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यह बिग बॉस नाटक या धारावाहिक देशप्रेम रखने वालों के लिये नहीं है-हिन्दी व्यंग्य (Big Boss natak ya dharavahik aur deshprem-hindi vyangya)


कहा जाता है बद अच्छा बदनाम बुरा-हमें पता नहीं यह कहावत उल्टी भी हो सकती है। मतलब आदमी बुरा हो पर बदनाम नहीं होना चाहिए। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि अपने में कोई बुराई हो पर उसकी चर्चा बाहर नहीं होना चाहिऐ। लब्बोलुआब यह कि बदनाम नहीं होना चाहिए। लगता है अब यह कहावत अब उलट देना चाहिये या फिर यह कहना करें कि बद अच्छा तो उससे अच्छा बदनाम है।
कम से कम टीवी चैनल में बदनाम लोगों को अभिनय करने को लेकर चल रहे विवाद से तो ऐसा लगता है कि अब नयी पीढ़ी यह भी सोचेगी कि कोई ऐसा काम किया जाये जिससे बदनाम होने पर कहीं  किसी टीवी चैनल पर अपना थोबड़ा दिखाने का अवसर तो मिल ही जायेगा। पूरे देश पर आक्षेप करना ठीक नहीं है पर कुछ कमजोर दिमाग के लोग ऐसे हैं जो पद, प्रतिष्ठा और पैसा पाने के लिये कुछ भी गलत सीख सकते हैं। एक चैनल है जिसमें एक पुराने चोर, आतंकवादियों के वकील तथा एक समलैंगिक को शामिल किया गया है। हम अपने व्यंग्य या आलेख में किसी का नाम इसलिये नहीं लिखते क्योंकि अप्रायोजित लेखक हैं और किसी का बिना पैसे लिये प्रचार करना अपनी शान के खिलाफ है-भले ही आलोचनात्मक टिप्पणियों से वह भरा हो। वैसे तो अब तो हमें लगने लगा है कि यहां कुछ लोग प्रसिद्ध होने के लिये अपनी आलोचना पैसा देकर करवाते हैं। चैनलों पर चले रहे धारावाहिकों के नाम लेकर उनकी आलोचना करना भी हमें  प्रायोजित करने जैसा  लगता है। बहरहाल जिस चैनल के जिस धारावाहिक की हम चर्चा कर रहे हैं उसका हिन्दी नामकरण  करते हैं ‘बड़ा मुखिया’। यह नाम इसलिये किया क्योंकि उस चैनल के नाटक की पृष्ठभूमि घर पर ही आधारित है। इसमें पहले ऐसे प्रसिद्ध लोगों को शामिल किया गया जिन पर दुर्भाग्यवश (?)बदनामी का धब्बा लगा-कुछ के लिये कहा गया कि उनका अपराध बालपन की नादानी से हुआ। कुछ ऐसे लोग भी उसमें आये जो जीतने के बाद बदनाम हुए, यानि उनमें ऐसे गुण पहले से मौजूद थे।
अब यह चैनल अपना धारावाहिक बड़े प्रचार से दिखा रहा है। इसमें पाकिस्तान से भी बदनाम लोग मंगवाये गये हैं। हम बहुत समय पहले से कहते रहे हैं कि टीवी चैनलों के अदृश्य प्रायोजक बहुत सारे धंधों में हैं। दुनियां भर के व्यापार में अब काले सफेद धंधे का प्रश्न नहीं रहा और सभी प्रचार माध्यमों पर अपनी पकड़ बनाये हुए हैं । अब तो समाज में ही यह हालत है कि जिसके पास धन है वही सेठ और समाज का भाई कहलाता है-अब भाई कहिने भी हो सकता है, भारत हो  या पाकिस्तान। सारी व्यवस्था के साथ ही सारे प्रचार माध्यमों पर उनकी श्रेष्ठता प्रमाणिक हैं चाहे भले ही बदनाम हों। क्रिकेट, फिल्म और टीवी चैनलों का घालमेल हो गया है। पाकिस्तान की एक फिल्मी नायिका ने वहां के क्रिकेट खिलाड़ी पर फिक्सर होने का आरोप लगाया था। उस समय हमें हैरानी हुई क्योंकि वह ऐसा कर धनपतियों से बैर ले रही थी-आर्थिक उदारीकरण से धनपति अब कंपनियों के पीछे अदृश्य होकर काम करते हैं इसलिये अब यह प्रश्न नहंी रहा कि कौनसा सेठ कहां का है? अब समझ में आया कि संभवतः उस अभिनेत्री को भारतीय चैनल में लाने के लिये यही फिक्सिंग प्रकरण या नाटक  ब्रिटेन में रचा गया होगा। चूंकि ब्रिटेन इसमें शामिल है इसलिये किसी का शक हो न हो पर अब हमें होने लगा है क्योंकि आर्थिक उदारीकरण के चलते अपराध का भी वैश्वीकरण होता जा रहा है अंग्रेज भला कौन से दूध के धुले हैं-पैसा कमाने के लिये ही तो भारत आये थे। चूंकि चैनलों की भूमिका पहले से ही बननी होती है इसलिये कोई बड़ी बात नहीं कि उसके एक भावी को प्रसिद्ध दिलाने के लिये पाकिस्तानी क्रिकेट को पकड़ा गया और फिर उस अभिनेत्री से बयान दिलाया गया। संभव है कि वह अभिनेत्री अधिक रहस्य न खोले इसलिये भी उसे भारतीय चैनल में काम दिलाया गया हो। बहरहाल एक फिक्सर की पुरानी दोस्त होने की बदनामी उसने पहले मोल ली और भारत में उसका नाम भी तभी आया। इधर नाम आया और उधर चैनल में उसको काम मिल गया।
