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बाबा रामदेव की जीवन शैली भी विचार का विषय-हिन्दी लेख (baba ramdev ki jivan shaili charcha ka vishay-hindi lekh)


         ले ही कोई इंसान बाबा रामदेव से निजी रूप से न मिला हो पर टीवी और अखबारों पर उनके साक्षात्कार तथा गतिविधियां पढ़कर उसे इसमें कोई संदेह नहीं रहेगा कि स्वामी रामदेव एक भोलेभाले, मस्त और हंसमुख स्वभाव का होने के साथ ही चेतनशील मनुष्य हैं। बाबा रामदेव को देखकर कोई भी यह शक जाहिर कर सकता है कि वह अपने भ्रष्टाचार विरोधी राष्ट्रव्यापी विरोधी आंदोलन तथा भारत स्वाभिमान यात्रा में किसी दूसरे विचारशील इंसान के रिमोट कंट्रोल के संकेतों पर काम कर रहे हैं। इसकी संभावना को हम खारिज नहीं करते पर इस पर यकीन भी नहीं करते। वैसे इस देश में योग साधना में दक्ष लोगों की कमी नहीं है पर समाज को उच्च लक्ष्य पर पहुंचाने में सक्रियता के विषय में अधिक रुचि के कारण बाबा रामदेव भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में लोकप्रिय हुए हैं। ऐसे में दुनिया भर के प्रचार माध्यम उनके बारे में अपने प्रसारण करते हैं पर इसका यह आशय कतई नहीं कि हरेक कोई उनके बारे में जानने का दावा करे। वह एक महायोगी हैं और युगपुरुष बनने की तरफ अग्रसर हैं इसलिये यह सोचना कि उनसे बड़ा कोई चिंतक इस देश में है यह बात ठीक नहीं लगता।
      बाबा रामदेव के आंदोलन में  चंदा लेने के अभियान पर उठेंगे सवाल-हिन्दी लेख (baba ramdev ka andolan aur chanda abhiyan-hindi lekh)
      अंततः बाबा रामदेव के निकटतम चेले ने अपनी हल्केपन का परिचय दे ही दिया जब वह दिल्ली में रामलीला मैदान में चल रहे आंदोलन के लिये पैसा उगाहने का काम करता सबके सामने दिखा। जब वह दिल्ली में आंदोलन कर रहे हैं तो न केवल उनको बल्कि उनके उस चेले को भी केवल आंदोलन के विषयों पर ही ध्यान केंद्रित करते दिखना था। यह चेला उनका पुराना साथी है और कहना चाहिए कि पर्दे के पीछे उसका बहुत बड़ा खेल है।
    उसके पैसे उगाही का कार्यक्रम टीवी पर दिखा। मंच के पीछे भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का पोस्टर लटकाकर लाखों रुपये का चंदा देने वालों से पैसा ले रहा था। वह कह रहा था कि ‘हमें और पैसा चाहिए। वैसे जितना मिल गया उतना ही बहुत है। मैं तो यहां आया ही इसलिये था। अब मैं जाकर बाबा से कहता हूं कि आप अपना काम करते रहिये इधर मैं संभाल लूंगा।’’
          आस्थावान लोगों को हिलाने के यह दृश्य बहुत दर्दनाक था। वैसे वह चेला उनके आश्रम का व्यवसायिक कार्यक्रम ही देखता है और इधर दिल्ली में उसके आने से यह बात साफ लगी कि वह यहां भी प्रबंध करने आया है मगर उसके यह पैसा बटोरने का काम कहीं से भी इन हालातों में उपयुक्त नहीं लगता। उसके चेहरे और वाणी से ऐसा लगा कि उसे अभियान के विषयों से कम पैसे उगाहने में अधिक दिलचस्पी है।
