Tag Archives: कविता

गुलामी जैसी आज़ादी-व्यंग्य कविता


नजरें फेरकर वह चले जाते हैं।
देखने में लगते हैं हमसे बेपरवाह
पर हकीकत यह है कि
हमारी आंखों में उनको अपने
पुराने सच दिखते नजर आते है।
हम तो भूल चुके उनके पुराने कारनामे
पर उनकी नजरें फेरने से
फिर वही यादों मे तैर जाते हैं।।
…………………………
कुछ हकीकतें बयां करने में
कलम कांप जाती है
इरादा यह नहीं होता कि
किसी कि दुःखती रग सभी को दिखायें
जरूरत पड़ी तो उनका नाम भी छिपायें
पर खौफ जमाने का जिसकी
रिवाजों पर उठ सकती है उंगली
कही लोग भड़क न जायें
कायदों में बंधी आजादी
तब गुलामी से बुरी नज़र आती है।
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चेहरे कब तक बनावटी सामान से सजाओगे-हिन्दी शायरी


शोला कहो या शबनम
मोहब्बत के जज्बातों के
इजहार में हर लफ्ज़ है कम।
मगर जिदंगी में सफर में
खूबसूरत हमसफर भी
लगते हैं बदसूरत
जब होते है सामने गम।
चैहरे को कब तक बनावटी सामान से
कितना चमकाओगे
उम्र के साथ फीके होते जाओगे
जला सके ताउम्र खूबसूरत कोई चिराग
जिस्म की मोहब्बत में नहीं है इतना दम।
…………………….
रंगबिरंगे कागज पर शायरी लिखने से
रंगीन नहीं हो जाएगी
शब्द को शोर करते हुए लिखने से
संगीन नहीं हो जाएगी।
रोते हुए उसके जज़्बातों से
वह गमगीन नहीं हो जाएगी।
ओ शायर!
जब तेरे अल्फ़ाजों में
तुझे तेरा अक्स दिखने लगे
तू हो जाये बेहोश
तेरे जज़्बात खुद लिखने लगे
तभी समझना कि तेरी शायरी
जमाने में रौशन हो जायेगी।

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जोरदार और रंगीन तकदीर वह लिखा लाये-व्यंग्य कविता


आसमान से जमीन पर आते हुए
लिखा लाये हैं वह अपनी रंगीन तकदीर।
न ख्याल उनका अपना
न कोई सोच अपनी
पर जमाने को सुधारने के लिये
देते हैं जोरदार तकरीर।
लगता है उनकी अदाओं से ऐसे
मानो जिंदा हो सिर्फ उनका जमीर।
क्योंकि वह हैं अमीर।
…………………
कभी कभी छोड़ कर आते हैं बाहर
छोड़कर अपने खूबसूरत महल।
आसमान से गिरती तकदीर की हवायें
कहीं उनके महल का रास्ता न भूल जायें
गरीब इंसान कहीं समंदर के पानी सरीखे
उसे बहाकर न जायें
जमाने पर काबिज होने के लिये
जला देते हैं वह रौशनी के दिये
नीली छतरी वाले का देते हैं वास्ता
नहीं जानते जिसका खुद भी रास्ता
उजाड़ देते हैं उनके सिपहसालार पूरा चमन
तब वह निकलते हैं बाहर
अपनी तकरीरों में
उसे बसाने की करते हैं पहल।

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क्षितिज पर जमीन और आसमान के
मिल जाने का दिखता है सुखद अहसास।
मगर यह एक ख्वाब है
वह दोनों कभी नहीं आते
कभी एक दूसरे के पास।

उनके आपस में मिलने की चाहत
कभी पूरी नहीं हो सकती
दोनों के बीच फासले ही
उनके अस्तित्व का है आधार
दूरियों में ही छिपा है जिंदगी का सार
उनकी निकटता कभी हो नहीं सकती
चाहत अलग चीज है
जिंदगी चलते रहने के उसूल अलग हैं
दोनों के फासले मिटाने की कोशिश में
खौफनाक मंजर सामने आ जायेगा
धोखा बन सकता है अपना विश्वास।

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चमचा कभी फरिश्ता नहीं बनता-व्यंग्य कविता


चांदी के बर्तन में खीर खाने के लिये
सोने का चम्मच हाथ में जब मिल जाता है
तब चमचा बनने में क्या हर्ज है
बरसों से इस देश में
पतलों और दोनों में खाने से उकताये लोगों को
इसलिये चमचागिरी में मजा आता है।
झूठन से बची रोटी,चावल और
कई दिनों की बासी सब्जी को
चमकती तश्तरियों में सजा कर पेश दो
मूंह को कौनसी आंख है जो देख पायेगा
पेट में पचा कि नहीं
भला कौन देख पाता है।
वाह री जीभ तेरा खेल
चमचागिरी के शब्द बोलकर कमाई खाने में
तुझे कितना स्वाद आता है।
अपनी कमाई से अधिक मुफ्तखोरी में
तुझे बहुत मजा आता है।
पर याद रखना कितना भी ताजा क्यों न हो खाना
पेट में जाते ही कचड़ा हो जाता है।
हाथों से खेल ले कोई भी बड़ा इंसान
पर चमचा कभी फरिश्ता नहीं बन पाता है।

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आग लगाने की इंसानों में आदत होती-हिंदी शायरी


जमीन पर आते हुए इंसान ने
सर्वशक्तिमान से कहा
‘इस बार इंसान बनाया है
इसके लिये शुक्रगुजार हूं
पर मुझे परिंदों की तरह पंख लगा दो
उड़कर पूरी दुनियां घूम सकूं
इतना मुझे ताकतवर बना दो’

सर्वशक्तिमान ने कहा
‘तेरी इस ख्वाहिश पर
परिंदों का आकाश में उड्ना
बंद नहीं करा सकता
इंसान के दिमाग की फितरत है जंग करना
आपस में होता है उनका लड़ना मरना
वैसे भी कभी उड़ते हुए परिंदों को
मारकर जमीन पर गिरा देता है
अगर तुम्हें पंख दे दिये तो
आकाश में उड़ने वालों को
वह भी नसीब नहीं हो पायेगा
जमीन पर तो क्या तुम्हारे साथ
कोई परिंदा रह पायेगा
क्योंकि बिना पंख में इंसान का दिमाग
उड़ता है ख्वाबों और सपनों में इधर उधर
ख्वाहिशें उससे क्या क्या नहीं करवाती
नीयत और चालचलन को गड्ढे में गिराती
ऊंचाई की तरफ उड़ने की चाहत
उसको हमेशा बैचेन बनाती
पंख दे दिये तो तू जमीन पर
चैन नहीं पायेगा
आकाश में और बैचेनी फैलायेगा
जमीन पर तो इंसानों के घर को ही
आग लगाने की इंसानों में आदत होती
मैं तुझे पंख देकर इतना ताकतवर
कभी नहीं बना सकता कि
तुम आकाश में भी आग लगा दो
या ऊंचे उड़ते हुए
आकाश छूने की हवस में
अपने पंख जलाकर
समय से पहले अपनी मौत बुला लो

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शराब का नशा चढ़ता नहीं तो पीता कौन-व्यंग्य कविता


एक दिन घूमते हुए उसने
चाय पिलाई तब वह अच्छा लगा
कुछ दिन बाद वह मिला तो
उसने पैसे उधार मांगे तब वह बुरा लगा
फिर एक दिन उसने
बस में साथ सवारी करते हुए
दोनों के लिये टिकिट खरीदा तब अच्छा लगा
कुछ दिन बाद मिलने पर
फिर उधार मांगा
पहली बार उसको दिया उधार पर
फिर भी बहुत बुरा लगा
एक दिन वह घर आया और
सारा पैसा वापस कर गया तब अच्छा लगा
वह एक दिन घर पर
आकर स्कूटर मांग कर ले गया तब बुरा लगा
वापस करने आया तो अच्छा लगा

क्या यह सोचने वाली बात नहीं कि
आदमी कभी बुरा या अच्छा नहीं होता
इसलिये नहीं तय की जा सकती
किसी आदमी के बारे में एक राय
हालातों से चलता है मन
उससे ही उठता बैठता आदमी
कब अच्छा होगा कि बुरा
कहना कठिन है
चलाता है मन उसे जो बहुत चंचल है
जो रात को नींद में भी नहीं सोता
कभी यहां तो कभी वहां लगा

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मयखानों में भीड़ यूं बढ़ती जा रही हैं
जैसे बह्ती हो नदिया जहां दो घूँट पीने पर
हलक से उतारते ही शराब दर्द बन जायेगी दवा
या खुशी को बढा देगी बनकर हवा
रात को हसीन बनाने का प्रयास
हर घूँट पर दूसरा पीने की आस
अपने को धोखा देकर ढूंढ रहे विश्वास
पीते पीते जब थक जाता आदमी
उतर जाता है नशा
तब फिर लौटते हैं गम वापस
खुशी भी हो जाती है हवा
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शराब का नशा चढ़ता नहीं तो पीता कौन
उतरता नहीं तो खामोश होता कौन
गम और दर्द का इलाज करने वाली दवा होती या
खुशी को बढाने वाली हवा होती तो
इंसान शराब पर बना लेता जगह जगह
बना लेता दरिया
मगर सच से कुछ देर दूर भगा सकती हैं
बदलना उसके लिए संभव नहीं
इसलिए नशे में कहीं झूमते हैं लोग
कहीं हो जाते मौन
शराब खुद ही बीमारी हैं
यह नहीं जानता कौन

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