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चाणक्य नीति-खोखले पेड़ पर हवा का प्रभाव नहीं होता


नीति विशारद चाणक्य जी का मानना है कि
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अंतःसारविहनानामुपदेशो न जायते।
मलयाचलसंसर्गान् न वेणुश्चंदनायते।।

मलयाचल पर्वत से प्रवाहित वायु के देह के स्पर्श से ही सामान्य पेड़ भी चंदन जैसे सुगंधित हो जाते हैं। एक मात्र बांस का पेड़ ही खोखला होता है जिस पर कोई हवा अपना प्रभाव नहीं डालती।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यहां महात्मा चाणक्य ने मनुष्य के गुणों पर प्रकाशा डाला है। जिस मनुष्य में उत्साह और विश्वास है वह कहीं थोड़ा ज्ञान अपने कान से सुनता या पढ़ता है तो उसे आत्मसात कर लेता है। उसे धारण कर वह अपना जीवन प्रसन्नता से व्यतीत करने मेें समर्थ होता है। इसके विपरीत जिन लोगों के अहंकार है वह ज्ञान चर्चा को एक व्यर्थ की चर्चा समझते हैं। इसके अलावा वह धनहीन ज्ञानी का मजाक उड़ाते हैं। उनके लिये धन संपदा और कथित सामाजिक प्रतिष्ठा ही जीवन का सार है। ऐसे लोगों को कितना भी ज्ञान दिया जाये पर प्रभाव नहीं पड़ता। जिस तरह मलयाचल पर्वत की वायु के स्पर्श से कोई भी हरा भरा पेड़ चंदन की खुशबु बिखरने लगता है पर बांस का पेड़ अपने खोखले पन के कारण ऐसा नहीं कर पाता। अहंकार और बुद्धिरहित व्यक्ति की भी यही स्थिति होती है। वह चाहे दिखावे के लिये अध्यात्मिक चर्चा करे लों या सत्संग में चले जायें पर उनका अज्ञान और अहंकार जा नहीं सकता।

इसलिये ज्ञान प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि पहले मन में मौजूद अहंकार पर नियंत्रण किया जाये। इसके अलावा मन में यह संकल्प करना भी जरूरी है कि हम ज्ञान चर्चा और सत्संग से अपने मन को शांत करेंगे। तभी अपने जीवन का आनंद उठाया जा सकता है।
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संत कबीर के दोहे: सच्चे भक्त हो तो परनिंदा छोड़ दो


माखी गहै कुबास को, फूल बास नहिं लेय
मधुमाखी है साधुजन, गुनहि बास चित देय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मक्खी हमेशा दुर्गंध ग्रहण करती है कि न फूलों की सुगंध, परंतु मधुमक्खी साधुजनों की तरह है जो कि सद्गण रूपी सुगंध का ही अपने चित्त में स्थान देती है।

तिनका कबहूं न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़ै, पीर धनेरी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कभी पांव के नीच आने वाले तिनके की भी उपेक्षा नहीं करना चाहिए पता नहीं कब हवा के सहारे उड़कर आंखों में घुसकर पीड़ा देने लगे।

जो तूं सेवा गुरुन का, निंदा की तज बान
निंदक नेरे आय जब कर आदर सनमान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर सद्गुरु के सच्चे भक्त हो तो निंदा को त्याग दो और कोई अपना निंदा करता है तो निकट आने पर उसका भी सम्मान करो।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-यह सच्चे भक्त की पहचान है कि वह किसी की निंदा नहीं करते न ही किसी में दोष देखते हैं। जो नित प्रतिदिन भक्ति करते हैं और फिर परनिंदा में लग जाते हैं उनकी भक्ति में दोष है यही समझना चाहिये। वैसे आम आदमी की बात ही क्या कथित संत और साधु भी एक दूसरे की निंदा करते हैं। निंदा करना आदमी के अंदर मौजूद नकारात्मक सोच का परिणाम है। जिनके मन में परमात्मा के प्रति सत्य में भक्ति का भाव है उनका सोच सकारात्मक रहता है और वह दूसरों की अच्छाईयों पर ही विचार कर उनको ग्रहण करते हैंं।

दूसरों के दोष देखकर उसकी चर्चा करने से वह दोष हमारे अंदर स्वतः आ जाता है। कहते हैं कि आलोचक को अपने से दूर नहीं रखना चाहिये क्योंकि उसके श्रीमुख से अपने दोष सुनने से हमें वह अपने अंदर से निकालने का अवसर मिल जाता है। यह दोष निकलकर उसके अंदर से जाता कहां है? तय बात है कि वह आलोचक के अंदर ही जाता है। जिस तरह भगवान की भक्ति करने से उनका सानिध्य मिलता है उसी तरह दूसरे की निंदा करना या दोष देखने से वह भी हमें प्राप्त होता है। यह दुनियां वैसी ही जैसी हमारी नीयत है अतः अच्छा देखें तो वह अच्छी लगेगी और अगर खराब देखेंगे तो वैसा ही बुरा भी लगेगा।
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