Tag Archives: अध्यात्म

मन और माया की चाल योग से जानना संभव-हिन्दी चिंत्तन लेख(man aur maya ki chal yog se hi janna sambhav-hindi thought article)


            हमारा मानना है कि मन, माया और मय के विचित्र खेल को योगी ही समझ सकता है। यह तीनों उतार चढ़ाव या कहा जाये अस्थिर प्रकृति के हैं। मन पता नहीं कब  कहां और कैसे मनुष्य को चलने के लिये बाध्य कर दे। माया पता नहीं कब हाथ आये और निकल जाये।  मय का नशा चढ़ता है फिर उतर भी जाता है। अंतर इतना है कि मनुष्य देह में स्थित मन ही है जो माया और मय के पीछे भागता है।  इस तरह उसे सहज लगता है।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन में कहा जाता है कि मन पर नियंत्रण कर उसका स्वामी होने मनुष्य  प्रसन्न रह सकता है पर वह इसके विपरीत स्वयं बंधुआ बन जाता है जिससे जीवन में उसकी स्थिति उस मोर की तरह हो जाती है जो नाचने के बाद अपने गंदे पांव देखकर रोता है। मनुष्य भी एक के बाद एक भौतिक उपलब्धि प्राप्त करता है पर तन और मन पर आयी थकावट उसे कभी अपनी ही सफलता का पूर्ण आनंद नहीं लेने देती। एक सामान मिलने पर वह  दूसरी, तीसरी और चौथी की कामना होने से  वह भागता रहता है।  चिंत्तन के लिये उसे समय ही नहीं मिलता। सामानों से सुख नहीं मिलता यह अंतिम सत्य है।  सुख कोई बाहर लटकी वस्तु नहीं है जो हाथ लग जाये।  सुख तो एक अनुभूति जो अंदर प्रकट होती है।

            इस संसार को समझने के लिये बाह्य विषयों पर दक्षता से अधिक अपनी ही इस देह रूपी क्षेत्र को जानने की आवश्यकता है। यह योग साधना से ही पूरी हो सकती है।  योग साधना का विषय ऐसा है जिसमें एक बार अगर सिद्धि मिल जाये तो फिर संसार के सभी विषयों का सत्य सहजता से समझा जा सकता है।  एक योग साधक के खाने का भूख से और पानी पीने का प्यास से संबंध नहीं होता। वह  भोजन दवा की गोली या कैप्सूल की तरह यह सोचते हुए उदरस्थ करता है कि कहीं आगे भूख आक्रमण न करे।  वह समय तय कर लेता है कि निश्चित समय पर वह भोजन करेगा चाहे भूख लगे या नहीं।  वह पानी भी दवा की तरह पीता है ताकि उससे प्राणवाणु सहजता से देह में प्रवाहित होती रहे।  एक पारंगत योग साधक भोजन और जल का सेवन करते हुए भी भूख प्यास के अधीन नहीं होता। इससे वह सांसरिक विषयों में भी दृढ़ता पूर्वक निर्लिप्त भाव से स्थित हो जाता है।

            मनुष्य के बाह्य चक्षु सदैव बाहर के विषयों पर केंद्रित रहते हैं इसलिये बुद्धि भी केवल उन्हीं का चिंत्तन करती है।  मन भी विषयों में इतना अभ्यस्त हो जाता है कि मनुष्य परमात्मा की कृपा से प्राप्त इस देह का महत्व नहीं समझ पाता।  देह के बाह्य विकार जल और साबुन से नष्ट किये जा सकते हैं पर अंदर स्थित दोषों के निवारण का उपाय केवल योग साधक ही कर सकता है। सच यह है कि देह के बाह्य विकार भी आंतरिक दोषों से उत्पन्न होते हैं।  आंतरिक दोषों से मन और बुद्धि भ्रमित होती है और अंततः तनाव चेहरे पर प्रकट होता ही है। ऐसा नहीं है कि योग साधक कभी विकार या तनाव ग्रस्त नहीं होते पर वह आसन, प्राणायाम तथा ध्यान की कला से उनका निवारण कर लेते हैं।

            हमारे देश में योग साधना सिखाने वाले बहुत से विद्वान और संस्थान सकिय  हैं पर भारतीय योग संस्थान के शिविरों में  सक्रिय विशारद निष्काम भाव से जिस तरह यह काम करते हैं वह प्रशंसनीय है। सबसे बड़ी बात यह कि वहां निशुल्क सेवा होती है।  शुल्क लेना और देना माया का ही रूप है। भारतीय योग संस्थान के साथ जुड़ने अनेक साधकों के विभिन्न कार्यक्रमों मिलने जो सुखद अनुभव होता उसका शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है।  इस तरह का सत्संग दुर्लभ होता है।  हम अन्य कार्यक्रमों में सामान्य लोगों से मिलते हैं तो सांसरिक विषयों पर उबाऊ चर्चा होती है पर योग साधकों से मिलने पर हुई योग विषय पर चर्चा अध्यात्मिक शांति मिलती है। तब यह ज्ञान सहज रूप से होता है कि माया, मन और मय के खेल से बचने के लिये योग साधना से बेहतर उपाय नहीं हो सकता।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak Raj kurkeja “Bharatdeep”

Gwalior Madhya Pradesh

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग

1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

ओ माई गॉड फिल्म से पीके की तुलना ठीक नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख


            हिन्दू धर्म रक्षक पीके का विरोध करते हुए जो तर्क दे रहे हैं वह ठीक है या नहीं यह अलग से विचार का विषय है पर हम परेश रावल, मिथुन चक्रवर्ती, अक्षय कुमार तथा अनेक उच्च कलाकारों से सजी फिल्म  ओ माई गॉड फिल्म हम जैसे अध्यात्मिक चिंत्तकों के लिये अच्छी फिल्भ्म थी। पीके और ओ माई गॉड में भारतीय धर्मों पर व्यंग्य जरूर कसे गये हैं यह सही है पर ओ माई गॉड में श्रीमद्भागवत  गीता के संदेश का महत्व बताया गया था। ओ माई गॉड में अंधविश्वास के विरुद्ध विश्वास की स्थापना का प्रयास था जबकि पीके में अंधविश्वास की आड़ में एक प्रेम कहानी प्रचारित हुआ है। ओ माई गॉड में कोई प्रेम कहानी नहीं थी। इस फिल्म को आधुनिक कला फिल्म भी कहा जा सकता है। पीके में एक प्रेम कहानी के माध्यम से समाज को सुधारने का परंपरागत प्रगतिशील और जनवादी प्रयास करने का संदेश दिया जा रहा है। अनेक लोग इस फिल्म के प्रायोजन से जुड़े तत्वों पर ही संदेह कर रहे हैं जबकि ओ माई गॉड में बिना प्रेम कहानी के मनोरंजन प्रस्तुत कर यह प्रमाणित किया गया था कि फिल्मों के शारीरिक आकर्षण आवश्क नहीं है।

