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हमें पता है कि सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण सामान्य प्राकृतिक घटना है-हिन्दी लेख (chadra grahan and sooryagrahan-hindi lekh)


    दुनियां में सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण आते रहते हैं। बरसों से हम देख रहे हैं पर इतनी चर्चा कभी नहीं होती थी। बचपन में बुजुर्गों के पहले ही पता चल जाता था कि अमुक तारीख को सूर्य ग्रहण या चंद्रग्रहण है। उस दिन कुछ सावधानी बरतने की बात कही जाती पर वह आज के टीवी चैनलों की तरह महाबहस का विषय नहीं होती थी। सच कहें तो सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण को सामान्य घटना ही माना जाता था। कहीं आतंक या डर का माहौल नहीं देखा। आजकल   टीवी चैनलों ने दोनों ग्रहणों का बाज़ारीकरण कर दिया है।
         कह रहे हैं कि डरो नहीं, खूब देखो। कुछ परेशानी नहीं है। इन चैनलों पर बहस के लिये आने वाले वही लोग होते हैं जो पहले भी आते रहे हैं। खगोलशास्त्र से जुड़ी इन घटनाओं पर चर्चा करने के लिये ज्योतिषी बुलाये जाते हैं। फिर उनका मुकाबला करने के लिये कुछ आधुनिक विज्ञान समर्थक भी होते हैं। प्रचार इस तरह किया जाता है कि जैसे हिन्दू समाज में ही अंधविश्वास हो और पश्चिमी विज्ञान एकदम प्रमाणिक है। यह सब देखकर हम तो यह सोचते हैं कि भारतीय हिन्दू समाज इतना अविकसित ओर पिछड़ा नहीं है जितना आधुनिक ज्ञानी समझते हैं। देखा जाये तो हमारी श्रीमद्भागवत गीता के प्रचलन में आने के बाद भारतीय समाज शायद दुनियां का इकलौता समाज है जो समय के साथ आगे बढ़ता जाता है। यह अलग बात है कि प्रगतिशील और जनवाद से जुड़े विद्वानों का सभी जगह बाहुल्य है जिनकी यह मनोवृत्ति है कि संपूर्ण भारतीय अध्यात्म दर्शन को अवैज्ञानिक तथा समाज को जड़ साबित कर अपनी चेतना की व्यवसायिक धारा प्रवाहित की जाये। फिर उनके साथ बहस करने वाले भारतीय अध्यात्म के ज्ञानी भी कुछ इस तरह पेश आते हैं जैसे कि अंधविश्वास का समर्थन कर रहे हों। पेशेवर ज्योतिषी अपने प्रचार क्रे लिये आते हैं तो उनका मुकाबला करने पेशेवर बहसकर्ता आते हैं। चर्चा कराने वाले उद्घोषक का तो कहना भी क्या? निरपेक्ष दिखने की कोशिश इस तरह करते हैं जैसे कि लग रहा हो कि किसी विषय पर सहमति या असहमति न देना ही उनकी योग्यता का प्रमाण हो।
       भारत के हिन्दी टीवी चैनलों में कार्यरत उद्घोषकों का यह भाग्य है कि भारतीय अध्यात्म की व्यापकता ही उनको इस तरह के कार्यक्रम प्रदान करती है। जिसमें ढेर सारे ग्रंथ हैं और उसमें जीवन के हर पक्ष के साथ -जिसमें मनुष्य तथा अन्य जीव भी शािमल हैं-प्रकृति के रहस्यों पर भी प्रकाश डाला गया है। जबकि अन्य दर्शनों में अन्य जीवों की उपेक्षा कर केवल मानव जीवन पर ही अधिक लिखा और बोला जाता हैं। कुछ बातें मनुष्य समाज के संचालन से संबंधित होती हैं।
        प्रकृति के रहस्यों पर पश्चिम तो अब दृष्टिपात कर रहा है जबकि भारतीय अध्यात्म दर्शन में बहुत पहले ही इस पर लिखा गया है। हमने पंचांगों में सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण की तारीखें देखी हैं जो कि यकीनन पश्चिमी विज्ञान से नहीं ली गयीं। पहले लोग अखबार पढ़े बिना बताते थे कि अमुक दिन चंद्रग्रहण या सूर्यग्रहण है।
बहरहाल भारत के टीवी चैनल अपने व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति अपने अध्यात्मिक दर्शन के आधार पर कर लेते हैं यह अलग बात है कि अपने चश्में से समाज को अधंविश्वासी समझने वाले उद्घोषक अपने को भले ही चालाक समझें पर हम सब जानते हैं कि उनकी अदायें ऐसी न हों तो शायद उनका काम भी न चले।
       पिछली बार के पूर्ण सूर्यग्रहण की याद आती है जब कहा गया है कि उसे देखना ठीक नहीं है और देखना है तो विशेष प्रकार के चश्में से देखें। सामान्य रंगीन चश्में से काम नहीं चलेगा। हम आज भी सामान्य काले चश्में से दोपहर मेें तपते हुए सूर्य को आसानी से देख पाते हैं। तब यह सवाल आता है कि ग्रहण के समय जब सूर्य का प्रकाश कम हो जाता है तो वह सामान्य से अधिक खतरनाक कैसे हो सकता है। उस समय खूब सूर्यगं्रहण देखने वालेचश्में बिके थे उसमें कुछ तो नकली भी बताये गये थे। तय बात है कि बाज़ार ने ही ऐसा प्रचार करवाया होगा ताकि वह अपने उत्पाद बेच सके। वैसे तो इष्ट दिवस, मित्र दिवस, पितृदिवस, मातृदिवस तथा प्रेम दिवस जैसे पश्चिमी दिवसों को भारतीय प्रचार माध्यम अपने प्रायोजक बाज़ार के लिये विज्ञापन प्रसारित कर उसके लिये ग्राहक जुटाते हैं। वैसे ही भारतीय त्यौहारों के साथ सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण भी उनके लिये विज्ञापन प्रसारण के बीच में कार्यक्रम की सामग्री बन जाते हैं।
      वैसे चर्चाओं में शामिल लोग भारतीय समाज को फालतु समझते हैं पर लोगों को लगते स्वयं फालतू हैं-हम नहंी मानते क्योंकि पता है कि यह सब कमाई करने और प्रचार पाने के लिये बहस करने आते हैं।
हम यह खग्रास चंद्रग्रहण देख पायेंगे कि पता नहीं। यह लेख लिखने के तत्काल बाद ही सोने का प्रयास करेंगे। अगर बीच में नींद टूटी तो छत पर देखने जायेंगे कि कैसा है खग्रास चंद्रग्रहण। जहां हानि लाभ, दुःख सुख, और जीवन मरण का सवाल है तो वह इस संसार का हिस्सा हैं। जब तक देह हैं तो विकार आयेंगें। भूख लगेगी, प्यास लगेगी। कभी जीभ किसी नये स्वाद के लिये चीत्कार करेगी। जिस तरह सत्य अनंत है वैसे ही माया भी अनंत है। सत्य सूक्ष्म है और उसे ध्यान आदि के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है तो माया इतनी व्यापक है कि उसके चक्र में फंसे तो सभी हैं पर समझ नहीं पाते। खेलती माया है और आदमी सोचता है कि मैं खेल रहा हूं।
      जहां तक चर्चाओं का सवाल है तो भारतीय अध्यात्म इतना विशाल है कि जिस विषय पर चाहो बहस कर लो। जहां चार बुजुर्ग मिलते हैं किसी न किसी धर्मग्रंथ पर बहस करने लगते हैं। सभी अपना ज्ञान सुनाते हैं पर सुनता कौन है पता नहीं। सभी बोलते हैं। यही हाल टीवी चैनलों का है पर वहां के उद्घोषक तमाम तरह के तामझाम और आकर्षण मे घिरे होते हैं इसलिये उनको विद्वान माना जाता है। यह अलग बात है कि उनकी महाबहस-यह शब्द आज तक हमारे समझ में नहीं आया-अध्यात्मिक में वास्तविक रुचि रखने वालों के लिये हास्य का विषय होती है।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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होली और 19 मार्च का इंतजार, चंद्रमा जो निकट आना है-हिन्दी लेख (holi parva ka din aur super moon-hindi lekh)


होली का दिन चंदामामा और जापान में सुनामी 
खबरिया लोगों के अनुसार चंद्रमा 19 मार्च को धरती के सबसे अधिक निकट होगा। साथ ही यह भी बता रहे हैं कि जब चंद्रमा धरती के निकट होता है तब भयानक स्थिति होती है। प्रथ्वी पर अनेक तरह के अनेक प्राकृतिक प्रकोप  बरसते हैं। चूंकि यह चंद्रमा प्रथ्वी के निकट आने का दौर शुरु हो चुका है और उसका पहला झटका जापान में लग चुका है इसलिये लोग अब 19 मार्च का इंतजार कर रहे हैं कि देखें अब विध्वंस का कौनसा रूप सामने आयेगा? संभव है कहीं कोई दूसरी बड़ी दुर्घटना हो और उसमें ऐसे ही इंतजार करने वाले भी कुछ लोग निपट जायें पर तब उनका हादसा दूसरे के लिये मनोरंजन बन जायेगा। सीधी बात यह है कि यह मानवीय स्वभाव है कि वह अपने मनोरंजन के लिये कभी प्रेम प्रसंग तो कभी हादसे देखना चाहता है।
प्रसंगवश 19 मार्च को होली का पर्व आ रहा है। इधर चंद्र महाराज भी हमारे निकट चले आ रहे हैं। एक बात तो सत्य है कि समुद्र में ज्वार भाटा रात्रि के समय चंद्रमा की उपस्थिति में आता है। इसलिये समंदर के पानी और चांद की रौशनी की मोहब्बत समझी जा सकती है। जब होली के दिन चंद्रमा दुनियां के निकट होगा तब कहीं न कहीं दुर्धटना तो जरूर होगी क्योंकि उनका क्रम तो अनवरत रहना ही है। सवाल यह है कि चंद्रमा के निकट न होने पर भी तो दुर्घटनाऐं होती हैं । इसलिये चंद्रमा के निकट होने से उनको जोड़ा क्यों जाये? हत्यायें, डकैती, बलात्कार, ठगी तथा बहुत सारे पाप कर्म हर समय इस संसार में होते हैं और आगे भी होंगे। चंद्रमा दूर रहे या पास दुनियां के पापकर्म निरंतर जारी रहेंगे। कुछ लोगों को दंड भी मिलता है और कुछ साफ सुथरे बने रहते हैं। जिसको इन दिनों पापकर्म का दंड मिल जायेगा वह चंद्रमा के निकट होने को दोष देंगे। कुछ लोग पापकर्म नहीं करने पर भी किसी हादसे का शिकार हो सकते हैं तब वह भी चंद्रमा के निकट होने को दोष देंगे।
इधर टीवी चैनल कह रहे हैं कि अगले 48 घंटे जापान के लिये बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके परमाणु संयंत्र संकट में हैं और उनमें कोई बड़ा विस्फोट हो सकता है। हम यह लेख 17 मार्च रात्रि नौ बजे लिख रहे हैं। मतलब यह कि 19 मार्च 2011 को अगर कोई दुर्घटना हुई तो चंद्रमा पर आक्षेप आयेगा। अब सवाल यह है कि इंसानों को किसने कहा था कि परमाणु संयंत्र बनाओ। वह भी भूकंप वाले ऐसे देश में जो पहले ही दो परमाणु बमों का विस्फोट झेल चुका है।
बहरहाल जापान की स्थिति अनिश्चित है। पहले सुनामी आई और अब रेडियम फैलने से उसको किस तरह कितना नुक्सान होगा यह अनुमान किसी ने नहीं लगाया है पर एक बात तय है कि वायु अगर विषाक्त हुई तो वहां किसी का भी रहना मुश्किल है। जब वायु विषाक्त हुई तो जल नहीं भी वैसा हो जायेगा। इसका मतलब यह कि जीवन का आधार खत्म ही हो जायेगा। यह इंसान का भ्रम है कि दौलत से वह ंिजंदा है। वह दौलत जो अब कागज के रूप में ही दिखती है उसे सांसें नहीं दे सकती। खाना, दारु, और दूसरे सामान खरीदते हुए आदमी अपनी प्राकृतिक सांसों की कीमत भूल जाता है। जल को केवल प्यास बुझाने वाला द्रव्य समझता है। उसे लगता है कि वह स्वचालित कंप्यूटर है। ऐसी प्राकृतिक आपदाऐं उसे अपनी और माया की औकात बताती हैं।
भारत से कुछ ऐसे लोगों के वहां जाने की जानकारी भी मिली जिन्होंने वहां नौकरी पाने के लिये लाखों रुपये खर्च किये। ऐसे में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जब लाखों रुपये हैं तो नौकरी किसलिये करने गये। जापान में मौजूद भारतीयों की हालत पर भारतीय चैनल बड़ा हो हल्ला बचा रहे थे। कुछ ने तो वहां काम कर रहे भारतीयों का आर्तनाद भी दिखाया जो कह रहे थे कि‘उनको भारत बुलाया जाये। वह भूखे मर रहे हैं। सरकार बाहर का खाना खाने के लिये मना कर रही है और घर में कुछ मिल नहीं रहा’ इधर कुछ भारतीय वापस लौटे तो कह रहे थे कि ‘वहां सब ठीक है। बस तीन दिन में तीन सौ भूकंप के झटके लगे।
ऐसे में सवाल यह है कि फिर वह वापस क्यों लौटे? अगर उनके लिये वहां सब ठीक था तो उन बिचारों को आने देते जो लाचारी की हालत में हैं। जो लोग जल्दी भारत लौटे हैं उनको शायद यहां ज्यादा अच्छा नहीं लगेगा। अगर वहां दस पंद्रह दिन रह लेते तब पता लगता कि अपने देश की जलवायु की कीमत क्या है? वैसे धन्य है वह लोग जो भूकंप के झटके झेलने वाले देश जापान में बसते रहे। हम एक दिन योग साधना कर रहे थे कि अचानक धरती के अंदर हलचल अनुभव हुई। शवासन में थे और उस हलचल ने विचलित कर दिया तो उठकर बैठ गये। साथी साधक बैठा था उसने पूछा-‘क्या हुआ।’
हमने कहा-‘जमीन में हलचल लग रही थी।’
उसने कहा-‘ऐसे ही कहीं से आवाज आई होगी।’
ऐसी आवाज दो बार आई। हम योग साधना समाप्त कर घर लौटे। एक घंटे में पता चल गया कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में भूकंप आया था। उसकी हलचल हमारे शहर में भी पायी गयी थी। समय वही था जब हमने अनुभव किया कि जमीन में हलचल हो रही है। अगर ऐसी हलचल हमें प्रतिदिन अनुभव हो तो शायद हमारी मनस्थिति बिगड़ जाये और पलंग पर आसन कर उसे तोड़ना प्रारंभ कर दें। पता नहीं कितने पलंग तोड़ डालें क्योंकि हम अब योगसाधना से विरक्त नहीं हो सकते। ऐसा निरंतर आने वाला भूकंप आदमी की मनोदशा नहीं बिगाड़ेगा इस पर यकीन करना कठिन है। जापान और अमेरिका हम जैसे भारतीयों के लिये सपने में आने वाले देश हैं। हम उनको भाग्यशाली समझते है जो बाहर जाते हैं। मगर उनका इस तरह वापस लौटना या कहें भाग कर आना अजीब लगता है। प्रसंगवश बता दें कि विश्व के अनेक विशेषज्ञ प्राकृतिक रूप से भारत को संपन्न राष्ट्र मानते हैं। यह अलग बात है कि हम भारतीय यह बात आज तक नहीं समझ पाये। बहरहाल हमें 19 मार्च और होली का इंतजार तो रहना ही है। यह जानते हुए कि समय निकल ही जाता है। हम जिंदा रहें या नहीं।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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कहीं शादी कहीं प्रचार-हिन्दी सामयिक लेख