जितने भी आकर्षक व्यवसाय हैं वह अब आर्थिक शिखर पुरुषों के हाथ में हैं और अगर जार्ज बर्नाड शॉ की बात पर यकीन किया जाये तो बिना बेईमानी के कोई भी अमीर नहीं  बन सकता। ऐसे में अपने ही संरक्षण में वह बदनाम लोगों को संरक्षण देते हुए उसके नकदीकरण का अवसर भी यह सेठ लोग नहीं चूकते। भला कोई व्यापारी अपनी चीज़ को खराब बताता है! एक नहीं तो दूसरे ग्राहक को बेच ही देता है। ऐसे में कोई फिल्म में बदनाम हुआ हो या क्रिकेट में चल जायेगा मगर चोर और डकैत भी चल जायेंगे! क्या माने? ऐसे लोग भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों ने पहले से ही प्रायोजित कर रखे हैं। हम बहुत समय से कहते रहे हैं कि व्यवसायिक संस्थान या व्यवस्थापक प्रतिष्ठानों में आर्थिक शिखर पुरुषों के अनेक लोग मुखौटे की तरह हैं जो सज्जनता से काम करते दिखते हैं तो क्या अब यह भी मान लें कि अपराधिक जगत में भी अब मुखौटे आने लगे हैं। क्या अब यह तय हो गया कि आतंकवाद भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों के मुखौटे ही फैला रहे हैं। ऐसे में अपराध और आतंक से प्रत्यक्ष जुड़े लोग वाकई मासूम लगते हैं मगर ऐसे में हर आर्थिक शिखर पुरुष संदेह की परिधि में आता जायेगा। माना जायेगा कि हर छोटे बड़े अपराध और आतंक का असली जिम्मेदार कोई न कोई आर्थिक पुरुष ही है। तब यह भी होगा कि हर आर्थिक शिखर पर विराजमान हर पुरुष समाज के लिये संदिग्ध होगा क्योंकि यह माना जाने लगेगा कि इसके खिलाफ तो कभी सबूत मिल ही नहीं सकता पर यह अपराध में लिप्त जरूर होगा।
मुद्दा यह भी है कि क्या ऐसे प्रसारण पर रोक लगनी चाहिए। हम अब भी कहेंगे नहीं। हमारे कुछ मित्र इस जवाब पर नाराज हो सकते हैं क्योंकि आतंकवादियों तथा अपराधियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी, सामाजिक न्याय, शोषण से मुक्ति तथा धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर बौद्धिक संरक्षण देने वाले बहुत सारे बुद्धिजीवी इस देश में है और कम से कम हमने ही दसियों बार उन पर प्रतिकूल टिप्पणियां करते हुए अपने पाठ लिखे हैं। तब ऐसा क्या है जो हम अभिव्यक्ति के नाम पर इस प्रसारण को रोकने के खिलाफ हैं?
हम तो दूसरी बात कह रहे हैं कि जिस तरह बीड़ी सिगरेट और शराब के डिब्बों पर लिखा रहता है कि इनका सेवन शरीर के लिये हानिकारक है उसी तरह पाकिस्तानी अभिनेता अभिनेत्रियों के अभिनय वाले धारावाहिकों का  प्रचार करने वाले विज्ञापनों पर ही यह लिखना होना चाहिए कि ‘देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत या देशप्रेम रखने वाले लोगों को यह धारावाहिक नहीं देखना चाहिए।’
इससे कुछ लोगों की भवनें आहत होने से बच जाएँगी। उसी तरह बदनामशुदा लोगों के धारावाहिकों के विज्ञापनों में भी यह लिखना चाहिये कि ‘यह सभ्य और सज्जन भाव रखने वालों को नहीं देखना चाहिये और न बच्चों को देखने देना चाहिऐ।
इससे लोग स्वयं ही बच्चों के बिगड़ने के दर से वह चैनल धारावाहिक के समय बंद रखेंगे ।  चेतावनी लिखी होने पर लोगों को कार्यक्रम प्रसारित होने का अफसोस कम होगा।  जिस तरह बीडी,सिगरेट और शराब की बोतल पर चेतावनी होने पर उसके बिकने का अफसोस कम होता है।
एक बात जो अभी तक हमारी समझ में नहीं आती। आखिर दक्षिण एशिया में एकता के नाम पर हमारे पास केवल पाकिस्तान का नाम ही क्यों आता है? सच मानिए पाकिस्तान के आम आदमी से हमारा कोई बैर नहीं है मगर वहां के बदनामशुदा लोग ही यहां क्यों आकर प्रचार पाते हैं? यह हमारी समझ में नहीं आता। मजे की बात यह है कि इनसे कई सभ्य चेहरे वाले मुखौटे मिलकर कहते हैं कि ‘यह तो खेल और फिल्म सें संबंधित मुलाकात है।’
पाकिस्तान के क्रिकेट फिक्सरों को भारत आने का वीज़ा बहुत जल्दी मिल जाता है। यह भी चर्चा का विषय बनता है। कहने का अभिप्राय यह है कि सफेद काले का घालमेल हो गया है। ऐसे में नैतिकता की मांग कमजोर जरूर हुई है पर मरी नहीं है क्योंकि जो लोग अपराध और आतंक के मुखौटो को अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो बुद्धिजीवी लेखक सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर
खलनायक की बजाय नायक की तरह प्रतिपादित करते हैं वह भी नैतिक आदर्शों की बात तो करते यह अलग बात है कि आर्थिक उदारीकरण के साथ ही अपराध और आतंक के वैश्वीकरण के विषय से मुख क्यों मोड़ लेते हैं? इसलिये ही न कि वह सभी भी प्रायोजित हैं। उससे भी मजे की बात है कि पूंजीवाद के विरोधी बुद्धिजीवी इस खेल को तो इस तरह अनदेखा करते हैं जैसे कि कोई लेना देना ही न हो-होते तो वह भी प्रायोजित हैं पर कभी कभी सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भावनाओं की बात वह भी करते हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर होने के बावजूद सरकारी डंडे के सहारे सारे कल्याण का सपना भी वही पालते हैं।
एक धारावाहिक से कुछ बनता बिगड़ता नहीं है क्योंकि हमारे देश का अध्यात्मिक स्वरूप बहुत दमदार है। अगर खान पान ठीक होने के साथ उनका सेवन सीमित हो तो बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू और शराब जैसे व्यवसनों का भी दुष्प्रभाव कम हो जाता है-रोका बिल्कुल नहीं जा सकता यह बात तय है-उसी तरह बच्चों का मन मस्तिष्क मज़बूत हो वह ऐसे चैनलों को नहीं देखेंगे पर फिर भी इन चैनलों के ऐसे धारावाहिकों का वर्गीकरण तो करना ही होगा। कम से कम हमारी यह मांग आज़ादी की अभिव्यक्ति पर प्रहार नहीं करती यह निश्चित है।