            इसलिये पीके के विरोध करने वालों को सलाह है कि वह ओ माई गॉड से  तुलना के प्रयासों से बचें। इस तरह उनके विरोध को तर्कहीन बनाने का प्रयास हो रहा है। कभी कभी तो यह लगता है ओ माई गॉड के संदेश को अप्रासंगिक करने के लिये यह फिल्म बनी है। अगर पीके का विरोध करते हुए ओ माई गॉड भी वाक्य प्रहार करेंगे उनके सारे प्रयास निरर्थक हो जायेंगे।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
इस लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकायें जरूर देखें
1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का  चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका

६.ईपत्रिका

७.दीपकबापू कहिन

८.जागरण पत्रिका

८.हिन्दी सरिता पत्रिका

परकाया में प्रवेश की बात पतंजलि योग साहित्य में प्रमाणिक नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख


            हमारे यहां आजकल एक कथित संत की समाधि पर चर्चा चल रही है। इन संत को पहले रुगणावस्था में चिकित्सकों के पास ले जाया गया जहां उनको मृत घोषित कर दिया।  उनके पास अकूत संपत्ति है जिस पर उनके ही कुछ लोगों की दृष्टि है इसलिये कथित भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की आड़ में उन संत को समाधिस्थ घोषित कर दिया।  दस महीने से उनका शव शीत यंत्र में रखा गया है और उनके कथित अनुयायी यह प्रचार कर रहे हैं कि वह समाधिस्थ है। अब न्यायालय ने उनका अंतिम संस्कार करने का आदेश दिया है पर कथित शिष्य इसके बावजूद अपनी आस्था की दुहाई देकर संत की वापसी का दावा कर रहे हैं।

            हमारे देश में धर्म के नाम पर जितने नाटक होते हैं उससे भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से लोग दूर हो जाते हैं।  सत्य यह है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन तार्किक रूप से प्रमाणिक हैं पर कर्मकांडों और आस्था के नाम पर होने वाले नाटकों से भारतीय धर्म और संस्कृति की बदनामी ही होती हैं। जब हम उन संत की कथित समाधि की चर्चा करते हैं तो अभी तक इस प्रश्न का उत्तर उनके शिष्यों ने नहीं दिया कि वह उन्हें चिकित्सकों के पास क्यों ले गये थे? तब उन्हें समाधिस्थ क्यों नहीं माना गया था?

            इस पर चल रही बहसों में अनेक विद्वान संत को समाधिस्थ नहीं मानते पर समाधि के माध्यम से दूसरे की काया में प्रवेश करने के तर्क को स्वीकृति देते हैं।  यह हैरानी की बात है कि पतंजलि योग साहित्य तथा श्रीमद्भागवत गीता के पेशेवर प्रचारक हमारे देश में बहुत है पर उनका ज्ञान इतना ही है कि वह अपने लिये भक्त के रूप में ग्राहक जुटा सकें। स्वयं उनमें ही धारणा शक्ति का अभाव है इसलिये उन्हें ज्ञानी तो माना ही नहीं जा सकता।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि

—————

जन्मौषधिधिमन्त्रतपःसमाधिजाः सिद्धयः।

            हिन्दी में अर्थ-जन्म, औषधि, मंत्र तथा तप से होने वाली समाधि से सिद्धियां प्राप्त होती हैं।

            भावार्थ-समाधि के यह चार प्रकार ही प्रमाणिक माने जा सकते हैं। जन्म से समाधि से आशय यह है कि जब साधक एक योनि से दूसरी यौनि में प्रवेश करता है तो उसके अंदर असाधारण शक्तियां उत्पन्न हो जाती हैं।  इसका आशय यही है कि जब कोई मनुष्य एक देह का त्याग कर वह दूसरा जन्म लेता है तब अपनी योग शक्ति से अपना भविष्य तय कर सकता है।  यह कतई नहीं है कि किसी जीव के शरीर में बिना प्रवेश कर सकता है।  औषधि से समाधि किसी द्रव्य या भौतिक पदार्थ के सेवन से होने वाली समाधि है।  इसके अलावा मंत्र और तप से भी समाधि की अवस्था प्राप्त की जा सकती है।

            योग साधक जब अपने अभ्यास में परिपक्व हो जाता है तब वह चाहे जब समाधि ले सकता है।  उसके चार प्रकार है पर समाधि की प्रक्रिया के बाद उसकी देह, मन, बुद्धि तथा विचार में प्रकाशमय अनुभव होता है।  जितना ही कोई साधक समाधिस्थ होने की क्रिया में प्रवीण होता है उतना ही वह अंतमुर्खी हो जाता है। वह कभी भी देवता की तरह धर्म के बाज़ार में अपना प्रदर्शन करने का प्रयास नहीं करता।  शिष्य, संपत्ति अथवा सुविधाओं का संचय करने की बजाय अधिक से अधिक अपने अंदर ही आनंद ढूंढने का प्रयास करता है। परकाया में प्रवेश करने की इच्छा तो वह कर ही नहीं सकता क्योंकि उसे अपनी काया में आनंद आता है। समाधि एक स्थिति है जिसे योग साधक समझ सकते हैं पर जिन्हें ज्ञान नहीं है वह इसे कोई अनोखी विधा मानते हैं।  यही कारण है कि अनेक कथित संत बड़े बड़े आश्रम बनवाकर उसमें लोगों के रहने और खाने का मुफ्त प्रबंध करते हैं ताकि उनके भोगों के लिये भीड़ जुटे जिसके आधार पर वह अधिक प्रचार, पैसा तथा प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकें। हम इन संत की समाधि पर पहले भी यह स्पष्ट कर चुके हैं कि प्राण तथा चेतना हीन समाधि पतंजलि योग साहितय के आधार पर प्रमाणिम नहीं मानी जा सकती।

            यहां हम यह भी स्पष्ट कर दें कि लोग अज्ञानी हो सकते हैं पर मूर्ख या मासूम नहीं कि ऐसे पेशेवर संतों के पास जायें ही नहीं।  मु्फ्त रहने और खाने को मिले तो कहीं भी भीड़ लग जायेगी।  इसी भीड़ को भोले भाले या मूर्ख लोगों का समूह कहना स्वयं को धोखा देना है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

कृषि भूमि रूपी शरीर में गुण रूपी बीज बोना जरूरी-श्री गुरूनानक जयंती प्रकाश पर्व पर श्रीगुरूग्रंथ साहिब के आधार पर चिंत्तन लेख


