Tag Archives: दर्शन

हिन्दू धर्म संदेश-योग साधना से मन मजबूत होता है


प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।
हिन्दी में भावार्थ-
प्राणवायु को बाहर निकालने और अंदर रोकने के निरंतर अभ्यास चित्त निर्मल होता है।
विषयवती वा प्रवृत्तिरुपन्न मनसः स्थितिनिबन्धनी।।
हिन्दी में भावार्थ-
विषयवाली प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर भी मन पर नियंत्रण रहता है।
विशोका वा ज्योतिवस्ती।
हिन्दी में भावार्थ-
इसके अलावा शोकरहित प्रवृत्ति से मन नियंत्रण में रहता है।
वीतरागविषयं वा चित्तम्।
हिन्दी में भावार्थ-
वीतराग विषय आने पर भी मन नियंत्रण में रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय योग दर्शन में प्राणायाम का बहुत महत्व है। योगासनों से जहां देह के विकार निकलते हैं वहीं प्राणायाम से मन तथा विचारों में शुद्धता आती है। जैसा कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते आ रहे हैं कि इस विश्व में मनोरोगियों का इतना अधिक प्रतिशत है कि उसका सही आंकलन करना संभव नहीं है। अनेक लोगों को तो यह भी पता नहीं कि वह मनोविकारों का शिकार है। इसका कारण यह है कि आधुनिक विकास में भौतिक सुविधाओं की अधिकता उपलब्धि और उपयेाग के कारण सामान्य मनुष्य का शरीर विकारों का शिकार हो रहा है वहीं मनोरंजन के नाम पर उसके सामने जो दृश्य प्रस्तुत किये जा रहे है वह मनोविकार पैदा करने वाले हैं।
ऐसी अनेक घटनायें आती हैं जिसमें किसी फिल्म या टीवी चैनल को देखकर उनके पात्रों जैसा अभिनय कुछ लोग अपनी जिंदगी में करना चाहते हैं। कई लोग तो अपनी जान गंवा देते हैं। यह तो वह उदाहरण सामने आते हैं पर इसके अलावा जिनकी मनस्थिति खराब होती है और उसका दुष्प्रभाव मनुष्य के सामान्य व्यवहार पर पड़ता है उसकी अनुभूति सहजता से नहीं हो जाता।
प्राणायाम से मन और विचारों में जो दृढ़ता आती है उसकी कल्पना ही की जा सकती है मगर जो लोग प्राणायाम करते और कराते हैं वह जानते हैं कि आज के समय में प्राणायाम ऐसा ब्रह्मास्त्र है जिससे समाजको बहुत लाभ हो सकता है।

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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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रहीम संदेश-परमात्मा का नाम न लेने पर विषय लपेट लेते हैं (ram ka nam aur vishay-hindi sandesh)


रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय
पसु खर खात सवाद सों, गुर बुलियाए खाय

कविवर रहीम कहते है कि भगवान राम को हृदय में धारण करने की बजाय लोग भोग और विलास में डूबे रहते है। पहले तो अपनी जीभ के स्वाद के लिए जानवरों की टांग खाते हैं और फिर उनको दवा भी लेनी पड़ती है।

वर्तमान सदंर्भ में व्याख्या-वर्तमान समय में मनुष्य के लिये सुख सुविधाएं बहुत उपलब्ध हो गयी है इससे वह शारीरिक श्रम कम करने लगा हैं शारीरिक श्रम करने के कारण उसकी देह में विकार उत्पन्न होते है और वह तमाम तरह की बीमारियों की चपेट में आ जाता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन भी रहता है। इसके अलावा जैसा भोजन आदमी करता है वैसा ही उसका मन भी होता है।

