आशिक जूझ रहा था
क्रिकेट खिलाड़ी बनने के लिये
तो माशुका भी खड़ी थी
फिल्म अभिनेत्री बनने की पंक्ति में
कई उसने साक्षात्कार भी दिये।
बढ़ते जा रहे थे दोनों के कदम
इश्क के साथ
अपने लक्ष्य की तरफ भी सफलता के लिये।
पर आशिक की चिंतायें बढ़ रही थी
रौशन करना चाहता था वह अब
अपने घर में ही इश्क के दिए।
वह बोला माशुका से
‘अब तो मैं नामी खिलाड़ी बनने जा रहा हूं,
अपने रनों और विकेटों की बरसात में नहा रहा हूं,
पर डरता हूं
तुम्हारे और मेरे इश्क का क्या होगा
कहीं बिछड़ न जाये,ं
आओ अपना घर बसायें,
अपने अमर प्रेम के लिये।’
सुनकर बोली माशुका
‘क्यों घबड़ाते हो,
मैं भी सैट पर नृत्य करती हूं
जब तुम मैदान में रन बनाते होे,
हमारा बिछड़ना अब संभव नहीं,
फिल्म और क्रिकेट का
घालमेल हो गया है हर कहीं,
जब तुम नामी खिलाड़ी हो जाओगे,
मुझे भी बड़ी अभिनेत्री की तरह पाओगे,
कभी न कभी तुम्हारी भी लगेगी नीलाम बोली,
कोई टीम मैं भी खरीदूंगी
जिसमें समायेगी तुम्हारी भी टोली,
वैसे क्या रखा है दूल्हे की तरह बिकने में,
मजा है बिकाऊ क्रिकेट खिलाड़ी दिखने में,
दहेज का शब्द हो गया है बदनाम,
इसलिये नीलामी में दूंगी तुम्हें ढेर सारे इनाम,
माल तो अपने ही घर आयेगा,
हर कोई देखकर जल जायेगा,
इश्क बाजी में कीर्तिमान बनाकर रख देंगे
आने वाली पीढ़ी के लिये।
लोग गायेंगे इश्क के साथ हमारी
दौलत के भी गीत,
नहीं देखी होगी किसी ने ऐसी प्रीत,
अभी घर संसार बनाकर
गुमनामी के अंधेरे में खोकर जिये
तो फिर क्या खाक जिये।’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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सभी को बताये रास्ते पर खुद चलें, ऐसे लोग कम हैं।
दूसरे को सिखायें दांवपैंच, जो अजमाने में खुद बेदम हैं।।
हवा के झौंके से कांपने लगता है पूरा उनका बदन,
जमाने को डरपोक बतायें, अपनी बहादुरी के उनको वहम हैं।।
दूसरों की रौशनी में चले हैं पूरी जिंदगी का रास्ता,
दीपक और मशाल जलायें रोज, ऐसे लोग कम हैं।।
सह नहीं पाते दूसरे की खुशी, दुखी हो जाते हैं,
अपने मतलब की राह चले हैं वह, जहां ढेरों गम हैं।
तलवारें और ढाल थामें हैं चारों ओर लोग
कलम से शब्द लिखकर अमन लायें, ऐसे लोग कम हैं।
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भ्रष्टाचार,
अत्याचार
और व्याभिचार को भी
जाति, भाषा और धर्म के नाम पर
बांटने की कोशिश जारी है,
अक्लमंद दिखाते हैं बहादुरी
अपने अपने हिस्से की शिकायतें उठाने में
शब्द खर्च करते
दूसरे की कमियां गिनाने में
हर हादसे पर देखते हैं बस यही कि
किसके चिल्लाने की बारी है।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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भीड़ में एकता की कोशिश पर
हंसी आ ही जाती है।
जहां पहले ही
चीख रहे हैं लोग
अपनी करनी का बखान करते हुए
बंद किये हैं कान,
आंखों से ढूंढ रहे अपने लिये सम्मान,
वहां शांति के नारे की आवाज
शोर करती नजर आती है।
——-
वफादारी
खामोश जज़्बात के साथ बह जाती है।
गद्दारी के घाव से पैदा आह
दिल से निकलकर
