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पतंजलि योग विज्ञान-क्रिया योग से आनंद मिलता है


                 भारतीय पतंजलि योग विज्ञान अत्यंत व्यापक है और इसे पूरी तरह बिना समझे कोई गुरु जैसी पदवी की योग्यता धारण नहीं कर सकता। योगसाधना की चरमस्थिति समाधि है। संसार, देह और अन्य सभी प्रकार के भौतिक पदार्थों के अस्तित्व के आभास से रहित होना ही समाधि है। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि देह के क्लेशों से रहित होकर आत्मा में ही अपना ध्यान स्थापित करना भी योग का सर्वश्रेष्ठ रूप है।
योग साधना का यह आशय कतई नहीं है कि आसन या प्राणायाम कर ही इतिश्री समझ लें। यह दोनों तो आष्टांग योग के दो भाग मात्र हैं। इसका अंतिम भाग समाधि है जहां तक पहुंचने के लिये प्राणायाम तथा आसन तो मार्ग मात्र हैं। शून्य में स्थापित होने पर ही समाधि की अवस्था समझना चाहिए।
        पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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               तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।
        ‘तप, स्वाध्याय और ईश्वर में ध्यान लगाना क्रिया योग है।’
               समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च।
          ‘यह समाधि की सिद्धि करने वाला और अविद्या जैसे क्लेशों का नाश करने वाला है।’
                अविद्यास्मितारागद्वेषभिनिवेशाः क्लेशः।
           ‘अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश यह सभी क्लेश हैं।
           तत्वज्ञान होने पर ही मनुष्य को इस संसार का पूर्ण आंनद मिल सकता है। इसलिये क्रिया योग करना आवश्यक है। क्रिया योग का आशय तप, स्वाध्याय और परमात्मा के नाम का स्मरण करना है। प्राणयाम तथा योगासन से शरीर और मन में स्फूर्ति आती है तब किसी रचनात्मक कर्म की प्रेरणा स्वतः प्राप्त होती है। देह में विचर रही ऊर्जा किसी सकारात्मक कर्म के लिये प्रेरित करती है। ऐसे में तप और स्वाध्याय के माध्यम से क्रिया योग कर संसार को समझा जा सकता है। नये विषयों की खोज, अनुसंधान और शोध के लिये प्रयत्नशील होना चाहिए भले ही इससे शरीर को थोड़ा कष्ट पहुंचे। यह प्रयास तप करने जैसा ही होता है। संबंधित ग्रंथों का अध्ययन कर अपनी स्वाध्याय की भूख को जिज्ञासा से उपजी भूख को भी शांत करना चाहिए। इसी क्रिया योग से ही योग साधना के अभी तक उद्घाटित न किये गये रहस्यों को भी समझा जा सकता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’, Gwalior
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मनु स्मृति-प्रमाद और अहंकार मनुष्य को नष्ट कर देता है (entertainment and proud danger for man-manu smriti)


प्रकृतिव्यसननि भूतिकामः समुपेक्षेत नहि प्रमाददर्पात्। प्रकृतिव्यवसनान्युपेक्षते यो चिरातं रिपवःपराभवन्ति।।

                   विभूति की कामना से उत्पन्न प्रमाद और अहंकार की प्रकृति से उत्पन्न व्यसन की उपेक्षा न करें। प्रकृत्ति की व्यसनों की उपेक्षा करने वाला शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।

