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कहीं शादी कहीं प्रचार-हिन्दी सामयिक लेख


बीसीसीआई क्रिकेट टीम के कप्तान की शादी है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। हमने एक समाचार चैनल खोला था समाचार सुनने के लिये है पर कप्तान की शादी का प्रसंग सामने आ गया। इस लेखक ने अक्सर देखा है कि जब बाजार के उत्पादों के किसी विज्ञापन के माडल के-इनमें से अधिकतर क्रिकेट और फिल्म के होते हैं-शादी होने या राजनीति में आने की खबर होती है तो सभी चैनल उसे एक ही समय में प्रसारित करते हैं ताकि दर्शक भाग कर कहीं जा नहीं पाये और न ही उस माडल की आम आदमी उपेक्षा की जा सके। कहने को सारे चैनल अलग दिखते हैं ऐसे मौके पर एक हो जाते हैं। बाजार का उन पर कितना जोरदार नियंत्रण है यह ऐसे मौके पर देखा जा सकता है। इस लेखक ने कम से कम आठ समाचार चैनल बदले होंगे पर हर जगह बस वही बात! कप्तानी की शादी हो रही है इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। आज बाज़ार में घूमते हुए कहीं भी यह सुनाई नहीं दिया कि कप्तान की शादी हो रही है जबकि प्रचार माध्यम शोर मचाये हुए थे। ऐसे में व्यवसायिक प्रचार माध्यमों का यह दावा खोखला दिखता है कि वह तो दर्शकों की मांग के अनुरूप अपनी प्रस्तुति करते हैं। एक अभिनेता की राजनीति में आने की खबर पर भी ऐसा ही देखा गया था।
भारतीय प्रचार माध्यमों तथा आम नागरिकों के बीच अब एक लंबी मनोवैज्ञानिक खाई बन गयी है जिसे हम विश्वास का संकट भी कह सकते हैं। दरअसल प्रचार संगठनों में काम करने वाले लोग जहां अपनी अभिव्यक्ति की शक्ति का महत्व समझते हैं वहीं यह भूल जाते हैं कि अंततः आम आदमी की सहानुभूति के बिना उसका लाभ उठाना संभव नहीं है। एक तरफ प्रचार माध्यम आम आदमी को निहायत मूर्ख मानकर अपने आय अर्जन के इकलौते लक्ष्य पर काम कर रहे हैं वहीं आम आदमी उनको व्यवसायिक छल प्रपंच मानकर उनकी बात पर ध्यान नहीं देता।
ऐसे में अनेक बुद्धिजीवी आम आदमी के चेतना विहीन होने की शिकायत कर रहे हैं तो उन्हें यह भी देखना चाहिये कि उनकी सीमित सोच ने आदमी के दिमागी दायरे को अत्यंत सीमित कर दिया है। हम टीवी चैनलों और समाचार पत्रों कि महत्व को जानते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि हमें यह भी पता है कि उनकी समाज निर्माण में अत्यंत प्रभावी भूमिका हो्रती है। ऐसे में यह देखना आवश्यक है कि प्रचार माध्यमों की भूमिका किस तरह की है और अगर हम समाज को सुप्तावस्था में देख रहे हैं तो उसके पीछे उनकी कितनी जिम्मेदारी है?
सबसे बड़ी बात यह है कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम मानते हैं कि जो लोग देखना, सुनना और पढ़ना चाहते हैं वही हम प्रस्तुत कर रहे हैं क्योंकि इसके बिना व्यवसाय नहीं चलता।
अगर वह इस तर्क पर काम करते हैं तो उससे जुड़े बुद्धिजीवियों को यह शिकायत नहीं करना चाहिए कि समाज सो रहा है।
समाचारों से जुड़े टीवी चैनलों और अखबारों के संचालकों को अब इस बात का आभास नहीं है कि उनका जिम्मा केवल अपने उपभोक्ताओं के सामने समाचार प्रस्तुत करना ही नहीं है वरन् संपादकीय, लेखों तथा चर्चाओं के द्वारा उनमें विचार निर्माण करने का काम भी है। यहां वह यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते कि हर आदमी पढ़ा लिखा है और वह स्वयं ही विचार कर सकता है। एक ब्लाग लेखक के रूप में हम भी यह देख रहे हैें कि अनेक स्तंभकार ब्लाग लेखकों की रचनाओं से विचार लेकर लिख रहे हैं। इसका आशय यह है कि विचारों का क्रमिक विकास तभी संभव है जब कहीं दूसरी जगह से पढ़ा, सुना और देखा जाये।
