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चाणक्य दर्शन-वाणी और मन की शुद्धि ही असली धर्म (chankya darshan-vani aur man ki shuddhi asli dharam)


वाचः शौचं च मनसः शौचन्द्रियनिग्रहः।
सर्वभूतिे दया शौचं एतच्छौत्रं पराऽर्थिनाम्।।
हिंदी में भावार्थ-
वाणी की पवित्रता, मन की स्वच्छता, इंन्द्रियों पर नियंत्रण, समस्त जीवों पर दया और भौतिक साधनों की शुद्धता ही वास्तव में धर्म है।
पुष्पे गंधं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम्।।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्चाऽऽत्मानं विवेकतः।।
हिंदी में भावार्थ-
पुष्पों में सुंगध, तिल में तेल, लकड़ी में आग और ईख में गुड़ प्रकार विद्यमान होते हुए भी दिखाई नहीं देता वैसे ही शरीर में आत्मा का निवास है। इस बात को विवेकशील व्यक्ति ही समझ पाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस विश्व में अनेक प्रकार के धर्म प्रचलन में आये हैं और हरेक में एक मध्यस्थ होता है जो उसका आशय समझाता है-आम आदमी उसकी बात पर ही यकीन कर लेता है। अनेक तरह की कहानियां सुनाकर लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन किया जाता है। धर्म के नाम पर शांति की बात इसलिये की जाती है क्योंकि उसी के नाम पर सबसे अधिक झगड़े होते हैं। कहीं धार्मिक मध्यस्थ का प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ होता है तो कहीं उसका सामाजिक महत्व ही इस प्रकार का होता है उसे राज्य और समाज से अप्रत्यक्ष रूप में लाभ मिलता है। धर्म के आशय इतने बड़े कर दिये गये हैं कि लोगों को यही पता नहीं रह जाता कि वह क्या है?
धर्म का आशय है वाणी, मन और विचारों में शुद्धता होना साथ ही अपने नियमित कर्म मेें पवित्रता रखना। केवल मनुष्य ही नहीं सभी प्रकार के जीवों पर दया करना ही मनुष्य का धर्म है। शेष बातें तो केवल सामाजिक एवं जातीय समूह बनाकर शक्तिशाली लोग उन पर नियंत्रण बनाये रखने के लिये करते हैं।

अक्सर लोग आत्मा को लेकर भ्रमित रहते हैं। उनके लगता है कि अपनी इंद्रियों से जो सुनने, बोलने, देखने और खाने की क्रियायें हम कर रहे हैं। यह केवल एक संकीर्ण सोच है। यह हमारी देह है जिसकी समस्त इंद्रियां स्वतः इसलिये कर पाती हैं क्योंकि आत्मा उनको ऊर्जा देती है। वही आत्मा हम है। जिस तरह ईख (गन्ने) में गुड़ दिखाई नहीं देता उसी तरह आत्मा भी नहीं दिखाई देता। जिस तरह एक गन्ने को निचोड़कर उसमें से गुड़ निकालने पर दिखाई देता है इसलिये इंद्रियों पर नियंत्रण कर जब उनहें निचोड़ा जाये तभी वह आत्मा दिखाई देता है। ध्यान योगासन,प्राणायम और भक्ति भाव से जीवन गुजारना ही वह प्रक्रिया है जिससे अपने आत्मा का दर्शन किया जा सकता है। इसे ही आध्यामिक ज्ञान भी कहा जाता है जिसे समझने के बात जीवन में कोई भ्रम नहीं रहता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com

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जिन पर है दौलत मेहरबान-हास्य व्यंग्य कवितायें



धन, पद और प्रतिष्ठा की शक्ति
हो जाती है जिन पर मेहरबान
क्यों न करे वह उस पर अभिमान
इस जहां में सभी यही चाहते हैं
जिनसे दूर है यह सब
वह रहते हैं परेशान
गर्दन ऊपर उठाएँ देखते हैं
होकर हैरान

