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यह बिग बॉस नाटक या धारावाहिक देशप्रेम रखने वालों के लिये नहीं है-हिन्दी व्यंग्य (Big Boss natak ya dharavahik aur deshprem-hindi vyangya)


कहा जाता है बद अच्छा बदनाम बुरा-हमें पता नहीं यह कहावत उल्टी भी हो सकती है। मतलब आदमी बुरा हो पर बदनाम नहीं होना चाहिए। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि अपने में कोई बुराई हो पर उसकी चर्चा बाहर नहीं होना चाहिऐ। लब्बोलुआब यह कि बदनाम नहीं होना चाहिए। लगता है अब यह कहावत अब उलट देना चाहिये या फिर यह कहना करें कि बद अच्छा तो उससे अच्छा बदनाम है।
कम से कम टीवी चैनल में बदनाम लोगों को अभिनय करने को लेकर चल रहे विवाद से तो ऐसा लगता है कि अब नयी पीढ़ी यह भी सोचेगी कि कोई ऐसा काम किया जाये जिससे बदनाम होने पर कहीं  किसी टीवी चैनल पर अपना थोबड़ा दिखाने का अवसर तो मिल ही जायेगा। पूरे देश पर आक्षेप करना ठीक नहीं है पर कुछ कमजोर दिमाग के लोग ऐसे हैं जो पद, प्रतिष्ठा और पैसा पाने के लिये कुछ भी गलत सीख सकते हैं। एक चैनल है जिसमें एक पुराने चोर, आतंकवादियों के वकील तथा एक समलैंगिक को शामिल किया गया है। हम अपने व्यंग्य या आलेख में किसी का नाम इसलिये नहीं लिखते क्योंकि अप्रायोजित लेखक हैं और किसी का बिना पैसे लिये प्रचार करना अपनी शान के खिलाफ है-भले ही आलोचनात्मक टिप्पणियों से वह भरा हो। वैसे तो अब तो हमें लगने लगा है कि यहां कुछ लोग प्रसिद्ध होने के लिये अपनी आलोचना पैसा देकर करवाते हैं। चैनलों पर चले रहे धारावाहिकों के नाम लेकर उनकी आलोचना करना भी हमें  प्रायोजित करने जैसा  लगता है। बहरहाल जिस चैनल के जिस धारावाहिक की हम चर्चा कर रहे हैं उसका हिन्दी नामकरण  करते हैं ‘बड़ा मुखिया’। यह नाम इसलिये किया क्योंकि उस चैनल के नाटक की पृष्ठभूमि घर पर ही आधारित है। इसमें पहले ऐसे प्रसिद्ध लोगों को शामिल किया गया जिन पर दुर्भाग्यवश (?)बदनामी का धब्बा लगा-कुछ के लिये कहा गया कि उनका अपराध बालपन की नादानी से हुआ। कुछ ऐसे लोग भी उसमें आये जो जीतने के बाद बदनाम हुए, यानि उनमें ऐसे गुण पहले से मौजूद थे।
अब यह चैनल अपना धारावाहिक बड़े प्रचार से दिखा रहा है। इसमें पाकिस्तान से भी बदनाम लोग मंगवाये गये हैं। हम बहुत समय पहले से कहते रहे हैं कि टीवी चैनलों के अदृश्य प्रायोजक बहुत सारे धंधों में हैं। दुनियां भर के व्यापार में अब काले सफेद धंधे का प्रश्न नहीं रहा और सभी प्रचार माध्यमों पर अपनी पकड़ बनाये हुए हैं । अब तो समाज में ही यह हालत है कि जिसके पास धन है वही सेठ और समाज का भाई कहलाता है-अब भाई कहिने भी हो सकता है, भारत हो  या पाकिस्तान। सारी व्यवस्था के साथ ही सारे प्रचार माध्यमों पर उनकी श्रेष्ठता प्रमाणिक हैं चाहे भले ही बदनाम हों। क्रिकेट, फिल्म और टीवी चैनलों का घालमेल हो गया है। पाकिस्तान की एक फिल्मी नायिका ने वहां के क्रिकेट खिलाड़ी पर फिक्सर होने का आरोप लगाया था। उस समय हमें हैरानी हुई क्योंकि वह ऐसा कर धनपतियों से बैर ले रही थी-आर्थिक उदारीकरण से धनपति अब कंपनियों के पीछे अदृश्य होकर काम करते हैं इसलिये अब यह प्रश्न नहंी रहा कि