            जहां तक बाबा रामदेव का प्रश्न है तो वह योग शिक्षा के लिये जाने जाते हैं और अब तक उनका चेहरा ही टीवी पर दिखता रहा ठीक था पर जब ऐसे महत्वपूर्ण अभियान चलते हैं कि तब उनके साथ सहयोगियों का दिखना आवश्यक था। ऐसा लगने लगा कि कि बाबा रामदेव ने सारे अभियानों का ठेका अपने चेहरे के साथ ही चलाने का फैसला किया है ताकि उनके सहयोगी आसानी से पैसा बटोर सकें जबकि होना यह चाहिए कि इस समय उनके सहयोगियों को भी उनकी तरह प्रभावी व्यक्तित्व का स्वामी दिखना चाहिए था।
अब इस आंदोलन के दौरान पैसे की आवश्यकता और उसकी वसूली के औचित्य की की बात भी कर लें। बाबा रामदेव ने स्वयं बताया था कि उनको 10 करोड़ भक्तों ने 11 अरब रुपये प्रदान किये हैं। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली आंदोलन में 18 करोड़ रुपये खर्च आयेगा। अगर बाबा रामदेव का अभियान एकदम नया होता या उनका संगठन उसको वहन करने की स्थिति में न होता तब इस तरह चंदा वसूली करना ठीक लगता पर जब बाबा स्वयं ही यह बता चुके है कि उनके पास भक्तों का धन है तब ऐसे समय में यह वसूली उनकी छवि खराब कर सकती है। राजा शांति के समय कर वसूलते हैं पर युद्ध के समय वह अपना पूरा ध्यान उधर ही लगाते हैं। इतने बड़े अभियान के दौरान बाबा रामदेव का एक महत्वपूर्ण और विश्वसीनय सहयोगी अगर आंदोलन छोड़कर चंदा बटोरने चला जाये और वहां चतुर मुनीम की भूमिका करता दिखे तो संभव है कि अनेक लोग अपने मन में संदेह पालने लगें।
            संभव है कि पैसे को लेकर उठ रहे बवाल को थामने के लिये इस तरह का आयोजन किया गया हो जैसे कि विरोधियों को लगे कि भक्त पैसा दे रहे हैं पर इसके आशय उल्टे भी लिये जा सकते हैं। यह चालाकी बाबा रामदेव के अभियान की छवि न खराब कर सकती है बल्कि धन की दृष्टि से कमजोर लोगों का उनसे दूर भी ले जा सकती है जबकि आंदोलनों और अभियानों में उनकी सक्रिय भागीदारी ही सफलता दिलाती है। बहरहाल बाबा रामदेव के आंदोलन पर शायद बहुत कुछ लिखना पड़े क्योंकि जिस तरह के दृश्य सामने आ रहे हैं वह इसके लिये प्रेरित करते हैं। हम न तो आंदोलन के समर्थक हैं न विरोधी पर योग साधक होने के कारण इसमें दिलचस्पी है क्योंकि अंततः बाबा रामदेव का भारतीय अध्यात्म जगत में एक योगी के रूप में दर्ज हो गया है जो माया के बंधन में नहीं बंधते।
         अक्सर विश्व भर की प्रसिद्ध हस्तियों के चरित्र की चर्चा होती है पर शायद ही कोई ऐसा हो जो बाबा रामदेव जैसी योग जीवन शैली जीने वाला व्यक्ति राह हो। यहां तक कि बाबा रामदेव जिस महात्मागांधी को आराध्य मानते हैं उन्होंने सादगीपूर्ण जीवन जीने का संदेश न केवल दिया बल्कि उस अमल भी किया पर वह योगसाधक थे ऐसा कोईै प्रमाण नहीं मिलता। ऐसे में हम जब खास व्यक्तियों के जीवन चरित्र का विश्लेषण करते हैं तो सामान्य मानवीय स्वभावगत सिद्धांतों का आधार जरूर बनाकर किसी निष्कर्ष पर पहुंच कर उनके सही होने का दावा भी कर सकते हैं पर योग साधकों को लेकर ऐसी बात नहीं कही जा सकती क्योंकि उनके मूल स्वभाव के बारे में अधिक लिखा नहीं गया हैं।