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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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क्रिकेट मैच में अब फिक्स नॉबोल-हिन्दी व्यंग्य (now nobol fix in cricket match-hindi vyangya)


पाकिस्तान के सात खिलाड़ी मैच फिक्सिंग के आरोपों में फंस गये हैं। फंसे भी क्रिकेट के जनक इंग्लैंड में हैं जहां पाकिस्तानी पहले से बदनाम हैं। यह खबरें तो उन्हीं प्रचार माध्यमों से ही मिल रही हैं जो उस बाज़ार के ही भौंपू हैं जिसके अनेक शिखर सौदागरों पर भूमिगत माफिया से संबंध रखने का आरोप है। कभी कभी ऐसी खबरें देखकर हैरानी होती है कि आखिर यह क्रिकेट जो इन प्रचार समाचार माध्यमों के रोजगार का आधार है क्योंकि इससे उनको प्रतिदिन आधे घंटे की सामग्री मिलती है तो कैसे उसे बदनाम करने पर तुल जाते हैं।
पहली बार पता चला कि नोबॉल भी फिक्स होती है। पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों ने गेंद फैंकते समय अपना पांव लाईन से इतना बाहर रखा था कि अंपायर के लिये यह संभव नहीं था कि वह उसकी अनदेखी करे। जब खिलाड़ी फिक्स हैं तो अंपायर भी फिक्स हो सकता है पर पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने इतना पांव निकाला कि नोबॉल न देने के लिये फिक्स करने वाला अंपायर भी कैमरें की वजह से उसे संदेह का लाभ नहीं दे सकता था।
आरोप लगे हैं कि पाकिस्तानी खिलाड़ी औरतों, पैसे तथा मस्ती करने के शौकीन हैं। पाकिस्तानी खिलाड़ियों का चरित्र तो वहीं के लोग बयान करते हैं। कुछ पर तो मादक द्रव्य पदार्थों की तस्करी का भी आरोप है। जब पाकिस्तानी खिलाड़ी पकड़े जाते हैं तो उनकी एकाध प्रेमिका भी सामने आती है जो उनकी काली करतूतों का बयान करती है। एक चैनल के मुताबिक पाकिस्तान का एक गेंदबाज की प्रेमिका के अनुसार वह तो बिल्कुल अपराध प्रवृत्ति का और यह भी उसी ने बताया था कि ‘2010 में पाकिस्तानी कोई मैच जीतने वाला नहीं है, ऐसा तय कर लिया गया है। पिछले 82 मैचों से फिक्सिंग चल रही है। वगैरह वगैरह।
जिस बात पर हमारी नज़र अटकी वह थी कि ‘पाकिस्तान खिलाड़ियों ने 2010 में मैच न जीतने की कसम खा रखी है। संभवत आजकल उनको हारने के पैसे मिल रहे हैं। हां, यह क्रिकेट में होता है। श्रीलंका में हुए एक मैच में आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान दोनों की टीमें मैच हारना चाहती थीं क्योंकि पर्दे के पीछे उनको अधिक पैसा मिलने वाला था। यानि जो जीतता वह कम पैसे पाता तोे बताईये पैसे के लिऐ खेलने वाले खिलाड़ी क्यों जीतना चाहेंगे। ऐसे आरोप टीवी चैनलों ने लगाये थे। बहरहाल पाकिस्तान टीम के खिलाड़ी अपनी आक्रामक छबि भुनाते हैं। उनके हाव भाव ऐसे हैं जैसे कि तूफान हो और इसलिये उनकी जीत पर अधिक पैसा लग जाता है। सट्टेबाज उसके हारने पर ही कमाते होंगे इसलिये ही शायद वह उनको हारने के लिये पैसा देते होंगे।
इधर अपने देश की बीसीसीआई की टीम भी लगातर जीतने में विश्वास नहंीं रखती। यकीनन इस टीम के कर्णधारों को पाकिस्तानी खिलाड़ियों की इस कसम का पता लगा होगा कि वह 2010 में जीतेंगे नहीं इसलिये उसके साथ न खेलने का फैसला किया होगा ।
बात अगर पाकिस्तान की हो तो अपने देश के सामाजिक, आर्थिक, खेल तथा कला जगत के शिखर पुरुषों के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। अगर संबंध अच्छे रखने हों तो कहना पड़ता है कि ‘इंसान सब कर सकता है पर पड़ौसी नहीं बदल सकता‘ या फिर ‘आम आदमी के आदमी से संपर्क करना चाहिऐ।’
अगर संबंध खराब करने हों तो आतंकवाद का मुद्दा एक पहले से ही तय हथियार है कहा जाता है कि ‘पहले पाकिस्तान अपने यहां आतंकवादी का खत्मा करे।
