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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मन तो जल के समान चंचल है (man jal ke saman chanchal hai-hindu dharma sandesh)


जलान्तश्वन्द्रवशं जीवनं खलु देहिनाम्
तथा विद्यमति ज्ञात्वा शशवत्कल्याणमाचारेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पानी के के भीतर लहलहाते हुए चंद्रमा के बिम्ब के समान चंचल स्वभाव ही समस्त जीवों का जीवन है। यह विचार ज्ञान लोग निरंतर सत्कर्म में लिप्त रहते हैं।
सतः शीलोपसम्पन्नानकस्मादेव दुज्र्जनः।
अन्तः प्रविश्य दहति शुष्कवृक्षानिवालः।।
हिन्दी में भावार्थ-
पर्वत के समान दृढ़ चरित्र वाले सत्पुरुषों के अंतःकरण में दुर्जन भाव प्रविष्ट होकर अग्नि के समान उनको जला कर नष्ट कर डालता है। यह भाव सज्जन व्यक्ति के लिये आत्मघाती होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समस्त जीवों की देह पंचतत्वों के संयोग से निर्मित होती है और मन उसकी एक ऐसी प्रकृत्ति है जो उसका संचालन करती है। पानी से भी पतले इस मन की चाल विरले ही ज्ञानी देख पाते हैं। अपने जीवन में कार्यरत रहते हुए हमारे मन में अनेक विचार आते हैं-वह अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। दरअसल हर जीव को उसका मन चलाता है पर वह यह भ्रम पालता है कि स्वयं चल रहा है। इस मन में काम, क्रोध, लोभ, लालच और घृणा के भाव स्वाभाविक रूप से विचरते रहते हैं। अगर वहां सत्विचारों की स्थापना करनी है तो उसके लिये यह आवश्यक है कि योगासन, ध्यान, मंत्रजाप और नाम स्मरण किया जाये। कहना आसान है पर करना कठिन है। मुख्य बात है कि संकल्प मनुष्य किस प्रकार का करता है। जो मनुष्य दृढ चरित्र के होते हैं वह मन में आये विचार का अवलोकन करते हैं और जिनको ज्ञान नहीं है वह उसी राह चलते हैं जहां मन प्रेरित करता है।
यह मन इतना चंचल होता है कि अनेक बार सज्जन आदमी को भी दुर्जन बना देता है। यह उन्हीं सज्जन लोगों के साथ होता है जो स्वाभाविक रूप से भले होते हैं पर उनके पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं रहता। जब उनके अंदर दुर्जन भाव का प्रवेश होता है तब वह अपराध कर बैठते हैं।
अतः योगाभ्यास तथा सत्संग में निरंतर लगे रहना चाहिये ताकि अपने अंदर ज्ञान का प्रादुर्भाव हो और सज्जन प्रकृत्ति होने के बावजूद कभी किसी भी स्थिति में मन में उत्पन्न कुविचार मार्ग से विचलित न कर सकें। यदि अपने मन पर नियंत्रण किया जाये तो सारे संसार पर नियंत्रण किया जा सकता है और अगर उससे हार गये तो किसी से भी जीतना संभव नहीं है।
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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हिन्दू धर्म संदेश-पेट में पचे वही खाना खायें (pet men pache vahi khana khayen-hindu dharm sandesh)


