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एक सौर मंडल जो धरती पर रहता है-हिन्दी व्यंग्य (dharti par rahane wala saurmandal-hindi vyangya)


धरती को जिंदा रखने के लिऐ उसके पास सौरमंडल होना चाहिए, ऐसा वैज्ञानिक कहते हैं। इसका सीधा आशय यह है कि सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति तथा अन्य ग्रहों के रक्षा कवच पर ही धरती और उस पर विचरण करने वाला जीवन टिका रहता है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र तो यह भी मानता है कि इन सब ग्रहों की चाल का मनुष्य के जीवन पर प्रभाव पड़ता है। इधर हमारे मन में यह भी ख्याल आया कि एक सौर मंडल इस धरती पर भी विचरता है जो सामने है पर दिखता नहीं क्योंकि इसके सारे ग्रह इतने पर्दों मे रहते हैं ं कि सभी ग्रह एक दूसरे को देख तक नहीं पाते, अलबत्ता दोनों का एक दूसरे से मिलन नहीं होता क्योंकि उनके परिक्रमा पथ कभी आपस में टकराते नहीं है। राजा और प्रजा दो भागों में बंटे मनुष्य जीवन पर इसका प्रभाव पड़ता है भले ही दोनों को यह दिखाई नहीं देता।
इस सौर मंडल के ग्रह हैं पूंजीपति, बाहूबली, धार्मिक ठेकेदार तथा अपराधियों के गिरोह ओर उनके दलाल। पूंजीपति तो सूरज की तरह है जिनकी रौशनी से सारे सारे छोटे ग्रह चमत्कृत होते हैं। सृष्टि के निर्माण से ही यह गिरोह चलते रहे होंगे पर आजकल कृत्रिम दूरदृष्टि मिल जाने के कारण आम लोगों को भी दिखाई देने लगे हैं-बुद्धिमानों तो इनके प्रभाव का आभास कर लेते हैं पर सामान्य लोगों को शायद ही होता हो।
जब बात पूंजीपतियों की बात चली है तो आजकल अमेरिका नाम का एक धरती पर स्वर्ग है जहां इनकी बस्ती बन गयी है और तय बात है कि वहां का कोई भी राज्यप्रमुख उनके लिये एक तरह से बहुत बड़ा सुरक्षाकवच की तरह काम करता है। हालांकि वह स्वतंत्र दिखता है पर लगता नहीं है। वह अपनी चाल चल रहा है पर लगता है कि उसे चलना भर है बाकी काम तो उसके मातहत ही करते होंगे।
पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के विमान की बात कर लें। विमान का अधिक वर्णन तो हमारे लिये संभव नहीं है क्योंकि अपने खटारा स्कूटर की याद आने लगती है और लिखना बंद हो जाता है। विमान एक तरह से महल होने के साथ अभेद्य किला है। वहां बैठा राष्ट्रपति यात्रा के दौरान ही अपनी सेना और प्रशासन के अधिकारियों से संपर्क कर सकता है-करता होगा इसमें शक ही है क्योंकि अमेरिका की व्यवस्था ऐसी ही दिखती है। कोई आपत्ति आ जाये तो राष्ट्रपति वहां से कोई भी कार्यवाही करने का आदेश दे सकता है-इसकी आवश्यकता पड़ती होगी यह संभावना नगण्य है। कहने का अभिप्राय यह है कि उसमें महल जैसी सारी व्यवस्था है, विमान तो बस नाम है।
भारतीय प्रचार माध्यम अमेरिकी राष्ट्रपति के आगमन पर उसके विमान, पत्नी तथा वक्तव्यों का खूब वर्णन करते हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने ताज होटल पर हुए हमले की निंदा की पर पाकिस्तान का नाम नहीं लिया।
शायद आगे लेंगे जब भारतीय समकक्षों से मिलेंगें।
वह पाकिस्तान नहीं जा रहे, इससे यह संदेश तो मिल ही रहा है कि वह भारत में अपना हित अधिक देखते हैं।
ऐसे बहुत से जुमले हैं जो ओबामा के आने पर तीसरी बार सुने गये। पहले क्लिंटन आये फिर जार्ज बुश, तब भी यही नज़ारा था। तीनों राष्ट्रपति पहले बैंगलौर या मुंबई आये फिर नई दिल्ली। दोनों पाकिस्तान नहीं गये इस पर बहस! संदेश ढूंढने की कोशिश! हमने तीनों को देखा। हम सोचते हैं कि क्या वह इतने विराट व्यक्तित्व के स्वामी है जितना वर्णन किया जाता है या उनका पद ही उनको विराटता प्रदान कर रहा है। दूसरी ही बात सही लगती है।
जार्ज बुश को तो राष्ट्रपति बनने से पहले तक यही नहीं मालुम था कि भारत देश किस दिशा में है, पर बाद में भारत का लोहा मानते हुए दिखाये और बताये गये।
अब ओबामा की चाल ढाल पर नज़र रखी। एक ऐसे इंसानी बुत नज़र आये जिसे विराट व्यक्तित्व का स्वामी बना दिया गया है। कोई कसर नहीं रहे इसलिये उनको शांति का नोबल भी दिया गया। अनेक लोग हैरान हुए थे पर उस समय भी हमने लिखा था कि विश्व का बाज़ार अपना यह बुत चमका रहा है। यह बात अब सत्य लगती है।
उनके साथ 250 पूंजीपतियों का समूह आया है। मुंबई में भारतीय पूंजीपतियों के साथ ही उनका सम्मेलन है। अमेरिका चाहता है कि भारतीय पूंजीपति उनके यहां निवेश करे। इस सम्मेलन को एक मुखिया की तरह ओबामा संबोधित कर चुके हैं। पहले भी राष्ट्रपति ऐसा ही कर चुके हैं। पूंजीपति यानि इस धरती का सूर्य जिससे सभी को जीवन मिलता है। अमेरिका में यह सच होगा पर भारत में आज भी कृषि आधारित व्यवस्था है। अगर यहां कृषि ठप्प हो जाये तो फिर पैसा नहीं मिलने का। भारत का पानी भी अब बाहर बिकने लगा है जो यहां के पूंजीपतियों के पैट्रोल जैसा कीमती हो गया है। कहा जाता है कि भारत में जलस्तर जितना ऊपर है उतना कहीं नहीं है। यह प्रकृति की कृपा है पर अब पानी भी पैट्रोल की तरह दुर्लभ होता जा रहा है। धरती पर स्थित सौर मंडल का भगवान बस, पद पैसा और प्रतिष्ठा कमाना है सो उसे कई बातों से मतलब नहीं है। वह राजा और प्रजा दोनों को अपनी गिरफ्त में रखता है। ऐसे में अब भारत दोहन अभियान शुरु हो गया है लगता है।
आज जार्ज बुश उनके पिता तथा दादा की भी चर्चा हुई। पता लगा कि वह हथियार कंपनियों के मालिक थे इसलिये ही उन्होंने अपने समय में युद्ध का रास्ता अपनाया ताकि माल की खपत हो सके। यह पहली बार पता लगा कि अमेरिका में हथियार बेचने वाली लॉबी इतनी दमदार है। इसका मतलब हमारा यह दावा सही होता जा रहा है कि दुनियां में अब अनेक जगह अब इंसानी बुत सौदागरों के मुखौटे बनकर राजा के पद पर सुशोभित हो रहे हैं।
प्रचार माध्यम कहते हैं कि ओबामा उन सबसे अलग हैं। इसे हम यूं भी मान सकते हैं कि वह हथियार लॉबी से इतर किसी अन्य लॉबी के इंसानी बुत हैं। वैसे वह हथियारों की बिक्री बढ़ाने तो वह भारत यात्रा पर पधार हैं पर साथ ही अन्यत्र क्षेत्रों में वह यहां का सहयोग चाहते हैं। अन्य व्यापारियों ने हथियार व्यापारियों से कहा होगा कि‘भई, कुछ हमारा काम हो जाये, इसलिये इस बार हमारी पंसद का राष्ट्रपति आने दो।’
हथियार लॉबी का काम तो होना ही था सो वह मान गये होंगे। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार ओबामा के प्रतिद्वंद्वी का नाम आखिर तक किसी को पता नहीं चला। आज ओबामा यह कर रहे हैं, आज वहां बोलेंगे, ओबामा के बारे में यह अफवाह फैली-ऐसी बातें भारतीय प्रचार माध्यम ही नहीं इंटरनेट पर भी आती रहीं। न आया तो उनके प्रतिद्वंद्वी का नाम। वैसे ओबामा चेहरे से भले लगे। धरती के सौरमंडल के ग्रहों ने बहुत सोच समझकर उनको चुना। हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है। अगर हम कहें कि उनको क्यों लाये तो यह बात भी तय है कि उनकी जगह कोई दूसरा चेहरा या इंसानी बुत आना था। वह जो भी बोलेंगे अपने सहायकों के इशारे से ही बोलेंगे। कई बार तो लिखा हुआ पढ़ेंगे। इसका मतलब यह है कि उनको एक ऐसे इंसानी बुत की तरह प्रस्तुत किया गया है कि जो समझकर बोलता हो। बाकी तो उनको गुड्डे की तरह खूब चलाया जायेगा। कभी कभी तो लगता है कि उनको भी यही पता न होगा कि उनको अगली बार कौनसी लाईन बोलनी है या अगले कार्यक्रम में आखिर विषय क्या है? अमेरिका का राष्ट्रपति दुनियां का सबसे दबंग आदमी है-ऐसा कहा गया पर हम सोच रहे थे कि वाकई क्या यह सच है?
धरती का सौर मंडल उस पर तथा यहां विचरण करने वाले जीवों पर क्या प्रभाव डालता है हमें नहीं दिखता लगभग उसी तरह ही धरती पर विचरने वाला सौर मंडल किस तरह राजा और प्रजा को चला रहा है यह आम आदमी नहीं जानते। जो जानते हैं वह बता नहीं सकते क्योंकि वह खुद उसका हिस्सा होते हैं।
आखिरी बात यह है कि 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले ताज के अलावा दो अन्य जगह भी हुए थे। जिसमें रेल्वे स्टेशन भी शामिल था जहां आम आदमी अधिक होते हैं। ओबामा ने केवल ताज के शहीदों को ही श्रद्धांजलि दी। आतंकियों को चुनौती देने के लिये ही वह ताज होटल में रुके ऐसा कहा जा रहा है। इससे भी हमें कोई शिकायत नहीं पर धरती के सौरमंडल की प्रतिबद्धता साफ दिखाई दे रही है कि वह कुछ विषयों पर प्रजा के जज़्बातों की परवाह नहीं करता। वह अपने इंसानी बुत को रेल्वे स्टेशन नहीं ले जा सकता क्योंकि सौर मंडल के ग्रहों में इतनी ताकत है कि उनकी परिक्रमा प्रजा की चाल से प्रभावित नहीं होती।