अब जरा समाचार टीवी चैनलों और अखबारों के समाज में विचार निर्माण के प्रयासों को देखा जाये तो यह नहीं लगता कि वह इस काम को गंभीरता से ले रहे हैं। इस मामले में दूरदर्शन के कुछ प्रयास गंभीरता लिये हुए लगते हैं जबकि व्यवसायिक चैनल पूरी तरह से लापरवाही दिखाते हैं। टीवी चैनलों ने कुछ खास मौकों के लिये दो चार विशेषज्ञ तय कर रखे हैं जो क्रिकेट, आतंकवाद, रेल या बस हादसों तथा महिला उत्पीड़न जैसे विषयों पर आकर रटी रटाई बातें बोलते हैं और खानापूरी हो जाती है। यही स्थिति अनेक समाचार पत्रों की है। उनके लेखों तथा संपादकीयों में समाचारों के दोहराव के अलावा थोड़ी बहुत राय होती है पर वह बेबाक नहीं लगती। इतना ही नहीं उनके विचारों का प्रस्तुतीकरण भी इतना कमजोर रहता है कि पाठक या दर्शक उसे अधिक देर तक ध्यान नहीं रख पाता। यही कारण है कि आजकल कहीं भी कोई बुद्धिमान किसी अखबार की राय का बयान कर अपनी बात नहीं रखता। अखबारों के समाचारों की चर्चा अक्सर मिलती है पर विचार एकदम लापता लगता है।
समाचार टीवी चैनलों ने तो बहुत निराश किया है? जब दूरदर्शन अकेला था तब उसके समाचार सुनने की आम लोगों में एक आदत हो गयी थी और व्यवसायिक समाचार चैनलों ने उसका दोहन भी खूब किया पर उसको नियमित बनाये रखने में नाकाम रहे। यही कारण है कि प्रतिदिन समाचार देखने वाले बहुत लोग अनेक दिन तक तो समाचार चैनल खोलकर देखते तक नहीं हैं। एक घंटे तक समाचार दिखाने का दावा करने वाले यह सभी चैनल बुमश्किल पांच मिनट समाचारों के लिये हैं-उनका शेष समय क्रिकेट, फिल्म और फूहड़ हास्य प्रस्तुत करने में बीत जाता है। यह विज्ञापन चैनल जैसे हो गये हैं। एक तरह से संदेश देते हैं कि यह समाचार और विचार देखना छोड़कर उस तरफ जाओ जो हमारे बाजार नियंत्रकों ने सजा रखा है।
ऐसे में निराश हाथ लगती है। स्थिति यह है कि समाज में चेतना लुप्त होती जा रही है और जिनमें चेतना है उनके पास ऐसे साधन नहीं है जिससे उसमें निरंतरता बनी रहे। हालांकि इधर हिन्दी ब्लाग जगत पर काफी बेबाक राय सामने आ रही है पर वहां जागरुक लोगों की पहुंच अधिक नहीं है। दूसरा यह भी है कि ब्लाग जगत को लेकर प्रचार माध्यम योजनापूर्वक इस बात का प्रयास कर रहे हैं कि यहां बाजार के मुखौटे ही प्रसिद्ध बने न कि आम लेखक। यही कारण है कि क्रिकेट खिलाड़ियो, फिल्म अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों के ब्लाग तथा वेबसाईट या ब्लाग बनाने के समाचार देते हैं। इससे समाज में यह धारणा बनती जा रही है कि ब्लाग केवल खास लोगों की अभिव्यक्ति के लिये है।
इस लेखक ने अपने एक कार्टूनिस्ट मित्र को ब्लाग बनाने की राय दी तो उसका जवाब था कि मैं भला कोई एक्टर या क्रिकेट खिलाड़ी हूं जो कोई मेरा ब्लाग देखेगा।’
दूसरी मजे की बात यह है कि इस लेखक के अनेक पाठ बिना नाम के छापे जा रहे हैं। गांधी जयंती पर इस लेखक के लिखे गये पाठों का एक स्तंभकार ने उपयोग किया। इस लेखक के मित्र तथा पढ़ने वाले लोग जानते हैं कि उन पाठों में जो विचार व्यक्त किये गये थे वैसे किसी बुद्धिजीवी ने नहीं किये। जो लोग गांधी विषय पर विशारद होने का दावा करते हैं वह उन लेखों को पढेंगे तो हैरान रह जायेंगे-एक लेखक मित्र ने उनको पढ़कर यही कहा था। मगर यह आत्मप्रवंचना नहीं है बल्कि यह बताया जा रहा है कि समाचार में चिंतन और विचार का जो संकट है वह प्रचार माध्यमों की उपेक्षा तथा रूढ़ता के कारण है और हिन्दी ब्लाग जगत ही उसका सामना करने में सक्षम है और यह बेहतर होगा कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम इस आशंका से परे हो जायें कि यहां ब्लाग लेखकों नाम सहित अपने यहां स्थान देने से कोई ऐसी लोकप्रियता मिल जायेगी कि बाजार की बड़ी कंपनियों के विज्ञापन उनको मिलने लगेंगे। अलबत्ता हिन्दी में चिंतन तथा विचार के क्षेत्र में जो जड़ता की स्थिति है उससे निपटने लिये उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम ब्लाग लेखकों से तारतम्य बनायें। अगर क्रिकेट खिलाड़ियों, फिल्म अभिनेताओ तथा अभिनेत्रियों की शादी तथा प्रेम प्रसंगों से समय काटने को ही वह अपना व्यवसायिक धर्म समझते हैं तो फिर हमें कुछ नहीं कहना है।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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समाज सुधार के लिये प्रचारात्मक प्रयास की आवश्यकता-आलेख