बीसीसीआई क्रिकेट टीम के कप्तान की शादी है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। हमने एक समाचार चैनल खोला था समाचार सुनने के लिये है पर कप्तान की शादी का प्रसंग सामने आ गया। इस लेखक ने अक्सर देखा है कि जब बाजार के उत्पादों के किसी विज्ञापन के माडल के-इनमें से अधिकतर क्रिकेट और फिल्म के होते हैं-शादी होने या राजनीति में आने की खबर होती है तो सभी चैनल उसे एक ही समय में प्रसारित करते हैं ताकि दर्शक भाग कर कहीं जा नहीं पाये और न ही उस माडल की आम आदमी उपेक्षा की जा सके। कहने को सारे चैनल अलग दिखते हैं ऐसे मौके पर एक हो जाते हैं। बाजार का उन पर कितना जोरदार नियंत्रण है यह ऐसे मौके पर देखा जा सकता है। इस लेखक ने कम से कम आठ समाचार चैनल बदले होंगे पर हर जगह बस वही बात! कप्तानी की शादी हो रही है इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। आज बाज़ार में घूमते हुए कहीं भी यह सुनाई नहीं दिया कि कप्तान की शादी हो रही है जबकि प्रचार माध्यम शोर मचाये हुए थे। ऐसे में व्यवसायिक प्रचार माध्यमों का यह दावा खोखला दिखता है कि वह तो दर्शकों की मांग के अनुरूप अपनी प्रस्तुति करते हैं। एक अभिनेता की राजनीति में आने की खबर पर भी ऐसा ही देखा गया था।
भारतीय प्रचार माध्यमों तथा आम नागरिकों के बीच अब एक लंबी मनोवैज्ञानिक खाई बन गयी है जिसे हम विश्वास का संकट भी कह सकते हैं। दरअसल प्रचार संगठनों में काम करने वाले लोग जहां अपनी अभिव्यक्ति की शक्ति का महत्व समझते हैं वहीं यह भूल जाते हैं कि अंततः आम आदमी की सहानुभूति के बिना उसका लाभ उठाना संभव नहीं है। एक तरफ प्रचार माध्यम आम आदमी को निहायत मूर्ख मानकर अपने आय अर्जन के इकलौते लक्ष्य पर काम कर रहे हैं वहीं आम आदमी उनको व्यवसायिक छल प्रपंच मानकर उनकी बात पर ध्यान नहीं देता।
ऐसे में अनेक बुद्धिजीवी आम आदमी के चेतना विहीन होने की शिकायत कर रहे हैं तो उन्हें यह भी देखना चाहिये कि उनकी सीमित सोच ने आदमी के दिमागी दायरे को अत्यंत सीमित कर दिया है। हम टीवी चैनलों और समाचार पत्रों कि महत्व को जानते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि हमें यह भी पता है कि उनकी समाज निर्माण में अत्यंत प्रभावी भूमिका हो्रती है। ऐसे में यह देखना आवश्यक है कि प्रचार माध्यमों की भूमिका किस तरह की है और अगर हम समाज को सुप्तावस्था में देख रहे हैं तो उसके पीछे उनकी कितनी जिम्मेदारी है?
सबसे बड़ी बात यह है कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम मानते हैं कि जो लोग देखना, सुनना और पढ़ना चाहते हैं वही हम प्रस्तुत कर रहे हैं क्योंकि इसके बिना व्यवसाय नहीं चलता।
अगर वह इस तर्क पर काम करते हैं तो उससे जुड़े बुद्धिजीवियों को यह शिकायत नहीं करना चाहिए कि समाज सो रहा है।
समाचारों से जुड़े टीवी चैनलों और अखबारों के संचालकों को अब इस बात का आभास नहीं है कि उनका जिम्मा केवल अपने उपभोक्ताओं के सामने समाचार प्रस्तुत करना ही नहीं है वरन् संपादकीय, लेखों तथा चर्चाओं के द्वारा उनमें विचार निर्माण करने का काम भी है। यहां वह यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते कि हर आदमी पढ़ा लिखा है और वह स्वयं ही विचार कर सकता है। एक ब्लाग लेखक के रूप में हम भी यह देख रहे हैें कि अनेक स्तंभकार ब्लाग लेखकों की रचनाओं से विचार लेकर लिख रहे हैं। इसका आशय यह है कि विचारों का क्रमिक विकास तभी संभव है जब कहीं दूसरी जगह से पढ़ा, सुना और देखा जाये।
अब जरा समाचार टीवी चैनलों और अखबारों के समाज में विचार निर्माण के प्रयासों को देखा जाये तो यह नहीं लगता कि वह इस काम को गंभीरता से ले रहे हैं। इस मामले में दूरदर्शन के कुछ प्रयास गंभीरता लिये हुए लगते हैं जबकि व्यवसायिक चैनल पूरी तरह से लापरवाही दिखाते हैं। टीवी चैनलों ने कुछ खास मौकों के लिये दो चार विशेषज्ञ तय कर रखे हैं जो क्रिकेट, आतंकवाद, रेल या बस हादसों तथा महिला उत्पीड़न जैसे विषयों पर आकर रटी रटाई बातें बोलते हैं और खानापूरी हो जाती है। यही स्थिति अनेक समाचार पत्रों की है। उनके लेखों तथा संपादकीयों में समाचारों के दोहराव के अलावा थोड़ी बहुत राय होती है पर वह बेबाक नहीं लगती। इतना ही नहीं उनके विचारों का प्रस्तुतीकरण भी इतना कमजोर रहता है कि पाठक या दर्शक उसे अधिक देर तक ध्यान नहीं रख पाता। यही कारण है कि आजकल कहीं भी कोई बुद्धिमान किसी अखबार की राय का बयान कर अपनी बात नहीं रखता। अखबारों के समाचारों की चर्चा अक्सर मिलती है पर विचार एकदम लापता लगता है।
समाचार टीवी चैनलों ने तो बहुत निराश किया है? जब दूरदर्शन अकेला था तब उसके समाचार सुनने की आम लोगों में एक आदत हो गयी थी और व्यवसायिक समाचार चैनलों ने उसका दोहन भी खूब किया पर उसको नियमित बनाये रखने में नाकाम रहे। यही कारण है कि प्रतिदिन समाचार देखने वाले बहुत लोग अनेक दिन तक तो समाचार चैनल खोलकर देखते तक नहीं हैं। एक घंटे तक समाचार दिखाने का दावा करने वाले यह सभी चैनल बुमश्किल पांच मिनट समाचारों के लिये हैं-उनका शेष समय क्रिकेट, फिल्म और फूहड़ हास्य प्रस्तुत करने में बीत जाता है। यह विज्ञापन चैनल जैसे हो गये हैं। एक तरह से संदेश देते हैं कि यह समाचार और विचार देखना छोड़कर उस तरफ जाओ जो हमारे बाजार नियंत्रकों ने सजा रखा है।
ऐसे में निराश हाथ लगती है। स्थिति यह है कि समाज में चेतना लुप्त होती जा रही है और जिनमें चेतना है उनके पास ऐसे साधन नहीं है जिससे उसमें निरंतरता बनी रहे। हालांकि इधर हिन्दी ब्लाग जगत पर काफी बेबाक राय सामने आ रही है पर वहां जागरुक लोगों की पहुंच अधिक नहीं है। दूसरा यह भी है कि ब्लाग जगत को लेकर प्रचार माध्यम योजनापूर्वक इस बात का प्रयास कर रहे हैं कि यहां बाजार के मुखौटे ही प्रसिद्ध बने न कि आम लेखक। यही कारण है कि क्रिकेट खिलाड़ियो, फिल्म अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों के ब्लाग तथा वेबसाईट या ब्लाग बनाने के समाचार देते हैं। इससे समाज में यह धारणा बनती जा रही है कि ब्लाग केवल खास लोगों की अभिव्यक्ति के लिये है।
इस लेखक ने अपने एक कार्टूनिस्ट मित्र को ब्लाग बनाने की राय दी तो उसका जवाब था कि मैं भला कोई एक्टर या क्रिकेट खिलाड़ी हूं जो कोई मेरा ब्लाग देखेगा।’
दूसरी मजे की बात यह है कि इस लेखक के अनेक पाठ बिना नाम के छापे जा रहे हैं। गांधी जयंती पर इस लेखक के लिखे गये पाठों का एक स्तंभकार ने उपयोग किया। इस लेखक के मित्र तथा पढ़ने वाले लोग जानते हैं कि उन पाठों में जो विचार व्यक्त किये गये थे वैसे किसी बुद्धिजीवी ने नहीं किये। जो लोग गांधी विषय पर विशारद होने का दावा करते हैं वह उन लेखों को पढेंगे तो हैरान रह जायेंगे-एक लेखक मित्र ने उनको पढ़कर यही कहा था। मगर यह आत्मप्रवंचना नहीं है बल्कि यह बताया जा रहा है कि समाचार में चिंतन और विचार का जो संकट है वह प्रचार माध्यमों की उपेक्षा तथा रूढ़ता के कारण है और हिन्दी ब्लाग जगत ही उसका सामना करने में सक्षम है और यह बेहतर होगा कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम इस आशंका से परे हो जायें कि यहां ब्लाग लेखकों नाम सहित अपने यहां स्थान देने से कोई ऐसी लोकप्रियता मिल जायेगी कि बाजार की बड़ी कंपनियों के विज्ञापन उनको मिलने लगेंगे। अलबत्ता हिन्दी में चिंतन तथा विचार के क्षेत्र में जो जड़ता की स्थिति है उससे निपटने लिये उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम ब्लाग लेखकों से तारतम्य बनायें। अगर क्रिकेट खिलाड़ियों, फिल्म अभिनेताओ तथा अभिनेत्रियों की शादी तथा प्रेम प्रसंगों से समय काटने को ही वह अपना व्यवसायिक धर्म समझते हैं तो फिर हमें कुछ नहीं कहना है।
————-

कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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पहरेदार और कातिल-हास्य कविताएँ (paharedar aur qatil-hasya kavitaen)


खज़ाने की सलामती का जिम्मा हैं जिन पर
वही उसे लुटा रहे हैं,
लुटेरों की महफिल में भी
अपने लोगों को जुटा रहे हैं।
दलालों के ठगने से दर्द नहीं होता
यहां तो पहरेदार ही
कातिलों के लिये मजबूरों को उठा रहे हैं।
————
जिंदा लोगों की जिंदगी के
जज़्बातों से खेलना व्यापार के लिये जरूरी है,
इसलिये मरने वालों पर आंसु बहाना
सौदागरों की मजबूरी है।
ज़माने का यही रिवाज है
जिंदा प्यासे इंसान को पानी कोई पिलाता नहीं
जन्नत में बैठे पुरखों के लिये
लुटाते लोग समंदर
कोई नहीं जानता जिसके बारे में
धरती से उसकी कितनी दूरी है।
———–

कवि लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com
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इश्क में सच-हास्य कविता (ishq aur sach-hasya kavita)


आशिक शिष्य ने अपने इश्क गुरु से कहा
‘‘आदरणीय
फिर एक माशुका मेरी जिंदगी में आई
पर उसने मेरा इश्क का मामला
मंजूर करने से पहले
सच बोलने वाली मशीन के सामने
साक्षात्कार की शर्त लगाई।
आपसे सलाह लेकर अपने इश्क के मसले
सुलझाने में पहले भी
मदद नहीं मिली
इसलिये इस बार इरादा नहीं था
आपके पास आने का
पर क्या करता जो यह
एकदम नई समस्या आई।’’

इश्क गुरु ने कहा
‘‘कमबख्त! हर बार पाठ पढ़ जाता है
नाकाम होकर फिर लौट आता है
मेरे कितने चेले इश्क में इतिहास बना चुके हैं
पर केवल तेरी वजह से
मुझे असफल इश्क गुरु कहा जाता है
इस बार तुम घबड़ाना नहीं
सच का सामना करने के लिये
मैदान पर उतर जा
रख दे माशुका से भी
सच का सामना करने की शर्त
उसकी असलियत की भी उधड़ेगी पर्त
वह घबड़ा जायेगी
अपनी शर्त भूल जायेगी
तुम्हारी अक्लमंदी देखकर कर लेगी
जल्दी सगाई।’’

कुछ दिन लौटकर चेला
गुरु के सामने आया
चेहरे से ऐसा लगा जैसे पूरे जमाने ने
उस अकेले को सताया
बोला दण्डवत होकर
‘’गुरु जी, आपका पाठ इस बार भी
काम न आया
माशुका सुनकर मेरा प्रस्ताव
कुछ न बोली
बाद में उसने यह संदेश भिजवाया कि
‘भले ही न करना था
सच की मशीन का सामना
कोई बात नहीं थी
पर मुझ पर मेरी शर्त थोपकर
तुमने मेरा विश्वास गंवाया
इसलिये तय किया कि
किसी दूसरे से सच का सामना
करने के लिये नहीं कहूंगी
पर तुमने शर्त नहीं मानी
इसलिये आगे तुम्हारे इश्क को
अब दर्द की तरह नहीं सहूंगी
कर ली मैंने
अपने माता पिता के चुने लड़के से ही सगाई’
अफसोस! इस बार भी गुरु की सलाह
काम न आई’’

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व्यंग्य भी होता है एक तरह से विज्ञापन (हास्य व्यंग्य)


उस दिन उस लेखक मित्र से मेरी मुलाकात हो गयी जो कभी कभी मित्र मंडली में मिल जाता है और अनावश्यक रूप विवाद कर मुझसे लड़ता रहता है। हमारी मित्र मंडली की नियमित बैठक में हम दोनों कभी कभार ही जाते हैं और जब वह मिलता है तो न चाहते हुए भी मुझे उससे विवाद करना ही पड़ता है।
उस दिन राह चलते ही उसने रोक लिया और बिना किसी औपचारिक अभिवादन किए ही मुझसे बोला-‘‘मैंने तुम पर एक व्यंग्य लिखा और वह एक पत्रिका में प्रकाशित भी हो गया। उसमंें छपने पर मुझे एक हजार रुपये भी मिले हैं।’

मैंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपना हाथ बढ़ाते हुए उससे कहा-‘बधाई हो। मुझ पर व्यंग्य लिखकर तुमने एक हजार रुपये कमा लिये और अब चलो मैं भी तुम्हें होटले में चाय पिलाने के साथ कुछ नाश्ता भी कराता हूं।’
पहले तो वह हक्का बक्का होकर मेरी तरफ देखने लगा फिर अपनी रंगी हुई दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोला-‘‘बडे+ बेशर्म हो। तुम्हें अपनी इज्जत की परवाह ही नहीं है। मैंने तुम्हारी मजाक बनाई और जिसे भी सुनाता हूं वह तुम हंसता है। मुझे तुम पर तरस आता है, लोग हंस रहे हैं और तुम मुझे बधाई दे रहे हो।’’

मैंने बहुत प्रसन्न मुद्रा में उससे कहा-‘तुमने इस बारे में अन्य मित्रों में भी इसकी चर्चा की है। फिर तो तुम मेरे साथ किसी बार में चलो। आजकल बरसात का मौसम है। कहीं बैठकर जाम पियेंगे। तुम्हारा यह अधिकार बनता है कि मेरे पर व्यंग्य लिखने में इतनी मेहनत की और फिर प्रचार कर रहे हो। इससे तो मुझे ही लाभ हो सकता है। संभव है किसी विज्ञापन कंपनी तक मेरा नाम पहुंच जाये और मुझे किसी कंपनी के उत्पाद का विज्ञापन करने का अवसर मिले। आजकल उन्हीं लोगों को लोकप्रियता मिल रही है जिन पर व्यंग्य लिखा जा रहा है।
मेरा वह मित्र और बिफर उठा-‘‘यार, दुनियां में बहुत बेशर्म देखे पर तुम जैसा नहीं। यह तो पूछो मैंने उसमें लिखा क्या है? मैंने गुस्से में लिखा पर अब मेरा मन फटा जा रहा है इस बात पर कि तुम उसकी परवाह ही नहीं कर रहे। मैंने सोचा था कि जब मित्र मंडली में यह व्यंग्य पढ़कर सुनाऊंगा तो वह तुमसे चर्चा करेंगे पर तुम तो ऐसे जैसे उछल रहे हो जैसे कि कोई बहुत बड़ा सम्मान मिल गया है।’’
मैंने कहा-‘’तुम्हारा व्यंग्य ही मुझे बहुत सारे सम्मान दिलायेगा। तुम कुछ अखबार पढ़ा करो तो समझ में आये। जिन पर व्यंग्य लिखे जा रहे हैं वही अब सब तरह चमक रहे हैं। उनकी कोई अदा हो या बयान लोग उस पर व्यंग्य लिखकर उनको प्रचार ही देते हैं। वह प्रसिद्धि के उस शिखर पर इन्हीं व्यंग्यों की बदौलत पहुंचे हैं। उनको तमाम तरह के पैसे और प्रतिष्ठा की उपलब्धि इसलिये मिली है कि उन पर व्यंग्य लिखे जाते रहे हैं। फिल्मों के वही हीरो प्रसिद्ध हैं जिन पर व्यंग्य लिखे जा रहे हैं। जिस पर व्यंग्य लिखा जाता है उसके लिये तो वह मुफ्त का विज्ञापन है। मैं तुम्हें हमेशा अपना विरोधी समझता था पर तुम तो मेरे सच्चे मित्र निकले। यार, मुझे माफ करना। मैंने तुम्हें कितना गलत समझा।’’

वह अपने बाल पर हाथ फेरते हुए आसमान में देखने लगा। मैंने उसके हाथ में डंडे की तरह गोल हुए पत्रिका की तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा-‘देखूं तो सही कौनसी पत्रिका है। इसे मैं खरीद कर लाऊंगा। इसमें मेरे जीवन की धारा बदलने वाली सामग्री है। तुम चाहो तो पैसे ले लो। तुम बिना पैसे के कोई काम नहीं करते यह मैं जानता हूं, फिर भी तुम्हें मानता हूं। मैं इसका स्वयं प्रचार करूंगा और लोग यह सुनकर मुझसे और अधिक प्रभावित होंगे कि मुझ पर व्यंग्य लिखा गया है।’’