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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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यह बिग बॉस नाटक या धारावाहिक देशप्रेम रखने वालों के लिये नहीं है-हिन्दी व्यंग्य (Big Boss natak ya dharavahik aur deshprem-hindi vyangya)


कहा जाता है बद अच्छा बदनाम बुरा-हमें पता नहीं यह कहावत उल्टी भी हो सकती है। मतलब आदमी बुरा हो पर बदनाम नहीं होना चाहिए। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि अपने में कोई बुराई हो पर उसकी चर्चा बाहर नहीं होना चाहिऐ। लब्बोलुआब यह कि बदनाम नहीं होना चाहिए। लगता है अब यह कहावत अब उलट देना चाहिये या फिर यह कहना करें कि बद अच्छा तो उससे अच्छा बदनाम है।
कम से कम टीवी चैनल में बदनाम लोगों को अभिनय करने को लेकर चल रहे विवाद से तो ऐसा लगता है कि अब नयी पीढ़ी यह भी सोचेगी कि कोई ऐसा काम किया जाये जिससे बदनाम होने पर कहीं  किसी टीवी चैनल पर अपना थोबड़ा दिखाने का अवसर तो मिल ही जायेगा। पूरे देश पर आक्षेप करना ठीक नहीं है पर कुछ कमजोर दिमाग के लोग ऐसे हैं जो पद, प्रतिष्ठा और पैसा पाने के लिये कुछ भी गलत सीख सकते हैं। एक चैनल है जिसमें एक पुराने चोर, आतंकवादियों के वकील तथा एक समलैंगिक को शामिल किया गया है। हम अपने व्यंग्य या आलेख में किसी का नाम इसलिये नहीं लिखते क्योंकि अप्रायोजित लेखक हैं और किसी का बिना पैसे लिये प्रचार करना अपनी शान के खिलाफ है-भले ही आलोचनात्मक टिप्पणियों से वह भरा हो। वैसे तो अब तो हमें लगने लगा है कि यहां कुछ लोग प्रसिद्ध होने के लिये अपनी आलोचना पैसा देकर करवाते हैं। चैनलों पर चले रहे धारावाहिकों के नाम लेकर उनकी आलोचना करना भी हमें  प्रायोजित करने जैसा  लगता है। बहरहाल जिस चैनल के जिस धारावाहिक की हम चर्चा कर रहे हैं उसका हिन्दी नामकरण  करते हैं ‘बड़ा मुखिया’। यह नाम इसलिये किया क्योंकि उस चैनल के नाटक की पृष्ठभूमि घर पर ही आधारित है। इसमें पहले ऐसे प्रसिद्ध लोगों को शामिल किया गया जिन पर दुर्भाग्यवश (?)बदनामी का धब्बा लगा-कुछ के लिये कहा गया कि उनका अपराध बालपन की नादानी से हुआ। कुछ ऐसे लोग भी उसमें आये जो जीतने के बाद बदनाम हुए, यानि उनमें ऐसे गुण पहले से मौजूद थे।
अब यह चैनल अपना धारावाहिक बड़े प्रचार से दिखा रहा है। इसमें पाकिस्तान से भी बदनाम लोग मंगवाये गये हैं। हम बहुत समय पहले से कहते रहे हैं कि टीवी चैनलों के अदृश्य प्रायोजक बहुत सारे धंधों में हैं। दुनियां भर के व्यापार में अब काले सफेद धंधे का प्रश्न नहीं रहा और सभी प्रचार माध्यमों पर अपनी पकड़ बनाये हुए हैं । अब तो समाज में ही यह हालत है कि जिसके पास धन है वही सेठ और समाज का भाई कहलाता है-अब भाई कहिने भी हो सकता है, भारत हो  या पाकिस्तान। सारी व्यवस्था के साथ ही सारे प्रचार माध्यमों पर उनकी श्रेष्ठता प्रमाणिक हैं चाहे भले ही बदनाम हों। क्रिकेट, फिल्म और टीवी चैनलों का घालमेल हो गया है। पाकिस्तान की एक फिल्मी नायिका ने वहां के क्रिकेट खिलाड़ी पर फिक्सर होने का आरोप लगाया था। उस समय हमें हैरानी हुई क्योंकि वह ऐसा कर धनपतियों से बैर ले रही थी-आर्थिक उदारीकरण से धनपति अब कंपनियों के पीछे अदृश्य होकर काम करते हैं इसलिये अब यह प्रश्न नहंी रहा कि कौनसा सेठ कहां का है? अब समझ में आया कि संभवतः उस अभिनेत्री को भारतीय चैनल में लाने के लिये यही फिक्सिंग प्रकरण या नाटक  ब्रिटेन में रचा गया होगा। चूंकि ब्रिटेन इसमें शामिल है इसलिये किसी का शक हो न हो पर अब हमें होने लगा है क्योंकि आर्थिक उदारीकरण के चलते अपराध का भी वैश्वीकरण होता जा रहा है अंग्रेज भला कौन से दूध के धुले हैं-पैसा कमाने के लिये ही तो भारत आये थे। चूंकि चैनलों की भूमिका पहले से ही बननी होती है इसलिये कोई बड़ी बात नहीं कि उसके एक भावी को प्रसिद्ध दिलाने के लिये पाकिस्तानी क्रिकेट को पकड़ा गया और फिर उस अभिनेत्री से बयान दिलाया गया। संभव है कि वह अभिनेत्री अधिक रहस्य न खोले इसलिये भी उसे भारतीय चैनल में काम दिलाया गया हो। बहरहाल एक फिक्सर की पुरानी दोस्त होने की बदनामी उसने पहले मोल ली और भारत में उसका नाम भी तभी आया। इधर नाम आया और उधर चैनल में उसको काम मिल गया।
जितने भी आकर्षक व्यवसाय हैं वह अब आर्थिक शिखर पुरुषों के हाथ में हैं और अगर जार्ज बर्नाड शॉ की बात पर यकीन किया जाये तो बिना बेईमानी के कोई भी अमीर नहीं  बन सकता। ऐसे में अपने ही संरक्षण में वह बदनाम लोगों को संरक्षण देते हुए उसके नकदीकरण का अवसर भी यह सेठ लोग नहीं चूकते। भला कोई व्यापारी अपनी चीज़ को खराब बताता है! एक नहीं तो दूसरे ग्राहक को बेच ही देता है। ऐसे में कोई फिल्म में बदनाम हुआ हो या क्रिकेट में चल जायेगा मगर चोर और डकैत भी चल जायेंगे! क्या माने? ऐसे लोग भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों ने पहले से ही प्रायोजित कर रखे हैं। हम बहुत समय से कहते रहे हैं कि व्यवसायिक संस्थान या व्यवस्थापक प्रतिष्ठानों में आर्थिक शिखर पुरुषों के अनेक लोग मुखौटे की तरह हैं जो सज्जनता से काम करते दिखते हैं तो क्या अब यह भी मान लें कि अपराधिक जगत में भी अब मुखौटे आने लगे हैं। क्या अब यह तय हो गया कि आतंकवाद भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों के मुखौटे ही फैला रहे हैं। ऐसे में अपराध और आतंक से प्रत्यक्ष जुड़े लोग वाकई मासूम लगते हैं मगर ऐसे में हर आर्थिक शिखर पुरुष संदेह की परिधि में आता जायेगा। माना जायेगा कि हर छोटे बड़े अपराध और आतंक का असली जिम्मेदार कोई न कोई आर्थिक पुरुष ही है। तब यह भी होगा कि हर आर्थिक शिखर पर विराजमान हर पुरुष समाज के लिये संदिग्ध होगा क्योंकि यह माना जाने लगेगा कि इसके खिलाफ तो कभी सबूत मिल ही नहीं सकता पर यह अपराध में लिप्त जरूर होगा।
मुद्दा यह भी है कि क्या ऐसे प्रसारण पर रोक लगनी चाहिए। हम अब भी कहेंगे नहीं। हमारे कुछ मित्र इस जवाब पर नाराज हो सकते हैं क्योंकि आतंकवादियों तथा अपराधियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी, सामाजिक न्याय, शोषण से मुक्ति तथा धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर बौद्धिक संरक्षण देने वाले बहुत सारे बुद्धिजीवी इस देश में है और कम से कम हमने ही दसियों बार उन पर प्रतिकूल टिप्पणियां करते हुए अपने पाठ लिखे हैं। तब ऐसा क्या है जो हम अभिव्यक्ति के नाम पर इस प्रसारण को रोकने के खिलाफ हैं?
हम तो दूसरी बात कह रहे हैं कि जिस तरह बीड़ी सिगरेट और शराब के डिब्बों पर लिखा रहता है कि इनका सेवन शरीर के लिये हानिकारक है उसी तरह पाकिस्तानी अभिनेता अभिनेत्रियों के अभिनय वाले धारावाहिकों का  प्रचार करने वाले विज्ञापनों पर ही यह लिखना होना चाहिए कि ‘देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत या देशप्रेम रखने वाले लोगों को यह धारावाहिक नहीं देखना चाहिए।’
इससे कुछ लोगों की भवनें आहत होने से बच जाएँगी। उसी तरह बदनामशुदा लोगों के धारावाहिकों के विज्ञापनों में भी यह लिखना चाहिये कि ‘यह सभ्य और सज्जन भाव रखने वालों को नहीं देखना चाहिये और न बच्चों को देखने देना चाहिऐ।
इससे लोग स्वयं ही बच्चों के बिगड़ने के दर से वह चैनल धारावाहिक के समय बंद रखेंगे ।  चेतावनी लिखी होने पर लोगों को कार्यक्रम प्रसारित होने का अफसोस कम होगा।  जिस तरह बीडी,सिगरेट और शराब की बोतल पर चेतावनी होने पर उसके बिकने का अफसोस कम होता है।
एक बात जो अभी तक हमारी समझ में नहीं आती। आखिर दक्षिण एशिया में एकता के नाम पर हमारे पास केवल पाकिस्तान का नाम ही क्यों आता है? सच मानिए पाकिस्तान के आम आदमी से हमारा कोई बैर नहीं है मगर वहां के बदनामशुदा लोग ही यहां क्यों आकर प्रचार पाते हैं? यह हमारी समझ में नहीं आता। मजे की बात यह है कि इनसे कई सभ्य चेहरे वाले मुखौटे मिलकर कहते हैं कि ‘यह तो खेल और फिल्म सें संबंधित मुलाकात है।’
पाकिस्तान के क्रिकेट फिक्सरों को भारत आने का वीज़ा बहुत जल्दी मिल जाता है। यह भी चर्चा का विषय बनता है। कहने का अभिप्राय यह है कि सफेद काले का घालमेल हो गया है। ऐसे में नैतिकता की मांग कमजोर जरूर हुई है पर मरी नहीं है क्योंकि जो लोग अपराध और आतंक के मुखौटो को अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो बुद्धिजीवी लेखक सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर
खलनायक की बजाय नायक की तरह प्रतिपादित करते हैं वह भी नैतिक आदर्शों की बात तो करते यह अलग बात है कि आर्थिक उदारीकरण के साथ ही अपराध और आतंक के वैश्वीकरण के विषय से मुख क्यों मोड़ लेते हैं? इसलिये ही न कि वह सभी भी प्रायोजित हैं। उससे भी मजे की बात है कि पूंजीवाद के विरोधी बुद्धिजीवी इस खेल को तो इस तरह अनदेखा करते हैं जैसे कि कोई लेना देना ही न हो-होते तो वह भी प्रायोजित हैं पर कभी कभी सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भावनाओं की बात वह भी करते हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर होने के बावजूद सरकारी डंडे के सहारे सारे कल्याण का सपना भी वही पालते हैं।
एक धारावाहिक से कुछ बनता बिगड़ता नहीं है क्योंकि हमारे देश का अध्यात्मिक स्वरूप बहुत दमदार है। अगर खान पान ठीक होने के साथ उनका सेवन सीमित हो तो बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू और शराब जैसे व्यवसनों का भी दुष्प्रभाव कम हो जाता है-रोका बिल्कुल नहीं जा सकता यह बात तय है-उसी तरह बच्चों का मन मस्तिष्क मज़बूत हो वह ऐसे चैनलों को नहीं देखेंगे पर फिर भी इन चैनलों के ऐसे धारावाहिकों का वर्गीकरण तो करना ही होगा। कम से कम हमारी यह मांग आज़ादी की अभिव्यक्ति पर प्रहार नहीं करती यह निश्चित है।