समाज को सुधारने की प्रयास हो या संस्कृति और संस्कारों की रक्षा का सवाल हमेशा ही विवादास्पद रहा है। इस संबंध में अनेक संगठन सक्रिय हैं और उनके आंदोलन आये दिन चर्चा में आते हैं। इन संगठनों के आंदोलन और अभियान उसके पदाधिकारियेां की नीयत के अनुसार ही होते हैं। कुछ का उद्देश्य केवल यह होता है कि समाज सुधारने के प्रयास के साथ संस्कृति और संस्कारों की रक्षा का प्रयास इसलिये ही किया जाये ताकि उसके प्रचार से संगठन का प्रचार बना रहे और बदले में धन और सम्मान दोनों ही मिलता रहे। कुछ संगठनों के पदाधिकारी वाकई ईमानदार होते हैं उनके अभियान और आंदोलन को सीमित शक्ति के कारण भले ही प्रचार अधिक न मिले पर वह बुद्धिमान और जागरुक लोगों को प्रभावित करते हैं।
ईमानदारी से चल रहे संगठनों के अभियानों और आंदोलनों के प्रति लोगों की सहानुभूति हृदय में होने के बावजूद मुखरित नहीं होती जबकि सतही नारों के साथ चलने वाले आंदोलनों और अभियानों को प्रचार खूब मिलता है क्योंकि प्रचार माध्यम उनको अपने लिये भावनात्मक रूप से ग्राहकों को जोड़े रखने का एक बहुत सस्ता साधन मानते हैं। ऐसे कथित अभियान और आंदोलन उन बृहद उद्देश्यों को पूर्ति के लिये चलते हैं जिनका दीर्घावधि में भी पूरा होने की संभावना भी नहीं रहती पर उसके प्रचार संगठन और पदाधिकारियों के प्रचारात्मक लाभ मिलता है जिससे उनको कालांतर में आर्थिक और सामाजिक उपलब्धि प्राप्त हो जाती है।