                        प्रकृति के पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है। जिनके पास भौतिक उपलब्धि है वह उसके आकर्षण में बंधकर मतमस्त हो जाते हैं। दूसरे को गरीब या अल्पधनी मानकर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। मज़ाक न उड़ाये तो भी शाब्दिक दया दिखाकर अपने मन को शांति देने का प्रयास करते हैं। दरअसल यह सब दूसरों से ही नहीं बल्कि अपने साथ भी प्रमाद करना ही है। इस संसार में भगवान की तरह माया का खेल भी निराला है। किसी के पास कम है तो किसी के पास ज्यादा है, इसमें मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है। यह अलग बात है कि अज्ञानवश वह अपने को कर्ता मान लेता है। इसी कारण वह कभी प्रमाद तो कभी अहंकार के भाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है।
                        आज हम देश के हालात देखें तो यह बात समझ में आ जायेगी कि जिन लोगों के पास धन, प्रतिष्ठा और पद की उपलब्धि है वह दूसरे को अपने से हेय समझते हैं। नतीजा यह है कि आम इंसानों में उनके प्रति विद्रोह के बीज पड़ गये हैं। शिखर पुरुषों को यह भ्रम है कि आम आदमी उनसे जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्र के बंटवारे के कारण उनसे जुड़े हैं जो कि उनके किराये के बुद्धिजीवी बनाकर रखते हैं। मगर सच तो यह है कि शिखर पुरुषों से अब किसी की सहानुभूति नहीं है। भले ही प्रचार माध्यम कितने भी दावा करें कि जनता प्रसिद्धि लोगों को देखना और सुनना चाहती है। अब तो हर आदमी यह जान गया है कि शिखर पर अब बिना ढोंग, पाखंड या बेईमानी के कोई नहीं पहुंच सकता। अगर ऐसा न होता तो देश के अनेक शिखर पुरुष अपने घरों के बाहर सुरक्षा उपाय नहीं करते। इतना ही नहीं अनेक तो राह चलते हुए भी सुरक्षा लेकर चलते हैं। इसका मतलब सीधा है कि अपने ही कारनामों को उनके अंदर भय व्याप्त है। गरीबों से भरे देश में सुरक्षा एक मुद्दा बन गयी है।
फिर अब शिखर पर भी झगड़े होने लगे हैं। एक जाता है तो दूसरा आ जाता है। यह अस्थिरता इसलिये हैं क्योंकि प्रमाद और अहंकार में लगे शिखर पुरुष जल्दी जल्दी अपना आकर्षण खो देते हैं। शिखर बैठकर वह अपने वैभव का प्रदर्शन कर वह एक दूसरे को प्रभावित तो कर सकते हैं पर आम आदमी को नहीं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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श्री गुरुग्रंथ साहिब से-श्रेष्ठ बेटी दहेज में केवल भक्ति मांगती है (shri guru granth sahib se-doughter and dowry sistem)


‘हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
दहेज प्रथा पर ही प्रहार करते हुए यह भी कहा गया है कि
होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
इसका आशय यह है कि ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे यहां विवाद एक धार्मिक संस्कार माना जाता है मगर जब लोग रिश्ते तय करते हैं तो इस तरह लगता है जैसे कि व्यापार कर रहे हों। धर्म और रीति के नाम पर लड़की की शादी में दान देने की पंरपरा को लोगों ने पुत्र पैदा करने के दाम वसूल करने की नीति में बदल दिया है। भले ही लोग यह दावा करते हों कि हमारी विवाह परंपरा श्रेष्ठ है पर इसके निर्वहन के समय पैसे का खेल खेलने का जो प्रयास होता है वह सीधी धर्म के विरुद्ध लगता है। इस पर श्रीगुरुनानक जी जो अपनी बात कही है वह सचमुच में भारतीय धर्म की परंपरा का प्रतीक है।
दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो मिटने नहीं चाहे कोई भी धर्म हो? समाज कथित रूप से इसी पर इतराता है।
इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने यहां धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं।
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हिन्दू धर्म संदेश-तप बल के अलावा उद्धार को कोई अन्य मार्ग नहीं (tapbal se uddhar-hindu dharma sandesh)


