Tag Archives: श्रीगीता

मनु स्मृति-प्रमाद और अहंकार मनुष्य को नष्ट कर देता है (entertainment and proud danger for man-manu smriti)


प्रकृतिव्यसननि भूतिकामः समुपेक्षेत नहि प्रमाददर्पात्। प्रकृतिव्यवसनान्युपेक्षते यो चिरातं रिपवःपराभवन्ति।।

                   विभूति की कामना से उत्पन्न प्रमाद और अहंकार की प्रकृति से उत्पन्न व्यसन की उपेक्षा न करें। प्रकृत्ति की व्यसनों की उपेक्षा करने वाला शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।

                        प्रकृति के पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है। जिनके पास भौतिक उपलब्धि है वह उसके आकर्षण में बंधकर मतमस्त हो जाते हैं। दूसरे को गरीब या अल्पधनी मानकर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। मज़ाक न उड़ाये तो भी शाब्दिक दया दिखाकर अपने मन को शांति देने का प्रयास करते हैं। दरअसल यह सब दूसरों से ही नहीं बल्कि अपने साथ भी प्रमाद करना ही है। इस संसार में भगवान की तरह माया का खेल भी निराला है। किसी के पास कम है तो किसी के पास ज्यादा है, इसमें मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है। यह अलग बात है कि अज्ञानवश वह अपने को कर्ता मान लेता है। इसी कारण वह कभी प्रमाद तो कभी अहंकार के भाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है।
                        आज हम देश के हालात देखें तो यह बात समझ में आ जायेगी कि जिन लोगों के पास धन, प्रतिष्ठा और पद की उपलब्धि है वह दूसरे को अपने से हेय समझते हैं। नतीजा यह है कि आम इंसानों में उनके प्रति विद्रोह के बीज पड़ गये हैं। शिखर पुरुषों को यह भ्रम है कि आम आदमी उनसे जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्र के बंटवारे के कारण उनसे जुड़े हैं जो कि उनके किराये के बुद्धिजीवी बनाकर रखते हैं। मगर सच तो यह है कि शिखर पुरुषों से अब किसी की सहानुभूति नहीं है। भले ही प्रचार माध्यम कितने भी दावा करें कि जनता प्रसिद्धि लोगों को देखना और सुनना चाहती है। अब तो हर आदमी यह जान गया है कि शिखर पर अब बिना ढोंग, पाखंड या बेईमानी के कोई नहीं पहुंच सकता। अगर ऐसा न होता तो देश के अनेक शिखर पुरुष अपने घरों के बाहर सुरक्षा उपाय नहीं करते। इतना ही नहीं अनेक तो राह चलते हुए भी सुरक्षा लेकर चलते हैं। इसका मतलब सीधा है कि अपने ही कारनामों को उनके अंदर भय व्याप्त है। गरीबों से भरे देश में सुरक्षा एक मुद्दा बन गयी है।
फिर अब शिखर पर भी झगड़े होने लगे हैं। एक जाता है तो दूसरा आ जाता है। यह अस्थिरता इसलिये हैं क्योंकि प्रमाद और अहंकार में लगे शिखर पुरुष जल्दी जल्दी अपना आकर्षण खो देते हैं। शिखर बैठकर वह अपने वैभव का प्रदर्शन कर वह एक दूसरे को प्रभावित तो कर सकते हैं पर आम आदमी को नहीं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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कबीरदास साहित्य-सूर्य के उगते ही चाँद छिप जाता है (surya aur chaandrama-kabirdas sahitya)


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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तारा मण्डल बैठि के, चांद बड़ाई खाय।
उदै भया जब सूर का, तब तारा छिपि जाय।।

आसमान में तारा मंडल में बैठकर चांद बढ़ाई प्राप्त करता है पर जैसे ही सूर्य नारायण का उदय होता है वैसे ही तारा मंडल और चंद्रमा छिप जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां अज्ञान होता है वह थोड़ा बहुत ज्ञान रट लेते हैं और उसी के सहारे प्रवचन कर अपने आपको विद्वान के रूप में प्रतिष्ठत करते हैं। आज के भौतिकतावादी युग में विज्ञापन की महिमा अपरंपार हो गयी है। इसने आदमी की चिंतन, मनन, अनुसंधान और अभिव्यक्ति क्षमता लगभग नष्ट कर दिया है। मनोरंजन के नाम पर लोग टीवी, अखबार तथा इंटरनेट पर सामग्री तलाशते हैं जो कि बाजार और विज्ञापन के सहारे ही हैं। इन विज्ञापनों में आदमी का सोच का अपहरण कर लिया है। उनकी सहायता करते हैं वह धार्मिक लोग जिनके पास रटा रटाया ज्ञान है और वह लोगों को तत्व ज्ञान से दूर रहकर केवल परमात्मा के स्वरूपों की कथायें मनोरंजन के रूप में सुनाकर भक्ति करवाते हैं।

सच बात तो यह है कि ज्ञान का सपूर्ण स्त्रोत है ‘श्रीमद्भागवत गीता’। पर हमारे कथित धार्मिक ज्ञानियों ने उसका केवल सन्यासियों के लिये अध्ययन करना उपयुक्त बताया है। यही कारण है कि काल्पनिक फिल्मों के नायक और नायिकाओं को देवता के रूप में प्रतिष्ठत कर दिया जाता है। लोग सत्संग की चर्चा की बजाय आपसी वार्तालाप में उनकी अदाओं और अभिनय की चर्चा करते हुए अपना खाली समय बिताना पसंद करते हैं। इन अभिनय को सितारा भी कहा जाता है-अब इन सितारों में कितनी अपनी रौशनी है यह समझा जा सकता है। वह लोग संवाद दूसरों को लिखे बोलते हैं। नाचते किसी दूसरे के इशारों पर हैं। हर दृश्य में उनके अभिनय के लिये कोई न कोई निर्देशक होता है।