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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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क्रिकेट मैच में अब फिक्स नॉबोल-हिन्दी व्यंग्य (now nobol fix in cricket match-hindi vyangya)


पाकिस्तान के सात खिलाड़ी मैच फिक्सिंग के आरोपों में फंस गये हैं। फंसे भी क्रिकेट के जनक इंग्लैंड में हैं जहां पाकिस्तानी पहले से बदनाम हैं। यह खबरें तो उन्हीं प्रचार माध्यमों से ही मिल रही हैं जो उस बाज़ार के ही भौंपू हैं जिसके अनेक शिखर सौदागरों पर भूमिगत माफिया से संबंध रखने का आरोप है। कभी कभी ऐसी खबरें देखकर हैरानी होती है कि आखिर यह क्रिकेट जो इन प्रचार समाचार माध्यमों के रोजगार का आधार है क्योंकि इससे उनको प्रतिदिन आधे घंटे की सामग्री मिलती है तो कैसे उसे बदनाम करने पर तुल जाते हैं।
पहली बार पता चला कि नोबॉल भी फिक्स होती है। पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों ने गेंद फैंकते समय अपना पांव लाईन से इतना बाहर रखा था कि अंपायर के लिये यह संभव नहीं था कि वह उसकी अनदेखी करे। जब खिलाड़ी फिक्स हैं तो अंपायर भी फिक्स हो सकता है पर पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने इतना पांव निकाला कि नोबॉल न देने के लिये फिक्स करने वाला अंपायर भी कैमरें की वजह से उसे संदेह का लाभ नहीं दे सकता था।
आरोप लगे हैं कि पाकिस्तानी खिलाड़ी औरतों, पैसे तथा मस्ती करने के शौकीन हैं। पाकिस्तानी खिलाड़ियों का चरित्र तो वहीं के लोग बयान करते हैं। कुछ पर तो मादक द्रव्य पदार्थों की तस्करी का भी आरोप है। जब पाकिस्तानी खिलाड़ी पकड़े जाते हैं तो उनकी एकाध प्रेमिका भी सामने आती है जो उनकी काली करतूतों का बयान करती है। एक चैनल के मुताबिक पाकिस्तान का एक गेंदबाज की प्रेमिका के अनुसार वह तो बिल्कुल अपराध प्रवृत्ति का और यह भी उसी ने बताया था कि ‘2010 में पाकिस्तानी कोई मैच जीतने वाला नहीं है, ऐसा तय कर लिया गया है। पिछले 82 मैचों से फिक्सिंग चल रही है। वगैरह वगैरह।
जिस बात पर हमारी नज़र अटकी वह थी कि ‘पाकिस्तान खिलाड़ियों ने 2010 में मैच न जीतने की कसम खा रखी है। संभवत आजकल उनको हारने के पैसे मिल रहे हैं। हां, यह क्रिकेट में होता है। श्रीलंका में हुए एक मैच में आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान दोनों की टीमें मैच हारना चाहती थीं क्योंकि पर्दे के पीछे उनको अधिक पैसा मिलने वाला था। यानि जो जीतता वह कम पैसे पाता तोे बताईये पैसे के लिऐ खेलने वाले खिलाड़ी क्यों जीतना चाहेंगे। ऐसे आरोप टीवी चैनलों ने लगाये थे। बहरहाल पाकिस्तान टीम के खिलाड़ी अपनी आक्रामक छबि भुनाते हैं। उनके हाव भाव ऐसे हैं जैसे कि तूफान हो और इसलिये उनकी जीत पर अधिक पैसा लग जाता है। सट्टेबाज उसके हारने पर ही कमाते होंगे इसलिये ही शायद वह उनको हारने के लिये पैसा देते होंगे।
इधर अपने देश की बीसीसीआई की टीम भी लगातर जीतने में विश्वास नहंीं रखती। यकीनन इस टीम के कर्णधारों को पाकिस्तानी खिलाड़ियों की इस कसम का पता लगा होगा कि वह 2010 में जीतेंगे नहीं इसलिये उसके साथ न खेलने का फैसला किया होगा ।
बात अगर पाकिस्तान की हो तो अपने देश के सामाजिक, आर्थिक, खेल तथा कला जगत के शिखर पुरुषों के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। अगर संबंध अच्छे रखने हों तो कहना पड़ता है कि ‘इंसान सब कर सकता है पर पड़ौसी नहीं बदल सकता‘ या फिर ‘आम आदमी के आदमी से संपर्क करना चाहिऐ।’
अगर संबंध खराब करने हों तो आतंकवाद का मुद्दा एक पहले से ही तय हथियार है कहा जाता है कि ‘पहले पाकिस्तान अपने यहां आतंकवादी का खत्मा करे।
पिछली बार आईपीएल में पाकिस्तान के खिलाड़ियों को नहीं खरीदा गया था तो देश के तमाम लोगों ने भारी विलाप किया था। यहां तक कि इस विलाप में वह लोग भी शामिल थे जो प्रत्यक्षः इन टीमों के मालिक माने जाते हैं-इसका सीधा मतलब यही था कि यह मालिक तो मुखौटे हैं जबकि उनके पीछे अदृश्य आर्थिक शक्तियां हैं जो इस खेल का अपनी तरीके से संचालन करती हैं।
बाद में आईपीएल में फिक्सिंग के आरोप लगे थे। उसमें पाकिस्तान के खिलाड़ियों का न होना इस बात का प्रमाण था कि अकेले पाकिस्तानी ही ऐसा खेल नहीं खेलते बल्कि हर देश के कुछ खिलाड़ी शक के दायरे में हैं। यह अलग बात है कि पाकिस्तान बदनाम हैं तो उसके खिलाड़ियों को चाहे जब पकड़ कर यह दिखाया जाता है कि देखो बाकी जगह साफ काम चल रहा है। किसी अन्य देश का नाम नहीं आने दिया जाता क्योंकि उसकी बदनामी से मामला बिगड़ सकता है। पाकिस्तान के बारे में तो कोई भी कह देगा कि ‘वह तो देश ही ऐसा है।’ इससे प्रचार में मामला हल्का हो जाता है और प्रचार माध्यमों के लिये भी सनसनीखेज सामग्री बन जाती है।
पाकिस्तानी या तो चालाक नहीं है या लापरवाह हैं जो पकड़े जाते हैं। संभव है वह कमाई के लिये हल्के सूत्रों का इस्तेमाल करते हों। भारतीय प्रचार माध्यमों को तो सभी जानते हैं। निष्पक्ष दिखने के नाम पर तब इन खिलाड़ियों के कारनामों की चर्चा से बचते हैं जब यह भारत आते हैं। अभी पाकिस्तानी के एक खिलाड़ी ने एक भारतीय महिला खिलाड़ी से शादी की। वह भारत आया तो उसके लोगों ने ही उस पर आरोप लगाया था कि ‘वह तो फिक्सर है।’ मगर भारत की एक अन्य महिला ने जब उसी पाकिस्तानी खिलाड़ी से विवाह होने की बात कही और बिना तलाक दिये दूसरी शादी का विरोध किया तो यह प्रचार माध्यम एक बूढ़े अभिनेता को पाकिस्तानी खिलाड़ी के समर्थन में लाये। मामला सुलट गया और भारतीय खिलाड़िन से उस खिलाड़ी का विवाह हुआ। वह बूढ़े अभिनेता भी उस शादी में गया। आज तक एक बात समझ में नहीं आयी कि इन फिल्म वालों से क्रिकेट वालों रिश्ते बनते कैसे हैं। संभवत कहीं न कहीं धन के स्त्रोत एक जैसे ही होंगे।
इस देश में क्रिकेट खेल का आकर्षण अब उतना नहीं रहा जितना टीवी चैनल और अखबार दिखा रहे हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि उनके पास मज़बूरी है क्योंकि इसके अलावा वह कुछ नया कर ही नहीं सकते।
एक दो नहीं पूरे सात पाकिस्तनी खिलाड़ी ब्रिटेन से मैच हारना चाहते थे। हारे भी! इससे उनके धार्मिक लोग नाराज़ हो गये हैं। इसलिये नहीं कि पैसा खाकर हारे बल्कि धर्म का नाम नीचा किया। कट्टर लोग धमकियां दे रहे हैं। कोरी धमकियां ही हैं क्योंकि इन कट्टर धार्मिक लोगों को पैसा भी उन लोगों से मिलता है जो क्रिकेट में मैदान के बाहर से इशारों में खिलाड़ियों को नचाते हैं और फिर उनको रैम्प पर भी नाचने का अवसर प्रदान करते हैं।
बहरहाल पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने 2010 में हारने की कसम खाई है। यह आरोपी सात खिलाड़ी हटे तो दूसरे नये लोग आकर भी उस कसम को निभायेंगे। इधर बीसीसीआई की टीम भी तब तक नहीं उनके साथ खेलेगी जब तक उनकी कसम खत्म की अवधि नहीं होती। आखिर बीसीसीआई के खिलाड़ी जीत कर थक जायेंगे तो उनको तो हराकर कर विश्राम कौन देगा। पाकिस्तानी खिलाड़ी यह अवसर देने को तैयार नहीं लगते। यही कारण है कि आतंक का मुद्दे की वजह से दोनों नहीं खेल रहे अब यह बात बड़े लोग कहते हैं तो माननी पड़ती है। 2011 में फिर मित्रता का नारा लगेगा क्योंकि तब पाकिस्तानी खिलाड़ियों की कसम की अवधि खत्म हो जायेगी। इधर आईपीएल की तैयारी भी चल रही है। लगता नहीं है कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों को इस बार भी मौका मिलेगा। कहीं किसी क्लब को जीतने का आदेश हो और उसमें अपनी कसम से बंधे एक दो पाकिस्तानी खिलाड़ी हारने के लिए खेले तो…….अब तो उनके लिये 2011 में ही दरवाजे खुल सकते हैं।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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किसान आंदोलन का प्रचार दिग्भ्रमित करने वाला-हिन्दी लेख (kisan andolan ka prachar-hindi lekh)