उसने अपनी पत्रिका वाला हाथ पीछे खींच लिया और बोला-‘मुझे पागल समझ रखा है जो यह पत्रिका तुम्हें दिखाऊंगा। मैंने तुम पर कोई व्यंग्य नहीं लिखा। तुमने अपनी शक्ल आईने में देखी है जो तुम पर व्यंग्य लिखूंगा। मैं तो तुम्हें चिढ़ा रहा था। इस पत्रिका में मेरा एक व्यंग्य है और उसका पात्र तुमसे मिलता जुलता है। तुम सबको ऐसे ही कहते फिरोगे कि देखो मुझ पर व्यंग्य लिखा गया है। चलते बनो। मैंने जो यह व्यंग्य लिखा है उसका पात्र तुमसे मिलता जुलता जरूर है पर उसका नाम तुम जैसा नहीं है।’

मैंने बनावटी गुस्से का प्रदर्शन करते हुए कहा-‘‘तुमने उसमें मेरा नाम नहीं दिया। मैं जानता हूं तुम मेरे कभी वफादार नहीं हो सकते।’’

वह बोला-‘मुझे क्या अपनी तरह अव्यवसायिक समझ रखा है जो तुम पर व्यंग्य लिखकर तुम्हें लोकप्रियता दिलवाऊंगा। तुम में ऐसा कौनसा गुण है जो तुम पर व्यंग्य लिखा जाये।’

मैंने कहा-‘‘तुम्हारे मुताबिक मैं एक गद्य लेखक नहीं बल्कि गधा लेखक हूं और मेरी पद्य रचनाऐं रद्द रचनाऐं होती हैं।’’
वह सिर हिलाते हुए इंकार करते हुए बोला-‘नहीं। मैंने ऐसा कभी नहीं कहा। तुम तो अच्छे गद्य और पद्यकार हो तभी तो कोई उनको पढ़ता नहीं है। मैं तुम्हें ऐसा प्रचार नहीं दे सकता कि लोग उसे पढ़तें हुए मुझे ही गालियां देने लगें।
मैंने कहा-‘तुम मेरे लिऐ कहते हो कि मैं ऐसी रचनाऐं लिखता हूं जिससे मेरी कमअक्ली का परिचय मिलता है।’
उसने फिर इंकार में सिर हिलाया और कहा-‘मैंने ऐसा कभी नहीं कहा। तुम तो बहुत अक्ल के साथ अपनी रचनाएं लिखते हो इसी कारण किसी पत्र-पत्रिका के संपादक के समझ में नही आती और प्रकाशन जगत से तुम्हारा नाम अब लापता हो गया है। फिर मैं अपने व्यंग्य में तुम्हारा नाम कैसे दे सकता हूं।

मेरा धीरज जवाब दे गया और मैंने मुट्ठिया और दंात भींचते हुए कहा-‘फिर तुमने मुझे यह झूठा सपना क्यों दिखाया कि मुझ पर व्यंग्य लिखा है।’
वह बोला-‘ऐसे ही। मैं भी कम चालाक नहीं हूं। तुम जिस तरह काल्पनिक नाम से व्यंग्य लेकर दूसरों को प्रचार से वंचित करते हो वैसे मैंने भी किया। तुमने पता नहीं मुझ पर कितने व्यंग्य लिखे पर कभी मेरा नाम लिखा जो मैं लिखता। अरे, तुम तो मेरे पर एक हास्य कविता तक नहीं लिख पाये।’

मैंने आखिर उससे पूछा-‘पर तुमने अभी कुछ देर पहले ही कहा था कि‘तुम पर व्यंग्य लिखा है।’

वह अपनी पत्रिका को कसकर पकड़ते हुए मेरे से दूर हो गया और बोला-‘तब मुझे पता नहीं था कि व्यंग्य भी विज्ञापनों करने के लिये लिखे जाते हैं।’
फिर वह रुका नहीं। उसके जाने के बाद मैंने आसमान में देखा। उस बिचारे को क्या दोष दूं। मैं भी तो यही करता हूं। किसी का नाम नहीं देखा। इशारा कर देता हूं। हालत यह हो जाती है कि एक नहीं चार-चार लोग कहने लगते हैं कि हम पर लिखा है। किसी ने संपर्क किया ही नहीं जो मैं उन पर व्यंग्य लिखकर प्रचार करता। अगर किसी का नाम लिखकर व्यंग्य दूं तो वह उसका दो तरह से उपयोग कर सकता है। एक तो वह अपनी सफाई में तमाम तरह की बातें कहेगा और फिर अपने चेलों को मुझ पर शब्दिक आक्रमण करने के लिये उकसायेगा। कुल मिलाकर वह उसका प्रचार करेगा। इसी आशंका के कारण मैं किसी ऐसे व्यक्ति का नाम नहीं देता जो इसका लाभ उठा सके। वह मुझे इसी चालाकी की सजा दे गया।
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दीपक भारतदीप

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सभी पियक्कड़ हो जाते, जो पहुंचे मधुशाला-व्यंग्य


हिंदी भाषा के महान कवि हरिबंशराय बच्चन ने मधुशाला लिखी थी। अनेक लोगों ने उसे नहीं पढ़ा। कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने उसे थोड़ा पढ़ा। कुछ लोगों ने जमकर पढ़ा। हमने उसके कुछ अंश एक साहित्यक पत्रिका में पढ़े थे। एक बार किताब हाथ लगी पर उसे पूरा नहीं पढ़ सके और लायब्रेरी में ं वापस जमा कर दी। मधुशाला के कुछ काव्यांश प्रसिद्ध हैं और देश की एकता के लिये उनका उपयेाग जमकर किया जाता है। उनका आशय यह है कि सर्वशक्तिमान के नाम पर बने सभी प्रकार के दरबार आपस में झगड़ा कराते हैं पर मधुशाला सभी को एक जैसा बना देती है। मधुशाला को लेकर उनका भाव संदेशात्मक ही था। एक तरह से कहा जाये तो उन्होने मधुशाला की आड़ में समाज को एकता का संदेश दिया था। हमने अभी तक उसके जितने भी काव्यांश देखे है उनमें मधुशाला पर लिखा गया है पर मद्यपान पर कुछ नहीं बताया गया। सीधी भाषा में कहा जाये तो मधुशाला तक ही उनका संदेश सीमित था पर मद्यपान में उसमें गुण दोषों का उल्लेख नहीं किया गया।
अब यह बताईये कि मधुशाला में मद्यपान नहीं होगा तो क्या अमृतपान होगा?बहुत समय तक लोग एकता के संदेशों में मधुशाला के काव्यांशों का उल्लेख करते हैं पर मद्यपान को लेकर आखें मींच लेते हैं। उनमें वह भी लोग हैं जो मद्यपान नहीं करते। नारों और वाद पर चलने का यह सबसे अच्छा उदाहरण है। मधुशाला पवित्र और एकता का संदेश देने वाली पर मद्यपान…………..यानि देश में गरीबी का एक बहुत बड़ा कारण। इससे आंखें बंद कर लो। चिंतन के दरवाजे मधुशाला से आगे नहीं जाते क्योंकि वहां से मद्यपान का मार्ग प्रारंभ होता है ं।

चलिये मधुशाला को जरा आज के संदर्भ में देख लें। बीयर बार और पब भी आजकल की नयी मधुशाला हैं। जब से यह शब्द प्रचलन में आये हैं तब से मधुशाला की कविताओं का प्रंचार भी कम हो गया है। पिछले दिनों हमने पब का अर्थ जानने का प्रयास किया पर अंग्रेजी डिक्शनरी में नहीं मिला। तब एक ऐसे सभ्य,संस्कृत और आधुनिक शैली जीवन के अभ्यस्त आदमी से इसका अर्थ पूछा तब उन्होंने बताया कि ‘आजकल की नयी प्रकार की कलारी भी कह सकते हो।’ कलारी से अधिक संस्कृत शब्द तो मधुशाला ही है। दरअसल आजकल कलारी शब्द देशी शराब के संबंध में ही प्रयोग किया जाता है। बहरहाल मधुशाला का अर्थ अगर मद्यपान का केंद्र हैं तो पब का भी आशय यही है।

