Category Archives: kabir ke dohe

कबीरदास साहित्य-सूर्य के उगते ही चाँद छिप जाता है (surya aur chaandrama-kabirdas sahitya)


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
————————–

तारा मण्डल बैठि के, चांद बड़ाई खाय।
उदै भया जब सूर का, तब तारा छिपि जाय।।

आसमान में तारा मंडल में बैठकर चांद बढ़ाई प्राप्त करता है पर जैसे ही सूर्य नारायण का उदय होता है वैसे ही तारा मंडल और चंद्रमा छिप जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां अज्ञान होता है वह थोड़ा बहुत ज्ञान रट लेते हैं और उसी के सहारे प्रवचन कर अपने आपको विद्वान के रूप में प्रतिष्ठत करते हैं। आज के भौतिकतावादी युग में विज्ञापन की महिमा अपरंपार हो गयी है। इसने आदमी की चिंतन, मनन, अनुसंधान और अभिव्यक्ति क्षमता लगभग नष्ट कर दिया है। मनोरंजन के नाम पर लोग टीवी, अखबार तथा इंटरनेट पर सामग्री तलाशते हैं जो कि बाजार और विज्ञापन के सहारे ही हैं। इन विज्ञापनों में आदमी का सोच का अपहरण कर लिया है। उनकी सहायता करते हैं वह धार्मिक लोग जिनके पास रटा रटाया ज्ञान है और वह लोगों को तत्व ज्ञान से दूर रहकर केवल परमात्मा के स्वरूपों की कथायें मनोरंजन के रूप में सुनाकर भक्ति करवाते हैं।

सच बात तो यह है कि ज्ञान का सपूर्ण स्त्रोत है ‘श्रीमद्भागवत गीता’। पर हमारे कथित धार्मिक ज्ञानियों ने उसका केवल सन्यासियों के लिये अध्ययन करना उपयुक्त बताया है। यही कारण है कि काल्पनिक फिल्मों के नायक और नायिकाओं को देवता के रूप में प्रतिष्ठत कर दिया जाता है। लोग सत्संग की चर्चा की बजाय आपसी वार्तालाप में उनकी अदाओं और अभिनय की चर्चा करते हुए अपना खाली समय बिताना पसंद करते हैं। इन अभिनय को सितारा भी कहा जाता है-अब इन सितारों में कितनी अपनी रौशनी है यह समझा जा सकता है। वह लोग संवाद दूसरों को लिखे बोलते हैं। नाचते किसी दूसरे के इशारों पर हैं। हर दृश्य में उनके अभिनय के लिये कोई न कोई निर्देशक होता है।

उसी तरह ऐसे लोग भी समाज सेवी के रूप में प्रतिष्ठत हो जाते हैं जिनका उद्देश्य उसके नाम पर चंदा वसूल कर अपना धंधा करना होता है। इतना ही नहीं वह लोग महान लेखक बन जाते हैं जो भारतीय अध्यात्म के विपरीत लिखते हैं और जो उस पर निष्काम भाव से लिखते हैं उनको रूढि़वादी और पिछड़ा माना जाता है। कुल मिलाकर इस दुनियां में एक कृत्रिम दुनियां भी बना ली गयी है जो दिखती है पर होती नहीं है।
हमारे देश के लोगों को कथित आधुनिक विचारों के नाम पर ऐसे जाल में फंसाया गया है जिसमें चंद्रमा की तरह उधार की रौशनी लेकर अपनी शेखी स्वयं बघारने वाले ही सम्मान पाते हैं। इस जाल में वह लोग नहीं फंसते जो भारतीय अध्यात्म में वर्णित तत्व ज्ञान के पढ़, सुन और समझ कर धारण कर लेते हैं। भारतीय अध्यात्म ज्ञान तो सूर्य की तरह है जिसमें इस प्रथ्वी पर मौजूद हर चीज की सत्यता को समझा जा सकता है। यही कारण है कि व्यवसायिक कथित समाजसेवी, विद्वान, लेखक और संत उससे लोगों को परे रखने के लिये अपना सम्मान करने की अप्रत्यक्ष रूप से देते हैं।
…………………………………
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

