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‘कोई नहीं’ की चाहत मत करना (हास्य व्यंग्य)


आप सुबह किसी दुकान पर जाकर ऐसे ही खड़े होकर वहां रखी चीजें देखिये तो दुकानदार आपसे पूछेगा‘ आपको कौनसी चीज चाहिये?’
आप कहेंगे-‘कोई नहीं’।
दुकानदार आपसे कहेगा-‘साहब, आप कोई चीज पसंद करिये तो आपको उचित दाम लगा दूंगा। हमारी बोहनी का टाईम है।‘
मतलब यह कि बाजार में आप निकलें तो किसी दुकान पर ऐसे नहीं खड़े रहिऐगा क्योंकि यह ‘कोई नहीं’ का नारा वहां लगाना वर्जित है। वैसे आपको यह शब्द कहते हुए भी संकोच होगा क्योंकि उस समय आपको नकारापन की अनुभूति होती है। वैसे आजकल बाजार और उसका प्रचारतंत्र बहुत सशक्त हो गया है। वह टीवी चैनलों के जरिये आपके घर तक पहुंच गया है और आप ‘कोई नहीं’ मन ही मन कहते रहियेगा पर उसके लिये तो इतने सारे घर हैं जहां से उसे ग्राहक मिल जाते हैं।
टीवी चैनल वैसे तो बहुत जनहितकारी होने का दावा करते हैं पर उसी हद तक जहां तक उनको एस.एम.एस. और टेलीफोन के जरिये सवालों के जवाब न मांगने हों। रोज टीवी चैनल कोई न कोई सवाल कर जवाब मांगते हैं।
आप बताईये भारत का सबसे बड़ा हीरो कौन है।
चार नाम देंगे। चाकलेटी, बिस्कुटी, चिकना, या सांवला! किसी का एक नाम लीजिये। ए, बी, सी, डी। उसमें कोई नहीं का विकल्प कभी नहीं देंगे।
आप बताईये इस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ हीरोईन कौनसी हैं?
उसमें भी चार नाम बता देंगे। लंबी, नाटी, भूरी आंखों वाली या नीली आंखों वाली।
मतलब आपको चारों तरफ से घेर लिया जाता है। उस घेरे में बैठकर कुड़ते रहो और मन ही मन कहते रहो ‘कोई नहीं’। वहां उनके पास एस.एम.एस. पहुंचते जाते हैं।
क्रिकेट मैच पर तीन विकल्प दिये जायेंगे
‘अपना देश जीतेगा, ‘दूसरा देश जीतेगा’ या ड्रा होगा। चाहें तो यहां भी एक विकल्प दे सकते हैं कि ‘बारिश के कारण बाधित होगा’। हां, इसकी गुंजायश है भी। मौसम विशेषज्ञों के पूर्वानुमान से कभी कभी यह अनुमान लग जाता है कि बारिश के कारण वह मैच शायद ही पूरा हो सके। मगर नहीं! बाजार के प्रचारक कभी आम इंसान को आजादी नहीं दे सकते। कहने को तो वह यही कहते हैं कि ‘हम भला किसी को जवाब भेजने की जबरदस्ती थोड़े ही करते हैं।’
मगर इस देश में खाली समय अनेक लोगों के पास बहुत है भले ही अधिकतर लोग यह दावा करते हैं कि ‘वह व्यस्त हैं’। अनेक लोग गुस्सा करते हैं पर उनकी सुनता कौन है ‘कोई नहीं’।
देश में पांच से दस चैहरे ऐसे हैं जिनको इन टीवी चैनलों पर हमेशा ही देखा जा सकता है। मनोरंजक चैनलों पर उनके गाने या फिल्म चल रही होगी। समाचार चैनलों में क्रिकेट का मैचा हो या आतंकवादी घटना के बाद पीड़ितों से हमदर्दी दिखाने का दृश्य उनकी उपस्थिति प्रदर्शित करने वाली खबर महत्वपूर्ण बनती है। सच बात तो यह है कि जो लोग क्रिकेट को एक खेल मानते हैं उनकी बुद्धि पर तरस ही आता है। यह एक व्यापार बन गया है। किसी समय क्रिकेट खिलाड़ी की फिल्मी हीरो से अधिक इज्जत समाज में थी पर अब दोनों का घालमेल हो गया है। जब हीरो फिल्म के सैट पर नहीं होता तो रैंप पर नृत्य करता है। उसी तरह क्रिकेट खिलाड़ी जब मैदान पर नहीं होता कहीं नृत्य या विज्ञापन की शुटिंग करता है। समाचार चैनलों पर उनके लिये पचास मिनट सुरक्षित हैं। हालत यह हो गयी है कि देश के सामाजिक कल्याण कार्यक्रम भी क्रिकेट और फिल्मी सितारों के मोहताज हो गये हैं।
टीवी चैनल जिनको समाचारों का सृजन करना चाहिये वह कुछ चैहरों का मोहताज हो गये हैं। लोग इस बात से नाराज हैं और अगर वह अपने प्रश्नों में ‘कोई नहीं‘ का विकल्प देंगे तो उनको इन चैहरों की औकात पता चल जायेगा और यकीनन तब हर क्षेत्र के समाचार में उनको जोड़ने की प्रवृत्ति से बचना जायेंगे। ऐसे में अन्य समाचार सृजन के लिये मेहनत करनी पड़ेगी और इससे हर कोई बचना चाहेगा।
एक कविराज अपनी चार रचनायें लेकर बड़ी उम्मीद के साथ अपने आलोचक मित्र के पास इस इरादे से गये कि वह अगर उनको ओ. के. कर दें तो किसी पत्रिका में भेज सकें। आलोचक ने उनकी रचनायें हाथ में ली और एक वापस करते हुए कहा-‘भई, तुम्हारा नाम कविराज है इसलिये इस निबंध पर हम दृष्टिपात नहीं करेंगे।’