महाराज भर्तृहरि के अनुसार 
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दुराराध्याश्चामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं तु स्थूलेच्छाः सुमहति फले बद्धमनसः।
जरा देहं मृत्युर्हरति दयितं जीवितमिदं सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
हिन्दी में भावार्थ-
राजाओं का चित तो घोड़े की गति से इधर उधर भागता इसलिये उनको भला कब तक प्रसन्न रखा जा सकता है। हमारे अंदर भी ऊंचे ऊंचे पद पाने की लालसा हैं। इधर शरीर को बुढ़ापा घेर रहा है। ऐसे में लगता है कि विवेकवान पुरुषों के लिये तप बल के अलावा अन्य कोई उद्धार का मार्ग नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मनुष्य का यह मूल स्वभाव है कि वह हमेशा  ही अपने लिये मान पाना चाहता है और इसलिये ही धन संग्रह करने के साथ प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये पूरा जीवना गुज़ार देता है।  उच्च पद पाने की उसमें महत्वाकांक्षा हमेशा बलवती रहती है और इसलिये ही अवने अपने से उच्च लोगों की चाटुकारित करने को हमेशा तैयार रहता है।
इस संसार में धनी, उच्च पदस्थ, तथा बाहुबली आदमी की कितनी भी सेवा कर लीजिये पर उनको प्रसन्न नहीं किया जा सकता क्योंकि उनका मन तो घोड़े की तरह दौड़ता है। उनकी सेवा में रत इंसान को लगता है कि स्वामी उनकी तरफ देख रहा है पर सच तो यह है कि राजसी लोगों के पास ढेर सारे सेवक होते हैं और उनमें किसी को वह विशिष्ट नहीं मानते। इतना ही नहीं अगर उनकी सेवा कोई ऐसा व्यक्ति करे जो उनके यहां कार्यरत न हो, उसको लेकर भी उनके मन में यह शंका उत्पन्न होती है कि वह भविष्य में हमारी सेवा पाने का प्रयास कर रहा है।
किसी आदमी को एक पद मिल गया तो फिर उससे बड़े पद की चाहत उसमें होने लगती है। वह भी मिल गया तो फिर उससे ऊंचे पद की आस करने लगता है। यह इच्छा अनंत है और इसका कहीं अंत नहीं है। आदमी अपने भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति में लगा रहता कि उसे बुढ़ापा घेर लेता है। ऐसे में तो केवल एक ही बात उचित लगती है कि अपना समय सत्संग, भक्ति तथा अध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण करने में भी बिताना चाहिये ताकि तत्व ज्ञान होने पर इस संसार में दुःख तथा मानसिक संताप से छुटाकारा पाया जा सके।

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श्रीगुरुवाणी-दहेज में हरि का नाम मांगे वही श्रेष्ठ पुत्री (hari ka nam mange vah shreshth purti-shri guruvani


‘हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
दहेज प्रथा पर ही प्रहार करते हुए यह भी कहा गया है कि
होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
इसका आशय यह है कि ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे यहां विवाद एक धार्मिक संस्कार माना जाता है मगर जब लोग रिश्ते तय करते हैं तो इस तरह लगता है जैसे कि व्यापार कर रहे हों। धर्म और रीति के नाम पर लड़की की शादी में दान देने की पंरपरा को लोगों ने पुत्र पैदा करने के दाम वसूल करने की नीति में बदल दिया है। भले ही लोग यह दावा करते हों कि हमारी विवाह परंपरा श्रेष्ठ है पर इसके निर्वहन के समय पैसे का खेल खेलने का जो प्रयास होता है वह सीधी धर्म के विरुद्ध लगता है। इस पर श्रीगुरुनानक जी जो अपनी बात कही है वह सचमुच में भारतीय धर्म की परंपरा का प्रतीक है।
दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो मिटने नहीं चाहे कोई भी धर्म हो? समाज कथित रूप से इसी पर इतराता है।
इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने यहां धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं।
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चाणक्य दर्शन-धीरज हो तो गरीबी का दर्द नहीं होता


अधमा धनमिच्छन्ति मानं च मध्यमाः।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।
हिंदी में भावार्थ-
अधम प्रकृत्ति का मनुष्य केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम प्रकृत्ति के धन के साथ मान की तथा उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हैं।


