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कृषि भूमि रूपी शरीर में गुण रूपी बीज बोना जरूरी-श्री गुरूनानक जयंती प्रकाश पर्व पर श्रीगुरूग्रंथ साहिब के आधार पर चिंत्तन लेख


            अनेक लोगों में अध्यात्मिक भाव है प्राकृतिक रूप से विद्यमान होता है पर कभी उनका ध्यान इस तरफ नहीं जाता।  विषयों के रसस्वादन से उत्पन्न विषरूप मानसिक तनाव और अध्यात्मिक अमृत से दूरी के बीच वह झूलते हैं।  उन्हें यह समझ में नहीं आता कि वह कैसे सुख अनुभव करें।  जीवन के सुख का सारा सामान जुटाने के बावजूद उन्हें सुख अनुभव नहीं होता। ऐसे लोगों को एकांत चिंत्तन अवश्य करना चाहिये तब उनकी ज्ञानेंद्रियां स्वतः जागत हो जाती हैं। हमारे देश में को कथायें, सत्संग और धार्मिक त्यौहार इतने होते हैं कि लोगों में श्रवण, पठन पाठन, तथा दृश्यों से उनमें ज्ञान की धारा स्वाभाविक रूप से प्रभावित होती है।  अनेक लोग मंदिरों में जाकर भी अपनी आस्था को जीवंत बनाये रखने का प्रयास करते हैं जिससे उनके अंदर अध्यात्मिक तत्व तो बना रहता है फिर भी उन्हें शांति नहीं मिलती है। आजकल तो योग साधना का प्रचार भी हो रहा है जिसके अभ्यास से लोगों में देह तथा मन में पवित्र आती है।  फिर भी ज्ञान के अभाव का दृश्य दिखाई देता है।

श्री गुरू ग्रंथ साहिब में कहा गया है कि

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इहु तनु धरती बीजु करमा करो सलिल आपाउ सारिंगपाणी।

मन किरसाणु हरि रिदै जंमाइ लै इउ पावसि पटु निरवाणी।।

            हिन्दी में भावार्थ-हमारी मनुष्य देह धरती के समान है, एक किसान की तरह इसमें  शुभ भाव के बीज बोकर परमात्मा के नाम स्मरण रूपी पानी से खेती की जाये तो जीवन धन्य हो जाता है।

विखै विकार दूसट किरखा करे इन तजि आतमै होइ धिआई।

जपु तपु संजमु होहि जब राखे कमलु विबसै मधु अजमाई।।

            हिन्दी में भावार्थ-विषय विकार तो ऐसे पौद्ये जिनमें मन लगाना व्यर्थ है उन्हें उखाड़कर जप, तप और संयम के पौद्ये हृदय में कमल की भाव रूप वृक्ष उगायें जिनसे मधुर रस टपकता है।

            इसका कारण यह है कि सामान्य जनों में उस तत्वज्ञान को धारण करने की शक्ति का अभाव है जो केवल ध्याना, धारणा और समाधि से आती है।  परमात्मा की हार्दिक भक्ति से लाभ होता है पर हृदय और आत्मा का मिलन किस तरह हो, यह ज्ञान बहुत कम लोगों हैं। किसी की कहने या स्वयं के सोचने से हार्दिक भक्ति नहीं हो पाती।  इसके लिये यह आवश्यक है कि यह बात समझ ली जाये कि संसार के विषयों से हम सदैव संपर्क नहीं रख सकते।  हमें जीवन में जो सुख सुविधायें मिलती हैं वह हमारा अध्यात्मिक लक्ष्य नहीं होती। अनेक लोगों ने आकर्षक भवन बनाये हैं।  उनमें पेड़ पौद्ये और बाग लगे होने के साथ ही फव्वारी भी होते हैं।  अगर कोई लघु श्रेणी का व्यक्ति देखे तो आह भरकर रह जाये पर इस सच को सभी जानते हैं कि ढेर सारी भौतिक उपलब्धियों के बावजूद संपन्न लोग सुख का अनुभव नहीं कर पाते।

            इसका एक ही तरीका है कि अध्यात्मिक अभ्यास के समय सांसरिक विषयों के प्रति एकदम निर्लिप्पता का भाव हृदय में लाया लाये।  कहने में सहज लगने वाली बात प्रारंभ में अत्यंत कठिन लगती है मगर निरंतर ध्यान की प्रक्रिया अपनाने के बाद धीमे धीमे ऐसा अभ्यास हो जाता है कि मनुष्य का मन भोग की बजाय योग की तरफ इस तरह प्रवृत्त होता है कि उसका जीवन चरित्र ही बदल जाता है।  मूल बात संकल्प की है। मन में कहीं बाहर से लाकर बोया नहीं जा सकता।  हम अगर निरंतर बाहरी विषयों की तरफ ध्यान लगायेंगे तो मन में भोग के बीज पैदा होंगे। वहां से मन हटाते रहे तो स्वतः ही अंतर्मन से योग के बीज मन में आयेंगे।  इसे हम ज्ञान और विज्ञान का संयुक्त सिद्धांत भी कह सकते हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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विश्व को योग दिवस मनाना ही चाहिये-हिन्दी चिंत्तन लेख


            प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने संबोधन में सारे विश्व में योग दिवस मनाने का प्रस्ताव दिया है। इस तरह की बात विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक मंच पर अधिकारिक रूप से पहली बार कही गयी है इसलिये इसका महत्व निश्चित रूप से बहुत है।  इसकी भारत में स्वाभाविक रूप से प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई।  हम जैसे अध्यात्मिक और ज्ञान साधकों के लिये इस तरह के घटनाक्रम न केवल रुचिकर होते हैं बल्कि शोध का अवसर भी प्रदान करते हैं।

            देश में अनेक प्रतिक्रियायें आयीं। उनमें एक योग शिक्षक ने एक  महत्वपूर्ण बात कही कि योग के विषय पर जब कोई साधना करने वाला बोलता है तब उसका महत्व बहुत होता है।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं योग साधना करते हैं इसलिये उनके पास इस विषय पर बोलने का अधिकार है।  उन्होंने एक तरह से अपना अनुभव बांटा है।  इसकी हमारे जैसे लोगों पर सुखद प्रतिक्रिया होती है पर जब हम अन्य लोगों को योग विषय बोलते और लिखते हुए देखते हैं तो यह यकीन करना कठिन होता है कि उनके पास योग का कोई ज्ञान भी है। मोदी जी को योग साहित्य का ज्ञान भी है यह देखकर प्रसन्नता होती है पर उनके संबोधन पर प्रसन्न होने वालों में ऐसे लोग भी हैं जो केवल भारतीय विचाराधारा के प्रचार पर ही उछलते हैं पर उसके मूल सिद्धांतों को नहीं समझते।

