Tag Archives: धर्म

रहीम संदेश-फर्जीवाड़े से कभी सम्मान नहीं मिलता


रहिमन वहां न जाइये, जहां कपट को हेत।
हम तन ढारत ढेकुली, संचित अपनी खेत।
कविवर रहीम कहते हैं कि उस स्थान पर बिल्कुल न जायें जहां कपट होने की संभावना हो। कपटी आदमी हमारे शरीर के खून को पानी की तरह चूस कर अपना खेत जोतता है/अपना स्वार्थ सिद्ध करता है।

रहिमन सीधी चाल सों, प्यादा होत वजीर।
फरजी साह न हुइ सकै, गति टेढ़ी तासीर।।
कविवर रहीम कहते हैं कि शतरंज के खेल में सीधी चाल चलते हुए प्यादा वजीर बन जाता है पर टेढ़ी चाल के कारण घोड़े को यह सम्मान नहीं मिलता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य कपट से चाहे जितनी भी भौतिक उपलब्धि प्राप्त कर ले पर समाज में उसका सम्मान बिल्कुल नहीं होता। डर और लालच के के मारे लोग दिखावे का सम्मान देते हैं पर दिल में तो सभी गालियां बकते हैं। हम देख सकते हैं कि कई वर्षों से अनेक ऐसे लोग हमारी आखों में चमक रहे हैं या चमकाये जा रहे हैं जो किसी भी दृष्टि से सज्जन नहीं है पर उनके पास ढेर सारी भौतिक उपलब्धियां हैं। उनको भगवान का अवतार या महापुरुष कहकर प्रचारित किया जाता है जबकि समाज के लोग उनको वक्र दृष्टि से देखते हैं। यह अलग बात है कि सामने कोई नहीं कहता। इधर आजकल के विज्ञापन युग में तो पैसा देकर लोग अपना नाम सभी प्रकाशित करवा रहे हैं। इससे यह भ्रम हो जाता है कि झूठ और अयोग्यता पुज रही है। सच बात तो यह है कि जिस व्यक्ति का अपने न रहने या पीठ पीछे भी सम्मान होता है वही सच्चा कहा जा सकता है। अनेक कथित महापुरुष मर गये पर अब उनका कोई नाम भी नहीं लेता। कई जग तो उनको गालियां पड़ती हैं पर ऐसे भी लोग हैं जो अल्प धनिक होने के बावजूद सज्जन थे उनको समाज आज भी याद करता है। इसलिये कपट के द्वारा भौतिक सफलता प्राप्त करने को विचार छोड़ते हुए किसी कपटी मनुष्य के पास जाना भी नहीं चाहिये। कपट करने से कपटी का साथ लेेने से कोई न तो राजा बन सकता है और न ही सम्मान पा सकता है।
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मनु स्मृति-तनाव में भोजन करने से उसके तत्व नष्ट होते है (no tension time on eating)


पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्ज च यच्छाति।
अपूजितं च तद्भुक्तमूभयं नाशयेदिदम्।।
हिंदी में भावार्थ-
सदाशयता से ग्रहण किया भोजन बल और वीर्य में वृद्धि करता है जब निंदा करते हुए उदरस्थ करने से उसके तत्व नष्ट होते हैं।

पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चेतकुत्सयन्
दृष्टवा हृध्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को जैसा भोजन मिले उसे देखकर प्रसन्नता हासिल करना चाहिए। उसे ईश्वर प्रदत्त मानकर गुण दोष न निकालते हुए उदरस्थ करें। भोजन करते हुए अपनी झूठन न छोड़ें। यह कामना करें कि ऐसा अन्न हमेशा ही मिलता रहे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिनको भोजन आराम से मिलता है उनको उसका महत्व नहीं पता इसलिये वह उसे ऐसे करते हैं जैसे कि उसकी उनको परवाह ही नहीं है। भोजन करते समय उनको यह अहंकार आता है कि यह तो हमारा अधिकार ही है और हमारे लिये बना है। सच तो यह है कि भोजन का महत्व वही लोग जानते हैं जिनको यह नसीब में पर्याप्त मात्रा में नहीं होता। स्वादिष्ट भोजन की चाह आदमी को अंधा बना देती है। अनेक बार ऐसा समय आता है जब वह सब्जी के कारण भोजन नहीं करता या उसे त्याग देता है। भोजन करते समय उसकी निंदा करेंगे। शादी विवाह में तो अब यह भी होने लगा है कि लोग भोजन थाली में भरकर लेते हैं पर उसमें से ढेर सारा झूठन में छोड़े देते हैं। सार्वजनिक अवसरों पर ऐसे भोजन की बरबादी देखी जा सकती है।
यह समझ लेना चाहिये कि भोजन तो ईश्वरीय कृपा से मिलता है। यह सही है कि दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, पर यह भी नहीं भूलना कि अपने कर्म और भाव से भी भाग्य का निर्माण होता है। अगर हम भोजन करते हुए अहंकार पालेंगे तो संभव है कि दानों पर लिखा हमारा नाम मिट भी जाये। अपनी गृहिणी को कभी भी सब्जी आदि को लेकर ताना नहीं देना चाहिये। यह भगवान की कृपा समझें कि एक ऐसी गृहिणी आपके साथ है जो अपने हाथ से खाना बनाकर देती है वरना तो अनेक लोग घर के खाने के लिये तरस जाते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि खाते हुए अपना भाव सौम्य और सरल रखना चाहिए तभी भोजन के तत्व संपूर्ण रूप से काम करते हैं अगर मन में क्लेश या अप्रसन्नता है तो फिर खाना न खाना बराबर है। एक बात निश्चित है कि अगर तनाव में खाना खाया तो समझ लीजिये केवल पेट भरा पर उससे मिलने वाली ऊर्जा निरर्थक हो जाती है। आपने अक्सर सुना होगा कि जिनको दिमागी तनाव रहता है उन्हीं को उच्च रक्तचाप और मधुमेह की शिकायत होती है।
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कौटिल्य दर्शन-अनापशनाप बकने से जमाना विपरीत हो जाता है (bakbas karna theek nahin-hindu dharama sandesh)


अकस्मादेव यः कोपादभीक्ष्णं बहु भाषते।
तसमाबुद्धिजते लोकः सस््फुलिंगदिवानलात्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति अचानक ही क्रोध में अनापशनाप बकने लगता है वह संसार को वैसे ही अपने विपरीत बना लेता है जैसे आग से निकलने वाली चिंगारी से लोग उत्तेजित होकर उससे दूर हो जाते हैं।
वाक्पारुष्यपरं लोक उद्वेजनमनर्थम्।
न कुर्यात्प्रियया वाचा प्रकृर्यात्ज्जगदात्मताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस मनुष्य के वाक्यों में कठोरता है उससे लोग उत्तेजित हो जाते हैं। ऐसी अनर्थकारी वाणी न बोलें। इस जगत को अपने मधुर वाणी से वश में किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर इतिहास का अवलोकन करें तो अधिकतर संघर्ष अहंकार को लेकर हुऐ हैं वरना किसी को किसी पर आक्रमण करने की आवश्यकता क्या है? अपने आसपास होने वाली हिंसक वारदातों को देखें तो उनके पीछे बात का बतंगड़ अधिक होता है। हर समस्या का हल होता है पर उसे व्यक्त करने का अपना एक तरीका होता है। कहीं पानी को लेकर झगड़ा है तो कहीं जमीन का झगड़ा है। किसी की वजह से अगर पानी नहीं मिल रहा है तो उससे प्रेम से भी अपनी बात भी कही जा सकती है तो दूसरा व्यक्ति सहजता से मान भी जाये पर जहां दादागिरी, क्रोध या घृणा से बात कही गयी वहां अच्छे परिणाम की संभावना नगण्य हो जाती है। मनुष्य में अहंकार होता है और जहां उससे लगता है कि वह प्रेम से बोलने पर सामने वाले की आंखों में छोटा हो जायेगा या कड़ा बोलकर बड़प्पन दिखायेगा वहां विवाद होता है वहीं उसके अंदर अहंकार के कारण जो क्रोध पैदा होता है वही झगड़े का कारण बनता है।
इसलिये जहां तक हो सके मधुरवाणी बोलना चाहिये। इसे सज्जनता समझें या चालाकी पर इस संसार को इसी तरह ही जीता जा सकता है। आज जब मनुष्य में विवेक की कमी है वहां तो बड़ी सहजता से किसी में हवा से फुलाकर काम निकलवाया जा सकता है तब क्रोध करने की आवश्यकता है? दूसरी बात यह है कि लोगों में सहिष्णुता के भाव की कमी हो गयी है जिससे वह किसी की बात को सहन नहीं कर सकते। ऐसे समय में उनसे जरा सी कटु बात कहना भी उनको शत्रु बनाना है। अतः अच्छा यही है कि सभी से मधुरवाणी में बोलकर अपना काम निकालें।
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चाणक्य नीति शास्त्र-कुसंस्कारी लोगों का साथ करने से यश नहीं मिलता