उनके लड़के मोटर साइकिलों
और कारों में चलते गरियाते हैं
अभावों से है वास्ता जिनका
वह उन्हें देखकर सहम जाते हैं
अपने वाहन को चलाते है ऐसे
जैसे करते हौं फिल्मी स्टंट
कोई नहीं कर पाता उनको शंट
जो रोकने की कोशिश करे
उस पर टूट पड़ें बनकर हैवान

गरीब अगर अमीर की चौखट पर
जाना बंद कर दे
जाये तो तैयार रहे
झेलने के लिए अपमान
सड़क पर चले तो
किसी से डरे या नहीं
नव-धनाढ्यों की सवारी से
बचकर चले
न हार्न दें
चाहे जहां और जब रूक जाएँ
मन में आये वहीं रूक जाएँ
यही उनकी पहचान

कहैं दीपक बापू
तेज गति से मति होती वैसे ही मन्द
फिर बाप के पैसे, पद और प्रतिष्ठा का
नशा हो जिनको
वह क्यों होंगे किसी नियम के पाबन्द
वह पडा है उनकी तिजोरी में बंद
अपने जीवन की सुरक्षा
अपने ही हाथ में रखो
बाकी करेंगे अपने भगवान
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वाह रे बाज़ार तेरा खेल
मैदान में पिटे हीरो को
कागज और फिल्म पर
चमकाकर और सजाकर
जनता के बीच देता है ठेल

क्रिकेट में कोई विश्वकप नही
जीत सके जो तथाकथित महान
ऐसे प्रचार का जाल बिछाते हैं
कि लोग फिर
उनके दीवाने बन जाते हैं
अपने पुराने विज्ञापन इस
तरह सबके बीच लाते हैं कि
लोग हीरो की नाकामी से
हो जाते हैं अनजान
और बिक जाता है बाजार में
उनका रखा और सडा-गडा तेल

न ताज कभी चला न चल सकता है
उस पर हुए करोड़ों के वारे-न्यारे
और वह चला भी ख़ूब
प्रचार ऐसा हुआ कि
पैसेंजर में नही लदा
खुद ही बन गया मेल

कहै दीपक बापू
शिक्षा तो लोगों में बहुत बढ़ी है
पर घट गया है ज्ञान
शब्दों का भण्डार बढ़ गया है
आदमी की अक्ल में
पर अर्थ की कम हो गयी पहचान
बाजार में वह नहीं चलता
चलाता है बाजार उसे
सामान खरीदने नहीं जाता
बल्कि घर लूटकर आता
और कभी सामान तो दूर
हवा में पैसे गँवा आता
विज्ञापन और बाजार का या खेल
जिसने कमाया वही सिकंदर
जिसने गँवाया वह बंदर
इससे कोई मतलब नही कि
कौन है पास कौन है फेल
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आँखें देखतीं हैं
कान सुनते हैं
और जीभ का काम है बोलना
पर जो पहचान करे
सुनकर जो गुने
और जो श्रीमुख से
शब्द व्यक्त करे
वह कौन है
हाथ करते हैं अपना काम
टांगों का काम है चलना
और कंधे उठाएं बोझ
पर जो पहुँचाता है लक्ष्य तक
जो देता है दान
और जो दर्द को सहलाता है
वह कौन है

कहैं दीपक बापू
कहाँ उसे बाहर ढूंढते हो
क्यों व्यर्थ में त्रस्त होते हो
बैठा तुम्हारे मन में
तुम उससे बात नहीं करते
इसलिये वह मौन है
जब तक तुम हो
तब तक वह भी है
तुम्हारा अस्तित्व है उससे
उसका जीवन है तुमसे
तुम सीमा में बंधे रहते हो
उसकी शक्ति अनंत है
तुम पहचानने की कोशिश करके देखो
वह तुम्हारा अंतर्मन नहीं तो और कौन है

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है। ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
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