स्व. हरिबंशराय बच्चन की मधुशाला में कई बातें लिखी गयी हैं जिनमें यह भी है कि मधुशाला एक ऐसी जगह है जहां पर जाकर हर जाति,वर्ण,वर्ग,भाषा,धर्म और क्षेत्र का आदमी हम प्याला बन जाता है। उन्होंने यह शायद कहीं नहीं लिखा कि वहां स्त्रियों और पुरुष भी ं एक समान हो जाते है। अगर वह अपने समय में भी ऐसी बातें लिखते तो उनका जमकर विरोध हो जाता क्योंकि उस समय स्त्रियों के वहां जाने का कोई प्रचलन नहीं होता। मधुशाला प्रगतिवादियों की मनपसंदीदा पुस्तक है मगर मुश्किल है कि मद्यपान से आदमी का मनमस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है और उस समय सारी नैतिकता और नारे एक जगह धरे रह जाते हैंं।

आजकल पब का जमाना है और उसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही जाने लगे हैं। मगर पब मेें ड्रिंक करने पर भी वहीं असर होता है जो कलारी में दारु और मधुशाला में मद्यपान करने से होता है। पहले लोग कलारियों के पास अपना घर बनाने ये किराये पर लेने से इंकार कर देते थे पर आजकल पबों और बारों के पास लेने में उनको कोई संकोच नहीं होता। मगर दारु तो दारु है झगड़े होंगे। पीने वाले करें न न पीने वाले उनसे करें। जिस तरह पबों का प्रचलन बढ़ रहा है उससे तो लगता है कि आगे ‘आधुनिक रूप से’ फसाद होंगें। ऐसा ही कहीं झगड़ा हुआ वहां सर्वशक्तिमान के नाम पर बनी किसी सेना ने महिलाओं से बदतमीजी की। यह बुरी बात है। इसके विरुद्ध कड़ी कार्यवाही होना चाहिये पर जिस तरह देश के बुद्धिजीवी और लेखक इस घटना पर अपने विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं वह गंभीरता की बजाय हास्य का भाव पैदा कर रहा है। हमने देखा कि इनमें कुछ बुद्धिजीवी और लेखक मधुशाला के प्रशंसक रहे हैं पर उनको मद्यपान के दोषों का ज्ञान नहीं है। पहले भी कलारियों पर झगड़े होते थे पर उनमें लोग वर्ण,जाति,भाषा और धर्म का भेद नहीं देखते थे-क्योंकि मधुशाला के संदेश का प्रभाव था और सभी झगड़ा करने वाले ‘हमप्याला’ थे। मगर अभी एक जगह झगड़ा हुआ उसमें पब में गयी महिलाओं से बदतमीजी की गयी। यह एक शर्मनाक घटना है और उसके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही भी की जा रही पर अब इस पर चल रही निरर्थक बहस में ं दो तरह के तर्क प्रस्तुत किया जा रहे हैं।

1.कथित प्रगतिवादी लेखक और बुद्धिजीवी वर्ग के लोग इसमें अपनी रीति नीति के अनुसार महिलाओं पर अनाचार का विरोध कर रहे हैं क्योंकि मधुशाला में स्त्रियों और पुरुषों के हमप्याला होने की बात नहीं लिखी।
2.गैरप्रगतिवादी लेखक और बुद्धिजीवी महिलाओं के शराब पीने पर सवाल उठा रहे हैं। कुछ दोनों का हमप्याला होने पर आपत्ति उठा रहे हैं।
हम दोनों से सहमत नहीं हैं।

जहां तक घटना का सवाल है तो हमें यह जानकारी भी मिली है कि वहां कुछ पुरुषों के साथ बदतमीजी की गयी थी। इसलिये केवल महिलाओं के अधिकारों की बात करना केवल सतही विचार है। महिलाओं को शराब नहीं पीना चाहिये तो शायद इस देश के कई जातीय समुदायों के लोग सहमत नहीं होंगे क्योकि उनमें महिलायें भी मद्य का अपनी प्राचीन परंपराओं के अनुसार सेवन करती हैं। किसी घटना पर इस तरह की सोच इस बात को दर्शाती हैं कि लोगों की सीमित दायरे में कुछ घटनाओं पर लिखने तक ही सीमित हो रहे हैं। मजे की बात यह है कि मधुशाला पढ़ने वाले हमप्यालों के एक होने पर तो सहमत हैं पर झगड़े होने पर तमाम तरह के पुराने भेद ढूंढ कर बहस करने लगते हैं। बहरहाल इस पर हमारी एक कुछ काव्य के रूप में पंक्तियां प्रस्तुत हैं।

किसी भी घर का बालक हो या बाला
पियक्कड़ हो जाते जो पहुंचे मधुशाला
मत ढूंढों जाति,धर्म,भाषा,और लिंग का भेद
सभी को अमृतपान कराती मधुशाला
नशे में टूट गया, एक जो था गुलदस्ता
हर फूल को अपने से उसने अलग कर डाला
जो खुश होते थे देखकर रोज वह मंजर देखकर
करने लगे आर्तनाद,भूल गये वह थी मधुशाला
मद्यपान की जगह होगी जहां, वहां होंगे फसाद
नाम पब और बार हो या कहें अपनी मधुशाला
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आदमी हो या औरत पीने का मन
किसका नहीं करता
यारों, चंद शराब के कतरों की धारा में
संस्कृति नहीं बहा करती
आस्था और संस्कारों की इमारत
इतनी कमजोर नहीं होती
टूट सकती है शराब की बोतल से
जो संस्कृति वह बहुत दिन
जिंदा रहने की हक भी नहीं रखती
अपने इरादों पर कमजोर रहने वाला इंसान ही
यकीन को जिंदा रखने के लिये जंग की बात करता

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जूता लगे या नहीं, काम तो कर ही जाता है-व्यंग्य


जूते का उपयोग सभी लोग पैर में पहनने के लिये करते हैं इसलिये उसकी अपनी कोई इज्जत नहीं है। हमारे देश में कोई स्त्री दूसरे स्त्री को अपने से कमतर साबित करने के लिये कहती है कि ‘वह क्या है? मेरी पैर की जूती के बराबर नहीं है।’

वैसे जूते का लिंग कोई तय नहीं किया गया है। अगर वह आदमी के पैर में है तो जूता और नारी के पैर में है तो जुती। यही जूती या जूता जब किसी को मारा जाता है तो उसका सारा सम्मान जमीन पर आ जाता है। अगर न भी मारा जाये तो यह कहने भर से ही कि ‘मैं तुझे जूता मारूंगा’ आदमी की इज्जत के परखच्चे उड़ जाते हैं भले ही पैर से उतारा नहीं जाये। अगर उतार कर दिखाया जाये तो आदमी की इज्जत ही मर जाती है और अगर मारा जाये तो तो आदमी जीते जी मरे समान हो जाता है।

इराक की यात्रा में एक पत्रकार ने अपने पावों में पहनी जूतों की जोड़ी अमेरिका के राष्ट्रपति की तरफ फैंकी। पहले उसने एक पांव का और फिर दूसरे पांव का जूता उनकी तरफ फैंका। यह खबर दोपहर को सभी टीवी चैनल दिखा रहे थे। दुनियां के सर्वशक्तिमान देश के राष्ट्रपति पर यह प्रहार भारत का ही नहीं बल्कि विश्व के हर समाज का ध्यान आकर्षित करता है। यानि कम से कम एक बात तय है कि जूता फैंकना विश्व के हर समाज में बुरा माना जाता है।

पत्रकार ने जिस तरह जूता फैंका उससे लगता था कि वह कोई निशाना नही लगा रहा था और न ही उसका इरादा बुश को घायल करने का था पर वह अपना गुस्सा एक प्रतीक रूप में करना चाहता था। वहां उसे सुरक्षा कर्मियों ने पकड़ लिया और वह भी दूसरा जूता फैंकने के बाद। अभी तक बंदूकों और बमों से हमलों से सुरक्षा को लेकर सारे देश चिंतित थे पर अब उसमें उनको जूते के आक्रमण को लेकर भी सोचना पड़ेगा। आखिर सम्मान भी कोई चीज होती है। हमारा दर्शन कहता है कि ‘बड़े आदमी का छोटे के द्वारा किया गया अपमान भी उसके लिये मौत के समान होता है।

इस आक्रमण के बाद बुश पत्रकारों से कह रहे थे कि ‘यह प्रचार के लिये किया गया है। अब देखिये आप उसके बारे में मुझसे पूछ रहे हैं।’

हमेशा आक्रमक तेवर अपनाने वाले उस राष्ट्रपति का चेहरा एकदम बुझा हंुआ था। उससे यह लग रहा था कि उनको अपने अपमान का बोध हो रहा था। उनका चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे कि गोली से बचे हों।
हमारी फिल्मों में दस नंबर जूते की चर्चा अक्सर आती है पर मारे गये जूते का साइज अगर सात भी तो कोई अपमान का पैमाना कम नहीं हो जाता।