आज कई ऐसी बीमारिया हैं जो आदमी के मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न होती है। इसके अलावा मांसाहार की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। मुर्गे की टांग खाने के लिय लोग बेताब रहते हैं। शरीर से श्रम न करने के कारण वैसे ही सामान्य भोजन पचता नहीं है उस पर मांस खाकर अपने लिये विपत्ति बुलाना नहीं तो और क्या है? फिर लोगों का मन तो केवल माया के चक्कर में ही लगा रहता है। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि अगर कोई आदमी एक ही तरफ ध्यान लगाता है तो उसे उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसे विकास घेर लेते हैं। माया के चक्कर से हटकर आदमी थोड़ा राम में मन लगाये तो उसका मानसिक व्यायाम भी हो, पर लोग हैं कि भगवान श्रीराम चरणों की शरण की बजाय मुर्गे के चरण खाना चाहते हैं। यह कारण है कि आजकल मंदिरों में कम अस्पतालों में अधिक लोग शरण लिये होते हैं। भगवान श्रीराम के नाम की जगह डाक्टर को दहाड़ें मारकर पुकार रहे होते है।

अगर लोग शुद्ध हृदय से राम का नाम लें तो उनके कई दर्दें का इलाज हो जाये पर माया ऐसा नहीं करने देती वह तो उन्हें डाक्टर की सेवा कराने ले जाती है जो कि उसके भी वैसे ही भक्त होते हैं जैसे मरीज। फिर विषय आदमी के मन में ऐसे विचरते हैं कि वह पूरा जीवन यह भ्रम पाल लेता है कि यही सत्य है। वह उससे मुक्ति तो तब पायेगा जब वह अपनी सोच के कुंऐं से मुक्त हो। जब तक राम का नाम स्मरण न करे तब तक वह इससे मुक्त भी नहीं हो सकता।
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विदुर नीति-कटुवाणी बोलने से अनर्थ होता है-katu vani se anarth-vidur niti


अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता।
सैव दुर्भाषिता राजन्नर्थायोपपद्यते।।
हिंदी में भावार्थ-अच्छे और मधुर ढंग से कही हुई बात से सभी का कल्याण होता है पर यदि कटु वाक्य बोले जायें तो महान अनर्थ हो जाता है।

वाक्संयमो हि नपते सुदुष्करतमो मतः।
अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यं बहु भाषितम्।
हिंदी में भावार्थ-
मुख से वाक्य बोलने पर संयम रखना तो कठिन है पर हमेशा ही अर्थयुक्त तथा चमत्कारपूर्ण
वाणी भी अधिक नहीं बोली जा सकती
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-यह सच है कि अपनी वाणी पर सदैव संयम रखना कठिन है। दूसरा यह भी कि हमेशा अपने मुख से चमत्कार पूर्ण वाक्य निकलें यह संभव नहीं है। पांच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्तियां हमेशा अपना घर किये बैठी हैं और जब तक आदमी उन पर दृष्टि रखता है तभी तब नियंत्रण में रहती हैं। जहां आदमी ने थोड़ा दिमागी आलस्य दिखाया उनका आक्रमण हो जाता है और मनुष्य उनके प्रभाव में अपने ही मुख से अंटसंट बकने लगता है। आत्मनिंयत्रण करना जरूरी है पर पूर्ण से करना किसी के लिये संभव नहीं है। हम हमेशा अच्छा बोलने का प्रयत्न करें पर दूसरे लोग कभी न कभी अपने व्यवहार से उत्तेजित कर गलत बोलने को बाध्य कर ही देते हैं।

मधुर स्वर और प्रेमभाव से कही गयी बात का प्रभाव होता है यह सत्य है। इसी तरह ही अपने जीवन को सहजता से व्यतीत किया जा सकता है। कठोर एवं दुःख देने वाली वाणी बोलकर भले ही हम अपने अहं की शांति कर लें पर कालांतर में वह स्वयं के लिये ही बहुत कष्टदायी होती है। यह तय है कि हम अपनी मधुर वाणी से दस काम किसी से करवा सकते हैं पर कठोर वाणी से किसी को कष्ट पहुंचाकर स्वयं भी चैन से नहीं बैठ सकते। प्रयास तो यही करना चाहिये कि जब भी हम अपने मुख से कोई शब्द निकालें तो वह दूसरे को प्रिय लगे। जीवन में आनंद तथा प्रतिष्ठा पाने का यही एक तरीका है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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संत कबीरदास के दोहे- दूसरे की पीड़ा मूर्ख लोग नहीं समझते (kabir sandesh in hindi)


         पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष के , भिस्त बसै क्यौं नांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।

         वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।

आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगों में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये । आजकल विश्व में अहिंसा का आशय केवल ; मनुष्यों के प्रति हिंसा निषिद्ध करने से लिया जाता है जबकि अहिंसा का वास्तविक आशय समस्त जीवों के प्रति हिंसा न करने से है। किसी को मानसिक पीड़ा देना भी हिंसा के श्रेणी में आता है।
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रहीम सन्देश-राम का नाम लेने वालों को भी माया फंसाए रहती है (ram ka nam aur maya-rahim ke dohe)


रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय
पसु खर खात सवाद सों, गुर बुलियाए खाय

कविवर रहीम कहते है कि भगवान राम को हृदय में धारण करने की बजाय लोग भोग और विलास में डूबे रहते है। पहले तो अपनी जीभ के स्वाद के लिए जानवरों की टांग खाते हैं और फिर उनको दवा भी लेनी पड़ती है।

वर्तमान सदंर्भ में व्याख्या-वर्तमान समय में मनुष्य के लिये सुख सुविधाएं बहुत उपलब्ध हो गयी है इससे वह शारीरिक श्रम कम करने लगा हैं शारीरिक श्रम करने के कारण उसकी देह में विकार उत्पन्न होते है और वह तमाम तरह की बीमारियों की चपेट में आ जाता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन भी रहता है। इसके अलावा जैसा भोजन आदमी करता है वैसा ही उसका मन भी होता है।

आज कई ऐसी बीमारिया हैं जो आदमी के मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न होती है। इसके अलावा मांसाहार की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। मुर्गे की टांग खाने के लिय लोग बेताब रहते हैं। शरीर से श्रम न करने के कारण वैसे ही सामान्य भोजन पचता नहीं है उस पर मांस खाकर अपने लिये विपत्ति बुलाना नहीं तो और क्या है? फिर लोगों का मन तो केवल माया के चक्कर में ही लगा रहता है। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि अगर कोई आदमी एक ही तरफ ध्यान लगाता है तो उसे उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसे विकास घेर लेते हैं। माया के चक्कर से हटकर आदमी थोड़ा राम में मन लगाये तो उसका मानसिक व्यायाम भी हो, पर लोग हैं कि भगवान श्रीराम चरणों की शरण की बजाय मुर्गे के चरण खाना चाहते हैं। यह कारण है कि आजकल मंदिरों में कम अस्पतालों में अधिक लोग शरण लिये होते हैं। भगवान श्रीराम के नाम की जगह डाक्टर को दहाड़ें मारकर पुकार रहे होते है।

अगर लोग शुद्ध हृदय से राम का नाम लें तो उनके कई दर्दें का इलाज हो जाये पर माया ऐसा नहीं करने देती वह तो उन्हें डाक्टर की सेवा कराने ले जाती है जो कि उसके भी वैसे ही भक्त होते हैं जैसे मरीज। अब तो दुनिया में डाक्टर हो या मरीज, गुरु हो या चेला और दर्शक हो या अभिनेता सभी राम का नाम लेते हैं पर उनके हृदय में माया का वास होता है।
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रहीम सन्देश-विपत्ति में अपने लोगों की सहानुभूति मिल जाए तो अच्छा (vipati aur apne-rahim ke dohe)


