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श्रीमद्भागवत गीता को गुरू मानकर उसका अध्ययन करें-गुरु पूर्णिमा पर विशेष हिन्दी लेख


        गुरू पूर्णिमा का दिन भारत में धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में गुरु की सेवा का महत्व प्रतिपादित किया है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के ज्ञान का व्यवसायिक रूप से प्रवचन करने वाले अनेक गुरु इस संदेश का महत्व अपने अपने ढंग से बयान करते हुए अपनी छवि गुरु जैसी बना लेते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में गुरू के स्वरूप की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है इसलिये इसका उपयोग चाहे जैसे किया जा सकता है पर जो लोग श्रीमद्भागवत के अक्षरक्षः पालन करने के समर्थक हैं वह गुरू के अधिक व्यापक स्वरूप की बजाय उसके सूक्ष्म अर्थ पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। उनका स्पष्टतः मानना है कि असली गुरु वही है जो अपने शिष्य को तत्वज्ञान से अवगत कराने के साथ ही उसमें धारित या स्थापित करने का सामर्थ्य रखता हो।

          श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान केवल उसके अध्ययन से सभी को नहीं हो सकता और उनको इसके लिये किसी न किसी गुरु की आवश्यकता होगी यह बात श्रीकृष्ण अच्छी तरह से जानते थे। देश में जो आज की शैक्षणिक स्थिति है उससे अधिक बदतर तो महाभारत काल में थी। सभी लोग अक्षर ज्ञान से अवगत नहीं थे और उनको धार्मिक और अध्यात्मिक ज्ञान में वर्णित सामग्री के लिये भाषा ज्ञान रखने वाले लोगों पर निर्भर रहना पड़ता था तब दैहिक गुरु की आवश्यकता बताई गयी। इसी कारण से श्रीमद्भागवत गीता में गुरु के स्वरूप के महत्व बताया गया। महभारत युद्ध में श्रीमद्भागवत गीता का संदेश देते भगवान श्रीकृष्ण के उस समय श्री अर्जुन के सखा न होकर गुरु बन गये थे।

       श्रीमद्भागवत गीता एक अनमोल ग्रंथ है। ऐसा कोई भी पेशेवर या गैर पेशेवर अध्यात्मवेता नहीं है जो उसके स्वर्णिम भंडार रूपी तत्वज्ञान से अपना मोह दूर रख सके। यह अलग बात है कि पेशेवर संत गुरु का अर्थ अत्ंयत व्यापक कर जाते हैं। वह उसमें माता पिता, दादा दादी और नाना नानी भी जोड़ देते हैं ताकि वह अपने शिष्यों के साथ उनके परिवार में भी पैठ बना सकें। जबकि श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों से ऐसा आभास नहीं होता। वहां गुरु से आशय केवल तत्वज्ञान देने वाले परिवार से बाहर के गुरु से ही है। उसकी सेवा की बात करना स्वाभाविक भी हैै। वह भी उस समय जब उससे शिक्षा प्राप्त की जा रही हो। उस समय गुरुकुलोंु में शिक्षा होती थी और सेवा एक आवश्यकता थी। न कि गुरुजी के दिये ज्ञान को धारण किये बिना हर वर्ष उसके यहां मत्था टेककर अपना जीवन धन्य समझना।

         कुछ पेशेवर संत माता पिता की सेवा का उपदेश देकर भीड़ की वाहवाही लूटते हैं क्योंकि उनके भक्तों में अनेक माता पिता भी होते हैं। ऐसे में कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि क्या श्रीमद्भागवत गीता में माता पिता के सेवा के लिये कोई स्पष्टतः उल्लेख नहीं हैं तो उन्हें बता दें कि भगवान श्रीकृष्ण ने तो गृहस्थ जीवन का त्याग करने की बजाय उसे निभाने की बात कही है। हमारे माता पिता हमारी गृहस्थी का ही भाग होते हैं न कि उनसे अलग हमारा और हमसे अलग उनका कोई अस्तित्व होता है। हम उनकी गृहस्थी का विस्तार हैं तो वह हमारी गृहस्थी के शीर्ष होते हैं। जो व्यक्ति गृहस्थ धर्म का पालन करता है वह अपनी गृहस्थी में शामिल हर सदस्य के प्रति अपना कर्तव्य निभाता है। इस दैहिक संसार में कोई भी आदमी अपने गृहस्थ कर्म से विमुख नहीं हो सकता इसलिये गुरु के स्वरूप का विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है।

          माता पिता तो अपनी संतान के संसार का ही ज्ञान देते हैं जबकि गुरु इस प्रकृति के रहस्यों को उद्घाटित करने वाला ज्ञान देकर अपने शिष्य को इस जीवन को जीने का तरीका सिखाता है जिसके आगे सांसरिक ज्ञान तुच्छ साबित होता है। इसके विपरीत हम देख रहे है कि धर्म से जुड़े पेशेवर और गैरपेशेवर प्रवचन कर्ता अपने श्रोताओं और शिष्यों को सांसरिकता का पाठ ही अवश्य पढ़ाते हैं। उनका लक्ष्य समाज में चेतना लाने की बजाय उसे बौद्धिक विलासी बनाकर उसका दोहन करना होता है। स्थिति यह है कि इनमें से कई शिखर पर पहुंच कर अपने शिष्य और श्रोता समुदाय की संख्या का प्रभाव दिखाने की कोशिश सार्वजनिक रूप से करते हैं। ऐसे लोग श्रीमद्भागवत गीता जिसमें जिसमें निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन दया का पाठ पढ़ाया है उसका वाचन कर लोगों में विषयों के प्रति आसक्ति को तीव्रतर करने के लिये करते हैं।

        इसका छोटा उदाहरण यह है कि श्रीमद्भागवत गीता के पहले अध्याय में अर्जुन ने युद्ध से विरक्त होकर जब हथियार डाले और श्रीकृष्ण को भविष्य के दुष्परिणामों के बारे में बताया तो उसमें उसने यह भी कहा था कि जब दोनों तरफ के योद्धा अपने परिवार के समस्य पुरुष सदस्यों के साथ मारे जायेंगे तो फिर उनका श्राद्ध और तर्पण कौन करेगा? उन्होंने अन्य आसन्न संकटों की भी चर्चा की। भगवान श्री कृष्ण ने दूसरे अध्याय में उसके इस तरह के सारे संकटों को वहम बताया। वहां भगवान श्रीकृष्ण ने उसे बताया कि यह सारे ढकोसले हैं। श्रीमद्भागवत गीता में किसी भी कर्मकांड का समर्थन नहीं किया गया। इसी श्रीगीता के आधार पर बोलने वाले गुरु अपने शिष्यों को श्राद्ध तथा पितृपक्ष का महत्व बताते हुए उसे निभाने की बात करते हैं।

