Category Archives: rahim ke dohe

रहीम के दोहे-समय के अनुसार बदलाव आता है (rahim ke dohe-samay aur badlav)



     मनुष्य जब संकट में होता है तब उसका धैर्य जवाब देता है और लगता है कि वह कभी खत्म होने वाला नहीं है। यह सोच अज्ञान के कारण ही आती है। जिस तरह पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा अपनी धुरी पर घूमते हुए रात्रि और दिन लाते हैं वैसे ही समय के अनुसार सब बदलता है।    आदमी के सुख के पल कट जाते हैं तो उसे पता नहीं लगता पर दुःख के समय वह तमाम तरह के ऐसे कदम उठाता है जिससे उसकी परेशानी बढ़ जाती है। अतः विवेकी मनुष्य सुख के समय तो अधिक प्रसन्न होते हैं और न ही दुःक्ष के समय विचलित। समय की अपनी महिमा है और वह अपने अनुसार सुख दुःख लाकर निकलता है।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय
सदा रहे नहिं एक सौ, का रहीम पछिताय
    कविवर रहीम कहते हैं कि समय आने पर अपने अच्छे कर्मों के फल की प्राप्ति अवश्य होती है। वह सदा कभी एक जैसा नहीं रहता इसीलिये कभी बुरा समय आता है तो भयभीत या परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।
समय परे ओछे बचन, सब के सहे रहीम
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम
    कविवर रहीम कहते हैं कि बुरा समय आने पर तुच्छ और नीच वचनों का सहना करना पड़ा। जैसे भरी सभा में देशासन ने द्रोपदी का चीर हरण किया और शक्तिशाली भीम अपनी गदा हाथ में लिए रहे पर द्रोपदी की रक्षा नहीं कर सके।
    वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में सभी के पास कभी न कभी अच्छा समय आता है ऐसे में अपना काम करते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है। आजकल लोग जीवन में बहुत जल्दी सफलता हासिल करने को बहुत आतुर रहते हैं और कुछ को मिल भी जाती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है।
    कई लोग जल्दी सफलता हासिल करने के लिये ऐसे मार्ग पर चले जाते हैं वहां उन्हें शुरूआत में बहुत अच्छा लगता है पर बाद में वह पछताते है।
    यह सही है कि कुछ लोगों के लिये जीवन का संघर्ष बहुत लंबा होता है पर उन्हें अपना धीरज नहीं खोना चाहिए। कई बार ऐसा लगता है कि हमें जीवन में किसी क्षेत्र मे सफलता नहीं मिलेगी पर सत्य तो यह है कि आदमी को अपने अच्छे कर्मों का फल एक दिन अवश्य मिलता है।
    जिस तरह दिन रात हैं और धूप छांव है वैसे ही जीवन में समय का फेर आता है। कभी दुःख तो कभी सुख की अनुभूति के साथ ही जीवन आगे बढ़ता है। जब आदमी तकलीफ में होता है तो संसार वाले उसका मजाक बनाते हुए कटु वचन तक कहते हैं। जब आदमी शक्तिशाली होता है तब सभी उसके सामने नतमस्तक होते हैं। ऐसे में जीवन में आये हर पल को सहजता से स्वीकार करना चाहिए।

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रहीम सन्देश-राम का नाम लेने वालों को भी माया फंसाए रहती है (ram ka nam aur maya-rahim ke dohe)


रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय
पसु खर खात सवाद सों, गुर बुलियाए खाय

कविवर रहीम कहते है कि भगवान राम को हृदय में धारण करने की बजाय लोग भोग और विलास में डूबे रहते है। पहले तो अपनी जीभ के स्वाद के लिए जानवरों की टांग खाते हैं और फिर उनको दवा भी लेनी पड़ती है।