दुरनि परे रहीम कहिए भूलत सब पहिचानि
सोच नहीं वित हानि को, जो न होन हित हानि

कविवर रहीम कहते है कि जीवन में बुरे दिन आने पर सब लोग पहचानना भी भूल जाते हैं। ऐसे समय में अपने मित्रों और रिश्तदारों से सहानुभूति मिल जाये तो अच्छा लगता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- वर्तमान समय में जब तक किसी के पास धन है लोगों का जमावड़ा उसके आसपास रहता है और जैसे ही उसके बुरे दिन आये तो सब मूंह फेर जाते हैं। कोई भी मित्र या रिश्तेदार आर्थिक दृष्टि के परेशान किसी भी आदमी के पास फटकने को तैयार नहीं होता। ऐसे में अगर कोई रिश्तेदार या मित्र थोड़ी ही सहानुभूति जताए तो मानसिक रूप के सुख मिलता है पर आजकल वह संभव नहीं हैं। क्योंकि जब पेसा होता है तो आदमी अपना अहंकार दिखाता है और लोग उससे नाराज हो जाते हैं और इसलिये बाद में उससे दूरी बना लेते हैं।

जो लोग संपन्नता और सुख के समय विनम्र रहते हैं उनको इस स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। इसके साथ ही अगर अपने पास अगर धन,वैभव या कोई बड़ी उपलब्धि हो और लोग हमारा सम्मान करते हों तो यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि वह हमारे निजी गुणों की वजह से है।

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कबीर के दोहे: सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है (sant kabir ke dohe-sabhi ka dard eik jaisa)


पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष के , भिस्त बसै क्यौं नांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।

आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगों में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये । आजकल विश्व में अहिंसा का आशय केवल ; मनुष्यों के प्रति हिंसा निषिद्ध करने से लिया जाता है जबकि अहिंसा का वास्तविक आशय समस्त जीवों के प्रति हिंसा न करने से है।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-विद्वान को राज्य का आश्रय मिलता है


उतमाभिजनोपेतानम न नीचैः सह वर्द्धयेतु।
कृशीऽपि हिवियेकहो याति संश्रयणीयाताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो उत्तम गुणों वाले हों उनको नीच गुणों वालों से मेल नहीं करना चाहिये। इसमें संदेह नहीं है कि संकट में आये उत्तम गुणी विद्वान को राज्य का आश्रय अवश्य प्राप्त होता है।

निरालोके हिः लोकेऽस्मिन्नासते तत्रपण्डिताः।
जात्यस्य हिं मणेयंत्र काचेन समता मताः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति ज्ञान के अंधेरे में रहते हैं उनके समीप विद्वान लोग नहीं बैठते। जहां भला मणि हो वहां कांच के साथ कैसा व्यवहार किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आदमी को अपने गुणों की पहचान करते हुए समान गुणों वाले लोगों से ही मेल मिलाप करना चाहिये। अगर कोई व्यक्ति अधिक शिक्षित व्यक्ति है और वह अशिक्षितों में बैठकर अपने ज्ञान का बखान करता है तो वह लोग उसकी मजाक बनाते हैं। कई तो कह देते हैं कि ‘पढ़े लिखे आदमी किस काम के?’
उसी तरह अशिक्षित व्यक्ति जब शिक्षितों के साथ बैठता है तो वह उसकी मजाक उड़ाते हैं कि देखोे बेचारा यह पढ़ नहीं पाया। इस तरह समान स्तर न होने पर आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति मनुष्य में स्वाभाविक रूप से होती है।
कहने को कहा जाता है कि यहां झूठे आदमी का बोलबाला है पर यह एक वहम है। अगर व्यक्ति शिक्षित, ज्ञानी और कर्म में निरंतर अभ्यास में रत रहने वाला है तो विपत्ति आने पर उसे राज्य का संरक्षण अवश्य प्राप्त होता है। बेईमानी, भ्रष्टाचार और अनैतिक व्यापार करने वालों को हमेशा राज्य से भय लगा रहता है। उनके पास बहुत सारा धन होने के बावजूद उनका मन अपने पापों से त्रस्त रहता है। कहते हैं कि पाप की हांडी कभी न कभी तो फूटती है। यही हालत अनैतिक आचरण और कर्म से कमाने वालों की है। वह अगर इस प्रथ्वी के दंड से बचे भी रहें तो परमात्मा के दंड से बचने का उनके पास कोई उपाय नहीं है। वह अनैतिक ढंग से धन कमाकर अपने परिवार का भरण भोषण करते हैं पर उनके साथ शारीरिक विकार लगे रहते हैं। इसके अलावा उनके काले धन के प्रभाव से उनके परिवार के सदस्यों का आचरण भी निकृष्टता और अहंकार से परिपूर्ण हो जाता है जिसका बुरा परिणाम आखिर उनकेा ही भोगना पड़ता है।
उसी तरह जो लोग अपने जीवन में नैतिकता और ईमानदारी के सिद्धांतों का पालन करते हैं उनके परिवार सदस्यों पर भी उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है। चाहे लाख कहा जाये सत्य के आगे झूठ की नहीं चल सकती जैसे मणि के आगे कांच का कोई मोल नहीं रह जाता।
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विदुर नीति: देर तक सुने और तत्काल समझे वही है विद्वान