         यह सच है कि योग साधना से कोई मनुष्य देवता नहीं बन जाता पर उसकी जीवन शैली, रहन सहन, आचार विचार, तथा चिंत्तन के आधार आम लोगों से कुछ अलग हो जाते हैं। संभव है कि बाबा रामदेव अपने अभियानों पर दूसरों की राय लेते हों और सही होने पर उस पर चलते भी हों पर यह तय है कि उनका निर्णय स्वतंत्र और मौलिकता लिये रहता होगा। संभव है कि बाबा किसी काम को न करना चाहते हों पर वह उसे संपन्न होने देते होंगे क्योंकि संगत की बात मानना योगियों का स्वभाव है पर इसे उनकी मौज माना जा सकता है। इसे मजबूरी कहना ठीक नहीं है।
             यह पता नहीं कि बाबा रामदेव अपने आपको संत मानते हैं कि योगी पर हम उनको महायोगी मानते हैं। योगियों और संतों में अंतर है। संतों की दैहिक सक्रियता अधिक न होकर वाणी से प्रवचन करने तक ही सीमित होती है। जब कुछ संत लोग बाबा रामदेव पर टिप्पणियां करते हैं तो उन पर हंसी आती है। योग भले ही भारतीय अध्यात्म का बहुत बड़ा हिस्सा है पर सभी इस पर नहीं चलते। अनेक संतों के लिये तो यह वर्जित विषय है। गेरुए वस्त्र पहनने का मतलब यह नहीं है कि सारे संत बाबा रामदेव को अपनी जमात का समझ लें। एक योगसाधक होने के नाते हम बाबा रामदेव और श्रीलालदेव महाराज को अन्य संतों से अलग मानते हैं। इनमें कई कथित संत तो बाबा रामदेव को सलाहें देते है कि ‘यह करो, ‘वह करो’, ‘यह मत करो’ और ‘यह मत करो’ जैसी बातें बड़े अधिकार के साथ कहते हैं जैसे कि उनसे बड़े ज्ञानी हों। अभी एक कथित शंकराचार्य ने उनको राजनीति में  न आने का सदेश दे डाला तो बरबस हंसी आ गयी क्योंकि हमारे दृष्टिकोण से बाबा रामदेव के अभियान उनके कार्यक्षेत्र से बाहर का विषय है।
              इस लेख के अनेक पाठक शायद इस बात से सहमत न हों पर सच यही है कि कि बाबा रामदेव की समस्त इंदियां आम मनुष्य से अधिक तीक्ष्ण रूप से सक्रिय होंगी क्योंकि वह नियमित रूप से योग साधना, ध्यान और मंत्रजाप करते हैं। जिन लोगों ने सामान्य मात्रा में भी नियमित योग साधना की है वही इस बात को समझ सकते हैं। भले ही इस देश में बड़े बड़े चिंतक और विचारक हैं पर उनकी क्षमता बाबा के समकक्ष नहीं हो सकती। बाबा रामदेव अपने अभियान का शीघ्र परिणामों के लिये उतावले नहीं है क्योंकि वह लंबे समय की सक्रियता का विचार लेकर मैदान में उतरे हैं। फिर देश की स्थिति इतनी दयनीय है कि उसके सुधार में बरसों लग जायेंगे। योगमाता की कृपा से बाबा रामदेव तो इसी तरह बरसों तक आगे बढ़ते जायेंगे पर उनके साथियों और विरोधियों में से अनेक चेहरे समय के साथ बदलते नज़र आयेंगे। जो उन पर आरोप लगा रहे हैं वह आगे भी लगाये जायेंगे पर उस समय आवाज बदली हुई होगी। उनके समर्थन में जो नारे लग रहे हैं वह भी लगते रहेंगे पर जुबान वाले चेहरे बदल जायेंगे।   
          सांसरिक व्यक्ति इस हद तक ही चालाक होता है कि वह अपनी काम कहीं भी सिद्ध कर सके पर योगी कहीं बड़ा चालाक होता है क्योंकि उसका लक्ष्य समाज हित रहता है। संभव है कि बाबा रामदेव के सारे अभियान प्रायोजित हों और उनका चेहरा मुखौटे की तरह उपयोग होता हो पर ऐसा नहीं कि वह इस बात को नहीं जानेंगे। एक योगी जब अपनी पर आता है तो कुछ न करते हुए भी करता दिखता है और बहुत कुछ न करते हुए भी बहुत कुछ करता दिखता हे। अन्य प्रायोजित चेहरों और योगियों में अंतर यही है कि बाकी लोग मजबूरी और लालच में सब चलने देते हैं पर योगी दृष्टा की तरह चालाकी से अपना काम अंजाम देता है। काम भले ही दूसरे के कहने पर करे पर जनहित उसका स्वयं का काम रहता है। अब दूसरे भ्रम पालते रहें कि हम करवा रहे हैं। तीसरे यह भ्रम पालें कि वह दूसरे के कहने से यह काम कर रहे हैं।
          अंतिम बात यह है कि स्वामी रामदेव का आंदोलन उन योग साधकों के लिये जिज्ञासा का विषय हैं जो अभिव्यक्ति के साधनों के साथ सक्रिय हैं। हम लोग इस आंदोलन के समर्थन या विरोध से अधिक इसके भावी परिणामों का अनुमान कर रहे हैं। विरोध और समर्थन में आने वाले चेहरे को पढ़ने के साथ ही स्वर भी सुन रहे है। कोई मनुष्य संसार के बदलने की आशा करता है तो कोई करने का दावा ही करता है पर योगी और ज्ञानी जानते हैं कि इस जीवन की धारा बहने के कुछ नियम ऐसे हैं जो कभी नहीं बदलते भले ही स्थान और नाम बदल जाते हैं। मनुष्य चाहे सामान्य हो या योगी इस त्रिगुणमयी माया के वश होकर अपने स्वभाव के कारण किसी न किसी काम में तो लग ही जाता है-यह बात केवल वही योगी और योगसाधक  जानते हैं जो श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करते हैं। ऐसे में किसी के वक्तव्य और गतिविधियों पर टिप्पणी करना जरूरी नहीं है पर अंततः लेखक भी तो अपने स्वभाव के वशीभूत हेाकर कुछ न कुछ लिखने तो बैठ ही जाता है।
लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior
writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

योग स्वामी ने देखा क्रिकेट में देश का रत्न-हिन्दी लेख (yoga swami and ratna of cricket-hindi lekh)


   विश्व प्रसिद्ध योग शिक्षक ने क्रिकेट के भगवान को देश का रत्न सम्मान देने की मांग का समर्थन किया है-इस खबर ने हमें हैरान कर दिया और अंदर ढेर सारे विचार उठे। इनके क्रम का तारतम्य मिलना ही कठिन लगा रहा हैं।
   तत्वज्ञानी आम लोगों पर हंसते हैं। हमारे देश के अनेक संतों और मनीषियों ने अपनी देह में स्थित आत्मा रूपी रत्नकी परख करने की बजाय पत्थर के टुकड़े को रत्न मानने पर बहुत सारे कटाक्ष किये हैं। वैसे आम लोगों को तत्वज्ञानियों का संसार बहुत सीमित दिखता है पर वह वह उसमें असीमित सुख भोगते हैं। जबकि आम इंसान मायावी लोगों के प्रचार में आकर पत्थर के टुकड़े रत्न और हीरे पर मोहित हेाकर जिंदगी गुजारते हैं। संकट में काम ने के लिये सोने का संग्रह करते हैं जो चंद कागज के टुकड़े दिलवाने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं कर सकता। माया के चक्कर में पड़े लोगों को हमेशा भय लगा रहता है कि पता नहंी कब वह विदा हो जाये तब सोना, चांदी हीरा जवाहरात और रत्न का उसके विकल्प का काम करेगा। जिस ज्ञान के साथ रहने पर संकट आ ही नहीं सकता- और आये तो असहनीय पीड़ा नहीं दे सकता-उसके संचय से आदमी दूर रहता है। शायद यही कारण है कि इस संसार में दुःख अधिक देखे जाते हैं। मजे की बात है कि लोग सुख भोगना भी नहीं जानते क्योंकि उनका पूरा जीवन ही संकट की सोच को लेकर धन संग्रह की चिंताओं में बीतता है। इस संग्रह में पत्थर के टुकड़ों में रत्न सर्वोच्च माना जाता है। जिसे रत्न मिल गया समझ लो वह इस मायावी संसार हमेशा के लिए तर गया।
    इंसानों में एक प्रवृत्ति यह भी है कि वह इंसान से अधिक कुछ दिखना चाहता है। अगर किसी शिखर पुरुष की चाटुकारिता करनी हो तो उससे यह कहने से काम नहीं चलता कि ‘आप वाकई इंसान है,’ बल्कि कहना पड़ता है कि ‘आप तो देवतुल्य हैं’, या अधिक ही चाटुकारिता करनी हो तो कहना चाहिए कि ‘आप तो हमारे लिये भगवान हैं।’
वैसे ऐसी बातें आम तौर से निरीह लोग बलिष्ठ, धनवान और पदारूढ़ लोगों से कहते हैं। जहां स्तर में अधिक अंतर न हो वहां कहा जाता है कि ‘आप तो शेर जैसे हैं’, ‘आप तो सोने की खान है’, या फिर ‘आप तो इस धरती पर रत्न हैं’।
    आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में चाटुकारिता को भव्य रूप मिला है। इसका कारण यह है कि अमीर और गरीब के बीच अंतर बढ़ गया है। धीरे धीरे दोनों के बीच पुल की तरह काम करने वाला मध्यम वर्ग भी अब लुप्त हो रहा है। ऐसे में अमीर रत्न बनते जा रहे हैं और उनके मातहत जो उनको प्रिय हैं वह भी रत्न से कम नहंी रह जाते। फिर पश्चिम की तर्ज पर नोबल, बूकर और सर जैसे सम्मानों की नकल भारतीय नामों से कर ली गयी है। उनमें रत्न नामधारी पदवियां भी हैं।
     स्थिति यह है कि जिन लोगों ने मनोरंजन का व्यवसाय कर अपने लिये कमाई की उनकी लोकप्रियता को भुनाने के लिये उनका रत्न सम्मान देने की मांग उठती है। हमारे देश में लोकतंत्र है और जनता से सीधे चुनकर आये लोग स्वयं ही रत्न होने चाहिए पर हर पांच साल बाद पब्लिक के बीच जाना पड़ता है। इसलिये अपना काम दिखाना पड़ता है। अब यह अलग बात है कि बढ़ती जनसंख्या की वजह से विकास का काम कम दिखता है या फिर भ्रष्टाचार की वजह से दिखता ही नहीं है। सो जनता को निरंतर अपने पक्ष में बनाये रखने के लियो किया क्या जाये? मनोरंजन के क्षेत्र में क्रिकेट और फिल्म का बोलबाला है। उसमें सक्रिय खिलाड़ियों और अभिनेताओं के बारे में यह माना जाता है कि वह तो लोगों के हृदय में रत्न की तरह हैं तो उनको ही वह सम्मान देकर लागों की वाहवाही लूटी जाये। इसलिये जब जनता से सामना करना होता है तो यह अपने उन्हें अपना मॉडल प्रचारक बना लेते हैं।
     किकेट के एक खिलाड़ी को तो भगवान मान लिया गया है। उसे देश का रत्न घोषित करने की मांग चल रही है। हमें इस पर आपत्ति नहीं है। अभी विश्व कप क्रिकेट फायनल में हमारी टीम की तब नैया डूबती नज़र आई जब बाज़ार के घोषित मास्टर और ब्लास्टर सस्ते में आउट होकर पैवेलियन चले गये। मास्टर यानि भगवान का विकेट गिरते ही मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में सन्नाटा छा गया। मगर विराट, गंभीर, और धोनी न भगवान बनकर लाज रख ली और श्रीलंका के 264 रन के स्कोर से आगे अपनी टीम को पार लगाया। बहरहाल बाज़ार की दम पर चला यह मेला अब समाप्त हो गया है मगर उसका खुमारी अभी बनी हुई है। अब किं्रकेटरों की आरती उतारने का काम चल रहा है।
     सब ठीक लगा पर विश्व प्रसिद्ध योग शिक्षक ने जब क्रिकेट के भगवान को देश का रत्न घोषित करने की मांग की तो थोड़ी हैरानी हुई। हम सच कहें तो योग शिक्षक ही अपने आप में एक रत्न हैं। भारतीय योग को जनप्रिय बनाने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है-कम से कम जैसा अप्रतिबद्ध लेखक तो हमेशा ही उनके पक्ष में लिखता रहेगा मगर उनकी यह मांग कुछ नागवार गुजरी। इसके पीछे हमारी अपनी सोच गलत भी हो सकती है पर इतना तय है कि एक योगी से मायावी मेले के कल्पित भगवान को रत्न मानना हैरान करने वाला है। पहली बार हमें यह आभास हुआ कि योग के सूत्रों का प्रतिपादन महर्षि पतंजलि के माध्यम से हो जाने पर भी भगवान श्रीकृष्ण को श्रीमद्भागवत गीता के लिये महाभारत करवाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? वैसे जो योग साधना में निर्लिप्त भाव से अभ्यास करते हैं अंततः स्वतः ही श्रीगीता की तरफ जाते हैं पर जिनको योग का व्यवसाय केवल प्रचार प्रसार के लिये करना है उनको तत्वज्ञान की आवश्यकता नहंी होती। यह अलग बात है कि उसके बिना वह योग शिक्षक होकर रह जाते हैं। हमारे प्रसिद्ध योग शिक्षक योग साधना के आठ अंगों के दो ही अंगों प्राणायाम तथा योगासन में उतने ही सिद्ध हैं जितना एक व्यवसायी को होना चाहिए।
     क्रिकेट खेल इतना मायावी है कि इतने बड़े योगी और कहां उसके चक्कर में फंस गये। एक योगी को हर विषय में जानकारी होना चाहिए। वह न भी रखना चाहे तो उसकी देह विचार और मन में आई शुद्धता उसे सांसरिक जानकारी पाने के लिये प्रेरित करती है और यह बुरा भी नहीं है। जिनसे समाज का उद्धार होता है उन विषयों से योगी का सरोकार होना चाहिए। जहां तक क्रिकेट की बात करें तो वह समाज में समय पास करने या मनोरंजन पास करने के अलावा कुछ नहीं है। इसमें लोग पैसा खर्च करते हैं। टीवी पर इन मैचों के दौरान जो विज्ञापन आते हैं उसका भुगतान भी आम उपभोक्ता को करना पड़ता है। एक योग साधक के रूप में हम इतना तो कह सकते हैं कि क्रिकेट और योग परस्पर दो विरोधी विषय हैं। एक योग शिक्षक को तो लोगों से क्रिकेट में दूसरों की सक्रियता देखकर खुश होने की बजाय योग में अपनी सक्रियता देखने की प्रेरणा देना चाहिए।
     ऐसे में योग शिक्षक ने अपने अभियान को स्वतंत्र होने के आभास को समाप्त ही किया है। उनके आलोचक उन पर उसी बाज़ार से प्रभावित होने का आरोप लगाते हैं जो क्रिकेट का भी प्रायोजक है। ऐसे में योग शिक्षक के समर्थकों के लिये विरोधियों के तर्कों का प्रतिवाद कठिन हो जायेगा। आखिरी बात यह है कि योग साधना एक गंभीर विषय है और यह मनुष्य के अंदर ही आनंद प्राप्त के ऐसे मार्ग खोलती है कि बाह्य विषयों से उसका वास्ता सीमित रह जाता है। क्रिकेट तो एक व्यसन की तरह है जिससे बचना आवश्यक है। यह अलग बात है कि एक योग साधक के नाते समाज में इसके प्रभावों का अवलोकन करते हुए हमने भी क्रिकेट भी देखी। आनंद भी लिया जिसकी कृत्रिमता का आभास हमें बाद में हुआ पर हम अभी योग में इतने प्रवीण नहीं हुए कि उससे बच सकें। अपनी सीमाऐं जानते हैं इसलिये यह नहीं कहते कि योग शिक्षक को ऐसा करना नहीं चाहिए था। बस यह ख्याल आया और इसलिये कि कहंी न कहंी उनके प्रति हमारे मन में सद्भाव है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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