Tag Archives: मनोरंजन

पश्चिमी देश आतंकवाद से लड़ने के इच्छुक नहीं


                                   पेरिस पर हमले के बाद पूरे विश्व में उथलपुथल मची है। उस पर कहने से पूर्व हम भारतीय योग सिद्धांत की बात करें। यह सच है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हम अगर किसी वस्तु, विषय या व्यक्ति से अनुकूल प्रतिक्रिया चाहें तो अपनी किया उसके अनुरूप करनी होगी।  दूसरा कर्म और फल के सिद्धांत को भी ध्यान रखना होगा। यूरोप तथा अमेरिका हथियारों के उत्पादक तथा निर्यातक देश हैं।  पेरिस पर निरंतर हो रहे हमलों को हम धर्म तथा लोकतंत्र के सीमित दृष्टिकोण से उठकर व्यापक चिंत्तन के दायरें में आयें तो पता चलेगा हर व्यापारी अपनी वस्तु का प्रचार करते हुए उसके प्रयोग का भी प्रचार करता है। इसलिये संभव है कि पहले अपराधियों को ऐसे हथियार देकर उनके हमलों से प्रचारित अपने हथियारों के  बेचने का बाज़ार बनाते हों।

                                   हम एशियाई देशों की सेनाओं तथा पुलिस विभागों की स्थिति में नज़र डालें तो उनसे पहले नये हथियार अपराधियों के पास आये।  उससे प्रभावित होकर संबंधित देशों ने उत्पादक देशों से हथियार खरीदे। एक-47 बंदूक इसका प्रमाण है।  एशियाई देशों ने खरीदी पर बाद में पता चला कि उसका नया रूप पहले ही अपराधियों के पास आ गया है।  अमेरिका व यूरोप हथियार निजी क्षेत्र के माध्यम से हथियार बेचते हैं जिन्हें क्रेता के प्रमाणीकरण की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे में संदेह होता है कि हथियारों के मध्यस्थ कहीं आतंकवादियों को प्रचार नायक तो नहीं बनाते? अमेरिका ने सीरिया सरकार के विद्रोहियों की सहायता के लिये हथियार हवाई जहाज से नीचे गिराये थे-जिनके संबंध आतंकी संगठनों से प्रत्यक्ष दिख रहे थे।  अमेरिका मध्यपूर्व में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये जिन संगठनों को अपना मित्र समझता है उन्हें शेष विश्व आतंकी कहता है। इस तरह विश्व के राज्यप्रबंधकों तथा आतंकवादियों के बीच एक ऐसा रिश्ता है जिसकी व्याख्या करने बैठें तो एक ग्रंथ लिखना पड़ेगा।

                                   मध्यपूर्व में जबरदस्त अस्थिरता फैली है और हमारा अनुमान है कि उसका प्रकोप काम होने की बजाय बढ़ते रहने वाला ही है। आतंकवादी जिन देशों को ललकार रहे हैं वह सभी कहीं न कहीं हथियार के कारखानों की कमाई से अपनी संपन्नता बढ़ाने  वाले रहे हैं।  अब उनके सामने स्वयं के बने हथियार दुश्मन की तरह सामने आने वाले हैं।  मध्यपूर्व से लाखों शरणार्थी इन देशों में गये हैं जिनके साथ आतंकवादी भी हैं।  पेरिस में हुए हमलों से यह जाहिर हो गया है कि इन संपन्न देशों का राज्यप्रबंध के अभेद होने का भ्रम समाप्त हो गया है। जिस तरह इन देशों के राजकीय प्रबंधकों की प्रतिक्रियायें सामने आयी हैं उससे तो नहीं लगता कि वह जल्दी आतंकवादी पर विजय प्राप्त करेंगे।  वैसे जिन लोगों ने पचास वर्षों से लगतार समाचार देखे और पढ़े हों उन्हें पता है कि कोई राजनीतिक, धार्मिक या वैचारिक संघर्ष प्रारंभ होता है तो वह अगले दस वर्ष तक चलता है।  जब थमता भी तो उसके कारण प्राकृतिक होते हैं-राजकीय प्रबंधक बयानबाजी तक ही सीमित रहती है।