संत कबीर वाणी-पढ़लिखकर आदमी अहंकारी हो गया (men and proud-kabir ke dohe)


पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, घड़ी न पड़ती सान

पढ़ते और गुनते हुए आदमी का अभिमान बढ़ता गया। उसके अंतर्मन में जो तृष्णाओं और इच्छाओं की अग्नि जलती है उसके ताप से उसे मन में कभी शांति नहीं मिलती है।
हरि गुन गावे हरषि के, हिरदय कपट न जाय
आपन तो समुझै नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान के भजन और गुण तो नाचते हुए गाते तो बहुत लोग हैं पर उनके हृदय से कपट नहीं जाता। इसलिये उनमे भक्ति भाव और ज्ञान नहीं होता परंतु वह दूसरों के सामने अपना केवल शाब्दिक ज्ञान बघारते है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान काल में शिक्षा का प्रचार प्रसार तो बहुत हुआ है पर अध्यात्मिक ज्ञान की कमी के कारण आदमी को मानसिक अशांति का शिकार हुआ है। वर्तमान काल में जो लोग भी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं उनका उद्देश्य उससे नौकरी पाना ही होता है-उसमें रोजी रोटी प्राप्त करने के साधन ढूंढने का ज्ञान तो दिया जाता है पर अध्यात्म का ज्ञान न होने के कारण भटकाव आता है। बहुत कम लोग हैं जो शिक्षा प्राप्त कर नौकरी की तलाश नहीं करते-इनमें वह भी उसका उपयोग अपने निजी व्यवसायों में करते हैं। कुल मिलाकर शिक्षा का संबंध किसी न किसी प्रकार से रोजी रोटी से जुड़ा हुआ है। ऐसे में आदमी के पास सांसरिक ज्ञान तो बहुत हो जाता है पर अध्यात्मिक ज्ञान से वह शून्य रहता है। उस पर अगर किसी के पास धन है तो वह आजकल के कथित संतों की शरण में जाता है जो उस ज्ञान को बेचते हैं जिससे उनके आश्रमों और संस्थानों के अर्थतंत्र का संबल मिले। जिसे अध्यात्मिक ज्ञान से मनुष्य के मन को शांति मिल सकती है वह उसे इसलिये नहीं प्राप्त कर पाता क्योंकि वह अपनी इच्छाओं और आशाओं की अग्नि में जलता रहता है। कुछ पल इधर उधर गुजारने के बाद फिर वह उसी आग में आ जाता है।
जिन लोगों को वास्तव में शांति चाहिए उन्हें अपने प्राचीन ग्रंथों में आज भी प्रासंगिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। यह अध्ययन स्वयं ही श्रद्धा पूर्वक करना चाहिए ताकि ज्ञान प्राप्त हो। हां, अगर उन्हें कोई योग्य गुरू इसके लिये मिल जाता है तो उससे ज्ञाना भी प्राप्त करना चाहिए। यह जरूरी नहीं है कि गुरु कोई गेहुंए वस्त्र पहने हुए संत हो। कई लोग ऐसे भी भक्त होते हैं और उनसे चर्चा करने से भी बहुत प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिये सत्संग में जाते रहना चाहिये।
———————————–

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

संत कबीरदास वाणी-सांसरिक शिक्षा देने वाले गुरू नहीं होते (kabir vani-teacher not as a guru)


पंख होत परबस पयों, सूआ के बुधि नांहि।
अंकिल बिहूना आदमी, यौ बंधा जग मांहि।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं बुद्धिमान पक्षी जिस तरह पंख होते हुए भी पिंजरे में फंस जाता है वैसे ही मनुष्य भी मोह माया के चक्र में फंसा रहता है जबकि उसकी बुद्धि में यह बात विद्यमान होती है कि यह सब मिथ्या है।
शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो गुरु जीवन रहस्यों का शब्द ज्ञान दे वही गुरु है। जो गुरु केवल भौतिक शिक्षा देता है उसे गुरु नहीं माना जा सकता। गुरु तो उसे ही कहा जा सकता है जो भगवान की भक्ति करने का तरीका बताता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान शिक्षा पद्धति में विद्यालयों और महाविद्यालयों में अनेक शिक्षक छात्रों को अपनी अपनी योग्यता के अनुसार पाठ्यक्रमों का अध्ययन कराते हैं पर उनको गुरु की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वर्तमान शिक्षा के समस्त पाठयक्रम केवल छात्र को नौकरी या व्यवसाय से संबंधित प्रदान करने के लिये जिससे कि वह अपनी देह का भरण भोषण कर सके। अक्सर देखा जाता है कि उनकी तुलना कुछ विद्वान लोग प्राचीन गुरुओं से करने लगते हैं। यह गलत है क्योंकि भौतिक शिक्षा का मनुष्य के अध्यात्मिक ज्ञान से कोई संबंध नहीं होता।