दरिद्रता श्रीरतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीतया विराजते।।
हिंदी में भावार्थ-
अगर मनुष्य में धीरज हो तो गरीबी की पीड़ा नहीं होती। घटिया वस्त्र धोया जाये तो वह भी पहनने योग्य हो जाता है। बुरा अन्न भी गरम होने पर स्वादिष्ट लगता है। शील स्वभाव हो तो कुरूप व्यक्ति भी सुंदर लगता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस विश्व में धन की बहुत महिमा दिखती है पर उसकी भी एक सीमा है। जिन लोगों के अपने चरित्र और व्यवहार में कमी है और उनको इसका आभास स्वयं ही होता है वही धन के पीछे भागते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि वह स्वयं किसी के सहायक नहीं है इसलिये विपत्ति होने पर उनका भी कोई भी अन्य व्यक्ति धन के बिना सहायक नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने ऊपर यकीन तो करते हैं पर फिर भी धन को शक्ति का एक बहुत बड़ा साधन मानते हैं। उत्तम और शक्तिशाली प्रकृत्ति के लोग जिन्हें अपने चरित्र और व्यवहार में विश्वास होता है वह कभी धन की परवाह नहीं करते।
धन होना न होना परिस्थितियों पर निर्भर होता है। यह लक्ष्मी तो चंचला है। जिनको तत्व ज्ञान है वह इसकी माया को जानते हैं। आज दूसरी जगह है तो कल हमारे पास भी आयेगी-यह सोचकर जो व्यक्ति धीरज धारण करते हैं उनके लिये धनाभाव कभी संकट का विषय नहीं रहता। जिस तरह पुराना और घटिया वस्त्र धोने के बाद भी स्वच्छ लगता है वैसे ही जिनका आचरण और व्यवहार शुद्ध है वह निर्धन होने पर भी सम्मान पाते हैं। पेट में भूख होने पर गरम खाना हमेशा ही स्वादिष्ट लगता है भले ही वह मनपसंद न हो। इसलिये मन और विचार की शीतलता होना आवश्यक है तभी समाज में सम्मान प्राप्त हो सकता है क्योंकि भले ही समाज अंधा होकर भौतिक उपलब्धियों की तरफ भाग रहा है पर अंततः उसे अपने लिये बुद्धिमानों, विद्वानों और चारित्रिक रूप से दृढ़ व्यक्तियों की सहायता आवश्यक लगती है। यह विचार करते हुए जो लोग धनाभाव होने के बावजूद अपने चरित्र, विचार और व्यवहार में कलुषिता नहीं आने देते वही उत्तम पुरुष हैं। ऐसे ही सज्जन पुरुष समाज में सभी लोगों द्वारा सम्मानित होते हैं।  इसलिए सज्जनता और धीरज  का कभी त्याग नहीं करना चाहिए। 

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कबीर के दोहे-दुष्टों की निंदा के बजाय साधुओं की प्रशंसा में वक्त बिताएं (kabir ke dohe-ninda aur prashansa)