भक्ष्योत्तमप्रतिच्छन्नं मत्स्यो वङिशमायसम्।
लोभाभिपाती ग्रसते नानुबन्धमवेक्षते।।
यच्छक्यं ग्रसितुं ग्रस्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्।
हितं च परिणामे यत् तदाद्यं भतिमिच्छता।।
हिंदी में भावार्थ
-मछली कांटे से लगे चारे को लोभ में पकड़ कर अपने अंदर ले जाती है उस समय वह उसके परिणाम पर विचार नहीं करती। उससे प्रेरणा ग्रहण कर उन्नति चाहने वाले पुरुष को ऐसा ही भोजन ग्रहण करना चाहिये जो खाने योग्य होने के साथ पेट में पचने वाला भी हो। जो भोजन पच सकता है वह ग्रहण करना ही उत्तम है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-हमारे देश में फास्ट फूड संस्कृति का प्रचार निरंतर बढ़ता जा रहा हैं। क्या जवान, क्या अधेड़ और बूढ़े और क्या स्त्री और पुरुष, बाजारों में बिकने वाले फास्ट फूड पदार्थों को खाने में आनंद अनुभव करते हैं। यह पश्चिम से आया फैशन है पर वहीं के स्वास्थ्य विशेषज्ञ उसे पेट के लिये खराब और अस्वास्थ्यकर मानते हैं। इसके अलावा मांस खाना भी पश्चिम के ही विशेषज्ञ गलत मानते हैं।
इन्हीं पश्चिमी स्वास्थ्य विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि मांस खाने से मनुष्य में अनावश्यक आक्रामकता आती है और वह जल्दी ही हिंसा पर उतारु हो जाता है। यह जरूरी नहीं है कि भोजन में विष मिला हो तभी वह बुरा प्रभाव डालता है। विष मिले भोजन को पता तो तत्काल चल जाता है क्योंकि उसकी देह पर तत्काल प्रतिक्रिया होती है पर असात्विक और बीमारी वाले भोजन का पता थोड़े समय बाद चलता है। खाने के बाद भोजन पचने से आशय केवल उसका भौतिक रूप नहीं है बल्कि भावनात्मक रूप से पचने से है। अगर मांस वाला भोजन किया तो लगता है कि वह पच गया पर उसके लिये जिस जीव की हत्या हुई उसकी भावनायें भी उसी मांस में मौजूद होती है और सभी जानते है कि भावनाओं का कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता जो किसी को दिखाई दे। अतः मांस खाने वाले के पेट में वह कलुषित भावनायें भी चली जाती हैं जो उस समय उस जीव के अंदर मौजूद थी जब उसे काटा गया। यही हाल ऐसे भोजन का भी है जिसके बहुत से पदार्थ अपच्य है पर वह पेट में धीरे धीरे जमा होकर बड़ी बीमारी का स्वरूप लेते हैं। ऐसा अशुद्ध पेय पदार्थों के सेवन पर भी होता है।
श्रीमदभागवत गीता में ‘गुण ही गुणों के बरतते है’ का जो सिद्धांत बताया गया है उसका यह भी तात्पर्य है कि जैसे अन्न और जल का भोजन हम करते हैं वैसा ही उसका प्रभाव हम पर होता है और हम उससे बच नहीं सकते। अतः प्रयास यही करना चाहिये कि सात्विक भोजन करें ताकि हमारे विचार भी पवित्र रहें जो कि आनंदपूर्ण जीवन के अति आवश्यक हैं। अगर हम स्वच्छ और पवित्र भोजन करेंगे तो हमारे विचार वैसे ही होंगे फलस्वरूप हमारे कर्म भी अच्छे होंगे और जीवन में आनंद प्राप्त होगा।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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व्यंग्य भी होता है एक तरह से विज्ञापन (हास्य व्यंग्य)


उस दिन उस लेखक मित्र से मेरी मुलाकात हो गयी जो कभी कभी मित्र मंडली में मिल जाता है और अनावश्यक रूप विवाद कर मुझसे लड़ता रहता है। हमारी मित्र मंडली की नियमित बैठक में हम दोनों कभी कभार ही जाते हैं और जब वह मिलता है तो न चाहते हुए भी मुझे उससे विवाद करना ही पड़ता है।
उस दिन राह चलते ही उसने रोक लिया और बिना किसी औपचारिक अभिवादन किए ही मुझसे बोला-‘‘मैंने तुम पर एक व्यंग्य लिखा और वह एक पत्रिका में प्रकाशित भी हो गया। उसमंें छपने पर मुझे एक हजार रुपये भी मिले हैं।’

मैंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपना हाथ बढ़ाते हुए उससे कहा-‘बधाई हो। मुझ पर व्यंग्य लिखकर तुमने एक हजार रुपये कमा लिये और अब चलो मैं भी तुम्हें होटले में चाय पिलाने के साथ कुछ नाश्ता भी कराता हूं।’
पहले तो वह हक्का बक्का होकर मेरी तरफ देखने लगा फिर अपनी रंगी हुई दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोला-‘‘बडे+ बेशर्म हो। तुम्हें अपनी इज्जत की परवाह ही नहीं है। मैंने तुम्हारी मजाक बनाई और जिसे भी सुनाता हूं वह तुम हंसता है। मुझे तुम पर तरस आता है, लोग हंस रहे हैं और तुम मुझे बधाई दे रहे हो।’’

मैंने बहुत प्रसन्न मुद्रा में उससे कहा-‘तुमने इस बारे में अन्य मित्रों में भी इसकी चर्चा की है। फिर तो तुम मेरे साथ किसी बार में चलो। आजकल बरसात का मौसम है। कहीं बैठकर जाम पियेंगे। तुम्हारा यह अधिकार बनता है कि मेरे पर व्यंग्य लिखने में इतनी मेहनत की और फिर प्रचार कर रहे हो। इससे तो मुझे ही लाभ हो सकता है। संभव है किसी विज्ञापन कंपनी तक मेरा नाम पहुंच जाये और मुझे किसी कंपनी के उत्पाद का विज्ञापन करने का अवसर मिले। आजकल उन्हीं लोगों को लोकप्रियता मिल रही है जिन पर व्यंग्य लिखा जा रहा है।
मेरा वह मित्र और बिफर उठा-‘‘यार, दुनियां में बहुत बेशर्म देखे पर तुम जैसा नहीं। यह तो पूछो मैंने उसमें लिखा क्या है? मैंने गुस्से में लिखा पर अब मेरा मन फटा जा रहा है इस बात पर कि तुम उसकी परवाह ही नहीं कर रहे। मैंने सोचा था कि जब मित्र मंडली में यह व्यंग्य पढ़कर सुनाऊंगा तो वह तुमसे चर्चा करेंगे पर तुम तो ऐसे जैसे उछल रहे हो जैसे कि कोई बहुत बड़ा सम्मान मिल गया है।’’
मैंने कहा-‘’तुम्हारा व्यंग्य ही मुझे बहुत सारे सम्मान दिलायेगा। तुम कुछ अखबार पढ़ा करो तो समझ में आये। जिन पर व्यंग्य लिखे जा रहे हैं वही अब सब तरह चमक रहे हैं। उनकी कोई अदा हो या बयान लोग उस पर व्यंग्य लिखकर उनको प्रचार ही देते हैं। वह प्रसिद्धि के उस शिखर पर इन्हीं व्यंग्यों की बदौलत पहुंचे हैं। उनको तमाम तरह के पैसे और प्रतिष्ठा की उपलब्धि इसलिये मिली है कि उन पर व्यंग्य लिखे जाते रहे हैं। फिल्मों के वही हीरो प्रसिद्ध हैं जिन पर व्यंग्य लिखे जा रहे हैं। जिस पर व्यंग्य लिखा जाता है उसके लिये तो वह मुफ्त का विज्ञापन है। मैं तुम्हें हमेशा अपना विरोधी समझता था पर तुम तो मेरे सच्चे मित्र निकले। यार, मुझे माफ करना। मैंने तुम्हें कितना गलत समझा।’’

वह अपने बाल पर हाथ फेरते हुए आसमान में देखने लगा। मैंने उसके हाथ में डंडे की तरह गोल हुए पत्रिका की तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा-‘देखूं तो सही कौनसी पत्रिका है। इसे मैं खरीद कर लाऊंगा। इसमें मेरे जीवन की धारा बदलने वाली सामग्री है। तुम चाहो तो पैसे ले लो। तुम बिना पैसे के कोई काम नहीं करते यह मैं जानता हूं, फिर भी तुम्हें मानता हूं। मैं इसका स्वयं प्रचार करूंगा और लोग यह सुनकर मुझसे और अधिक प्रभावित होंगे कि मुझ पर व्यंग्य लिखा गया है।’’

उसने अपनी पत्रिका वाला हाथ पीछे खींच लिया और बोला-‘मुझे पागल समझ रखा है जो यह पत्रिका तुम्हें दिखाऊंगा। मैंने तुम पर कोई व्यंग्य नहीं लिखा। तुमने अपनी शक्ल आईने में देखी है जो तुम पर व्यंग्य लिखूंगा। मैं तो तुम्हें चिढ़ा रहा था। इस पत्रिका में मेरा एक व्यंग्य है और उसका पात्र तुमसे मिलता जुलता है। तुम सबको ऐसे ही कहते फिरोगे कि देखो मुझ पर व्यंग्य लिखा गया है। चलते बनो। मैंने जो यह व्यंग्य लिखा है उसका पात्र तुमसे मिलता जुलता जरूर है पर उसका नाम तुम जैसा नहीं है।’