            अनेक लोगों में अध्यात्मिक भाव है प्राकृतिक रूप से विद्यमान होता है पर कभी उनका ध्यान इस तरफ नहीं जाता।  विषयों के रसस्वादन से उत्पन्न विषरूप मानसिक तनाव और अध्यात्मिक अमृत से दूरी के बीच वह झूलते हैं।  उन्हें यह समझ में नहीं आता कि वह कैसे सुख अनुभव करें।  जीवन के सुख का सारा सामान जुटाने के बावजूद उन्हें सुख अनुभव नहीं होता। ऐसे लोगों को एकांत चिंत्तन अवश्य करना चाहिये तब उनकी ज्ञानेंद्रियां स्वतः जागत हो जाती हैं। हमारे देश में को कथायें, सत्संग और धार्मिक त्यौहार इतने होते हैं कि लोगों में श्रवण, पठन पाठन, तथा दृश्यों से उनमें ज्ञान की धारा स्वाभाविक रूप से प्रभावित होती है।  अनेक लोग मंदिरों में जाकर भी अपनी आस्था को जीवंत बनाये रखने का प्रयास करते हैं जिससे उनके अंदर अध्यात्मिक तत्व तो बना रहता है फिर भी उन्हें शांति नहीं मिलती है। आजकल तो योग साधना का प्रचार भी हो रहा है जिसके अभ्यास से लोगों में देह तथा मन में पवित्र आती है।  फिर भी ज्ञान के अभाव का दृश्य दिखाई देता है।

श्री गुरू ग्रंथ साहिब में कहा गया है कि

——————-

इहु तनु धरती बीजु करमा करो सलिल आपाउ सारिंगपाणी।

मन किरसाणु हरि रिदै जंमाइ लै इउ पावसि पटु निरवाणी।।

            हिन्दी में भावार्थ-हमारी मनुष्य देह धरती के समान है, एक किसान की तरह इसमें  शुभ भाव के बीज बोकर परमात्मा के नाम स्मरण रूपी पानी से खेती की जाये तो जीवन धन्य हो जाता है।

विखै विकार दूसट किरखा करे इन तजि आतमै होइ धिआई।

जपु तपु संजमु होहि जब राखे कमलु विबसै मधु अजमाई।।

            हिन्दी में भावार्थ-विषय विकार तो ऐसे पौद्ये जिनमें मन लगाना व्यर्थ है उन्हें उखाड़कर जप, तप और संयम के पौद्ये हृदय में कमल की भाव रूप वृक्ष उगायें जिनसे मधुर रस टपकता है।

            इसका कारण यह है कि सामान्य जनों में उस तत्वज्ञान को धारण करने की शक्ति का अभाव है जो केवल ध्याना, धारणा और समाधि से आती है।  परमात्मा की हार्दिक भक्ति से लाभ होता है पर हृदय और आत्मा का मिलन किस तरह हो, यह ज्ञान बहुत कम लोगों हैं। किसी की कहने या स्वयं के सोचने से हार्दिक भक्ति नहीं हो पाती।  इसके लिये यह आवश्यक है कि यह बात समझ ली जाये कि संसार के विषयों से हम सदैव संपर्क नहीं रख सकते।  हमें जीवन में जो सुख सुविधायें मिलती हैं वह हमारा अध्यात्मिक लक्ष्य नहीं होती। अनेक लोगों ने आकर्षक भवन बनाये हैं।  उनमें पेड़ पौद्ये और बाग लगे होने के साथ ही फव्वारी भी होते हैं।  अगर कोई लघु श्रेणी का व्यक्ति देखे तो आह भरकर रह जाये पर इस सच को सभी जानते हैं कि ढेर सारी भौतिक उपलब्धियों के बावजूद संपन्न लोग सुख का अनुभव नहीं कर पाते।

            इसका एक ही तरीका है कि अध्यात्मिक अभ्यास के समय सांसरिक विषयों के प्रति एकदम निर्लिप्पता का भाव हृदय में लाया लाये।  कहने में सहज लगने वाली बात प्रारंभ में अत्यंत कठिन लगती है मगर निरंतर ध्यान की प्रक्रिया अपनाने के बाद धीमे धीमे ऐसा अभ्यास हो जाता है कि मनुष्य का मन भोग की बजाय योग की तरफ इस तरह प्रवृत्त होता है कि उसका जीवन चरित्र ही बदल जाता है।  मूल बात संकल्प की है। मन में कहीं बाहर से लाकर बोया नहीं जा सकता।  हम अगर निरंतर बाहरी विषयों की तरफ ध्यान लगायेंगे तो मन में भोग के बीज पैदा होंगे। वहां से मन हटाते रहे तो स्वतः ही अंतर्मन से योग के बीज मन में आयेंगे।  इसे हम ज्ञान और विज्ञान का संयुक्त सिद्धांत भी कह सकते हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग

3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

 5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 

स्वर्ण मंदिर अमृतसर की यात्रा का स्वर्णिम अनुभव-हिन्दी चिंत्तन लेख


            हमने  11 अक्टुबर से 13 अक्टुबर 2014 शनिवार से मंगलवार तक अमृतसर के स्वर्ण मंदिर-जिसे हरमिंदर साहब भी कहा जाता है-पर जो समय बिताया वह वास्तव में स्वर्णिम स्मृति की तरह हमारे मन मस्तिष्क में जीवन भर रहेगा। वहां रहने के लिये गुरुद्वारा प्रबंध समिति के कार्यकर्ता ने हमें श्री बाबा दीपसिंह बाबा निवास प्रदान किया।  वह हरमिंदर साहिब से करीब एक किलोमीटर दूर होगा। उसे ढूंढने में हमें परेशान हुई। ऐसा लगा कि हमें असहयोग के मार्ग पर धकेला गया पर वहां कमरे में तीन दिन रहे तब लगा कि जिन महानुभाव ने हमें वहां भेजा उनकी हृदय में हमारे लिये सामान्य पर पवित्र भाव ही था।

            जिस तरह की सफाई, पेयजल तथा अन्य व्यवस्थायें वहां देखने को मिलीं वह रोमांचित करने वाली थी।  उस निवास के सामने ही श्रीबाबादीपसिंह गुरुद्वारा था जहां हमने हरमिंदर साहिब के बाद सबसे अधिक भीड़ देखी।  वहां लंगर और चाय की व्यवस्था भी थी।  हरमिंदर साहिब में तो लंगर की व्यवस्था इस तरह चल रही थी जैसे कि कारखाना या कोई उद्योग चलता हो।  बर्तनों के आपस में टकराने से निकले स्वर ऐसे आभास दे रहे थे कहीं कोई मशील चल रही हो।  हरमिंदर साहिब के सामने ही रामदास सराय में पर्यटकों के लिये अपनी देह स्वच्छ करने की व्यवस्था थी। वहां सेवादार इस तरह सक्रिय थे जैसे कि किसी कारखाने में कार्यरत हों। उसकी निरंतर सफाई इस तरह जारी थी जैसे कि वहां व्यवसायिक स्थान हो।

            swarnसभी स्थानों पर लंगरों  नियमित सेवादार तो नियुक्त थे पर ऐसे लोग भी कार्य कर रहे थे जिनके हृदय में गुरुभक्ति कूट कूट कर भरी रहती है। लंगर में अनेक आम तीर्थप्रेमी भी बर्तन आदि साफ करने का काम कर अपने हृदय के सेवा भाव का परिचय दे रहे थे।  सिख गुरुओं ने परोपकार तथा श्रम को अत्यंत महत्व दिया है।  हमारा मानना तो यह है कि आज के युग में श्रीमद्भागवत गीता तथा गुरुग्रंथ साहिब के संदेशों में जिस तरह अकुशल शारीरिक श्रम को सम्मान योग्य माना गया है उस हृदय में धारण करना ही चाहिये।