काहू को नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय।
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय।।
       संत कबीरदास का कहना है कि चाहे व्यक्ति अच्छा हो या बुरा उसकी निंदा न करिये। इसमें समय नष्ट करने की बजाय उस आदमी की बार बार प्रशंसा करिये जिसके लक्षण साधुओं की तरह हों।
सातो सागर मैं फिर, जम्बुदीप दै पीठ।
परनिंदा नाहीं करै, सो कोय बिरला दीठ।।
       संत कबीरदास जी कहते हैं कि मैं सारा संसार फिरा पर ऐसा कोई नहीं मिला जो परनिंदा न करता हो। ऐसा तो कोई विरला ही होता है।
       वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य का स्वभाव है परनिंदा करना। सच बात तो यह है कि हर मनुष्य अपने घर संसार के कामों में व्यस्त रहता है पर यह चाहता है कि लोग उसे भला आदमी कहें। ऐसा सम्मान तभी प्राप्त हो सकता है जब अपने जीवन से समय निकालकर कोई आदमी दूसरों का काम करे और सुपात्र को दान देने के साथ ही असहाय की सहायत के लिये तत्पर रहे। यह काम विरले ही लोग करते हैं और सामान्य मनुष्य उनको फालतु या बेकार कहकर उनकी अनदेखी करते हैं अलबत्ता उनको मिलने वाली इज्जत वह भी पाना चाहते हैं। ऐसे में होता यह है कि लोग आत्मप्रचार करते हुए दूसरों की निंदा करते हैं। अपनी लकीर खींचने की बजाय थूक से दूसरे की लकीर को छोटा करते हैं। दुनियां में ऐसे लोग की बहुतायत है पर संसार में भले लोग भी कम नहीं है। सच बात तो यह है ऐसे ही परोपकारी, दानी, ज्ञान और कोमल स्वभाव लोगों की वजह से यह संसार भले लोगों की भलाई के कारण चल रहा है। सामान्य मनुष्य तो केवल अपना घर ही चला लें बहुत है।
       अधिकतर मनुष्य अपने काम में व्यस्त हैं पर सम्मान पाने का मोह किसे नहीं है। कहीं भी किसी के सामने बैठ जाईये वह आत्मप्रवंचना करता है और उससे भी उसका मन न भरे तो किसी दूसरे की निंदा करने लगता है। कबीरदास जी के कथनों पर विचार करें तो यह अनुभव होगा कि हम ऐसी गल्तियां स्वयं ही करते हैं। अतः अच्छा यही है कि खाली समय में कोई परोपकार करें या अध्ययन एवं भक्ति के द्वारा अपना मन शुद्ध करें। दूसरों की निंदा से कुछ हासिल नहीं होने वाला। हां, अगर कोई भला काम करता है तो उसकी प्रशंसा करें। एक बार नहीं बार बार करें। संभव है उसके गुण अपने अंदर भी आ जायें। याद रखिये दूसरे के अवगुणों की चर्चा करते हुए वह हमारे अंदर भी आ जाते हैं।  शायद इसलिए ही कहा जाता है कि बुरा मत कहो,बुरा मत देखो और बुरा मत सुनो।  साथ ही यह भी कहा जाता है कि सबसे अच्छा बर्ताव करो पता नहीं कब किसकी जरूरत पड़ जाए।

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चाणक्य नीति-स्वयं अपने गुणों का बखान करना अल्पज्ञानी का काम (apni tarif svyan na karen-hindi sandesh)