कौनसा सेठ कहां का है? अब समझ में आया कि संभवतः उस अभिनेत्री को भारतीय चैनल में लाने के लिये यही फिक्सिंग प्रकरण या नाटक  ब्रिटेन में रचा गया होगा। चूंकि ब्रिटेन इसमें शामिल है इसलिये किसी का शक हो न हो पर अब हमें होने लगा है क्योंकि आर्थिक उदारीकरण के चलते अपराध का भी वैश्वीकरण होता जा रहा है अंग्रेज भला कौन से दूध के धुले हैं-पैसा कमाने के लिये ही तो भारत आये थे। चूंकि चैनलों की भूमिका पहले से ही बननी होती है इसलिये कोई बड़ी बात नहीं कि उसके एक भावी को प्रसिद्ध दिलाने के लिये पाकिस्तानी क्रिकेट को पकड़ा गया और फिर उस अभिनेत्री से बयान दिलाया गया। संभव है कि वह अभिनेत्री अधिक रहस्य न खोले इसलिये भी उसे भारतीय चैनल में काम दिलाया गया हो। बहरहाल एक फिक्सर की पुरानी दोस्त होने की बदनामी उसने पहले मोल ली और भारत में उसका नाम भी तभी आया। इधर नाम आया और उधर चैनल में उसको काम मिल गया।
जितने भी आकर्षक व्यवसाय हैं वह अब आर्थिक शिखर पुरुषों के हाथ में हैं और अगर जार्ज बर्नाड शॉ की बात पर यकीन किया जाये तो बिना बेईमानी के कोई भी अमीर नहीं  बन सकता। ऐसे में अपने ही संरक्षण में वह बदनाम लोगों को संरक्षण देते हुए उसके नकदीकरण का अवसर भी यह सेठ लोग नहीं चूकते। भला कोई व्यापारी अपनी चीज़ को खराब बताता है! एक नहीं तो दूसरे ग्राहक को बेच ही देता है। ऐसे में कोई फिल्म में बदनाम हुआ हो या क्रिकेट में चल जायेगा मगर चोर और डकैत भी चल जायेंगे! क्या माने? ऐसे लोग भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों ने पहले से ही प्रायोजित कर रखे हैं। हम बहुत समय से कहते रहे हैं कि व्यवसायिक संस्थान या व्यवस्थापक प्रतिष्ठानों में आर्थिक शिखर पुरुषों के अनेक लोग मुखौटे की तरह हैं जो सज्जनता से काम करते दिखते हैं तो क्या अब यह भी मान लें कि अपराधिक जगत में भी अब मुखौटे आने लगे हैं। क्या अब यह तय हो गया कि आतंकवाद भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों के मुखौटे ही फैला रहे हैं। ऐसे में अपराध और आतंक से प्रत्यक्ष जुड़े लोग वाकई मासूम लगते हैं मगर ऐसे में हर आर्थिक शिखर पुरुष संदेह की परिधि में आता जायेगा। माना जायेगा कि हर छोटे बड़े अपराध और आतंक का असली जिम्मेदार कोई न कोई आर्थिक पुरुष ही है। तब यह भी होगा कि हर आर्थिक शिखर पर विराजमान हर पुरुष समाज के लिये संदिग्ध होगा क्योंकि यह माना जाने लगेगा कि इसके खिलाफ तो कभी सबूत मिल ही नहीं सकता पर यह अपराध में लिप्त जरूर होगा।
मुद्दा यह भी है कि क्या ऐसे प्रसारण पर रोक लगनी चाहिए। हम अब भी कहेंगे नहीं। हमारे कुछ मित्र इस जवाब पर नाराज हो सकते हैं क्योंकि आतंकवादियों तथा अपराधियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी, सामाजिक न्याय, शोषण से मुक्ति तथा धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर बौद्धिक संरक्षण देने वाले बहुत सारे बुद्धिजीवी इस देश में है और कम से कम हमने ही दसियों बार उन पर प्रतिकूल टिप्पणियां करते हुए अपने पाठ लिखे हैं। तब ऐसा क्या है जो हम अभिव्यक्ति के नाम पर इस प्रसारण को रोकने के खिलाफ हैं?
