमुक व्यक्ति के मूल स्वभाव में ही दुष्टता का भाव है तो उसे त्याग देना चाहिये। यह मानकर चले कि यहां कोई भी अपना स्वभाव नहीं बदल सकता। जिसत तरह काजल अपनी कालापन और मोती आपनी सफेदी नहीं छोड़ सकता वैसे ही जिनके मूल में दुष्टता का भाव है वह उसे नहीं छोड़ सकता। उसी तरह जिन में हमें सज्जनता का भाव लगता है उनका साथ भी कभी नहीं छोड़ना चाहिये।
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