पिछली बार आईपीएल में पाकिस्तान के खिलाड़ियों को नहीं खरीदा गया था तो देश के तमाम लोगों ने भारी विलाप किया था। यहां तक कि इस विलाप में वह लोग भी शामिल थे जो प्रत्यक्षः इन टीमों के मालिक माने जाते हैं-इसका सीधा मतलब यही था कि यह मालिक तो मुखौटे हैं जबकि उनके पीछे अदृश्य आर्थिक शक्तियां हैं जो इस खेल का अपनी तरीके से संचालन करती हैं।
बाद में आईपीएल में फिक्सिंग के आरोप लगे थे। उसमें पाकिस्तान के खिलाड़ियों का न होना इस बात का प्रमाण था कि अकेले पाकिस्तानी ही ऐसा खेल नहीं खेलते बल्कि हर देश के कुछ खिलाड़ी शक के दायरे में हैं। यह अलग बात है कि पाकिस्तान बदनाम हैं तो उसके खिलाड़ियों को चाहे जब पकड़ कर यह दिखाया जाता है कि देखो बाकी जगह साफ काम चल रहा है। किसी अन्य देश का नाम नहीं आने दिया जाता क्योंकि उसकी बदनामी से मामला बिगड़ सकता है। पाकिस्तान के बारे में तो कोई भी कह देगा कि ‘वह तो देश ही ऐसा है।’ इससे प्रचार में मामला हल्का हो जाता है और प्रचार माध्यमों के लिये भी सनसनीखेज सामग्री बन जाती है।
पाकिस्तानी या तो चालाक नहीं है या लापरवाह हैं जो पकड़े जाते हैं। संभव है वह कमाई के लिये हल्के सूत्रों का इस्तेमाल करते हों। भारतीय प्रचार माध्यमों को तो सभी जानते हैं। निष्पक्ष दिखने के नाम पर तब इन खिलाड़ियों के कारनामों की चर्चा से बचते हैं जब यह भारत आते हैं। अभी पाकिस्तानी के एक खिलाड़ी ने एक भारतीय महिला खिलाड़ी से शादी की। वह भारत आया तो उसके लोगों ने ही उस पर आरोप लगाया था कि ‘वह तो फिक्सर है।’ मगर भारत की एक अन्य महिला ने जब उसी पाकिस्तानी खिलाड़ी से विवाह होने की बात कही और बिना तलाक दिये दूसरी शादी का विरोध किया तो यह प्रचार माध्यम एक बूढ़े अभिनेता को पाकिस्तानी खिलाड़ी के समर्थन में लाये। मामला सुलट गया और भारतीय खिलाड़िन से उस खिलाड़ी का विवाह हुआ। वह बूढ़े अभिनेता भी उस शादी में गया। आज तक एक बात समझ में नहीं आयी कि इन फिल्म वालों से क्रिकेट वालों रिश्ते बनते कैसे हैं। संभवत कहीं न कहीं धन के स्त्रोत एक जैसे ही होंगे।
इस देश में क्रिकेट खेल का आकर्षण अब उतना नहीं रहा जितना टीवी चैनल और अखबार दिखा रहे हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि उनके पास मज़बूरी है क्योंकि इसके अलावा वह कुछ नया कर ही नहीं सकते।
एक दो नहीं पूरे सात पाकिस्तनी खिलाड़ी ब्रिटेन से मैच हारना चाहते थे। हारे भी! इससे उनके धार्मिक लोग नाराज़ हो गये हैं। इसलिये नहीं कि पैसा खाकर हारे बल्कि धर्म का नाम नीचा किया। कट्टर लोग धमकियां दे रहे हैं। कोरी धमकियां ही हैं क्योंकि इन कट्टर धार्मिक लोगों को पैसा भी उन लोगों से मिलता है जो क्रिकेट में मैदान के बाहर से इशारों में खिलाड़ियों को नचाते हैं और फिर उनको रैम्प पर भी नाचने का अवसर प्रदान करते हैं।
बहरहाल पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने 2010 में हारने की कसम खाई है। यह आरोपी सात खिलाड़ी हटे तो दूसरे नये लोग आकर भी उस कसम को निभायेंगे। इधर बीसीसीआई की टीम भी तब तक नहीं उनके साथ खेलेगी जब तक उनकी कसम खत्म की अवधि नहीं होती। आखिर बीसीसीआई के खिलाड़ी जीत कर थक जायेंगे तो उनको तो हराकर कर विश्राम कौन देगा। पाकिस्तानी खिलाड़ी यह अवसर देने को तैयार नहीं लगते। यही कारण है कि आतंक का मुद्दे की वजह से दोनों नहीं खेल रहे अब यह बात बड़े लोग कहते हैं तो माननी पड़ती है। 2011 में फिर मित्रता का नारा लगेगा क्योंकि तब पाकिस्तानी खिलाड़ियों की कसम की अवधि खत्म हो जायेगी। इधर आईपीएल की तैयारी भी चल रही है। लगता नहीं है कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों को इस बार भी मौका मिलेगा। कहीं किसी क्लब को जीतने का आदेश हो और उसमें अपनी कसम से बंधे एक दो पाकिस्तानी खिलाड़ी हारने के लिए खेले तो…….अब तो उनके लिये 2011 में ही दरवाजे खुल सकते हैं।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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कैसे होगा चंद्रमा पर बंटवारा-हास्य व्यंग्य


अब चंद्रमा पर धरती पर तमाम देशों के अधिकार की बात शुरु हो गयी है। अखबार में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार कुछ जागरुक लोगों मांग की है कि जिस तरह विश्व के अनेक देशों के अंतरिक्ष यान चंद्रमा के चक्कर लगा रहे हैं और वह सभी भविष्य में अपना वहां अधिकार वहां की जमीन पर जमा सकते हैं इसलिये एक कानून बना कर भविष्य में किसी विवाद से बचना चाहिए। एक बात तय है कि चंद्रमा पर पहुंचने वाले वही देश होंगे जो आर्थिक और तकनीकी दोनों ही दृष्टि से संपन्न हों। इस विश्व में ऐसे देशोें की संख्या पंद्रह से बीस ही होगी अधिक नहीं।

चंद्रमा की जमीन पर अधिकार को लेकर नियम बनाने वालों की मांग करने वालों का कहना है कि जिस तरह हर देश के समुद्र और आकाश का बंटवारा हुआ है वैसे ही चंद्रमा की जमीन का बंटावारा होना चाहिये। अब सवाल यह है कि समुद्र और आकाश का बंटवारा तो देशों की सीमा के आधार पर हुआ है जो कभी बदलते नहीं है पर चंद्रमा तो घूमता रहता है। फिर अपने आकाश और समुद्री सीमा की रक्षा के लिये सभी देश अपने यहां सेना रखते हैं पर चंद्रमा पर अपने क्षेत्र की रक्षा करने के लिये तभी समर्थ हो पायेंगे जब वहां पहुंच पायेंगे। बहरहाल इसलिये संभावना ऐसी ही हो सकती है कि जो देश वहां पहुंच सकते हैं उनमें ही यह बंटवारा हो।

अगर चंद्रमा की जमीन का बंटावारा हुआ तो उसका आधार यह भी बनेगा कि जो देश वहां पहुंच सकते हैं उनके देशों का क्षेत्रफल देखते हुए उसी आधार पर चंद्रमा की जमीन भी तय हो जाये। यानि समर्थवान देशोंे का क्षेत्रफल एक इकाई मानकर उसे चंद्रमा की पूरी जमीन के क्षेत्रफल से तोला जायेगा। उसके आधार पर जिसका हिस्सा बना वह उसका मालिक मान लिया जायेगा।