गुरु ग्रंथ साहिब में कहा गया है कि

—————

जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ निरमलु चीतु।

            हिन्दी में भावार्थ-जिस व्यक्ति में दूसरे मनुष्य का रक्त पीने की आदत है उसका मन कभी निर्मल हो ही नहीं सकता।

आप गवाए सेवा करे ता किछ पाए मान

            हिन्दी में भावार्थ-अपना अहंकार त्याग कर सेवा करें तभी कुछ सम्मान मिल सकता है।

            कहा जाता है कि सिख धर्म का प्रादुर्भाव ही हिन्दू संस्कृति या धर्म की रक्षा के लिये हुआ।  यह अलग बात है कि आधुनिक  राजनीतिक द्वंद्वों के चलते  हिन्दू और सिख धर्म को प्रथक प्रथक बताने का प्रयास हो रहा है।  हरमिंदर साहिब में जाने पर यह पता चलता है कि वहां हर धर्म, वर्ण और समाज का धर्म प्रेमी अत्यंत श्रद्धभाव  हृदय में स्थापित कर आता है।  भारत ही नहीं वरन् पूरे विश्व में सिख धर्म गुरुओं के प्रति सकारात्मक रुचि है।  आज जब भौतिक विलासिता के प्रभाव में शारीरिक श्रम के अभाव हो गया है तब हम मनुष्यों में बढ़ते मानसिक रोगों का दुष्प्रभाव भी देख सकते हैं।  इतना ही नहीं धन, पद और प्रतिष्ठा का संग्रह कर चुके लोगों में जो अहंकार भाव दिखता है उसकी वजह से समाज में वैमनस्य भी बढ़ा है।  हालांकि लोगों का धर्म के प्रति झुकाव भी बढ़ा दिखता है पर सच यह है कि धार्मिक स्थानों पर पर्यटन की दृष्टि से मन बहलाने में ही उनकी रुचि अधिक दिखती है।  गुरुओं के संदेशों पर अमल करने वाले कितने हैं यह अलग से चर्चा का विषय है पर एक बात निश्चित है कि गुरु सेवा में निरंतर निष्काम भाव से लगे लोगों गुरुग्रंथ साहिब के संदेशों के प्रचार में सक्रियता प्रशंसनीय है।  इसके अलावा जो परोपकार में लगे हैं तो उन्हें ज्ञानी ही कहा जाना चाहिये।swart2

            एक योग साधक तथा ज्ञान प्रिय होने के नाते अमृतसर की यह यात्रा हमारे लिये अत्यंत रुचिकर रही। हमने जो देखा उस पर लगातार लिखते ही रहेंगे। हम जैसे लोगों के लिये भौतिक स्वर्ण से अधिक ज्ञान का स्वर्ण महत्वपूर्ण रहता है जो  ऐसे स्थानों पर जाने पर स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

धन तेरस के दिन मन का प्रसन्न रहना जरूरी-दीपावली पर हिन्दी चिंत्तन लेख


            आज पूरे देश में धनतेरस का पर्व मनाया जा रहा है। भारतीय धर्मों को मानने वाले लोग आज के दिन  दीपावली की पूजा के लिये सामान आदि खरीदते हैं।  इस दिन बाज़ार में भीड़ रहती है तो यह भी सच है कि स्टील, पीतल, सोने तथा अन्य धातुओं से निर्मित सामान भी अन्य दिनों की अपेक्षा अत्यंत महंगे हो जाते है। यही  कारण  है कि वर्ष के किसी भी दिन की अपेक्षा धनतेरस के दिन सामान्य व्यापार में सर्वाधिक आय वाला दिन होता है।  खेरिज व्यापार में सामान्य दिनों की अपेक्षा चार से दस गुना का विक्रय होता है। यह अलग बात है कि दिपावली गुजरते हुए तत्काल मंदी भी आ जाती है।

            समय के साथ महंगाई बढ़ी तो धीमे धीमे धनतेरस के दिन खरीददारी एक औपचारिकता बन कर रह गयी है।  अर्थशास्त्र की दृष्टि से भारत में धन का असमान वितरण एक बहुत भारी समस्या है, यह हमने आज से तीस बरस पहले पढ़ा था।  अर्थशास्त्र के विद्यार्थी को समाज का भी ज्ञान रखना चाहिये और इस आधार पर हम कह सकते हैं कि भले ही हम शहरी क्षेत्रों में धनी लोगों की संख्या बढ़ने का दृश्य देखकर प्रसन्न हों पर सच यह है कि उसके अनुपात में अल्प धनियों की संख्या बढ़ी है।  जहां धातुओं के बड़े सामानों को खरीदने वाले दिखते हैं वहां उनका दाम पूछकर उनसे मुंह फेरने वालों की संख्या ज्यादा होती है। अनेक लोग तो स्टील की टंकी का दाम पूछकर एक चम्मच खरीद कर ही धनतेरस मना लेते हैं। जहां कथित आर्थिक विकास ने अनेक ऐसे लोगों को धनवान बना दिया कि जिनके पास स्टील की कटोरी खरीदने की ताकत नहीं थी अपनी वर्तमान भारी भरकम आये के सामने सोने का कड़ा भी सस्ता लगता है तो वहीं अनेक लोग जो मध्यम वर्ग के थे अब स्वयं को निम्न वर्ग का अनुभव करने लगे हैं। जिनके लिये धनतेरस का दिन औपचारिकता से ही बीतता है।

            इस तरह की चर्चा राजसी विषय है मगर हम  सात्विक दृष्टि से विचार करें तो  इस संसार में सहज जीवन के लिये हृदय में प्रसन्नता होना ही सच्चा सुख है।  धन कितना है, यह महत्वपूर्ण नहीं है हम उसका उपयोग कितना करते हैं यह बात विचारणीय है।  तिजोरियों में पड़ा या बैंक खातों में दर्ज धन मन को प्रसन्न कर सकता है पर उसका उपयोग न करने से वह एक कूड़े के समान है।  दूसरी बात यह कि धन अपने उपयोग के लिये खर्च करने से क्षणिक आनंद मिलता है पर जरूरतमंद की सहायता निष्काम भाव से करने से हृदय में जो उच्च भाव आता है उसका कोई मोल नहीं है।  दूसरी बात यह कि कि धन और पानी एक समान है।  रुके रहे तो सड़ जाते हैं या फिर निकलने का मार्ग बनाते हैं।  धन आता है तो उसके जाने का मार्ग भी बनाते रहना चाहिये वरना वह सड़े हुए पानी की तरह स्वयं के लिये भी कष्टदायक हो जाता है। इंसान जब स्वेच्छा से धन नहीं निकालता तो प्रकृतिक कारण उसे इसके लिये विवश करते हैं कि वह अपनी जेब खोले।

            अपने धन का उपयोग का स्वयं की आवश्यकताओं के लिये सभी करते हैं पर जो दूसरे की आवश्यकता पर उसे देते हैं वह दान या सहायता कहलाता है।  जिन लोगों को धनतेरस के दिन कमाई होती है वह स्वयं के लिये कोई खरीददारी नहीं कर पाते।  मिट्टी के दीपक, फटाखे तथा पूजा का सामान बेचने के लिये फेरी लगाने वाले तो इस प्रयास में रहते हैं कि सामान्य दिनों की अपेंक्षा उनको अधिक मजदूरी मिल जाये तो शायद अपनी अतिरिक्त आवश्यकतायें पूरी हों जायें।  उनकी अपेक्षायें कितनी पूरी होती हैं यह अलग बात है पर निजी क्षेत्र में मजदूरी करने वालों के लिये भी दीपावली का पर्व आशा लेकर आता है।  इस तरह धनतेरस और दीपावली सभी वर्गों के लिये खरीद और बेचने का अवसर समान रूप से ले आता है।

            इस समय मौसम समशीतोष्ण हो जाता है जिससे शीतल हवायें बहते हुए देह और हृदय को प्रसन्न करती हैं। यही तत्व दीपावली को अधिक आनंददायक बना देता है।  हम अपने सभी मित्र ब्लॉग लेखक मित्रों तथा पाठकों हार्दिक बधाई। जय श्रीराम, जय श्रीकृष्ण।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
इस लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकायें जरूर देखें
1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का  चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका

६.ईपत्रिका

७.दीपकबापू कहिन

८.जागरण पत्रिका

८.हिन्दी सरिता पत्रिका

भारत मे बेहतर स्वास्थ्य के लिये स्वच्छता अत्यंत आवश्यक-2 अक्टूबर महात्मा गांधी जयंती पर भारत स्वच्छता अभियान पर विशेष हिन्दी लेख


            2 अक्टूबर से महात्मा गांधी जयंती पर भारत स्वच्छता अभियान प्रारंभ हो रहा है। भौतिकतावाद में डूबे भोगी भारतीय समाज में कथित सभ्रांत वर्ग के  बहुत कम लोग स्वच्छता का मतलब समझते होंगे यह बात तय हैं। सच तो यह है कि जिन सामान्य वर्ग के लोगों  यह वर्ग ग्रामीण, अशिक्षित अथवा गरीब कहकर हिकारत से देखता है वह इन्हीं की फैलाई गंदगी का शिकार है। बहुत समय से यह चर्चा चलती रही है कि पर्यटन स्थलों पर अपने मन की भूख शांत करने गये पेट भरने के लिये साथ लेकर गये बंद सामान के अवशेष वहीं छोड़ कर चले आते हैं जिनमें प्लस्टिक ज्यादा होती है।  प्लास्टिक प्रकृति की शत्रु है यह सभी जानते हैं।  हम छोटे बड़े शहरों में भी देखते हैं जहां सड़कें और उद्यान भी ऐसे मनोंरजन प्रिय लोगों की क्रूर उदासीनता की वजह से गंदे दिखाई देते हैं। भारत में तीन तरह की गंदगी फैलाने वाले लोग दिखाई देते हैं।  एक तो वह जो गंदगी में रहने के आदी हैं और अपने आसपास ही सफाई नहंी करते। दूसरे इतने सफाई पसंद तो होते हैं जो अपने आसपास का कचड़ा दूसरे के घर के पास या सामने सरका कर कर्तव्य निभाते हैं। तीसरे वह हैं जो सार्वजनिक स्थान पर कचरा करना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।

            यातायात नियमों में अनुसार हेल्मेट पहनकर चलना जरूरी है। हमने देखा है जब सख्ती होती है तब लोग हेल्मेट मजबूरी में पहनकर जाते हैं।  अनेक तो ऐसे हैं जो गाड़ी पर हेल्मेट लटकाकर चलते हैं यह सोचकर कि कहीं पहरेदार सक्रिय देखे तो पहन लेंगे।  अब यहां यह सवाल उठता है कि गाड़ी पर हेल्मेट पहनकर चलना जरूरी क्यों माना गया है? आदमी की सुरक्षा के लिये बनाये गये हेल्मेट को लोग बोझ मानते हैं।  आंकड़े गवाह है कि दुपहिया वाहन को चलाते हुए जितने चालक  सिर की चोट के कारण  हताहत होते हैं उतना किसी अन्य अंग पर प्रहार से नहीं होते।

            चालान के भय से लोग हेल्मेट पहनते हैं। भारत के सार्वजनिक स्थानों पर गदंगी फैलाने वालों पर भी अगर इसी तरह चालान होने लगें तो मान लीजिये कहीं कचरा दिखाई नहीं देगा।  इसके लिये सार्वजनिक स्थानों पर उपस्थित आम लोगों को ही यह अधिक दिया जाना चाहिये कि वह किसी कचरा फैंकने वाले का वीडियो या फोटो निकालकर सक्षम अधिकारी के सामने पेश कर दें जो कि इनसे चालान वसूल सके।  हम में से अनेक लोग जानते हैं कि पहले हर जगह बीड़ी या सिगरेट पीने वाले मिल जाते थे पर जब से दंड का प्रावधान हुआ यह समस्या कम हो गयी है।  महत्वपूर्ण बात यह कि अब जिन लोगों से इसका धुंआ सहन नहीं होता वह पीने वाले को टोक देते हैं।  अनेक जगह बस और रेल में हमने देखा कि  लोगों के विरोध करने पर धुम्रपान करने वाले ने अपनी बीड़ी या सिगरेट फैंक दी।

            कहने का अभिप्राय यह है कि इस तरह के सफाई अभियान की सफलता के लिये यह भी जरूरी है कि गंदगी फैलाने वाले पर दंड लगाना ही चाहिये।  अनेक लोग प्रार्थना या सुझाव पर ध्यान नहीं देते पर दंड का भय उन्हें बुरा काम करने नहीं देता।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग

3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

 5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 

विश्व को योग दिवस मनाना ही चाहिये-हिन्दी चिंत्तन लेख


            प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने संबोधन में सारे विश्व में योग दिवस मनाने का प्रस्ताव दिया है। इस तरह की बात विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक मंच पर अधिकारिक रूप से पहली बार कही गयी है इसलिये इसका महत्व निश्चित रूप से बहुत है।  इसकी भारत में स्वाभाविक रूप से प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई।  हम जैसे अध्यात्मिक और ज्ञान साधकों के लिये इस तरह के घटनाक्रम न केवल रुचिकर होते हैं बल्कि शोध का अवसर भी प्रदान करते हैं।