1.संपूर्ण भौतिक पदार्थों की वास्तविकता का जो ज्ञान रखता है तथा सभी कार्यों को संपन्न करने का ढंग तथा उसका परिणाम जानता है वही विद्वान कहलाता है।
2.जिसकी वाणी में वार्ता करते हुए कभी बाधा नहीं आती तथा जो विचित्र ढंग से बात करता है और अपने तर्क देने में जिसे निपुणता हासिल है वही पंडित कहलाता है।
3.जिनकी बुद्धि विद्वता और ज्ञान से परिपूर्ण है वह दुर्लभ वस्तु को अपने जीवन में प्राप्त करने की कामना नहीं करते। जो वस्तु खो जाये उसका शोक नहीं करते और विपत्ति आने पर घबड़ाते नहीं हैं। ऐसे व्यक्ति को ही पण्डित कहा जाता है।
4.जो पहले पहले निश्चय कर अपना कार्य आरंभ करता है, कार्य को बीच में नहीं रोकता। अपने समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और अपने चित्त को वश में रखता है वही पण्डित कहलाता है।
5.विद्वान पुरुष किसी भी विषय के बारे में बहुत देर तक सुनता है और तत्काल ही समझ लेता है। समझने के बाद अपने कार्य से कामना रहित होकर पुरुषार्थ करने के तैयार होता है। बिना पूछे दूसरे के विषय में व्यर्थ बात नहीं करता। इसलिये वह पण्डित कहलाता है।
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स्वयं कभी छोड़ नहीं पाते पर दूसरों से कहते हैं कि अहंकार छोड़ दो-चिंतन


धर्म बेचने वालों का नारा है अंहकार छोड़ दो. उनकी बात सुनकर लोग खुश हो जाते हैं. पांच तत्वों से बनी इस देह में मन बुद्धि और अहंकार ही वह तत्व हैं जिनके हर जीव इस धरती पर विचरण करता है.आपने कुछ ऐसे लोग देखने होंगे जो पागल होते हैं. आप उनसे कुछ भी कहें पर वह आपकी बात पर ध्यान नहीं देंगे. मन उनके पास भी है और बुद्धि भी पर नहीं है तो अहंकार. वह खाते-पीते हैं और बात करते हुए मुस्कराते हैं पर फिर खामोश भी हो जाते हैं. उनके पास अपने मनुष्य होने का अहंकार नहीं है और वह निरीह हो जाते हैं और हर कोई उन पर तरस खाता है.