            जिस योग साधना की बात होती है वह अनेक लोगों के लिये इसलिये कठिन नहीं है बल्कि  उसमें समय और श्रम का व्यय होता है जिससे आज के भौतिक प्रभाव में फंसे समाज के अनेक लोग बचना चाहते हैं।  योग साधना मनुष्य को शक्तिशाली, आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी सहज वाणी का प्रवाहक बनाती है। इसके प्रभाव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे योग साधना में निरंतर सक्रिय रहने वाले  लोग ही अनुभव कर सकते हैं।

            योग के आठ भाग हैं।  आमतौर से लोग प्राणायाम और आसनों को ही योग साधना समझते हैं।  एक तरह से समाज इसे  व्यायाम समझता है जबकि मोदी ने अपने संबोधन में यह स्पष्ट रूप से बताया कि यह एक व्यापक सिद्धि प्रदान करने वाली साधना है। हम यहां बता दें कि इस सिद्धि का यह आशय कतई नहीं समझना चाहिये कि इससे कोई आकाश से तारे जमीन पर उतार कर ला सकता है। योग साधना मनुष्य के व्यवहार, विचार तथा व्यक्तित्व में ऐसे तत्व स्थापित कर देती है कि वह इस जीवन सागर में बिना थपेड़ों के तैरता है-हमारा अभिप्राय यही है।

            मुख्य बात संकल्प की है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार परमात्मा के संकल्प के आधार पर संसार के सारे भूत स्थित हैं पर वह किसी में स्थित नहीं है।  उससे यह समझना चाहिये कि जिस तरह का हमारा संकल्प होगा उसी तरह का संसार हमारे सामने होगा पर हम उसमें नहीं समा सकते।  हमारी समस्या यह है कि  परमात्मा के इस संसार का भाग अपने ही अपने ही संकल्प के कारण सामने आता है हम उसमें समाना चाहते हैं या सोचते हैं कि वह हमारे अंदर समा जाये।  मकान मिला तो उसमें हम समाना चाहते हैं या चाहते हैं कि वह हमारे अंदर समाज जाये। इसी तरह का दृष्टिकोण संतान, धन, वाहन तथा अन्य भौतिक उपलब्धियों के बारे में रहता है। ऐसा हो नहीं सकता पर हमारा पूरा जीवन इसी प्रयास में नष्ट हो जाता है। देखा जाये तो हर इंसान योग करता ही है।  अज्ञानी लोग  भौतिकता से जुड़ने का प्रयास करते हैं। इसे हम असहज योग भी कह सकते हैं क्योंकि अंतत इससे तनाव ही पैदा होता है। उनका मन उन्हें अपना बंधुआ बना लेता है। सहज योगी स्वयं से जुड़कर संसार के विषयों से अपनी आवश्यकतानुसार संबंध रखते हैं।  वह कभी मन से कभी किसी भी विषय से संयोग करने के लिये बाध्य नहीं किये जाते।

            विश्व में योग दिवस मनाये जाने के प्रस्ताव पर भी अनेक लोग विश्व का अध्यात्मिक गुरु बनने का सपना देखकर प्रसन्न हो रहे हैं। हमारा मानना है कि भारत की यह पहले से बनी बनायी छवि है जिसके लिये प्रथक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। पतंजलि योग साहित्य के अलावा हमारी श्रीमद्भावगत गीता भी एक ऐसा स्वर्णिम ज्ञान ग्रंथ है जिससे पूरा विश्व परिचित है।

            हम तो यह चाहते हैं कि विश्व समुदाय से पहले हमारे ही देश का अपना रुग्ण मानसिकता से बाहर आये। योग की बातें बहुत होती हैं पर साधना करने वालों की संख्या अभी भी नगण्य है। विश्व में क्रांति आने की हमारी कल्पना तभी सफल होगी जब हम पहले अपने देश में योग साधना को दिन चर्या का एक अभिन्न भाग बनायेंगे।  हम जैसे अप्रचारित योग साधकों के पास ऐसे साधन नहीं होते कि अपने इस प्राचीन विज्ञान पर जनसामान्य में अपनी बात कह सकें, इसलिये प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी जैसे प्रतिष्ठित लोग जब योग विषय का प्रचार करते हैं तो मन प्रसन्न कर लेते हैं। इसके लिये हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आभारी भी है कि उन्होंने योग प्रचार के लिये वह भूमिका निभाई जिसकी हम प्रतिष्ठित लोगों से अपेक्षा करते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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राष्ट्रभाषा से ही विश्व में पहचान बनती है-हिन्दी चिंत्तन लेख


            14 सितम्बर 2014 रविवार को हिन्दी दिवस सरकारी तौर से मनाया जायेगा। इसमें अनेक ऐसे बुद्धिजीवी अपने प्रवचन करते मिल जायेंगे जो न केवल हिन्दी भाषा के प्रति हार्दिक भक्ति दिखायेंगे वरन् उसका महत्व भी प्रतिपादित करेंगे पर सच यह है कि उनके शब्द केवल औपचारिक मात्र होंगे।  अगर हम हिन्दी भाषी समुदाय की बात करें तो शायद ही वह आमजन कहीं इस दिवस में कोई दिलचस्पी दिखाये जो कि वास्तव में इसका आधार है। अनेक लोग इस लेखक के ब्लॉग पर यह टिप्पणी करते हैं कि आप हिन्दी के महत्व के बारे में बतायें।  यह ऐसे पाठों पर लिखी गयी हैं जो चार से छह वर्ष पूर्व लिखे गये हैैं।  तब हैरानी होती है यह सोचकर कि क्या वाकई उन लोगों को हिन्दी का महत्व बताने की आवश्यकता है जो पढ़े लिखे हैं।  क्या अंतर्जाल पर सक्रिय हिन्दी भाषी चिंत्तन क्षमता से इतना कमजोर हैं कि वह स्वयं इसके महत्व पर विचार नहीं करते।