उसी तरह देखा गया गया है कि अनेक शिक्षक योगासन, व्यायाम तथा देह को स्वस्थ रखने वाले उपाय सिखाते हैं परंतु उनको भी गुरुओं की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। हां, ध्यान और भक्ति के साथ इस जीवन के रहस्यों का ज्ञान देने वाले ही लोग गुरु कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि जिनसे अध्यात्मिक ज्ञान मिलता है उनको ही गुरु कहा जा सकता है। वैसे आजकल तत्वज्ञान का रटा लगाकर प्रवचन करने वाले भी गुरु बन जाते हैं पर उनको व्यापारिक गुरु ही कहा जाना चाहिये। सच्चा गुंरु वह है जो निष्काम और निष्प्रयोजन भाव से अपने शिष्य को अध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करता है। हमारे  भारतीय दर्शन  में अध्यात्म का ज्ञान देना वाले को ही गुरू माना जाता है।
 ……………………………….

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

संत कबीर के दोहे-स्वयं अपनी तारीफ मत करो (kabir ke dohe-apni tarif mat karo)


आपन को न सराहिये, पर निन्दिये न नहिं कोय।
दोष पराया देखि करि, चले हसन्त हसन्त।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मूंह से कभी आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा न करें। क्योंकि कभी आचरण की ऊंचाई पर हमारे व्यकितत्व और कृतित्व को नापा गया तो तो पता नहीं क्या होगा?
अपना याद आवई, जाका आदि न अन्त।।
चढ़ना लम्बा धौहरा, ना जानै क्या होय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों के दोष देखकर सभी हंसते हैं पर उनको अपनी देह के स्थाई दोष न तो याद आते हैं न दिखाई देते हैं जिनका कभी अंत ही नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने मूंह से आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा करना मानवीय स्वभाव है। अपने में कोई गुण न हो पर उसे प्रचारित करना और दूसरे के गुण की जगह उसके दुर्गुण की चर्चा करने में सभी को आनंद आता है पर किसी को अपने दोष नहीं दिखते। जितनी संख्या में लोग परमार्थ करने वाले नहीं है उससे अधिक तो उसका दावा करने वाले मिल जायेंगे। हम अपनी देह में अपने उपरी अंग ही देखते हैं पर नीचे के अंग नहीं दिखाई देते जो गंदगी से भरे रहते हैं चाणक्य महाराज के अनुसार उनको कभी पूरी तरह साफ भी नहीं रखा जा सकता। तात्पर्य यह है कि हम अपने दैहिक और मानसिक दुर्गंण भूल जाते हैं। संत कबीरदास जी कहते हैं कि अपने बारे में अधिक दावे मत करो अगर किसी ने उनका प्रमाण ढूंढना चाहा तो पूरी पोल खुल जायेगी। हम आपसी वार्तालाप में अनेक बार ऐसे दावे करते हैं जिनको सिद्ध करना कठिन होता है, लोग उन पर यकीन नहीं करते पर सामने कोई नहीं टोकता यह अलग बात है।
उसी तरह दूसरे की निंदा करने की बजाय अपने गुणों की सहायता से भले काम करने का प्रयास करें यही अच्छा रहेगा। आत्मप्रवंचना कभी विकास नहीं करती और परनिंदा कभी पुरस्कार नहीं दिलाती। यह हमेशा याद रखना चाहिये। अपनी प्रवंचना और दूसरे की आलोचना में समय ही नष्ट करना है और इसे बचने में सुख मिल सकता है।
……………………………