कई बार आपने देखा होगा ऊंचे मंचों पर बैठे साधू-संत अपने भक्तों से कहते हैं”अहंकार छोड़ दो”. आर फिर मुस्कराते हुए लोगों की तरफ देखते हैं जैसे कोई बहुत बड़ा राज उजागर किया है. लोग भी खुश हो जाते हैं कि उन्होने कोई बडे रहस्य से पर्दा उठाया है. उनका धर्म बेचना व्यवसाय है यह बात जानते हुए भी उसे धारण नहीं कर पाते और उनके पास जाते हैं वजह मन हो गया खाली और बुद्धि से काम लेना नहीं है तो अहंकार है कहाँ जो वह आत्ममंथन करे. विचार करे कि इस देह से अहंकार कभी जा नहीं सकता. निरंकार की उपासना करने की जा सकते हैं पर निरंकार रहा नहीं जा सकता.

मंच पर बैठ संत जो बोलते हैं और उसके बाद क्या होते हैं यह कई लोग जानते हैं. अभी जब सात बाबा रंगे हाथों काले धन को सफ़ेद बनाते हुए पकडे गए थे उनमें एक एसे बाबा भी थे जो कई बार कृष्ण कथा करते हुए श्रीगीता के बारे में बोलते हैं और एक ही नारा-अंहकार मत करो. उनकी बातों में जो अंहकार था वह देखने योग्य था और में तो उनके तारीफ करूंगा को उन्होने अपने अहंकार को नियंत्रित किया और धर्म के शिखर पर जाकर विराजमान हुए. आखर व्यवसाय चाहे कोई भी हो उसे चलाने के लिए कई तरह की चालाकी की आवश्यकता होती है उसमें अहंकार पर नियंत्रण रखना जरूरी होता है.
सभी बाबाओं के बडे आश्रम हैं और उनमें फाईव स्टार होटलों जैसी सुविधाएं है आम भक्त उनसे इतनी आसानी से नहीं मिल सकता जितना किसी धनी व्यक्ति कि लिए संभव है. वह कहते है कि’ मन को स्वच्छ रखो और बुद्धि को सात्विक क्योंकि इनको देह से अलग नहीं किया जा सकता. फिर अंहकार छोड़ने का नारा वह क्यों लगाते हैं? भगवान् श्री कृष्ण तो कहते हैं कि तीन गुणों से -सात्विक, राजसी और तामस- परे हो जाये वही योगी है. वह इन्द्रियों पर नियंत्रित करने के लिए कहते हैं जिसका आशय यह है कि अंहकार को भी वैसे ही काबू में रखा जाये जैसे बुद्धि और मन को. अहंकार देह का एक हिस्सा है जो उसके नष्ट होते तक रहता है. उस पर नियंत्रण तो किया जा सकता है पर छोडा नहीं जा सकता.

धर्म बेचने वाले तथाकथित संतों को अहंकार पर नियंत्रण की विधि नहीं मालुम इसलिए उसे छोड़ने का नारा लगते हैं-अंहकार पर नियंत्रण की विधियां मालुम होती तो वह धर्म बेचने का व्यवसाय ही नहीं कर पाते. सबसे बड़ी बात यह हैकि भगवान् श्री कृष्ण ने गीता के ज्ञान का केवल अपने भक्तों में प्रचार की अनुमति दी है और यह चाहे जहाँ उसे सुनाने लगते हैं. इस तरह देश के लोगों की मानसिकता को ही गुलाम बना दिया है . इसी कारण हमारे देश के लोगों को वाद और नारों पर चलने का लिए अभ्यास हो गया है और इसलिए यह देश बरसों तक गुलाम रहा और आज भी गुलामी से रह रहा है. जिनके पास थोडी बहुत चतुराई हैं वह यहाँ शासन उन्हीं लोगों के सहारे करते हैं जो धर्म के नाम पर नारे लगाते हैं. (क्रमश:)

यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’ पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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