                                   अब योग और भारत की बात करें।  कुछ लोगों को चिंता है कि भारत में भी मध्यपूर्व के आतंकवादी संगठन आ सकते हैं। हमारे पास खुफिया संगठन नहीं है पर योगदृष्टि से हमें यह आशंका नहीं लगती।  एक बात तो यह कि भारत ने कोई हथियार योग नहीं किया-उसने बंदूकें तोप या टैंक नहीं बेचे जो उनका मुंह हमारी तरफ होगा।  इसलिये जिन्होंने युद्ध योग किया है उन्हें प्रतियुद्ध भी झेलना ही होगा। अगर इन देशों को प्रतियुद्ध से बचना है तो युद्ध योग से बचते हुए हथियार के कारखाने बंद करने होंगे। जिसकी संभावना नहीं दिखती। उल्टे जिस तरह यह देश मध्यपूर्व देशों में अधिक हमले कर रहे हैं उससे शरणार्थी संकट बढ़ेगा और आतंकी इन्हीं देशों में जायेंगे।  आखिरी सलाह भारतीय प्रचार माध्यमों को भी है कि वह मध्यपूर्व के आतंकी संगठनों का नाम अधिक न लें कहीं ऐसा न हो कि पाकिस्तान कहीं उसके नाम से आतंकी भेजने लगे।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior

http://zeedipak.blogspot.com

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विश्वहिन्दीसम्मेलन और हिन्दी दिवस पर नया पाठ


               भोपाल में 22वां विश्व हिन्दी सम्मेलन हो रहा है।  पूर्व में हुए 21 सम्मेलनों का हिन्दी में क्या प्रभाव हुआ पता नहीं पर इतना तय है कि भारतीय जनमानस की यह अध्यात्मिक भाषा है।  इसलिये उसे रिझाये रखने के लिये बाज़ार ने भाषा को जिंदा रखा है।  इस तरह के सम्मेलन चंद ऐसे विद्वानों का संगम बन कर रह जाते हैं जो  भारतीय जनमानस को यह समझाने के लिये एकत्रित होते हैं कि वह उनके अपने हैं भले ही अंग्रेजी में लिखते हैं।  दूसरी बात यह कि इसमें कागज पर छपी किताबों के प्रति परंपरागत झुकाव रखने वाले पेशेवर हिन्दी विद्वान यह बताने इन सम्मेलनों में आते हैं कि उनके लेखन की वजह से भाषा जिंदा है। पिछले दस वर्ष से अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन हो रहा है पर उसके नुमाइंदों को इस सम्मेलन में न बुलाने से यही साबित हो गया है कि इसके लेखक अप्रतिष्ठत यह लघु स्तर के हैं। विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर ट्विटर लिखे जिनकी सामग्री यहां प्रस्तुत है।

               अंतर्जालीय लेखकों की उपस्थिति और उनके लेखन की चर्चा न दिखना रूढ़ता का प्रतीक लगता है। हिन्दी का भविष्य अब अंतर्जाल पर टिका है और वहां के लेखकों की अनुपस्थिति के बिना विश्व हिन्दी सम्मेलन महत्वहीन लगता है। अब स्वप्रायोजित किताबों से नहीं वरन् अंतर्जाल पर लिखने वाले लेखक ही हिन्दी के सारथी हो सकते हैं। अंतर्जालीय लेखकों के प्रति विश्व हिन्दी सम्मेलन में दिखाया गया परायेपन का भाव उसी के लक्ष्य में बाधक होगा। विश्व हिन्दी सम्मेलन में इस पर विचार होना चाहिये कि जनमानस में अंतर्जाल पर मातृभाषा में स्वयं लिखने की प्रेरणा लाने का विषय हो। स्वप्रायोजित किताबों की बजाय अंतर्जाल पर अपने परिश्रम वह निष्काम भाव से सक्रिय लेखक विश्वहिन्दी सम्मेलने में होते तो मजा आता।

                                   भारतीय भाषायें सांसरिक विषयों के विदुषकों से नहीं वरन् अध्यात्मिक ज्ञान के प्रचारकों की शक्ति से अंतर्जाल पर बढ़ेगी यह बात विश्वहिन्दीसम्मेलन में कहना चाहिये। विश्वहिन्दीसम्मेलन में पाठकों में रचनाओं से अध्यात्मिक ज्ञान संदेश मिलने की अपेक्षा पर विचार होना चाहिये।

हिन्दी ब्लॉगर बिन विश्व हिन्दी सम्मेलन लगे सून।

कहें दीपकबापू जैसे सूर्य के ताप बिन माह जून।।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

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पाकिस्तान से #सिंधप्रांत प्रथक कराने का प्रयास हों-#हिन्दीलेख