            देश में अनेक प्रतिक्रियायें आयीं। उनमें एक योग शिक्षक ने एक  महत्वपूर्ण बात कही कि योग के विषय पर जब कोई साधना करने वाला बोलता है तब उसका महत्व बहुत होता है।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं योग साधना करते हैं इसलिये उनके पास इस विषय पर बोलने का अधिकार है।  उन्होंने एक तरह से अपना अनुभव बांटा है।  इसकी हमारे जैसे लोगों पर सुखद प्रतिक्रिया होती है पर जब हम अन्य लोगों को योग विषय बोलते और लिखते हुए देखते हैं तो यह यकीन करना कठिन होता है कि उनके पास योग का कोई ज्ञान भी है। मोदी जी को योग साहित्य का ज्ञान भी है यह देखकर प्रसन्नता होती है पर उनके संबोधन पर प्रसन्न होने वालों में ऐसे लोग भी हैं जो केवल भारतीय विचाराधारा के प्रचार पर ही उछलते हैं पर उसके मूल सिद्धांतों को नहीं समझते।

            जिस योग साधना की बात होती है वह अनेक लोगों के लिये इसलिये कठिन नहीं है बल्कि  उसमें समय और श्रम का व्यय होता है जिससे आज के भौतिक प्रभाव में फंसे समाज के अनेक लोग बचना चाहते हैं।  योग साधना मनुष्य को शक्तिशाली, आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी सहज वाणी का प्रवाहक बनाती है। इसके प्रभाव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे योग साधना में निरंतर सक्रिय रहने वाले  लोग ही अनुभव कर सकते हैं।

            योग के आठ भाग हैं।  आमतौर से लोग प्राणायाम और आसनों को ही योग साधना समझते हैं।  एक तरह से समाज इसे  व्यायाम समझता है जबकि मोदी ने अपने संबोधन में यह स्पष्ट रूप से बताया कि यह एक व्यापक सिद्धि प्रदान करने वाली साधना है। हम यहां बता दें कि इस सिद्धि का यह आशय कतई नहीं समझना चाहिये कि इससे कोई आकाश से तारे जमीन पर उतार कर ला सकता है। योग साधना मनुष्य के व्यवहार, विचार तथा व्यक्तित्व में ऐसे तत्व स्थापित कर देती है कि वह इस जीवन सागर में बिना थपेड़ों के तैरता है-हमारा अभिप्राय यही है।

            मुख्य बात संकल्प की है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार परमात्मा के संकल्प के आधार पर संसार के सारे भूत स्थित हैं पर वह किसी में स्थित नहीं है।  उससे यह समझना चाहिये कि जिस तरह का हमारा संकल्प होगा उसी तरह का संसार हमारे सामने होगा पर हम उसमें नहीं समा सकते।  हमारी समस्या यह है कि  परमात्मा के इस संसार का भाग अपने ही अपने ही संकल्प के कारण सामने आता है हम उसमें समाना चाहते हैं या सोचते हैं कि वह हमारे अंदर समा जाये।  मकान मिला तो उसमें हम समाना चाहते हैं या चाहते हैं कि वह हमारे अंदर समाज जाये। इसी तरह का दृष्टिकोण संतान, धन, वाहन तथा अन्य भौतिक उपलब्धियों के बारे में रहता है। ऐसा हो नहीं सकता पर हमारा पूरा जीवन इसी प्रयास में नष्ट हो जाता है। देखा जाये तो हर इंसान योग करता ही है।  अज्ञानी लोग  भौतिकता से जुड़ने का प्रयास करते हैं। इसे हम असहज योग भी कह सकते हैं क्योंकि अंतत इससे तनाव ही पैदा होता है। उनका मन उन्हें अपना बंधुआ बना लेता है। सहज योगी स्वयं से जुड़कर संसार के विषयों से अपनी आवश्यकतानुसार संबंध रखते हैं।  वह कभी मन से कभी किसी भी विषय से संयोग करने के लिये बाध्य नहीं किये जाते।

            विश्व में योग दिवस मनाये जाने के प्रस्ताव पर भी अनेक लोग विश्व का अध्यात्मिक गुरु बनने का सपना देखकर प्रसन्न हो रहे हैं। हमारा मानना है कि भारत की यह पहले से बनी बनायी छवि है जिसके लिये प्रथक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। पतंजलि योग साहित्य के अलावा हमारी श्रीमद्भावगत गीता भी एक ऐसा स्वर्णिम ज्ञान ग्रंथ है जिससे पूरा विश्व परिचित है।

            हम तो यह चाहते हैं कि विश्व समुदाय से पहले हमारे ही देश का अपना रुग्ण मानसिकता से बाहर आये। योग की बातें बहुत होती हैं पर साधना करने वालों की संख्या अभी भी नगण्य है। विश्व में क्रांति आने की हमारी कल्पना तभी सफल होगी जब हम पहले अपने देश में योग साधना को दिन चर्या का एक अभिन्न भाग बनायेंगे।  हम जैसे अप्रचारित योग साधकों के पास ऐसे साधन नहीं होते कि अपने इस प्राचीन विज्ञान पर जनसामान्य में अपनी बात कह सकें, इसलिये प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी जैसे प्रतिष्ठित लोग जब योग विषय का प्रचार करते हैं तो मन प्रसन्न कर लेते हैं। इसके लिये हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आभारी भी है कि उन्होंने योग प्रचार के लिये वह भूमिका निभाई जिसकी हम प्रतिष्ठित लोगों से अपेक्षा करते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

राष्ट्रभाषा से ही विश्व में पहचान बनती है-हिन्दी चिंत्तन लेख


            14 सितम्बर 2014 रविवार को हिन्दी दिवस सरकारी तौर से मनाया जायेगा। इसमें अनेक ऐसे बुद्धिजीवी अपने प्रवचन करते मिल जायेंगे जो न केवल हिन्दी भाषा के प्रति हार्दिक भक्ति दिखायेंगे वरन् उसका महत्व भी प्रतिपादित करेंगे पर सच यह है कि उनके शब्द केवल औपचारिक मात्र होंगे।  अगर हम हिन्दी भाषी समुदाय की बात करें तो शायद ही वह आमजन कहीं इस दिवस में कोई दिलचस्पी दिखाये जो कि वास्तव में इसका आधार है। अनेक लोग इस लेखक के ब्लॉग पर यह टिप्पणी करते हैं कि आप हिन्दी के महत्व के बारे में बतायें।  यह ऐसे पाठों पर लिखी गयी हैं जो चार से छह वर्ष पूर्व लिखे गये हैैं।  तब हैरानी होती है यह सोचकर कि क्या वाकई उन लोगों को हिन्दी का महत्व बताने की आवश्यकता है जो पढ़े लिखे हैं।  क्या अंतर्जाल पर सक्रिय हिन्दी भाषी चिंत्तन क्षमता से इतना कमजोर हैं कि वह स्वयं इसके महत्व पर विचार नहीं करते।