मुख्य बात यह है कि ऐसे संगठन दीवारों पर लिखने और सड़क पर नारे लगाने के अलावा कोई काम नहीं करते। उनके प्रायोजक भी इसकी आवश्यकता नहीं समझते क्योंकि उनके लिये यह संगठन केवल अपनी सुरक्षा और सहायता के लिये होते हैं और उनको समझाईश देना उनके लिये संभव नहीं है। अगर इस देश में समाज सुधार के साथ संस्कार और संस्कृति के लिये किसी के मन में ईमानदारी होती तो वह उन स्त्रोतों पर जरूर अपनी पकड़ कायम करते जहां से आदमी का मन प्रभावित होता है।
भाररीय समाज में इस समय फिल्म, समाचार पत्र और टीवी चैनलों का बहुत बड़ा प्रभाव है। भारतीय समाज की नब्ज पर पकड़ रखने वाले इस बात को जानते हैं। लार्ड मैकाले ने जिस तरह वर्तमान भारतीय शिक्षा पद्धति का निर्माण कर हमेशा के लिये यहां की मानसिकता का गुलाम बना दिया वही काम इन माध्यमों से जाने अनजाने हो रहा है इस बात को कितने लोगों ने समझा है?
पहले हिंदी फिल्मों की बात करें। कहते हैं कि उनमें काला पैसा लगता है जिनमें अपराध जगत से भी आता है। इन फिल्मों में एक नायक होता है जो अकेले ही खलनायक के गिरोह का सफाया करता है पर इससे पहले खलनायक अपने साथ लड़ने वाले अनेक भले लोगों के परिवार का नाश कर चुका है। यह संदेश होता है एक सामान्य आदमी के लिये वह किसी अपराधी से टकराने का साहस न करे और किसी नायक का इंतजार करे जो समाज का उद्धार करने आये। कहीं भीड़ किसी खलनायक का सफाया करे यह दिखाने का साहस कोई निर्माता या निर्देशक नहीं करता। वैसे तो फिल्म वाले यही कहते हैं कि हम तो जो समाज में जो होता है वही दिखाते हैं पर आपने देखा होगा कि अनेक ऐसे किस्से हाल ही में हुए हैं जिसमें भीड़ ने चोर या बलात्कारी को मार डाला पर किसी फिल्मकार ने उसे कलमबद्ध करने का साहस नहीं दिखाया। संस्कारों और संस्कृति के नाम पर फिल्म और टीवी चैनलों पर अंधविश्वास और रूढ़वादितायें दिखायी जाती हैं ताकि लोगों की भारतीय धर्मों के प्रति नकारात्मक सोच स्थापित हो। यह कोई प्रयास आज का नहीं बल्कि बरसों से चल रहा है। इसके पीछे जो आर्थिक और वैचारिक शक्तियां कभी उनका मुकाबला करने का प्रयास नहीं किया गया। हां, कुछ फिल्मों और टीवी चैनलों के कार्यक्रमों का विरोध हुआ पर यह कोई तरीका नहीं है। सच बात तो यह है कि किसी का विरोध करने की बजाय अपनी बात सकारात्मक ढंग से सामने वाले के दुष्प्रचार पर पानी फेरना चाहिये।

एक ढर्रे के तहत टीवी चैनलों और फिल्मों में कहानियां लिखी जाती हैं। यह कहानी हिंदी भाषा में होती है पर उसको लिखने वाला भी हिंदी और उसके संस्कारों को कितना जानता है यह भी देखने वाली बात है। मुख्य बात यह है कि इस तरह के कार्यक्रमों के पीछे जो आर्थिक शक्ति होती है उसके अदृश्य निर्देशों को ध्यान में रखा जाता है और न भी निर्देश मिलें तो भी उसका ध्यान तो रखा ही जाता है कि वह किस समुदाय, भाषा, जाति या क्षेत्र से संबंधित है। विरोध कर प्रचार पाने वाले संगठन और उनके प्रायोजक-जो कि कोई कम आर्थिक शक्ति नहीं होते-स्वयं क्यों नहीं फिल्मों और टीवी चैनलों के द्वारा उनकी कोशिशों पर फेरते? इसके लिये उनको अपने संगठन में बौद्धिक लोगों को शामिल करना पड़ेगा फिर उनकी सहायता लेने के लिये उनको धन और सम्मान भी देना पड़ेगा। मुश्किल यही आती है कि हिंदी के लेखक को एक लिपिक समझ लिया है और उसे सम्मान या धन देने में सभी शक्तिशाली लोग अपनी हेठी समझते हैं। यकीन करें इस लेखक के दिमाग में कई ऐसी कहानियां हैं जिन पर फिल्में अगर एक घंटे की भी बने तो हाहाकार मचा दे।