            हैरानी तो इस बात पर भी होती है कि व्यवसायिक विद्वान आज भी हिन्दी के प्रचार प्रसार की बात करते हुए उसके पिछड़ेपन के लिये बाज़ार को बता देते हैं जो हिन्दी भाषियों का दोहन तो करता है पर उसके विकास पर जोर नहीं देता।  इतना ही नहीं बाज़ार पर अपने हिसाब से हिन्दी अंग्रेजी की मिश्रित हिंग्लिश का प्रचलन बढ़ाने का आरोप भी लगता है।  सबसे बड़ी बात तो यह कि हिन्दी की निराशाजनक स्थिति पर हमेशा बोलने वाले यह विद्वान बरसों से रटी रटी बतायें दोहराते हैं।  उनके पास हिन्दी को लेकर अपनी कोई योजना नहीं है और न ही हिन्दी  भाषी जनमानस में प्रवाहित धारा को समझने का कोई प्रयास किया जाता है।  वह अपने पूर्वाग्रहों के साथ हिन्दी भाषा पर नियंत्रण करना चाहते हैं। मुख्य बात यह कि ऐसे विद्वान हिन्दी को रोजी रोटी की भाषा बनाने का प्रयास करने की बात करते हुए उसमें अन्य भाषाओं से शब्द शामिल करने के प्रेरणा देते हैं।  उन्हें आज भी हिन्दी साठ साल पहले वाली दिखाई देती है जबकि उसने अनेक रूप बदले हैं और वह अब निर्णायक संघर्ष करती दिख रही है।

            हिन्दी आगे बढ़ी है।  एक खेल टीवी चैनल तो अब हिन्दी में सीधा प्रसारण कर रहा है और हम ऐसे अनेक पुराने क्रिकेट खिलाड़ियों को हिन्दी बोलते देखते हैं जिनके मुंह से अभी तक अंग्रेजी ही सुनते आये थे।  कपिल देव और  नवजोत सिद्धू के मुख से हिन्दी शब्द सुनना तो ठीक है जब सौरभ गांगुली, सुनील गावस्कर, अरुणलाल तथा संजय मांजरेकर जैसे लोगों से हिन्दी वाक्य सुनते हैं तो लगता है कि बाज़ार भी एक सीमा तक भाषा नियंत्रित करता है तो होता भी है।  रोजी रोटी से भाषा के जुड़ने का सिद्धांत इस तरह के परिवर्तनों से जोड़ा जा सकता है पर हमेशा ऐसा नहीं होता क्योंकि भाषा की जड़ों को इससे मजबूती नहीं मिलती क्योंकि बाज़ार को भाषा के विकास से नहीं वरन् उसक दोहन से मतलब होता है।

            अंतर्जाल पर हिन्दी भाषा को  कम समर्थन मिलता है इससे यहां लिखने वालों के लिये रोजी रोटी या सम्मान मिलने जैसी  कोई सुविधाजनक प्रेरणा नहीं है पर परंपरागत क्षेत्रों में भी तो यही हाल है।  फिर भी वहां स्वांत सुखाय लिखने वाले ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो  हिन्दी की अध्यात्मिक धारा में प्रवाहित होने का आंनद लेते हैं। उन्हें व्यवसायिक धारा से जुड़कर शब्द और शैली पर समझौता करना पसंद नहीं है।  न ही दूसरे के निर्देश पर रचना की विषय सामग्री रचने  की उनमें इच्छा पैदा है। उनके लिये भाषा सांसरिक विषयों से अधिक अध्यात्मिक महत्व की है। उनका बेहतर चिंत्तन हिन्दी में होता है जिसकी अभिव्यक्ति हिन्दी में होने पर ही उनको संतोष होता है। हिन्दी में सोचकर अंग्रेजी में बोलने के लिये व्यावसायिक बाध्यता नहीं होती।  वैसे हमारा मानना है कि हिन्दी की ताकत ग्रामीण और मध्यम क्षेत्र के शहरी लोग हैं जिनका अंग्रेजी से कोई संबंध नहीं है।  वह हिन्दी से इतर कही बात को अनसुना कर देते हैं।  आज के लोकतांत्रिक तथा भौतिक युग की यह बाध्यता बन गयी है कि भारत क आम जनमानस को प्रभावित करने के लिये हिन्दी की सहायता ले। यही कारण है कि व्यवसायिक समूह हिन्दी से जुड़ रहे हैं जो कि हिन्दी के भविष्य के लिये अच्छे संकेत हैं।

            सबसे बड़ी बात यह कि  हमारी राय हिन्दी के विषय में अलग है।  वह ब्लॉग मित्र पता नहीं कहां लापता है जिसका यह सिद्धांत हमारे मन को भाया था कि हिन्दी एक नवीन भाषा है इसलिये वह बढ़ेगी क्योंकि यह संसार का सिद्धांत है कि नवीनता आगे बढ़ती है। उनका यह भी मानना था कि अंग्रेजी पुरानी भाषा इसलिये उसका पतन होगा।  हमारे यहां अंग्रेजी के प्रति मोह विदेशों में नौकरी की वजह से है।  सामाजिक विशेषज्ञ भले ही प्रत्यक्ष न कहें पर सच यह है कि श्रम निर्यातक देश के रूप में भारत में अंग्रेजी का महत्व इस कारण ही बना हुआ है क्योंकि यहां शिक्षित बेरोजगारों की संख्या ज्यादा है और उन्हें बाहर जाकर रोजगार ढूंढने या करने के लिये उसका ज्ञान आवश्यक माना जाता है। यह शर्त निजी व्यवसाय पर लागू नहीं होती क्योंकि पंजाब के अनेक लोग बिना अंग्रेजी के ही बाहर जाकर व्यवसायिक करते हुए फलेफूले हैं। बहरहाल विश्व में डूबती उतरती अर्थव्यवस्था अब नौकरियों की कमी का कारण बनती जा रही है।  इधर जापान से भारत में निवेश की संभावना से निजी छोटे उद्योग पनपने की संभावना है। ऐसे में लगता तो यही है कि नवीन भाषा होने के कारण हिन्दी वैश्विक भाषा बन ही जायेगी।  जिन्हें समय के साथ चलना है उन्हें हिन्दी का ज्ञान रखना जरूरी है क्योंकि इसके अभाव में अनेक लोग देश में ही अपनी वाणी के लिये परायापन अनुभव करने लगेंगे।

            इस हिन्दी दिवस पर सभी ब्लॉग लेखकों और पाठकों को बधाई।  हमारा यही संदेश तो यही है कि हिन्दी अध्यात्मिक भाषा है। इसमें चिंतन, मनन, अध्ययन और वाचन करने से ही हमारे विचार, व्यवहार और व्यक्तित्व की मौलिकता बचा सकते हैं।

सांईं के दरबार में भी आम आम और विशेष दर्शन-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन


      सांई बाबा के मंदिर में आम और विशिष्ट दर्शकों के वर्ग बन गये हैं।  जो दर्शक तीन सौ रुपये देंगे उन्हें आमजनों की तरह पंक्ति में नहीं लगना पड़ेगा और वह विशिष्ट भक्त होकर सांई के निकट जा सकेंगे।  सांई बाबा के स्थाई सेवक इसके पीछे दो तर्क दे रहे हैं-एक तो यह कि इससे प्राप्त आमदनी से मंदिर का रखरखाव होगा दूसरा यह कि इससे भीड़ पर नियंत्रण रखने में सुविधा होगी। दोनों ही तर्क समझ से परे हैं।  आमदनी से मंदिर के रखरखाव का जवाब यह है कि वहां चढ़ाव इतना आता रहा है कि सामान्य मंदिर अब भव्य बन गया है। दूसरी बात यह है कि सांईबाबा के अनेक शहरों में मंदिर हैं और वह चढ़ावे से ही चल रहे हैं।  कई भक्त अगर पैसा नहीं डालते तो कई सांई बाबा के चमत्कार का लाभ मिलने पर बहुत सारा धन दे ही देते हैं।  भीड़ नियंत्रण की बात हास्यास्पद ही है। इससे आमजनों की पंक्ति को बीच बीच में व्यवधान झेलना पड़ेगा।

      हम सांई बाबा के स्थाई सेवकों के फैसले का विरोध नहीं कर रहे। हम तो यह सलाह देंगे कि वह आम भक्तों से भी सौ रुपया लेने लगें।  इससे भीड़ कम हो जायेगी और आय भी बढ़ेगी।  मगर वह कभी नहीं मानेंगे।  वजह यही है कि यही फोकटिया भक्तों की भीड़ ही सांईबाबा की प्रचलित भक्ति की शक्ति है।  अगर आमजन कम हो गये तो विशिष्ट भक्त भी कम हो जायेंगे। हमारे यहां दिखावे की भक्ति कम नहीं है।  विशिष्ट भक्त दिखने की चाह कुछ ऐसे लोगों में ज्यादा होती है जो भक्ति कम अपनी शक्ति ज्यादा दिखाना चाहते हैं।  दौलत, शौहरत और ऊंचे ओहदे वालों को इस बात से चैन नहीं मिलता कि उनके पास शक्ति है। वह उसका भौतिक सत्यापन चाहते हैं और यह केवल भीड़ में अकेले चमकने से ही मिलता है।  वैसे तो हमारे यहां दक्षिण के एक दो मंदिर में भी यह पंरपरा रही है कि पैसा देकर विशिष्टता के साथ भगवान की मूर्ति के दर्शन किये जायें पर सांईबाबा मंदिर में इस तरह की नयी परंपरा थोड़ा चौंकाने वाली है।

      अभी हाल ही में एक महान ज्ञानी ने सांईबाबा को भगवान मानने को चुनौती दी थी।  इस पर लंबी बहस चली। निष्कर्ष न निकलना था न निकला। अलबत्ता इस बहस के बीच में विज्ञापन की धारा खूब चलती दिखाई।  हम जैसे योग तथा अध्यात्म साधकों के लिये ऐसी बहसों में कुछ नहीं होता और न ही पैसा देकर दर्शन करने के निर्णयों से कोई परेशानी होती है।  समस्या हम जैसे लोगों के साथ यह है कि भारतीय अध्यात्म ग्रंथों में कही गयी बातों को तोड़मरोड़ कर पेश करने पर थोड़ी निराशा होती है जो कि कुछ न कुल बोलने या लिखने को प्रेरित करती है।

      अगर हम श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करें तो योग, तप और ध्यान एकांत में किये जाने वाली क्रियायें हैं और परमात्मा से आत्मा का संयोग न केवल वाणी वरन् समस्त इंद्रियों के  मौन से ही संभव है।  निष्काम तथा निराकार भक्ति का श्रेष्ठ रूप एकांत में ही दिख सकता है। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ इस बात को मानते हैं पर साथ ही सकाम तथा भक्ति को भी स्वीकार करते है। सकाम तथा साकार भक्ति की आस्था का प्रवाह बाहर रहता है और धर्म के ठेकेदार इसी में अपने हाथ धोते हैं।

      सकाम तथा साकार भक्ति को इसलिये मान्य किया गया है क्योंकि सभी लोग एकांतवास का आनंद नहीं उठा सकते। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इसे स्वीकार किया है कि हजार में कोई एक मुझे भजता है और उनमें भी हजार में से एक मुझे प्राप्त करता है।  उन्होंने संकेतों में सकाम भक्ति का रूप भी बताया है और यह माना कि अंततः वह भी वास्तव में उनके ही भक्त हैं।  इसका मतलब सीधा यह है कि श्रीमद्भागवत गीता के साधकों को कभी दूसरे की भक्ति पर आक्षेप नहीं करना चाहिये।  जो लोग श्रीमद्भागवत गीता में आस्था रखने का दावा करते हुए दूसरे की भक्ति पर आक्षेप करते हैं तो इसका आशय यह है कि वह कहीं न कहीं अज्ञान के अंधेरे में हैं।

      सकाम भक्ति का भाव बाहर आकर्षित रहता है यही कारण है कि मूर्तियों में भी भगवान का रुप देखा जाता है। दरअसल हमारा मन चंचल है। वह आकर्षण ढूंढता है और भगवान की मूर्तियां दिखने में आकर्षक होती है इसलिये वह मन का मोह लेती है। इस तरह भक्त का भाव मनोरंजन, आस्था तथा श्रद्धा की त्रिवेणी में नहा लेता है।  हमारे यहां रामलीला तथा कृष्ण रास के प्रदर्शन की परंपरा रही है। उनमें यह तीनों तत्व प्रवाहित रहे थे।  यह अलग बात है कि उनके कलाकार सीधे कभी दर्शकों से धन नहीं मांगते बल्कि आयोजक श्रद्धालू उनको दान दक्षिण देकर तृप्त कर देते हैं।

      सांईबाबा की मूतियों के दर्शन की धारा में भी यह तीन तत्व प्रवाहित हैं।  ऐसे में हम मनोरंजन तत्व का विचार आता हैं। जिस तरह सिनेमाघरों में दर्शकों के वर्ग होते हैं उसी तरह अब भगवान के दर्शन में भी बन रहे हैं तो इसके पीछे यही तत्व माना जा सकता है। हमें याद आ रहे हैं वह दिन जब हम फिल्में बॉलकनी का टिकट स्टूडेंट कंसेशन में लेकर देखते थे।  इतना ही नहीं मध्यांतर में भी हम बॉलकनी की ही कैंटीन में चाय पीते थे।  नीचे फर्स्ट या थर्ड क्लास वाली कैंटीन में जाने की सोचना भी उस समय स्तरहीनता लगती थी। कभी वह टिकट नहीं मिला तो नीचे भी फिल्म देखी पर जब ऊपर देखते थे तो मन में अहंकार आ ही जाता था।  उस समय हम उन दोस्तों पर अपना रौब झाड़ते थे जो इस सुविधा का लाभ उठाने योग्य नहीं थे-मतलब यह महाविद्यालयीन शिक्षा से परे थे।