दुनियां में सभी महत्वपूर्ण स्थानों की सुरक्षा वहां मैटल डिटेक्टर से केवल बारूद की जांच की जाती है और अगर इसी तरह जूतों से आक्रमण होते रहे तो आने वाले समय में जूतों से भी सुरक्षा का उपाय होगा।

युद्ध में अस्त्र शस्त्र का प्रयोग होता है। जिनका उपयोग हाथ रखकर किया जाता है उनको अस्त्र और जिनका फैंक कर किया जाता है उनको शस्त्र कहा जाता है। अभी तक जूते को अस्त्र शस्त्र की श्रेणी में नहीं माना जाता अलबत्ता इसके अस्त्र के रूप में ही उपयोग होने की बात कही जाती है। जूतों से मारने की बात अधिक कही जाती है पर यदाकदा ही ऐसा कोई मामला सामने आता है। लोग आपस में लड़ते हैं। एक दूसरे को तलवार से काटन या गोली से उड़ाने की बात कही जाती है पर जूते से मारने की बात केवल कमजोर से कही जाती है वह भी अगर अपना हो तो।

एक सेठ जी के यहां अनेक नौकर थे पर वह अक्सर अपने एक प्यारे नौकर को ही गलती होने पर जूते से मारने की धमकी देते थे। वह नौकर भी चालू था। सुन लेता था क्योंकि वह वेतन के अलावा अन्य तरह की चोरियां और दांव पैंच कर भी अपनी काम चलाता था। उसका वेतन कम था पर आय सबसे अधिक करता था। बाकी नौकर यह सोचकर खुश होतेे थे कि चलो हमें तो कभी जूते से मार खाने की धमकी नहीं मिलती। कम से कम सेठ हमारी इज्जत तो करता है और इसलिये सतर्कता पूर्वक काम करते ताकि कभी उनको उसकी तरह से बेइज्जत न होना पड़े। उनको यह पता ही नहीं था कि सेठ उनको साधने के लिये ही उस नौकर को जूते से मारने की धमकी देता था। इज्जत सभी को प्यारी होती है । कई लोग गोली या तलवार से कम जूते की मार खाने से अधिक डरते हैं। तलवार या गोली खाकर तो आदमी जनता की सहानुभूति का पात्र बन जाता है पर जूते से मार खाने पर ऐसी सहानुभूति मिलने की संभावना नहीं रहती । उल्टे लोगों को लगता है कि चोरी करने या लड़की छेड़ने-यही दोनों आजकल जघन्य अपराध माने जाते हैं जिसमें पब्लिक मारने को तैयार रहती है-के आरोप में पिट रहा है। यानि इससे पिटने वाला आदमी हल्का माना जाता है।

एक बात तय रही कि जूता मारने वाला हाथ में पकड़े ही रहता है फैंकता नहीं है-अगर विरोधी के हाथ लग जाये और वह भी उससे पीट दे तो अपमान करने पर प्रतिअपमान भी झेलना पड़ सकता है। एक बात और है कि गोली या तलवार से लड़ चुके दुश्मन से समझौता हो सकता है पर जूते मारने या खाने वाले से समझौता करने में भी संकोच होता है। एक सज्जन को हमेशा ही गुस्से में आकर जूता उठाने की आदत है-अलबत्ता मारा किसी को नहीं है। अपने जीवन में वह ऐसा चार पाचं बार कर चुके हैं। वही बतातेे हैं कि जिन पर जूता उठाया है अब वह कहीं मिल जाने पर देखकर ऐसे मूंह फेर लेते हैं जैस कि कभी मिले ही न होंं न ही मेरा साहस उनको देखने का होता है।

जूता मारना या मारने के लिये कहना ही अपने आप में एक अपराध है। ऐसे में अगर कहीं जूता उठाकर मारा जाये तो वह भी किसी महान हस्ती पर तो उसकी चर्चा तो होनी है। वह भी सर्वशक्तिमान देश के राष्ट्रपति पर एक पत्रकार जूता फैंके। पत्रकार तो बुद्धिजीवी होते हैं। यह अलग बात है कि सबसे अधिक जूता मारने की बात भी वही कहते हैं कि उनकी बंदूक या तलवार चलाने की बात पर यकीन कौन करेगा? यह कृत्य इतना बुरा है कि जूता फैंकने वाले पत्रकार के साथियों तक ने कह डाला कि वह पूरे इराक का प्रतिनिधि नहीं है। कुछ लोगों ने घर आये मेहमान के साथ इस अपमानजनक व्यवहार की कड़ी निंदा तक की है

यह लगभग उस देश पर हमले जैसा है पर कोई देश उसका जवाब देने का सोच भी नहीं सकता। कोई वह जूते उठाकर उस पत्रकार की तरफ फैंकने वाला नहीं था। उसे सुरक्षा कर्मी पकड़ कर ले गये और यकीनन वह बिना जूतों के ही गया होगा। उसकी हालत भी ऐसे ही हुई होगी जैसी कि आतंकवादियों की बंदूक के बिना हो जाती है।

इतिहास में यह शायद पहली मिसाल होगी जब जूते का शस्त्र के रूप में उपयोग किया गया होगा। अब आखिर उन जूतों का क्या होगा? वह पत्रकार को वापस तो नहीं दिये जायेंगे। अगर दे दिये तो वह उन जूतों को नीलाम कर भारी रकम वसूल कर लेगा। पश्चिम में ऐसी ही चीजों की मांग है। उन जूतों को उठाकर ले जाने की समस्या वहां के प्रशासन के सामने आयेगी। अगर वह कहीं असुरक्षित जगह पर रखे गये तो तस्करों की नजर उस पड़ सकती है। अब वह जूते एतिहासिक हो गये हैं कई लोग उन जूतों पर नजर गड़ाये बैठेंगे। भारत की अनेक एतिहासिक धरोहरों पश्चिम में पहुंच गयीं हैं और यह तो उनकी खुद की धरोहर होगी। भारत की धरोहर का प्रदर्शन तो वह कर लेते हैं पर इस धरोहर का प्रदर्शन करना संभव नहीं है।

वैसे अपने देश में जूता मारने के लिये कहने की कई लोगों में आदत है पर इसका अस्त्र शस्त्र की तरह उपयोग करने की चर्चा कभी नहीं हुई। अब लगता है कि आने वाले इस सभ्य युग में यह भी एक तरीका हो सकता है पर यह पश्चिम के लिये ही है। अपने देश में तो हर आदमी क्रोध में आने पर जूता मारने की बात करता है पर हर कोई जानता है कि उसके बाद क्या होगा? वैसे यहां कोई नई बात नहीं है। किसी ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि तीसरा युद्ध पत्थरों से लड़ा जायेगा। लगता है नहीं! शायद वह जूतों से लड़ा जायेगा। अमेरिका ने परमाणु बम का ईजाद कर जापान पर उसका उपयोग किया पर जूता परमाणु बम से अधिक खतरनाक है। परमाणु बम की मार से तो आदमी मर खप जाता है या कराह कराह कर जीता है पर जूते की मार तो ऐसी होती है कि अगर एक बार फैंका भी जाये तो कोई भी जूता देखकर वह मंजर नजर आता है। या मरने या कराहने से भी बुरी स्थिति है। अब सवाल यह है कि जूते को अस्त्र कहा जाये कि शस्त्र? दोनों की श्रेणी में तो उसे रखा नहीं जाता। या यह कहा जाये कि जूते को जूता ही रहने तो क्योंकि उसकी मार अस्त्रों शस्त्रों से भी गहरी होती है।

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‘बिन फेरे हम तेरे’ से चिंतित घनेरे-हास्य व्यंग्य live in reletionship


‘बिन फेरे, बने बसेरे’ को जब राज्य की वैधानिकता का प्रमाण मिलना प्रस्तावित भर हुआ है तब देश में एक नयी बहस शुरु हो गयी है-वैसे तो यहां हर वक्त कोई बहस चलती है पर बाकी इस समय पृष्ठभूमि में चली गयी हैं। इसमें एक तरफ वह लोग हैं जो समाज, संस्कृति और धर्म का किला ध्वस्त होने की वजह से आशंकित हैं तो दूसरी तरफ वह लोग इसमें स्त्रियों के अधिकारों को लेकर प्रसन्न है।

सच तो यह है कि इस देश में ऐसी कई बहसें चलती हैं जिनका अपने आप में कोई निष्कर्ष निकलता ही नहीं हैं और खास तौर से स्त्री पुरुष के संबंधों का विषय तो ऐसा है जिस पर आज तक कोइ दावे से अपनी बात नहीं कह पाया। फिर आजकल के बुद्धिजीवी जिनको वाद और नारों पर चलते हुए वैसा ही करने की आदत हो गयी है।
स्थिति यह है कि बिना विवाह किये ही स्त्री पुरुष के साथ रहने को वैधानिक रूप देने का जो प्रस्ताव है उसका स्वरूप क्या है, यह जाने बिना ही तर्क दिये जा रहे हैं। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में ‘बिन फेरे हम तेरे’ शीर्षक लगाकर लोगों का ध्यान आकर्षित किया गया। मतलब फिल्म का टाईटल या गाने के आसरे ही अपनी बात कह रहे हैं कोई नया शीर्षक नहीं मिला। जैसे कि ‘बिने फेरे अब बनंेगे बसेरे’ या ‘बिन विवाह, इक घर होगा वाह!’