इस समाज में कई ऐसी कहानियां बिखरी पड़ी हैं जो प्रचार माध्यमों में सामाजिक एकता, समरसता और सभी धर्मों के प्रति आदर दिखाने के कथित प्रयास की धज्जियां उड़ा सकती है। प्यार और विवाह के दायरों तक सिमटे हिंदी मनोरंजन संसार को घर गृहस्थी में सामाजिक, धार्मिक और अन्य बंधन तोड़ने से जो दुष्परिणाम होते हैं उसका आभास तक नहीं हैं। आर्थिक, सामाजिक और दैहिक शोषण के घृणित रूपों को जानते हुए भी फिल्म और टीवी चैनल उससे मूंह फेरे लेते हैं। कटु यथार्थों पर मनोरंजक ढंग से लिखा जा सकता है पर सवाल यह है कि लेखकों को प्रोत्साहन देने वाला कौन है? जो कथित रूप से समाज, संस्कार और संस्कृति के लिये अभियान चलाते हैं उनका मुख्य उद्देश्य अपना प्रचार पाना है और उसमें वह किसी की भागीदारी स्वीकार नहीं करते।
टीवी चैनलों पर अध्यात्मिक चैनल भी धर्म के नाम पर मनोरंजन बेच रहे हैं। सच बात तो यह है कि धार्मिक कथायें और और सत्संग अध्यात्मिक शांति से अधिक मन की शांति और मनोरंजन के लिये किये जा रहे हैं। बहुत लोगों को यह जानकर निराशा होगी कि इनसे इस समाज, संस्कृति और संस्कारों के बचने के आसार नहीं है क्योंकि जिन स्त्रोतों से प्रसारित संदेश वाकई प्रभावी हैं वहां इस देश की संस्कृति, संस्कार और सामाजिक मूल्यों के विपरीत सामग्री प्रस्तुत की जा रही है। उनका विरोध करने से कुछ नहीं होने वाला। इसके दो कारण है-एक तो नकारात्मक प्रतिकार कोई प्रभाव नहीं डालता और उससे अगर हिंसा होती है तो बदनामी का कारण बनती है, दूसरा यह कि स्त्रोतों की संख्या इतनी है कि एक एक को पकड़ना संभव ही नहीं है। दाल ही पूरी काली है इसलिये दूसरी दाल ही लेना बेहतर होगा।

अगर इन संगठनों और उनके प्रायोजकों के मन में सामाजिक मूल्यों के साथ संस्कृति और संस्कारों को बचाना है तो उन्हें फिल्मों, टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में अपनी पैठ बनाना चाहिये या फिर अपने स्त्रोत निर्माण कर उनसे अपने संदेशात्मक कार्यक्रम और कहानियां प्रसारित करना चाहिए। दीवारों पर नारे लिखकर या सड़कों पर नारे लगाने या कहीं धार्मिक कार्यक्रमों की सहायता से कुछ लोगों को प्रभावित किया जा सकता है पर अगर समूह को अपना लक्ष्य करना हो तो फिर इन बड़े और प्रभावी स्त्रोतों का निर्माण करें या वहां अपनी पैठ बनायें। जहां तक कुछ निष्कामी लोगों के प्रयासों का सवाल है तो वह करते ही रहते हैं और सच बात तो यह है कि जो सामाजिक मूल्य, संस्कृति और संस्कार बचे हैं वह उन्हीं की बदौलत बचे हैं बड़े संगठनों के आंदोलनों और अभियानों का प्रयास कोई अधिक प्रभावी नहीं दिखा चाहे भले ही प्रचार माध्यम ऐसा दिखाते या बताते हों। इस विषय पर शेष फिर कभी।
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‘बिन फेरे हम तेरे’ से चिंतित घनेरे-हास्य व्यंग्य live in reletionship


‘बिन फेरे, बने बसेरे’ को जब राज्य की वैधानिकता का प्रमाण मिलना प्रस्तावित भर हुआ है तब देश में एक नयी बहस शुरु हो गयी है-वैसे तो यहां हर वक्त कोई बहस चलती है पर बाकी इस समय पृष्ठभूमि में चली गयी हैं। इसमें एक तरफ वह लोग हैं जो समाज, संस्कृति और धर्म का किला ध्वस्त होने की वजह से आशंकित हैं तो दूसरी तरफ वह लोग इसमें स्त्रियों के अधिकारों को लेकर प्रसन्न है।

सच तो यह है कि इस देश में ऐसी कई बहसें चलती हैं जिनका अपने आप में कोई निष्कर्ष निकलता ही नहीं हैं और खास तौर से स्त्री पुरुष के संबंधों का विषय तो ऐसा है जिस पर आज तक कोइ दावे से अपनी बात नहीं कह पाया। फिर आजकल के बुद्धिजीवी जिनको वाद और नारों पर चलते हुए वैसा ही करने की आदत हो गयी है।
स्थिति यह है कि बिना विवाह किये ही स्त्री पुरुष के साथ रहने को वैधानिक रूप देने का जो प्रस्ताव है उसका स्वरूप क्या है, यह जाने बिना ही तर्क दिये जा रहे हैं। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में ‘बिन फेरे हम तेरे’ शीर्षक लगाकर लोगों का ध्यान आकर्षित किया गया। मतलब फिल्म का टाईटल या गाने के आसरे ही अपनी बात कह रहे हैं कोई नया शीर्षक नहीं मिला। जैसे कि ‘बिने फेरे अब बनंेगे बसेरे’ या ‘बिन विवाह, इक घर होगा वाह!’

उस दिन तो हद ही हो गयी एक समाजशास्त्री इस विषय पर एक फिल्म का हवाला देकर अपनी बहस आगे बढ़ा रही थी‘ उस फिल्म में जैसा दिखाया गया है’ ‘अमुक फिल्म की नायिका के साथ यह हुआ’ और ‘अमुक फिल्म का नायक यह कह रहा था’ जैसे जुमले का उपयोग किया और फिर इस कानून का समर्थन किया। अब समझ मेें यह आ नहीं आ रहा था कि वह समाजशास्त्री थीं या फिल्मी कहानी विशेषज्ञ! हिंदी फिल्में कतई समाज का आईना नहीं होती क्योंकि साहित्य से उनका कोई सरोकार नहीं होता।

बुद्धिजीवियों की इस स्थिति को यह लगता है कि या तो फिल्म के दृष्टिकोण से समाज को देखा जायेगा या फिर विदेशी विचाराधारा के आईने इसका आंकलन होगा। सब तरफ बहसे देखें तो केवल सतही तर्कों पर हो रही है। कुछ धर्मशास्त्री तो अपने धर्म के विरुद्ध बता रहे हैं। समाज शास्त्री अपने अपने दृष्टिकोण से इस पर विचार व्यक्त कर रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि इस कानून का विस्तृत ब्यौरा किसी के पास उपलब्ध नहीं है।

एक स्त्री पुरुष का बिना विवाह किये साथ रहना कोई नयी बात नहीं है। बस अंतर यह है कि अधिकतर मामलों में पुरुष का एक विवाह हुआ होता है और वह समाज के डर के मारे दूसरा विवाह तो कर नहंी पाता और फिर उसका किसी अन्य स्त्री से संपर्क हो जाता है और अधिकतर मामलों में वह अविवाहित होती है। ऐसा कोई आज नहीं बल्कि सदियों से हो रहा है। राजा, महाराजों और जमीदारों के ऐसे एक नहंी हजार किस्से हैं जिनकी अपने क्षेत्रों में कहानियां बनी हुईं हैंं। कुछ लोगों ने गोली नाम का एक उपन्यास शायद पढ़ा हो उसमें एक राजा अपनी एक रखैल का विवाह अपने ही एक नौकर से करा देता है जबकि वह उसके पास एक दिन के लिये भी नहीं रहती। उसका पूरा जीवन ही अपने मालिक के सानिध्य में बीतता है। बताते हैं कि इस तरह की गोली प्रथा देश के कुछ हिस्सों में थी जिसमें राजा,महाराज और जमीदार इस तरह महिलाओं को गुलाम बनाकर रखते थे।

आधुनिक भारत में तो यह आम चलने में आ गया है। जिस तरह पहले राजा,महाराजा और जमीदारों की पहचान थी ऐसी विलासिता तो आज वह फैशन हो गयी है। जिन फिल्मों की कहानियों से इस समाज को देखने का प्रयास हो रहे हैं उनके अभिनेता और अभिनेत्रियों के निजी जीवन में तो ऐसी अनेक कहानियां हैं जो समाज में इतनी नहीं होतीं।

एक बात निश्चित है कि देश को पाश्चात्य सभ्यता के रोग ने जिस तरह ग्रस लिया है उससे तो फिलहाल मुक्ति संभव नहीं है। इससे एक तो पारिवारिक संस्कृति ध्वस्त हुई है दूसरे सुख सुविधा के साधनों के उपयोग से आदमी का घरेलू व्यय बढ़ा है और इसने एक ऐसे तनाव को जन्म दिया है जिसकी चर्चा कम ही लोग सार्वजनिक रूप से करते हैं। जिनके पास नहीं है वह अपने परिवार में ऐसी सुविधायें लाने के लिये प्रयत्नशील हैं और यह उनके लिये साधन नहंी बल्कि जीवन का लक्ष्य बनकर रह जाता है। एक आई तो दूसरी लानी है।