      अब अंतर्जाल पर अध्यात्मिक साधना करते हुए इस अहंकार को पहचान लिया है।  इसलिये कहीं भी विशिष्ट व्यवहार मिले तो भी उसका प्रभाव हम पर नहीं पड़ता।  अलबत्ता गुण और कर्म विभाग के अध्ययन से हमें इस संसार और यहां के जीवों का व्यवहार समझ में आ गया है।  विशिष्ट भक्त, दर्शक या सहायक बनने का अवसर मिलने पर लोग फूल जाते हैं पर अंततः उनको नीचे उतरना ही पड़ता है। यह अलग बात है कि ऊंचाई पर जब वह रहते हैं तब लोग उनको बेचारगी के भाव से देखते हैं।  सांई बाबा के आम भक्तों के सामने भी यह भाव तब दिखाई देगा जब वह विशिष्ट भक्तों को अपने से प्रथक होकर दर्शक करते देखेंगे।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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पश्चिम के बाद पूर्व को भी आजमा लें-हिन्दी चिंत्तन लेख


            अभी हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्रमोदी ने जापान का दौरा किया। वहां उन्होंने वहां के प्रधानमंत्री को भारत का पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भागवत गीता उपहार में दिया।  इस यात्रा के राजनीतिक संदर्भ चाहें जो भी हों अध्यात्मिक विचार धारा के पोषक भारतीय समाज के लिये यह एक नवीन विषय बन गया है जब किसी राजनीतिक मंच पर श्रीगीता का नाम इस तरह लिया गया हो।  अभी तक भारत के शिखर पुरुष पश्चिम की तरफ देखते थे पर यह पहला अवसर है जब पूर्व से रिश्ता बनाने में विशेष दिलपस्पी देखी गयी है।

            इस पर पारंपरिक दृष्टिकोण से अलग हटकर विचार करें तब यह निष्कर्ष सामने आता है कि हम अपने भौतिक विकास का स्वरूप पश्चिम की बजाय पूर्व के आधार पर तय करें तो शायद बेहद अच्छा रहे।  जापान दुनियां एक धनी राष्ट्र है।  द्वितीय विश्वयुद्ध में उस पर अमेरिका ने परमाणु  बम फैंका था।  यह मलाल आज भी वहां के लोगों के मन में है।  अमेरिका ने अभी तक एशियाई देशों पर ही बम बरसाये हैं।  दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन राजपुरुषों ने अमेरिका से दोस्ती की अंततः वह उनका ही दुश्मन बना। सद्दाम हुसैन इसका एक सबसे अच्छा उदाहरण है। ऐसे में उस पर यकीन करना हमेशा ही कठिन रहता है।  मूलतः भारत का अमेरिका से कोई बैर नहंी है पर उसकी रणनीतियां हमेशा ही संदिग्ध मानी जाती हैं।  दूसरी बात यह कि वह दुनियां का सबसे अमेरिका विश्व  का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र है पर उसकी अर्थव्यवस्था पराश्रित मानी जाती है।  इसके विपरीत जापान एक आत्मनिर्भर राष्ट्र है।  सबसे बड़ी बात यह कि वह एशियाई क्षेत्र होने के साथ ही सहधर्मी राष्ट्र है।  वहां बौद्धधर्म प्रचलित हैं जिसके प्रवर्तक भगवान बौद्ध हमारी धरती पर ही प्रकट हुए थे। जापान विश्व में दूसरों को कर्ज और दान देने वाला राष्ट्र है पर यह बात अलग है कि छोटा होने के कारण उसे वह सम्मान नहीं मिलता।  अगर भारत जैसा विशाल देश उसके साथ हो जाये तो सामरिक दृष्टि से भी उसका आत्मविश्वास बढ़ सकता है।  हमारे यहां का भी जाता है कि हरा भरा वृक्ष ही इंसान का सहायक होता है सूखा पेड़ किसी काम का नहीं हो सकता।

            तकनीकी रूप से जापान हमारे पड़ौसी चीन से कहीं बेहतर है। अमेरिका हमारे साथ संपर्क इसलिये बढ़ा रहा है क्योंकि यहां उसके लिये रोजगार के अवसर हैं।  जापान को पूंजी लगाने का स्थान चाहिये जिससे हमारे विशाल राष्ट्र में हमारे लिये तो हमें भी रोजगार के अवसर बन सकते हैं। सांस्कृतिक और वैचारिक रूप से भी जापान हमारा निकटस्थ सहयोगी बन सकता है। मूल बात यह कि हम आर्थिक, वैचारिक, साहित्यक तथा संस्कारिक दृष्टि से हम पश्चिम की तरफ देखकर निराश हो चुके हैं।  पश्चिम से आई हवा ने हमारे यहां तनाव पैदा किया है इसलिये अब पूर्व की तरफ रुख करना चाहिये। हम पश्चिम की साम्राज्यवादी और मध्य एशिया की हिंसक गतिविधियों से जुड़कर अपना समय व्यर्थ ही बरबाद करते हैं।  मध्य एशिया में हिंसक संघर्ष कभी थम नहीं सकता।  ऐसा लगता है यह उनका स्वभाव है। वर्षों पुराना इतिहास गवाह है कि पश्चिमी राष्ट्र साम्राज्य बढ़ाने तो मध्य एशिया के राष्ट्र आपस मे उलझकर विश्व में हिंसा का संकट पैदा करते रहे हैं।  दूसरी बात यह कि पश्चिमी से आई हवा यहां गुलाम पैदा करती है जबकि पूर्व से आई हवा में स्वतंत्र मानसिकता की खुशबू आती है।  वैसे भी हमारे देश में सदियों से पूर्व की तरफ देखकर पूजा, आरती या प्रणाम करने की परंपरा रही है।

            एक सज्जन पलंग पर दो वर्ष तक पश्चिम की सिर कर सोते रहे।  लगातार तनाव में गुजारा। एक दिन उनके ही अध्यात्मिक ज्ञानी मित्र ने  उनको घर पर ऐसा करते पाया तो उसे चेताया कि पूर्व या दक्षिण की तरफ सिर रखकर सोया करो। उत्तर की तरफ सिर करने से से उष्णता तो पश्चिम की तरफ सोने से कुंठा पैदा होती है।  उस मित्र को यह बात लग गयी।  बाद में उन्होंने बताया कि उस अध्यात्मिक मित्र की सलाह मानने के बाद वह अलग तरीके से ही सुखदायक जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