जुबान पर आकर चीखती
तब सनसनी फैल जाती है।
यही वजह है
नाम कमाने के लिये
गद्दारी ही सभी को भाती है।
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स्वर्ग की परियां किसने देखी
स्वयं जाकर
बस एक पुराना ख्याल है।
धरती पर जो मिल सकते हैं,
तमाम तरह के सामान
ऊपर और चमकदार होंगे
यह भी एक पुराना ख्याल है।
मिल भी जायें तो
क्या सुगंध का मजा लेने के लिये
नाक भी होगी,
मधुर स्वर सुनने के लिये
क्या यह कान भी होंगे,
सोना, चांदी या हीरे को
छूने के लिये हाथ भी होंगे,
परियों को देखने के लिये
क्या यह आंख भी होगी,
ये भी जरूरी सवाल है।
धरती से कोई चीज साथ नहीं जाती
यह भी सच है
फिर स्वर्ग के मजे लेने के लिये
कौनसा सामान साथ होगा
यह किसी ने नहीं बताया
इसलिये लगता है स्वर्ग और परियां
बस एक ख्याल है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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तैश में आकर तांडव नृत्य मत करना
चक्षु होते हुए भी दृष्टिहीन
जीभ होते हुए भी गूंगे
कान होते हुए भी बहरे
यह लोग
इशारे से तुम्हें उकसा रहे रहे हैं।
जब तुम खो बैठोगे अपने होश,
तब यह वातानुकूलित कमरों में बैठकर
तमाशाबीन बन जायेंगे
तुम्हें एक पुतले की तरह
अपने जाल में फंसा रहे हैं।
————————
कवि,लेखक और संपादक, दीपक भारतदीप,ग्वालियर
http://dpkraj.blogspot.com
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किताबों में लिखे शब्द
कभी दुनियां नहीं चलाते।
इंसानी आदतें चलती
अपने जज़्बातों के साथ
कभी रोना कभी हंसना
कभी उसमें बहना
कोई फरिश्ते आकर नहीं बताते।
ओ किताब हाथ में थमाकर
लोगों को बहलाने वालों!
शब्द दुनियां को सजाते हैं
पर खुद कुछ नहीं बनाते
कभी खुशी और कभी गम
कभी हंसी तो कभी गुस्सा आता
यह कोई करना नहीं सिखाता
मत फैलाओं अपनी किताबों में
लिखे शब्दों से जमाना सुधारने का वहम
किताबों की कीमत से मतलब हैं तुम्हें
उनके अर्थ जानते हो तुम भी कम
शब्द समर्थ हैं खुद
ढूंढ लेते हैं अपने पढ़ने वालों को
गूंगे, बहरे और लाचारा नहीं है
जो तुम उनका बोझा उठाकर
अपने फरिश्ते होने का अहसास जताते।।
————–
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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अख़बारों में छपे बड़े बड़े शख्सों के
बयान अब आखों से आगे बढ़कर
दिल की गहराई में नहीं जाते.
ढेर सारा कागज़ का भंडार है चारों तरफ
उसे खाने के लिए अक्षर पक्षी चाहिए
स्याही की बह रही हैं धारा,
मिलना जरूरी है उसको भी किनारा,
बाज़ार के सौदागर केवल शय ही नहीं बेचते,
ज़माने पर काबू रखने का भी खेल खेलते,
उनका खामोश रहना जरूरी है
इसलिए बोलने के लिए वह इंसानी बुत लाते.
जो बाज़ार के लिखे शब्दों पर बस होंठ हिलाते.
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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साली और भाभी पर जो
कोई ख्याली शेर लिखा
पढ़ते हुए उसे लोगों का ढेर दिखा।
जो बयान किये दर्द जमाने के
उसे पढ़ने से कतराये सभी
कैसा यह फेर दिखा।
……………………….