                              गुरदासपुर में हमले से भारत में भारी नाराजगी का वातावरण है अनेक सामरिक विशेषज्ञ मानते हैं कि पाकिस्तान का सिंध प्रांत ऐसा है जहां अगर सही रणनीति अपनायी जाये तो भारत उस पर नियंत्रण कर सकता है। पाकिस्तान के सिंधी भाषी मूलतः वहां के पंजाबी भाषियों से सांस्कृतिक दृष्टि से एकरूप हैं पर दोनों के बीच भारी वैमनस्य है। इसका कारण यह है कि पंजाब चूंकि हिमालय के निकट इसलिये वहां से नदियां बहकर सिंध जाती हैं।  पंजाब में उनके जल का इतना दोहन हो जाता है कि सिंध पहंुचते पहुंचते उनमें जल कम रह जाता है। दूसरी बात यह कि प्रभावशाली पंजाबियों ने पाकिस्तान तो ले लिया पर लाहौर से अधिक कराची में भारत से गये उर्दू भाषियों को बसाकर वहां सिंधियों के लिये एक नया विरोधी समुदाय स्थापित किया।  इतना ही नहीं भारत से गये जितने भी अपराधी हैं वह सब कराची में जाकर रहते हैं। कभी लाहौर या मुल्तान में उनका निवास नहीं सुना जाता।

                              आज भी प्रभावशाली पंजाबी समुदाय सिंध, ब्लूचिस्तान और सीमा प्रांत को अपने अनुचर की तरह मानता है।  हम कहते हैं जरूर है कि भारत में कोई स्वयं को पहले भारतीय नहीं मानता पर सच यह है कि भारत शब्द इतना प्राचीन है कि जनमानस में इस कदर बसा है कि उसे स्वयं को भारतीय कहने की आवश्यकता नहीं है। पाकिस्तान की स्थिति अलग हैं।  वहां के जनमानस में भारत शब्द से घृणा भरी गयी है। समस्या यह है कि पाकिस्तान के प्रति वहां कोई वफादार बन नहीं सकता।  ऐसे में पाकिस्तान मानसिक रूप से भी एक विघटित राष्ट्र है।

                              हमारे भारत के रणनीतिकारों को चाहिये कि वह सिंध में पाकिस्तान के विरुद्ध चल रहे आंदोलनों को जीवंत करें। वहां जियो सिंध आंदोलन चलता रहा है जिसके शीर्ष नेता हमेशा भारत की तरफ सहायता के लिये ताकते रहे हैं।  अगर सिंध पाकिस्तान के लिये समस्या बना तो वह आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से लड़खड़ा जायेगा।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

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सांईं के दरबार में भी आम आम और विशेष दर्शन-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन


      सांई बाबा के मंदिर में आम और विशिष्ट दर्शकों के वर्ग बन गये हैं।  जो दर्शक तीन सौ रुपये देंगे उन्हें आमजनों की तरह पंक्ति में नहीं लगना पड़ेगा और वह विशिष्ट भक्त होकर सांई के निकट जा सकेंगे।  सांई बाबा के स्थाई सेवक इसके पीछे दो तर्क दे रहे हैं-एक तो यह कि इससे प्राप्त आमदनी से मंदिर का रखरखाव होगा दूसरा यह कि इससे भीड़ पर नियंत्रण रखने में सुविधा होगी। दोनों ही तर्क समझ से परे हैं।  आमदनी से मंदिर के रखरखाव का जवाब यह है कि वहां चढ़ाव इतना आता रहा है कि सामान्य मंदिर अब भव्य बन गया है। दूसरी बात यह है कि सांईबाबा के अनेक शहरों में मंदिर हैं और वह चढ़ावे से ही चल रहे हैं।  कई भक्त अगर पैसा नहीं डालते तो कई सांई बाबा के चमत्कार का लाभ मिलने पर बहुत सारा धन दे ही देते हैं।  भीड़ नियंत्रण की बात हास्यास्पद ही है। इससे आमजनों की पंक्ति को बीच बीच में व्यवधान झेलना पड़ेगा।

      हम सांई बाबा के स्थाई सेवकों के फैसले का विरोध नहीं कर रहे। हम तो यह सलाह देंगे कि वह आम भक्तों से भी सौ रुपया लेने लगें।  इससे भीड़ कम हो जायेगी और आय भी बढ़ेगी।  मगर वह कभी नहीं मानेंगे।  वजह यही है कि यही फोकटिया भक्तों की भीड़ ही सांईबाबा की प्रचलित भक्ति की शक्ति है।  अगर आमजन कम हो गये तो विशिष्ट भक्त भी कम हो जायेंगे। हमारे यहां दिखावे की भक्ति कम नहीं है।  विशिष्ट भक्त दिखने की चाह कुछ ऐसे लोगों में ज्यादा होती है जो भक्ति कम अपनी शक्ति ज्यादा दिखाना चाहते हैं।  दौलत, शौहरत और ऊंचे ओहदे वालों को इस बात से चैन नहीं मिलता कि उनके पास शक्ति है। वह उसका भौतिक सत्यापन चाहते हैं और यह केवल भीड़ में अकेले चमकने से ही मिलता है।  वैसे तो हमारे यहां दक्षिण के एक दो मंदिर में भी यह पंरपरा रही है कि पैसा देकर विशिष्टता के साथ भगवान की मूर्ति के दर्शन किये जायें पर सांईबाबा मंदिर में इस तरह की नयी परंपरा थोड़ा चौंकाने वाली है।

      अभी हाल ही में एक महान ज्ञानी ने सांईबाबा को भगवान मानने को चुनौती दी थी।  इस पर लंबी बहस चली। निष्कर्ष न निकलना था न निकला। अलबत्ता इस बहस के बीच में विज्ञापन की धारा खूब चलती दिखाई।  हम जैसे योग तथा अध्यात्म साधकों के लिये ऐसी बहसों में कुछ नहीं होता और न ही पैसा देकर दर्शन करने के निर्णयों से कोई परेशानी होती है।  समस्या हम जैसे लोगों के साथ यह है कि भारतीय अध्यात्म ग्रंथों में कही गयी बातों को तोड़मरोड़ कर पेश करने पर थोड़ी निराशा होती है जो कि कुछ न कुल बोलने या लिखने को प्रेरित करती है।

      अगर हम श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करें तो योग, तप और ध्यान एकांत में किये जाने वाली क्रियायें हैं और परमात्मा से आत्मा का संयोग न केवल वाणी वरन् समस्त इंद्रियों के  मौन से ही संभव है।  निष्काम तथा निराकार भक्ति का श्रेष्ठ रूप एकांत में ही दिख सकता है। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ इस बात को मानते हैं पर साथ ही सकाम तथा भक्ति को भी स्वीकार करते है। सकाम तथा साकार भक्ति की आस्था का प्रवाह बाहर रहता है और धर्म के ठेकेदार इसी में अपने हाथ धोते हैं।

      सकाम तथा साकार भक्ति को इसलिये मान्य किया गया है क्योंकि सभी लोग एकांतवास का आनंद नहीं उठा सकते। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इसे स्वीकार किया है कि हजार में कोई एक मुझे भजता है और उनमें भी हजार में से एक मुझे प्राप्त करता है।  उन्होंने संकेतों में सकाम भक्ति का रूप भी बताया है और यह माना कि अंततः वह भी वास्तव में उनके ही भक्त हैं।  इसका मतलब सीधा यह है कि श्रीमद्भागवत गीता के साधकों को कभी दूसरे की भक्ति पर आक्षेप नहीं करना चाहिये।  जो लोग श्रीमद्भागवत गीता में आस्था रखने का दावा करते हुए दूसरे की भक्ति पर आक्षेप करते हैं तो इसका आशय यह है कि वह कहीं न कहीं अज्ञान के अंधेरे में हैं।

      सकाम भक्ति का भाव बाहर आकर्षित रहता है यही कारण है कि मूर्तियों में भी भगवान का रुप देखा जाता है। दरअसल हमारा मन चंचल है। वह आकर्षण ढूंढता है और भगवान की मूर्तियां दिखने में आकर्षक होती है इसलिये वह मन का मोह लेती है। इस तरह भक्त का भाव मनोरंजन, आस्था तथा श्रद्धा की त्रिवेणी में नहा लेता है।  हमारे यहां रामलीला तथा कृष्ण रास के प्रदर्शन की परंपरा रही है। उनमें यह तीनों तत्व प्रवाहित रहे थे।  यह अलग बात है कि उनके कलाकार सीधे कभी दर्शकों से धन नहीं मांगते बल्कि आयोजक श्रद्धालू उनको दान दक्षिण देकर तृप्त कर देते हैं।