            अध्यात्मिक तथा ज्ञान साधक पूर्व की तरफ मुख कर ही योग साधना करते हैं। लोग उगते हुए सूरज को जल देते हैं जो पूर्व से ही उगता है।  पश्चिम के लोग हमारे आर्थिक सहायक कतई नहीं है।  जिस तरह चीन और जापान की चीजें बाज़ार में बिकती हैं उससे यह साफ लगता है कि विकास के तत्व तो पूर्व में ही मौजूद हैं।  बहरहाल यह हमारी एक राय भर है जो अध्यात्मिक लेखक होने के नाते लिखी गयी है जो कि इस अवसर श्रीमद्भागवत गीता का उल्लेख होने पर पैदा हुई।  यह किसी आर्थिक या राजनीतिक विश्लेषक की रचना नहीं है जिसमें पूर्व बेहतर संपर्क होने से अन्य लाभों या हानियां का आंकलन प्रस्तुत किया जा सके।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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फेसबुक पर परंपरागत विचारधाराओं के विद्वानों का पुराना युद्ध जारी -हिंदी चिंत्तन लेख


          भारत में हम जिन विचाराधाराओं के बीच द्वंद्व परंपरागत प्रचार माध्यमों में बरसों से देखते रहे थे वह अब अंतर्जाल पर भी दिखने लगा है। पिछले कुछ दिनों से लव जिहाद, धर्मांतरण कर विवाह, बलात्कार तथा  आतंकवाद को लेकर जिस तरह के पाठ आ रहे हैं उनको देखकर यह लगता है कि अंतर्जाल पर भी विचाराधाराओं के लेखक उसी तरह ही अपनी प्रतिबद्धता दिखा रहे हैं जैसे पंरपरागत साधनों पर दिखाते हैं।  खासतौर से धर्मनिरपेक्षता तथा राष्ट्रवाद के बीच यह द्वंद्व हम जैसे पाठकों को दिलचस्प लगता है।  अभी कुछ दिनों से पहले धर्मांतरण कर जबरन विवाह और बलात्कार के प्रसंग चल रहे थे। उन पर एक वर्ग अपनी प्रतिक्रियाओं के साथ सक्रिय था।  आज फेसबुक  पर एक पाठ के साथ जुड़े लिंक में  धर्मांतरण कर विवाह का समाचार देकर  अपनी सक्रियता दूसरे समुदाय के लिये दिखाई गयी।  यह समाचार पढ़कर सबसे पहले तो हमारे दिमाग में यह आया कि फेसबुक पर यह किसने डाला है।  पता लगा कि यह एक लिंक था जो उसी समुदाय पर कथित अनाचार को बताने वाले समाचार वाले पाठ से जुड़ा था। जिस लेखक का यह पाठ है वह पुराने ब्लॉग लेखक होने के साथ हमारे मित्र भी रहे हैं।  आजकल उनके तथा हमारे बीच संवाद नहीं होता पर जब था तब हम यह नहीं जानते थे कि वह भी किसी विचारधारा में प्रवाहित जीव हैं।

        अंतर्जाल पर लिखते हुए हमें सात वर्ष हो गये।  भारत में प्रारंभिक दौर में ब्लॉग ही लोकप्रिय था। आज भी है पर फेसबुक ने उसका प्रभाव कम कर दिया हैं पुराने ब्लॉग लेखक आज भी लिख रहे हैं पर उनके दर्शन अब हम फेसबुक पर ही कर लेते हैं। पहले नारद और फिर ब्लॉगवाणी पर इन ब्लॉगलेखकों से आत्मीयता का भाव रहा पर अब वह समाप्त हो गया है।  इसमें कोई संदेह नहीं है सभी ब्लॉग लेखक अच्छे लेखक भी हैं पर अब उनका विचाराधाराओं से जुड़ा होना हमें हैरान करता है। दूसरी बात यह भी है कि अब अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन ज्यादा हो रहा है तो इस भीड़ में लोगों को अपने साथ बनाये रखना संभव नहीं है।  यह भी सच है कि  उन्मुक्त विचारधारा को हमारे यहां अभी कोई सम्मान नहीं मिल पाया। इस पर हम हम जैसे फोकटिया लेखक को कोई क्यों साथ रखना चाहेगा।

     बहरहाल फेसबुक में अभी तक हम एक समुदाय के बारे में पढ़ रहे थे आज दूसरे समुदाय पर पढ़ा तो आश्चर्य हुआ।  लेखक का प्रमाणीकरण करने की तब इच्छा जाग्रत हुई। हमारा अनुमान है कि कम से कम दो वर्ष बाद उनके किसी पाठ को पढ़ने का अवसर आया।  विचारधारा से प्रतिबद्ध लेखकों के लिये प्रायोजक मिलना सहज होता है इसलिये इन लेखकों ने अपना लेखक सतत बनाये रखा है। हम जैसे फोकटिया लेखक के लिये लंबे समय तक स्वप्रेरणा से लिखते रहना केवल माता सरस्वती की कृपा से ही हो सकता है। प्रारंभिक दौर में हमें लगता था कि हमारा उल्लेख कहीं न कहीं होगा पर अब जल्दी यह लगा कि प्रायोजन के इस युग में हमारी स्थिति एक अंतर्जालीय प्रयोक्ता से अधिक नहीं रहने वाली है।  इसलिये टिप्पणियों की परवाह छोड़ ही दी है। अलबत्ता दूसरे लेखकों की रचनाओं का अध्ययन करते रहते हैं। पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान इन विचाराधाराओं के लेखकों ने सतत द्वंद्वरत रहकर जिस तरह दिलचस्पी पैदा की वह हमारे लिये एक नया अनुभव था।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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चेहरों का चरित्र-हिंदी व्यंग्य कविता


चेहरे वही है

चरित्र भी वही है

बस, कभी बुत अपनी  चाल बदल जाते है,

कभी शिकार के लिये जाल भी बदल आते हैं।

इस जहान में हर कोई करता सियासत

कोई  लोग बचाते है घर अपना

कोई अपना घर तख्त तक ले आते हैं।

कहें दीपक बापू

सियासी अफसानों पर अल्फाज् लिखना

बेकार की बेगार करना लगता है

एक दिन में कभी मंजर बदल जाते

कभी लोगों के बयान बदल जाते हैं।

अब यह कहावत हो गयी पुरानी

सियासत में कोई बाप बेटे

और ससुर दामाद का रिश्ता भी

मतलब नहीं रखता

सच यह है कि

सियासत में किसी को

आम अवाम में भरोसमंद साथी नहीं मिलता

रिश्तों में ही सब यकीन कर पाते हैं।

घर से चौराहे तक हो रही सियासत

अपना दम नहीं है उसे समझ पाना

इसलिये आंखें फेरने की

सियासत की राह चले जाते हैं।

—————–

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

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दिल लग जाये जरूरी नहीं-हिंदी व्यंग्य कविता