पर-प्रौक्तगुणो वस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिसके गुणों की प्रशंसा अन्य लोग भी करें उसका ज्ञान भले ही अल्प हो पर फिर भी उसे गुणवान माना जायेगा। इसके विपरीत जिसे ज्ञान में पूर्णता प्राप्त हो वह अगर स्वयं उनका बखान करे तो गुणहीन माना जायेगा भले ही वह साक्षात देवराज इंद्र ही क्यों न हो।
गुणैरुत्तमतां याति नीच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडायते।।
हिन्दी में भावार्थ-
ऊंचे स्थान पर बैठने से कोई ऊंचा या महान नहीं हो जाता। गुणवान ही ऊंचा माना जाता। महल की अटारी पर बैठने से कौआ, गरुड़ नहीं कहलाने लगता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल की भौतिक दुनियां में संचार साधन अत्यंत प्रभावशाली हो गये हैं। अखबार, टीवी चैनल, मोबाईल, कंप्यूटर तथा अन्य साधनों से अधिकतर लोग जुड़े हुए हैं। अपनी व्यवसायिक बाध्यताओं के चलते प्रचार प्रबंधकों ने फिल्म, राजनीति, टीवी चैनल, साहित्य, कला, तथा पत्रकारिता में अनेक मिथक स्थापित कर दिये हैं। दुनियां भर में ऐसे मिथक एक दो हजार से अधिक नहीं होंगे। अपने ही देश में भी सौ दो सौ ऐसे अधिक प्रभावशाली नाम और चेहरे नहीं होंगे जो प्रचार माध्यमों में छाये हुए हैं। प्रचार माध्यम उनके चेहरे, नाम और बयान प्रस्तुत कर लोगों को व्यस्त रखते हैं। यह देखकर आजकल के अनेक युवा भ्रमित हो जाते हैं। उनको लगता है कि यह काल्पनिक चरित्र ही जीवन का सत्य है। राजनीति, अर्थतंत्र, प्रशासन, साहित्य, पत्रकारिता, फिल्म तथा कला के शिखर पर स्थापित लोग त्रिगुणमयी माया के गुणों से परे हैं-यह भ्रम पता नहीं कैसे लोगों में हो जाता है। जबकि सच यह है कि यह शिखर ही अपने आप में मायावी हैं इसलिये इन पर बैठे लोगों के सात्विक होने की आशा ही करना बेकार है। बाजार और प्रचार केवल उनके चेहरे, नाम और बयान भुनाने का प्रयास करते हैं। फिल्मों के कल्पित नायक सदी के महानायक और गायक सुर सम्राट कहलाते हैं पर सच यह है कि उनका कोई सामाजिक योगदान नहीं होता।
महान वही है जिसका कृत्य समाज में चेतना, आत्मविश्वास तथा दृढ़ता लाने का काम करता है। इतना ही नहीं उनका बदलाव लंबे समय तक रहता है। कहने का तात्पर्य यही है कि आर्थिक, सामाजिक तथा सामाजिक शिखरों पर विराजमान लोगों को महान समझने की गलती नहीं करना चाहिये। वह भी आम आदमी की तरह होते हैं। जिस तरह आम आदमी अपने परिवार की चिंता करता है वैसे ही वह करते हैं। महान आदमी वह है जो पूरी तरह से समाज की चिंता करते हुए उसे हित के लिये काम करता है। बड़े आदमी बनने के लिये यह आवश्यक है कि आप दूसरे लोगों के काम निस्वार्थ भाव से करें और अहंकार भी न दिखायें।
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चाणक्य नीति शास्त्र-कुसंस्कारी लोगों का साथ करने से यश नहीं मिलता


अर्थार्थीतांश्चय ये शूद्रन्नभोजिनः।
त द्विजः कि करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः।।

हिंदी में भावार्थ- नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अर्थोपासक विद्वान समाज के लिये किसी काम के नहीं है। वह विद्वान जो असंस्कारी लोगों के साथ भोजन करते हैं उनको यश नहीं मिल पता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- इस देश का अध्यात्मिक ज्ञान सदेशों के अनमोल खजाने से भरा पड़ा है। उसका कारण यह है कि प्राचीन विद्वान अर्थ के नहीं बल्कि ज्ञान के उपासक थे। उन्होंने अपनी तपस्या से सत्य के तत्व का पता लगाया और इस समाज में प्रचारित किया। आज भी विद्वानों की कमी नहीं है पर प्रचार में उन विद्वानों को ही नाम चमकता है जो कि अर्थोपासक हैं। यही कारण है कि हम कहीं भी जाते हैं तो सतही प्रवचन सुनने को मिलते हैं। कथित साधु संत सकाम भक्ति का प्रचार कर अपने भोले भक्तों को स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। यह साधु लोग न केवल धन के लिये कार्य करते हैं बल्कि असंस्कारी लोगों से आर्थिक लेनदेने भी करते हैं। कई बार तो देखा गया है कि समाज के असंस्कारी लोग इनके स्वयं दर्शन करते हैं और उनके दर्शन करवाने का भक्तों से ठेका भी लेते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक चर्चा तो बहुत होती है पर ज्ञान के मामले में हम सभी पैदल हैं।
समाज के लिये निष्काम भाव से कार्य करते हुए जो विद्वान सात्विक लोगों के उठते बैठते हैं वही ऐसी रचनायें कर पाते हैं जो समाज में बदलाव लाती हैं। असंस्कारी लोगों को ज्ञान दिया जाये तो उनमें अहंकार आ जाता है और वह अपने धन बल के सहारे भीड़ जुटाकर वहां अपनी शेखी बघारते हैं। इसलिये कहा जाता है कि अध्यात्म और ज्ञान चर्चा केवल ऐसे लोगों के बीच की जानी चाहिये जो सात्विक हों पर कथित साधु संत तो सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा कर व्यवसाय कर रहे हैं। वह अपने प्रवचनों में ही यह दावा करते नजर आते हैं कि हमने अमुक आदमी को ठीक कर दिया, अमुक को ज्ञानी बना दिया।
अतः हमेशा ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लये ऐसे लोगों को गुरु बनाना चाहिये जो एकांत साधना करते हों और अर्थोपासक न हों। उनका उद्देश्य निष्काम भाव से समाज में सामंजस्य स्थापित करना हो। वैसे भी जीवन में संस्कारों के बहुत महत्व है और संगत का प्रभाव आदमी पर पड़ता है। इसलिये न केवल संस्कारवान लोगों के साथ संपर्क रखना चाहिये बल्कि जो लोग कुसंस्कारी लोगों में उठते बैठते हैं उनसे भी अधिक संपर्क नहीं रखना चाहिये।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चाणक्य नीति संदेश-गुणों की पहचान न हो तो लोग निंदा करते हैं (hindu dharm sandesh-gunon ki pahchan)