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

कबीर के दोहे-मनुष्य में ही विराजमान है ईश्वर (kabir ke dohe-nar men hi narayan


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
—————————
नर नारायन रूप है, तू मति जाने देह।
जो समझे तो समझ ले, खलक पलक में खेह।।

मनुष्यों तुम अपने को देह मत समझो बल्कि स्वयं को परमात्मा ही समझो। यह शरीर तो जड़ है और उसमें सांस प्रवाहित कर रहा आत्मा है वही स्वयं को समझो। यह समझ लो यह शरीर एक दिन माटी हो जायेगा पर आत्मा तो अमर है।
आंखि न देखि बावरा, शब्द सुनै नहिं कान।
सिर के केस उज्जल भये, अबहुं निपट अजान।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के लोग आंख से देखने और कान से ज्ञान समझने सुनने का काम नहीं कर पाते। उनके सिर के बाल सफेद हो जाते हैं पर फिर भी अज्ञानी बने रहते हैं।

वर्तमान सदंर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारा अध्यात्मिक दर्शन स्पष्ट करता है कि यह शरीर पंच तत्वों से बना है और उसमें मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती हैं। आंख हैं तो देखती है, कान हैं तो सुनते हैं, नासिका है तो सुगंध ग्रहण करती है, मुख है तो भोजन ग्रहण करता है और मस्तिष्क है तो विचार करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि गुण ही गुणों को बरत रहे हैं पर हम सोचते हैं कि यह सभी हम कर रहे हैं हृदय में दृष्टा भाव होने की जगह कर्तापन का अहंकार आ जाता है। इसी अहंकार में मनुष्य के बाल सफेद हो जाते हैं पर वह अज्ञान के अंधेरे में ही अपना जीवन गुजार देता है।
हम आत्मा हैं और परमपिता का अंश है। यह आत्मा अनश्वर है पर हम अपने नष्ट होने के भय में रहते हैं। कर्तापन का अहंकार हमें माया का गुलाम बनाकर रख देता है। संत कबीर दास जी के मतानुसार सत्य का ज्ञान प्राप्त कर हमें अपने अंदर आत्मविश्वास पैदा करना चाहिये कि हम परमात्मा का अंश या स्वरूप हैं। जिस परमात्मा को हम दर दर ढूंढते हैं वह हम स्वयं ही हैं या कहें कि वह हमारे अंदर ही हैं। जरूरत है तो बस शब्द ज्ञान को समझने की है। इस संसार में आकर अपने दैहिक कर्तव्य पूरा तो करना चाहिये पर अपनी बुद्धि और मन को उसमें अपनी संलिप्पता की अनुभूति से परे रखें।
…………………………………….

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

कबीर के दोहे-संकट पड़ने पर दिखावटी भक्ति छूट जाती है (sankat aur bhakti-kabir ka dohe)


संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं
————————–

देखा देखी भक्ति का, कबहूँ न चढ़सी रंग
विपत्ति पडे यों छाड्सी, केचुली तजत भुजंग

संत शिरोमणी कबीरदास जी के अनुसार देखा-देखी की हुई भक्ति का रंग कभी भी आदमी पर नहीं चढ़ता और कभी उसके मन में स्थायी भाव नहीं बन पाता। जैसे ही कोई संकट या बाधा उत्पन्न होती है आदमी अपनी उस दिखावटी भक्ति को छोड़ देता है। वैसे ही जैसे समय आने पर सांप अपने शरीर से केंचुली का त्याग कर देता है।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग दूसरों को देख कर भगवान की भक्ति करते हैं। उनका अपना कोई इष्ट तो होता नहीं है और जो जैसा कहता है वैसी उसकी भक्ति करना लगते हैं। इससे उनको कोई लाभ नहीं होता। दूसरे के कहने से उसके इष्ट की पूजा करने से स्वयं को कोइ लाभ नहीं होता है। भक्ति से लाभ का आशय यह है की स्वयं के मन में हमेशा ही प्रसन्नता का भाव रहे और कभी किसी से डर न लगे या किसी बात की चिंता न हो। हमेशा मन प्रसन्न रहे यही है भक्ति का लाभ। कई बार ऐसा होता है कि पत्नी विवाह से पहले किसी इष्ट को मानती थी तो विवाह के बाद पति के इष्ट को ही मानने लगी। उसी तरह कहीं पति भी यही करता है। सच बात तो यह है कि बचपन से जिस इष्ट को पूजने की आदत बचपन से हो जाए उसे ही पूजना चाहिए। किसी दूसरे के कहने से इष्ट के स्वरूप को नहीं बदलना चाहिए। कहा जाता है की परमात्मा तो एक ही है उसके स्वरूप आलग हैं तो क्या? ऐसे में किसी को देखकर या कहने में आकर उसमें बदलाव करना इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य के मन में भक्ति का भाव नहीं है।
भक्त और ध्यान तो एकांत में किये जाते हैं। इससे उसी व्यक्ति के मन में शुद्धता और शान्ति होती है। दूसरे को दिखाकर या दूसरे को देखकर भक्ति करने से कोई लाभ नहीं है।
————————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