      भगवान श्रीकृष्ण और भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र की यह विशेषता है कि दोनेां ही गुरु महिमा का बखान करते हैं पर एक बार वह अपने कर्मक्षेत्र में उतरे तो पलट कर अपने गुरु के पास नहीं गये। स्पष्टतः उनका आशय केवल शिक्षा के दौरान ही गुरु की सेवा से रहा है। उनके गुरुओं ने भी कभी उनका संपूर्ण जीवन तक दोहन नहीं किया। तत्वज्ञान देने वाला गुरु पूर्ण रूप से शिष्य को शिक्षित कर फिर उससे भी विरक्त हो जाता है। न वह शिष्य में मोह रखता है न वह उससे ऐसी अपेक्षा करता है। यही त्याग गुरु की सबसे बड़ी शक्ति है और आज हम अपने अध्यात्मिक ज्ञान के विश्व में सबसे अधिक संपन्न देखते हैं तो वह केवल इन्हीं गुरुओं की तपस्या का परिणाम है।

      लोग अक्सर कहते हैं कि सच्चे गुरु मिलते ही कहां है़? दरअसल वह इस बात को नहीं समझते कि पुराने समय में शिक्षा के अभाव में गुरुओं की आवकश्यता थी पर आजकल तो अक्षर ज्ञान तो करीब करीब सभी के पास है। जीवन में गुरु होना चाहिए पर न हो तो फिर श्रीमद्भागवत गीता को ही गुरू मानकर शिष्य भाव से उसका अध्ययन करना चाहिये जो अब सभी भाषाओं में उपलबध है। भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन किया जाये तो ज्ञान चक्षु स्वतः खुल जायेंगे। फिर कहीं सत्संग और चर्चा करें तो अपने ज्ञान को प्रमाणिक भी बना सकते हैं। मुख्य बात संकल्प की है। हमारा स्वय का संसार हमारे सामने अपने ही संकल्प से वैसे ही स्थित होता है जैसे परमात्मा के संकल्प से स्थित है। अगर द्रोणाचार्य जैसे गुरु नहीं मिलते तो एकलव्य जैसा शिष्य तो बना ही जा सकता है।

इस अवसर पर अपने ब्लाग लेख्कों और पाठकों को बधाई।

 

 

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लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

 

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

नाकाम आशिक कलम छोड़ हथियार उठाते हैं-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


आशिकों के कातिल बन जाने की खबर रोज आती है,

टीवी पर विज्ञापनों के बीच सनसनी छा जाती है।

कहें दीपक बापू दिल कांच की तरह टूट कर नहीं बिखरते

अब भड़ास अब गोली की तरह चलकर आग बरसाती है।

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आशिक नाकाम होने पर अब मायूस गीत नहीं गाते है,

कहीं गोली दागते कहीं जाकर चाकू चलाते हैं।

कहें दीपक बापू इश्कबाज हो गये इंकलाबी

नाकाम आशिक कलम छोड़कर  हथियार चलाते हैं।

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आशिकों ने प्रेमपत्र लिखने के लिये कलम उठाना छोड़ दिया है,

एक हाथ का मोबाइल दूसरे का चाकू से नाता जोड़ दिया है,

कहें दीपक बापू इश्क पर क्या कविता और कहानी लिखें,

टीवी पर चलती खबरों ने उसे सनसनी की तरफ मोड़ दिया है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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भर्तृहरि नीति शतक-अपने स्वार्थ हो तो भी गजराज की तरह व्यवहार करें


      इस संसार में भूख सभी को लगती है पर भोजन पाने और करने के सभी के तरीके अलग हैं।  अपना कमाकर खाने वाले लोग जहां जीवन में आत्मविश्वास से भरे होते हैं वही दूसरे से कर्ज, भीख अथवा मदद मांगने वाले लोग हमेशा ही हृदय में दीनता का भाव लेकर जीते हैं। कहा जाता है कि जैसा खायें अन्न वैसा ही होता है मन। इसका आशय अन्न के दानों का स्वरूप ही नहीं वरन् उसके लिये अर्जित धन से साधन से भी जोड़ना चाहिये।  यह भी कहा जाता है कि परमात्मा पेट देने से ही पहले अन्न के दानों पर खाने वाले का नाम लिख देता है। यह ज्ञान रखने वाले लोग आत्मविश्वास से जीवन में अपना हर काम करते हैं। इसके विपरीत जो मन में कर्ता का भाव लिये होते हैं उन्हें परमात्मा की इस सांसरिक कृति पर यकीन नहीं होता इसलिये अपनी आवश्यकताओं के लिये वह अतिरिक्त सक्रियता दिखाते हैं। उनके मस्तिष्क में चिंताओं का ढेर भरा होता है।  जिसके चलते न केवल वह दैहिक बल्कि मानसिक रूप से भी अस्वस्थ हो जाते हैं।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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ङ्गल चालनमधरश्चरणावपातं भूमी निपत्य वदनोदर दर्शनं च।

श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्वते।।

     हिन्दी में भावार्थ-कुत्ता भोजन देने वाले के आगे पूंछ हिलाकर उसके सामने मुंह वह पेट दिखाते हुए लोटपोट उसके  अपनी दीनता प्रदर्शित करता है जबकि हाथी उसे गंभीरता से देखता है और कई बार मनाने पर ही भोजन ग्रहण करता है।

कृमिकुलचित्तं लालक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितमु निरुपमरसं प्रीत्या खादनन्नरास्थि निरामिषम्।

सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्यं विलोक्य न शंकते न हि गणवति क्षुद्रो जन्तु पिरग्रहफलगुनाम्।।

हिन्दी में भावार्थ-कीड़ों से युक्त, रसहीन, दुर्गंध से भरी, स्वादरहित, घृणित हड्डी को पकड़ कर बहुत उत्साह से चबाता है। उस सयम अपने पास आये देवता की भी उसे परवाह नहीं होती।

      हम देख रहे हैं कि हमारा परंपरागत भारतीय समाज पूरी तरह से बिखर चुका है।  यह कहा जरूर जाता है कि हम एक संगठित भारतीय समाज के सदस्य हैं पर  सभी को पता है कि यह दावा एकदम खोखला है।  सभी दावा करते हैं कि वह किन्हीं जातीय, धार्मिक, भाषाई अथवा विशिष्ट समाज के सदस्य होने के कारण सुरक्षित अनुभव करते हैं पर सच यह है किसी को हृदय से अपनी ही बात पर ही यकीन नहीं होता है।  पाश्चात्य वस्तुओं को अपनी दैनिक तथा सांस्कारिक आवश्यकताओं के मूल से जोड़ने वाले हमारे  भारतीय समाज का मनोबल गिरा हुआ है।  हम भ्रष्टाचार तथा बेईमानी के विरुद्ध प्रत्यक्ष रूप से अभियान छेड़ने की बात तो करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि इसमें लिप्त लोग इसी भारतीय समाज के सदस्य हैं।  भ्रष्टाचार और बेईमानी में लगे लोगों को दूसरे का अपराध तो दिखता है पर अपना धन का लोभ इस आशंका के मारे नहीं छोड़ पाते कि अगर संपन्नता नहीं है तो समाज उनको पूछेगा भी नहीं-यही नहीं वह लोग अपने बेईमानी को मेहनत की कमाई मानने का तर्क स्वयं को देकर ही समझाते हैं।