            हैरानी तो इस बात पर भी होती है कि व्यवसायिक विद्वान आज भी हिन्दी के प्रचार प्रसार की बात करते हुए उसके पिछड़ेपन के लिये बाज़ार को बता देते हैं जो हिन्दी भाषियों का दोहन तो करता है पर उसके विकास पर जोर नहीं देता।  इतना ही नहीं बाज़ार पर अपने हिसाब से हिन्दी अंग्रेजी की मिश्रित हिंग्लिश का प्रचलन बढ़ाने का आरोप भी लगता है।  सबसे बड़ी बात तो यह कि हिन्दी की निराशाजनक स्थिति पर हमेशा बोलने वाले यह विद्वान बरसों से रटी रटी बतायें दोहराते हैं।  उनके पास हिन्दी को लेकर अपनी कोई योजना नहीं है और न ही हिन्दी  भाषी जनमानस में प्रवाहित धारा को समझने का कोई प्रयास किया जाता है।  वह अपने पूर्वाग्रहों के साथ हिन्दी भाषा पर नियंत्रण करना चाहते हैं। मुख्य बात यह कि ऐसे विद्वान हिन्दी को रोजी रोटी की भाषा बनाने का प्रयास करने की बात करते हुए उसमें अन्य भाषाओं से शब्द शामिल करने के प्रेरणा देते हैं।  उन्हें आज भी हिन्दी साठ साल पहले वाली दिखाई देती है जबकि उसने अनेक रूप बदले हैं और वह अब निर्णायक संघर्ष करती दिख रही है।

            हिन्दी आगे बढ़ी है।  एक खेल टीवी चैनल तो अब हिन्दी में सीधा प्रसारण कर रहा है और हम ऐसे अनेक पुराने क्रिकेट खिलाड़ियों को हिन्दी बोलते देखते हैं जिनके मुंह से अभी तक अंग्रेजी ही सुनते आये थे।  कपिल देव और  नवजोत सिद्धू के मुख से हिन्दी शब्द सुनना तो ठीक है जब सौरभ गांगुली, सुनील गावस्कर, अरुणलाल तथा संजय मांजरेकर जैसे लोगों से हिन्दी वाक्य सुनते हैं तो लगता है कि बाज़ार भी एक सीमा तक भाषा नियंत्रित करता है तो होता भी है।  रोजी रोटी से भाषा के जुड़ने का सिद्धांत इस तरह के परिवर्तनों से जोड़ा जा सकता है पर हमेशा ऐसा नहीं होता क्योंकि भाषा की जड़ों को इससे मजबूती नहीं मिलती क्योंकि बाज़ार को भाषा के विकास से नहीं वरन् उसक दोहन से मतलब होता है।

            अंतर्जाल पर हिन्दी भाषा को  कम समर्थन मिलता है इससे यहां लिखने वालों के लिये रोजी रोटी या सम्मान मिलने जैसी  कोई सुविधाजनक प्रेरणा नहीं है पर परंपरागत क्षेत्रों में भी तो यही हाल है।  फिर भी वहां स्वांत सुखाय लिखने वाले ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो  हिन्दी की अध्यात्मिक धारा में प्रवाहित होने का आंनद लेते हैं। उन्हें व्यवसायिक धारा से जुड़कर शब्द और शैली पर समझौता करना पसंद नहीं है।  न ही दूसरे के निर्देश पर रचना की विषय सामग्री रचने  की उनमें इच्छा पैदा है। उनके लिये भाषा सांसरिक विषयों से अधिक अध्यात्मिक महत्व की है। उनका बेहतर चिंत्तन हिन्दी में होता है जिसकी अभिव्यक्ति हिन्दी में होने पर ही उनको संतोष होता है। हिन्दी में सोचकर अंग्रेजी में बोलने के लिये व्यावसायिक बाध्यता नहीं होती।  वैसे हमारा मानना है कि हिन्दी की ताकत ग्रामीण और मध्यम क्षेत्र के शहरी लोग हैं जिनका अंग्रेजी से कोई संबंध नहीं है।  वह हिन्दी से इतर कही बात को अनसुना कर देते हैं।  आज के लोकतांत्रिक तथा भौतिक युग की यह बाध्यता बन गयी है कि भारत क आम जनमानस को प्रभावित करने के लिये हिन्दी की सहायता ले। यही कारण है कि व्यवसायिक समूह हिन्दी से जुड़ रहे हैं जो कि हिन्दी के भविष्य के लिये अच्छे संकेत हैं।

            सबसे बड़ी बात यह कि  हमारी राय हिन्दी के विषय में अलग है।  वह ब्लॉग मित्र पता नहीं कहां लापता है जिसका यह सिद्धांत हमारे मन को भाया था कि हिन्दी एक नवीन भाषा है इसलिये वह बढ़ेगी क्योंकि यह संसार का सिद्धांत है कि नवीनता आगे बढ़ती है। उनका यह भी मानना था कि अंग्रेजी पुरानी भाषा इसलिये उसका पतन होगा।  हमारे यहां अंग्रेजी के प्रति मोह विदेशों में नौकरी की वजह से है।  सामाजिक विशेषज्ञ भले ही प्रत्यक्ष न कहें पर सच यह है कि श्रम निर्यातक देश के रूप में भारत में अंग्रेजी का महत्व इस कारण ही बना हुआ है क्योंकि यहां शिक्षित बेरोजगारों की संख्या ज्यादा है और उन्हें बाहर जाकर रोजगार ढूंढने या करने के लिये उसका ज्ञान आवश्यक माना जाता है। यह शर्त निजी व्यवसाय पर लागू नहीं होती क्योंकि पंजाब के अनेक लोग बिना अंग्रेजी के ही बाहर जाकर व्यवसायिक करते हुए फलेफूले हैं। बहरहाल विश्व में डूबती उतरती अर्थव्यवस्था अब नौकरियों की कमी का कारण बनती जा रही है।  इधर जापान से भारत में निवेश की संभावना से निजी छोटे उद्योग पनपने की संभावना है। ऐसे में लगता तो यही है कि नवीन भाषा होने के कारण हिन्दी वैश्विक भाषा बन ही जायेगी।  जिन्हें समय के साथ चलना है उन्हें हिन्दी का ज्ञान रखना जरूरी है क्योंकि इसके अभाव में अनेक लोग देश में ही अपनी वाणी के लिये परायापन अनुभव करने लगेंगे।