खूबसूरत चेहरे निहार कर

आंखें चमकने लगें

पर दिल लग जाये यह जरूरी नहीं है,

संगीत की उठती लहरों के अहसास से

कान लहराने लगें

मगर दिल लग जाये जरूरी नहीं है।

जज़्बातों के सौदागर

दिल खुश करने के दावे करते रहें

उसकी धड़कन समझंे यह जरूरी नहीं है।

कहें दीपक बापू

कर देते हैं सौदागर

रुपहले पर्दे पर इतनी रौशनी

आंखें चुंधिया जाती है,

दिमाग की बत्ती गुल नज़र आती है,

संगीत के लिये जोर से बैंड इस तरह बजवाते

शोर से कान फटने लगें,

इंसानी दिमाग में

खुद की सोच के छाते हुए  बादल छंटने लगें,

अपने घर भरने के लिये तैयार बेदिल इंसानों के लिये

दूसरे को दिल की चिंता करना कोई मजबूरी नहीं है।

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

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प्यास बढ़ाओ-हिंदी व्यंग्य कविता


बंदर दे रहा था धर्म पर प्रवचन

उछलकूद करते हुए तमाशा भी

दिखा रहा था

यह सनसनीखेज खबर है

उसके मुखौटे के पीछे

इंसान का चेहरा है

आंखें देखती हैं पर पहचानती नहीं

कान सुनते है मगर समझ नहीं इतनी

बंदर के बोलों में इंसान का ही स्वर है।

कहें दीपक बापू

ज़माना बंटा है टुकड़ों में

कोई दौलत के नशे में मदहोश है,

कोई गरीबी के दर्द से बेहोश है,

जज़्बात सभी के घायल है,

ख्वाबी अफसानों के फिर भी कायल है

दिल के सौदागरों के अपनी चालाकी से

रोते को हंसाने के लिये

खुश इंसान के दिमाग में प्यास बढ़ाने के लिये

मचाया इस जहान  में विज्ञापनों का  कहर है।

देखते देखते

गांवों की खूबसूरती हो गयी लापता

नहीं रही वहां भी पुरानी अदा

घर घर पहुंच गया बेदर्द शहर है।

—————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

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महात्मा गाँधी के राजपद से मोह न रखने में मायने-गाँधी जयंती पर विशेष हिंदी लेख


                        महात्मा गांधी को युग पुरुष कहा जाता है। हम यहंा बता दें कि महात्मा गांधी जैसा चरित्र विश्व में कभी कभार ही देखने को मिलता है। जिस तरह उन्होंने अंग्रेजों से अपमानित होने पर उनके विरुद्ध पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर भारत में आंदोलन छेड़कर अपना हिसाब चुकाया वह अनुकरणीय है।  हम अगर उनके जीवन को कमतर कहेंगे तो यकीनन यह मानसिक कुंठा के अलावा कुछ नहीं हो सकता।  कोई व्यक्ति किस तरह शून्य से शिखर तक पहुंच सकता है इसका प्रमाण महात्मा गांधी से बेहतर आधुनिक युग में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता।  आधुनिक लोकतांत्रिक युग में राज्य के विरुद्ध सत्याग्रह तथा अहिंसक आंदोलन जैसी प्रेरणा उन्होंने जो दी है उसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।  इसके बावजूद महात्मा गांधी जी का नाम  भारत में प्राचीन महापुरुषों की तरह प्रतिष्ठित नहीं हो पाया। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत में अध्यात्मिक विषय में दक्षता होने पर ही लोग किसी को अपना हार्दिक महापुरुष मानते हैं।  स्थिति यह है कि महात्मा गांधी को राजनीतिक संत कहकर प्रथम राजनेता की तरह सम्मान दिया जाता है। यह देखकर हैरानी होती है कि पूरे देश के हर समाज को आंदोलित करने वाले महान व्यक्तित्व के स्वामी होने के बावजूद संत तुलसीदास, कबीरदास, रहीम तथा सूर जैसी छवि भारतीय जनमानस में नहीं बन पायी। इसका कारण उनके आंदोलन से केाई अध्यात्मिक संदेश नहीं मिलता।

                        महात्मा गांधी त्याग की मूर्ति थे। कहा जाता है कि त्यागी हमेशा ही भोगी से बड़ा होता है इसके बावजूद भारतीय अध्यात्मिक दृष्टि से उनकी सक्रियता को रेखांकित नहीं किया गया।  इन कारणों की खोज करें तब इस बात का आभास होता है कि भारतीय जनमानस त्रिगुणमयी माया से संचालित इस धरती पर राजसी प्रवृत्ति में लिप्त रहते हुए राजसी कर्म करता है पर उसके हृदय में स्थाई छवि सात्विक और योग साधना से इन तीनों गुणों को लांघ जाने वाले सिद्ध की ही बनती है। भारत का स्वाधीनता आंदोलन शुद्ध रूप से एक राजसी कार्य था।  एक राज्य व्यवस्था से दूसरी की तरफ जाना इस मायने में ही स्वतंत्रता थी कि दूसरी व्यवस्था अपने ही देश के लोगों के हाथ में थी।  यह व्यवस्था भी महात्मा गांधी के अनुयायियों को मिली।  उससे भी बड़ी बात यह कि व्यवस्था का रूप वही था पर प्रबंधकों के चेहरे बदल गये थे।  उसमें कोई ऐसा मूल बदलाव नहीं आया जिससे प्रजा अनुभव कर सके। कालांतर में तो यह भी हुआ  कि महात्मा गांधी के के गैर राजनीति अनुयायी ही यह कहते रहे कि अभी तो पूर्ण आजादी मिलना शेष हैै। आधुनिक युग में उनके सबके प्रसिद्ध अनुयायी अन्ना हजारे ने यहां तक कह दिया कि देश में वह दूसरा स्वतंत्रता आंदोलन चलाना चाहते हैं।  उन्होंने अपने आंदोलन के दौरान भारी जनसमर्थन जुटाया। यह अलग बात है कि अब उनका आंदोलन तथा उनका नाम प्रचार माध्यमों में अब ज्यादा नहीं लिया जाता पर इतना तय है कि उनके बहाने महात्मा गांधी पर चर्चा अवश्य होती है। 