अर्थार्थीतांश्चय ये शूद्रन्नभोजिनः।
त द्विजः कि करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः।।

हिंदी में भावार्थ- नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अर्थोपासक विद्वान समाज के लिये किसी काम के नहीं है। वह विद्वान जो असंस्कारी लोगों के साथ भोजन करते हैं उनको यश नहीं मिल पता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- इस देश का अध्यात्मिक ज्ञान सदेशों के अनमोल खजाने से भरा पड़ा है। उसका कारण यह है कि प्राचीन विद्वान अर्थ के नहीं बल्कि ज्ञान के उपासक थे। उन्होंने अपनी तपस्या से सत्य के तत्व का पता लगाया और इस समाज में प्रचारित किया। आज भी विद्वानों की कमी नहीं है पर प्रचार में उन विद्वानों को ही नाम चमकता है जो कि अर्थोपासक हैं। यही कारण है कि हम कहीं भी जाते हैं तो सतही प्रवचन सुनने को मिलते हैं। कथित साधु संत सकाम भक्ति का प्रचार कर अपने भोले भक्तों को स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। यह साधु लोग न केवल धन के लिये कार्य करते हैं बल्कि असंस्कारी लोगों से आर्थिक लेनदेने भी करते हैं। कई बार तो देखा गया है कि समाज के असंस्कारी लोग इनके स्वयं दर्शन करते हैं और उनके दर्शन करवाने का भक्तों से ठेका भी लेते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक चर्चा तो बहुत होती है पर ज्ञान के मामले में हम सभी पैदल हैं।
समाज के लिये निष्काम भाव से कार्य करते हुए जो विद्वान सात्विक लोगों के उठते बैठते हैं वही ऐसी रचनायें कर पाते हैं जो समाज में बदलाव लाती हैं। असंस्कारी लोगों को ज्ञान दिया जाये तो उनमें अहंकार आ जाता है और वह अपने धन बल के सहारे भीड़ जुटाकर वहां अपनी शेखी बघारते हैं। इसलिये कहा जाता है कि अध्यात्म और ज्ञान चर्चा केवल ऐसे लोगों के बीच की जानी चाहिये जो सात्विक हों पर कथित साधु संत तो सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा कर व्यवसाय कर रहे हैं। वह अपने प्रवचनों में ही यह दावा करते नजर आते हैं कि हमने अमुक आदमी को ठीक कर दिया, अमुक को ज्ञानी बना दिया।
अतः हमेशा ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लये ऐसे लोगों को गुरु बनाना चाहिये जो एकांत साधना करते हों और अर्थोपासक न हों। उनका उद्देश्य निष्काम भाव से समाज में सामंजस्य स्थापित करना हो। वैसे भी जीवन में संस्कारों के बहुत महत्व है और संगत का प्रभाव आदमी पर पड़ता है। इसलिये न केवल संस्कारवान लोगों के साथ संपर्क रखना चाहिये बल्कि जो लोग कुसंस्कारी लोगों में उठते बैठते हैं उनसे भी अधिक संपर्क नहीं रखना चाहिये।
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चाणक्य नीति संदेश-गुणों की पहचान न हो तो लोग निंदा करते हैं (hindu dharm sandesh-gunon ki pahchan)