कविराज यह सोचकर खुश हुए कि चलो आलोचक मित्र ने उनकी रचनाओं पर अपनी आलोचनात्मक दृष्टि डालना स्वीकार तो किया। आलोचक ने तीनों कवितायें देखी और फिर कविराज की तरफ लौटाते हुए कहा-‘इनमें से ‘कोई नहीं’।
कविराज का मूंह खुला रह गया। आलोचक ने कहा-‘तुम कवितायें ही बैठकर लिखते हो या टीवी और अखबार भी देखते हो? किसी भी सवाल के विकल्प में चार उत्तर होते हैैं पर उनमें से ‘कोई नहीं’ दिखाना वर्जित होता है। यहां तुम अपनी तीना कवितायें ले आये एक निबंध। निबंध तो प्रतियोगिता से बाहर हो गया इसलिये मुझे ‘कोई नहीं’ स्वतः उपलब्ध हुआ जिसका मैंने उपयोग कर लिया।’
कविराज का मूंह उतर गया। वह कागज समेट कर जाने लगे तो आलोचक महाराज ने कहा-‘बुरा मत मानना यार, अगली बार चार कवितायें ले आना। यह टीवी का गुस्सा है जो ‘कोई नहीं’ का विकल्प मिलते ही तुम पर उतर गया।’
यही कविराज बाद में एक पत्रिका में बच्चों के कालम के संपादक बने। उन्होंने बच्चो से पूछने के लिये एक प्रश्न बनाया जो कि उनका पहला था।
बताओ इनमें से कौनसा पक्षी है जो केवल स्वाति नक्षत्र का जल पीता है?
1. चिड़िया
2.कौआ
3.चकोर
4.कबूतर
अपना यह प्रश्न लेकर वह प्रधान संपादक से स्वीकृति लेने गये तो उसने कहा-‘कविराज इसमें कबूतर की जगह कोई नहीं का विकल्प क्यों नहीं देते? इससे प्रश्न थोड़ा रुचिकर हो जायेगा।’
कविराज ने कहा-‘क्या बात करते हो। आजकल के प्रचारतंत्र में यह संभव ही नहीं है। आम पाठक या दर्शक को ‘कोई नहीं’ का विकल्प देने का मतलब है कि उसे आजाद करना। आपने भी तो उस दिन एक प्रश्न बनाया था कि कौनसी फिल्म अभिनेत्री अधिक सुंदर है उसमें आपने ‘कोई नहीं’ का विकल्प नहीं दिया था।’
प्रधान संपादक ने कहा-‘यार, तुम भी अजीब आदमी हो। वह तो मैंने इसलिये नहीं दिया कि अगर ‘कोई नहीं’ के जवाब अधिक आये तो हम उसे छाप नहीं पायेंगे। होना यही था। अब लोग अधिक जानकार और उग्र हो गये हैं। अगर उनको नहीं छापता तो पत्रिका के दूसरे लोग बाहर जाकर हमारी पोल खोलते और छापता तो फिल्मों के जो विज्ञापन मिलते हैं वह बंद हो जाते। पत्रिका प्रबंधन नाराज हो जाता। तुम्हारे इस सवाल पर कौन कबूतर, चिड़िया, कौवा या चकोर आयेगा विरोध करने!
कविराज ने कहा-‘आदत! आदत बनी रहना चाहिये। लोगों को ‘कोई नहीं’ का विकल्प कभी भूल से भी न दें यह आदत बनाये रखना है। कल को आपकी अनुपस्थिति में फिल्म पर ही कोई सवाल बनाया तो उस समय भी यह आदत बनी रहेगी। अगर किसी टीवी चैनल में चला गया तो भी यह आदत बनी रहेगी।’