जिनके दिल में दर्द है
भला वह उससे सजे शब्द पढ़कर
क्या पायेंगे
जिनके दिमाग और घर हैं
खुशी और दुःख से खाली
वह ढूंढ रहे हैं किताबों और कंप्यूटर पर
कल्पित साली और भाभी
मनोरंजन घर की है उनके लिये यही चाभी
बढ़ गयी है पूरी दुनियां
देश के जवान अभी पीछे हैं
सीख ली अंग्रेजी
पहुंच गये ऊपर पर
नजरें अभी भी नीचे हैं
अपनी कभी रास न आये घरवाली
कहीं ढूंढे भाभी तो कहीं साली
बरसों पहले भी यही था
अब भी यही चला रहा है
जमाने में कभी नहीं फेर दिखा
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उतरा मूंह लेकर फंदेबाज
घर आया और बोला-
‘दीपक बापू,
बड़ा बुरा दिन आया
हाईस्कूल के इम्तहान में
मोहल्ले के बच्चों ने डुबाया नाम
होकर बुरी तरह फेल
आदर्श मोहल्ला बनाने का हमारा इरादा था
पर बिगड़ गया सारा खेल।‘
उसकी बात सुनकर
आंखों और नाक पर लटके चश्में के बीच से
झांकते हुए बोले दीपक बापू
‘’तुम कभी अच्छी खबर भी कहां लाते हो
दर्द उभार कर कविता लिखवाते हो
मगर खैरियत है तुम यहां आये
इम्तहान के परिणाम से दुःखी मोहल्ले वालों ने
नहीं की होगी पाश्च् समीक्षा
इसलिये ही यहाँ पहुंच पाये
वरना तुम भी क्या कम हो
मोहल्ले का पीछा नहीं छोड़ते
हमारी नज़र में तुम वह गम हो
बीस ओवरीय प्रतियोगिता में
देश क्या जीता
बाजार के साथ तुम्हारे हाथ लग गया
जैसे जनता को बहलाने वाला एक पपीता
बच्चों को क्रिकेटर बनने का सपने दिखाने लगे
स्कूल में पढ़ते क्या बच्चे
उनके नाम क्रिकेट कोच के पास लिखाने लगे
एक दिन की बात होती तो समझ में आती
डूबते क्रिकेट में एक छोटे कप की जीत से
फट गयी पूरे देश की छाती
किकेट मैच होता था कभी सर्दियों में
अब तो होने लगा गर्मियों में
कुछ बच्चे खेलते हैं
तो कुछ अपने पैसे का दांव भी पेलते हैं
फिर भारतीय आदर्श प्रतियोगता का
प्रचार माध्यमों में प्रचार
इधर रीयल्टी शो की भरमार
लाफ्टर शो में बेकार की मजाक
समझ कोई नहीं रहा पर सब रहें हैं ताक
तुम भी तो अपने बच्चों को
आदर्श मोहल्ला बनाने के नाम पर
क्रिकेट, संगीत, और नृत्य सीखने के लिये
संदेश दिया करते थे
कहीं जाकर इनाम जीतें
इसलिये रोज उनका प्रगति प्रतिवेदन लिया करते थे
जब बच्चों के पढ़ने की उम्र है
तब उन पर टिका रहे हो
उनके माता पिता और पड़ौसी होने के प्रचार का
कभी पूरा न हो सकने वाला खेल
बिचारे, कैसे न होते फेल।
गनीमत है जिन छोटे शहरों को
अभी बेकार के खेलों की हवा नहीं लगी है
वहीं शिक्षा की उम्मीद बची है
वहीं परिणामों का प्रतिशत अच्छा रहा है
क्योंकि वहां के बच्चों ने आधुनिकता से
परे रहने की कमी को सहा है
पास होकर निकल पड़े तो
ऐसे खेल और खिलाड़ी उनके पीछे आयेंगे
समय के साथ वह भी मजे उठायेंगे
हमारा संदेश तो यही है कि
हर काम और कामयाबी का अपना समय होता है
जिंदगी में बिना सोचे समझे
चल पड़ने से आती है हाथ नाकामी
सेवा करते हुए ही बनता कोई स्वामी
समय से पहले मजे उठाने के लिये
जो खेलते हैं खेल
वही होते हैं हर इम्तहान में फेल।’’
————————
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