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योग बाबा की संपत्ति में कितने शून्य-हास्य व्यंग्य (yoga baba ki sampatti mein kitne shoonya-hasya vyangya)


दीपक बापू को गंजू उस्ताद का इस तरह सुबह सुबह मिलना अपशकुन जैसा लगता है, पर अपनी हास्य कविताई के लिये विषय मिलने का मोह उनको अपनी राह बदलने या उससे मुंह फेरने की अनुमति नहीं देता। गंजू उस्ताद सामने से आ रहा था और दीपक बापू भी सड़क पर उसी दिशा में बढ़ रहे थे। पास आते ही गंजू उस्ताद ने दीपक बापू से बिना किसी औपचारिकता के कहा-‘‘कहां जा रहे हो?’’
दीपक बापू ने कहा-‘‘जरा, उस पान वाले को बीड़ी के पैसे देने जा रहा हूं। कल उससे खरीदी पर खुले पैसे नहीं थे तो उसने उधार ही दे दिया। कह दिया कल सुबह दस बजे तक पैसे पहुंचाने स्वयं आ जाना नहीं तो मेरा लड़का घर पर तकादा करने आ जायेगा।’’
गंजू उस्ताद ने कहा-‘‘उसे छोड़ो। चलो मेरे साथ, ज्ञानीजी से तुम्हारा शास्त्रार्थ करवाना है। वह उधर पेड़ के नीचे बैठे अपना ज्ञान बघार रहे हैं। पान वाला तुमसे बाद में पैसे ले लेगा।’’
दीपक बापू बोले-‘‘पगला गये हो! इतने बड़े ज्ञानी से भला हम क्या शास्त्रार्थ करेंगे? कभी कोई शास्त्र नहीं पढ़ा। ताउम्र हास्य कविताई करते गुजारी, उसमें भी फ्लाप रहे। पहले हम अपना उधार चुकाकर अपनी पड़ौस में अपनी इज्जतदार होने की छवि बचा लें फिर सोचेंगे। कहंी उसका लड़का घर पहुंचा और पड़ौसियों को पता लगा कि हम उधार लेकर बीड़ी पीते हैं तो कितनी हमारे मान सम्मान का जनाजा निकल जायेगा।’’
गंजू उस्ताद ने कहा-‘‘तुम चिंता मत करो। ज्ञानी जी तो अभी इसी रास्ते में बैठे हैं उनको दो तीन मिनट हास्य कविता सुनाकर चले जाना।’’
दीपक बापू ने कहा-‘‘कमबख्त, कवि समझ रखा है या क्लर्क कि चाहे जब कुछ भी लिखने लगो। वैसे तुम वहां चलो जहां ज्ञानी जी विराजमान हैं। पहले पता तो चले कि वह क्या कह रहे हैं।’’
गंजू उस्ताद कहने लगा कि ‘‘वह अपने देश के महान योग बाबा की मज़ाक उड़ा रहे हैं। कह रहे है कि ‘काहेके के बाबा ओर कैसी उनकी शिक्षा, वह तो बारह सौ करोड़ कमाकर सेठ जैसे हो चुके हैं’।’’
दीपक बापू बोले‘‘यह तुम हमें कहां फंसाने चले। भला इस प्रसंग में हमारी समझ कितनी है। हमसे महंगाई, भ्रष्टाचार, शादी, गमी, गमी, सर्दी और बरसात पर हास्य कवितायें लिखवा लो मगर इस तरह बारह सौ करोड़ रुपये पर हम क्या लिखेंगे? यही पता नहीं कि 12 के बाद उसमें कितने सौ के शून्य लिखने होंगे? तुम चाहे तो योग पर ही कुछ लिखवा लो जिसके बारे में हमें भले नहंी पता पर उस लिखा जा सकता है। सभी लोग लिख रहे हैं।’’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘नहीं, यह राष्ट्रीय स्वाभिमान का विषय है? ज्ञानी जो ललकारना है।
दोनों बातचीत करते हुए वहीं आये जहां ज्ञानी जी पेड़ के नीचे अपने चेलों के साथ बैठे थे। गंजू उस्ताद को देखते ही वह बोले-‘‘फिर तू आ गया बहस करने! तेरे योग बाबा पर हमने तेरे से जो कहा वह समझ में नहीं आया जो इस फटीचर हास्य कविता को हमारे सामने लाया है।’’
दीपक बापू बोले-‘‘महाराज, आप कैसी बात करते हो। हम तो किराने वाले को पैसे देने जा रहे थे। यह बोला कि ‘चलो ज्ञानी से मिलवाता चलूं‘, भला हमारी क्या औकात कि आपके साथ बहस करें।’’
ज्ञानी जी बोले-‘‘अच्छा, हमसे तू झूठ बोल रहा है। तू उस पान वाले को बीड़ी के पैसे देने जा रहा है जिससे कल उधार करवाकर कर गया था। उसने तुम्हें धमकी दी कि सुबह दस बजे तक पैसे भिजवा देना वरना अपना आदमी घर भेज दूंगा। अरे, अपने चेले चारों तरफ फैले हैं, सबकी खबर मिल जाती है।’’
दीपक बापू ने देखा कि उनका वहां विराजमान एक चेला कल उसी दुकान पर खड़ा होकर पान खा रहा था, जिसने शायद अब उनको आते देखकर यह बात अपने ज्ञानी गुरु को बता दी थी।
दीपक बापू ने कहा-‘’महाराज, आपके चेले ने यह नहीं बताया कि हमारे पास पांच सौ का नोट था, इसलिये यह उधार लिया। बहरहाल आपके सूचना संगठन की शक्ति बहुत प्रशंसनीय है भले ही उसमें दो टके की खबरों का आदान प्रदान होता है।’’
ज्ञानी महाराज बोले-‘‘दो टके के लोग मिलते हैं तो उनको अपनी औकात के अनुसार ही खबर देनी पड़ती है। अगर बाहर सौ करोड़ की हो तो वह भी बड़े लोगों के साथ चर्चा में काम आती है।’’