प्रचार प्रबंधकों को इस ‘कोई नहीं’ का विकल्प के पीछ्रे एक विद्रोह की संभावना छिपी दिखती है और बाजार के सहारे टिका ‘प्रचार तंत्र’ उसे कभी सामने नहीं आने देना चाहता। याद रहे बजार हमेशा विद्रोह से घबडाता है। अभी चार विकल्पों में इतने एस. एम. एस. नहीं आते होंगे जितने ‘कोई नहीं’ के विकल्प पर आयेंगे पर उससे प्रचारतंत्र के नायक नाराज हो जायेंगे जो हर घटना, दुर्घटना और त्यौहार पर प्रचारतंत्र को अपनी उपस्थिति देकर कृतार्थ करते हैं। होली, दिवाली और अन्य त्यौहार भी हमारा प्रचारतंत्र उनके सहारे ही मनाता है। ऐसे पांच से दस चैहरों के इर्दगिर्द गुलामों की तरह घूम रहा प्रचारतंत्र भला कैसे अपने ग्राहकों को-जो उनकी विज्ञापनदाता कंपनियों का उपभोक्ता भी है-कभी भी ‘कोई नहीं’ का विकल्प कैसे दे सकता है जो उनको बाजार के प्रचारतंत्र की थोपी गयी गुलाम सोच से आजाद कर देगा।
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जिन पर है दौलत मेहरबान-हास्य व्यंग्य कवितायें



धन, पद और प्रतिष्ठा की शक्ति
हो जाती है जिन पर मेहरबान
क्यों न करे वह उस पर अभिमान
इस जहां में सभी यही चाहते हैं
जिनसे दूर है यह सब
वह रहते हैं परेशान
गर्दन ऊपर उठाएँ देखते हैं
होकर हैरान

उनके लड़के मोटर साइकिलों
और कारों में चलते गरियाते हैं
अभावों से है वास्ता जिनका
वह उन्हें देखकर सहम जाते हैं
अपने वाहन को चलाते है ऐसे
जैसे करते हौं फिल्मी स्टंट
कोई नहीं कर पाता उनको शंट
जो रोकने की कोशिश करे
उस पर टूट पड़ें बनकर हैवान

गरीब अगर अमीर की चौखट पर
जाना बंद कर दे
जाये तो तैयार रहे
झेलने के लिए अपमान
सड़क पर चले तो
किसी से डरे या नहीं
नव-धनाढ्यों की सवारी से
बचकर चले
न हार्न दें
चाहे जहां और जब रूक जाएँ
मन में आये वहीं रूक जाएँ
यही उनकी पहचान

कहैं दीपक बापू
तेज गति से मति होती वैसे ही मन्द
फिर बाप के पैसे, पद और प्रतिष्ठा का
नशा हो जिनको
वह क्यों होंगे किसी नियम के पाबन्द
वह पडा है उनकी तिजोरी में बंद
अपने जीवन की सुरक्षा
अपने ही हाथ में रखो
बाकी करेंगे अपने भगवान
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वाह रे बाज़ार तेरा खेल
मैदान में पिटे हीरो को
कागज और फिल्म पर
चमकाकर और सजाकर
जनता के बीच देता है ठेल

क्रिकेट में कोई विश्वकप नही
जीत सके जो तथाकथित महान
ऐसे प्रचार का जाल बिछाते हैं
कि लोग फिर
उनके दीवाने बन जाते हैं
अपने पुराने विज्ञापन इस
तरह सबके बीच लाते हैं कि
लोग हीरो की नाकामी से
हो जाते हैं अनजान
और बिक जाता है बाजार में
उनका रखा और सडा-गडा तेल

न ताज कभी चला न चल सकता है
उस पर हुए करोड़ों के वारे-न्यारे
और वह चला भी ख़ूब
प्रचार ऐसा हुआ कि
पैसेंजर में नही लदा
खुद ही बन गया मेल

कहै दीपक बापू
शिक्षा तो लोगों में बहुत बढ़ी है
पर घट गया है ज्ञान
शब्दों का भण्डार बढ़ गया है
आदमी की अक्ल में
पर अर्थ की कम हो गयी पहचान
बाजार में वह नहीं चलता
चलाता है बाजार उसे
सामान खरीदने नहीं जाता
बल्कि घर लूटकर आता
और कभी सामान तो दूर
हवा में पैसे गँवा आता
विज्ञापन और बाजार का या खेल
जिसने कमाया वही सिकंदर
जिसने गँवाया वह बंदर
इससे कोई मतलब नही कि
कौन है पास कौन है फेल
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आँखें देखतीं हैं
कान सुनते हैं
और जीभ का काम है बोलना
पर जो पहचान करे
सुनकर जो गुने
और जो श्रीमुख से
शब्द व्यक्त करे
वह कौन है
हाथ करते हैं अपना काम
टांगों का काम है चलना
और कंधे उठाएं बोझ
पर जो पहुँचाता है लक्ष्य तक
जो देता है दान
और जो दर्द को सहलाता है
वह कौन है

कहैं दीपक बापू
कहाँ उसे बाहर ढूंढते हो
क्यों व्यर्थ में त्रस्त होते हो
बैठा तुम्हारे मन में
तुम उससे बात नहीं करते
इसलिये वह मौन है
जब तक तुम हो
तब तक वह भी है
तुम्हारा अस्तित्व है उससे
उसका जीवन है तुमसे
तुम सीमा में बंधे रहते हो
उसकी शक्ति अनंत है
तुम पहचानने की कोशिश करके देखो
वह तुम्हारा अंतर्मन नहीं तो और कौन है

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है। ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
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