बाकी देशों का तो ठीक है भारत का क्षेत्रफल तय करने में भारी दिक्कत आयेगी भले ही भारत को उसी आधार पर चंद्रमा पर जमीन मिले जितना उसका क्षेत्रफल है। यह समस्या चीन और पाकिस्तान से ही आयेगी। चीन कहेगा कि अरुणांचल के क्षेत्र बराबर की जमीन भारत के हिस्से से कम कर उसे दी जाये तो पाकिस्तान कहेगा कि कश्मीर बराबर हिस्से की जमीन उसे दी जाये और वह उसे चीन को देगा। पाकिस्तान अभी चंद्रमा पर स्वयं पहुंचने की स्थिति में नहीं है।

वह वहां पहुंचकर भारत से तो नहीं लड़ सकता पर उसके मित्र ऐसे हैं जो उसके बिना चल ही नहीं सकते। फिर वह मित्र ऐसे हैं जो भारत को सहन नहीं कर सकते इसलिये वह पाकिस्तान को भले ही वहां न ले जायें पर उसका नाम लेकर भारत के लिये वहां भी संकट खड़ा कर सकते हैं।

वैसे देखा जाये तो जब से भारत ने चंद्रयान भेजा उसके खिलाफ गतिविधियां कुछ अधिक बढ़ ही गयीं हैं। कहने को अनेक देश भारत के साथ मित्रता का प्रदर्शन कर रहे हैं पर उनके दिल में पाकिस्तान ही बसता है और उनके लिये यह मुश्किल है कि वह चंद्रमा पर उसे भूल जायें-खासतौर भारत उनके सामने चुनौती की तरह खड़ा हो।

इस विवाद में पाकिस्तान के मित्र निश्चित रूप से उसका पक्ष लेकर झगड़ा करेंगे। अगर बैठक चंद्रमा पर होगी तो वह कहेंगे कि चूंकि भारत यहां एक दावेदार है उसके विरोधी पाकिस्तान का मौजूद रहना आवश्यक है सो बैठक जमीन पर ही हो। जमीन पर होगी तो कहेंगे कि पहले आपस में तय कर लो कि ‘वहां की जमीन का बंटवारा कैसे हो?’
सोवियत संघ एतिहासिक गलती ने पाकिस्तान को अमृतपान करा लिया है इसलिये यह देश आज हर उस देश को प्रिय है जो कभी सोवियत संध के विरोधी थे। 31 वर्ष पूर्व सोवियत संघ ने अफगानिस्तन में घुसपैठ की थी तब पश्चिम के सोवियत विरोधियों के लिये पाकिस्तान ही एक सहारा बना और उसे खूब हथियार और पैसा मिलने लगा। उसने वहां आतंकवाद जमकर फैलाया। सोवयत संघ को वहां से हटना पड़ा और उसके बाद तो पाकिस्तान के पौबारह हो गये। एक तरह से पूरा अफगानिस्तान उसके कब्जे में आ गया। मगर हालत अब बदले हैं तो वहां फिर अफगानियों का शासन आ गया पर पाकिस्तान अपनी खुराफतों से वहां भी आतंक फैलाये हुए है। वह अफगानिस्तान को अपने हाथ से छिनता नहीं देख पा रहा हैं।

अखबारों में यह भी पढ़ने में आया कि वहां तो बच्चों को स्कूल में ही भारत विरोधी शिक्षा दी जाती है। कहने को तो सभी भारतीय चैनल कह रहे हैं कि सारी दुनियां पाकिस्तान की औकात देख रही है। हो सकता है कि यह सच हो पर इसका एक पक्ष दूसरा भी है कि ‘पाकिस्तान बाकी दुनियां की औकात भारतवासियों को दिखा रहा है कि देखो अपने आतंक से सभी घबड़ाते हैं पर दूसरे का यहां फैला आतंकवाद उनको बहुत भाता है। भारत को शाब्दिक रूप से सहानुभूति सभी ने दी है पर किसी में पाकिस्तान के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की।

सभी देशों अब यह कह रहे हैं कि ‘आपस में बातचीत कर लो’। जब चंद्रमा पर जमीन का आवंटन होगा तब भी यही कहेंगे कि ‘पहले आपस में बातचीत कर लो।‘
इस तरह बाकी देश अपनी जमीन बांट लेंगे और भारत से कहेंगे कि ‘जब आपका पाकिस्तान से फार्मूला तय हो जाये तब जमीन आवंटित हो जायेगी।’

तब तक भारत क्या करेगा? उसके अंतरिक्ष यान क्या चंद्रमा की जमीन पर नहीं उतरेंगे? उतरेंगे तो सही पर उससे उसकी फीस मांगी जायेगी। जिस देश की जमीन पर उतरेगा उससे अनुमति मांगनी होगी। यह कहा जाये कि ‘आपका हक तो बनता है पर अभी आपको जमीन का आवंटन नहीं हुआ है।’