      कहने का अभिप्राय यह है कि हम दूसरे की तरफ न देखें वरन् अपने व्यवहार, विचार तथा व्यक्तित्व पर दृष्टिपात करें।  अगर हम दृढ़ता पूर्वक सत्य का मार्ग लेंगे तो कभी जीवन में कुंठा का अनुभव नहीं होगा।  जो व्यक्ति सिद्धांत पर दृढ़ रहता है उसके मुख मंडल पर तेज स्वतः प्रकट होता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

 

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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पर्दे पर रोज नयी खबर चाहिये-हिन्दी व्यंग्य कविता


लोगों के सामने पर्दे चलने के लिये रोज नयी खबर चाहिये,

प्रचार प्रबंधक ढूंढते हैं बयानवीन इस पर नाराजगी नहीं जताईये।

सनसनीखेज शब्द हों तो चर्चा और बहस की सामग्री जुटाते हैं,

बीच में चलते सामानों के विज्ञापन जिन पर लोग दिल लुटाते हैं,

चमकाये जाते हैं वह चेहरे जो देते हैं किसी का नाम लेकर गालियां,

उस पर जारी बहस में कोई वक्ता होता नाराज कोई बजाता तालियां,

पर्दे पर खबरें ताजा खबर के लिये किसी को भी बनाते नायक,

बासी होते ही उसके चेहरे में ताजगी भरते बताकर खलनायक,

कहें दीपक बापू बयानवीरों और प्रचार प्रबंधकों खेल तयशुदा है

इधर से सुनिये उधर से निकालिये अपना दिल न सताईये।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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परमार्थ करने वाले सच्चे लोग नाटकबाजी नहीं करते-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख


      भारत में लोकसभा चुनाव 2014 के लिये कार्यक्रम घोषित किये जा चुका है।  शुद्ध रूप से राजसी कर्म में प्रवृत्त लोगों को लिये एक तरह से यह चुनाव कुंभ का मेला होता है।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार कोई मनुष्य  पूर्ण रूप से सात्विक  या तामसी प्रवृत्ति का हो अपने जीवन निर्वाह के लिये अर्थार्जन का कार्य करना ही पड़ता है जो कि एक तरह से राजसी प्रकृत्ति का ही होता है।  दूसरी बात यह भी है कि राजसी कर्म करते समय मनुष्य को राजसी प्रकत्ति का ही अनुसरण करना चाहिये इसलिये ज्ञानी या सात्विक प्रकृत्ति के व्यक्ति में अर्थार्जन के लिये उचित साधन होने पर उसकी क्रियाओं में दोष देखकर यह मान लेना कि वह अपनी मूल प्रकृत्ति से दूर हो गया, यह विचार धारण करना गलत होगा।  ज्ञानी और सात्विक व्यक्ति राजसी कर्म करने के बावजूद उसमें अपने मूल भाव का तत्व अवश्य प्रकट करते हैं। इसके विपरीत जो राजसी प्रकृत्ति मे हैं वह राजसी कर्म करते समय किसी सिद्धांत का पालन करें यह आवश्यक नहीं होता।  उनके लिये अपना ही लक्ष्य सर्वोपरि होता है। देखा जाये तो सामान्य गृहस्थ हो या राजकीय कर्म करने वाला विशिष्ट व्यक्ति दोनों का लक्ष्य अर्थोपार्जन करना ही होता है।  सामान्य गृहस्थ जहां अपनी गृहस्थी का राजा होता है वहीं राजकीय व्यक्ति को किसी उपाधि की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।  राजकीय कर्म तो राजसी प्रकृत्ति से ही किये जा सकते हैं इसलिये वहां पूर्ण सैद्धांतिक शुचिता के पालन की अनिवार्यता की आशा व्यर्थ ही की जाती है। 

भृर्तहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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पद्माकरं दिनकरो विकची क्ररीति चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवातम्।।

नाभ्यार्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति संतः स्वयं परहिते विहिताभियोगाः।।

     हिन्दी में भावार्थ-सूर्य बिना याचना किये ही कमल को खिला देता है, चंद्रमा कुमुदिनी को प्रस्फुटित कर देता है। बादल भी बिना याचना के ही पानी बरसा देते हैं। इसी तरह सत्पुरुष अपनी ही अंतप्रेरणा से ही परोपकार करते हैं।

      लोकतंत्र में चुनावों के लिये उतरने वाले लोग आम जनमानस को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिये अनेक प्रकार के प्रयास करते हैं।  अनेक तरह के वादे तथा आश्वासन देने के साथ ही वह आमजनों को धरती पर ही स्वर्ग दिखाने का सपना दिखाते हैं। एक तरह से देखा जाये तो लोकतांत्रिक राजकीय प्रणाली ने विश्व में पेशेवर शासकों की पंरपरा स्थापित की है। प्रधानमंत्री हो या राष्ट्रपति या अन्य कोई जनप्रतिनिधि वह खजाने से अपने व्यय के लिये प्रत्यक्ष रूप से धन नहीं ले सकता वरन् वह एक सेवक की तरह उसे वेतना प्रदान किया जाता है।  यह अलग बात है कि जितना बड़ा राजकीय पद हो वहां विराजमान व्यक्ति को राज्य के धनपति, साहुकार, तथा उद्योगपति उसी के स्तर के अनुसार भेंट देने के लिये तत्पर रहते हैं जैसे पहले राजाओं को मिलते थे।  हमारे ग्रंथों में ऐसे अनेक उदाहरण है जब राजपद धारण करने पर राज्य के जमीदार, साहुकार तथा धनवान अपने राजा को भेंट देते थे।  इस तरह की भेंट लेना कम से कम हम जैसे अध्यात्मिक दृष्टि से कोई गलत नहीं है। यह  अलग बात है कि राजपद पाने के लिये उत्सुक लोग स्वयं को एक त्यागी व्यक्ति के रूप में प्रचारित कर जनमानस का हृदय जीतने का प्रयास करते हैं।  त्याग का भाव सात्विक कर्म का परिचायक है जिसकी उपस्थिति राजसी कर्म  में नहीं की जा सकती।