            इस हिन्दी दिवस पर सभी ब्लॉग लेखकों और पाठकों को बधाई।  हमारा यही संदेश तो यही है कि हिन्दी अध्यात्मिक भाषा है। इसमें चिंतन, मनन, अध्ययन और वाचन करने से ही हमारे विचार, व्यवहार और व्यक्तित्व की मौलिकता बचा सकते हैं।

पश्चिम के बाद पूर्व को भी आजमा लें-हिन्दी चिंत्तन लेख


            अभी हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्रमोदी ने जापान का दौरा किया। वहां उन्होंने वहां के प्रधानमंत्री को भारत का पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भागवत गीता उपहार में दिया।  इस यात्रा के राजनीतिक संदर्भ चाहें जो भी हों अध्यात्मिक विचार धारा के पोषक भारतीय समाज के लिये यह एक नवीन विषय बन गया है जब किसी राजनीतिक मंच पर श्रीगीता का नाम इस तरह लिया गया हो।  अभी तक भारत के शिखर पुरुष पश्चिम की तरफ देखते थे पर यह पहला अवसर है जब पूर्व से रिश्ता बनाने में विशेष दिलपस्पी देखी गयी है।

            इस पर पारंपरिक दृष्टिकोण से अलग हटकर विचार करें तब यह निष्कर्ष सामने आता है कि हम अपने भौतिक विकास का स्वरूप पश्चिम की बजाय पूर्व के आधार पर तय करें तो शायद बेहद अच्छा रहे।  जापान दुनियां एक धनी राष्ट्र है।  द्वितीय विश्वयुद्ध में उस पर अमेरिका ने परमाणु  बम फैंका था।  यह मलाल आज भी वहां के लोगों के मन में है।  अमेरिका ने अभी तक एशियाई देशों पर ही बम बरसाये हैं।  दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन राजपुरुषों ने अमेरिका से दोस्ती की अंततः वह उनका ही दुश्मन बना। सद्दाम हुसैन इसका एक सबसे अच्छा उदाहरण है। ऐसे में उस पर यकीन करना हमेशा ही कठिन रहता है।  मूलतः भारत का अमेरिका से कोई बैर नहंी है पर उसकी रणनीतियां हमेशा ही संदिग्ध मानी जाती हैं।  दूसरी बात यह कि वह दुनियां का सबसे अमेरिका विश्व  का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र है पर उसकी अर्थव्यवस्था पराश्रित मानी जाती है।  इसके विपरीत जापान एक आत्मनिर्भर राष्ट्र है।  सबसे बड़ी बात यह कि वह एशियाई क्षेत्र होने के साथ ही सहधर्मी राष्ट्र है।  वहां बौद्धधर्म प्रचलित हैं जिसके प्रवर्तक भगवान बौद्ध हमारी धरती पर ही प्रकट हुए थे। जापान विश्व में दूसरों को कर्ज और दान देने वाला राष्ट्र है पर यह बात अलग है कि छोटा होने के कारण उसे वह सम्मान नहीं मिलता।  अगर भारत जैसा विशाल देश उसके साथ हो जाये तो सामरिक दृष्टि से भी उसका आत्मविश्वास बढ़ सकता है।  हमारे यहां का भी जाता है कि हरा भरा वृक्ष ही इंसान का सहायक होता है सूखा पेड़ किसी काम का नहीं हो सकता।

            तकनीकी रूप से जापान हमारे पड़ौसी चीन से कहीं बेहतर है। अमेरिका हमारे साथ संपर्क इसलिये बढ़ा रहा है क्योंकि यहां उसके लिये रोजगार के अवसर हैं।  जापान को पूंजी लगाने का स्थान चाहिये जिससे हमारे विशाल राष्ट्र में हमारे लिये तो हमें भी रोजगार के अवसर बन सकते हैं। सांस्कृतिक और वैचारिक रूप से भी जापान हमारा निकटस्थ सहयोगी बन सकता है। मूल बात यह कि हम आर्थिक, वैचारिक, साहित्यक तथा संस्कारिक दृष्टि से हम पश्चिम की तरफ देखकर निराश हो चुके हैं।  पश्चिम से आई हवा ने हमारे यहां तनाव पैदा किया है इसलिये अब पूर्व की तरफ रुख करना चाहिये। हम पश्चिम की साम्राज्यवादी और मध्य एशिया की हिंसक गतिविधियों से जुड़कर अपना समय व्यर्थ ही बरबाद करते हैं।  मध्य एशिया में हिंसक संघर्ष कभी थम नहीं सकता।  ऐसा लगता है यह उनका स्वभाव है। वर्षों पुराना इतिहास गवाह है कि पश्चिमी राष्ट्र साम्राज्य बढ़ाने तो मध्य एशिया के राष्ट्र आपस मे उलझकर विश्व में हिंसा का संकट पैदा करते रहे हैं।  दूसरी बात यह कि पश्चिमी से आई हवा यहां गुलाम पैदा करती है जबकि पूर्व से आई हवा में स्वतंत्र मानसिकता की खुशबू आती है।  वैसे भी हमारे देश में सदियों से पूर्व की तरफ देखकर पूजा, आरती या प्रणाम करने की परंपरा रही है।

            एक सज्जन पलंग पर दो वर्ष तक पश्चिम की सिर कर सोते रहे।  लगातार तनाव में गुजारा। एक दिन उनके ही अध्यात्मिक ज्ञानी मित्र ने  उनको घर पर ऐसा करते पाया तो उसे चेताया कि पूर्व या दक्षिण की तरफ सिर रखकर सोया करो। उत्तर की तरफ सिर करने से से उष्णता तो पश्चिम की तरफ सोने से कुंठा पैदा होती है।  उस मित्र को यह बात लग गयी।  बाद में उन्होंने बताया कि उस अध्यात्मिक मित्र की सलाह मानने के बाद वह अलग तरीके से ही सुखदायक जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

            अध्यात्मिक तथा ज्ञान साधक पूर्व की तरफ मुख कर ही योग साधना करते हैं। लोग उगते हुए सूरज को जल देते हैं जो पूर्व से ही उगता है।  पश्चिम के लोग हमारे आर्थिक सहायक कतई नहीं है।  जिस तरह चीन और जापान की चीजें बाज़ार में बिकती हैं उससे यह साफ लगता है कि विकास के तत्व तो पूर्व में ही मौजूद हैं।  बहरहाल यह हमारी एक राय भर है जो अध्यात्मिक लेखक होने के नाते लिखी गयी है जो कि इस अवसर श्रीमद्भागवत गीता का उल्लेख होने पर पैदा हुई।  यह किसी आर्थिक या राजनीतिक विश्लेषक की रचना नहीं है जिसमें पूर्व बेहतर संपर्क होने से अन्य लाभों या हानियां का आंकलन प्रस्तुत किया जा सके।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
इस लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकायें जरूर देखें
1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का  चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका

६.ईपत्रिका

७.दीपकबापू कहिन

८.जागरण पत्रिका

८.हिन्दी सरिता पत्रिका