कबीर दर्शन-दूसरे का दोष देखकर तो सभी हँसते हैं (kabir darshan-dosron ke dosh)


आपन को न सराहिये, पर निन्दिये न नहिं कोय।
चढ़ना लम्बा धौहरा, ना जानै क्या होय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मूंह से कभी आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा न करें। क्योंकि कभी आचरण की ऊंचाई पर हमारे व्यकितत्व और कृतित्व को नापा गया तो तो पता नहीं क्या होगा?
दोष पराया देखि करि, चले हसन्त हसन्त।
अपना याद आवई, जाका आदि न अन्त।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों के दोष देखकर सभी हंसते हैं पर उनको अपनी देह के स्थाई दोष न तो याद आते हैं न दिखाई देते हैं जिनका कभी अंत ही नहीं है।
आपन को न सराहिये, पर निन्दिये न नहिं कोय।
चढ़ना लम्बा धौहरा, ना जानै क्या होय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मूंह से कभी आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा न करें। क्योंकि कभी आचरण की ऊंचाई पर हमारे व्यकितत्व और कृतित्व को नापा गया तो तो पता नहीं क्या होगा?
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने मूंह से आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा करना मानवीय स्वभाव है। अपने में कोई गुण न हो पर उसे प्रचारित करना और दूसरे के गुण की जगह उसके दुर्गुण की चर्चा करने में सभी को आनंद आता है पर किसी को अपने दोष नहीं दिखते। जितनी संख्या में लोग परमार्थ करने वाले नहीं है उससे अधिक तो उसका दावा करने वाले मिल जायेंगे। हम अपनी देह में अपने उपरी अंग ही देखते हैं पर नीचे के अंग नहीं दिखाई देते जो गंदगी से भरे रहते हैं चाणक्य महाराज के अनुसार उनको कभी पूरी तरह साफ भी नहीं रखा जा सकता। तात्पर्य यह है कि हम अपने दैहिक और मानसिक दुर्गंण भूल जाते हैं। संत कबीरदास जी कहते हैं कि अपने बारे में अधिक दावे मत करो अगर किसी ने उनका प्रमाण ढूंढना चाहा तो पूरी पोल खुल जायेगी।
उसी तरह दूसरे की निंदा करने की बजाय अपने गुणों की सहायता से भले काम करने का प्रयास करें यही अच्छा रहेगा। आत्मप्रवंचना कभी विकास नहीं करती और परनिंदा कभी पुरस्कार नहीं दिलाती। यह हमेशा याद रखना चाहिये।
……………………………

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

संत कबीर वाणी-विवेक नष्ट होने पर अच्छे बुरे की पहचान नहीं रहती (sant kabir vani-achche bure ki pahachan)


फूटी आँख विवेक की, लखें न संत असतं
जिसके संग दस बीच हैं, ताको नाम महंत

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जिन लोगों की ज्ञान और विवेक नष्ट हो गये है वह सज्जन और दुर्जन का अन्तर नहीं बता सकता है और सांसरिक मनुष्य जिसके साथ दस-बीस चेले देख लेता है वह उसको ही महंत समझा करता है.
बाहर राम क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम
कहा काज संसार से, तुझे घनी से काम

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दिखावटी रूप से राम का भजन करने से कोई लाभ नहीं होता. राम का स्मरण हृदय से करो. इस संसार में तुम्हारा क्या काम है तुम्हें तो भगवान का स्मरण मन में करना चाहिऐ.