उस दिन तो हद ही हो गयी एक समाजशास्त्री इस विषय पर एक फिल्म का हवाला देकर अपनी बहस आगे बढ़ा रही थी‘ उस फिल्म में जैसा दिखाया गया है’ ‘अमुक फिल्म की नायिका के साथ यह हुआ’ और ‘अमुक फिल्म का नायक यह कह रहा था’ जैसे जुमले का उपयोग किया और फिर इस कानून का समर्थन किया। अब समझ मेें यह आ नहीं आ रहा था कि वह समाजशास्त्री थीं या फिल्मी कहानी विशेषज्ञ! हिंदी फिल्में कतई समाज का आईना नहीं होती क्योंकि साहित्य से उनका कोई सरोकार नहीं होता।

बुद्धिजीवियों की इस स्थिति को यह लगता है कि या तो फिल्म के दृष्टिकोण से समाज को देखा जायेगा या फिर विदेशी विचाराधारा के आईने इसका आंकलन होगा। सब तरफ बहसे देखें तो केवल सतही तर्कों पर हो रही है। कुछ धर्मशास्त्री तो अपने धर्म के विरुद्ध बता रहे हैं। समाज शास्त्री अपने अपने दृष्टिकोण से इस पर विचार व्यक्त कर रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि इस कानून का विस्तृत ब्यौरा किसी के पास उपलब्ध नहीं है।

एक स्त्री पुरुष का बिना विवाह किये साथ रहना कोई नयी बात नहीं है। बस अंतर यह है कि अधिकतर मामलों में पुरुष का एक विवाह हुआ होता है और वह समाज के डर के मारे दूसरा विवाह तो कर नहंी पाता और फिर उसका किसी अन्य स्त्री से संपर्क हो जाता है और अधिकतर मामलों में वह अविवाहित होती है। ऐसा कोई आज नहीं बल्कि सदियों से हो रहा है। राजा, महाराजों और जमीदारों के ऐसे एक नहंी हजार किस्से हैं जिनकी अपने क्षेत्रों में कहानियां बनी हुईं हैंं। कुछ लोगों ने गोली नाम का एक उपन्यास शायद पढ़ा हो उसमें एक राजा अपनी एक रखैल का विवाह अपने ही एक नौकर से करा देता है जबकि वह उसके पास एक दिन के लिये भी नहीं रहती। उसका पूरा जीवन ही अपने मालिक के सानिध्य में बीतता है। बताते हैं कि इस तरह की गोली प्रथा देश के कुछ हिस्सों में थी जिसमें राजा,महाराज और जमीदार इस तरह महिलाओं को गुलाम बनाकर रखते थे।

आधुनिक भारत में तो यह आम चलने में आ गया है। जिस तरह पहले राजा,महाराजा और जमीदारों की पहचान थी ऐसी विलासिता तो आज वह फैशन हो गयी है। जिन फिल्मों की कहानियों से इस समाज को देखने का प्रयास हो रहे हैं उनके अभिनेता और अभिनेत्रियों के निजी जीवन में तो ऐसी अनेक कहानियां हैं जो समाज में इतनी नहीं होतीं।

एक बात निश्चित है कि देश को पाश्चात्य सभ्यता के रोग ने जिस तरह ग्रस लिया है उससे तो फिलहाल मुक्ति संभव नहीं है। इससे एक तो पारिवारिक संस्कृति ध्वस्त हुई है दूसरे सुख सुविधा के साधनों के उपयोग से आदमी का घरेलू व्यय बढ़ा है और इसने एक ऐसे तनाव को जन्म दिया है जिसकी चर्चा कम ही लोग सार्वजनिक रूप से करते हैं। जिनके पास नहीं है वह अपने परिवार में ऐसी सुविधायें लाने के लिये प्रयत्नशील हैं और यह उनके लिये साधन नहंी बल्कि जीवन का लक्ष्य बनकर रह जाता है। एक आई तो दूसरी लानी है।

‘बिन फेरे बने बसेरे’ की पद्धति को वैधानिक मान्यता मिलने या न मिलने से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला क्योंकि इसे सामाजिक मान्यता मिलने में सदियां लग जायेंगी। जैसे दहेज विरोधी कानून बन गया पर यह प्रथा एक अंश भी बाधित नहीं हुई। यही हाल ‘बिन फेरे बने बसेरे का भी होना है’। हां, यह एकदम आधुनिक किस्म के अविवाहित युवक युवतियों को तत्कालिक रूप से पसंद आयेगा पर बाद में इस पर चलने वाले पछतायेंगे भी। अभी इसका पूरा मसौदा किसी के सामने नहीं आया पर इसे अत्यंत सावधानी से बनाना होगा वरना दुरुपयोग कहीं दुरुपयोग तो तमाम ऐसी विसंगतियां समाज के सामने आयेंगी जिससे झेलना कठिन होगा।

यह बात याद रखने लायक है कि विवाह एक स्त्री और पुरुष के बीच जरूर होता है पर इससे दोनों के परिवार के अन्य लोग भी एक दूसरे के साथ जुड़ते हैं। अगर खुशी में दोनों के रिश्तेदार आते हैं तो दुःख में निभाते भी हैं। जीवन का कोई भरोसा नही है इसलिये विवाह नाम की यह संस्था बनी है। ‘बिना फेरे बने बसेरे‘की पद्धति अपनाने वालों को बाद में बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। किसी एक को दुःख पहुंचा तो दूसरा स्वयं ही उसे संभाल सकता है और बाकी रिश्तेदार तो कन्नी काट जायेंगे‘क्या हमें शादी पर बुलाया था जो अब तकलीफ में याद आ रही है?’ खासतौर से जिन लड़कियों के अधिकारों की बात कर रहे हैं उनके सामने ही सबसे अधिक संकट आ सकता है क्योंकि दुःख और तकलीफ में उसे किसी न किसी की सहायता आवश्यकता प्रतीत होती है। हां, यह बात केवल उन्हीं मामलोंे में लागू होती है जहां दोनों का पहला विवाह हो अगर किसी ने एक विवाह कर रखा है दूसरे के साथ ऐसे ही रिश्ता चला रहा है तो फिर उसके बारे में कहना तो व्यर्थ ही है। हालांकि सबसे बड़ा सवाल तो इसमें यह आने वाला है कि एक वैध विवाह करते हुए केाई दूसरे से ऐसा रिश्ता रख सकता है।

बहरहाल यह प्रथा बड़े शहरों में तो पहले ही चल रही है पर छोटे शहरों में इसका प्रचलन अभी नहीं है। वैसे जो इस कानून का विरोध कर रहे हैं उन्हें समाज का ज्ञान नहीं है। उन्हें लगता हैकि इससे तो समाज में तमाम तरह की विसंगतियां आयेंगी। उनके तर्क गलत हैं क्योंकि वह देश के युवक और युवतियों के मजबूत संस्कारों को अनदेखा कर रहे हैं। भारत में भले ही पाश्चात्य सभ्यता का बोलबाला है पर आज भी युवक युवतियों अगर किसी की तरफ आकर्षित होते हैं तो उनके मन में विवाह करने की इच्छा भी जाग उठती है। प्यार भले ही पाश्चात्य ढंग से हो पर मिलन हमेशा भारतीय तरीके से ही होता है। युवक युवतियों को एकदम बेवकूफ मानने वाले इन बुद्धिजीवियों पर तो तरस ही आता है। किसी प्रकार का तर्क वितर्क करते हुए इस बात को याद रखना चाहिये कि युवक युवतियों का खून गर्म होता है पर विषाक्त नहीं जो वह अपने अच्छे बुरे का निर्णय कर सकें। ‘बिन फेरे बने बसेरे की राह पर इतने लोग नहीं चलेंगे जितना सोचा जा रहा है और चल रहे हैं उनको रोका भी किसने था।
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