      यही से आधुनिक लोकतंत्र में अनेक नाटकों का प्रारंभ हो जाता है। इधर उदारीकरण ने निजी क्षेत्र को अधिक अवसर प्रदान किये हैं।  तेल से लेकर खेल तक और संचार साधनों से लेकर प्रचार माध्यमों तक पूंजीपतियों का एकछत्र राज्य हो गया है। मनोरंजन कार्यक्रमों में फूहड़ कामेडी तो समाचारों में नाटकीय घटनाक्रम को महत्व मिल रहा है।  कभी कभी तो यह लगता है कि फिल्म के अभिनेता फिल्म या धारावाहिक में पटकथा के आधार पर जिस तरह अभिनय करते हैं उसी तरह खिलाड़ी भी मैच खेलते हैं।  उससे ज्यादा मजेदार बात यह है कि अनेक लोग तो केवल इसलिये समाज सेवा या राजकीय उपक्रम इस तरह करते हैं ताकि उनको प्रचार माध्यमों में स्थान मिलता रहे।  हालांकि प्रचार माध्यम उनकी मजाक उड़ाते हैं पर फिर भी उनके बयानों पर बहस और चर्चा करते हैं जिसके दौरान उनके विज्ञापनों का समय खूब पास होता है। हम यह भी कह सकते हैं कि प्रचार प्रबंधक और बाज़ारों के स्वामियों का कोई संयुक्त उपक्रम हैं जो इस तरह के नाटकीय पात्रों का सृजन कर रहा है जिससे समाज अपनी समस्याओं को भूलकर मनोरंजन में लीन रहे।  कोई जनविद्रोह यहां न फैले वरन् यथास्थिति बनी रहे।

      अब तो समाचार और नाटकों में कोई अंतर ही नहीं दिख रहा।  जैसे जैसे यह चुनाव पास आयेंगे उसी तरह नाटकीय का दौर बढ़ेगा यह बात प्रचार माध्यमों के प्रबंधक स्वयं कह रहे हैं। योग तथा अध्यात्मिक साधकों ने जिज्ञासावश नहीं वरन् कौतूहल से इस नाटकीयता को देखें।  यह नाटकीय लोग देश और समाज की फिक्र करते दिखते हैं। आर्थिक और प्रशासनिक व्यवस्था को जनोन्मुखी बनाने का दावा करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि समाज सेवा का व्रत इस तरह लिया है जिसमें चंदा और भेंट मिलती रहे। हम यह समझ लेना चाहिये कि परोपकारी लोग कोई प्रचार नहीं करते। वह कोई योजना नहीं बनाते।  सबसे बड़ी बात यह है कि वह कोई दावा नहीं करते।  हमारा देश तो वैसे भी भगवत्कृपा से संपन्न है।  इसे कोई संपन्न क्या बनायेगा? गरीबों को कोई अमीर बना नहीं सकता और कोई लालची अमीरों के आगे हाथ फैलाने से कोई बच नहीं सकता।  कुछ लोग गरीब हैं पर वह भिखारी नहीं है जिसे यह लोग संपन्न बनाने का दावा करते हैं। गरीब अपने श्रम पर जिंदा हैं और इनमें से अधिकतर जानते हैं कि उनके भले का नारा लगाकर कोई भी राजकीय पद प्राप्त कर लें पर फायदा देने वाला नहीं है।  अंततः उनको अपने श्रम का पैसा किसी धनी से ही मिलता है इसलिये उसके मिटने की कामना भी वह नहीं करते। राज्य बना रहे यही कामना उनकी भी रहती है ताकि उनका जैसा भी घर चल रहा है वैसे चलता भी रहे। परोपकार का दावा करने वालों से वह भीख मांगने नहीं जाते यह अलग बात है कि इस तरह के ढोंग में लीन लोगों को अपने लोकप्रिय होने की खुशफहमी प्रचार की वजह से हो जाती है।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

समाज को जड़ या चेतनाहीन मानना मूर्खता-हिंदी सम्पादकीय


      जहां तक भारतीय अध्यात्मिक विषय से जुध विद्वान लोगों का ज्ञान है वह इस बात की पुष्टि नहीं करता कि इस देश का पूरा समाज मूर्ख और रूढ़िवादी हैं जैसा कि कथित सुधारवादी मानते हैं| जिस तरह पिछले साठ वर्षों से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक रूप से कुछ मुद्दे पेशेवर समाज सेवकों और बुद्धिजीवियों ने तय कर रखे हैं , उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया उससे तो लगता है कि वह यहां के आम आदमी को अपने जैसा ही जड़बुद्धि  ही समझते हैं। उनकी बहसें और प्रचार से तो ऐसा लगता है कि जैसे यहां का समाज बौद्धिकरूप से जड़ है और यह उन भ्रम उन विद्वानों को भी हो सकता है जो ज्ञान होते हुए भी कुछ देर अपना दिमाग इस तरह की बहसों और प्रचारित विषयों को देखने सुनने में लगा देते हैं। दरअसल जब राजनीति, समाज सेवा और अध्यात्मिक ज्ञान देना एक व्यापार हो गया हो तब यह आशा करना बेकार है कि इन क्षेत्रों में सक्रिय महानुभाव अपने प्रयोक्तओं या उपभोक्ताओं के समक्ष अपनी विक्रय कला का प्रदर्शन कर उनको प्रभावित न करें। हम उन पर आक्षेप नहीं कर सकते क्योंकि प्रयोक्ताओं और उपभोक्ताओं को भी अपने ढंग से सोचना चाहिये। अगर आम आदमी कहीं इस तरह के व्यापारों में सेद्धांतिक और काल्पनिक आदर्शवाद ढूंढता हो तो दोष उसमें उसकी सोच का है।  जिस तरह एक व्यवसायी अपना आय देने वाला व्यवसाय नहीं बदलता वैसे ही यह पेशेवर सुधारवादी अपने विचार व्यवसाय नहीं बदल सकते क्योंकि वह उनको पद, प्रतिष्ठा और पैसा देता है|

           हां, हम इसी सोच की बात करने जा रहे हैं जो हमारे लिये महत्वपूर्ण है। जिस तरह इस देह में स्थित मन के लिये दो  मार्ग है एक रोग का दूसरा योग का वैसे ही  बुद्धि के लिये भी दो मार्ग है एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। जब बुद्धि सकारात्मक मार्ग पर चलती है तब मनुष्य के अंतर्मन में कोई नयी रचना करने का भाव आने के साथ ही तार्किक ढंग से विचार करने की शक्ति पैदा होती है। जब बुद्धि नकारात्मक मार्ग का अनुसरण करती है तब मनुष्य कोई चीज तोड़ने को लालायित होता है और तर्क शक्ति  से तो उसका कोई वास्ता हीं नहीं रह जाता-वह असहज हो जाता है। यही असहजता उसे ऐसे मार्ग पर ले जाती है जहां उसका ऐसे ही भावनाओं के व्यापारी उसका भौतिक दोहन करते हैं जो स्वयं भी अनेक कुंठाओं और अशंकाओं का शिकार होते हैं और धन संचय में उनको अपने जीवन की सुरक्षा अनुभव होती है।

      अपने स्वार्थ के कारण ही आर्थिक, सामाजिक तथा वैचारिक शिखर पर बैठे शीर्ष पुरुष समाज में ऐसे विषयों का प्रतिपादन करते हैं जिनसे समाज की बुद्धि उनके अधीन रहे और नये विषय या व्यक्ति कभी समाज में स्थापित न हो पायें-एक तरह से उनका वंश भी उनके बनाये शिखर पर विराजमान रहे। वह अपने प्रयास में सफल रहते हैं क्योंकि समाज ऐसे ही कथित श्रेष्ठ पुरुषों का अनुसरण करता है। अगर कोई सामान्य वर्ग का कोई चिंतक उनको नयेपन की बात कहे तो पहले वह उसकी भौतिक परिलब्धियों की जानकारी लेते है। सामान्य लोगों की भी यही मानसिकता है कि जिसके पास भौतिक उपलब्धियां हैं वही श्रेष्ठ व्यक्ति है।

      बहरहाल यही कारण है कि बरसों से बना एक समाज है तो उसकी बुद्धि को व्यस्त रखने वाले विषय भी उतने ही पुराने हैं। मनुष्य द्वंद्व देखकर खुश होता है तो उसके लिये वैसे विषय हैं। उसी तरह उनमें कुछ लोग सपने देखने के आदी हैं तो उनको बहलाने के लिये काल्पनिक कथानक भी बनाये गये। इनमें भी बदलाव नहीं आता।

      पिछले एक सदी से इस देश में  भाषा, जाति, धर्म, और क्षेत्र के नाम पर विवाद खड़े किये गये। उनका लक्ष्य किसी समाज का भला करने से अधिक उसके नाम पर चलने वाले अभियानों के मुखियाओं का द्वारा अपने घर भरना था। इनमें से कईयों ने तो अपने संगठन दुकानों की तरह अपनी संतानों को दुकानों की तरह उत्तराधिकार में सौंपे| ऐसा करते हुए वह नये देवता बनते नजर आने लगे। सच बात तो यह है कि इस दुनियां में कभी भी कोई अभियान बिना माया के नहीं चल सकता। फिर जो लोग दावा करते हैं कि वह अमुक समूह का भला कर रहे हैं उनका कृत्य देखकर कोई नहीं कह सकता कि यह काम निस्वार्थ कर रहे हैं। ऐसे में बार बार एक ही सवाल आता है कि कौन लोग हैं जो उनको धन प्रदान कर रहे हैं। तय बात है कि यह धन उन्हीं मायावी लोगों द्वारा दिया जाता होगा जो इस समाज को सैद्धांतिक मनोरंजन प्रदान करने के लिये उनका आभार मानते हैं।

      अभियान चल रहे हैं। आंदोलन इतने पुराने कि कब शुरु हुए उनका सन् तक याद नहीं रहता। आंदोलन के मुखिया देह छोड़ गये या इसके तैयार हैं तो उनके परिवार के पास वह विरासत में जाता है। पिता नहीं कर सका वह पुत्र करेगा-यानि समाज सेवा, अध्यात्मिक ज्ञान तथा कलाजगत का काम भी पैतृक संपदा की तरह चलने लगा है।

      सत्य और माया का यह खेल अनवरत है। ऐसा नहीं है इस संसार में ज्ञानी लोगों की कमी है अलबत्ता उनकी संख्या इतनी कम है कि वह समाज को बनाने या बिगाड़ने की क्षमता नहीं रखते। वैसे भी कहीं किसी नये विषय या वस्तु का सृजन चाहता भी कौन है? अमन में लोग जीना भी कहां चाहते हैं। अमन तो स्वाभाविक रूप से रहता है जबकि  लोग तो शोर से प्रभावित होते हैं। ऐसा शोर  जो उनको अंदर तक प्रसन्न कर सके। यह काम तो कोई  व्यापारी ही कर सकते हैं। इसके अलावा लोगों को चाहिये अनवरत अपने दिल बहलाने वाला विषय! यह तभी संभव है जब उसे अनावश्यक खींचा जाये-टीवी चैनलों में सामाजिक कथानकों को विस्तार देने के लिये यही किया जाता है। यह विस्तार बहस करने के लायक विषयों में अधिक नहीं हो सकता क्योंकि उसमें तो नारे और वाद ही बहुत है। समाज को नारी, बालक, वृद्ध, जवान, बीमार, भूखा, बेरोजगार तथा अन्य शीर्षकों के अंदर बांटकर उनके कल्याण का नारा देकर काम चल जाता है। इसके अलावा इतनी सारी भाषायें हैं जिसके लिये अनेक सेवकों की आवश्यकता पड़ती है जो सेवा करते हुए स्वामी बन जाते हैं। ऐसा हर सेवक अपनी भाषा, जाति, धर्म तथा क्षेत्र के विकास और उसकी रक्षा के लिये जुटा है।

      मगर क्या वाकई लोग इतने भोले हैं! नहीं! बात दरअसल यह है कि इस देश का आदमी कहीं न कहीं से अपने देश के अध्यात्मिक ज्ञान से सराबोर है। वह यह सब मनोरंजन के रूप में देखता है। सामने नहीं कहता पर जानता है कि यह सब बाजारीकरण है। यही कारण है कि कोई भी बड़ा आंदोलन या अभियान चलता है तब उसमें लोगों की संख्या सीमित रहती है। उसमें लोग  इसलिये अधिक दिखते हैं क्योंकि वहना नारों  शोर होता  हैं। शोर करने वाला दिखता है पर शांति रखने वाले की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। पिछले अनेक महापुरुषों को पौराणिक कथानकों के नायकों की तरह स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा हैं इतनी  सारी पुण्यतिथियां और जन्म दिन घोषित  किये गये हैं कि लगता है कि सदियों में नहीं बल्कि हर वर्ष एक महापुरुष पैदा होता है। लोग सुनते हैं पर देखते और समझते नहीं है। यह जन्म दिन और पुण्यतिथियां उन लोगों के नाम पर भी बनाये गये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के पुरोधा समझे जाते हैं जिसमें जन्म और मृत्यु को दैहिक सीमा में रखा गया है-दूसरे शब्दों में कहें तो उसकी अवधारणा को यह कहकर खारिज किया गया है कि आत्मा तो अमर है। जो लोग बचपन से ऐसे कार्यक्रम देख रहे हैं वह जानते हैं कि आम आदमी इनसे कितना जुड़ा है। हालांकि इसका परिणाम यह हो गया है कि लोगों ने अपने अपने जन्म दिन मनाना शुरु कर दिया है। प्रचार माध्यमों ने अति ही कर दी है। हर दिन उनके किसी खिलाड़ी या फिल्म सितारे का जन्म दिन होता है जिससे उनको उस पर समय खर्च करने का अवसर मिल जाता है। काल्पनिक महानायकों से पटा पड़ा है प्रचार माध्यमों को पूरा जाल।

      इसके बावजूद एक तसल्ली होती है यह देखकर कि काल्पनिक व्यवसायिक महानायकों का कितना भी जोरशोर से प्रचार किया जाता है पर उससे आम आदमी अप्रभावित रहता है। वह उन पर अच्छी या बुरी चर्चा करता है पर उसके हृदय में आज भी पौराणिक महानायक स्थापित हैं जो दैहिक रूप से यहां भले ही मौजूद न हों पर इंसानों के दिल में उनके लिये जगह है। यह काल्पनिक व्यवसायिक नायक तभी तक उसकी आंखो में चमककर उसकी जेब जरूर खाली करा लें जब तक वह देह धारण किये हुए हैं उसके बाद उनको कौन याद रखता है। सतही तौर पर जड़ समाज अपने अंदर चेतना रखता है यह संतोष का विषय है भले ही वह व्यक्त नहीं होती।

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हाथ पांव हिलाकर व्यायाम करना ही योग नहीं है-हिन्दी चिंत्तन लेख


                                    भारतीय योग सूत्र में आठ भाग हैं जिसमें आसन का क्रम चौथे पर आता है।  आजकल योग शिक्षकों ने विभिन्न प्रकार के व्यायामों को भी आसन कहना प्रारंभ किया है। यह बुरा नहीं है पर जिनको योग साधना का ज्ञान रखना है उन्हें यह समझना चाहिये कि आसन से आशय  केवल देह की स्थिरता से है।  अनेक लोग शारीरिक श्रम करते हैं उनको आसन के नाम पर व्यायाम करने से थोड़ी हिचक होती है। उन्हें लगता है कि वह तो श्रम कर पसीना बहाते हैं इसलिये उनको किसी प्रकार की  योग साधना की आवश्यकता नहीं है।  इसी भ्रम के कारण अनेक लोग योगासन की अपेक्षा कर देते हैं। दूसरी बात यह है कि जिनका जीवन सुविधामय है वह योगासन के नाम पर केवल व्यायाम कर दिल बहला लेते है।  उन्हें आसन का आशय पता नहीं है जिस कारण वह पूरा लाभ उठा नहीं पाते।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि

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स्थिरसुखमासनम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-स्थिर सुख से बैठने का का नाम आसन है।

                        आसनों के बहुत भेद नहीं है। हालांकि अनेक विद्वानों ने समय समय पर योग विद्या के विकास के लिये काम किया है जिससे अनेक प्रकार के व्यायाम के प्रकारों को भी आसन बताया जाता है।  इन आसनों के बीच सांसों को रोकने और छोड़ने की प्रक्रिया के समय देह के स्थिर होने पर आसन स्वतः ही लगता है। आधुनिक युग में अनेक प्रकार के आसनों का अविष्यकार इसलिये भी किया गया ताकि शारीरिक श्रम से परे लोगों को व्यायाम के लिये सुविधा मिल सके।  मूलतः रूप से शरीर को स्थिर रखने का नाम ही आसन है।  जिन लोगों को व्यायाम आदि करने से हिचक लगती है या वह इसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करते उन्हें किसी शुद्ध स्थान पर त्रिस्तरीय आसन पर बैठना चाहिये।  श्रीमद्भागवत गीता में कुश, मृगचर्म और वस्त्रों को बिछाकर आसन लगाने की बात कही गयी है। आधुनिक युग में मृगचर्म आम रूप से उपलब्ध नहंी है तो उसके लिये दरी को वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जा सकता है। कुश न मिले तो प्लास्टिक की चादर ली जा सकती है पर आजकल शादी विवाहों में जो जूट के कालीन बिछाये जाते हैं उनके छोटे टुकड़े भी उपयोग मेें लाये जा सकते है।  इन्हें बिछाकर शांति और सुख से बैठकर प्राणायाम, ध्यान और मंत्र जाप किये जा सकते हैं। जिन लोगों को प्रातः घूमने की आदत है उन्हें भी उसके पश्चात् इस तरह आसन बिछाकर ध्यान योग अवश्य करना चाहिये।

                        हमारे यहां अनेक योग शिक्षक अलग अलग प्रकार से शिक्षा दे रहे हैं। उनमें कोई विरोधाभास नहीं है पर आम लोग कहीं न कहीं भ्रमित हो जाते हैं।  अनेक लोग इसी कारण योग करने में हिचकते हैं कि आखिर किस तरह इसे करें? उन्हें यह समझना चाहिये कि व्यायाम हालांकि योग का भी भाग है पर उसे करें यह आवश्यक नहीं है।  योग का मूल रूप मनुष्य के स्थिर होकर बैठने के बाद प्राणायाम, ध्यान, धारणा, और समाधि करने की प्रक्रिया में संलिप्त होना है।  अपनी इंद्रियों को आत्मा से और आत्मा का परमात्मा से संयोग ही योग साधना का सर्वोच्च परिणाम है। इसी से मनुष्य जीवन की आधार  देह में शुद्धता, मन में दृढ़ता विचारों में पवित्रता के साथ ही व्यक्तित्व में तेज का निर्माण होता है।  वैसे इस विषय पर अगर कोई गुरु अपनी बात कहे तो उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये पर साथ ही योग विषय पर साहित्य का अध्ययन कर स्वयं भी प्रयोग करना चाहिये।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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केवल हाथ पांव हिलाना आसन नहीं होता-योग विद्या पर हिन्दी चिंत्तन लेख(kewal hath paanv hilana asan nahin hota-yoga vidha par hindi chinntan lekh)


                                    भारतीय योग सूत्र में आठ भाग हैं जिसमें आसन का क्रम चौथे पर आता है।  आजकल योग शिक्षकों ने विभिन्न प्रकार के व्यायामों को भी आसन कहना प्रारंभ किया है। यह बुरा नहीं है पर जिनको योग साधना का ज्ञान रखना है उन्हें यह समझना चाहिये कि आसन से आशय  केवल देह की स्थिरता से है।  अनेक लोग शारीरिक श्रम करते हैं उनको आसन के नाम पर व्यायाम करने से थोड़ी हिचक होती है। उन्हें लगता है कि वह तो श्रम कर पसीना बहाते हैं इसलिये उनको किसी प्रकार की  योग साधना की आवश्यकता नहीं है।  इसी भ्रम के कारण अनेक लोग योगासन की अपेक्षा कर देते हैं। दूसरी बात यह है कि जिनका जीवन सुविधामय है वह योगासन के नाम पर केवल व्यायाम कर दिल बहला लेते है।  उन्हें आसन का आशय पता नहीं है जिस कारण वह पूरा लाभ उठा नहीं पाते।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि

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स्थिरसुखमासनम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-स्थिर सुख से बैठने का का नाम आसन है।

                        आसनों के बहुत भेद नहीं है। हालांकि अनेक विद्वानों ने समय समय पर योग विद्या के विकास के लिये काम किया है जिससे अनेक प्रकार के व्यायाम के प्रकारों को भी आसन बताया जाता है।  इन आसनों के बीच सांसों को रोकने और छोड़ने की प्रक्रिया के समय देह के स्थिर होने पर आसन स्वतः ही लगता है। आधुनिक युग में अनेक प्रकार के आसनों का अविष्यकार इसलिये भी किया गया ताकि शारीरिक श्रम से परे लोगों को व्यायाम के लिये सुविधा मिल सके।  मूलतः रूप से शरीर को स्थिर रखने का नाम ही आसन है।  जिन लोगों को व्यायाम आदि करने से हिचक लगती है या वह इसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करते उन्हें किसी शुद्ध स्थान पर त्रिस्तरीय आसन पर बैठना चाहिये।  श्रीमद्भागवत गीता में कुश, मृगचर्म और वस्त्रों को बिछाकर आसन लगाने की बात कही गयी है। आधुनिक युग में मृगचर्म आम रूप से उपलब्ध नहीं है तो उसके लिये दरी को वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जा सकता है। कुश न मिले तो प्लास्टिक की चादर ली जा सकती है पर आजकल शादी विवाहों में जो जूट के कालीन बिछाये जाते हैं उनके छोटे टुकड़े भी उपयोग मेें लाये जा सकते है।  इन्हें बिछाकर शांति और सुख से बैठकर प्राणायाम, ध्यान और मंत्र जाप किये जा सकते हैं। जिन लोगों को प्रातः घूमने की आदत है उन्हें भी उसके पश्चात् इस तरह आसन बिछाकर ध्यान योग अवश्य करना चाहिये।

                        हमारे यहां अनेक योग शिक्षक अलग अलग प्रकार से शिक्षा दे रहे हैं। उनमें कोई विरोधाभास नहीं है पर आम लोग कहीं न कहीं भ्रमित हो जाते हैं।  अनेक लोग इसी कारण योग करने में हिचकते हैं कि आखिर किस तरह इसे करें? उन्हें यह समझना चाहिये कि व्यायाम हालांकि योग का भी भाग है पर उसे करें यह आवश्यक नहीं है।  योग का मूल रूप मनुष्य के स्थिर होकर बैठने के बाद प्राणायाम, ध्यान, धारणा, और समाधि करने की प्रक्रिया में संलिप्त होना है।  अपनी इंद्रियों को आत्मा से और आत्मा का परमात्मा से संयोग ही योग साधना का सर्वोच्च परिणाम है। इसी से मनुष्य जीवन की आधार  देह में शुद्धता, मन में दृढ़ता विचारों में पवित्रता के साथ ही व्यक्तित्व में तेज का निर्माण होता है।  वैसे इस विषय पर अगर कोई गुरु अपनी बात कहे तो उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये पर साथ ही योग विषय पर साहित्य का अध्ययन कर स्वयं भी प्रयोग करना चाहिये।

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स्थिर सुख से बैठना एक तरह से आसन-हिंदी चिन्तन लेख


                                    भारतीय योग सूत्र में आठ भाग हैं जिसमें आसन का क्रम चौथे पर आता है।  आजकल योग शिक्षकों ने विभिन्न प्रकार के व्यायामों को भी आसन कहना प्रारंभ किया है। यह बुरा नहीं है पर जिनको योग साधना का ज्ञान रखना है उन्हें यह समझना चाहिये कि आसन से आशय  केवल देह की स्थिरता से है।  अनेक लोग शारीरिक श्रम करते हैं उनको आसन के नाम पर व्यायाम करने से थोड़ी हिचक होती है। उन्हें लगता है कि वह तो श्रम कर पसीना बहाते हैं इसलिये उनको किसी प्रकार की  योग साधना की आवश्यकता नहीं है।  इसी भ्रम के कारण अनेक लोग योगासन की अपेक्षा कर देते हैं। दूसरी बात यह है कि जिनका जीवन सुविधामय है वह योगासन के नाम पर केवल व्यायाम कर दिल बहला लेते है।  उन्हें आसन का आशय पता नहीं है जिस कारण वह पूरा लाभ उठा नहीं पाते।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि

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स्थिरसुखमासनम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-स्थिर सुख से बैठने का का नाम आसन है।

                        आसनों के बहुत भेद नहीं है। हालांकि अनेक विद्वानों ने समय समय पर योग विद्या के विकास के लिये काम किया है जिससे अनेक प्रकार के व्यायाम के प्रकारों को भी आसन बताया जाता है।  इन आसनों के बीच सांसों को रोकने और छोड़ने की प्रक्रिया के समय देह के स्थिर होने पर आसन स्वतः ही लगता है। आधुनिक युग में अनेक प्रकार के आसनों का अविष्यकार इसलिये भी किया गया ताकि शारीरिक श्रम से परे लोगों को व्यायाम के लिये सुविधा मिल सके।  मूलतः रूप से शरीर को स्थिर रखने का नाम ही आसन है।  जिन लोगों को व्यायाम आदि करने से हिचक लगती है या वह इसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करते उन्हें किसी शुद्ध स्थान पर त्रिस्तरीय आसन पर बैठना चाहिये।  श्रीमद्भागवत गीता में कुश, मृगचर्म और वस्त्रों को बिछाकर आसन लगाने की बात कही गयी है। आधुनिक युग में मृगचर्म आम रूप से उपलब्ध नहंी है तो उसके लिये दरी को वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जा सकता है। कुश न मिले तो प्लास्टिक की चादर ली जा सकती है पर आजकल शादी विवाहों में जो जूट के कालीन बिछाये जाते हैं उनके छोटे टुकड़े भी उपयोग मेें लाये जा सकते है।  इन्हें बिछाकर शांति और सुख से बैठकर प्राणायाम, ध्यान और मंत्र जाप किये जा सकते हैं। जिन लोगों को प्रातः घूमने की आदत है उन्हें भी उसके पश्चात् इस तरह आसन बिछाकर ध्यान योग अवश्य करना चाहिये।