      सांईबाबा की मूतियों के दर्शन की धारा में भी यह तीन तत्व प्रवाहित हैं।  ऐसे में हम मनोरंजन तत्व का विचार आता हैं। जिस तरह सिनेमाघरों में दर्शकों के वर्ग होते हैं उसी तरह अब भगवान के दर्शन में भी बन रहे हैं तो इसके पीछे यही तत्व माना जा सकता है। हमें याद आ रहे हैं वह दिन जब हम फिल्में बॉलकनी का टिकट स्टूडेंट कंसेशन में लेकर देखते थे।  इतना ही नहीं मध्यांतर में भी हम बॉलकनी की ही कैंटीन में चाय पीते थे।  नीचे फर्स्ट या थर्ड क्लास वाली कैंटीन में जाने की सोचना भी उस समय स्तरहीनता लगती थी। कभी वह टिकट नहीं मिला तो नीचे भी फिल्म देखी पर जब ऊपर देखते थे तो मन में अहंकार आ ही जाता था।  उस समय हम उन दोस्तों पर अपना रौब झाड़ते थे जो इस सुविधा का लाभ उठाने योग्य नहीं थे-मतलब यह महाविद्यालयीन शिक्षा से परे थे।

      अब अंतर्जाल पर अध्यात्मिक साधना करते हुए इस अहंकार को पहचान लिया है।  इसलिये कहीं भी विशिष्ट व्यवहार मिले तो भी उसका प्रभाव हम पर नहीं पड़ता।  अलबत्ता गुण और कर्म विभाग के अध्ययन से हमें इस संसार और यहां के जीवों का व्यवहार समझ में आ गया है।  विशिष्ट भक्त, दर्शक या सहायक बनने का अवसर मिलने पर लोग फूल जाते हैं पर अंततः उनको नीचे उतरना ही पड़ता है। यह अलग बात है कि ऊंचाई पर जब वह रहते हैं तब लोग उनको बेचारगी के भाव से देखते हैं।  सांई बाबा के आम भक्तों के सामने भी यह भाव तब दिखाई देगा जब वह विशिष्ट भक्तों को अपने से प्रथक होकर दर्शक करते देखेंगे।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

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Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

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पश्चिम के बाद पूर्व को भी आजमा लें-हिन्दी चिंत्तन लेख


            अभी हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्रमोदी ने जापान का दौरा किया। वहां उन्होंने वहां के प्रधानमंत्री को भारत का पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भागवत गीता उपहार में दिया।  इस यात्रा के राजनीतिक संदर्भ चाहें जो भी हों अध्यात्मिक विचार धारा के पोषक भारतीय समाज के लिये यह एक नवीन विषय बन गया है जब किसी राजनीतिक मंच पर श्रीगीता का नाम इस तरह लिया गया हो।  अभी तक भारत के शिखर पुरुष पश्चिम की तरफ देखते थे पर यह पहला अवसर है जब पूर्व से रिश्ता बनाने में विशेष दिलपस्पी देखी गयी है।

            इस पर पारंपरिक दृष्टिकोण से अलग हटकर विचार करें तब यह निष्कर्ष सामने आता है कि हम अपने भौतिक विकास का स्वरूप पश्चिम की बजाय पूर्व के आधार पर तय करें तो शायद बेहद अच्छा रहे।  जापान दुनियां एक धनी राष्ट्र है।  द्वितीय विश्वयुद्ध में उस पर अमेरिका ने परमाणु  बम फैंका था।  यह मलाल आज भी वहां के लोगों के मन में है।  अमेरिका ने अभी तक एशियाई देशों पर ही बम बरसाये हैं।  दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन राजपुरुषों ने अमेरिका से दोस्ती की अंततः वह उनका ही दुश्मन बना। सद्दाम हुसैन इसका एक सबसे अच्छा उदाहरण है। ऐसे में उस पर यकीन करना हमेशा ही कठिन रहता है।  मूलतः भारत का अमेरिका से कोई बैर नहंी है पर उसकी रणनीतियां हमेशा ही संदिग्ध मानी जाती हैं।  दूसरी बात यह कि वह दुनियां का सबसे अमेरिका विश्व  का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र है पर उसकी अर्थव्यवस्था पराश्रित मानी जाती है।  इसके विपरीत जापान एक आत्मनिर्भर राष्ट्र है।  सबसे बड़ी बात यह कि वह एशियाई क्षेत्र होने के साथ ही सहधर्मी राष्ट्र है।  वहां बौद्धधर्म प्रचलित हैं जिसके प्रवर्तक भगवान बौद्ध हमारी धरती पर ही प्रकट हुए थे। जापान विश्व में दूसरों को कर्ज और दान देने वाला राष्ट्र है पर यह बात अलग है कि छोटा होने के कारण उसे वह सम्मान नहीं मिलता।  अगर भारत जैसा विशाल देश उसके साथ हो जाये तो सामरिक दृष्टि से भी उसका आत्मविश्वास बढ़ सकता है।  हमारे यहां का भी जाता है कि हरा भरा वृक्ष ही इंसान का सहायक होता है सूखा पेड़ किसी काम का नहीं हो सकता।

            तकनीकी रूप से जापान हमारे पड़ौसी चीन से कहीं बेहतर है। अमेरिका हमारे साथ संपर्क इसलिये बढ़ा रहा है क्योंकि यहां उसके लिये रोजगार के अवसर हैं।  जापान को पूंजी लगाने का स्थान चाहिये जिससे हमारे विशाल राष्ट्र में हमारे लिये तो हमें भी रोजगार के अवसर बन सकते हैं। सांस्कृतिक और वैचारिक रूप से भी जापान हमारा निकटस्थ सहयोगी बन सकता है। मूल बात यह कि हम आर्थिक, वैचारिक, साहित्यक तथा संस्कारिक दृष्टि से हम पश्चिम की तरफ देखकर निराश हो चुके हैं।  पश्चिम से आई हवा ने हमारे यहां तनाव पैदा किया है इसलिये अब पूर्व की तरफ रुख करना चाहिये। हम पश्चिम की साम्राज्यवादी और मध्य एशिया की हिंसक गतिविधियों से जुड़कर अपना समय व्यर्थ ही बरबाद करते हैं।  मध्य एशिया में हिंसक संघर्ष कभी थम नहीं सकता।  ऐसा लगता है यह उनका स्वभाव है। वर्षों पुराना इतिहास गवाह है कि पश्चिमी राष्ट्र साम्राज्य बढ़ाने तो मध्य एशिया के राष्ट्र आपस मे उलझकर विश्व में हिंसा का संकट पैदा करते रहे हैं।  दूसरी बात यह कि पश्चिमी से आई हवा यहां गुलाम पैदा करती है जबकि पूर्व से आई हवा में स्वतंत्र मानसिकता की खुशबू आती है।  वैसे भी हमारे देश में सदियों से पूर्व की तरफ देखकर पूजा, आरती या प्रणाम करने की परंपरा रही है।

            एक सज्जन पलंग पर दो वर्ष तक पश्चिम की सिर कर सोते रहे।  लगातार तनाव में गुजारा। एक दिन उनके ही अध्यात्मिक ज्ञानी मित्र ने  उनको घर पर ऐसा करते पाया तो उसे चेताया कि पूर्व या दक्षिण की तरफ सिर रखकर सोया करो। उत्तर की तरफ सिर करने से से उष्णता तो पश्चिम की तरफ सोने से कुंठा पैदा होती है।  उस मित्र को यह बात लग गयी।  बाद में उन्होंने बताया कि उस अध्यात्मिक मित्र की सलाह मानने के बाद वह अलग तरीके से ही सुखदायक जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

            अध्यात्मिक तथा ज्ञान साधक पूर्व की तरफ मुख कर ही योग साधना करते हैं। लोग उगते हुए सूरज को जल देते हैं जो पूर्व से ही उगता है।  पश्चिम के लोग हमारे आर्थिक सहायक कतई नहीं है।  जिस तरह चीन और जापान की चीजें बाज़ार में बिकती हैं उससे यह साफ लगता है कि विकास के तत्व तो पूर्व में ही मौजूद हैं।  बहरहाल यह हमारी एक राय भर है जो अध्यात्मिक लेखक होने के नाते लिखी गयी है जो कि इस अवसर श्रीमद्भागवत गीता का उल्लेख होने पर पैदा हुई।  यह किसी आर्थिक या राजनीतिक विश्लेषक की रचना नहीं है जिसमें पूर्व बेहतर संपर्क होने से अन्य लाभों या हानियां का आंकलन प्रस्तुत किया जा सके।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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फेसबुक पर परंपरागत विचारधाराओं के विद्वानों का पुराना युद्ध जारी -हिंदी चिंत्तन लेख