न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्ष स तं सदा निन्दति नाऽत्र चित्रम्।
यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ताः परित्यज्य विभति गुंजाः।।
हिंदी में भावार्थ- अगर कोई मनुष्य किसी वस्तु या अन्य मनुष्य के गुणों को नहीं पहचानता तो तो उसकी निंदा या उपेक्षा करता है। ठीक उसी तरह जैसे जंगल में रहने वाली कोई स्त्री हाथी के मस्तक से मिलने वाली मोतियों की माला मिलने पर भी उसे त्यागकर कौड़ियों की माला पहनती है।
अकृष्टफलमूलेन वनवासरतः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
वह विद्वान ऋषि कहलाता है जो जमीन को जोते बिना पैदा हृए फल एवं कंधमूल आदि खाकर हमेशा वन में जीवन व्यतीत करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य का कहना है कि अगर किसी व्यक्ति या वस्तु के गुणों का ज्ञान नहीं है तो उसकी उपेक्षा हो ही जाती है। यह स्थिति हम अपने भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के बारे में आज समाज द्वारा बरती जा रही उपेक्षा के बारे में समझ सकते हैं। हमारे देश के प्राचीन और आधुनिक ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों ने बड़े परिश्रम से हमें जीवन और सृष्टि के रहस्यों को जानकर उसका ज्ञान हमारे लिये प्रस्तुत किया पर हमारे देश के विद्वानों ने उसकी उपेक्षा कर दी। यही कारण है कि आज हमारे देश में विदेशी विद्वानों के ज्ञान की चर्चा खूब होती है। देश में पश्चिम खान पान ही सामान्य जीवन की दिनचर्या का भाग बनता तो ठीक था पर वहां से आयातित विचार और चिंतन ने हमारी बौद्धिक क्षमता को लगभग खोखला कर दिया है। यही कारण है कि सामान्य व्यक्ति को शिक्षित करने वाला वर्ग स्वयं भी दिग्भ्रमित है और भारतीय अध्यात्म उसके लिये एक फालतू का ज्ञान है जिससे वर्तमान सभ्यता का कोई लेना देना नहीं है।
जबकि इसके विपरीत पश्चिम में भारतीय अध्यात्म ज्ञान की पुस्तकों पर अब जाकर अनुसंधान और विचार हो रहा है। अनेक महापुरुषों के संदेश वहां दिये जा रहे हैं। हमारी स्थिति भी कुछ वैसी है जैसे किसी घर में हीरों से भरा पात्र हो पर उसे पत्थर समझकर खेत में चिड़ियों को भगाने के लिये कर रहा हो। हमें यह समझना चाहिए कि अज्ञान और मोह में मनुष्य के लिये हमेशा तनाव का कारण बनता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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