न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्ष स तं सदा निन्दति नाऽत्र चित्रम्।
यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ताः परित्यज्य विभति गुंजाः।।
हिंदी में भावार्थ- अगर कोई मनुष्य किसी वस्तु या अन्य मनुष्य के गुणों को नहीं पहचानता तो तो उसकी निंदा या उपेक्षा करता है। ठीक उसी तरह जैसे जंगल में रहने वाली कोई स्त्री हाथी के मस्तक से मिलने वाली मोतियों की माला मिलने पर भी उसे त्यागकर कौड़ियों की माला पहनती है।
अकृष्टफलमूलेन वनवासरतः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
वह विद्वान ऋषि कहलाता है जो जमीन को जोते बिना पैदा हृए फल एवं कंधमूल आदि खाकर हमेशा वन में जीवन व्यतीत करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य का कहना है कि अगर किसी व्यक्ति या वस्तु के गुणों का ज्ञान नहीं है तो उसकी उपेक्षा हो ही जाती है। यह स्थिति हम अपने भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के बारे में आज समाज द्वारा बरती जा रही उपेक्षा के बारे में समझ सकते हैं। हमारे देश के प्राचीन और आधुनिक ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों ने बड़े परिश्रम से हमें जीवन और सृष्टि के रहस्यों को जानकर उसका ज्ञान हमारे लिये प्रस्तुत किया पर हमारे देश के विद्वानों ने उसकी उपेक्षा कर दी। यही कारण है कि आज हमारे देश में विदेशी विद्वानों के ज्ञान की चर्चा खूब होती है। देश में पश्चिम खान पान ही सामान्य जीवन की दिनचर्या का भाग बनता तो ठीक था पर वहां से आयातित विचार और चिंतन ने हमारी बौद्धिक क्षमता को लगभग खोखला कर दिया है। यही कारण है कि सामान्य व्यक्ति को शिक्षित करने वाला वर्ग स्वयं भी दिग्भ्रमित है और भारतीय अध्यात्म उसके लिये एक फालतू का ज्ञान है जिससे वर्तमान सभ्यता का कोई लेना देना नहीं है।
जबकि इसके विपरीत पश्चिम में भारतीय अध्यात्म ज्ञान की पुस्तकों पर अब जाकर अनुसंधान और विचार हो रहा है। अनेक महापुरुषों के संदेश वहां दिये जा रहे हैं। हमारी स्थिति भी कुछ वैसी है जैसे किसी घर में हीरों से भरा पात्र हो पर उसे पत्थर समझकर खेत में चिड़ियों को भगाने के लिये कर रहा हो। हमें यह समझना चाहिए कि अज्ञान और मोह में मनुष्य के लिये हमेशा तनाव का कारण बनता है।
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हिन्दू धर्म संदेश-बड़ा वही है जो गरीब पर कृपा करे (garib par kripa karen-hindu dharm sandesh)


जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग

कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।

जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।वैसे भी बड़े तथा अमीर लोगों को अपने छोटे और गरीब पर दया के लिये काम करते रहना चाहिये क्योंकि इससे समाज में समरसता का भाव बना रहता है। जब तक समाज का धनी तबका गरीब पर दया नहीं करेगा तब तक आपसी वैमनस्य कभी ख़त्म नहीं हो सकता है।


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शरीर और मन से विकार निकालने का सबसे अच्छा उपाय है योग साधना (yogsadhna-hindi lekh)


अक्सर लोग योग साधना को केवल योगासन तक ही सीमित मानकर उसका विचार करते हैं। जबकि इसके आठ अंग हैं।
योगांगानुष्ठानादशुद्धिये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः।।
हिंदी में भावार्थ-
योग के आठ अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
इसका आशय यही है कि योगसाधना एक व्यापक प्रक्रिया है न कि केवल सुबह किया जाने वाला व्यायाम भर। अनेक लोग योग पर लिखे गये पाठों पर यह अनुरोध करते हैं कि योगासन की प्रक्रिया विस्तार से लिखें। इस संबंध में यही सुझाव है कि इस संबंध में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं और उनसे पढ़कर सीखें। इन पुस्तकों में योगासन और प्राणायम की विधियां दी गयी हैं। योगासन और प्राणायम योगसाधना की बाह्य प्रक्रिया है इसलिये उनको लिखना कोई कठिन काम है पर जो आंतरिक क्रियायें धारणा, ध्यान, और समाधि वह केवल अभ्यास से ही आती हैं।
इस संबंध में भारतीय योग संस्थान की योग मंजरी पुस्तक बहुत सहायक होती है। इस लेखक ने उनके शिविर में ही योगसाधना का प्रशिक्षण लिया। अगर इसके अलावा भी कोई पुस्तक अच्छी लगे तो वह भी पढ़ सकते हैं। कुछ संत लोगों ने भी योगासन और प्राणायाम की पुस्तकें प्रकाशित की हैं जिनको खरीद कर पढ़ें तो कोई बुराई नहीं है।
चूंकि प्राणयाम और योगासन बाह्य प्रक्रियायें इसलिये उनका प्रचार बहुत सहजता से हो जाता है। मूलतः मनुष्य बाह्यमुखी रहता है इसलिये उसे योगासन और प्राणायाम की अन्य लोगों द्वारा हाथ पांव हिलाकर की जाने वाली क्रियायें बहुत प्रभावित करती हैं पर धारणा, ध्यान, तथा समाधि आंतरिक क्रियायें हैं इसलिये उसे समझना कठिन है। अंतर्मुखी लोग ही इसका महत्व जानते हैं। धारणा, ध्यान और समाधि शांत स्थान पर बैठकर की जाने वाली कियायें हैं जिनमें अपने चित की वृत्तियों पर नियंत्रण करने के लिये अपनी देह के साथ मस्तिष्क को भी ढीला छोड़ना जरूरी है।
इसके अलावा कुछ लोग तो केवल योगासन करते हैं या प्राणायम ही करके रह जाते हैं। इन दोनों ही स्थितियों में भी लाभ कम होता है। अगर कुछ आसन कर प्राणायम करें तो बहुत अच्छा रहेगा। प्राणायम से पहले अगर अपने शरीर को खोलने के लिये सूक्ष्म व्यायाम कर लें तो भी बहुत अच्छा है-जैसे अपने पांव की एड़ियां मिलाकर घड़ी की तरह घुमायें, अपने हाथ मिलाकर ऐसे आगे झुककर घुमायें जैसे चक्की चलाई जाती है। अपनी गर्दन को घड़ी की तरह दायें बायें आराम से घुमायें। अपने दोनों हाथों को कंधे पर दायें बायें ऊपर और नीचे घुमायें। अपने दायें पांव को बायें पांव के गुदा मूल पर रखकर ऊपर नीचे करने के बाद उसे अपने दोनों हाथ से पकड़ दायें बायें करें। उसके बाद यही क्रिया दूसरे पांव से करें। इन क्रियायों को आराम से करें। शरीर में कोई खिंचाव न देते सहज भाव से करें। सामान्य व्यायाम और योगासन में यही अंतर है। योगासनों में कभी भी उतावली में आकर शरीर को खींचना नहीं चाहिये। कुछ आसन पूर्ण नहीं हो पाते तो कोई बात नहीं, जितना हो सके उतना ही अच्छा। दूसरे शब्दों में कहें तो सहजता से शरीर और मन से विकार निकालने का सबसे अच्छा उपाय है योग साधना। शेष फिर कभी
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विदुर नीति-दूसरे से जलने वाले का कोई इलाज़ नहीं (hindu adhyatmik sandesh-doosre ko dekhkar n jalen)