देश में चल रहे विभिन्न किसान आंदोलनों को लेकर टीवी समाचार चैनलों और समाचार पत्रों में आ रहे समाचार तथा चर्चायें दिग्भ्रमित करती हैं। समाचारों का अवलोकन करें तो संपादकीयों तथा चर्चाओं का उनसे कोई तारतम्य नहीं बैठता। सिद्धांतों और आदर्शों की बात करते हैं पर उनका मुद्दे से कोई संबंध नहीं दिखता। अगर गरीब किसानों को उनकी जमीन का सही मूल्य दिलाने की बात हो रही है तो फिर कृषि योग्य भूमि का महत्व किसलिये बखान किया जा रहा है? अगर पूरी बात को समझें तो लगता है कि ऐसे किसानों को भी आगे लाकर समूह में जुटाने का प्रयास किया जा रहा है जो जमीन बेचने को इच्छुक नहीं हैं और बेचने के इच्छुक लोगों के साथ मिलाकर बाद में वह स्वेच्छा से इसके लिये तैयार हो जायेंगे। कहीं यह आंदोलन इसलिये तो नहीं हो रहा कि बिखरे किसानों को एक मंच पर लाया जाये ताकि जमीन का कोई टुकड़ा बिकने से न रह जाये।
समाचार कहते हैं कि ‘किसान जमीन का उचित मूल्य न मिलने से नाराज हैं।’ मतलब वह जमीन बेचने के लिये तैयार हैं। अगर उनका आंदोलन उचित मुआवजे के लिये है तो उसमें कोई बुराई नहीं है। दूसरी बात यह भी कि किसी ने जबरन जमीन अधिग्रहण का आरोप नहीं लगाया है। पुराने कानून को बदलने की मांग हुई है पर पता नहीं उसका क्या उद्देश्य है? केवल दिल्ली ही नहीं कहीं भी किसानों का आंदोलन जमीन बचाने के लिये होता नहीं दिख रहा, अलबत्ता उचित मुआवजे की बात अखबारों में पढ़ने को मिली है। इधर चर्चाओं को देखें तो उसमें जमीन को मां बताते हुए उसे निजी औद्योगिक तथा व्यापारिक क्षेत्र को न बेचने की बात हो रही है। बताया जा रहा है कि निजी क्षेत्र केवल उपजाऊ क्षेत्र में ही अपनी आंखें गढ़ाये हुए हैं। आदि आदि।
अब सवाल यह है कि किसान आंदोलन पर चर्चायें उनकी मांगों के न्यायोचित होने पर हो रही हैं या जमीन के महत्व के प्रतिपादन पर! किसान अपनी ज़मीन बेचने के लिए तैयार हैं पर उनको उचित मुआवजा चाहिए तब जमीन को मां बताकर उनको क्या समझाया जा रहा है? आंदोलन से जुड़े कुछ लोग जमीन को लेकर इस तरह हल्ला मचा रहे हैं कि जैसे वह उसे बिकने से बचाने वाले हैं जबकि सच यह है वह उचित मूल्य की बात करते हैं।
हम यहां आंदोलन के औचित्य या अनौचित्य की चर्चा नहीं कर रहे न ही देश में कम होती जा रही कृषि तथा वन्य भूमि से भविष्य में उत्पन्न होने वाले संकटों पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं क्योंकि यह विषय आंदोलन और उसकी पृष्ठभूमि पर होने के साथ ही प्रचार माध्यमों के बौद्धिक ज्ञान पर भी है। अब यह अज्ञानता अध्ययन और चिंतन के अभाव में है या प्रयोजन के कारण ऐसा किया जा रहा है यह अलग विषय है।
जहां जमीनें हैं वहां हजारों किसान हैं जिनमें एक तो वह हैं जो मालिक है तो दूसरे वह भी जो कि कामगार हैं। शहरों में अनेक ऐसे लोग रहते है जो अपनी ज़मीन बंटाई पर देकर आते हैं और हर फसल में अपना हिस्सा उनको पहुंचता है। उनको अगर जमीन की एक मुश्त राशि अच्छी खासी मिल जाये तो वह प्रसन्न हो जायेंगे मगर कामगार के लिये तो सिवाय बेकारी के कुछ नहीं आने वाला। संभव है अनेक कामगार यह न जानते हों और ज़मीन बचाने की चर्चा के बीच वह भी भीड़ में शामिल हो गये हों। फिर कुछ किसान ऐसे भी हो सकते हैं जो अपनी तात्कालिक जरूरतों के लिये एक मुश्त रकम देकर खुश हो रहे हों और वह अगर बढ़ जाये तो कहना ही क्या? ऐसे किसान कोई भारी व्यापार नहीं करेंगे बल्कि अपने घरेलू कार्यक्रमों में-शादी तथा गमी की परंपराओं में हमारे देश के नागरिक अपनी ताकत से अधिक खर्च कर देते है-ही खर्च कर देंगे और फिर क्या करेंगे यह तो उनकी किस्मत ही जानती है। संभव है कुछ किसान ऐसे समझदार हों और वह एक ही दिन में मुर्गी के सारे अंडे निकालने की बजाय रोजाना खाना पंसद करते हों। देश में अज्ञान और ज्ञान की स्थिति है उससे देखकर यह तो लगता है कि कुछ लोग इस आंदोलन को ज़मीन बचाने का आंदोलन समझ रहे हैं जो कि वास्तव में प्रतीत नहीं होता क्योंकि उचित मुआबजा कोई इसके लिये नहीं हो सकता।
जहां तक कृषि व्यवसाय से लाभ का प्रश्न है तो सभी जानते हैं कि छोटे किसानों को खेती करने से इतना लाभ नहीं होता बल्कि उनको अपना पेट पालने के लिये उससे जुड़े व्यवसाय भी करने होते हैं जिनमें पशुपालन भी है। अकेले कृषि के दम पर अमीर बनने का ख्वाब कोई भी नहीं देखता यह अलग बात है कि आयकर से बचने के लिये अनेक अमीर इसकी आड़ लेते हैं। कृषि में आय से स्थिर रहती है और वृद्धि न होने की दशा में किसान कर्ज लेता है। यह कर्ज अधिकतर शादी और गमी जैसे कार्यक्रमों पर ही खर्च करता है। देश की सामाजिक स्थिति यह है कि घर बनाने, शादी और गमी में तेरहवीं में अच्छा खर्च करना सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय माना जाता है। रूढ़िवादिता में होने वाला अपव्यय आदमी करने से बाज़ नहंी आता क्योंकि वह गरीब होकर भी गरीब नहीं दिखना चाहता-अलबत्ता कहीं से कुछ मिलने वाला हो तो अपना नाम गरीबों की सूची में लिखा देगा।
ऐसे में एकमुश्त राशि सभी को आकर्षित कर रही है पर वह बढ़ जाये तो बुराई क्या है? जिनको जमीन से सीधे पैसा मिलना है वह तो इसमें शामिल हो गये पर उनके साथ ऐसे कामगार भी आ गये होंगे जो वहां काम करते हैं। अगर प्रचार माध्यमों में यह ज़मीन बचाने की मुहिम का प्रचार न होता तो प्रदर्शनकारियो की संख्या कम ही होती। फिर देश के अन्य भागों से सहानूभूति भी शायद नहीं मिल पाती। शायद इसलिये ही ‘ज़मीन बचाने’ वाला नारा इसमें शामिल होते दिखाया गया जबकि है नहीं।
अलबत्ता ऐसे किसान जो किसी भी कीमत में ज़मीन नहीं बेचना चाहते वह आंदोलन की छत्रछाया में आ गये हैं और अब उनको किसी किसी तरह आगे भी मुआवजा लेकर ज़मीन छोड़नी होगी। संभव कुछ मूल्य बढ़ जाये पर शायद इसे कम ही इसलिये रखा गया है कि कोई ऐसा आंदोलन चलवाया जाये जिससे सब किसान एक ही छत के नीचे आ जायें। जमीन मां है यह सच है। कृषि योग्य जमीन का कम होना अच्छी बात नहीं है पर मुआबजे के खेल में उसकी चर्चा करना व्यर्थ है। याद रहे यह लेख टीवी चैनलों और समाचार पत्रों के आधार पर लिखा गया है इसलिये हो सकता है सब वैसा न हो पर यह बात उनको साबित भी करनी होगी। अलबत्ता इस विचार से अलग भिन्नता ही सहृदयजनों को हो सकती है पर अंततः एक आम लेखक के पास अधिक स्त्रोत और समय नहीं होता कि वह व्यापक रूप से अन्वेषण कर सके।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दक्षिण भारत की भावुकता अस्वाभाविक नहीं-आलेख (bhakti in south india-hindi lekh)


फिल्मी अभिनेताओं और नेताओं के प्रति दक्षिण भारतीय लोगों की भावुकता देखकर अनेक लोग हतप्रभ रह जाते हैं। दक्षिण भारतीय जहां अपने नेताओं और अभिनेताओं के जन्म दिन पर अत्यंत खुशी जाहिर करते हैं वहीं उनके साथ हादसा होने पर गमगीन हो जाते हैं। इतना ही नहीं उनके निधन पर कुछ लोगों को इतना धक्का पहुंचता है कि उनकी मौत हो जाती है या कुछ आत्महत्या कर लेते हैं। इस पर भारत के अन्य दिशाओं तथा शेष विश्व के लोगों को बहुत हैरानी होती है मगर बहुत कम लोग इस बात को जानेंगे और समझेंगे कि उनकी यह भावुकता एकदम स्वाभाविक है। जिन लोगों को भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान की समझ है वह दक्षिण भारतीयों के इस तरह के भक्ति भाव पर बिल्कुल आश्चर्य नहीं करते।
कई बातें तर्क से परे होती हैं और जहां मनोविज्ञान हो तो तर्क ढूंढना कोई आसान नहीं होता। इससे पहले कि हम दक्षिण भारतीयों की स्वाभाविक भावुकता पर दृष्टिपात करें उससे पहले श्रीगीता का यह संदेश समझे लें कि यह पूरा विश्व त्रिगुणमयी माया के वशीभूत हो रहा है और गुण ही गुणों को बरतते हैं। स्पष्तः हमारी देह में तीन गुणों में से-सात्विक, राजस और तामस- कोई एक मौजूद रहता है और उनका निर्माण हमारे अंदर खानपान, जलवायु और संगत से ही होता है उसी के वशीभूत होकर काम करते है। । ऐसा लगता है कि दक्षिण की जलवायु में ही कुछ ऐसा है जो वहां के लोगों में भक्ति का भाव एकदम शुद्ध रूप से मौजूद होता है और सच कहें तो वह एकदम पवित्र होता है। वजह यह है कि भक्ति का जन्म ही द्रविण प्रदेश में होता है। वहां वह एकदम बाल्यकाल में होती है और हम सभी जानते हैं कि यह काल ही भगवत्स्वरूप होता है।
श्रीमद्भागवत में प्रारंभ में ही एक कथा आती है जिसमें वृंदावन में पहुंची भक्ति की मुलाकात श्री नारद जी से होती है। वह वहां सुंदर युवती के रूप में थी पर उसके साथ दो बूढ़े थे जो कि उसके पुत्र वैराग्य और ज्ञान थे। वह करूणावस्था में थी और नारद जी को अपनी कथा सुनाते हुए कहती है कि ‘मेरा जन्म द्रविण प्रदेश में हुआ। कर्नाटक प्रदेश में पली बढ़ी और महाराष्ट्र में कुछ जगह सम्मानित हुई पर गुजरात में मुझे बुढ़ापा आ गया। इधर वृंदावन में आई तो मुझे तो तरुणावस्था प्राप्त हो गयी।’
हम यहां कथा का संदर्भ केवल दक्षिण तक ही सीमित रखें तो समझ सकते हैं कि वहां की जलवायु, अन्न जल तथा मिट्टी में ही कुछ ऐसा होता है कि लोगों की भक्ति एकदम शिशु मन की तरह पवित्र तथा कोमल होती है। भक्ति तो वह अदृश्य देवी है जो हर मनुष्य के मन में विचरती है और चाहे इंसान जैसा भी हो उसको इसका सानिध्य मिलता है क्योंकि कोई भी इंसान ऐसा नहीं हो सकता हो जो किसी व्यक्ति से प्रेम न करता हो। बुरा से बुरा आदमी भी किसी न किसी से प्रेम करता है। भक्ति हमारे अंदर सारे भावों की स्वामिनी है। पंचतत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार तमाम तरह के भावों के साथ चलते हैं और कहीं न किसी से प्रेम या भक्ति अवश्य होती है-यह अलग बात है कि कहीं सजीव तो कहीं निर्जीव वस्तु से लगाव होता है पर देन इसी भक्ति भाव की है। कुछ लोग कह सकते हैं कि अगर यह बात है तो वहां के सभी लोगों में एक जैसी भक्ति नहीं है क्योंकि नेताओ के साथ हादसे में कुछ ही लोग आघात नहीं झेल पाते और उनकी इहलीला समाप्त हो जाती है पर बाकी तो बचे हुए रहते हैं। दरअसल भक्ति का मतलब यह नहीं है कि सभी भक्त अपने प्रिय के साथ हादसा होते ही एक जैसा कदम उठायें। जो लोग बचे रहते हैं वह भी मानसिक आघात कम नहीं झेल रहे होते हैं। याद रखिये भगवान ने पांचों उंगलियां एक जैसी नहीं! दूसरा यह भी कि भक्ति के दो पुत्र भी हैं जिन्होंने भगवत्काल में तरुणावस्था प्राप्त कर ली थी और उनका भी अब महत्व कम नहीं है और संचार साधनों के विस्तार के साथ उनकी पहुंच भी सब जगह है।
हमारे अध्यात्मिक में ज्ञान के साथ मनोविज्ञान और विज्ञान भी है और वह गुण विभाग का कर्म के साथ परिणाम भी बताता है पर उनमें दुनियावी चीजों पर शोध नहीं हुआ कि ऐसा क्यों होता है? या कौनसा जींस दक्षिण में अधिक सक्रिय है? यह काम तो पश्चिमी वैज्ञानिक करते हैं और हो सकता है कि किसी दिन वह इस तरह भी खोज करें कि आखिर दक्षिण में ऐसी भावुकता के पीछे कौनसा जींस या चीज काम कर रही है पर हमारे अध्यात्मिक दर्शन को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारे दक्षिणवासियों की यह भावुकता कोई अस्वाभाविक नहीं है।
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विदुर नीति-आत्मा साथ छोडे तो फ़िर कौन निभाता है


अग्नी प्रास्तं पुरुषं कर्मान्वेति स्वयंकृतम्।
तस्मातु पुरुषो यत्नाद् धर्म संचितनुयाच्छनैः।।
हिंदी में भावार्थ-
इस देह के अग्नि में जलकर राख हो जाने के बाद मनुष्य का अच्छा और बुरा कर्म ही उसके साथ जाता है अतः जितना हो सके धर्म के संचय का प्रयत्न करें।

उत्सृत्न्य विनिवर्तन्ते ज्ञातयः सह्दः सुताः।
अपुष्पानफलान् वृक्षान् यथातत पतित्रणः।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह फल और फूल से हीन वृक्ष को पक्षी त्याग कर चले जाते हैं वैसे इस शरीर से आत्मा निकल जाने पर उसे जाति वाले, सहृदय और पुत्र चिता में छोड़कर लौट जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस देह को लेकर अभिमान पालना व्यर्थ है। एक न एक दिन इसे नष्ट होना है। इस देह से बने जाति, धर्म, परिवार और समाज के रिश्ते तभी तक अस्तित्व में हैं जब तक यह इस धरती पर विचरण करती है। मनुष्य मोहपाश में फंसकर उनको ही सत्य समझने लगता है। इसमें मेहमान की तरह स्थित आत्मा का कोई सम्मान नहीं करता जिसकी वजह से यह देह रूपी शरीर प्रकाशमान है।
आपने देखा होगा कि आजकल हर जगह विवाहों के लिये बहुत सारी इमारतें बनी हुईं हैं। वहां जिस दिन कोई वैवाहिक कार्यक्रम होता है उस दिन वह रौशनी से जगमगाता है। जब विवाह कार्यक्रम नहीं होता उस दिन वहां अंधेरा रहता है। यह विचार करना चाहिये कि जब उस इमारत में बिजली और उससे चलने वाले उपकरण तथा सजावट का सामान हमेशा विद्यमान रहता है तब क्यों नहीं उसे हमेशा रौशन किया जाता? स्पष्ट है कि विवाह स्थलों के मालिक विवाह कार्यक्रम के आयोजकों से धन लेते हैं और इसी कारण वहां उस स्थान पर रौशनी की चकाचौंध रहती है। आयोजक भी धन क्यों देता है? उसके रिश्तेदार, मित्र और परिवार के लोग उस कार्यक्रम में शामिल होते हैं। अगर दूल्हा दुल्हन के माता पिता अकेले ही विवाह कार्यक्रम करें तो उनको व्यय करने की आवश्यकता ही नहीं पर तब ऐसे विवाह स्थल जगमगा नहीं सकते। तात्पर्य यह है कि मेहमानों की वजह से ही वहां सारी सजावट होती है। जब सभी चले जाते हैं तब वहां सन्नाटा छा जाता है। यही स्थिति इस देह में विद्यमान आत्मा की है। यह देह तो बनी यहां मौजूद पंच तत्वों से ही है पर उसको प्रकाशमान करने वाला आत्मा है। इस सत्य को पहचानते हुए हमें अपने जीवन में धर्म का संचय करना चाहिये। हमारे अच्छे काम ही इस आत्मा को तृप्त करते हैं। यह आत्मा तो परमात्मा से बिछड़ा अंश है और कभी न कभी उसके पास जाना है तो क्यों न परमात्मा की भक्ति कर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास किया जाये।
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नस्लवाद और गुणों का स्वरूप-आलेख


शायद कुछ समाज सुधारकों को यह बुरा लगे पर सच यही है कि इस धरती पर पैदा हर जीव की नस्ल होती है और उसमें कुछ स्वाभाविक गुण जन्मजात होते हैं जिनमें इंसान भी शामिल है। इंसानों में नस्ल होती हैं यही कारण है कि शरीर विज्ञान के विशेषज्ञ अनेक प्रकार के जींसों की मौजूदगी अलग अलग लोगों में अलग अलग रूप से देखते हैं। हां, इतना अवश्य है कि अन्य जीवों से पृथक इंसान अपनी बुद्धि की व्यापकता के कारण अभ्यास से जन्मजात गुणों से प्रथक गुण भी प्राप्त करता है और दुर्गुणों से मुक्ति भी इनसे मिल जाती है।
जींसों के विषय में इस लेखक के मित्र ने लेख लिखा था उसमेें यह बताया गया था कि किस तरह कुछ जातियों के लोग गोरे और कुछ के काले होते हैं। इतना ही नहीं विचार और काम करने की शैलियां और तरीके भी अलग अलग स्थानों पर होने के बावजूद एक जैसे होते हैं जबकि उनका आपस में कोई संपर्क नहीं होता।
अगर कोई गोरा दंपत्ति ऐसे स्थान पर होता है जहां कालों की बहुतायत है उसके बच्चे भी गोरे होते हैं और कहीं काला दंपत्ति अगर गोरा बाहुल्य इलाके मेें हुआ तो उसका बच्चा भी काला होता है। उस मित्र से लेख पर चर्चा हुई थी तब इस लेखक ने उससे पूछा था कि-‘क्या जलवायु और अन्न जल मनुष्य के मूल स्वभाव को प्रभावित नहीं करता?
उसने कहा कि‘-नहीं।’
लेखक ने पूछा-‘क्या तुम्हारे मेरे स्वभाव में अंतर केवल जाति या नस्ल के कारण है या जलवायु भी इसमें शामिल है। वैसे इस समय हम दोनों एक ही स्थान का अन्न जल ग्रहण कर रहे हैं।’
मित्र हंस पड़ा और उसने कहा-‘शायद दोनो कारण से ही अंतर है। जाति और जन्म स्थान अलग अलग होने से हमारे स्वभाव और विचारों में अंतर हो सकता है।’
फिर कुछ देर बाद चुप रहने के बाद वह बोला-‘शिक्षा प्रणाली और धार्मिक साम्यता के कारण हम दोनों कई मसलों पर एक ढंग से सोचते हैं। कई मसलों पर सहमत हों सकते हैं पर अभिव्यक्ति की शैली में अंतर हो सकता है जो शायद जाति, जलवायु और के साथ हमारे वर्तमान जीवन स्तरों से कहीं न कही जरूर प्रभावित होगा।’
वह स्पष्ट जवाब नहीं दे रहा था पर उसने अपने लेख में जातियों की नस्ल को लेकर कहीं दूसरे स्थान से प्रकाशित लेख उठाकर उस पत्रिका में लिखा था जिसमें इस लेखक का व्यंग्य भी था। वह पत्रिका इस लेखक के पास अल्मारी में जमा है और ढूंढने पर वह लेख लिखने का प्रयास किया जायेगा। वह स्वयं उस लेख का महत्व नहीं समझ सका। उस दिन जब उससे उस लेख की तारीख मांगी तो उसने उस लेख का शीर्षक और विषय बताया जो इस लेखक का था। जब भी नस्ल को लेकर कहीं चर्चा होती है उस मित्र का लेख अक्सर याद आता है। उस लेख में नस्ल से मनुष्य की देह और बुद्धि के प्रभावित होने के सिद्धांत की पुष्टि करते हुए भारत के जातिगत ढांचे की सार्थकता प्रमाणित करने का प्रयास उसमें किया गया था पर लेखक स्वयं उसमें अपनी कोई राय नहीं दे सका।
बहरहाल नस्ल का संबंध देह से इसलिये उससे जुड़ी तीनों प्रकृतियां-बुद्धि, मन और अहंकार-प्रभावित होती हैं पर दूसरा सच यह है कि सभी जगह लोगों का स्वभाव एक जैसा नहीं होता। सभी जगह अपराधी नहीं होते तो सभी पुण्यात्मा भी नहीं होते। धोखा, मक्कारी, अपराध और अनावश्यक रूप से दूसरे को सताने की घटनायें सभी जगह होती है तो बचाने वाले भी सभी जगह होते हैं। हम कहते हैं कि अमुक जगह अमुक जाति, भाषा, क्षेत्र या धर्म से जुड़े लोगों पर हमले हो रहे हैं क्योंकि वह बाहर से वहां आये हैं। इसका आशय यह नहीं है कि सभी लोग हमला कर रहे हैं क्योंकि तब यह सवाल उठ सकता है कि स्थानीय लोगों की सहायता के बिना वहां बाहर के लोग कैसे पहुंच सकते हैं। तय बात है कि वहां एक समूह ऐसा भी है जो उनको अपने स्वार्थ की वजह से वहां रोके रहता है और वह ऐसे हमलों को पसंद नहीं करता।
मनुष्य के स्वभाव में कुछ गुण मूल रूप से होते हैं तो कुछ परिस्थितिजन्य भी उसे ऐसा कार्य कराते हैं जो वह सामान्य हालत में नहीं करता। कई बार वह भीड़ में शामिल होकर ऐसा काम करता है जो वह अकेले वह सोचता भी नहीं। तात्पर्य यह है कि किसी भी घटना को किसी समूह के स्वभाव से जोड़ना एक गलती है। दुनियां में हर देश, भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र में कवि पैदा होते हैं। उन समूहों में भी कवि मिल जाते हैं जिसके सदस्य आक्रामक माने जाते हैं।
इस लेखक का यह अनुभव रहा है कि जलवायु का प्रभाव आदमी के स्वभाव पर अवश्य पड़ता है-जिस मनुष्य का जन्म जिस स्थान पर हुआ है उसकी जलवायु का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है। उसकी देह की नस्ल कोई भी हो मनुष्य पर जन्म वाले स्थान की जलवायु का प्रभाव अवश्य दृष्टिगोचर होता है। उसके स्वभाव का जाति,भाषा और धर्म से अधिक संबंध नहीं होता। हां, जन्म के बाद इंसान कर्म अपनी बुद्धि के अनुसार वैसे ही करता है जैसा कि उसका अन्न जल होता है। यही बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। श्रीगीता का अध्ययन करने से भी इस बात की प्रेरणा मिलती है कि जैसे आदमी भोजन करता है वैसे ही उसकी बुद्धि हो जाती है और फिर कर्म भी उसी के अनुसार होते हैं। ‘गुण ही गुणों को बरतते है’-यह एक ऐसा नियम है जिसको आधुनिक विज्ञान मान्य नहीं करता क्योंकि उसमें उसे धर्म की बू आती है मगर सच यही है। इस देह में जैसा अन्न जल अन्दर जायेगा वैसी ही प्रवृत्ति होगी। अन्न जल से भी दो आशय है-एक तो उसको पाने के लिये धन का स्त्रोत अगर पवित्र नहीं है तो भी उसके सेवन का भी बुरा प्रभाव होगा और दूसरा यह कि अगर वह मांस आदि खाने से भी देह में स्थित बुद्धि भ्रष्ट होने के साथ मन में क्रूरता का भाव पैदा होता है जो अहंकार को बढ़ाता है। उससे आदमी फिर दूसरों की बाह्य देह देखकर ही दूसरे के गुणों और दुर्गुणों का अनुमान करते हुए पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर व्यवहार करता है। शायद ‘गुण ही गुणों को बरतते’ का सिद्धांत पूरे विश्व में प्रचारित किया जाये तो लोग यह समझ पायेंगे कि किस तरह उनके समूह के शीर्षस्थ लोग उनको भ्रमित कर आपस में झगड़ा कराते हैं। शेष फिर कभी।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

चीन के प्रचार माध्यमों पर तो हंसा जा सकता है-आलेख


इसलिये कहते हैं कि दूसरे के अपमान पर कभी नहीं हंसना चाहिये क्योंकि स्वयं को भी कभी ऐसी स्थिति का सामना करने पर दूसरों का हंसने का अवसर मिल सकता है। चीन के प्रधानमंत्री बेन जियाबाओ पर लंदन के कैम्ब्रिज विश्वविद्याालय में एक कार्यक्रम के दौरान एक व्यक्ति ने उनकी तरफ अपना जूता उछाल दिया। उसने उन पर तानाशाह होने का आरोप लगाया। देखा जाये तो जूता यहां लोकतंत्र की हिमायत में फैंका गया पर लोकतांत्रिक व्यवस्था का सच्चा हिमायती कभी इस तरह जूते फैंकने का समर्थन नहीं करेगा।

इस आलेख का उद्देश्य जूता फैंकने की घटना का समर्थन या विरोध करना नहीं है बल्कि जिस तरह लोग बेहयायी की घटनाओं पर अपनी सुविधानुसार विश्लेषण कर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं उस पर दृष्टिपात करना ही है। कहीं बेहयायी पूर्वक जूता फैंकना उनको सम्राज्यवाद के गाल पर तमाचा जड़ना लगता है तो कहीं उनको लोकतांत्रिक प्रतीक दिखाई देता है। जूता फैंकना गलत है पर कथित रूप से सम्राज्यवाद विरोधी-भले ही वह स्वयं भी कम सम्राज्यवादी नहीं होते-किसी लोकतंात्रिक देश के राष्ट्रप्रमुख पर जूता फैंकने का समर्थन सीधे तो नहीं करते पर जूता फैंकने वाले की भावनाओं पर ध्यान अधिक केंद्रित करते हैं। वर्तमान विश्व के सभ्य समाज में जूता फैंकने की घटना का सीधे समर्थन तो कोई भी कर ही नहीं सकता पर पर कुछ लोगों द्वारा शब्दों की हेराफेरी से उसको सही साबित करने के प्रयास भी कम नहीं होते।

जब कुछ समय पूर्व इराक मेंं अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्जबुश पर जूता फैंका गया था तब चीन के प्रचार माध्यमों ने उसे हाथों हाथ लिया था। चीन के प्रचार माध्यम सरकार के नियंत्रण मेंे हैं और यह संभव नहीं है कि वहां के कर्णधारों की तरफ से इसका इशारा न हो। अंतर्जाल पर हिंदी ब्लाग लेखक अपने पाठों में बताते हैं कि चीन में तो अंतर्जाल पर चीनी भाषा में ब्लाग लिखने वालों को भारी रकम मिलती है और वह अन्य भाषाओं के ब्लाग लेखकों से अधिक आय अर्जित करते हैं क्योंकि सरकार उनको प्रायोजित करती है। मतलब चीन की सरकार ने अंतर्जाल पर भी अपने देश का झंडा फहराने का बंदोबस्त कर लिया हैं। जार्ज बुश पर जूता फैंकने के बारे में चीनी ब्लाग लेखकों की प्रतिक्रिया भी अपने प्रचार माध्यामों से अलग नहीं थी। सीधी भाषा में बात करें तो चीन ने सरकारी तौर पर गैरसरकारी क्षेत्रों को जार्ज बुश पर जुता फैंकने की घटना पर हंसने का अधिकार दिया जिसका खूब उपयोग किया गया गया।