अगर हम तर्क देंगे कि ‘पाकिस्तान तो चंद्रमा पर पहुंच नहीं सकता तो उसके हक पर विवाद क्यों उठाया जा रहा है।’
दरअसल समस्या पाकिस्तान नहीं है। उसने अपनी स्थिति इस तरह बना ली है कि उसकी उपेक्षा तो कोई कर ही नहीं सकता। उसके पीछे फारस की खाड़ी तक फैले देश हैं जिनके पास तेल और गैस के कीमती भंडार हैं और बाकी अन्य ताकतवर देश उनके यहां पानी भरते हैं और वह सभी पाकिस्तान के बिना चल नहीं सकते।
कुल मिलाकर चंद्रमा पर जमीन विवाद में पाकिस्तान कोई कम संकट खड़े नहीं करेगा। उसके मित्र देश भी उसका फायदा उठाकर भारत की जमीन हथियाने का प्रयास करेंगे। हां, ऐसे में भारत के मित्र सोवियत संघ से ही उम्मीद की जा सकती है पर वहां भी उसने ऐसा कुछ किया तो पाकिस्तान के मित्र देश उसको चंद्रमा पर कर्ज या उधार के अंतरिक्ष यान देकर पहुंचा देंगे। वह हर हालात में लड़ेगा भारत ही। उसका एक ही आधार है भारत से लड़ना चाहे वह जमीन हो या चंद्रमा!’
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पाकिस्तान को भी झेलना पड़ सकता है संकट-आलेख


अगर संकेतों को साफ समझें तो आने वाले दिनों में भारत और पाकिस्तान के बीच कुछ घटने वाला है। मुंबई में हुए आतंकी हमले में पाकिस्तान की जमीन उपयोग करने का प्रमाण साफ मिल गया है और जिस तरह हमले में विदेशी नागरिक मरे हैं उसका विश्वाव्यापी प्रभाव हुआ है और पूरी दुनियां भारत की तरफ देख रही है कि वह कार्यवाही करता है।
राजनीति और सैन्य विशेषज्ञों की राय तो यही है कि पाकिस्तान के साथ जो इस समय राजनीतिक तौर पर सौहार्दपूर्ण संबंध हैं उसके चलते सीधी सैन्य कार्यवाही की धमकी देना ठीक नहीं है पर सीमित मात्रा में उसके आतंकी इलाकों पर हमला कर देना चाहिये। यह राय जो विशेषज्ञ दे रहे हैं वह न केवल अनुभवी हैं बल्कि उनका सम्मान भी हर कोई करता है।

भारत पाकिस्तान के बीच कोई बड़ा युद्ध होगा इसकी संभावना अगर न ही लगती तो यह भी लगता है कि कुछ न कुछ होगा। क्या होगा? इसका उत्तर देने से पहले पाकिस्तान की अंदरूनी स्थिति को समझना जरूरी है। पाकिस्तान में इस समय लोकतंत्र है। मुंबई के आतंकी हमले को लेकर वहां के लोकतांत्रिक नेताओं पर सीधे कोई आरोप नहीं लगा रहा। भारत भी नाराज बहुत है फिर भी वहां के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के प्रतिकूल कोई टिप्पणी नहीं दिखाई दे रही। दोनों नये हैं और लोकतांत्रिक नेता होने के नाते जानते हैं कि इस हमले से भारत ही नहीं बल्कि विश्व के सभी लोग उससे नाराज हैं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी तो भारत के साथ मित्रता के लिये अनेक बयान दे चुके हैं। प्रधानमंत्री गिलानी भी कोई भारत के विरुद्ध कोई अनर्गल बात नहीं कहते। इन दोनों के साथ कठिनाई यह है कि सेना पर अभी तक इनका वर्चस्व स्थापित नहीं हो सका है। दोनों साफ नहीं कहते पर यह सच है कि दोनों ही सेना से डरे हुए हैं और वह जानते हैं कि उनकी खुफिया ऐजेंसी आई.एस.आई. सेना और अपराधी शामिल भारत में आतंकी गतिविधियों में हैं पर कोई कार्यवाही कर पायेंगे इसमें संदेह है।

इन दोनों में भी एक अंतर है। जरदारी सिंध और गिलानी पंजाब प्रांत के हैं । पाकिस्तान में चार प्रांत हैं-पंजाब,सिंध,सीमा प्रांत, और बलूचिस्तान। आजादी के बाद पंजाब प्रांत का ही प्रभाव बाकी तीनों प्रांतों पर रहा है। सेना और प्रशासन पर उनका वर्चस्व रहा है पर बाकी तीनों प्रांतों में लोग आज भी पाकिस्तान का हृदय से अस्तित्व नहीं स्वीकार करते। भारत के विरुद्ध सबसे अधिक सक्रियता पंजाब प्रांत के लोग ही दिखाते हैं। शुरु में कबायली लोगों ने कश्मीर पर कब्जा करने में पाकिस्तान की सहायता अवश्य की थी पर बाद वह भी वहां की सरकार से असंतुष्ट हो गये। गिलानी भले ही पीपुल्स पार्टी के हैं और उन पर आसिफ जरदारी का पूरा नियंत्रण लगता है पर उनका पंजाबी होना भी यह संदेह पैदा करता है कि वह शायद ही भारत के हितचिंतक हों। जरदारी उस सिंध के हैं जो पाकिस्तान भक्ति से कोसों दूर हैं। बलूचिस्तान और सीमाप्रांत तो नाम के लिये ही पाकिस्तान का भाग हैं बाकी वहां के लोग अपना स्वायत्त जीवन जीते हैं।

