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महंगाई पर दो हिन्दी क्षणिकायें (two hindi short poem on mahangai)


सर्दी हो या गर्मी
या हो बरसात,
दिन हो या रात,
उन मज़दूरों के हाथ पांव
चलते ही जाते हैं,
मौसम की मार से भय नहीं है
पर महंगाई से उनके
पेट नहीं लड़ पाते हैं।
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आसमान पर जाते
जरूरी चीजों के भाव
भले ही विकास दर को बढ़ायेंगे,
पर महंगाई से टूट रहे समाज को
विश्व के नक्शे पर कब तक
अटूट देश के रूप में बतायेंगे।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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अपनी जिंदगी के राज किसको बतायें-हिंदी शायरी


जिनको माना था सरताज
वह असलियत में सियार निकल आये
भरोसा किया था जिन पर
वह मतलब निकालकर होशियार कहलाये
उनके लिये लड़ते हुए थकेहारे
सब कुछ गंवा दिया
इसलिये हम कसूरवार कहलाये
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अपनी जिंदगी के राज किसको बतायें
अपने गमों से बचने के लिये सब मजाक बनायें
टूटे बिखरे मन के लोगों का समूह है चारों तरफ
किसके आसरे अपना जहां टिकायें
बेहतर है खुद ही अपने पीर बन जायें
आकाश में बैठे सर्वशक्तिमान को किसने देखा
और कौन समझ पाया
फिर जब दूसरे बन जाते है पहुंचे हुए
तो हम खुद क्यों पीछे रह जायें

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