हम तो दूसरी बात कह रहे हैं कि जिस तरह बीड़ी सिगरेट और शराब के डिब्बों पर लिखा रहता है कि इनका सेवन शरीर के लिये हानिकारक है उसी तरह पाकिस्तानी अभिनेता अभिनेत्रियों के अभिनय वाले धारावाहिकों का  प्रचार करने वाले विज्ञापनों पर ही यह लिखना होना चाहिए कि ‘देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत या देशप्रेम रखने वाले लोगों को यह धारावाहिक नहीं देखना चाहिए।’
इससे कुछ लोगों की भवनें आहत होने से बच जाएँगी। उसी तरह बदनामशुदा लोगों के धारावाहिकों के विज्ञापनों में भी यह लिखना चाहिये कि ‘यह सभ्य और सज्जन भाव रखने वालों को नहीं देखना चाहिये और न बच्चों को देखने देना चाहिऐ।
इससे लोग स्वयं ही बच्चों के बिगड़ने के दर से वह चैनल धारावाहिक के समय बंद रखेंगे ।  चेतावनी लिखी होने पर लोगों को कार्यक्रम प्रसारित होने का अफसोस कम होगा।  जिस तरह बीडी,सिगरेट और शराब की बोतल पर चेतावनी होने पर उसके बिकने का अफसोस कम होता है।
एक बात जो अभी तक हमारी समझ में नहीं आती। आखिर दक्षिण एशिया में एकता के नाम पर हमारे पास केवल पाकिस्तान का नाम ही क्यों आता है? सच मानिए पाकिस्तान के आम आदमी से हमारा कोई बैर नहीं है मगर वहां के बदनामशुदा लोग ही यहां क्यों आकर प्रचार पाते हैं? यह हमारी समझ में नहीं आता। मजे की बात यह है कि इनसे कई सभ्य चेहरे वाले मुखौटे मिलकर कहते हैं कि ‘यह तो खेल और फिल्म सें संबंधित मुलाकात है।’
पाकिस्तान के क्रिकेट फिक्सरों को भारत आने का वीज़ा बहुत जल्दी मिल जाता है। यह भी चर्चा का विषय बनता है। कहने का अभिप्राय यह है कि सफेद काले का घालमेल हो गया है। ऐसे में नैतिकता की मांग कमजोर जरूर हुई है पर मरी नहीं है क्योंकि जो लोग अपराध और आतंक के मुखौटो को अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो बुद्धिजीवी लेखक सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर
खलनायक की बजाय नायक की तरह प्रतिपादित करते हैं वह भी नैतिक आदर्शों की बात तो करते यह अलग बात है कि आर्थिक उदारीकरण के साथ ही अपराध और आतंक के वैश्वीकरण के विषय से मुख क्यों मोड़ लेते हैं? इसलिये ही न कि वह सभी भी प्रायोजित हैं। उससे भी मजे की बात है कि पूंजीवाद के विरोधी बुद्धिजीवी इस खेल को तो इस तरह अनदेखा करते हैं जैसे कि कोई लेना देना ही न हो-होते तो वह भी प्रायोजित हैं पर कभी कभी सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भावनाओं की बात वह भी करते हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर होने के बावजूद सरकारी डंडे के सहारे सारे कल्याण का सपना भी वही पालते हैं।
एक धारावाहिक से कुछ बनता बिगड़ता नहीं है क्योंकि हमारे देश का अध्यात्मिक स्वरूप बहुत दमदार है। अगर खान पान ठीक होने के साथ उनका सेवन सीमित हो तो बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू और शराब जैसे व्यवसनों का भी दुष्प्रभाव कम हो जाता है-रोका बिल्कुल नहीं जा सकता यह बात तय है-उसी तरह बच्चों का मन मस्तिष्क मज़बूत हो वह ऐसे चैनलों को नहीं देखेंगे पर फिर भी इन चैनलों के ऐसे धारावाहिकों का वर्गीकरण तो करना ही होगा। कम से कम हमारी यह मांग आज़ादी की अभिव्यक्ति पर प्रहार नहीं करती यह निश्चित है।