                        हमारे यहां अनेक योग शिक्षक अलग अलग प्रकार से शिक्षा दे रहे हैं। उनमें कोई विरोधाभास नहीं है पर आम लोग कहीं न कहीं भ्रमित हो जाते हैं।  अनेक लोग इसी कारण योग करने में हिचकते हैं कि आखिर किस तरह इसे करें? उन्हें यह समझना चाहिये कि व्यायाम हालांकि योग का भी भाग है पर उसे करें यह आवश्यक नहीं है।  योग का मूल रूप मनुष्य के स्थिर होकर बैठने के बाद प्राणायाम, ध्यान, धारणा, और समाधि करने की प्रक्रिया में संलिप्त होना है।  अपनी इंद्रियों को आत्मा से और आत्मा का परमात्मा से संयोग ही योग साधना का सर्वोच्च परिणाम है। इसी से मनुष्य जीवन की आधार  देह में शुद्धता, मन में दृढ़ता विचारों में पवित्रता के साथ ही व्यक्तित्व में तेज का निर्माण होता है।  वैसे इस विषय पर अगर कोई गुरु अपनी बात कहे तो उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये पर साथ ही योग विषय पर साहित्य का अध्ययन कर स्वयं भी प्रयोग करना चाहिये।

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पेशेवर गुरु कभी ज्ञान का मार्ग नहीं दिखा सकते-हिंदी चिंत्तन लेख


                        दो हाथ, दो पांव, दो आंखें, दो कान और दो छिद्रों वाली नासिका हर देहधारी मनुष्य के पास प्रत्यक्ष दिखती हैं।  उसमें मौजूद मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृतियां भी रहती हैं पर वह प्रकटतः अपनी उपस्थिति का आभास नहीं देती।  फिर भी मनुष्य के चरित्र, व्यवहार, विचार और व्यक्तित्व में भिन्नता की अनुभूति होती है।  इस भिन्नता का राज समझने के लिये श्रीगीता में वर्णित विज्ञान सूत्रों को समझना जरूरी है।  उसमें जिस त्रिगुणमयी माया के बंधन की चर्चा की गयी है वह दरअसल ज्ञान का वह सूत्र है जिसका वैज्ञानिक अध्ययन करने पर मनुष्यों में व्याप्त इस भिन्नता को समझा जा सकता है।

                        कर्म, स्वभाव, विचार, व्यवहार, और व्यक्तित्व सात्विक, राजस और तामस तीन प्रकार के ही होते हैं। आमतौर से लोग अपने स्वार्थपूर्ति में लगे रहते हैं जो कि राजस भाव है।  अगर मनुष्य पूरी तरह से राजस बुद्धि से ही कर्म करे तो भी एक बेहतर स्थिति है पर होता यह है कि लोग कर्मफल के लिये इतने उतावले रहते हैं कि उनकी बुद्धि शिथिल हो जाती है।  वह अपने कार्य के लिये दूसरों की राय के लिये मोहताज रहते हैं। यह बुद्धि का आलस्य तामस वृति का परिचायक है।  इस विरोधाभास को हम अपने समाज में देख सकते हैं। इस प्रकार के आचरण ने ही समाज में अंधविश्वास को जन्म दिया है।

                        शुद्ध हृदय के साथ अगर निष्काम भाव से भगवान की भक्ति की जाये तो न केवल अध्यात्मिक विषय में दक्षता प्राप्त होती है वरन् सांसरिक कार्य भी सिद्ध होते हैं।  यह सभी जानते हैं पर उसके बावजूद कर्मकांडों के नाम पर तांत्रिकों और कथित सिद्धों के पास अनुष्ठान कराने जाते हैं।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार सारे मनुष्य अपने कर्म के अनुसार फल पाते हैं पर हमारे देश में कथित रूप से ऐसे कर्मकांडों को माना जाने लगा है जिससे लोग अपने पुरखों को स्वर्ग दिलाने के साथ ही अपने लिये वहां  स्थान सुरक्षित करने के लिये अनुष्ठान करने के लिये तत्पर रहते हैं। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार भक्ति का सवौत्तम रूप निरंकार ब्रह्म की निष्काम उपासना है। दूसरे क्रम में देवताओं यानि सकाम भक्ति को भी स्वीकार किया गया है। पितर या प्रेत भक्ति को तीसरा स्थान दिया गया है। हमारे देश के निरंकार की उपासना करने वाले बहुत कम हैं पर साकार रूप के उपासक भी अंततः प्रेत पूजा हठपूर्वक करते हैं। यह भी तामस प्रकृति है। लोग कहते हैं कि क्या हुआ अगर हमने सभी तरह से सभी स्वरूपों की पूजा कर ली? दरअसल यह अस्थिर भक्ति भाव को दर्शाता है जो कि शुद्ध रूप से तामस प्रकृति का प्रमाण है।

                        हमारे देश में कथित रूप से श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान के अनेक प्रचारक हैं पर उनका आचरण देखकर यह कभी नहंी लगता कि उन्होंने स्वयं उस ज्ञान को धारण किया हुआ है।  ज्ञान होने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता बल्कि उसे धारण करने वाला ही सच्चा ज्ञानी है।  ज्ञानी कभी आत्मप्रचार नहीं करते वरन् उनके आचरण से लोगों को स्वयं सीखना चाहिये।  लोग यह चाहते हैं कि बने बनाये और प्रचारित गुरुओं का सानिध्य उन्हें मिल जायें। वह उनके पंाव छूकर स्वयं को धन्य समझते हैं।  यहां लोगों से अधिक उन कथित गुरुओं के अज्ञान पर हंसा जा सकता है।  संत कबीरदास ऐसे गुरुओं का पाखंडी मानते हैं जो दूसरों से अपने पांव छुआते हैं।  गुरु कभी शिष्यों का संग्रह नहीं करते और न ही शिष्यों को ज्ञान देने के बाद फिर अपने पास चक्कर लगवाते हैं।  इस सब बातों को देखें तो हम यह बात मान सकते हैं कि धर्म के नाम पर हमारे यहां तामस प्रवृत्तियों वाले लोग  अधिक सक्रिय हैं। सच बात तो यह है कि गुरु सहज सुलभ नहीं होते। न ही रंग विशेष का वस्त्र पहनने वाले लोग ज्ञानी होेते हैं। ज्ञानी कोई भी हो सकता है।  संभव है किसी ने श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन नहीं किया हो पर उसके अंदर स्वाभाविक रूप से वह मौजूद हो।  यह उसके कार्य तथा जीवन शैली से पता चल जाता है। अंतः गुरु के रूप में उसी व्यक्ति को स्थान देना चाहिये जो सांसरिक विषयों में लिप्त रहने के बावजूद अपने आचरण में शुद्धता का पालन करता है।

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

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