य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्य कुलान्वये।
सुखभौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिनन्तकः।।
हिंदी में भावार्थ
-जो दूसरे का धन, सौंदर्य, शक्ति और प्रतिष्ठा से ईष्र्या करता है उसकी व्याधि की कोई औषधि नहीं है।
न कुलं वृत्तही प्रमाणमिति मे मतिः।
अन्तेध्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
अगर प्रवृत्ति नीच हो तो ऊंचे कुल का प्रमाण भी सम्मान नहीं दिला सकता। निम्न श्रेणी के परिवार में जन्मा व्यक्ति प्रवृत्ति ऊंची का हो तो वह अवश्य विशिष्ट सम्मान का पात्र है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ईर्ष्या का कोई इलाज नहीं है। मनुष्य में रहने वाली यह प्रवृत्ति उसका पूरा जीवन ही नरक बना देती है। मनुष्य जीवन में बहुत सारा धन कमाता और व्यय करता है पर फिर भी सुख उससे परे रहता है। सुख कोई पेड़ पर लटका फल नहीं है जो किसी के हाथ में आ जाये। वह तो एक अनुभूति है। अगर हमारे रक्तकणों में आनंद पैदा करने वाले तत्व हों तभी सुख की अनुभूति हो सकती है। इसके विपरीत लोग तो दूसरे के सुख से जले जा रहे हैं। अपनी पीड़ा से अधिक कहीं उनको दूसरे का सुख परेशान करता है। इससे कोई विरला ही मुक्त हो पाता है। ईर्ष्या और द्वेष से मनुष्य में पैदा हुआ संताप मनुष्य को बीमार बना देता है। उसके इलाज के लिये वह चिकित्सकों के पास जाता है। फिर भी उसमें सुधार नहीं होता क्योंकि ईष्र्या और द्वेष का इलाज करने वाली कोई दवा इस संसार में बनी ही नहीं है।

जो लोग जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर सम्मान पाने का मोह पालते हैं वह मूर्ख हैं। उसी तरह पैसा, पद, और प्रतिष्ठा पाने पर अगर कोई यह भ्रम पाल लेता है कि लोग उनका सम्मान करते हैं तो वह भी नहीं रखना चाहिये। लोग दिखाने के लिये अपने से अधिक धनवान का सम्मान करते हैं पर हृदय से उसी व्यक्ति को चाहते हैं जो उनसे अधिक गुणवान होता है। गुणों की पहचान ही मनुष्य की पहचान होती हैं। इसलिये अपने अंदर सद्गुणों का संचय करना चाहिए। दूसरे का सुख और वैभव देखकर अपना खून जलाने से कोई लाभ नहीं होता।

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संत कबीरदास के दोहे- दूसरे की पीड़ा मूर्ख लोग नहीं समझते (kabir sandesh in hindi)


         पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष के , भिस्त बसै क्यौं नांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।

         वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।

आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगों में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये । आजकल विश्व में अहिंसा का आशय केवल ; मनुष्यों के प्रति हिंसा निषिद्ध करने से लिया जाता है जबकि अहिंसा का वास्तविक आशय समस्त जीवों के प्रति हिंसा न करने से है। किसी को मानसिक पीड़ा देना भी हिंसा के श्रेणी में आता है।
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मनुस्मृति-ऐसा काम न करें कि पश्चाताप हो (aisa kam n kare ki pashchatap h ho-manu smriti)


यमो वैवस्वतो देवो यस्तवैध हृदिस्थितः।
तेन चेदविवादस्ते मां गंगा मा कृरून गमः।।
हिंदी में भावार्थ-
सभी के हृदय में भगवान विवस्वान यम साक्षी रूप में स्थित रहते हैं। यदि उनसे कोई विवाद नहीं करना है तथा पश्चाताप के लिये गंगा या कुरुक्षेत्र में नहीं जाना तो कभी झूठ का आश्रय न लें।

एकोऽहमस्मीत्यातमानं यत्तवं कल्याण मन्यसे।
नित्यं स्थितस्ते हृद्येष पुण्यपापेक्षिता मुनिः।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि कोई आदमी यह सोचकर झूठी गवाही दे रहा है कि वह अकेला है और सच्चाई कोई नहीं जानता तो वह भूल करता है क्योंकि पाप पुण्य का हिसाब रखने वाला ईश्वर सभी के हृदय में रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने स्वार्थ के लिये झूठ बोलना अज्ञानी और पापी मनुष्य का लक्षण है। सभी का पेट भरने वाला परमात्मा है पर लालची, लोभी, कामी और दुष्ट प्रवृत्ति के लोग झूठ बोलकर अपना काम सिद्ध करना अपनी उपलब्धि मानते हैं। अनेक लोग झूठी गवाही देते हैं या फिर किसी के पक्ष में पैसा लेकर उसका झूठा प्रचार करते हैं। अनेक कथित ज्ञानी तो कहते हैं कि सच बोलने से आज किसी का काम नहीं चल सकता। यह केवल एक भ्रम है।
यह दुनियां वैसी ही होती है जैसी हमारी नीयत है। अगर हम यह मानकर चल रहे हैं कि झूठ बोलने से अब काम नहीं चलता तो यह अधर्म की तरफ बढ़ाया गया पहला कदम है। कई लोग ऐसे है जो अपनी झूठी बेबसी या समस्या बताकर दूसरे से दान और सहायता मांगते हैं और उनको मिल भी जाती है। अब यह सोच सकते हैं कि झूठ बोलने से कमाई कर ली पर उनको यह विचार भी करना चाहिये कि दान या सहायता देने वाले ने अपनी धार्मिक प्रवृत्ति के कारण ही अपना कर्तव्य निभाया। इसका आशय यह है कि धर्म का अस्तित्व आज भी उदार मनुष्यों में है। इसे यह भी कहना चाहिये कि यह उदारता ही धर्म के अस्तित्व का प्रमाण है। इसलिये झूठ बोलने से काम चलाने का तर्क अपने आप में बेमानी हो जाता है क्योंकि अंततः झूठ बोलना धर्म विरोधी है।
आदमी अनेक बार झूठ बोलता है पर उसका मन उस समय कोसता है। भले ही आदमी सोचता है कि झूठ बोलते हुए कोई उसे देख नहीं रहा पर सच तो यह है कि परमात्मा सभी के हृदय में स्थित है जो यह सब देखता है। एक मजेदार बात यह है कि आजकल झूठ बोलने वाली मशीन की चर्चा होती है। आखिर वह झूठ कैसे पकड़ती है। होता यह है कि जब आदमी झूठ बोलता है तब उसके दिमाग की अनेक नसें सामान्य व्यवहार नहीं करती और वह पकड़ा जाता है। यही मशीन इस बात का प्रमाण है कि कोई ईश्वर हमारे अंदर है जो हमें उस समय इस कृत्य से रोक रहा होता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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