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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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कहीं शादी कहीं प्रचार-हिन्दी सामयिक लेख


बीसीसीआई क्रिकेट टीम के कप्तान की शादी है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। हमने एक समाचार चैनल खोला था समाचार सुनने के लिये है पर कप्तान की शादी का प्रसंग सामने आ गया। इस लेखक ने अक्सर देखा है कि जब बाजार के उत्पादों के किसी विज्ञापन के माडल के-इनमें से अधिकतर क्रिकेट और फिल्म के होते हैं-शादी होने या राजनीति में आने की खबर होती है तो सभी चैनल उसे एक ही समय में प्रसारित करते हैं ताकि दर्शक भाग कर कहीं जा नहीं पाये और न ही उस माडल की आम आदमी उपेक्षा की जा सके। कहने को सारे चैनल अलग दिखते हैं ऐसे मौके पर एक हो जाते हैं। बाजार का उन पर कितना जोरदार नियंत्रण है यह ऐसे मौके पर देखा जा सकता है। इस लेखक ने कम से कम आठ समाचार चैनल बदले होंगे पर हर जगह बस वही बात! कप्तानी की शादी हो रही है इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। आज बाज़ार में घूमते हुए कहीं भी यह सुनाई नहीं दिया कि कप्तान की शादी हो रही है जबकि प्रचार माध्यम शोर मचाये हुए थे। ऐसे में व्यवसायिक प्रचार माध्यमों का यह दावा खोखला दिखता है कि वह तो दर्शकों की मांग के अनुरूप अपनी प्रस्तुति करते हैं। एक अभिनेता की राजनीति में आने की खबर पर भी ऐसा ही देखा गया था।
भारतीय प्रचार माध्यमों तथा आम नागरिकों के बीच अब एक लंबी मनोवैज्ञानिक खाई बन गयी है जिसे हम विश्वास का संकट भी कह सकते हैं। दरअसल प्रचार संगठनों में काम करने वाले लोग जहां अपनी अभिव्यक्ति की शक्ति का महत्व समझते हैं वहीं यह भूल जाते हैं कि अंततः आम आदमी की सहानुभूति के बिना उसका लाभ उठाना संभव नहीं है। एक तरफ प्रचार माध्यम आम आदमी को निहायत मूर्ख मानकर अपने आय अर्जन के इकलौते लक्ष्य पर काम कर रहे हैं वहीं आम आदमी उनको व्यवसायिक छल प्रपंच मानकर उनकी बात पर ध्यान नहीं देता।
ऐसे में अनेक बुद्धिजीवी आम आदमी के चेतना विहीन होने की शिकायत कर रहे हैं तो उन्हें यह भी देखना चाहिये कि उनकी सीमित सोच ने आदमी के दिमागी दायरे को अत्यंत सीमित कर दिया है। हम टीवी चैनलों और समाचार पत्रों कि महत्व को जानते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि हमें यह भी पता है कि उनकी समाज निर्माण में अत्यंत प्रभावी भूमिका हो्रती है। ऐसे में यह देखना आवश्यक है कि प्रचार माध्यमों की भूमिका किस तरह की है और अगर हम समाज को सुप्तावस्था में देख रहे हैं तो उसके पीछे उनकी कितनी जिम्मेदारी है?
सबसे बड़ी बात यह है कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम मानते हैं कि जो लोग देखना, सुनना और पढ़ना चाहते हैं वही हम प्रस्तुत कर रहे हैं क्योंकि इसके बिना व्यवसाय नहीं चलता।
अगर वह इस तर्क पर काम करते हैं तो उससे जुड़े बुद्धिजीवियों को यह शिकायत नहीं करना चाहिए कि समाज सो रहा है।
समाचारों से जुड़े टीवी चैनलों और अखबारों के संचालकों को अब इस बात का आभास नहीं है कि उनका जिम्मा केवल अपने उपभोक्ताओं के सामने समाचार प्रस्तुत करना ही नहीं है वरन् संपादकीय, लेखों तथा चर्चाओं के द्वारा उनमें विचार निर्माण करने का काम भी है। यहां वह यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते कि हर आदमी पढ़ा लिखा है और वह स्वयं ही विचार कर सकता है। एक ब्लाग लेखक के रूप में हम भी यह देख रहे हैें कि अनेक स्तंभकार ब्लाग लेखकों की रचनाओं से विचार लेकर लिख रहे हैं। इसका आशय यह है कि विचारों का क्रमिक विकास तभी संभव है जब कहीं दूसरी जगह से पढ़ा, सुना और देखा जाये।
अब जरा समाचार टीवी चैनलों और अखबारों के समाज में विचार निर्माण के प्रयासों को देखा जाये तो यह नहीं लगता कि वह इस काम को गंभीरता से ले रहे हैं। इस मामले में दूरदर्शन के कुछ प्रयास गंभीरता लिये हुए लगते हैं जबकि व्यवसायिक चैनल पूरी तरह से लापरवाही दिखाते हैं। टीवी चैनलों ने कुछ खास मौकों के लिये दो चार विशेषज्ञ तय कर रखे हैं जो क्रिकेट, आतंकवाद, रेल या बस हादसों तथा महिला उत्पीड़न जैसे विषयों पर आकर रटी रटाई बातें बोलते हैं और खानापूरी हो जाती है। यही स्थिति अनेक समाचार पत्रों की है। उनके लेखों तथा संपादकीयों में समाचारों के दोहराव के अलावा थोड़ी बहुत राय होती है पर वह बेबाक नहीं लगती। इतना ही नहीं उनके विचारों का प्रस्तुतीकरण भी इतना कमजोर रहता है कि पाठक या दर्शक उसे अधिक देर तक ध्यान नहीं रख पाता। यही कारण है कि आजकल कहीं भी कोई बुद्धिमान किसी अखबार की राय का बयान कर अपनी बात नहीं रखता। अखबारों के समाचारों की चर्चा अक्सर मिलती है पर विचार एकदम लापता लगता है।
समाचार टीवी चैनलों ने तो बहुत निराश किया है? जब दूरदर्शन अकेला था तब उसके समाचार सुनने की आम लोगों में एक आदत हो गयी थी और व्यवसायिक समाचार चैनलों ने उसका दोहन भी खूब किया पर उसको नियमित बनाये रखने में नाकाम रहे। यही कारण है कि प्रतिदिन समाचार देखने वाले बहुत लोग अनेक दिन तक तो समाचार चैनल खोलकर देखते तक नहीं हैं। एक घंटे तक समाचार दिखाने का दावा करने वाले यह सभी चैनल बुमश्किल पांच मिनट समाचारों के लिये हैं-उनका शेष समय क्रिकेट, फिल्म और फूहड़ हास्य प्रस्तुत करने में बीत जाता है। यह विज्ञापन चैनल जैसे हो गये हैं। एक तरह से संदेश देते हैं कि यह समाचार और विचार देखना छोड़कर उस तरफ जाओ जो हमारे बाजार नियंत्रकों ने सजा रखा है।
ऐसे में निराश हाथ लगती है। स्थिति यह है कि समाज में चेतना लुप्त होती जा रही है और जिनमें चेतना है उनके पास ऐसे साधन नहीं है जिससे उसमें निरंतरता बनी रहे। हालांकि इधर हिन्दी ब्लाग जगत पर काफी बेबाक राय सामने आ रही है पर वहां जागरुक लोगों की पहुंच अधिक नहीं है। दूसरा यह भी है कि ब्लाग जगत को लेकर प्रचार माध्यम योजनापूर्वक इस बात का प्रयास कर रहे हैं कि यहां बाजार के मुखौटे ही प्रसिद्ध बने न कि आम लेखक। यही कारण है कि क्रिकेट खिलाड़ियो, फिल्म अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों के ब्लाग तथा वेबसाईट या ब्लाग बनाने के समाचार देते हैं। इससे समाज में यह धारणा बनती जा रही है कि ब्लाग केवल खास लोगों की अभिव्यक्ति के लिये है।
इस लेखक ने अपने एक कार्टूनिस्ट मित्र को ब्लाग बनाने की राय दी तो उसका जवाब था कि मैं भला कोई एक्टर या क्रिकेट खिलाड़ी हूं जो कोई मेरा ब्लाग देखेगा।’
दूसरी मजे की बात यह है कि इस लेखक के अनेक पाठ बिना नाम के छापे जा रहे हैं। गांधी जयंती पर इस लेखक के लिखे गये पाठों का एक स्तंभकार ने उपयोग किया। इस लेखक के मित्र तथा पढ़ने वाले लोग जानते हैं कि उन पाठों में जो विचार व्यक्त किये गये थे वैसे किसी बुद्धिजीवी ने नहीं किये। जो लोग गांधी विषय पर विशारद होने का दावा करते हैं वह उन लेखों को पढेंगे तो हैरान रह जायेंगे-एक लेखक मित्र ने उनको पढ़कर यही कहा था। मगर यह आत्मप्रवंचना नहीं है बल्कि यह बताया जा रहा है कि समाचार में चिंतन और विचार का जो संकट है वह प्रचार माध्यमों की उपेक्षा तथा रूढ़ता के कारण है और हिन्दी ब्लाग जगत ही उसका सामना करने में सक्षम है और यह बेहतर होगा कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम इस आशंका से परे हो जायें कि यहां ब्लाग लेखकों नाम सहित अपने यहां स्थान देने से कोई ऐसी लोकप्रियता मिल जायेगी कि बाजार की बड़ी कंपनियों के विज्ञापन उनको मिलने लगेंगे। अलबत्ता हिन्दी में चिंतन तथा विचार के क्षेत्र में जो जड़ता की स्थिति है उससे निपटने लिये उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम ब्लाग लेखकों से तारतम्य बनायें। अगर क्रिकेट खिलाड़ियों, फिल्म अभिनेताओ तथा अभिनेत्रियों की शादी तथा प्रेम प्रसंगों से समय काटने को ही वह अपना व्यवसायिक धर्म समझते हैं तो फिर हमें कुछ नहीं कहना है।
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जिन पर है दौलत मेहरबान-हास्य व्यंग्य कवितायें



धन, पद और प्रतिष्ठा की शक्ति
हो जाती है जिन पर मेहरबान
क्यों न करे वह उस पर अभिमान
इस जहां में सभी यही चाहते हैं
जिनसे दूर है यह सब
वह रहते हैं परेशान
गर्दन ऊपर उठाएँ देखते हैं
होकर हैरान

उनके लड़के मोटर साइकिलों
और कारों में चलते गरियाते हैं
अभावों से है वास्ता जिनका
वह उन्हें देखकर सहम जाते हैं
अपने वाहन को चलाते है ऐसे
जैसे करते हौं फिल्मी स्टंट
कोई नहीं कर पाता उनको शंट
जो रोकने की कोशिश करे
उस पर टूट पड़ें बनकर हैवान

गरीब अगर अमीर की चौखट पर
जाना बंद कर दे
जाये तो तैयार रहे
झेलने के लिए अपमान
सड़क पर चले तो
किसी से डरे या नहीं
नव-धनाढ्यों की सवारी से
बचकर चले
न हार्न दें
चाहे जहां और जब रूक जाएँ
मन में आये वहीं रूक जाएँ
यही उनकी पहचान

कहैं दीपक बापू
तेज गति से मति होती वैसे ही मन्द
फिर बाप के पैसे, पद और प्रतिष्ठा का
नशा हो जिनको
वह क्यों होंगे किसी नियम के पाबन्द
वह पडा है उनकी तिजोरी में बंद
अपने जीवन की सुरक्षा
अपने ही हाथ में रखो
बाकी करेंगे अपने भगवान
————————–

वाह रे बाज़ार तेरा खेल
मैदान में पिटे हीरो को
कागज और फिल्म पर
चमकाकर और सजाकर
जनता के बीच देता है ठेल

क्रिकेट में कोई विश्वकप नही
जीत सके जो तथाकथित महान
ऐसे प्रचार का जाल बिछाते हैं
कि लोग फिर
उनके दीवाने बन जाते हैं
अपने पुराने विज्ञापन इस
तरह सबके बीच लाते हैं कि
लोग हीरो की नाकामी से
हो जाते हैं अनजान
और बिक जाता है बाजार में
उनका रखा और सडा-गडा तेल

न ताज कभी चला न चल सकता है
उस पर हुए करोड़ों के वारे-न्यारे
और वह चला भी ख़ूब
प्रचार ऐसा हुआ कि
पैसेंजर में नही लदा
खुद ही बन गया मेल

कहै दीपक बापू
शिक्षा तो लोगों में बहुत बढ़ी है
पर घट गया है ज्ञान
शब्दों का भण्डार बढ़ गया है
आदमी की अक्ल में
पर अर्थ की कम हो गयी पहचान
बाजार में वह नहीं चलता
चलाता है बाजार उसे
सामान खरीदने नहीं जाता
बल्कि घर लूटकर आता
और कभी सामान तो दूर
हवा में पैसे गँवा आता
विज्ञापन और बाजार का या खेल
जिसने कमाया वही सिकंदर
जिसने गँवाया वह बंदर
इससे कोई मतलब नही कि
कौन है पास कौन है फेल
——————-

आँखें देखतीं हैं
कान सुनते हैं
और जीभ का काम है बोलना
पर जो पहचान करे
सुनकर जो गुने
और जो श्रीमुख से
शब्द व्यक्त करे
वह कौन है
हाथ करते हैं अपना काम
टांगों का काम है चलना
और कंधे उठाएं बोझ
पर जो पहुँचाता है लक्ष्य तक
जो देता है दान
और जो दर्द को सहलाता है
वह कौन है

कहैं दीपक बापू
कहाँ उसे बाहर ढूंढते हो
क्यों व्यर्थ में त्रस्त होते हो
बैठा तुम्हारे मन में
तुम उससे बात नहीं करते
इसलिये वह मौन है
जब तक तुम हो
तब तक वह भी है
तुम्हारा अस्तित्व है उससे
उसका जीवन है तुमसे
तुम सीमा में बंधे रहते हो
उसकी शक्ति अनंत है
तुम पहचानने की कोशिश करके देखो
वह तुम्हारा अंतर्मन नहीं तो और कौन है

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है। ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
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