वर्तमान सदंर्भ में व्याख्या-वर्तमान समय में मनुष्य के लिये सुख सुविधाएं बहुत उपलब्ध हो गयी है इससे वह शारीरिक श्रम कम करने लगा हैं शारीरिक श्रम करने के कारण उसकी देह में विकार उत्पन्न होते है और वह तमाम तरह की बीमारियों की चपेट में आ जाता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन भी रहता है। इसके अलावा जैसा भोजन आदमी करता है वैसा ही उसका मन भी होता है।

आज कई ऐसी बीमारिया हैं जो आदमी के मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न होती है। इसके अलावा मांसाहार की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। मुर्गे की टांग खाने के लिय लोग बेताब रहते हैं। शरीर से श्रम न करने के कारण वैसे ही सामान्य भोजन पचता नहीं है उस पर मांस खाकर अपने लिये विपत्ति बुलाना नहीं तो और क्या है? फिर लोगों का मन तो केवल माया के चक्कर में ही लगा रहता है। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि अगर कोई आदमी एक ही तरफ ध्यान लगाता है तो उसे उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसे विकास घेर लेते हैं। माया के चक्कर से हटकर आदमी थोड़ा राम में मन लगाये तो उसका मानसिक व्यायाम भी हो, पर लोग हैं कि भगवान श्रीराम चरणों की शरण की बजाय मुर्गे के चरण खाना चाहते हैं। यह कारण है कि आजकल मंदिरों में कम अस्पतालों में अधिक लोग शरण लिये होते हैं। भगवान श्रीराम के नाम की जगह डाक्टर को दहाड़ें मारकर पुकार रहे होते है।

अगर लोग शुद्ध हृदय से राम का नाम लें तो उनके कई दर्दें का इलाज हो जाये पर माया ऐसा नहीं करने देती वह तो उन्हें डाक्टर की सेवा कराने ले जाती है जो कि उसके भी वैसे ही भक्त होते हैं जैसे मरीज। अब तो दुनिया में डाक्टर हो या मरीज, गुरु हो या चेला और दर्शक हो या अभिनेता सभी राम का नाम लेते हैं पर उनके हृदय में माया का वास होता है।
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रहीम सन्देश-विपत्ति में अपने लोगों की सहानुभूति मिल जाए तो अच्छा (vipati aur apne-rahim ke dohe)


दुरनि परे रहीम कहिए भूलत सब पहिचानि
सोच नहीं वित हानि को, जो न होन हित हानि

कविवर रहीम कहते है कि जीवन में बुरे दिन आने पर सब लोग पहचानना भी भूल जाते हैं। ऐसे समय में अपने मित्रों और रिश्तदारों से सहानुभूति मिल जाये तो अच्छा लगता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- वर्तमान समय में जब तक किसी के पास धन है लोगों का जमावड़ा उसके आसपास रहता है और जैसे ही उसके बुरे दिन आये तो सब मूंह फेर जाते हैं। कोई भी मित्र या रिश्तेदार आर्थिक दृष्टि के परेशान किसी भी आदमी के पास फटकने को तैयार नहीं होता। ऐसे में अगर कोई रिश्तेदार या मित्र थोड़ी ही सहानुभूति जताए तो मानसिक रूप के सुख मिलता है पर आजकल वह संभव नहीं हैं। क्योंकि जब पेसा होता है तो आदमी अपना अहंकार दिखाता है और लोग उससे नाराज हो जाते हैं और इसलिये बाद में उससे दूरी बना लेते हैं।

जो लोग संपन्नता और सुख के समय विनम्र रहते हैं उनको इस स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। इसके साथ ही अगर अपने पास अगर धन,वैभव या कोई बड़ी उपलब्धि हो और लोग हमारा सम्मान करते हों तो यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि वह हमारे निजी गुणों की वजह से है।

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रहीम दर्शन-अहंकारी को जागृत करना व्यर्थ (ahankar aur jagran-rahim ke dohe)


कदल सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन

कविवर रहीम कहते हैं कि कि स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूंदें कदली में प्रवेश कर कपूर बना जाता है, समुद्र की सीपी में जाकर मोती का रूप धारण कर लेता है और वही जल सर्प के मुख में जाकर विष बन जाता है।
अनकीन्ही बातें करै, सोवत जागै जोय
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय

कविवर रहीम कहते हैं कि कई लोग ऐसे हैं जो कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं। ऐसे लोग जागते हुए भी सोते हैं। ऐसे अहंकारी व्यक्ति को सिखाना या जागृत करना बिल्कुल व्यर्थ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे व्यक्तियों की अभाव नहीं है जो अपनी कथनी और करनी में भारी भेद प्रकट करते हुए थोड़ा भी संकोच अनुभव नहीं करते। एक तरफ वह आदर्श की बात करते हुए नहीं थकते पर दिन भर वह माया के फेरे में सारी नैतिकता को तिलांजलि देते हैंं। अगर ऐसा न होता तो इस देश में इतने सारे साधु और संत और उनके करोड़ों शिष्य हैं फिर भी पूरे देश मेंे अनैतिकता, भ्रष्टाचार, गरीबों और परिश्रमियों का दोहन तथा अन्य अपराधों की प्रवृतियों वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। आजकल ईमादारी से संग्रह करना कठिन हो गया है। इसका आशय यह है कि जो कमा रहे हैं वही दान कर रहे हैं और अपने गुरुओं के आश्रमों में भी उपस्थिति दिखाते हैं। हर जगह धन सम्राज्य है पर माया से दूर रहने की बात सभी करते हैं। अपराधी हो या सामान्य आदमी भक्ति जरूर करते दिखते हैं। अपराधी अपने दुष्कर्म से बाज नहीं आता और सामान्य आदमी को अपने काम से ही समय नहीं मिलता। बातें सभी आदर्श की करते हैं। यही भेद है जिसके कारण देश में अव्यवस्था फैली है।

इसके अलावा सभी लोग भले आदमी से संगति तो करना ही नहीं चाहते। जो समाज को अपनी शक्ति से आतंकित कर सकता है लोग उससे अपने संपर्क बनाने को लालायित रहते हैं। वह सोचते हैं कि ऐसे असामाजिक तत्व समय पर उनके काम में आयेंगे पर धीरे-धीरे उनके संपर्क में रहते हुए उनका स्वयं का नैतिक आचरण पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। संगति का प्रभाव होता है-यह बात निश्चित है। अगर किसी शराबी के पास कोई व्यक्ति बैठ जाये तो उसकी बातें सुनकर उसका स्वयं का मन वितृष्णा से भर जाता है और वही व्यक्ति किसी सत्संगी के पास बैठे तो उसमें अच्छे और सुंदर भावों का प्रवाह अनभूति कर सकता है। अतः अपने लिये हमेशा अच्छी संगति ही ढूंढना चाहिए।
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रहीम संदेश-अपनी योजना और तकलीफ उजागर न करें (rahim ke dohe-yojna aur dukh)


रहिमन निज मन की, बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैह लोग सब, बाटि न लैहैं न कोय।।

कविवर रहीम कहते हैं कि मन की व्यथा अपने मन में ही रखें उतना ही अच्छा क्योंकि लोग दूसरे का कष्ट सुनकर उसका उपहास उड़ाते हैं। यहां कोई किसी की सहायता करने वाला कोई नहीं है-न ही कोई मार्ग बताने वाला है।

रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि।
गांठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि को धूरि।