                        दरअसल महात्मा गांधी ने भारत का सवौच्च कार्यपालिका का मुख्य पद लेने से इंकार कर दिया था। उन्होंने प्रधानमंत्री बनना स्वीकार नहीं किया। इसे त्याग मान गया। लोगों का अपना अपना दृष्टिकोण है कुछ लोग इसे त्याग मानते हैं तो कुछ लोग जिम्मेदारी से दूर हटना मानते हैं।  एक बात तय रही है कि महात्मा गांधी  पूर्ण रूप से एक अध्यात्मिक व्यक्तित्व के स्वामी थे पर वह राजसी कर्म में अपना नाम प्रतिष्ठित कर रहे थे।  लोगों को अपने साथ वह कोई सत्संग करने के लिये नहीं जोड़ते थे बल्कि उनका मुख्य अपना राजसी लक्ष्य पूरा करना था।  वह प्रधानमंत्री पद पर बैठकर एक श्रेष्ठ राजसी पुरुष की भूमिका निभाते तो उनका नाम सम्राट चंद्रगुप्त, अशोक और विक्रमादित्य की श्रेणी में आ सकता था।  संभव है भारतीय अध्यात्मिक विषय में भी उन्हें एक श्रेष्ठ राजसी पुरुष का दर्जा मिलता।  दूसरी बात यह कि वह जिस राम राज्य की कल्पना का प्रचार करते थे उसके लिये भी उनको राज्य पद पर प्रतिष्ठित होना आवश्यक था।  जिन भगवान श्रीराम के वह भक्त थे उन्होंने भी 14 वर्ष के वनवास के दौरान जहां अपने महान योद्धा होने का प्रमाण देने के बाद एक श्रेष्ठ राजा के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वहन किया था।  इसी तरह उनके अनेक भक्त उनसे स्वाधीनता आंदोलन के दौरान एक श्रेष्ठ योद्धा के रूप के प्रतिष्ठित होने के बाद राजपद पर स्थापित होकर एक श्रेष्ठ राजपुरुष की तरह दिखने की अपेक्षा भी कर रहे थे।

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि

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कृतं त्रेतायुगं चौप द्वापरं कलिरेव च।

राज्ञोवृत्तानि सर्वाणि राजा के हि युगमुच्यते।

     हिन्दी में भावार्थ-किसी राज्य में राजा जिस तरह प्रजा के लिये व्यवस्था तथा चेष्टा करता है वही युग कहलाती है।  एक तरह से राजा के कार्य तथा उसकी अवधि  ही सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होती है। एक तरह से राजा का कार्यकाल ही युग होता है।

कलिः प्रसुप्तो भवति सः जाग्रद्द्वपरं युगम।

कर्मस्यभ्युद्यतस्वेत्ता विचरेस्तु कृतं युगम्।।

                 हिन्दी में भावार्थ-राजा के निरुद्यम होने पर कलियुग, जाग्रत रहने पर द्वापर, कर्म में तत्पर रहने पर त्रेता तथा यज्ञानुष्ठान में रत होने पर सतयुग की अनुभूति होती है।

                        महात्मा गांधी ने प्रधानमंत्री पद नहीं लिया इसके पीछे उनका सोच चाहे जो भी हो पर उससे देश में गलत संदेश चला गया।  लोगों को यह लगता है कि राज्य प्रमुख होना एक सौभाग्य की बात है और उसे त्यागना गौरवपूर्ण बात  है। इसे स्वीकार करना कठिन है। सच बात तो यह है कि इस संसार के समस्त विषयों का अनुष्ठान  राजसी प्रवृत्ति के कर्म उसी के अनुरूप भाव होने पर संपन्न होते हैं।  अध्यात्मिक विषयों के संयोग  मनुष्य के अंतर्मन की शुद्धता करते हैं पर सांसरिक विषयों के कार्यों में व्यवहारिकता का होना आवश्यक है। मनुष्य को छल नहीं करना चाहिये मगर यह भी सच है कि  निजी सीमाओं तक इसे माना जा सकता है जबकि सार्वजनिक   राजसी कर्म करते हुए यह शर्त हमेशा नहीं रखी जा सकती। दूसरी बात यह कि राज्य पद होने पर भोग के साधन सुलभ होते हैं पर अनेक सार्वजनिक दायित्व भी पूरे करने पड़ते हैं।  उसमें विशेष योग्यता, बुद्धि तथा शिक्षा होना आवश्यक है।  किसी राज्य पद को स्वीकार न करना त्याग माना जा सकता है पर उसके साथ जो जुड़े दायित्व हैं उनसे परे हटना इस श्रेणी में नहीं आता।

                        महात्मा गांधी तत्कालीन भारतीय जनमानस में सर्वाधिक लोकप्रिय थे इसलिये उनके राजकीय पद न स्वीकारने को भले ही त्याग माना गया पर कालांतर में इस पर कुछ लोगों ने आपत्तियां भी की।  मनुष्य समाज में राजा का होना आवश्यक है वरना वह पशुओं की तरह व्यवहार करने लगता है।  इतिहास में देखा गया है कि जहां राजा पर संकट आया वहां की प्रजा को भारी परेशान हुई।  इसलिये राजपद का महत्वपूर्ण ही माना जाता है।  इतना ही नहीं अनेक बार तो ऐसा लगता है कि किसी ने राजपद पर बैठकर ही साहस का काम किया है क्योंकि का जाता है कि जिनके सिर पर मुकुट होता है उनके ही कटने का डर रहता है।  कहने का अभिप्रय यह है कि राजपद को हमेशा ही भोग का प्रतीक नहीं माना जा सकता।  महात्मा गांधी क राजपद स्वीकार न करने पर एक तरह से यही संदेश निकलता है कि राजपद पर बैठना भोग प्रकृति को दर्शाता है।

                        महात्मा गांधी का जीवन अनोखा है। सच बात तो यह है कि हजारों वर्षों तक ऐसा महान व्यक्तित्व देखने को नहीं मिलेगा पर उनके नाम पर कोई युग नहीं बन सकता। युग तो केवल उन लोगों का बनता है जो अध्यात्मिक विषयों में सिद्धि प्राप्त करते हैं-जैसे संत कबीर, तुलसीदास, रैदास, रहीम और सूरदास-या फिर जो राजसी कर्म में अपनी श्रेष्ठता दिखाते हैं-जैसे सम्राट चंद्रगुप्त, अशोक और विक्रमादित्य-महात्मा गांधी एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व के स्वामी थे पर उनका नाम इसी कारण प्राचीन काल के एतिहासिक पुरुषों के श्रेणी तक नहीं पहुंच पाया।   बहरहाल उनके जन्म दिन पर उनको हम भावभीनी श्रद्धांजलि देते हैं। उनके बारे में हमें यह कहते हुए जरा भी हिचक नहीं है कि वह निष्काम कर्म का एक बहुत बड़े प्रमाण हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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