‘बिन फेरे बने बसेरे’ की पद्धति को वैधानिक मान्यता मिलने या न मिलने से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला क्योंकि इसे सामाजिक मान्यता मिलने में सदियां लग जायेंगी। जैसे दहेज विरोधी कानून बन गया पर यह प्रथा एक अंश भी बाधित नहीं हुई। यही हाल ‘बिन फेरे बने बसेरे का भी होना है’। हां, यह एकदम आधुनिक किस्म के अविवाहित युवक युवतियों को तत्कालिक रूप से पसंद आयेगा पर बाद में इस पर चलने वाले पछतायेंगे भी। अभी इसका पूरा मसौदा किसी के सामने नहीं आया पर इसे अत्यंत सावधानी से बनाना होगा वरना दुरुपयोग कहीं दुरुपयोग तो तमाम ऐसी विसंगतियां समाज के सामने आयेंगी जिससे झेलना कठिन होगा।

यह बात याद रखने लायक है कि विवाह एक स्त्री और पुरुष के बीच जरूर होता है पर इससे दोनों के परिवार के अन्य लोग भी एक दूसरे के साथ जुड़ते हैं। अगर खुशी में दोनों के रिश्तेदार आते हैं तो दुःख में निभाते भी हैं। जीवन का कोई भरोसा नही है इसलिये विवाह नाम की यह संस्था बनी है। ‘बिना फेरे बने बसेरे‘की पद्धति अपनाने वालों को बाद में बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। किसी एक को दुःख पहुंचा तो दूसरा स्वयं ही उसे संभाल सकता है और बाकी रिश्तेदार तो कन्नी काट जायेंगे‘क्या हमें शादी पर बुलाया था जो अब तकलीफ में याद आ रही है?’ खासतौर से जिन लड़कियों के अधिकारों की बात कर रहे हैं उनके सामने ही सबसे अधिक संकट आ सकता है क्योंकि दुःख और तकलीफ में उसे किसी न किसी की सहायता आवश्यकता प्रतीत होती है। हां, यह बात केवल उन्हीं मामलोंे में लागू होती है जहां दोनों का पहला विवाह हो अगर किसी ने एक विवाह कर रखा है दूसरे के साथ ऐसे ही रिश्ता चला रहा है तो फिर उसके बारे में कहना तो व्यर्थ ही है। हालांकि सबसे बड़ा सवाल तो इसमें यह आने वाला है कि एक वैध विवाह करते हुए केाई दूसरे से ऐसा रिश्ता रख सकता है।

बहरहाल यह प्रथा बड़े शहरों में तो पहले ही चल रही है पर छोटे शहरों में इसका प्रचलन अभी नहीं है। वैसे जो इस कानून का विरोध कर रहे हैं उन्हें समाज का ज्ञान नहीं है। उन्हें लगता हैकि इससे तो समाज में तमाम तरह की विसंगतियां आयेंगी। उनके तर्क गलत हैं क्योंकि वह देश के युवक और युवतियों के मजबूत संस्कारों को अनदेखा कर रहे हैं। भारत में भले ही पाश्चात्य सभ्यता का बोलबाला है पर आज भी युवक युवतियों अगर किसी की तरफ आकर्षित होते हैं तो उनके मन में विवाह करने की इच्छा भी जाग उठती है। प्यार भले ही पाश्चात्य ढंग से हो पर मिलन हमेशा भारतीय तरीके से ही होता है। युवक युवतियों को एकदम बेवकूफ मानने वाले इन बुद्धिजीवियों पर तो तरस ही आता है। किसी प्रकार का तर्क वितर्क करते हुए इस बात को याद रखना चाहिये कि युवक युवतियों का खून गर्म होता है पर विषाक्त नहीं जो वह अपने अच्छे बुरे का निर्णय कर सकें। ‘बिन फेरे बने बसेरे की राह पर इतने लोग नहीं चलेंगे जितना सोचा जा रहा है और चल रहे हैं उनको रोका भी किसने था।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

जिन पर है दौलत मेहरबान-हास्य व्यंग्य कवितायें



धन, पद और प्रतिष्ठा की शक्ति
हो जाती है जिन पर मेहरबान
क्यों न करे वह उस पर अभिमान
इस जहां में सभी यही चाहते हैं
जिनसे दूर है यह सब
वह रहते हैं परेशान
गर्दन ऊपर उठाएँ देखते हैं
होकर हैरान

उनके लड़के मोटर साइकिलों
और कारों में चलते गरियाते हैं
अभावों से है वास्ता जिनका
वह उन्हें देखकर सहम जाते हैं
अपने वाहन को चलाते है ऐसे
जैसे करते हौं फिल्मी स्टंट
कोई नहीं कर पाता उनको शंट
जो रोकने की कोशिश करे
उस पर टूट पड़ें बनकर हैवान

गरीब अगर अमीर की चौखट पर
जाना बंद कर दे
जाये तो तैयार रहे
झेलने के लिए अपमान
सड़क पर चले तो
किसी से डरे या नहीं
नव-धनाढ्यों की सवारी से
बचकर चले
न हार्न दें
चाहे जहां और जब रूक जाएँ
मन में आये वहीं रूक जाएँ
यही उनकी पहचान

कहैं दीपक बापू
तेज गति से मति होती वैसे ही मन्द
फिर बाप के पैसे, पद और प्रतिष्ठा का
नशा हो जिनको
वह क्यों होंगे किसी नियम के पाबन्द
वह पडा है उनकी तिजोरी में बंद
अपने जीवन की सुरक्षा
अपने ही हाथ में रखो
बाकी करेंगे अपने भगवान
————————–

वाह रे बाज़ार तेरा खेल
मैदान में पिटे हीरो को
कागज और फिल्म पर
चमकाकर और सजाकर
जनता के बीच देता है ठेल

क्रिकेट में कोई विश्वकप नही
जीत सके जो तथाकथित महान
ऐसे प्रचार का जाल बिछाते हैं
कि लोग फिर
उनके दीवाने बन जाते हैं
अपने पुराने विज्ञापन इस
तरह सबके बीच लाते हैं कि
लोग हीरो की नाकामी से
हो जाते हैं अनजान
और बिक जाता है बाजार में
उनका रखा और सडा-गडा तेल

न ताज कभी चला न चल सकता है
उस पर हुए करोड़ों के वारे-न्यारे
और वह चला भी ख़ूब
प्रचार ऐसा हुआ कि
पैसेंजर में नही लदा
खुद ही बन गया मेल

कहै दीपक बापू
शिक्षा तो लोगों में बहुत बढ़ी है
पर घट गया है ज्ञान
शब्दों का भण्डार बढ़ गया है
आदमी की अक्ल में
पर अर्थ की कम हो गयी पहचान
बाजार में वह नहीं चलता
चलाता है बाजार उसे
सामान खरीदने नहीं जाता
बल्कि घर लूटकर आता
और कभी सामान तो दूर
हवा में पैसे गँवा आता
विज्ञापन और बाजार का या खेल
जिसने कमाया वही सिकंदर
जिसने गँवाया वह बंदर
इससे कोई मतलब नही कि
कौन है पास कौन है फेल
——————-

आँखें देखतीं हैं
कान सुनते हैं
और जीभ का काम है बोलना
पर जो पहचान करे
सुनकर जो गुने
और जो श्रीमुख से
शब्द व्यक्त करे
वह कौन है
हाथ करते हैं अपना काम
टांगों का काम है चलना
और कंधे उठाएं बोझ
पर जो पहुँचाता है लक्ष्य तक
जो देता है दान
और जो दर्द को सहलाता है
वह कौन है

कहैं दीपक बापू
कहाँ उसे बाहर ढूंढते हो
क्यों व्यर्थ में त्रस्त होते हो
बैठा तुम्हारे मन में
तुम उससे बात नहीं करते
इसलिये वह मौन है
जब तक तुम हो
तब तक वह भी है
तुम्हारा अस्तित्व है उससे
उसका जीवन है तुमसे
तुम सीमा में बंधे रहते हो
उसकी शक्ति अनंत है
तुम पहचानने की कोशिश करके देखो
वह तुम्हारा अंतर्मन नहीं तो और कौन है

—————–

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है। ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
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2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप