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वाह रे माया तेरा खेल, कभी बिठाये महल में तो कभी पहुंचाये जेल-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (play of money-hindi religius thought)


इस संसार की रचना सत्य और माया के संयोग से हुई है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का अध्ययन करें तो सत्य का कोई न रंग है, न रूप है, न चाल है चेहरा है और न ही उसका कोई नाम है न पहचान है। इसके विपरीत माया अनेक रंगों वाली है क्योंकि वह संसार को बहुत सारे रूप प्रदान करती है। वह पंचतत्वों से हर चीज बनाती है पर सबका रूप रंग अलग हो जाता है। इस धरती के अधिकतर लोग अपने मस्तिष्क में सत्य के तत्वज्ञान का संग्रह करने का प्रयास नहीं करते क्योंकि वह माया के रंग और रूप से मोहित हैं।
वैसे देखा जाये तो मनुष्य को क्या चाहिये? खाने को रोटी, पहने को कपड़े और रहने के लिये आवास! मगर इससे वह संतुष्ट नहीं होता। रोटी का संग्रह वह पेट में अधिक नहीं कर सकता। पेट में क्या वह लोहे की पेटी में भी कई दिन तक नहीं रोटी नहीं रख सकता। इसलिये गेंहूं खरीदकर रख लेता है। सब्जियां भी वह छह सात दिन से अधिक अपने यहां नहीं रख सकता। उसे हमेशा ताजी खरीदनी पड़ती हैं। इसे खरीदने के लिये चाहिये उसे मुद्रा।
मुद्रा यानि रुपया या पैसा। देखा जाये तो यह रुपया और पैसा तो झूठी माया में भी झूठा है। जितने में नोट या सिक्के का निर्माण होता है उससे अधिक तो उनका मूल्य होता है। राज्य के यकीन पर उसका मूल्य अधिक होता है। राज्य का यह वादा रहता है कि अगर कोई उस नोट या सिक्के का धारक उसके पास लायेगा तो वह उतने मूल्य का उसे सोना प्रदान करेगा। इस हिसाब से हम कह सकते हैं कि इस धरती पर माया का ठोस स्वरूप में सोना सबसे अधिक प्रिय है। सोना ठोस तथा दीर्घायु है पर उसका प्रतिनिधित्व कागज का जो नोट करता है वह समय के साथ पुराना पड़ जाता है। अब सोने का भी उपयोग समझ लें। उसे खाकर कोई पेट नहीं भर सकता। पेटी में रखकर लोग खुश रहते हैं कि उनका वह बड़ा सहारा है। यह सोच अपने आप में एक बहुत बड़ा भ्रम है। अगर कोई आपत्ति आ जाये तो उसी सोने को बाजा़ार में बेचकर फिर कागज के उसका प्रतिनिधित्व करने वाले रुपये या सिक्के प्राप्त करने पड़ते हैं। कहां दीर्घायु सोना अपने से अल्पजीवी कागज पर आश्रित हो जाता है।
एक विद्वान ने कहा था कि भारत में इतना सोना है कि सारी दुनियां एक तरफ और भारत एक तरफ। यकीन नहीं होता पर जिस तरह यहां गड़े धन मिलते हैं इस पर यकीन तो होता है कि यह देश हमेशा ही सोने का गुलाम रहा है। स्त्रियां गहने पहनती हैं। माता पिता दहेज में अपनी बेटी को गहने इस विश्वास के साथ देते हैं कि जब पहनेगी तो अपने मायके तथा ससुराल के में श्रीवृद्धि होगी। यदि कहीं उसे आर्थिक आपदा का सामना करना पड़ा तो वह सोना पितृतुल्य सेवा करेगा। उसके बाद कुछ लोग इस आशा से सोना करते हैं कि वही असली मुद्रा है। जैसे जैसे आदमी की दौलत बढ़ती है वह नोट और सिक्के की बजाय सोने की ईंटें रखने लगता है।
वह सोना सबको प्रिय है जो प्रत्यक्ष रूप से प्यास लगने पर पानी का एक घूंट नहीं पिला सकता और भूख लगने पर एक दाना भी नहीं खिला सकता मगर जिस अनाज से पेट भरता है उसे हमारे देश का आदमी पांव तले रौंदता है और जिस पानी से प्यास बुझती है उसे मुफ्त में बहाता है। सोना भारत में नहीं पैदा होता पर वह बड़ी मात्रा में इसलिये यहां है कि यहां प्रकृति की सबसे बड़ी कृपा है। दुनियां में भारत ही ऐसा देश है जहां भूजलस्तर सबसे ऊपर है। इसलिये यहां अधिकांश भाग में हरियाली बरसती है। जहां सोना या पेट्रोल पैदा होता है वहां रेत के पहाड़ हैं। लोग पानी को सोने की तरफ खर्च करते हैं।
माया स्वयं सक्रिय है और आदमी को भी सक्रिय रखती है। अपने आंख, कान, नाक और मुख को बाहरी दृश्यों में व्यस्त आदमी आत्म चिंतन नहीं करता। उसे अंदर झांकने से भय लगता है। कहीं न बोलने वाला सत्य बोलने लगा तो क्या कहेगा? न देखने वाला सत्य क्या देखेगा? उसके लिये लिये अंदर झांकने की सोचना भी कठिन है। ऐसे में वह माया के खेल में फंसा रहना ही वह जिंदगी समझता है। धीरे धीरे वह सत्य से इतना दूर हो जाता है कि लूट और मज़दूरी की कमाई का अंतर तक नहीं समझता। अनेक भ्रष्टाचारियों के यहां छापे मारने पर एक से दस किलो तक सोना मिला। इन घटनाओं से यह बात साबित हो गयी है कि हमारे देश में चिंतन की कमी है। यही कारण है कि दूसरे के मुंह में जाता निवाला भी लोग छीनकर उसे सोने में बदलते हैं।
प्रस्तुत है एक छोटी कविता
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वाह ने माया तेरा खेल,
कभी बिठाती महल में
कभी पहुंचाती जेल।
इंसान है इस भ्रम में जिंदा है
कि वह तुझसे खेल रहा है,
अपनी अल्मारी और खातों में
कहीं रुपया तो कही सोना ठेल रहा है,
ज़माने का लहू चूसकर
अपने घर सजा रहा है,
नचाती तू हैं
पर लगता इंसान को कि वह तुझे नचा रहा है,
अपने आगोश में तू भी फंसाये रहती है
इस दुनियां के इंसानो को
फिर सोने के घरों से निकालकर
लोहे की सलाखों के पीछे पहुंचाकर
निकाल देती है पूरी जिंदगी का तेल।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’
http://deepkraj.blogspot.com

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अंग्रेजी के लेखक यूं हिन्दी में पढ़े जाते-हिन्दी दिवस पर विशेष लेख (inglish writer, hindi readar-hindi diwas par vishesh lekh)


वह नब्बे साल के अंग्रेजी लेखक हैं मगर उनको हिन्दी आती होगी इसमें संदेह है पर हिन्दी के समाचार पत्र पत्रिकाऐं उनके लेख अपने यहां छापते हैं-यकीनन ऐसा अनुवाद के द्वारा ही होता होगा। वह क्या लिखते हैं? इसका सीधा जवाब यह है कि विवादों को अधिक विवादास्पद बनाना, संवेदनाओं को अधिक उभारना और कल्पित संस्मरणों से अपने अपने आप को श्रेष्ठ साबित करना। अगर हिन्दी के सामान्य लेखक से भी उनकी तुलना की जाये तो उनका स्तर कोई अधिक ऊंचा नहीं है मगर चूंकि हमारे प्रकाशन जगत का नियम बन गया है कि वह केवल एक लेखक के रूप में किसी व्यक्ति को तभी स्वीकार करेंगे जब उसके साथ दौलत, शौहरत तथा ऊंचे पद का बिल्ला लगा होना चाहिये। यह तभी संभव है जब कोई लेखक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का सानिध्य प्राप्त करे और दुर्भाग्य कि वह उनको ही मिलता है जिनको अंग्रेजी आती है और तय बात है कि देश के अनेक हिन्दी संपादक उनके प्रशंसक बन जाते हैं।
उन वृद्ध लेखक ने अपने एक लेख में भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन से वीर सावरकर की तुलना कर डाली। यकीनन यह चिढ़ाने वाली बात है। अगर अंग्रेजी अखबार में ही यह सब छप जाता तो कोई बात नहीं मगर उसे हिन्दी अखबार में भी जगह मिली। यह हिन्दी की महिमा है कि जब तक उसमें कोई लेखक न छपे तब तक वह अपने को पूर्ण नहीं मान सकता और जितने भी इस समय प्रतिष्ठित लेखक हैं वह अंग्रेजी के ही हैं इसलिये ही अपने अनुवाद अखबारों में छपवाते हैं। इससे प्रकाशन जगत और लेखक दोनों का काम सिद्ध होता है। अंग्रेजी का लेखक पूर्णता पाता है तो हिन्दी प्रकाशन जगत के कर्णधार भी यह सोचकर चैन की संास लेते हैं कि किसी आम हिन्दी लेखक की सहायता लिये बगैर ही हिन्दी में अपना काम चला लिया।
वह लेखक क्या लिखते हैं? उनका लिखा याद नहीं आ रहा है। चलिये उनकी शैली में कुछ अपनी शैली मिलाकर एक कल्पित संस्मरण लिख लेते हैं।
मैं ताजमहल पहुंच गया। उस समय आसमान में बादल थे पर उमस के कारण पसीना भी बहुत आ रहा था। कभी कभी ठंडी हवा चल रही थी तब थोड़ा अच्छा लगता था। बीच बीच में धूप भी निकल आती थी। ताजमहल के प्रवेश द्वार पर खड़ा होकर मैं उसे निहार रहा था। तभी वहां दो विदेशी लड़किया आयीं। बाद में पता लगा कि एक फ्रांस की तो दूसरी ब्रिटेन की है।
फ्रांसीसी  लड़की मुझे एकटक निहारते हुए देखकर बोली-‘‘आप ताजमहल को इस तरह घूर कर देख रहे हैं लगता है आप यहां पहली बार आये हैं। आप तो इसी देश के ही हैं शायद….आप इस ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं।’
मैं अवाक होकर उसे देख रहा था। वह बहुत सुंदर थी। उसने जींस पहन रखी थी। उसके ऊपर लंबा  पीले रंग का कुर्ता  उसके घुटनों तक लटक रहा था। मैने उससे कहा-‘‘ मैं ताजमहल देखने आज नहीं आया बल्कि एक प्रसिद्ध लेखक की किताब यहां ढूंढने आया हूं। उस किताब को अनेक शहरों में ढूंढा पर नहीं मिली। सोच रहा हूं कि यहां कोई हॉकर शायद उसे बेचता हुए मिल जाये। वह किताब मिल जाये तो उसे पढ़कर कल तसल्ली से ताज़महल देखूंगा और सोचूंगा।’
वह फ्रांसीसी  लड़की पहले तो मेरी शक्ल हैरानी से देखने लगी फिर बोली-‘पर आप तो एकटक इसे देखे जा रहे हैं और कहते हैं कि कल देखूंगा।’’
मैंने कहा-‘‘मेरी आंखें वहां जरूर हैं पर ताजमहल को नहीं  देख रहा और न सोच रहा  क्योंकि उसके लिये मुझे उस प्रसिद्ध लेखक की एक अदद किताब की तलाश है जिसमें यह दावा किया गया है कि ताजमहल किसी समय तेजोमहालय नाम का एक शिव मंदिर था।’’
उसके पास खड़ी अंग्रेज लड़की ने कहा-‘हमारा मतलब यह था कि आप इस समय ताजमहल के बारे में क्या सोच रहे हैं? वह किताब पढ़ने के बाद आप जो भी सोचें, हमारी बला से! आप किताब पढ़ने की बात बताकर अपने आपको विद्वान क्यों साबित करना चाहते हैं?’
मैंने कहा-‘नहीं, बिना किताब पढ़े हम आधुनिक हिन्दी लोगों की सोच नहीं चलती। मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूं, बस मुझे वह किताब मिल जाये तो….अपना विचार आपको बता दूंगा।’
अंग्रेज लड़की ने कहा-‘कमाल है! एक तो हम यहां ताज़महल देख रहे है दूसरा आपको! जो किताब पढ़े बिना अपनी सोच बताने को तैयार नहीं है।’
मैंने कहा-‘क्या करें? आपके देश की डेढ़ सौ साल की गुलामी हमारी सोचने की ताकत को भी गुलाम बनाकर रख गयी। इसलिये बिना किताब के चलती नहीं।’
बात आयी गयी खत्म हो गयी थी। मैं शाम को बार में बैठा अपने एक साथी के साथ शराब पी रहा था। मेरा साथी उस समय मेरे सामने बैठा सिगरेट के कश लेता हुआ मेरी समस्या का समाधान सोच रहा था।’
नशे के सरूर में मेरी आंखें भी अब कुछ सोच रही थीं। अचानक मेरे पास दो कदम आकर रुके और सुरीली आवाज मेरी कानों गूंजी-‘हलौ, आप यहां क्या ताज़महल पर लिखी वह किताब ढूंढने आये हैं।’
मैने अचकचा कर दायें तरफ ऊपर मुंह कर देखा तो वह फ्रांसिसी लड़की खड़ी थी। उसके साथ ही वह अंग्रेज लड़की कुछ दूर थी जो अब पास आ गयी। वह फ्रांसिसी लड़की मुस्करा रही थी और यकीनन उसका प्रश्न मजाक उड़ाने जैसा ही था।
मैंने हंसकर कहा-‘हां, इस कबाड़ी को इसलिये ही यहां लाया हूं क्योकि इसने वादा किया है कि एक पैग पीने का बाद याद करेगा कि इसने वह किताब कहां देखी थी। वह किताब उसके कबाड़ की दुकान पर भी हो सकती है, ऐसा इसने बताया।’’
अंग्रेज लड़की बोली-‘अच्छा! आप अगर किताब पा लें तो पढ़कर कल हमें जरूर बताईयेगा कि ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं? कल हम वहां फिर आयेंगीं।’
मैंने कहा-‘ताजमहल एक बहुत अच्छी देखने लायक जगह है। उसे देखकर ऐसा अद्भुत अहसास होता है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।’
दोनों लड़कियां चौंक गयी। अंग्रेज लड़की बुझे घूरते हुए बोली-‘पर आपने तो वह किताब पढ़ी भी नहीं। फिर यह टिप्पणी कैसे कर दी। आप तो बिना किताब पढ़े कुछ सोचते ही नहीं’।
मैंने कहा-‘हां यह एक सच बात है पर दूसरा सच यह भी है कि शराब सब बुलवा लेती है जो आप सामान्य तौर से नहीं बोल पाते।’’
यह था एक कल्पित संस्मरण! यह कुछ बड़ा हो गया और इसे ताज़महल से बार तक इसे खींचकर नहीं लाते तो भी चल जाता पर लिखते लिखते अपनी शैली हावी हो ही जाती है क्योकि ताज़महल तक यह संस्मरण ठीक ठाक था पर उससे आगे इसमें कुछ अधिक प्रभाव लग रहा है।
मगर हम जिस लेखक की चर्चा कर रहे हैं वह इसी तरह ही दो तीन संस्मरण लिखकर और साथ में विवादास्पद मुद्दों पर आधी अधूरी होने के साथ ही बेतुकी राय रखकर लेख बना लेते हैं।
वैसे भी अंग्रेजी में लिखने पर हिन्दी में प्रसिद्धि पाने वाले लेखक को शायद ही हिन्दी लिखना आती हो पर अपने यहां एक कहावत हैं न कि ‘घर का ब्राह्म्ण बैल बराबर, आन गांव का सिद्ध’। अंग्रेजी लेखक को ही सिद्ध माना जाता है और हिन्दी को बेचारा। अंग्रेजी के अनेक लेखक बेतुकी, और स्तरहीन लिखकर भी हिन्दी में छाये रहते हैं। इनमें से अधिकतर राजनीतिक घटनाओं पर संबंधित पात्रों का नाम लिखकर ही उनका प्रसिद्ध बनाते हैं-अब यह उस पात्र की प्रशंसा करें या आलोचना दोनों में उसका नाम तो होता ही है। इनमें इतनी तमीज़ नहीं है कि जो व्यक्ति देह के साथ जीवित नहीं हो उस पर आक्षेपात्मक तो कभी नहीं लिखना चाहिये। कम से कम उनकी मूल छबि से तो छेड़छाड़ नहीं करना चाहिये। भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन की छबि अच्छी नहीं है पर सावरकर को एक योद्ध माना जाता है। उनके विचारों से किसी को असहमति हो सकती है पर इसको लेकर उनकी छबि पर प्रहार करना एक अनुचित कृत्य हैं। बहरहाल हिन्दी में ऐसे ही चिंदी लेखक प्रसिद्ध होते रहे हैं और यही शिकायत भी करते हैं कि हिन्दी में अच्छा लिखा नहीं जा रहा। चिंदी लेखक यानि अंग्रेजी में टुकड़े टुकड़े लिखकर उसके हिन्दी में बेचने वाले
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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हिन्दू धर्म संदेश-अज्ञानी करते हैं स्वर्ग की कल्पना


भर्तृहरि महाराज के अनुसार 
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स्वपरप्रतारकोऽसौ निन्दति योऽलीपण्डितो युवतीः।
यस्मात्तपसोऽपि फलं स्वर्गस्तस्यापि फलं तथाप्सरसः।।
हिन्दी में भावार्थ-
शास्त्रों का अध्ययन करने वाले कुछ अल्पज्ञानी विद्वान व्यर्थ ही स्त्रियों की निंदा करते हुए लोगों को धोखा देते हैं क्योंकि तपस्या तथा साधना के फलस्वरूप जिस स्वर्ग की प्राप्ति होती है उसमें भी तो अप्सराओं के साथ रमण करने का सुख मिलने की बात कही जाती है।
उन्मतत्तप्रेमसंरम्भादारभन्ते यदंगनाः।
तत्र प्रत्यूहमाधातुं ब्रह्मापि खलु कातरः।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रेम में उन्मत होकर युवतियां अपने प्रियतम को पाने के लिये कुछ भी करने लगती हैं। उनके इस कार्य को रोकने का ब्रह्मा भी सामर्थ्य नहीं रखता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-विश्व के अनेक धर्मों की बड़ी बड़ी किताबें लिखी गयी हैं। उन सभी को पढ़ना कठिन है, पर कोई एक भी पढ़ी जाये तो उसमें तमाम तरह की विसंगतियां नज़र आती है। अधिकतर धार्मिक पुस्तकों के रचयिता पुरुष हैं इसलिये स्त्रियों पर नियंत्रण रखने के लिये विशेष रूप से कुछ कुछ लिखा गया है। यह शोध का विषय है कि आखिर सारे धर्म ही स्त्रियों पर नियंत्रण की बात क्यों करते हैं पुरुष को तो एक देवता मानकर प्रस्तुत किया जाता है। सच बात तो यह है कि अगर पुरुष देवता नहंी है तो नारी भी कोई देवी नहीं है। हर मनुष्य परिस्थतियों, संस्कारों और व्यक्तिगत बाध्यताओं के चलते अपना सामाजिक व्यवहार करता है। अब यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसे प्रेरणा कैसी मिलती है। अगर प्रेरणास्त्रोत बुरा है तो वह भी बुरा ही करेगा अगर अच्छा है तो वह अच्छे काम में लिप्त हो जायेगा।
दूसरी जो सबसे बड़ी अहम बात है वह यह कि हर पुरुष और स्त्री का व्यवहार तय करने में उसकी आयु का बहुत योगदान होता है। बाल्यकाल तो अल्लहड़पन में बीत जाता है। उसके बाद युवावस्था में स्त्री पुरुष दोनों का मन नयी दुनियां को देखने के लिये लालायित होता है। विपरीत लिंग का आकर्षण उनको जकड़ लेता है। ऐसे में उन पर जो नियंत्रण की बात करते हैं वह या तो बूढ़े हो चुके होते हैं या फिर जिनका जीवन असाध्य कष्टों के बीच गुजर रहा होता है। कभी कभी तो यह लगता है कि दुनियां के अनेक धर्म ग्रंथ बूढ़े लोगों द्वारा ही लिखे या लिखवाये गये हैं क्योंकि उसमें औरतों पर ही नियंत्रण की बात की जाती है पुरुष को तो स्वाभाविक रूप से आत्मनिंयत्रित माना जाता हैं स्त्रियों के लिये मुंह ढंकने, पिता या भाई के साथ ही घर के बाहर निकलने तथा ऊंची आवाज में न बोलने जैसी बातें कहीं जाती हैं। कभी कभी तो लगता है कि युवतियों की युवावस्था अनेक धर्म लेखकों और विद्वानों के बहुत बुरी लगती है। इसलिये अतार्किक और अव्यवाहारिक बातें लिखते हैं। स्त्री हो या पुरुष युवावस्था में स्वाभाविक रूप से हर जीव अनिंयत्रित होता है-मनुष्य ही नहीं पशु पक्षियों में भी काम वासना की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से देखी जाती है। इस पर युवा स्त्रियों पर नियंत्रण की बात तो व्यर्थ ही लगती है क्योंकि अपने प्रियतम को पाने के लिये जो वह करती हैं उसे रोकने का सामर्थ्य तो विधाता भी नहीं रखता। अलबत्ता सभ्य, कुलीन, शिक्षित तथा बुद्धिमान लड़कियां स्वयं पर नियंत्रण रखती हैं इसलिये ही समाज में अभी तक नैतिकता का आधार बना हुआ है। ऐसी लड़कियों को धार्मिक शिक्षक न भी समझायें तो भी वह मर्यादा में रहती हैं पर जो भटकने पर आमादा है उनको रोकना किसी के लिये संभव नहीं है। कम से कम भर्तृहरि महाराज की समझाइश के अनुसार तो स्त्रियों पर सामाजिक नियंत्रण की बात तो करना ही नहीं चाहिए। दूसरी बात यह कि स्वर्ग कि कल्पना वास्तविकता पर आधारित न होकर अज्ञानियों तथा अल्पज्ञानियों की कल्पना मात्र है।
लोगों के मरने के बाद स्वर्ग पाने की इच्छा का चालाक धार्मिक दलालों ने खूब दोहन किया है और वह अपनी कमाई के लिये उनको तमाम तरह के कर्मकांड करने के लिये प्रेरित करते हैं। अतः जिन लोगों को भारतीय अध्यात्म का ज्ञान है उनको इस बात का प्रचार करना चाहिये कि स्वर्ग और नरक केवल एक भ्रम है। अलबत्ता अपने अच्छे कामों से इस धरती पर स्वर्ग भोगा जा सकता है और बुरे कर्मो यही नरक का वातावरण बना देते हैं।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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विदुर दर्शन-सत्य से ही धर्म की रक्षा संभव (satya se hi dharma ki raksha sanbhav)


सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
सत्य से धर्म, योग से विद्या, सफाई से सुंदरता और सदाचार से कुल की रक्षा होती है। 


पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मन्त्रिबान्धवाः।।
पतयो बान्धवा स्त्रीणां ब्राह्मण वेदबान्धवा।।
हिन्दी में भावार्थ-
पशुओं के सहायक बादल, राजाओं के सहायक मंत्री, स्त्रियों के सहायक पति के साथ बंधु और विद्वानों का सहायक ज्ञान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में ज्ञान का होना जरूरी है अन्यथा हम अपने पास मौजूद व्यक्तियों, वस्तुओं तथा उपलब्धियों का सही उपयोग नहीं कर सकते। एक बात याद रखना चाहिये कि हमारे साथ जो लोग होते हैं उनका महत्व होता है।  अंधेरे में तीर चलाने से कुछ नहीं होता, इसलिये जीवन के सत्य को समझ लेना चाहिये। राजाओं के सहायक मंत्री होते हैं। इसका आशय साफ है कि अपने मित्र और सलाहकार के चयन में हर आदमी को सतर्कता बरतना चाहिये।
स्त्रियों की स्वतंत्रता बुरी नहीं है पर उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि उनकी रक्षा उसके परिवार के पुरुष सदस्य ही कर सकते हैं।  उनको बाहर के व्यक्तियों से यह अपेक्षा नहीं करना चाहिये कि वह उनकी रक्षा करेंगे भले ही चाहे वह कितना भी दावा करें।  हम अक्सर ऐसी वारदातें देखते हैं जिसमें स्त्रियों के साथ धोखा होता है और इनमें अधिकतर उनमें अपने ही  लोग होते हैं। इनमें भी अधिक संख्या उनकी होती है  जो परिवार के बाहर के होने के बावजूद उनसे निकटता प्राप्त करते हैं।  स्त्रियों के मामले में यह भी दिखाई देता है कि उनके साथ विश्वासघात अपने ही करते हैं पर इनमें अधिकतर संख्या  उन लोगों की होती है जो बाहर के होने के साथ  अपने बनने का नाटक हुए   उनको धर्म और चरित्र पथ से भ्रष्ट भी करते हैं।
हम लोगों का यह भ्रम होता है कि बादल हमारे लिये बरस रहे हैं।  जब बादल नहीं बरसते तब तमाम तरह के धार्मिक कर्मकांड किये जाते हैं। बरसते हैं तो धर्म के ठेकेदार अनेक प्रकार के दावे करते हैं जबकि सच्चाई यह है कि बादल धरती पर स्थित पेड़ पौद्यों तथा पशुओं के रक्षक हैं और इसलिये उनका तो बरसना ही है।
आजकल भारतीय योग साधना का प्रचार हो रहा है। दरअसल यह योग साधना न केवल स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त है बल्कि उससे हमारी विद्या तथा ज्ञान की रक्षा भी होती है। इसलिये जो लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे प्रतिभाशाली हों उन्हें चाहिये कि वह इसके लिये उनको प्रेरित करें।  आजकल कठिन प्रतियोगिता का समय है और ऐसे में योग साधना ही एक ऐसा उपाय दिखती है जिससे उनकी प्रतिभा को सोने जैसी चमक मिल सकती है। सच बात तो यह है कि इस संसार में खुश रहने के लिये योग साधना के अलावा कोई अन्य उपाय है इस पर विश्वास करना कठिन है। 

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संत कबीर दास के दोहे-परोपकार पर ही यश मिलना संभव (kabir ke dohe-paropkar aur yash)


धन रहै न जोबन रहे, रहै न गांव न ठांव।
कबीर जग में जस रहे, करिदे किसी का काम।

    संत कबीर दास जी कहते हैं कि एक दिन यह न धन रहेगा न यह यौवन ही साथ होगा। गांव और घर भी छूट जायेगा पर रहेगा तो अपना यश, यह तभी संभव है कि हमने किसी का काम किया हो।
स्वारथ सूका लाकड़ा, छांह बिहना सूल।
पीपल परमारथ भजो, सुख सागर को मूल।।

    संत कबीरदास जी का कहना है कि स्वार्थ तो सूखी लकड़ी के समान हैं जिसमें न तो छाया मिलती है और न ही सुख। एक तरह से वह कांटे की तरह है। इसके विपरीत परमार्थ पीपल के पेड़ के समान हैं जो सुख प्रदान करता है।
    वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह लोगों की गलतफहमी है कि वह भौतिक उपलब्धियों के कारण सम्मान पा रहे हैं। लोग अपनी आर्थिक उपलब्धियों, परिवार की प्रतिष्ठा और अपने कर्म का बखान स्वयं करते हैं। मजा तो तब है जब दूसरे आपकी प्रशंसा करें और यह तभी संभव है कि आप अपने काम से दूसरे की निस्वार्थ भाव से सहायता कर उसको प्रसन्न करें।
    आप कहीं किसी धार्मिक स्थान, उद्यान या अन्य सार्वजनिक स्थान पर जाकर बैठ जायें। वहां आपसे मिलने वाले लोग केवल आत्मप्रवंचना में लगे मिलेंगे। हमने यह किया, वह किया, हमने यह पाया और हमने यह दिया जैसे जुमले आप किसी के भी श्रीमुख से नहीं सुन पायेंगे।
    दरअसल बात यह है कि सामान्य मनुष्य पूरा जीवन अपने और परिवार के लिये धन का संचय कर यह सोचता है कि वह सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित कर रहा है और परमार्थ करना उसके लिये एक फालतू विषय है। जब उससे धन और यौवन विदा होता है तब वह खाली बैठे केवल अपने पिछले जीवन को गाता है पर सुनता कौन है? सभी तो इसमें ही लगे हैं। इसलिये अगर ऐसा यश पाना है जिससे जीवन में भी सम्मान मिले और मरने पर भी लोग याद करें तो दूसरों के हित के लिये काम करें। जब समय निकल जायेगा तब पछताने से कोई लाभ नहीं होगा। बिना परोपकर के यश या प्रतिष्ठा मिल जाने की सोचना भी व्यर्थ है।
   अतः समय रहते हुए ज्ञान प्राप्त करने के साथ ही परोपकार भी करना चाहिये।
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ज्योतिष, नववर्ष और सितारे- नये वर्ष पर विशेष लेख (hindi satire on new year 2010)


धरती के सितारों को अपने सितारों की फिक्र नहीं जितनी कि उनके चेहरे, अदायें और मुद्रायें बेचने वालों को है। धरती के बाकी हिस्से का नहीं पता पर भारतीय धरती के सितारे तो दो ही बस्तियों में बसते हैं-एक है क्रिकेट और दूसरी है फिल्म। यही कारण है कि टीवी चैनल ज्योतिषियों को लाकर उनका भविष्य अपने कार्यक्रमों में दिखा रहे हैं। समाचार चैनलों को कुछ ज्यादा ही फिक्र है क्योंकि वह नव वर्ष के उपलक्ष्य में कोई प्रत्यक्ष कार्यक्रम नहीं बनाते बल्कि मनोरंजन चैनलों से उधार लेते हैं। इसलिये अगर इस साल का आखिरी दिन का समय काटना कहें या टालना या ठेलना उनके लिये दुरुह कार्य साबित होता दिख रहा है।
उनको इंतजार है कि कब रात के 12 बजें तो नेपथ्य-पर्दे के पीछे-कुछ संगीत को शोर तो कुछ फटाखों के स्वर से सजी पहले से ही तैयार धुनें बजायें और उसमें प्रयोक्ताओं को आकर्षित अधिक से अधिक संख्या में कर अपने विज्ञापनदाताओं को अनुग्रहीत करें-अनुग्रहीत इसलिये लिखा क्योंकि विज्ञापनदाताओं को तो हर हाल में विज्ञापन देना है क्योंकि उनके स्वामियों को भी इन समाचार चैनलों में अपने जिम्मेदार व्यक्तित्व और चेहरे प्रचार कराना है। इस ठेला ठेली में एक दिन की बात क्या कहें पिछले एक सप्ताह से सारे चैनल जूझ रहे हैं-नया वर्ष, नया वर्ष। ऐसे में समय काटना जरूरी है तो फिर क्रिकेट और फिल्म के सितारों का ही आसरा बचता है क्योंकि उनके विज्ञापनों में अधिकतर वही छाये रहते हैं।
अगर किसी सितारे की फिल्म पिट जाये तो भी उनके विज्ञापन पर गाज गिरनी है और किसी क्रिकेट खिलाड़ी का फार्म बिगड़ जाये तो भी उनको ही भुगतना है-याद करें जब 2007 में पचास ओवरीय क्रिकेट मैचों की विश्व कप प्रतियोगिता में भारत हारा तो लोगों के गुस्से के भय से सभी ने उनके अभिनीत विज्ञापनों कोे हटा लिया था और यह तब तक चला जब भारत को बीस ओवरीय क्रिकेट प्रतियोगिता जीतने का मौका नहीं दिया गया! उस समय बड़े बड़े नाम गड्ढे में गिर गये लगते थे पर फिर अब वही सामने आ गये हैं। जिनके भविष्य पूछे जा रहे हैं यह वही हैं जिनका 2007 में दस महीने तक लोग चेहरा तक नहीं देखना चाहते थे।
हैरानी होती है यह सब देखकर! कला, खेल, साहित्य, पत्रकारिता तथा अन्य आदर्श क्षेत्रों पर बाजार अपने हिसाब से दृष्टि डालता है और उस पर आश्रित प्रचार माध्यम वैसे ही व्यवहार करते हैं।
उद्घोषक पूछ रहा है कि ‘अमुक खिलाड़ी का नया वर्ष कैसा रहेगा?’ज्योतिषी बता रहा है‘ ग्रहों की दशा ठीक है। इसलिये उनका नया साल बहुत अच्छा रहेगा।’
नेपथ्य में बैठा प्रचार प्रबंधक चैन की सांस ले रहा होगा-‘चलो, यार इसके विज्ञापन तो बहुत सारे हैं। इसलिये अपने ग्रह अच्छे हैं।’
फिर ज्योतिषी दूसरे खिलाड़ी के बारे में बोल रहा है-‘उसके ग्रह भारी हैं। अमुक ग्रह की वजह से उनके चोटिल रहने की संभावनायें हैं, हालांकि इसके बावजूद उनका प्रदर्शन अच्छा रहेगा।’
प्रचार प्रबंधक ने सोचा होगा-‘अरे यार, ठीक है चोटिल रहेगा तो भी खेलेगा तो सही! अपने विज्ञापन तो चलते रहेंगे। हमें क्या!
तीसरे खिलाड़ी के बारे में ज्योतिषी जब बोलने लगा तो उसके अधरों पर एक मुस्काल खेल गयी-शायद वह सोच रहे थे कि सारी दुनियां इस खिलाड़ी के भविष्यवाणी का इंतजार कर रही है और वह अपने मेहमान चैनल के सभी लोगों का खुश करने जा रहे हैं। वह बोले-‘यह खिलाड़ी तो स्वयं ही बड़ा सितारा है। इसके पास अभी साढ़े तीन साल खेलेने के लिये हैं। यह भी बढ़िया रहेंगे!’
उदुघोषक भी खुश हो गया क्योंकि उसे लगा होगा कि नेपथ्य में बैठा प्रचार प्रबंधक इससे बहुत उत्साहित हुआ होगा। वह बीच में बोला-‘वह सितार क्या अगले वर्ष भी ऐसे ही कीर्तिमान बनाता रहेगा, जैसे इस साल बना रहा है।’
ज्योतिषी ने कहा-‘हां!’
वहां मौजूद सभी लोगों के चेहरे पर खुशी भरी मुस्कान की लहरें खेलती दिख रही थीं।
हमें भी याद आया कि हम पुराने ईसवी संवत् से नये की तरफ जा रहे हैं इसलिये बाजार और प्रचार के इस खेल में बोर होने से अच्छा है कि अपना कुछ लिखें। हमारी परवाह किसे है? हम ठहरे आम प्रयोक्ता! आम आदमी! विदेशों का तो पता नहीं पर यहां बाजार अपनी बात थोपता है। ऐसे ज्योतिष कार्यक्रम तीन महीने बाद फिर दिखेंगे जब अपना ठेठ देशी नया वर्ष शुरु होगा पर उस समय इतना शोर नहीं होगा। बाजार ने धीरे धीरे यहां अपना ऐजेंडा थोपा है। अरे, जिसे वह कीर्तिमान बनाने वाला सितारा कह रहे हैं उसके खाते में ढेर सारी निजी उपलब्धियां हैं पर देश के नाम पर एक विश्व कप नहीं है।
सोचा क्या करें! इधर सर्दी ज्यादा है! बाहर निकल कर कहां जायें! ऐसे में अपना एक पाठ ठेल दें। अपना भविष्य जानने में दिलचस्पी नहीं है क्योंकि डर लगता है कि कोई ऐसा वैसा बता दे तो खालीपीली का तनाव हो जायेगा। जो खुशी आयेगी वह स्वीकार है और जो गम आयेगा उससे लड़ने के लिये तैयार हैं। फिर यह समय का चक्र है। न यहां दुःख स्थिर है न सुख। अगर हम भारतीय दर्शन को माने तो आत्मा अमर है इसका मतलब है कि जीवन ही स्थिर नहीं है मृत्यु तो एक विश्राम है। ऐसे में उस सर्वशक्तिमान को ही नमन करें जो सभी की रक्षा करता है और समय पड़ने पर दुष्टों का संहार करने के लिये स्वयं प्रवृत्त भी होता है।
बहरहाल याद तो नहीं आ रहा है पर उस दिन कहीं सुनने, पढ़ने या देखने को मिला कि कुंभ राशि में बृहस्पति महाराज का प्रवेश हो रहा है। बृहस्पति सबसे अधिक शक्ति शाली ग्रह देवता हैं और वाकई उसके बाद हमने महसूस किया जीवन के कमजोर चल रहे पक्ष में मजबूती आयी। वैसे नाम से हमारी राशि मीन पर जन्म से कुंभ है। इन दोनों का राशिफल करीब करीब एक जैसा रहता है। हमारे सितारों की फिक्र हम नहीं करते पर दूसरा भी क्यों करेगा क्योंकि हम सितारे थोड़े ही हैं। यह अलग बात है कि सितारे अपने सितारों की फिक्र नहीं भी करते हों-इसकी उनको जरूरत भी क्या है-पर उनके सहारे धन की दौलत के शिखर पर खड़ा बाजार और उसके सहारे टिका प्रचार ढांचे से जुड़े लोगों को जरूर फिक्र है वह भी इसलिये क्योंकि वह बिकती जो है।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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इशारे-हिन्दी व्यंग्य कविता (ishare-hindi satire poem)


तैश में आकर तांडव नृत्य मत करना
चक्षु होते हुए भी दृष्टिहीन
जीभ होते हुए भी गूंगे
कान होते हुए भी बहरे
यह लोग
इशारे से तुम्हें उकसा रहे रहे हैं।
जब तुम खो बैठोगे अपने होश,
तब यह वातानुकूलित कमरों में बैठकर
तमाशाबीन बन जायेंगे
तुम्हें एक पुतले की तरह
अपने जाल में फंसा रहे हैं।

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हिन्दू धर्म संदेश-बड़ा वही है जो गरीब पर कृपा करे (garib par kripa karen-hindu dharm sandesh)


जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग

कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।

जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।वैसे भी बड़े तथा अमीर लोगों को अपने छोटे और गरीब पर दया के लिये काम करते रहना चाहिये क्योंकि इससे समाज में समरसता का भाव बना रहता है। जब तक समाज का धनी तबका गरीब पर दया नहीं करेगा तब तक आपसी वैमनस्य कभी ख़त्म नहीं हो सकता है।


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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विदुर नीति-कटुवाणी बोलने से अनर्थ होता है-katu vani se anarth-vidur niti


अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता।
सैव दुर्भाषिता राजन्नर्थायोपपद्यते।।
हिंदी में भावार्थ-अच्छे और मधुर ढंग से कही हुई बात से सभी का कल्याण होता है पर यदि कटु वाक्य बोले जायें तो महान अनर्थ हो जाता है।

वाक्संयमो हि नपते सुदुष्करतमो मतः।
अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यं बहु भाषितम्।
हिंदी में भावार्थ-
मुख से वाक्य बोलने पर संयम रखना तो कठिन है पर हमेशा ही अर्थयुक्त तथा चमत्कारपूर्ण
वाणी भी अधिक नहीं बोली जा सकती
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-यह सच है कि अपनी वाणी पर सदैव संयम रखना कठिन है। दूसरा यह भी कि हमेशा अपने मुख से चमत्कार पूर्ण वाक्य निकलें यह संभव नहीं है। पांच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्तियां हमेशा अपना घर किये बैठी हैं और जब तक आदमी उन पर दृष्टि रखता है तभी तब नियंत्रण में रहती हैं। जहां आदमी ने थोड़ा दिमागी आलस्य दिखाया उनका आक्रमण हो जाता है और मनुष्य उनके प्रभाव में अपने ही मुख से अंटसंट बकने लगता है। आत्मनिंयत्रण करना जरूरी है पर पूर्ण से करना किसी के लिये संभव नहीं है। हम हमेशा अच्छा बोलने का प्रयत्न करें पर दूसरे लोग कभी न कभी अपने व्यवहार से उत्तेजित कर गलत बोलने को बाध्य कर ही देते हैं।

मधुर स्वर और प्रेमभाव से कही गयी बात का प्रभाव होता है यह सत्य है। इसी तरह ही अपने जीवन को सहजता से व्यतीत किया जा सकता है। कठोर एवं दुःख देने वाली वाणी बोलकर भले ही हम अपने अहं की शांति कर लें पर कालांतर में वह स्वयं के लिये ही बहुत कष्टदायी होती है। यह तय है कि हम अपनी मधुर वाणी से दस काम किसी से करवा सकते हैं पर कठोर वाणी से किसी को कष्ट पहुंचाकर स्वयं भी चैन से नहीं बैठ सकते। प्रयास तो यही करना चाहिये कि जब भी हम अपने मुख से कोई शब्द निकालें तो वह दूसरे को प्रिय लगे। जीवन में आनंद तथा प्रतिष्ठा पाने का यही एक तरीका है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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संत कबीरदास के दोहे- दूसरे की पीड़ा मूर्ख लोग नहीं समझते (kabir sandesh in hindi)


         पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष के , भिस्त बसै क्यौं नांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।

         वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।

आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगों में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये । आजकल विश्व में अहिंसा का आशय केवल ; मनुष्यों के प्रति हिंसा निषिद्ध करने से लिया जाता है जबकि अहिंसा का वास्तविक आशय समस्त जीवों के प्रति हिंसा न करने से है। किसी को मानसिक पीड़ा देना भी हिंसा के श्रेणी में आता है।
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