वर्तमान सन्दर्भ में व्याख्या-लोगों की बुद्धि जब कुंद हो जाती है तब उनको सज्जन और दुर्जन व्यक्ति की पहचान नहीं रहती है। सच बात यही की इसी कारण अज्ञानी व्यक्ति संकटों में फंस जाते हैं। झूठी प्रशंसा करने वाले, चिकनी चुपड़ी बातें कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले, पहले दूसरों की निंदा करने के लिए प्रेरित कर फ़िर झगडा कराने वाले लोग इस दुनिया में बहुत हैं। ऐसे दुष्ट लोगों की संगत से बचना चाहिए। इसके अलावा ऊंची आवाज़ में भक्ति कर लोगों में अपनी छबि बनाने से भी कोई लाभ नहीं है। इससे इंसान अपने आपको धोखा देता है। जिनके मन में भगवान् के प्रति भक्ति का भाव है वह दिखावा नहीं करते। मौन रहते हुए ध्यान करना ही ईश्वर सबसे सच्ची भक्ति है।

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

संत कबीर वाणी-डरपोक आदमी पीछे से वार करता है (sant kabir vani- Timid man is stabbed from behind)


तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।
कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।
असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।
हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।
कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।
————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

संत कबीर वाणी-मूर्ख की मित्रता से खीर मिले तो भी बुरी (sant kabir vani-khir aur dosti)


संत कबीर दास जी कहते हैं कि
कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय
खीर खीड भोजन मिलै, साकट संग न जाय

साधु की संगत में अगर भूसी भी मिलै तो वह भी श्रेयस्कर है। खीर तथा तमाम तरह के व्यंजन मिलने की संभावना हो तब भी दुष्ट व्यक्ति की संगत न करें।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
कबीर संगत साधु की, कभी न निष्फल जाय
जो पै बोवै भूनिके, फूलै फलै अघाय
साधुओं की संगति कभी भी व्यर्थ नहीं जाती और उसका समय पर अवश्य लाभ मिलता है। जैसे बीज भूनकर भी बौऐं तो खेती लहलहाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कई बार हम अपने कमजोर दिल और रिश्तों की बाध्यता के चलते मूर्खों और अज्ञानियों की संगत नहीं छोड़ते यह सोचकर कि इससे हमारी क्या हानि होगी? यह भ्रम है क्योंकि मूर्ख और अज्ञानी कभी भी हमें संकट में डाल सकते हैं। कुछ लोग अपनी मूर्खतावश दूसरे को हानि पहुंचाने के हमेशा तत्पर रहते हैं उनको इस बात का ज्ञान नहीं होता कि उसका बाद में क्या परिणाम होगा? अगर ऐसे लोगों के साथ हम रहेंगे तो उनके किसी कुकृत्य के छींटे हमारे ऊपर भी आ सकते है। कई बार आपने देखा होगा कि कोई आदमी अपराध करता है तो उसके संगी साथियों की तलाश होती हैं। आजकल तो आपने देखा होगा कि किसी अपराध के होने पर मोबाइल के विवरण भी निकाले जाते हैं। अगर किसी ने अपराध किया जाता है तो उससे बात करने वाले सभी लोगों की छानबीन भी होती है।

आधुनिक संवाद साधनों ने लोगों के संपर्क बहुत सहज बना लिये हैं ऐसे में अपना व्यवहार करने वालों के प्रति अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है। खासतौर से युवक युवतियों को इस तरफ ध्यान देना चाहिये। हो सकता है कि उनको कुछ मित्र पंच सितारा होटलों में भोजन करने के लिये निमंत्रण देते हों पर उनका आचरण ठीक न हो। इसलिये मित्रता और व्यवहार में ऐसे मूर्खों और अज्ञानियों से दूर ही रहें जिनका लक्ष्य अपवित्र या अज्ञात है। उससे अच्छा तो साधु स्वभाव और अच्छे आचरण के लोगों से अपनी संगत करें जो भले ही न तो पंचसितारा होटल में भोजन करायें और न लच्छेदार बातें करें।
………………………………………..

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप