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बदलाव-हास्य व्यंग्य


वहां महफिल जमी हुई थी। अनेक विद्वान समाज की समस्याओं पर विचार करने के लिये एकत्रित हो गये थे। एक विद्वान ने कहा-हम चलते तो रिवाजों की राह है पर बदलाव की बात करते हैं। यह दोहरा चरित्र छोड़ना पड़ेगा।’
दूसरे ने पूछा-‘क्या हमें शादी की प्रथा छोड़ देना चाहिए। यह भी एक रिवाज है जिसे छोड़ना होगा।
तीसरे विद्वान ने कहा-‘नहीं यह जरूरी रिवाज है। इसे नहीं छोड़ा जा सकता है।’
दूसरे ने कहा-‘तो हमें किसी के मरने पर तेरहवीं का प्रथा तो छोड़नी होगी। इस पर अमीर आदमी तो खर्च कर लेता है पर गरीब आदमी नहीं कर पाता। फलस्वरूप गरीब आदमी के मन में विद्रोह पनपता है।’

पहले ने कहा-‘नहीं! इसे नहीं छोड़ा जा सकता है क्योंकि यह हमारे समाज की पहचान है।’
दूसरे ने कहा-‘पर फिर हम समाज में बदलाव किस तरह लाना चाहते हैं। आखिर हम रीतिरिवाजों की राह पर चलते हुए बदलाव की बात क्यों करते हैं। केवल बहसों में समय खराब करने से क्या फायदा?’
वहां दूसरे विद्वान भी मौजूद थे पर बहस केवल इन तीनों में हो रही था और सभी यही सोच रहे थे कि यह चुप हों तो वह कुछ बोलें। उनके मौन का कारण उन तीनों की विद्वता नहीं बल्कि उनके पद, धन और बाहूबल थे। यह बैठक भी पहले विद्वान के घर में हो रही थी।
पहले ने कहा-‘हमें अब अपने समाज के गरीब लोगों का सम्मान करना शुरु करना चाहिये। समाज के उद्योगपति अपने यहां कार्यरत कर्मचारियों और श्रमिकों, सेठ हैं तो नौकरों और मकान मालिक हैं तो अपने किरायेदारों का शोषण की प्रवृत्ति छोड़कर सम्मान करना चाहिये। घर में नौकर हों तो उनको छोटी मोटी गल्तियों पर डांटना नहीं चाहिये।’

पहले विद्वान के घर पर बैठक हो रही थी वहां पर उनका एक घरेलू नौकर सभी को पानी और चाय पिला रहा था। वह ट्रे में रखकर अपने मालिक के पास पानी ले जा रहा था तो उसका पांव वहां कुर्सी से टकरा गया और उसके ग्लास से पानी उछलता हुआ एक अन्य विद्वान के कपड़ों पर गिर गया। उसकी इस गलती पर वह पहला विद्वान चिल्ला पड़ा-अंधा है! देखकर नहीं चलता। कितनी बार समझाया है कि ढंग से काम किया कर। मगर कभी कोई ढंग का काम नहीं करता।
नौकर झैंप गया। वहां एक ऐसा विद्वान भी बैठा था जो स्वभाव से अक्खड़ किस्म का था। उसने उस विद्वान से कहा-‘आखिर कौनसे रिवाजों की राह से पहले उतरे कौन?’
पहला विद्वान बोला-‘इसका मतलब यह तो बिल्कुल नहीं है कि अपने से किसी छोटे आदमी को डांटे नहीं।’
चौथे विद्वान ने कहा-‘सभी के सामने इसकी जरूरत नहीं थी। वैसे मेरा सवाल तो यह है कि आपने यह बैठक बुलाई थी समाज में बदलाव लाने के विषय पर। बिना रिवाजों की राह से उतर वह संभव नहीं है।’
पहले विद्वान ने कहा-‘हां यह तो तय है कि पुराने रिवाजों के रास्ते से हटे बिना यह संभव नहीं है पर ऐसे रिवाजों को नहीं छोड़ा जा सकता है जिनसे हमारी पहचान है।’
चौथे ने कहा-‘पर कौनसे रिवाज है। उनके रास्ते से पहले हटेगा कौन?
पहले ने कहा-‘भई? पूरो समाज के लोगों को उतरना होगा।
दूसरे ने कहा-‘पहले उतरेगा कौन?’
वहां मौन छा गया। कुछ देर बाद बैठक विसर्जित हो गयी। वह नौकर अभी भी वहां रखे कप प्लेट और ग्लास समेट रहा था। बाकी सभी विद्वान चले गये पर पहला और चैथा वहीं बैठे थे। चौथे विद्वान ने उस लड़के हाथ में पचास रुपये रखे और कहा-‘यह रख लो। खर्च करना!’
पहला विद्वान उखड़ गया और बोला-‘मेरे घर में मेरे ही नौकर को ट्रिप देता है। अरे, मैं इतने बड़े पद पर हूं कि वहां तेरे जैसे ढेर सारे क्लर्क काम करते हैं। वह तो तुझे यहां इसलिये बुला लिया कि तू अखबार में लिखता है। मगर तू अपनी औकात भूल गया। निकल यहां से!’
उसने नौकर से कहा-‘इसका पचास का नोट वापस कर। इसकी औकात क्या है?’
उस नौकर ने वह नोट उस चैथे विद्वान की तरफ बढ़ा दिया। चैथे विद्वान ने उससे वह नोट हाथ में ले लिया और जोर जोर से हंस पड़ा। पहला बोला-‘देख, ज्यादा मत बन! तु मुझे जानता नहीं है। तेरा जीना हराम कर दूंगा।’
चैथे ने हंसते हुए कहा-‘कल यह खबर अखबार में पढ़ना चाहोगे। यकीनन नहीं! तुम्हें पता है न कि अखबार में मेरी यह खबर छप सकती है।’
पहला विद्वान ढीला पड़ गया-‘अब तुम जाओ! मुझे तुम्हारे में कोई दिलचस्पी नहीं है।’
चौथे ने कहा-‘मेरी भी तुम में दिलचस्पी नहीं है। मैं तो यह सोचकर आया कि चलो बड़े आदमी होने के साथ तुम विद्वान भी है, पर तुम तो बिल्कुूल खोखले निकले। जब तुम रिवाजों की राह से पहले नहीं उतर सकते तो दूसरों से अपेक्षा भी मत करो।’
चौथा विद्वान चला गया और पहला विद्वान उसे देखता रहा। उसका घरेलू नौकर केवल मौन रहा। वह कुछ कहना चाहता था पर कह नहीं सका। उसका मौन ही उसके साथ रहा।
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कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

हास्य व्यंग्य कविता-जैसे अपनी जिंदगी से आती हो उबासी


लंबा तगड़ा और आकर्षक चेहरे वाला
वह लड़का शहर की फुटपाथ
पर चला जा रहा था
सामने एक सुंदर गौरवर्ण लडकी
चली आ रही थी
यह सड़क बायें थी वह दायें था
पास आते ही दोनों के कंधे टकराये
पहली नजर में दोनों एक दूसरे को भाये
दृश्य फिल्म का हो गया
दोनों को ही इसका इल्म हो गया
लड़की चल पड़ी उसके साथ
अब वह बायें से दायें चलने लगी

चलते चलते बरसात भारी हो गयी
सड़क अब नहर जैसी नजर आने लगी
लड़की ने कहा-
‘यह क्या हुआ
यह कैसी मेरी और तुम्हारी इश्क की डील हुई
जिस सड़क से निकली थी
वह डल झील हो गयी
पर मैं तो चल रही थी बायें ओर
दायें कैसे चलने लगी
तुम अब पलट कर मेरे साथ बायें चलो’
ऐसा कहकर वह पलटने लगी

लड़के ने कहा
‘मेरे घर में अंधेरा है
एक ही बल्ब था फुक गया है
खरीद कर जा रहा हूं
मां बीमार है उसके लिये
दवायें भी ले जानी है
यह तो पहली नजर का प्यार था
जो शिकार हो गया
वरना तो दुनियां भर की
मुसीबतें मेरे ही पीछे लगी
तुम जाओ बायें रास्ते
मैं तो दाएं ही जाऊंगा
अब नहीं करूंगा दिल्लगी’

लड़की ने कहा
‘तो तुम भी मेरी तरह फुक्कड़ हो
तुम्हारे कपड़े देखकर
मुझे गलतफहमी हो गयी थी
जो पहली नजर के प्यार का
सजाया था सपना
दूसरी नजर में तुम्हारी सामने आयी असलियत
वह न रहा अपना
इसलिये यह पहले नजर के प्यार की डील
करती हूं कैंसिल’
ऐसा कहकर वह फिर बायें चलने लगी।

———————-
एक विचारक पहुंचा दूसरे के पास
और बोला
‘यार आजकल कोई
अपने पास नहीं आता है
हमसे पूछे बिना यह समाज
अपनी राह पर चला जाता है
हम अपनी विचारधाराओं को
लेकर करें जंग
लोगों के दिमाग को करें तंग
ताकि वह हमारी तरफ आकर्षित हौं
और विद्वान की तरह सम्मान करें
नहीं तो हमारी विचारधाराओं का
हो जायेगा अस्तित्व ही खत्म
उसे बचने का यही रास्ता नजर आता है’

दूसरा बोला
‘यार, पर हमारी विचारधारा क्या है
यह मैं आज तक नहीं समझ पाया
लोग तो मानते हैं विद्वान पर
मैं अपने को नही मान पाया
अगर ज्यादा सक्रियता दिखाई
तो पोल खुल जायेगी
नाम बना रहे लोगों में
इसलिये कभी-कभी
बयानबाजी कर देता हूँ
इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं आता है’

विचारक बोला
‘कहाँ तुम चक्कर में पड़ गये
विचारधाराओं में द्वंद में भला
सोचना कहाँ आता है
लड़कर अपनी इमेज पब्लिक में
बनानी है
बस यही होता है लक्ष्य
किसी को मैं कहूं मोर
तो तुम बोलना चोर
मैं कहूं किसी से बुद्धिमान
तुम बोलना उसे बैईमान
मैं बजाऊँ किसी के लिए ताली
तुम उसके लिए बोलना गाली
बस इतने में ही लोगों का ध्यान
अपने तरफ आकर्षित हो जाता है’

दूसरा खुश होकर उनके पाँव चूने लगा
और बोला
‘धन्य जो आपने दिया ज्ञान
अब मुझे अपना भविष्य अच्छा नजर आता है’

विचारक ने अपने पाँव
हटा लिए और कहा
‘यह तो विचारों के धंधे का मामला है
सबके सामने पाँव मत छुओ
वरना लोग हमारी वैचारिक जंग पर
यकीन नहीं करेंगे
मुझे तो लोगों को भरमाने में ही
अपना हित नजर आता है।

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कुछ लोग होते हैं पर
कुछ दिखाने के लिये बन जाते लाचार
अपनी वेदना का प्रदर्शन करते हैं सरेआम
लुटते हैं लोगों की संवेदना और र
छद्म आंसू बहाते
कभी कभी दर्द से दिखते मुस्कराते
डाल दे झोली में कोई तोहफा
तो पलट कर फिर नहीं देखते
उनके लिये जज्बात ही होते व्यापार

घर हो या बाहर
अपनी ताकत और पराक्रम पर
इस जहां में जीने से कतराते
सजा लेते हैं आंखों में आंसू
और चेहरे पर झूठी उदासी
जैसे अपनी जिंदगी से आती हो उबासी
खाली झोला लेकर आते हैं बाजार
लौटते लेकर घर दानों भरा अनार

गम तो यहां सभी को होते हैं
पर बाजार में बेचकर खुशी खरीद लें
इस फन में होता नहीं हर कोई माहिर
कामयाबी आती है उनके चेहरे पर
जो दिल में गम न हो फिर भी कर लेते हैं
सबके सामने खुद को गमगीन जाहिर
कदम पर झेलते हैं लोग वेदना
पर बाहर कहने की सोच नहीं पाते
जिनको चाहिए लोगों से संवेदना
वह नाम की ही वेदना पैदा कर जाते
कोई वास्ता नहीं किसी के दर्द से जिनका
वही बाजार में करते वेदना बेचने और
संवेदना खरीदने का व्यापार
……………………

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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