मैंने बनावटी गुस्से का प्रदर्शन करते हुए कहा-‘‘तुमने उसमें मेरा नाम नहीं दिया। मैं जानता हूं तुम मेरे कभी वफादार नहीं हो सकते।’’

वह बोला-‘मुझे क्या अपनी तरह अव्यवसायिक समझ रखा है जो तुम पर व्यंग्य लिखकर तुम्हें लोकप्रियता दिलवाऊंगा। तुम में ऐसा कौनसा गुण है जो तुम पर व्यंग्य लिखा जाये।’

मैंने कहा-‘‘तुम्हारे मुताबिक मैं एक गद्य लेखक नहीं बल्कि गधा लेखक हूं और मेरी पद्य रचनाऐं रद्द रचनाऐं होती हैं।’’
वह सिर हिलाते हुए इंकार करते हुए बोला-‘नहीं। मैंने ऐसा कभी नहीं कहा। तुम तो अच्छे गद्य और पद्यकार हो तभी तो कोई उनको पढ़ता नहीं है। मैं तुम्हें ऐसा प्रचार नहीं दे सकता कि लोग उसे पढ़तें हुए मुझे ही गालियां देने लगें।
मैंने कहा-‘तुम मेरे लिऐ कहते हो कि मैं ऐसी रचनाऐं लिखता हूं जिससे मेरी कमअक्ली का परिचय मिलता है।’
उसने फिर इंकार में सिर हिलाया और कहा-‘मैंने ऐसा कभी नहीं कहा। तुम तो बहुत अक्ल के साथ अपनी रचनाएं लिखते हो इसी कारण किसी पत्र-पत्रिका के संपादक के समझ में नही आती और प्रकाशन जगत से तुम्हारा नाम अब लापता हो गया है। फिर मैं अपने व्यंग्य में तुम्हारा नाम कैसे दे सकता हूं।

मेरा धीरज जवाब दे गया और मैंने मुट्ठिया और दंात भींचते हुए कहा-‘फिर तुमने मुझे यह झूठा सपना क्यों दिखाया कि मुझ पर व्यंग्य लिखा है।’
वह बोला-‘ऐसे ही। मैं भी कम चालाक नहीं हूं। तुम जिस तरह काल्पनिक नाम से व्यंग्य लेकर दूसरों को प्रचार से वंचित करते हो वैसे मैंने भी किया। तुमने पता नहीं मुझ पर कितने व्यंग्य लिखे पर कभी मेरा नाम लिखा जो मैं लिखता। अरे, तुम तो मेरे पर एक हास्य कविता तक नहीं लिख पाये।’

मैंने आखिर उससे पूछा-‘पर तुमने अभी कुछ देर पहले ही कहा था कि‘तुम पर व्यंग्य लिखा है।’

वह अपनी पत्रिका को कसकर पकड़ते हुए मेरे से दूर हो गया और बोला-‘तब मुझे पता नहीं था कि व्यंग्य भी विज्ञापनों करने के लिये लिखे जाते हैं।’
फिर वह रुका नहीं। उसके जाने के बाद मैंने आसमान में देखा। उस बिचारे को क्या दोष दूं। मैं भी तो यही करता हूं। किसी का नाम नहीं देखा। इशारा कर देता हूं। हालत यह हो जाती है कि एक नहीं चार-चार लोग कहने लगते हैं कि हम पर लिखा है। किसी ने संपर्क किया ही नहीं जो मैं उन पर व्यंग्य लिखकर प्रचार करता। अगर किसी का नाम लिखकर व्यंग्य दूं तो वह उसका दो तरह से उपयोग कर सकता है। एक तो वह अपनी सफाई में तमाम तरह की बातें कहेगा और फिर अपने चेलों को मुझ पर शब्दिक आक्रमण करने के लिये उकसायेगा। कुल मिलाकर वह उसका प्रचार करेगा। इसी आशंका के कारण मैं किसी ऐसे व्यक्ति का नाम नहीं देता जो इसका लाभ उठा सके। वह मुझे इसी चालाकी की सजा दे गया।
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दीपक भारतदीप

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