मगर अब क्या हुआ? जो जानकारी विभिन्न समाचार पत्रों से मिली है उससे हैरानी तो नहीं होती पर इतना जरूर कहना है कि ‘भई, दूसरे के अपमान पर हंसना नहीं चाहिये।‘ चीन के किसी भी प्रचार माध्यम में इस घटना का जिक्र नहीं हैं। उनके प्रधानमंत्री पर जूता फैंका गया यह बात वहां किसी ने अपने लोगों के सामने नहीं रखी। मगर कुछ हुआ था इससे छिपाना कठिन था सो ‘भाषण में व्यवधान’ का उल्लेख किया गया। शायद यह भी नहीं होता अगर ब्रिटेन ने माफी नहीं मांगी होती। शायद तब भी वहां के प्रचार माध्यमों ने खामोशी अख्तियार कर ली होती पर चीन ने इस कथित व्यवधान पर ब्रिटेन से कड़ा प्रतिवाद किया था और तभी उसने माफी मांगी यह वहां के लोगों को बताना जरूरी था। ब्रिटेन से विरोध जताने के चीनी प्रयास से वहां की जनता के मन में वहां के कर्णधारों की मजबूत व्यक्तित्व की छबि बनी इसलिये यह प्रसारण जरूरी था। जनता अधिक नाराज न हो इसलिये ब्रिटेन की माफी बतानी भी जरूरी थी। मगर जूता फैंका गया………………..इसे वह छिपा गये। प्रचार माध्यमों पर सरकारी नियंत्रण कितना तगड़ा है यह सभी जानते हैं। इसका मतलब यह है कि जब जार्जबुश के साथ बदतमीजी की गयी और चीनी प्रचार माध्यमों ने उसका खूब मजा लिया उससे यह साफ जाहिर होता है कि सरकारी इशारा उनको इसके लिये प्रेरित कर रहा है। अगर उस समय अमेरिका उससे कहता तो वहां के कर्णधार यही कहते कि यह तो मीडिया है इसकी स्वतंत्रता पर हम रोक नहीं लगाते।
चीन ने चाहे कितनी भी प्रगति की है और वह विश्व में दूसरे देशों से मधुर संबंध बनाना चाहता है पर उस कोई यकीन नहीं करता और करना भी नहीं चाहिये। चीनी प्रचार माध्यम भारत के विरुद्ध विषवमन करते हैं-यह बात अतंर्जाल पर वेबसाइटें और ब्लाग और समाचार पत्र पढ़ने से पता लग जाती है-और जिस तरह उन पर सरकार का नियंत्रण रखती है उससे उनका प्रचार सरकार के मन की बात ही समझी जानी चाहिये। वैसे उम्मीद तो नहीं कि यह बात वहां के प्रचार माध्यमों और बुद्धिजीवियों को समझ में आयेगी कि ‘दूसरे के अपमान पर कभी नहीं हंसना चाहिये क्योंकि अपने साथ वैसा ही व्यवहार आने पर दूसरों को भी हंसने का अवसर मिल सकता है।’ आखिर वह अपने सरकार के नियंत्रण में हैं और इसका मतलब यह है कि सोचने और समझने वाले सीमित संख्या में है और उस पर अमल करने वाले बहुत हैं। चीन में सोचने और समझने का अधिकार केवल राजकीय शक्ति से संपन्न लोगों के पास ही है और बाकी के लोग अपने सोचे और समझे पर थोड़े ही चल सकते हैं।

इसका आशय यह नहीं कि इस जूता फैंकने की घटना का प्रचार कर उसे महत्व दें बल्कि इस तरह की प्रवृत्ति की निंदा सभी को हमेशा करना चाहिये भले ही अपने विरोधी या शत्रू के साथ हो। मुश्किल है कि कुछ लोग इसे समझना नहीं चाहते। बहरहाल चीन के प्रधानमंत्री पर जूता फैंकने की घटना निंदनीय है पर वहां के प्रचार माध्यमों का रवैया ऐसा है जिस पर हंसा जा सकता है।
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अपराध शास्त्र से अलग विषय नहीं है आतंकवाद-आलेख


बिना धन के कहीं भी आतंकवाद का अभियान चल ही नहीं सकता और वह केवल धनाढ़यों से ही आता है। आतंकवाद एक व्यापार की तरह संचालित है और इसका कहीं न कहीं किसी को आर्थिक लाभ होता है। आतंकवाद को अपराधी शास्त्र से अलग रखकर बहस करने वाले जालबूझकर ऐसा करते हैं क्योंकि तब उनको जाति,भाषा,वर्ण,क्षेत्र और संस्कारों की अलग अलग व्याख्या करते हैं और अगर वह ऐसा नहीं करेंगे फिर एकता का औपचारिक संदेश देने का अवसर नहीं मिलेगा और वह आम आदमी के मन में अपनी रचात्मकता की छबि नहीं बना पायेंगें

कोई भी अपराध केवल तीन कारणों से होता है-जड़,जोरू और जमीन। आधुनिक विद्वानों ने आतंकवाद को अपराध से अलग अपनी सुविधा के लिये मान लिया है क्योंकि इससे उनको बहसें करने में सुविधा होती है। एक तरह से वह अपराध की श्रेणियां बना रहे हैं-सामान्य और विशेष। जिसमें जाति,भाषा,धर्म या मानवीय संवेदनाओंं से संबंधित विषय जोड़कर बहस नहीं की जा सकती है वह सामान्य अपराध है। जिसमें मानवीय संवेदनाओं से जुड़े विषय पर बहस हो सकती है वह विशेष अपराध की श्रेणी में आतेे हैं। देश के विद्वनों, लेखकों और पत्रकारों में इतना बड़ा भ्रम हैं यह जानकार अब आश्चर्र्य नहीं होता क्योंकि आजकल प्रचार माध्यम इतने सशक्त और गतिशील हो गये हैं कि उनके साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क निरंतर बना रहता है। निरंतर देखते हुए यह अनुभव होने लगा कि प्रचार माध्यमों का लक्ष्य केवल समाचार देना या परिचर्चा करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि हर पल अपने अस्तित्व का अहसास कराना भी है।
हत्या,चोरी,मारपीट डकैती या हिंसा जैसे अपराघ भले ही जघन्य हों अगर मानवीय संवदेनाओं से जुड़े विषय-जाति,धर्म,भाषा,वर्ण,लिंग या क्षेत्र से-जुड़े नहीं हैं तो प्रचार माध्यमों के लिये वह समाचार और चर्चा का विषय नहीं हैं। अगर सामान्य मारपीट का मामला भी हो और समूह में बंटे मानवीय संवदेनाओं से जुड़े होने के कारण सामूहिक रूप से प्रचारित किया जा सकता है तो उसे प्रचार माध्यमों में अति सक्रिय लोग हाथोंहाथ उठा लेते हैं। चिल्ला चिल्लाकर दर्शकों और पाठकों की संवदेनाओं को उबारने लगते हैं। उनकी इस चाल में कितने लोग आते हैं यह अलग विषय है पर सामान्य लोग इस बात को समझ गये हैं कि यह भी एक व्यवसायिक खेल है।

यह प्रचार माध्यमों की व्यवसायिक मजबूरियां हैं। उनको भी दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि मानवीय संवेदनाओं को दोहन करने के लिये ऐसे प्रयास सदियों से हो रहे हैं। यही कारण है कि अध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण भारतीय ज्ञान की अनदेखी तो वह लोग भी करते हैं जो उसे मानते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान की जगह धर्म के रूप में सार्वजनिक कर्मकांडों के महत्व का प्रतिपादन बाजार नेे ही किया है। कहीं यह कर्मकांड शक्ति के रूप में एक समूह अपने साथ रखने के लिये बनाये गये लगते हैं। मुख्य बात यह है कि हमें ऐसे जाल में नहीं फंसना और इसलिये इस बात को समझ लेना चाहिये कि अपराध तो अपराध होता है। हां, दूसरे को हानि पहुंचाने की मात्रा को लेकर उसका पैमाना तय किया जा सकता है पर उसके साथ कोई अन्य विषय जोड़ना बेवकूफी के अलावा कुछ नहीं है। जैसे चोरी, और मारपीट की घटना डकैती या हत्या जैसी गंभीर नहीं हो सकती पर डकैती या हत्या को किसी धर्म, भाषा,जाति और लिंग से जोड़ने के अर्थ यह है कि हमारी दिलचस्पी अपराध से घृणा में कम उस पर बहस मेें अधिक है।
बाजार और प्रचार का खेल है उसे रोकने की बात करना भी ठीक नहीं है मगर आम आदमी को यह संदेश देना जरूर आवश्यक लगता है कि वह किसी भी प्रकार के अपराध में जातीय,भाषा,धर्म,वर्ण,लिंग और क्षेत्रीय संवेदनाएं न जोड़े-अपराध चाहे उनके प्रति हो या दूसरे के प्रति उसके प्रति घृणा का भाव रखें पर अपराधी की जाति,भाषा,धर्म,वर्ण,लिंग और क्षेत्रीय आधार को अपने हृदय और मस्तिष्क में नहीं रखें।

एक बात हैरान करने वाली है वह यह कि यह विद्वान लोग विदेश से देश में आये आतंकियों के जघन्य हमले और देश के ही कुछ कट्टरपंथी लोगों द्वारा गयी किसी एक स्थान पर सामान्य मारपीट की घटना में को एक समान धरातल पर रखते हुए उसमें जिस तरह बहस कर रहे हैं उससे नहीं लगता कि वह गंभीर है भले ही अपने कार्यक्रम की प्रस्तुति या आलेख लिखते समय वह ऐसा प्रदर्शित करते हों। इस बात पर दुःख कम हंसी अधिक आती है। मुख्य बात की तरफ कहीं कोई नहीं आता कि आखिर इसके भौतिक लाभ किसको और कैसे हैं-यानि जड़ जोरु और जमीन की दृष्टि से कौन लाभान्वित है। बजाय इसके वह मानवीय संवेदनाओं से विषय लेकर उस पर बहस करते हैं।

आतंकवाद विश्व में इसलिये फैल रहा है कि कहीं न कहीं विश्व मेें उनको राज्य के रूप में सामरिक और नैतिक समर्थन मिल जाता है। कहीं राज्य खुलकर सामरिक समर्थन दे रहे हैं तो कही उनके अपराधों से मूंह फेरकर उनको समर्थन दिया जा रहा है। एक होकर आतंकवाद से लड़ने की बात तो केवल दिखावा है। जिस तरह अपने देश में बंटा हुआ समाज है वैसे ही विश्व में भी है। हमारे यहां सक्रिय आतंकवादी पाकिस्तान और बंग्लादेश से पनाह और सहायता पाते हैं और विश्व के बाकी देश इस मामले में खामोश हो जाते हैं। वह तो अपने यहां फैले आतंकवाद को ही वास्तविक आतंकवाद मानते हैंं। वैसे ऐसी बहसें तो वहां भी होती हैं कि कौनसा धर्म आतंकवादी है और कौनसा नहीं या किसी धर्म के मानने वाले सभी आतंकवादी नहीं होते। यह सब बातें कहने की आवश्यकता नहीं हैं पर लोगों को व्यस्त रखने के लिये कही जातीं हैं। इससे प्रचार माध्यमों को अपने यहां कार्यक्रम बनाने और उससे अपना प्रचार पाने का अवसर मिलता है। आतंकवाद से लाभ का मुख्य मुद्दा परिचर्चाओं से गायब हो जाता है और वहां यहां तो आतंकवादी संगठनों की पैतरेबाजी की चर्चा होती है या फिर धार्मिक,जाति,भाषा, और लिंग के आधार बढि़या और लोगों को अच्छे लगने वाले विचारों की। आतंकवादियों के आर्थिक स्त्रोतों और उनसे जुड़ी बड़ी हस्तियों से ध्यान हटाने का यह भी एक प्रयास होता है क्योंकि वह प्रचार माध्यमों के लिये अन्य कारणों से बिकने वाले चेहरे भी होते हैं।

प्रसंगवश अमेरिका के नये राष्ट्रपति को भी यहां के प्रचार माध्यमों ने अपना लाड़ला बना दिया जैसे कि वह हमारे देश का आतंकवाद भी मिटा डालेंगे। भारत से अमेरिका की मित्रता स्वाभाविक कारणों से है और वहां के किसी भी राष्ट्रपति से यह आशा करना कि वह उसके लिये कुछ करेंगे निरर्थक बात है। यहां यह भी याद रखने लायक है कि ओबामा ने भारत के अंतरिक्ष में चंद्रयान भेजने पर चिंता जताई थी। शायद उनको मालुम हो गया होगा कि वहां से जो फिल्में उसने भेजीं हैं वह इस विश्व को पहली बार मिली हैं और अभी तक अमेरिकी वैज्ञानिक भी उसे प्राप्त नहीं कर सके थे। बहरहाल आतंकवादियों की पैंतरे बाजी पर चर्चा करते हुए विद्वान बुद्धिजीवी और लेखक जिस तरह मानवीय संवेदनाओं से जुड़े विषय पैंतरे के रूप में आजमाते हैं वह इस बात को दर्शाता है कि वह भी अपने आर्थिक लाभ और छबि में निरंतरता बनाये रखने के लिये एक प्रयास होता है। वह बनी बनायी लकीर पर चलना चाहते हैं और उनके पास अपना कोई मौलिक और नया चिंतन नहीं है। वह दूसरे के द्वारा तय किये गये वैचारिक नक्शे पर ही अपने चर्चा घर सजाते हैं।
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कैसे होगा चंद्रमा पर बंटवारा-हास्य व्यंग्य


अब चंद्रमा पर धरती पर तमाम देशों के अधिकार की बात शुरु हो गयी है। अखबार में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार कुछ जागरुक लोगों मांग की है कि जिस तरह विश्व के अनेक देशों के अंतरिक्ष यान चंद्रमा के चक्कर लगा रहे हैं और वह सभी भविष्य में अपना वहां अधिकार वहां की जमीन पर जमा सकते हैं इसलिये एक कानून बना कर भविष्य में किसी विवाद से बचना चाहिए। एक बात तय है कि चंद्रमा पर पहुंचने वाले वही देश होंगे जो आर्थिक और तकनीकी दोनों ही दृष्टि से संपन्न हों। इस विश्व में ऐसे देशोें की संख्या पंद्रह से बीस ही होगी अधिक नहीं।

चंद्रमा की जमीन पर अधिकार को लेकर नियम बनाने वालों की मांग करने वालों का कहना है कि जिस तरह हर देश के समुद्र और आकाश का बंटवारा हुआ है वैसे ही चंद्रमा की जमीन का बंटावारा होना चाहिये। अब सवाल यह है कि समुद्र और आकाश का बंटवारा तो देशों की सीमा के आधार पर हुआ है जो कभी बदलते नहीं है पर चंद्रमा तो घूमता रहता है। फिर अपने आकाश और समुद्री सीमा की रक्षा के लिये सभी देश अपने यहां सेना रखते हैं पर चंद्रमा पर अपने क्षेत्र की रक्षा करने के लिये तभी समर्थ हो पायेंगे जब वहां पहुंच पायेंगे। बहरहाल इसलिये संभावना ऐसी ही हो सकती है कि जो देश वहां पहुंच सकते हैं उनमें ही यह बंटवारा हो।

अगर चंद्रमा की जमीन का बंटावारा हुआ तो उसका आधार यह भी बनेगा कि जो देश वहां पहुंच सकते हैं उनके देशों का क्षेत्रफल देखते हुए उसी आधार पर चंद्रमा की जमीन भी तय हो जाये। यानि समर्थवान देशोंे का क्षेत्रफल एक इकाई मानकर उसे चंद्रमा की पूरी जमीन के क्षेत्रफल से तोला जायेगा। उसके आधार पर जिसका हिस्सा बना वह उसका मालिक मान लिया जायेगा।

बाकी देशों का तो ठीक है भारत का क्षेत्रफल तय करने में भारी दिक्कत आयेगी भले ही भारत को उसी आधार पर चंद्रमा पर जमीन मिले जितना उसका क्षेत्रफल है। यह समस्या चीन और पाकिस्तान से ही आयेगी। चीन कहेगा कि अरुणांचल के क्षेत्र बराबर की जमीन भारत के हिस्से से कम कर उसे दी जाये तो पाकिस्तान कहेगा कि कश्मीर बराबर हिस्से की जमीन उसे दी जाये और वह उसे चीन को देगा। पाकिस्तान अभी चंद्रमा पर स्वयं पहुंचने की स्थिति में नहीं है।

वह वहां पहुंचकर भारत से तो नहीं लड़ सकता पर उसके मित्र ऐसे हैं जो उसके बिना चल ही नहीं सकते। फिर वह मित्र ऐसे हैं जो भारत को सहन नहीं कर सकते इसलिये वह पाकिस्तान को भले ही वहां न ले जायें पर उसका नाम लेकर भारत के लिये वहां भी संकट खड़ा कर सकते हैं।

वैसे देखा जाये तो जब से भारत ने चंद्रयान भेजा उसके खिलाफ गतिविधियां कुछ अधिक बढ़ ही गयीं हैं। कहने को अनेक देश भारत के साथ मित्रता का प्रदर्शन कर रहे हैं पर उनके दिल में पाकिस्तान ही बसता है और उनके लिये यह मुश्किल है कि वह चंद्रमा पर उसे भूल जायें-खासतौर भारत उनके सामने चुनौती की तरह खड़ा हो।

इस विवाद में पाकिस्तान के मित्र निश्चित रूप से उसका पक्ष लेकर झगड़ा करेंगे। अगर बैठक चंद्रमा पर होगी तो वह कहेंगे कि चूंकि भारत यहां एक दावेदार है उसके विरोधी पाकिस्तान का मौजूद रहना आवश्यक है सो बैठक जमीन पर ही हो। जमीन पर होगी तो कहेंगे कि पहले आपस में तय कर लो कि ‘वहां की जमीन का बंटवारा कैसे हो?’
सोवियत संघ एतिहासिक गलती ने पाकिस्तान को अमृतपान करा लिया है इसलिये यह देश आज हर उस देश को प्रिय है जो कभी सोवियत संध के विरोधी थे। 31 वर्ष पूर्व सोवियत संघ ने अफगानिस्तन में घुसपैठ की थी तब पश्चिम के सोवियत विरोधियों के लिये पाकिस्तान ही एक सहारा बना और उसे खूब हथियार और पैसा मिलने लगा। उसने वहां आतंकवाद जमकर फैलाया। सोवयत संघ को वहां से हटना पड़ा और उसके बाद तो पाकिस्तान के पौबारह हो गये। एक तरह से पूरा अफगानिस्तान उसके कब्जे में आ गया। मगर हालत अब बदले हैं तो वहां फिर अफगानियों का शासन आ गया पर पाकिस्तान अपनी खुराफतों से वहां भी आतंक फैलाये हुए है। वह अफगानिस्तान को अपने हाथ से छिनता नहीं देख पा रहा हैं।

अखबारों में यह भी पढ़ने में आया कि वहां तो बच्चों को स्कूल में ही भारत विरोधी शिक्षा दी जाती है। कहने को तो सभी भारतीय चैनल कह रहे हैं कि सारी दुनियां पाकिस्तान की औकात देख रही है। हो सकता है कि यह सच हो पर इसका एक पक्ष दूसरा भी है कि ‘पाकिस्तान बाकी दुनियां की औकात भारतवासियों को दिखा रहा है कि देखो अपने आतंक से सभी घबड़ाते हैं पर दूसरे का यहां फैला आतंकवाद उनको बहुत भाता है। भारत को शाब्दिक रूप से सहानुभूति सभी ने दी है पर किसी में पाकिस्तान के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की।

सभी देशों अब यह कह रहे हैं कि ‘आपस में बातचीत कर लो’। जब चंद्रमा पर जमीन का आवंटन होगा तब भी यही कहेंगे कि ‘पहले आपस में बातचीत कर लो।‘
इस तरह बाकी देश अपनी जमीन बांट लेंगे और भारत से कहेंगे कि ‘जब आपका पाकिस्तान से फार्मूला तय हो जाये तब जमीन आवंटित हो जायेगी।’

तब तक भारत क्या करेगा? उसके अंतरिक्ष यान क्या चंद्रमा की जमीन पर नहीं उतरेंगे? उतरेंगे तो सही पर उससे उसकी फीस मांगी जायेगी। जिस देश की जमीन पर उतरेगा उससे अनुमति मांगनी होगी। यह कहा जाये कि ‘आपका हक तो बनता है पर अभी आपको जमीन का आवंटन नहीं हुआ है।’

अगर हम तर्क देंगे कि ‘पाकिस्तान तो चंद्रमा पर पहुंच नहीं सकता तो उसके हक पर विवाद क्यों उठाया जा रहा है।’
दरअसल समस्या पाकिस्तान नहीं है। उसने अपनी स्थिति इस तरह बना ली है कि उसकी उपेक्षा तो कोई कर ही नहीं सकता। उसके पीछे फारस की खाड़ी तक फैले देश हैं जिनके पास तेल और गैस के कीमती भंडार हैं और बाकी अन्य ताकतवर देश उनके यहां पानी भरते हैं और वह सभी पाकिस्तान के बिना चल नहीं सकते।
कुल मिलाकर चंद्रमा पर जमीन विवाद में पाकिस्तान कोई कम संकट खड़े नहीं करेगा। उसके मित्र देश भी उसका फायदा उठाकर भारत की जमीन हथियाने का प्रयास करेंगे। हां, ऐसे में भारत के मित्र सोवियत संघ से ही उम्मीद की जा सकती है पर वहां भी उसने ऐसा कुछ किया तो पाकिस्तान के मित्र देश उसको चंद्रमा पर कर्ज या उधार के अंतरिक्ष यान देकर पहुंचा देंगे। वह हर हालात में लड़ेगा भारत ही। उसका एक ही आधार है भारत से लड़ना चाहे वह जमीन हो या चंद्रमा!’
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