कविवर रहीम कहते हैं कि जिस तरह जमीन पर पड़ी धूल हवा लगने के बाद चलायमान हो उठती है वैसे ही यदि आदमी की योजनाओं का समयपूर्व खुलासा हो जाये तो वह भी धूल हो जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दूसरे का दुःख देखकर प्रसन्न होने वालों की इस दुनियां में कमी नहीं है। पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्तियां हर मनुष्य में रहती हैं। इस संसार में भला कौन कष्ट नहीं उठाता पर अपने दिल को हल्का करने के लिये लोग दूसरों के कष्टों का उपहास उड़ाते हैं। इसलिये जहां तक हो सके अपने मन की व्यथा अपने मन में ही रखना चाहिये। सुनने वाले तो बहुत हैं पर उसका उपाय बताने वाला कोई नहीं होता। अगर सभी दुःख हरने का उपाय जानते तो अपना ही नहीं हर लेते।
अपने जीवन की योजनाओं को गुप्त रखना चाहिये। जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब हम अपने रहस्य और योजनायें दूसरों को यह कहते हुए बताते हैं कि ‘इसे गुप्त रखना’। यह हास्यास्पद है। सोचने वाली बात है कि जब हम अपने ही रहस्य और योजनायें गुप्त नहीं रख सकते तो दूसरे से क्या अपेक्षा कर सकते हैं।
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रहीम के दोहे-धनी को धन देने के लिए सब तैयार,गरीब से इंकार


संतत संपति जानि कै, सबको सब कुछ देत
दीन बंधु बिन दीन की, कौ रहीम सुधि लेत

कविवर रहीम कहते हैं कि जिनके पास धन पर्याप्त मात्रा में लोग उनको सब कुछ देने को तैयार हो जाते हैं और जिसके पास कम है उसकी कोई सुधि नहीं लेता।

संपति भरम गंवाइ के, हाथ रहत कछु नाहिं
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहिं मांहि

कविवर रहीम कहते हैं कि भ्रम में आकर आदमी तमाम तरह की आदतों का शिकार हो जाता है और उसमें अपनी संपत्ति का अपव्यय करता रहता है और एक दिन ऐसा आ जाता है जब उसके पास कुछ भी शेष नहीं रह जाता। इसके साथ ही समाज में उसकी प्रतिष्ठा खत्म हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस संसार में माया का खेल विचित्र है। वह कभी स्थिर नहीं रहती। आजकल जितने धन के उद्भव के काले स्त्रोत बने हैं उतने उसके पराभव के मार्ग बने हैं। ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने अपने पद, प्रतिष्ठा और परिवार के नाम पर गलत तरीके से अथाह धनार्जन किया पर उनके घर के सदस्यों ने ही गलत मार्ग अपना कर जूए, शराब, सट्टे तथा अन्य व्यसनों में तबाह कर दिया। देखने के लिये अनेक भले लोग अपने धन का अहंकार दिखते हैं पन अपने बच्चों की आदतों से उनका मन हमेशा विचलित होता है। हालांकि कुछ लोग अनाप-शनाप पैसा कमा रहे हैं और अपने बच्चों के विरुद्ध शिकायत न तो सुनते हैं और न ही कोई उनके सामने करता है।

यह कारण है कि आजकल जो कथित बड़े लोग उनके अनेक घर के रहस्य जब सामने आते हैं तो लोग हैरान रह जाते हैं। उनका अपने परिवार पर बस नहीं हैं। कई लोग तो जिनका नाम था अब इसलिये गुमनाम हो गये क्योंकि उनका धन पूरी तरह गलत कामों की वजह से तबाह हो गया। उनकी चर्चा अब इसलिये नहीं होती क्योंकि जिनके पास धन नहीं है उनकी चर्चा भला कौन करता है? इसके बावजूद भी शिक्षित और कथित ज्ञानी लोग भी वैभवशाली लोगों का चाटुकारिता करते हैं और गरीब को अनदेखा करते हैं। अमीर के दौलत से कुद पाने के लिये ही वह लोग उनके इर्दगिर्द चक्कर लगाते है। गरीब को तो वह पांव की जुती समझते हैं। इसके बावजूद हमें समझदार होना चाहिए और सबके प्रति समान व्यवहार करना चाहिए। ऐसा भी होता है कि अमीर की चाटुकारिता करते रहो पर हाथ कुछ नहीं आता। कोई अमीर किसी की बिना कारण सहायता नहीं करता। यह हमें समझना चाहिए। अगर कोई हमारी सहायता करने आ रहा है तो समझ लो उसका कोई स्वार्थ है।
अतः अगर अपने पास अगर धन कम हो तो यह मान लेना चाहिए कि लोग आर्थिक सहयोग तैयार करने के लिये कम ही तैयार होंगे। साथ ही इस बात की चिंता नहीं करना चाहिए कि कोई सम्मान करेगा या नहीं। अगर धन अधिक हो तो दूसरों द्वारा सहयोग की पेशकश को अपने गुणों का प्रभाव न समझते हुए यह मान लेना चाहिए कि हमारे धन की वजह से दूसरे प्रभावित हैं।
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रहीम के दोहे: उत्तम पुरूष को देखकर दिल खुश हो जाता है


कविवर रहीम कहते हैं
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उत्तम जाती ब्राह्मनी, देखत चित्त लुभाय
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय

ज्ञानी मनुष्य की पहचान तो स्वतः ही उसके गुणों और लक्षणों से हो जाती है। ब्रह्मज्ञानी का चेहरा मात्र देखते ही आदमी का चित्त आनन्द विभोर हो उठता है। ऐसे ब्रह्मज्ञानी के दर्शन मात्र से पाप परे हो जाते हैं और उसके चरणों कें शीश झुकाने का मन करता है।
वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या-यह बिल्कुल सत्य बात है कि आदमी के चेहरे पर वही भाव स्वतः रहते हैं जो उसके मन में विद्यमान हैं। किसी प्रकार के ज्ञान और विज्ञान में श्रेष्ठता का भाव प्रदर्शन करना व्यर्थ है। आदमी के गुण स्वतः ही दूसरों के सामने प्रकट होते हैंं। दूसरे के अंदर अगर झांकना हो तो उसके चेहरे को पढ़ें। कई बार ऐसा होता है कि हम दूसरों के कहने में आकर किसी को श्रेष्ठ समझ बैठते हैं यह देखने का प्रयास ही नहीं करते कि उस व्यक्ति का आचरण कैसा है या उसमें वह गुण है भी कि नहीं जिसका बखान किया जा रहा है।

अनेक गुरु ऐसे हैं जो रटारटाया ज्ञान तो बताते हैं पर उनके चेहरे देखकर नहीं लगता कि वह कोई ब्रह्मज्ञानी हैं। योग साधना,ध्यान और धार्मिक ग्रंथों से चिंतन और मनन से ज्ञान प्राप्त होता है और जिसने वह धारण कर लिया उसका चेहरा स्वतः खिल उठता है और अगर नहीं खिला तो इसका आशय यह है कि मन में भी तेज नहीं है। इसलिये किसी के कहने में आकर कोई गुरु नहीं बनाना चाहिये। जिन लोगों में ज्ञान है तो उनका चेहरा ही बता देता है और उनका आचरण और व्यवहार उसे पुष्ट भी करता है। अतः ऐसे लोगों को ही अपना गुरु बनाना चाहिये।
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रहीम संदेश: नाले का पानी समुद्र से अधिक सम्मान पाता है (rahim ke dohe)


धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसौ जाय

कविवर रहीम कहते हैं कि गंदे स्थान पर पड़ा जल भी धन्य है जिसे छोटे जीव पीकर तृप्त तो हो जाते हैं। उस समंदर की प्रशंसा कौन करता है जिसके पास जाकर भी कोई उसका पानी नहीं पी सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर आज के संसार में सामाजिक तथा आर्थिक ढांचे को देखें तो समाज में अमीर और गरीब का अंतर बहुत बढ़ गया है। इसके साथ ही धनियों और समाज के श्रेष्ठ वर्ग के लोगों की संवेदनायें भी एक तरह से मर गयी हैं। वह अपने आत्म प्रचार के लिये बहुत सारा धन व्यय करते हैं पर अपने निकटस्थ अल्प धन वालों के साथ उनका व्यवहार अत्यंत शुष्क रहता है। श्रमिक,गरीब, मजदूर तथा मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवी लोग दिखने के लिये समाज का हिस्सा दिख रहे हैं पर उनके मन के आक्रोश को धनिक तथा श्रेष्ठ वर्ग के लोग नहीं समझ सकते । क्रिकेट और फिल्मी सितारों पर अनाप शनाप खर्च करने वाला श्रेष्ठ वर्ग अपने ही अधीनस्थ कर्मचारियों के लिये जेब खाली बताता है। विश्व भर में आतंकवाद फैला है। जिसके पास बंदूक है उसके आगे सब घुटने टेक देते हैं। आपने सुना होगा कि कई बड़े शहरों में अपराधी सुरक्षाकर वसूल करते हैं। फिल्मी सितारों, क्रिकेट खिलाडि़यों और कथित संतों के साथ अपने फोटो खिंचवाने वाले धनिक और श्रेष्ठ वर्ग के लोग इस बात को नहीं जानते कि उनके नीचे स्थित वर्ग के लोगों की उनसे बिल्कुल सहानुभूति नहीं है। प्रचार माध्यमों में निरंतर अपनी फोटो देखने के आदी हो चुके श्रेष्ठ वर्ग के लोग भले ही यह सोचते हों कि आम आदमी में उनके लिये सम्मान है पर सच यह है कि आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर लोग उनसे अब बहुत चिढ़ते हैं। वह उनके लिये उस समंदर की तरह है जिसके पास जाकर भी दया रूपी पानी मिलने की आस वह नहीं करते।

पहले जो अमीर थे वह धार्मिक स्थानों पर धर्मशालाएं बनवाते थे ताकि वहां आने वाले गरीब लोग रह सकें। अब बड़े बड़े होटल बन गये हैं जिनके पास से गरीब आदमी गुजर जाता है यह सोचकर कि वहां रुकने लायक उसकी औकात नहीं है। गर्मियों में अनेक स्थालों पर धनिक और दानी लोग प्याऊ खुलवाते थे पर अब पुराने प्याऊ सभी जगह बंद हो गये हैं। उनकी जगह पानी के कारखानों की बोतलों और पाउचों को महंगे दामों पर खरीदना पड़ता है। हर चीज का व्यवसायीकरण हो गया है। इससे गरीब,मजदूर,श्रमिक तथा मध्यम वर्ग के बौद्धिक वर्ग में जो विद्रोह है उसे समझने के लिये विशिष्ट वर्ग तैयार नहीं है। सभी हथियार नहीं उठाते पर कुछ युवक भ्रमित होकर उठा लेते हैं-दूसरे शब्दों में कहें तो आतंकवाद भी समाज से उपजी निराशा का परिणाम है।
प्रयोजन सहित दया कर प्रचार करने में अपनी प्रतिष्ठा समझने वाले विशिष्ट वर्ग अध्यात्म में भी बहुत रूचि दिखाते हुए कथित साधु संतों की शरण में जाकर अपने धार्मिक होने का प्रमाण अपने ये निचले तबके को देता है पर निष्प्रयोजन दया का भाव नहीं रखना चाहता।

इसके बावजूद कुछ लोग हैं जो अधिक धनी या प्रसिद्ध नहंी है पर वह समाज के काम आते हैं। भले ही अखबार या टीवी में उनका नाम नहीं आता पर अपने क्षेत्र में निकटस्थ लोगों में लोकप्रिय होते हैं। उनका सम्मान करने वालों की संख्या बहुत कम होती है पर वह विशिष्ट वर्ग के लोगों के मुकाबले कहीं अधिक हृदय में स्थान बनाते हैं।
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रहीम के दोहे:अग्नि में मिलकर शरीर भी अग्नि हो जाता है


जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग होय
मंड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय

कविवर रहीम कहते हैं कि यह संसार खोजकर देख लिया है, जहाँ परस्पर ईर्ष्या आदि की गाँठ है, वहाँ आनंद नहीं है. महुए के पेड़ की प्रत्येक गाँठ में रस ही रस होता है क्योंकि वे परस्पर जुडी होतीं हैं.

जलहिं मिले रहीम ज्यों, कियो आपु सम छीर
अंगवहि आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर

कविवर रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार जल दूध में मिलकर दूध बन जाता है, उसी प्रकार जीव का शरीर अग्नि में मिलकर अग्नि हो जाता है.
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां दो मनुष्यों में एक दूसरे के प्रति ईष्र्या है वहां किसी के दिल में भी संतोष नहीं रहा सकता। अक्सर लोग आपस में एक दूसरे के प्रति प्रेम होने का दावा करते हैं पर उनके मन में आपस में ही द्वेष, कटुता और ईष्र्या का भाव रहता है। इस तरह वह स्वयं को धोखा देते हैं। प्रेम तो तभी संभव है जब एक दूसरे की सफलता पर हृदय मेंं प्रसन्नता का भाव हो। हालांकि मूंह पर दिखाने के लिये एक मित्र अपने दूसरे मित्र की, भाई अपने भाई की या रिश्तेदार अपने दूसरे रिश्तेदार की सफलता पर बधाई देते हैं पर हृदय में कहीं न कहीं ईष्र्या का भाव होता है। यह दिखावे का प्रेम है और इस पर स्वयं को कोई आशा नहीं करना चाहिये क्योंकि न हम स्वयं दूसरे से वास्तव में प्रेम नहीं करते और न ही कोई हमें करता है। जहां ईष्र्या की गांठ हैं वहां प्रेम हो ही नहीं सकता।
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रहीम के दोहे: नीच लोगों की संगत से कलंक स्वयं पर भी लगता है


रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि
दूध कलारी कर गहे, मद समझै सब ताहि

कविवर रहीम जी का कहना है कि निम्न प्रवृत्ति के लोगों के संगत करने पर कभी न कभी कलंकित होना तो तय ही है। दूध का बर्तन अगर कलारी में रखा हो तो भी उसे शराब ही समझा जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अगर स्वयं सज्जन है तो उसे दुष्ट लोगों की संगत से बचना चाहिये-यह तय बात है कि एक मनुष्य के व्यवहार,विचार, और कार्य को दूसरे पर भी प्रभाव होता है। जहां तक दुर्गुणी, दुष्ट और दुव्र्यसनी लोगों को सवाल है उनके लिये यह माया ही संसार है और भक्ति, भलाई, और भावुकता एकदम बकवास है। वह दूसरों को भी ऐसा करने को उकसाते हैं।
अधिकतर मामलों में आपने यह सुना तो होगा कि अमुक व्यक्ति दूसरे की संगत में बिगड़ गया और पर यह नहीं सुना होगा कि वह सुधर गया। कई बार अपराधियों के मां बाप अपने बच्चोंे की तरफ से सफाई देते हैं कि ‘हमारा बच्चा तो ठीक है पर दूसरे की संगत में बिगड़ गया, पर जो उपलब्धियों के शिखर पर पहुचंते हैं उनके मां बाप यह नहीं कहते कि दूसरे की संगत में बन गया।
तय बात है कि संगत का प्रभाव होता है-अच्छा भी बुरा भी-यह अलग बात है कि अच्छी संगत को लोग आकर्षक नहीं मानते बल्कि ऐसे लोगों के साथ संगत करने से प्रसन्न होते हैं जो दलाल या दादा टाईप के हों। एक बात बजे की बात है कि ऐसे लोगों की छबि उनकी नजरों के अच्छी नहीं होती और उनके मित्रों को भी वह ऐसे ही देखते हैं-अगर ऐसे लोग उनके मित्र नहीं हुए तो। जब स्वयं दलाल और दादा टाईप के लोगों से दोस्ती करते हैं तब यह बात भूल जाते हैं।
जिन अंतविरोधों में सभी रह रहे हैं उनको देखना चाहिये पर यह बात संशयरहित है कि दुष्ट की संगत से कभी न कभी अपने लिये संकट का कारण बनती है। यदि संकट का कारण न बने तो भी समाज में दुष्ट के कारण सज्जन की छबि भी खराब होती ही है।
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