          भारत में हम जिन विचाराधाराओं के बीच द्वंद्व परंपरागत प्रचार माध्यमों में बरसों से देखते रहे थे वह अब अंतर्जाल पर भी दिखने लगा है। पिछले कुछ दिनों से लव जिहाद, धर्मांतरण कर विवाह, बलात्कार तथा  आतंकवाद को लेकर जिस तरह के पाठ आ रहे हैं उनको देखकर यह लगता है कि अंतर्जाल पर भी विचाराधाराओं के लेखक उसी तरह ही अपनी प्रतिबद्धता दिखा रहे हैं जैसे पंरपरागत साधनों पर दिखाते हैं।  खासतौर से धर्मनिरपेक्षता तथा राष्ट्रवाद के बीच यह द्वंद्व हम जैसे पाठकों को दिलचस्प लगता है।  अभी कुछ दिनों से पहले धर्मांतरण कर जबरन विवाह और बलात्कार के प्रसंग चल रहे थे। उन पर एक वर्ग अपनी प्रतिक्रियाओं के साथ सक्रिय था।  आज फेसबुक  पर एक पाठ के साथ जुड़े लिंक में  धर्मांतरण कर विवाह का समाचार देकर  अपनी सक्रियता दूसरे समुदाय के लिये दिखाई गयी।  यह समाचार पढ़कर सबसे पहले तो हमारे दिमाग में यह आया कि फेसबुक पर यह किसने डाला है।  पता लगा कि यह एक लिंक था जो उसी समुदाय पर कथित अनाचार को बताने वाले समाचार वाले पाठ से जुड़ा था। जिस लेखक का यह पाठ है वह पुराने ब्लॉग लेखक होने के साथ हमारे मित्र भी रहे हैं।  आजकल उनके तथा हमारे बीच संवाद नहीं होता पर जब था तब हम यह नहीं जानते थे कि वह भी किसी विचारधारा में प्रवाहित जीव हैं।

        अंतर्जाल पर लिखते हुए हमें सात वर्ष हो गये।  भारत में प्रारंभिक दौर में ब्लॉग ही लोकप्रिय था। आज भी है पर फेसबुक ने उसका प्रभाव कम कर दिया हैं पुराने ब्लॉग लेखक आज भी लिख रहे हैं पर उनके दर्शन अब हम फेसबुक पर ही कर लेते हैं। पहले नारद और फिर ब्लॉगवाणी पर इन ब्लॉगलेखकों से आत्मीयता का भाव रहा पर अब वह समाप्त हो गया है।  इसमें कोई संदेह नहीं है सभी ब्लॉग लेखक अच्छे लेखक भी हैं पर अब उनका विचाराधाराओं से जुड़ा होना हमें हैरान करता है। दूसरी बात यह भी है कि अब अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन ज्यादा हो रहा है तो इस भीड़ में लोगों को अपने साथ बनाये रखना संभव नहीं है।  यह भी सच है कि  उन्मुक्त विचारधारा को हमारे यहां अभी कोई सम्मान नहीं मिल पाया। इस पर हम हम जैसे फोकटिया लेखक को कोई क्यों साथ रखना चाहेगा।

     बहरहाल फेसबुक में अभी तक हम एक समुदाय के बारे में पढ़ रहे थे आज दूसरे समुदाय पर पढ़ा तो आश्चर्य हुआ।  लेखक का प्रमाणीकरण करने की तब इच्छा जाग्रत हुई। हमारा अनुमान है कि कम से कम दो वर्ष बाद उनके किसी पाठ को पढ़ने का अवसर आया।  विचारधारा से प्रतिबद्ध लेखकों के लिये प्रायोजक मिलना सहज होता है इसलिये इन लेखकों ने अपना लेखक सतत बनाये रखा है। हम जैसे फोकटिया लेखक के लिये लंबे समय तक स्वप्रेरणा से लिखते रहना केवल माता सरस्वती की कृपा से ही हो सकता है। प्रारंभिक दौर में हमें लगता था कि हमारा उल्लेख कहीं न कहीं होगा पर अब जल्दी यह लगा कि प्रायोजन के इस युग में हमारी स्थिति एक अंतर्जालीय प्रयोक्ता से अधिक नहीं रहने वाली है।  इसलिये टिप्पणियों की परवाह छोड़ ही दी है। अलबत्ता दूसरे लेखकों की रचनाओं का अध्ययन करते रहते हैं। पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान इन विचाराधाराओं के लेखकों ने सतत द्वंद्वरत रहकर जिस तरह दिलचस्पी पैदा की वह हमारे लिये एक नया अनुभव था।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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चेहरों का चरित्र-हिंदी व्यंग्य कविता