गंजू उस्ताद ने दीपक बापू को कोहनी मारी और कहा-‘‘देखा दीपक बापू! सुबह से योग बाबा के बारह सौ करोड़ की संपत्ति की बात उनके दिमाग में भरी पड़ी है। जरा, सुनाओ इनको हास्य कविता!’’
ज्ञानी जी बोले-‘‘अरे, इनकी औकात नहीं है जो बारह सौ करोड़ रुपये पर हास्य कविता लिखें। यह तो पांच दस रुपये पर लिख सकते हैं। तुम्हारे योग बाबा जिनको तुम भगवान मानते हो बारह सौ रुपये करोड़ की संपत्ति बना चुका है। वह धंधेबाज है!’’
दीपक बापू थोड़ा चौंकते हुए बोले-‘‘महाराज योग में भगवान! कैसी बात कर रहे हैं आजकल तो भगवान क्रिकेट में होते हैं।‘’
ज्ञानी जी गंजू उस्ताद की तरफ देखकर बोले-‘‘देख ली हास्य कवि की समझ! जैसे टीवी वालों न रटाया वैसा ही रट लिया। क्रिकेट में इसे भगवान नज़र आते हैं और योग में नहीं!’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘हां, आप भी तो कह रहे हैं कि योग बाबा भगवान नहीं हैं। कभी यह नहीं कहा कि क्रिकेट में भगवान नहीं हो सकते।’
ज्ञानी जी बोले-‘‘अबे चुप! ऐसी बात हम नहीं कह सकते जिससे हमारा हुक्कापानी बंद हो जाये। तेरे इस हास्य कवि की तरह हम भी फ्लाप होकर घर बैठ जायें। अबे दीपक बापू तू निकल यहां से! वरना मेरे चेलों को गुस्सा आ जायेगा।’’
गंजू उस्ताद बोले-‘‘इन पर आप अपना रौब न दिखाओ। इनकी कोई गलती नहीं है हम ही लाये थे इनको आपसे शास्त्रार्थ कराने। वह योग बाबा पर आपकी बात हमें पसंद नहीं आयी।’’
ज्ञानी जी बोले-‘‘तो इससे बाबा की बारह सौ करोड़ की संपत्ति पर एक हास्य कविता लिखा तो जाने! उसके काले धन पर यह क्या सोचता है हम भी तो सुने।’’
दीपक बापू बोले-‘‘बाबा के पास केवल बारह सौ करोड़ की संपत्ति है, बस! बहुत कम है! हम तो सोचते थे कि दो चार लाख करोड़ की संपत्ति होगी। उनका नाम फोर्ब्स पत्रिका में शायद इसलिये ही नहीं आता क्योंकि उसके हिसाब से बहुत कम है।
ज्ञानी जी दीपक बापू को घूरकर बोले-‘‘अच्छा! पांच रुपये की बीड़ी पंद्रह दिन चलाने वाले को बारह सौ करोड़ रुपये कम नज़र आ रहे हैं? क्या बात है! घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने! अरे हास्य कवि, पहले यह बता कि लाख में कितने शून्य आते हैं। जवाब दे तब पूछेंगे इससे कठिन सवाल कि करोड़ में कितने अंक होते हैं।
दीपक बापू बोले-‘‘महाराज कहा जाता है कि जब अपनी औकात देखनी है तो नीचे देखो कि कितने लोग हैं तब मन को शांति मिलेगी। उसमें हमने यह भी जोड़ा है कि अगर ऊपर के आदमी को देखना है तो फिर उससे ऊपर भी देखना चाहिये कि उससे आगे कितने हैं तब दूसरे के प्रति ईर्ष्या कम होगी। इधर हमारा गणित गरीब हो गया है। इधर टीवी पर अनेक ऐसे समाचार आते हैं जिसमें कभी दो हजार करोड़ तो कभी पांच हजार करोड़ की चर्चा भी होती है। अमुक ने अमुक चीज इधर17 करोड़ में खरीदी और उसे पांच हजार करोड़ में उधर बेची। इसका मतलब यह है कि लाखों करोड़ वाले लोग हो गये हैं। यह बारह सौ करोड़ हमें कम लगती है तो अच्छा ही है क्योंकि तब किसी से ईर्ष्या नहंी होती।’’
ज्ञानी जी को अपना ज्ञान अब गणित से पिटता नजर आ रहा था। वह बोले-‘अरे यार तुम्हारा राजनीतिक दृष्टिकोण शून्य है। अब तुम जाओ, हमारा समय खराब न करो।’’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘पहले यह बताओ दोनों में से कौन जीता! यह लाखोंकरोड़ रुपये की बात हमारी समझ में नहीं आयेगी। इसलिये तो टीवी देखना ही बंद कर दिया है।’
दीपक बापू उस पर गुस्सा दिखाते हुए बोले-‘चल मूर्ख कहीं के! ज्ञानी जी की मजाक बनाता है, भला इनसे कौन जीत सकता है।’
गंजू उस्ताद और दीपक बापू वहां से चल दिये। थोड़ा आगे चलकर गंजू उस्ताद बोला-‘यार, दीपक बापू हमें यह तो बताओ कि करोड़ में कितने अंक होते हैं।’
दीपक बापू बोले-‘चल मूर्ख कहीं के! हमें क्या पता! अच्छा हुआ अपनी पोल खुलने से बच गयी। चल तो पान वाले को बीड़ी के पांच सौ करोड़ रुपये दे आते हैं।’
गंजू उस्ताद एक चौंक गया-‘‘कितने दीपक बापू!’
दीपक बापू बोले-‘अरे, यह ज्ञानी जी वजह से हमारा दिमागी संतुलन बिगड़ गया और बहुत सारी बिंदियां दिमाग में आ गयी इसलिये पांच रुपये को…………कितना बोला था! पता नहीं कितनी बिंदियां दिमाग में आ गयीं।’