सबसे बड़ी बात यह है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी ने तो पहले स्वयं ही माना है कि मुंबई में हुए हमले में उनके देश के उन तत्वों का हाथ हो सकता है जो दोनों के बीच दुश्मनी कराना चाहते हैं। उन्होंने तो यहां तक कहा है कि ‘उनकी सजा हमें क्यों देते हो?’ हालांकि बाद में भारत द्वारा 20 आंतकवादी मांगने के बाद उन्होंने इस बात से इंकार कर दिया। इससे यह तो पता चलता है कि पाकिस्तान में पंजाब की लाबी बहुत प्रभावी है और उसकी सहमति के बिना वहां काम करना कठिन है।

पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार होने के कारण भारत भी फूंक फूंक कर कदम रख रहा है क्योंकि वह ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता कि वहां की लोकतांत्रिक सरकार वहां अलोकप्रिय हो। ऐसे पाकिस्तान के अंदर सीमित कार्यवाही करने की संभावना बनती दिख रही है हालांकि पाकिस्तानी सेना की इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी यह भी देखने वाली बात है। इस सीमित कार्यवाही में पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकी शिविरों पर हमला करना भी शामिल है। वैसे अधिकतर विशेषज्ञ पाकिस्तान का बंटवारा करवाने के पक्ष में नहीं है पर कुछ लोग मानते हैं कि वहां की अदंरूनी राजनीति के गड़बड़झाले का लाभ उठाते हुए उसका विभाजन करना भी बुरा नहीं है।

भारतीय रक्षा,राजनीति और विदेश नीति विशेषज्ञ भी मानते हैं कि काबुल में हुए भारतीय दूतावास और अब मुंबई पर हमले में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी,सेना और अपराधियों का हाथ तो है पर वहां के प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति और अन्य लोकतांत्रिक नेता उनसे जुड़े नहीं है। ऐसे में आक्रमण की स्थिति होने पर वहां की लोकतांत्रिक सरकार भला कैसे चुप बैठ सकती है? आखिर कैसे वह भारत का समर्थन कर सकते है?’

पाकिस्तान का पूरा प्रशासन तंत्र अपराधियों के सहारे पर टिका है। वहां की सेना और खुफिया अधिकारियों के साथ वहां के अमीरों को दुनियां भर के आतंकियों से आर्थिक फायदे होते हैं। एक तरह से वह उनके माईबाप हैं। यही कारण है कि भारत ने तो 20 आतंकी सौंपने के लिये सात दिन का समय दिया था पर उन्होंने एक दिन में ही कह दिया कि वह उनको नहीं सौंपेंगे। वैसे देखा जाये तो काबुल दूतावास पर भारतीय दूतावास पर हमले पर भारत में उच्च स्तर पर कड़ी प्रतिक्रिया हुई थी पर चूंकि आम जनता उससे सीधे जुड़ी नहीं थी इसलिये इसका भारतीय प्रचार माध्यमों ने प्रचार भी नहीं किया। वैसे भी प्रचार माध्यम इस समय भले ही पाकिस्तान के प्रति रोष दिखा रहे हैं पर यही अपने कार्यक्रमों और प्रकाशनों में वहां के लोगों को स्थान देने के लालायित रहते हैं। भारतीय प्रचार माध्यम पाकिस्तान से आम आदमी के स्तर पर सपंर्क के नाम पर वहां के कुछ खास लोगों का यहां अपने व्यवसायिक उपयोग करते हैं। आज जब मुंबई पर हमला हुआ है तब उन्हें पाकिस्तान खलनायक नजर आ रहा है पर इस प्रचार में भी उनका व्यवसायिक भाव दिख रहा है-दिलचस्प बात यह है कि पाकिंस्तान से सभी प्रकार के संपर्क तोड़ने का नारा कोई नहीं लगा रहा है क्योंकि सभी अपने भविष्य की व्यवसायिक संभावनाओं को जीवित रखना चाहते हैं।

बहरहाल आने दिनों वाले में क्या होगा? कुछ नहीं कहा जा सकता है पर इतना तय है कि भारत और पाकिस्तान में अंदरूनी राजनीतिक गतिविधियां तीव्र हो जायेंगी। अगर आगे आतंकी घटनायें रोकनी हैं तो कुछ कठोर कदम तो उठाने ही होंगे। सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो फिर लोगों को समझाना कठिन होगा। पाकिस्तान के खिलाफ एक बड़ा युद्ध न भी हो पर सीमित कार्यवाही अवश्यंभावी प्रतीत होती है क्योंकि इसके बिना भारत के शक्तिशाली होने का प्रमाण नहीं मिल सकता। अब यह देखने वाली बात होगी कि आगे क्या होता है? एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि जब तक भारत इस आतंकवाद का मूंहतोड़ जवाब नहीं देता तब तक लोग उसकी शक्ति पर यकीन नहीं करेंगे।
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