चेहरे वही है

चरित्र भी वही है

बस, कभी बुत अपनी  चाल बदल जाते है,

कभी शिकार के लिये जाल भी बदल आते हैं।

इस जहान में हर कोई करता सियासत

कोई  लोग बचाते है घर अपना

कोई अपना घर तख्त तक ले आते हैं।

कहें दीपक बापू

सियासी अफसानों पर अल्फाज् लिखना

बेकार की बेगार करना लगता है

एक दिन में कभी मंजर बदल जाते

कभी लोगों के बयान बदल जाते हैं।

अब यह कहावत हो गयी पुरानी

सियासत में कोई बाप बेटे

और ससुर दामाद का रिश्ता भी

मतलब नहीं रखता

सच यह है कि

सियासत में किसी को

आम अवाम में भरोसमंद साथी नहीं मिलता

रिश्तों में ही सब यकीन कर पाते हैं।

घर से चौराहे तक हो रही सियासत

अपना दम नहीं है उसे समझ पाना

इसलिये आंखें फेरने की

सियासत की राह चले जाते हैं।

—————–

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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दिल लग जाये जरूरी नहीं-हिंदी व्यंग्य कविता


खूबसूरत चेहरे निहार कर

आंखें चमकने लगें

पर दिल लग जाये यह जरूरी नहीं है,

संगीत की उठती लहरों के अहसास से

कान लहराने लगें

मगर दिल लग जाये जरूरी नहीं है।

जज़्बातों के सौदागर

दिल खुश करने के दावे करते रहें

उसकी धड़कन समझंे यह जरूरी नहीं है।

कहें दीपक बापू

कर देते हैं सौदागर

रुपहले पर्दे पर इतनी रौशनी

आंखें चुंधिया जाती है,

दिमाग की बत्ती गुल नज़र आती है,

संगीत के लिये जोर से बैंड इस तरह बजवाते

शोर से कान फटने लगें,

इंसानी दिमाग में

खुद की सोच के छाते हुए  बादल छंटने लगें,

अपने घर भरने के लिये तैयार बेदिल इंसानों के लिये

दूसरे को दिल की चिंता करना कोई मजबूरी नहीं है।

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

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प्यास बढ़ाओ-हिंदी व्यंग्य कविता


बंदर दे रहा था धर्म पर प्रवचन

उछलकूद करते हुए तमाशा भी

दिखा रहा था

यह सनसनीखेज खबर है

उसके मुखौटे के पीछे

इंसान का चेहरा है

आंखें देखती हैं पर पहचानती नहीं

कान सुनते है मगर समझ नहीं इतनी

बंदर के बोलों में इंसान का ही स्वर है।

कहें दीपक बापू

ज़माना बंटा है टुकड़ों में

कोई दौलत के नशे में मदहोश है,

कोई गरीबी के दर्द से बेहोश है,

जज़्बात सभी के घायल है,

ख्वाबी अफसानों के फिर भी कायल है

दिल के सौदागरों के अपनी चालाकी से

रोते को हंसाने के लिये

खुश इंसान के दिमाग में प्यास बढ़ाने के लिये

मचाया इस जहान  में विज्ञापनों का  कहर है।

देखते देखते

गांवों की खूबसूरती हो गयी लापता

नहीं रही वहां भी पुरानी अदा

घर घर पहुंच गया बेदर्द शहर है।

—————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

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हिंदी दिवस पर हास्य व्यंग्य कविता-हिंदी से रोटी खाते मगर अंग्रेजी में गरियाते हैं


14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर

हर बरस लगते हैं

राष्ट्रभाषा के नाम पर मेले,

वैसे हिंग्लिश में करते हैं टॉक

पूरे साल  गुरु और चेले,

एक दिन होता है हिन्दी के नाम

कहीं गुरु बैठे ऊंघते है,

कहीं चेले नाश्ते के लिये

इधर उधर सूंघते हैं,

खाते और कमाते सभी हिन्दी से

अंग्रेजी में गरियाते हैं,

पर्सनल्टी विकास के लिये

हिंग्लिश का मार्ग भी बताते हैं।

कहें दीपक बापू

हिन्दी के शिरोमणियों की

जुबां ही अटक गयी है,

सोचे हिन्दी में

बोली अंग्रेजी की राह में भटक गयी है,

दुनियां में अपना ही देश है ऐसा

जहां राष्ट्रप्रेम का नारा

जोरदार आवाज में सुनाया जाता है,

पर्दे के पीछे विदेशों में भ्रमण का दाम

यूं ही भुनाया जाता है,

हिन्दी शिरोमणि कर रहे हैं

दिखावे की  भारत भक्ति,

मन ही मन आत्मविभोर है

अमेरिका और ब्रिटेन की देखकर शक्ति,

यहीं है ऐसे इंसान

जो हिन्दी भाषा को रूढ़िवादी कहकर  शरमाते हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
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वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

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