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नोट-‘यह हास्य व्यंग्य काल्पनिक है तथा किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई लेना देना नहीं है। किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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अंग्रेजी के लेखक यूं हिन्दी में पढ़े जाते-हिन्दी दिवस पर विशेष लेख (inglish writer, hindi readar-hindi diwas par vishesh lekh)


वह नब्बे साल के अंग्रेजी लेखक हैं मगर उनको हिन्दी आती होगी इसमें संदेह है पर हिन्दी के समाचार पत्र पत्रिकाऐं उनके लेख अपने यहां छापते हैं-यकीनन ऐसा अनुवाद के द्वारा ही होता होगा। वह क्या लिखते हैं? इसका सीधा जवाब यह है कि विवादों को अधिक विवादास्पद बनाना, संवेदनाओं को अधिक उभारना और कल्पित संस्मरणों से अपने अपने आप को श्रेष्ठ साबित करना। अगर हिन्दी के सामान्य लेखक से भी उनकी तुलना की जाये तो उनका स्तर कोई अधिक ऊंचा नहीं है मगर चूंकि हमारे प्रकाशन जगत का नियम बन गया है कि वह केवल एक लेखक के रूप में किसी व्यक्ति को तभी स्वीकार करेंगे जब उसके साथ दौलत, शौहरत तथा ऊंचे पद का बिल्ला लगा होना चाहिये। यह तभी संभव है जब कोई लेखक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का सानिध्य प्राप्त करे और दुर्भाग्य कि वह उनको ही मिलता है जिनको अंग्रेजी आती है और तय बात है कि देश के अनेक हिन्दी संपादक उनके प्रशंसक बन जाते हैं।
उन वृद्ध लेखक ने अपने एक लेख में भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन से वीर सावरकर की तुलना कर डाली। यकीनन यह चिढ़ाने वाली बात है। अगर अंग्रेजी अखबार में ही यह सब छप जाता तो कोई बात नहीं मगर उसे हिन्दी अखबार में भी जगह मिली। यह हिन्दी की महिमा है कि जब तक उसमें कोई लेखक न छपे तब तक वह अपने को पूर्ण नहीं मान सकता और जितने भी इस समय प्रतिष्ठित लेखक हैं वह अंग्रेजी के ही हैं इसलिये ही अपने अनुवाद अखबारों में छपवाते हैं। इससे प्रकाशन जगत और लेखक दोनों का काम सिद्ध होता है। अंग्रेजी का लेखक पूर्णता पाता है तो हिन्दी प्रकाशन जगत के कर्णधार भी यह सोचकर चैन की संास लेते हैं कि किसी आम हिन्दी लेखक की सहायता लिये बगैर ही हिन्दी में अपना काम चला लिया।
वह लेखक क्या लिखते हैं? उनका लिखा याद नहीं आ रहा है। चलिये उनकी शैली में कुछ अपनी शैली मिलाकर एक कल्पित संस्मरण लिख लेते हैं।
मैं ताजमहल पहुंच गया। उस समय आसमान में बादल थे पर उमस के कारण पसीना भी बहुत आ रहा था। कभी कभी ठंडी हवा चल रही थी तब थोड़ा अच्छा लगता था। बीच बीच में धूप भी निकल आती थी। ताजमहल के प्रवेश द्वार पर खड़ा होकर मैं उसे निहार रहा था। तभी वहां दो विदेशी लड़किया आयीं। बाद में पता लगा कि एक फ्रांस की तो दूसरी ब्रिटेन की है।
फ्रांसीसी  लड़की मुझे एकटक निहारते हुए देखकर बोली-‘‘आप ताजमहल को इस तरह घूर कर देख रहे हैं लगता है आप यहां पहली बार आये हैं। आप तो इसी देश के ही हैं शायद….आप इस ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं।’
मैं अवाक होकर उसे देख रहा था। वह बहुत सुंदर थी। उसने जींस पहन रखी थी। उसके ऊपर लंबा  पीले रंग का कुर्ता  उसके घुटनों तक लटक रहा था। मैने उससे कहा-‘‘ मैं ताजमहल देखने आज नहीं आया बल्कि एक प्रसिद्ध लेखक की किताब यहां ढूंढने आया हूं। उस किताब को अनेक शहरों में ढूंढा पर नहीं मिली। सोच रहा हूं कि यहां कोई हॉकर शायद उसे बेचता हुए मिल जाये। वह किताब मिल जाये तो उसे पढ़कर कल तसल्ली से ताज़महल देखूंगा और सोचूंगा।’
वह फ्रांसीसी  लड़की पहले तो मेरी शक्ल हैरानी से देखने लगी फिर बोली-‘पर आप तो एकटक इसे देखे जा रहे हैं और कहते हैं कि कल देखूंगा।’’
मैंने कहा-‘‘मेरी आंखें वहां जरूर हैं पर ताजमहल को नहीं  देख रहा और न सोच रहा  क्योंकि उसके लिये मुझे उस प्रसिद्ध लेखक की एक अदद किताब की तलाश है जिसमें यह दावा किया गया है कि ताजमहल किसी समय तेजोमहालय नाम का एक शिव मंदिर था।’’
उसके पास खड़ी अंग्रेज लड़की ने कहा-‘हमारा मतलब यह था कि आप इस समय ताजमहल के बारे में क्या सोच रहे हैं? वह किताब पढ़ने के बाद आप जो भी सोचें, हमारी बला से! आप किताब पढ़ने की बात बताकर अपने आपको विद्वान क्यों साबित करना चाहते हैं?’
मैंने कहा-‘नहीं, बिना किताब पढ़े हम आधुनिक हिन्दी लोगों की सोच नहीं चलती। मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूं, बस मुझे वह किताब मिल जाये तो….अपना विचार आपको बता दूंगा।’
अंग्रेज लड़की ने कहा-‘कमाल है! एक तो हम यहां ताज़महल देख रहे है दूसरा आपको! जो किताब पढ़े बिना अपनी सोच बताने को तैयार नहीं है।’
मैंने कहा-‘क्या करें? आपके देश की डेढ़ सौ साल की गुलामी हमारी सोचने की ताकत को भी गुलाम बनाकर रख गयी। इसलिये बिना किताब के चलती नहीं।’
बात आयी गयी खत्म हो गयी थी। मैं शाम को बार में बैठा अपने एक साथी के साथ शराब पी रहा था। मेरा साथी उस समय मेरे सामने बैठा सिगरेट के कश लेता हुआ मेरी समस्या का समाधान सोच रहा था।’
नशे के सरूर में मेरी आंखें भी अब कुछ सोच रही थीं। अचानक मेरे पास दो कदम आकर रुके और सुरीली आवाज मेरी कानों गूंजी-‘हलौ, आप यहां क्या ताज़महल पर लिखी वह किताब ढूंढने आये हैं।’
मैने अचकचा कर दायें तरफ ऊपर मुंह कर देखा तो वह फ्रांसिसी लड़की खड़ी थी। उसके साथ ही वह अंग्रेज लड़की कुछ दूर थी जो अब पास आ गयी। वह फ्रांसिसी लड़की मुस्करा रही थी और यकीनन उसका प्रश्न मजाक उड़ाने जैसा ही था।
मैंने हंसकर कहा-‘हां, इस कबाड़ी को इसलिये ही यहां लाया हूं क्योकि इसने वादा किया है कि एक पैग पीने का बाद याद करेगा कि इसने वह किताब कहां देखी थी। वह किताब उसके कबाड़ की दुकान पर भी हो सकती है, ऐसा इसने बताया।’’
अंग्रेज लड़की बोली-‘अच्छा! आप अगर किताब पा लें तो पढ़कर कल हमें जरूर बताईयेगा कि ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं? कल हम वहां फिर आयेंगीं।’
मैंने कहा-‘ताजमहल एक बहुत अच्छी देखने लायक जगह है। उसे देखकर ऐसा अद्भुत अहसास होता है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।’
दोनों लड़कियां चौंक गयी। अंग्रेज लड़की बुझे घूरते हुए बोली-‘पर आपने तो वह किताब पढ़ी भी नहीं। फिर यह टिप्पणी कैसे कर दी। आप तो बिना किताब पढ़े कुछ सोचते ही नहीं’।
मैंने कहा-‘हां यह एक सच बात है पर दूसरा सच यह भी है कि शराब सब बुलवा लेती है जो आप सामान्य तौर से नहीं बोल पाते।’’
यह था एक कल्पित संस्मरण! यह कुछ बड़ा हो गया और इसे ताज़महल से बार तक इसे खींचकर नहीं लाते तो भी चल जाता पर लिखते लिखते अपनी शैली हावी हो ही जाती है क्योकि ताज़महल तक यह संस्मरण ठीक ठाक था पर उससे आगे इसमें कुछ अधिक प्रभाव लग रहा है।
मगर हम जिस लेखक की चर्चा कर रहे हैं वह इसी तरह ही दो तीन संस्मरण लिखकर और साथ में विवादास्पद मुद्दों पर आधी अधूरी होने के साथ ही बेतुकी राय रखकर लेख बना लेते हैं।
वैसे भी अंग्रेजी में लिखने पर हिन्दी में प्रसिद्धि पाने वाले लेखक को शायद ही हिन्दी लिखना आती हो पर अपने यहां एक कहावत हैं न कि ‘घर का ब्राह्म्ण बैल बराबर, आन गांव का सिद्ध’। अंग्रेजी लेखक को ही सिद्ध माना जाता है और हिन्दी को बेचारा। अंग्रेजी के अनेक लेखक बेतुकी, और स्तरहीन लिखकर भी हिन्दी में छाये रहते हैं। इनमें से अधिकतर राजनीतिक घटनाओं पर संबंधित पात्रों का नाम लिखकर ही उनका प्रसिद्ध बनाते हैं-अब यह उस पात्र की प्रशंसा करें या आलोचना दोनों में उसका नाम तो होता ही है। इनमें इतनी तमीज़ नहीं है कि जो व्यक्ति देह के साथ जीवित नहीं हो उस पर आक्षेपात्मक तो कभी नहीं लिखना चाहिये। कम से कम उनकी मूल छबि से तो छेड़छाड़ नहीं करना चाहिये। भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन की छबि अच्छी नहीं है पर सावरकर को एक योद्ध माना जाता है। उनके विचारों से किसी को असहमति हो सकती है पर इसको लेकर उनकी छबि पर प्रहार करना एक अनुचित कृत्य हैं। बहरहाल हिन्दी में ऐसे ही चिंदी लेखक प्रसिद्ध होते रहे हैं और यही शिकायत भी करते हैं कि हिन्दी में अच्छा लिखा नहीं जा रहा। चिंदी लेखक यानि अंग्रेजी में टुकड़े टुकड़े लिखकर उसके हिन्दी में बेचने वाले
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हास्य कविताएँ – पुरानी कथा के नायक और खलनायक


राजशाही लुट गयी
लुटेरे बन गये
ज़माने के खैरख्वाह।
उठाये थे पहले भी गरीब
साहुकारों का बोझ
भले ही भरकर रह जाते थे आह,
अब भी कहर बरपा रहे
लुटेरे तमंचों के जोर पर रोज
फिर भी बोलना पड़ता है वाह वाह।
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इतिहास क्यों पुराना सुनाते हो,
यहां घट रहा है रोज नया घटनाक्रम
तुम पुरानी कथा क्यों सुनाते हो।
पढ़ लिखकर किताबें क्यों ढूंढ रहे हो
जमाने को दिखाने का रास्ता,
अपनी खुद की सोच बयान करो
मत दो रद्दी हो चुके ख्यालों का वास्ता,
पुराने समय के नायकों की याद में
नये खलनायकों की चुनौती क्यों भुलाते हो।
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सम्मेलन में
कुछ रूठे इस उम्मीद में गये कि
कोई उन्हें मना लेगा
कुछ टूटे दिलों ने आसरा किया कि
कोई उन्हें फिर बना लेगा,
मगर वहां जमी महफिल में
सभी चीख रहे थे
गुर्राने के नये नये तरीके सीख रहे थे,
सद्भाव के नाम संघर्ष दिखने लगा।
सभी ने अपनी अपनी कही,
दूसरे की सलाह भी सही,
तय किया ज़माने में नश्तर चुभोने का,
अपने को छोड़कर सभी को डुबोने का,
फिर कोई अगले सम्मेलन की तारीख लिखने लगा।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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इशारे-हिन्दी व्यंग्य कविता (ishare-hindi satire poem)


तैश में आकर तांडव नृत्य मत करना
चक्षु होते हुए भी दृष्टिहीन
जीभ होते हुए भी गूंगे
कान होते हुए भी बहरे
यह लोग
इशारे से तुम्हें उकसा रहे रहे हैं।
जब तुम खो बैठोगे अपने होश,
तब यह वातानुकूलित कमरों में बैठकर
तमाशाबीन बन जायेंगे
तुम्हें एक पुतले की तरह
अपने जाल में फंसा रहे हैं।

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कवि,लेखक और संपादक, दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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हिन्दू धर्म संदेश-बड़ा वही है जो गरीब पर कृपा करे (garib par kripa karen-hindu dharm sandesh)


जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग

कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।

जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।वैसे भी बड़े तथा अमीर लोगों को अपने छोटे और गरीब पर दया के लिये काम करते रहना चाहिये क्योंकि इससे समाज में समरसता का भाव बना रहता है। जब तक समाज का धनी तबका गरीब पर दया नहीं करेगा तब तक आपसी वैमनस्य कभी ख़त्म नहीं हो सकता है।


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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शरीर और मन से विकार निकालने का सबसे अच्छा उपाय है योग साधना (yogsadhna-hindi lekh)


अक्सर लोग योग साधना को केवल योगासन तक ही सीमित मानकर उसका विचार करते हैं। जबकि इसके आठ अंग हैं।
योगांगानुष्ठानादशुद्धिये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः।।
हिंदी में भावार्थ-
योग के आठ अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
इसका आशय यही है कि योगसाधना एक व्यापक प्रक्रिया है न कि केवल सुबह किया जाने वाला व्यायाम भर। अनेक लोग योग पर लिखे गये पाठों पर यह अनुरोध करते हैं कि योगासन की प्रक्रिया विस्तार से लिखें। इस संबंध में यही सुझाव है कि इस संबंध में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं और उनसे पढ़कर सीखें। इन पुस्तकों में योगासन और प्राणायम की विधियां दी गयी हैं। योगासन और प्राणायम योगसाधना की बाह्य प्रक्रिया है इसलिये उनको लिखना कोई कठिन काम है पर जो आंतरिक क्रियायें धारणा, ध्यान, और समाधि वह केवल अभ्यास से ही आती हैं।
इस संबंध में भारतीय योग संस्थान की योग मंजरी पुस्तक बहुत सहायक होती है। इस लेखक ने उनके शिविर में ही योगसाधना का प्रशिक्षण लिया। अगर इसके अलावा भी कोई पुस्तक अच्छी लगे तो वह भी पढ़ सकते हैं। कुछ संत लोगों ने भी योगासन और प्राणायाम की पुस्तकें प्रकाशित की हैं जिनको खरीद कर पढ़ें तो कोई बुराई नहीं है।
चूंकि प्राणयाम और योगासन बाह्य प्रक्रियायें इसलिये उनका प्रचार बहुत सहजता से हो जाता है। मूलतः मनुष्य बाह्यमुखी रहता है इसलिये उसे योगासन और प्राणायाम की अन्य लोगों द्वारा हाथ पांव हिलाकर की जाने वाली क्रियायें बहुत प्रभावित करती हैं पर धारणा, ध्यान, तथा समाधि आंतरिक क्रियायें हैं इसलिये उसे समझना कठिन है। अंतर्मुखी लोग ही इसका महत्व जानते हैं। धारणा, ध्यान और समाधि शांत स्थान पर बैठकर की जाने वाली कियायें हैं जिनमें अपने चित की वृत्तियों पर नियंत्रण करने के लिये अपनी देह के साथ मस्तिष्क को भी ढीला छोड़ना जरूरी है।
इसके अलावा कुछ लोग तो केवल योगासन करते हैं या प्राणायम ही करके रह जाते हैं। इन दोनों ही स्थितियों में भी लाभ कम होता है। अगर कुछ आसन कर प्राणायम करें तो बहुत अच्छा रहेगा। प्राणायम से पहले अगर अपने शरीर को खोलने के लिये सूक्ष्म व्यायाम कर लें तो भी बहुत अच्छा है-जैसे अपने पांव की एड़ियां मिलाकर घड़ी की तरह घुमायें, अपने हाथ मिलाकर ऐसे आगे झुककर घुमायें जैसे चक्की चलाई जाती है। अपनी गर्दन को घड़ी की तरह दायें बायें आराम से घुमायें। अपने दोनों हाथों को कंधे पर दायें बायें ऊपर और नीचे घुमायें। अपने दायें पांव को बायें पांव के गुदा मूल पर रखकर ऊपर नीचे करने के बाद उसे अपने दोनों हाथ से पकड़ दायें बायें करें। उसके बाद यही क्रिया दूसरे पांव से करें। इन क्रियायों को आराम से करें। शरीर में कोई खिंचाव न देते सहज भाव से करें। सामान्य व्यायाम और योगासन में यही अंतर है। योगासनों में कभी भी उतावली में आकर शरीर को खींचना नहीं चाहिये। कुछ आसन पूर्ण नहीं हो पाते तो कोई बात नहीं, जितना हो सके उतना ही अच्छा। दूसरे शब्दों में कहें तो सहजता से शरीर और मन से विकार निकालने का सबसे अच्छा उपाय है योग साधना। शेष फिर कभी
लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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फरिश्ते होने का अहसास जताते-व्यंग्य कविता


किताबों में लिखे शब्द
कभी दुनियां नहीं चलाते।
इंसानी आदतें चलती
अपने जज़्बातों के साथ
कभी रोना कभी हंसना
कभी उसमें बहना
कोई फरिश्ते आकर नहीं बताते।

ओ किताब हाथ में थमाकर
लोगों को बहलाने वालों!
शब्द दुनियां को सजाते हैं
पर खुद कुछ नहीं बनाते
कभी खुशी और कभी गम
कभी हंसी तो कभी गुस्सा आता
यह कोई करना नहीं सिखाता
मत फैलाओं अपनी किताबों में
लिखे शब्दों से जमाना सुधारने का वहम
किताबों की कीमत से मतलब हैं तुम्हें
उनके अर्थ जानते हो तुम भी कम
शब्द समर्थ हैं खुद
ढूंढ लेते हैं अपने पढ़ने वालों को
गूंगे, बहरे और लाचारा नहीं है
जो तुम उनका बोझा उठाकर
अपने फरिश्ते होने का अहसास जताते।।
————–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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लिखने की बीमारी जो है-व्यंग्य आलेख (likhne ki bimari-hindi hasya vyangya)


अंतर्जाल पर रचनाकर्म कोई आसान काम नहीं है। जो लेखक, कलाकर या कार्टूनिस्ट स्वयं न लिखकर दूसरे को अपनी रचनायें प्रस्तुत करने के लिये देते हैं वह पाठकों की अभद्र टिप्पणियों से बच जाते हैं। एक तो दूसरी वेबसाईट या ब्लाग का लेखक उनको बताता नहीं होगा कि तुम्हारी रचना पर इस तरह की टिप्पणी आई है और अगर बतायेगा भी तो सोचेंगे कि कौन हमने सीधे यह अभद्र टिप्पणी का दर्द झेला है।
इसी कारण जो मौलिक स्वतंत्र लेखक तथा कलाकार हैं उनके सामने यह समस्या तो आने वाली है क्योंकि कलाकार, कहानीकार, व्यंग्यकार, निबंधकार तथा कवि तो बहुत भावुक होते हैं। ऐसा हो सकता है कि कोई एक टिप्पणी ही किसी लेखक का अंतर्मन हिला दे कि वह उसे फिर न संभाल सके।
दरअसल यह समस्या केवल लेखन से जुड़े ब्लाग पर ही नहीं बल्कि गीत, संगीत तथा तकनीक विषयों पर भी है। इंटरनेट पर कई ऐसी वेबसाईटें और ब्लाग हैं जो गाली गलौच वाली टिप्पणियों से भरे पड़े हैं। एक बात देखकर आश्चर्य होता है कि उनको वहां से उसके स्वामियों ने हटाया भी नहीं है। संभवतः वह उस सामग्री पर उनका स्वामित्व नहीं है वरना संबंधित कलाकार, लेखक गायक या गायिका उसे देख ले तो वह यकीनन मानसिक यंत्रणा का अनुभव करेगी।
इधर एक वरिष्ठ ब्लाग लेखक की इसी संबंध में एक जगह टिप्पणी पढ़ी। उन्होंने लिखा कि ‘लोग तो यह लिख जाते हैं कि यह क्या कूड़ा लिखा है। हम भी कह देते हैं कि भई हम तो गधे हैं और अपनी जाति वालों के लिये लिख रहे हैं।’
वह भी हमारी तरह लेखक हैं तो उनकी इस सदाशयता ने हमारा आत्म्विश्वास बढ़ाया। इधर कुछ दिनों से हमारे सामने भी ऐसी टिप्पणियां आ रही हैं। तब हम सोच रहे थे कि ‘यार, एक तो मुफ्त में मेहनत कर रहे हैं। अनेक बार राह चलते या काम करते हुए कोई विषय आता है तो कितनी मेहनत से अपने दिमाग में सुरक्षित-कंप्यूटर की भाषा में कहें कि सेव-करते है। अब हमारा दिमाग कंप्यूटर तो है नहीं है कि उसकी तरह सामने प्रदर्शित-डिस्प्ले-कर दे। फिर हाथ की बजाय बड़ी मेहनत से टाईप करते हैं। ऐसे में संभव है कि हास्य रचना चिंतन नुमा और कविता गद्यनुमा हो जाती हो। लिख लिया तो फिर उसे रख नहीं सकते। ब्लाग/पत्रिका पर ठेलना-प्रकाशित करना-ही है। जितने शब्द हमारी कविता में है उतने तो वह टिप्पणीकार लिखने में दो दिन लगा देंगे जो लिखते हैं कि यह मूर्खतापूर्ण रचना है या यह कविता नहीं है या यह व्यंग्य नहीं है। हमने देखा है कि एस.एम.एस लिखने वालों की हालत क्या होती है। अनेक कंप्यूटर प्रेमी एक उंगली से एक एक अक्षर देखकर टाईप करते हैं। हम जितना बड़ा गद्य लिखते हैं उतना तो इस देश में बहुत कम ही लिखने वाले होंगे। मगर पढ़ने वालों को समझ कितनी है यह भी देख चुके हैं। देश, भाषा, समाज और धर्म के नाम पर जो नारे उन्होंने सुने हैं उससे आगे उनका सोच जा ही नहीं सकता। ऐसी टिप्पणियां देखकर उन पर ही हमें दया आती है। फिर तो यही कहते हैं कि हम तो गधे हैं और अपनी जाति वालों के लिये ही लिख रहे हैं। याद, रखिये गधा शब्द सुनकर सभी को बुरा लगता है पर परिश्रम के मामले में किसी अन्य जीव की उससे तुलना नहीं है। हमारे वह वरिष्ठ लेखक भले ही अपने को गधा केवल दिखाने के लिये बोले हों हम तो मन से अपने को गधा मानने लगे हैं। वरना तो कभी कभी इतना गुस्सा आता है कि सारे ब्लाग उड़ा दो। हम मेहनत किसके लिये कर रहे हैं। इन टेलीफोन कंपनियों के लिये जो इंटरनेट कनेक्शनों से पैसा कमाती हैं और खर्च करती हैं फिल्मी अभिनेताओं, अभिनेत्रियों तथा क्रिकेट खिलाड़ियों पर विज्ञापन के रूप में। जिस कंपनी का हमारे पास कनेक्शन है वह तो अब क्रिकेट प्रतियोगिता का आयोजन भी कर रही है। दरअसल इस क्रिकेट ने देश का सत्यानाश कर दिया है। बीसीसीआई की टीम जब हारती है तब लोग उसके लिये तमाम तरह की कटु भाषा का प्रयोग करते हैं। कोई खिलाड़ी जल्दी आउट हो जाता है तब भी गालियां निकालकर अपना गुस्सा ठंडा करते हैं। यह करते करते इंटरनेट पर भी उनकी यही आदत हो गयी है। यह हम इसलिये कह रहे हैं क्योंकि क्रिकेट मैच वाले दिन हमारा ब्लाग पिट जाते हैं।
हमें पढ़ने वाले भी इन्हीं टेलीफोन कंपनियों को पैसा देते हैं जैसे कि हम। यह तो लिखने की पुरानी बीमारी है जिसका इलाज तो लिखना ही है।
बहरहाल एक बात हम अपने देश के लोगों को बता देना चाहते हैं कि इससे विश्व में अपने देश की छबि खराब होगी। आप जो ब्लाग देख रहे हैं वह किसी अन्य भाषा में पढ़ा जा सकता है क्योंकि अनुवाद टूल इस काम को आसान करते जा रहे हैं। जब हिंदी के ब्लाग ख्याति प्राप्त करेंगे तब यह अभद्र टिप्पणियों पूरे विश्व में हमारी छबि खराब करेंगी यह सोच लेना। हम तो गधे ठहरे सब झेल जायेंगे पर जब आगे चलकर अखबारों में अपनी इसी छबि की चर्चा पढ़ोगे तो तिलमिलाओगे क्योंकि तुम तो इंसान हो न! वैसे गधे की दुलती पड़ जाये तो आदमी हिल जाता है। अगर हम अपने बीस ब्लाग उड़ा दें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा बस यह है कि मित्र लोगा निराश होंगे और हम ऐसे गधे हैं कि धोबी के गधे की तरह उनको छोड़ नहीं सकते। अलबत्ता गुस्सा कुछ भी करा सकता है।
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चाणक्य दर्शन-बुद्धिमान पर विजय पाना कठिन (hindu adhyatmik sandesh)


   नीति विशारद चाणक्य कहते हैं  कि 
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प्राज्ञं कुलीनं शूरं च दक्षं दातारमेव च।
कृतज्ञः धुतिमंत च कष्टमाहुररि बुधाः।।
हिंदी में भावार्थ-
बुद्धिमान, कुलीन, शूरवीर, चतुर, धर्मात्मा, धैर्यवान, तथा कृतज्ञ व्यक्ति पर विजय पाना कठिन है। ऐसे व्यक्ति से संधि कर लेना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-अनेक अवसर पर क्रोध अथवा विवाद के कारण आदमी अपनी बुद्धि पर नियंत्रण खो बैठता है और यही उसके लिये आपत्ति का कारण बनता है। क्रोध या निराशा की स्थिति क्षणिक और जीवन बहुत लंबा होता है। इसलिये अवसाद के क्षणों में भी बुद्धिमान, वीर, चतुर, धर्मात्मा तथा धैर्य धारण करने वाले व्यक्ति से विवाद मोल नहीं लेना चाहिये। जीवन में पता नहीं कम किस के सहयोग की आवश्यकता पड़ जाये। क्रोध और निराशा के क्षणिक आवेग में सुयोग्य व्यक्ति से बैर लेना भविष्य में उससे मिलने वाले सहयोग की अपेक्षाओं को समाप्त करना है। जब कोई आपत्ति आती है तब उससे निपटने के लिये योजनाबद्ध तरीके से निपटने के लिये कार्यक्रम बनाना, साधन जुटाना तथा नियत समय पर कार्यवाही करने के लिये जिस बौद्धिक चातुर्य की आवश्यकता होती है उसकी पूर्ति के लिये सुयोग्य व्यक्तियों का साथ होना जरूरी है। ऐसे लोगों के साथ हमेशा अच्छा व्यवहार रखना चाहिये।
अनेक लोगों को यह भ्रम होता है कि धनी, प्रतिष्ठित तथा बाहूबली लोगों के साथ मित्रता होने से ही सारे संकट दूर हो जायेंगे तो यह उनका भ्रम है। कुछ लोग तो ऐसे लोगों की संगत में शांतिप्रिय, धैयैवान तथा बुद्धिमान लोगों से बैर भी लेते हैं पर जब विपत्ति आती है तो उन्हें ऐसे ही लोगों की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि जीवन में अपने मित्र और सहयोगियों के संग्रह करते समय इस बात को अवश्य देखना चाहिये कि वह न केवल सुयोग्य हों बल्कि समय आपने पर मददगार भी हों। इसके लिये उनके साथ हमेशा सौहार्दपूर्ण संबंध रखें। यह
 एक अच्छा उपाय है।
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मनुष्य कि कीड़े-हिंदी व्यंग्य आलेख (manushya ki keede-hindi satire


सच बात तो यह है कि सट्टा एक विषय है जिस पर अर्थशास्त्र में विचार नहीं किया जाता। पश्चिमी अर्थशास्त्र अपराधियों, पागलों और सन्यासियों को अपने दायरे से बाहर मानकर ही अपनी बात कहता है। यही कारण है कि क्रिकेट पर लगने वाले सट्टे पर यहां कभी आधिकारिक रूप से विचार नहीं किया जाता जबकि वास्तविकता यह है कि इससे कहीं कहीं देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक स्थिति प्रभावित हो रही है।
पहले सट्टा लगाने वाले आमतौर से मजदूर लोग हुआ करते थे। अनेक जगह पर सट्टे का नंबर लिखा होता था। सार्वजनिक स्थानों-खासतौर से पेशाबघरों- पर सट्टे के नंबर लिखे होते थे। सट्टा लगाने वाले बहुत बदनाम होते थे और उनके चेहरे से पता लग जाता था कि उस दिन उनका नंबर आया है कि नहीं। उनकी वह लोग मजाक उड़ाते थे जो नहीं लगाते थे और कहते-‘क्यों आज कौनसा नंबर आया। तुम्हारा लगा कि नहीं।’
कहने का तात्पर्य यह है कि सट्टा खेलने वाले को निम्नकोटि का माना जाता था। चूंकि वह लोग मजदूर और अल्प आय वाले होते थे इसलिये अपनी इतनी ही रकम लगाते थे जिससे उनके घर परिवार पर उसका कोई आर्थिक प्रभाव नहीं पड़े।

अब हालात बदल गये हैं। दिन ब दिन ऐसी घटनायें हो रही हैं जिसमें सट्टा लगाकर बरबाद हुए लोग अपराध या आत्महत्या जैसे जघन्य कार्यों की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। इतना ही नहीं कई जगह तो ऐसे सट्टे से टूटे लोग अपने ही परिवार के लोगों पर आक्रमण कर देते हैं। केवल एक ही नहीं अनेक घटनायें सामने आयी हैं जिसमें सट्टे में बरबाद हुए लोगों ने आत्मघाती अपराध किये। होता यह है कि यह खबरें आती हैं तो सनसनी कुछ यूं फैलायी जाती है जिसमें रिश्तों के खून होने की बात कही जाती है। कहा जाता है कि ‘अमुक ने अपने माता पिता को मार डाला’, अमुक ने अपनी पत्नी और बच्चों सहित जहर खा लिया’, ‘अमुक ने अपनी बहन या भाई के के घर डाका डाला’ या ‘अमुक ने अपने रिश्ते के बच्चे का अपहरण किया’। उस समय प्रचार माध्यम सनसनी फैलाते हुए उस अपराधी की पृष्ठभूमि नहीं जानते पर जब पता लगता है कि उसने सट्टे के कारण ऐसा काम किया तो यह नहीं बताते कि वह सट्टा आखिर खेलता किस पर था।’
सच बात तो यह है कि सट्टे में इतनी बरबादी अंको वाले खेल में नहीं होती। फिर सट्टे में बरबाद यह लोग शिक्षित होते हैं और वह पुराने अंकों वाले सट्टे पर शायद ही सट्टा खेलते हों। अगर खेलते भी हों तो उसमें इतनी बरबादी नहीं होती। बहुत बड़ी रकम पर सट्टा संभवतः क्रिकेट पर ही खेला जाता है। प्रचार माध्यम इस बात तो जानकर छिपाते हैं यह अनजाने में पता नहीं। हो सकता है कि इसके अलावा भी कोई अन्य प्रकार का सट्टा खेला जाता हो पर प्रचार माध्यमों में जिस तरह क्रिकेट पर सट्टा खेलने वाले पकड़े जाते हैं उससे तो लगता है कि अधिकतर बरबाद लोग इसी पर ही सट्टा खेलते होंगे।
अनेक लोग क्रिकेट खेलते हैं और उनसे जब यह पूछा गया कि उनके आसपास क्या कुछ लोग क्रिकेट पर सट्टा खेलते है तो वह मानते हैं कि ‘ऐसा तो बहुत हो रहा है।’
सट्टे पर बरबाद होने वालों की दास्तान बताते हुए प्रचार माध्यम इस बात को नहीं बताते कि आखिर वह किस पर खेलता था पर अधिकतर संभावना यही बनती है कि वह क्रिकेट पर ही खेलता होगा। लोग भी सट्टे से अधिक कुछ जानना नहीं चाहते पर सच बात तो यह है कि क्रिकेट पर सट्टा खेलना अपने आप में बेवकूफी भरा कदम है। सट्टा खेलने वालों को निम्न श्रेणी का आदमी माना जाता है भले ही वह कितने बड़े परिवार का हो। सट्टा खेलने वालों की मानसिकता सबसे गंदी होती है। उनके दिमाग में चैबीसों घंटे केवल वही घूमता है। देखा यह गया है कि सट्टा खेलने वाले कहीं से भी पैसा हासिल कर सट्टा खेलते हैं और उसके लिये अपने माता पिता और भाई बहिन को धोखा देने में उनको कोई संकोच नहीं होता। इतना ही नहीं वह बार बार मरने की धमकी देकर अपने ही पालकों से पैसा एैंठते हैं। कहा जाता है कि पूत अगर सपूत हो तो धन का संचय क्यों किया जाये और कपूत हो तो क्यों किया जाये? अगर धन नहीं है तो पूत ठीक हो तो धन कमा लेगा इसलिये संचय आवश्यक नहीं है और कपूत है तो बाद में डांवाडोल कर देगा पर अगर सट्टेबाज हुआ तो जीते जी मरने वाले हालत कर देता है।
देखा जाये तो कोई आदमी हत्या, चोरी, डकैती के आरोप में जेल जा चुका हो उससे मिलें पर निकटता स्थापित नहीं करे पर अगर कोई सट्टेबाज हो तो उसे तो मिलना ही व्यर्थ है क्योंकि इस धरती पर वह एक नारकीय जीव होता है। एक जो सबसे बड़ी बात यह है कि क्रिकेट पर लगने वाला सट्टा अनेक बड़े चंगे परिवारों का नाश कर चुका है और यकीनन कहीं न कहीं इससे देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है। देश से बाहर हो या अंदर लोग क्रिकेट पर सट्टा लगाते हैं और कुछ लोगों को संदेह है कि जिन मैचों पर देश का सम्मान दांव पर नहीं होता उनके निर्णय पर सट्टेबाजों का प्रभाव हो सकता है। शायद यही कारण है कि देश की इज्जत के साथ खेलकर सट्टेबाजों के साथ निभाने से खिलाड़ियों के लिये जोखिम भरा था।
इसलिये अंतर्राष्ट्रीय मैचों के स्थान पर क्लब स्तर के मैचों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। क्लब स्तर की टीमों मे देश के सम्मान का प्रश्न नहीं होता। सच क्या है कोई नहीं जानता पर इतना तय है कि क्रिकेट पर लगने वाला सट्टा देश को खोखला कर रहा है। जो लोग सट्टा खेलते हैं उन्हें आत्म मंथन करना चाहिये। वैसे तो पूरी दुनियां के लोग भ्रम में जी रही है पर सट्टा खेलने वाले तो उससे भी बदतर हैं क्योंकि वह इंसानों के भेष में कीड़े मकौड़ों की तरह जीवन जीने वाले होते हैं और केवल उसी सोच के इर्दगिर्द घूमते हैं और तथा जिनकी बच्चे, बूढे, और जवान सभी मजाक उड़ाते हैं।
…………………………

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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