उसी तरह ऐसे लोग भी समाज सेवी के रूप में प्रतिष्ठत हो जाते हैं जिनका उद्देश्य उसके नाम पर चंदा वसूल कर अपना धंधा करना होता है। इतना ही नहीं वह लोग महान लेखक बन जाते हैं जो भारतीय अध्यात्म के विपरीत लिखते हैं और जो उस पर निष्काम भाव से लिखते हैं उनको रूढि़वादी और पिछड़ा माना जाता है। कुल मिलाकर इस दुनियां में एक कृत्रिम दुनियां भी बना ली गयी है जो दिखती है पर होती नहीं है।
हमारे देश के लोगों को कथित आधुनिक विचारों के नाम पर ऐसे जाल में फंसाया गया है जिसमें चंद्रमा की तरह उधार की रौशनी लेकर अपनी शेखी स्वयं बघारने वाले ही सम्मान पाते हैं। इस जाल में वह लोग नहीं फंसते जो भारतीय अध्यात्म में वर्णित तत्व ज्ञान के पढ़, सुन और समझ कर धारण कर लेते हैं। भारतीय अध्यात्म ज्ञान तो सूर्य की तरह है जिसमें इस प्रथ्वी पर मौजूद हर चीज की सत्यता को समझा जा सकता है। यही कारण है कि व्यवसायिक कथित समाजसेवी, विद्वान, लेखक और संत उससे लोगों को परे रखने के लिये अपना सम्मान करने की अप्रत्यक्ष रूप से देते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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विदुर नीति-क्षमा के गुण को कमजोरी न समझें


एक क्षमवतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते।
यदेनं क्षमया युक्तशक्तं मन्यते जनः।।
सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं यत्नम्।
क्षमा गुणो ह्यशक्तनां भूक्षणं क्षमा।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस मनुष्य में क्षमा करने का गुण है उसका बस एक ही दोष है लोग उसे निशक्त और युक्ति रहित समझने लगते हैं। किन्तु यह समझना गलत है कि क्षमाशील पुरुष कमजोर या निशक्त हैं। क्षमा एक बहुत बड़ी ताकत है। क्षमा का गुण असमर्थ व्यक्ति के लिये गुण तथा शक्तिशाली के लिये भूषण है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह समझना गलत है कि असमर्थ पुरुष अगर क्षमाशील है तो फिर उसका वह गुण नहीं है। याद रखिये गरीब, बेसहारा और कमजोर की आह भी बहुत खतरनाक है। क्षमा का गुण केवल अमीरों और बाहुबलियों द्वारा ही धारण किया जाने वाला गुण नहीं है।
यह बात ठीक है कि क्षमा करने वाले को लोग कमजोर या डरपोक समझते हैं पर फिर भी इस गुण को छोड़ना नहीं चाहिए। अगर आप बाहुबली और धनी हैं तो क्षमा का गुण आपके लिये भूषण हैं पर आप कमजोर हैं और निर्धन हैं तो भी आपका यह गुण हैं। ऐसे में कोई बाहूबली या अमीर आपके प्रति अपराध करता है तो भी उसका हृदय से बुरा न चाहें-उसे बद्दुआ न दें-क्योंकि आह लगती है और दूसरे को सताने वाले को कभी न कभी दंड मिलता है भले ही कोई सांसरिक व्यक्ति यह काम न करें प्रकृत्ति स्वयं दंड प्रदान करती है।
बाहूबलियों ओर धनवानों पर माया का वरदहस्त होता है पर इससे वह संसार के ठेकेदार नहीं हो जाते-यह अलग बात है कि आजकल अनेक बाहुबली और अमीर इसी भ्रम में जीते हैं। उनको अपने से कमजोर और निर्धन के अपराध क्षमा करना चाहिये तभी वह समाज में सम्मान प्राप्त कर सकते हैं। इसके अगर कोई निर्धन या गरीब उनको अपने प्रति किये गये अपराध के लिये क्षमा प्रदान करता है तो उसे कमजोर या युक्तिरहित समझकर उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए।
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धर्म प्रचारकों का ज्ञान कितना प्रमाणिक-अध्यात्मिक चिंत्तन


एक टीवी चैनल का एक दृश्य है। उसमें एक अधेड़ महिला-धारावाहिकों में काम करने वाली महिलाओं को बुढ़िया इसलिये भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि परदादी होने पर भी उनके बाल काले होते हैं-कुछ बोलते हुए पढ़ रही है-‘इस संसार में क्या साथ लाये हो और क्या ले जाओगे। जो कुछ भी पास में है यही छोड़ जाओगे।’
इतने में उसका पति आता है-यह बाद में ही पता चलता है क्योंकि उसके बाल सफेद हैं-और वह उसे देखकर चुप हो जाती है। वह उससे पूछता है-‘क्या पढ़ रही हो?’
वह उत्तर देती है-‘गीता पढ़ रही हूं।’
वह कहता है-‘अच्छा कर रही हो। इस उम्र में यही ठीक रहता है।’
अपने देश के हिंदी धारावाहिक चैनलों के निर्माता दर्शकों की धाार्मिक प्रवृत्तियों का दोहन करने के लिये मनोरंजन के नाम पर उसमें कुछ दृश्य ऐसे जोड़ते हैं जिससे उसके सामाजिक होने को प्रमाणित किया जा सके-यह अलग बात है कि वह इस आड़ में कर्मकांड और अंधविश्वास वाले दृश्य भी जोड़ते जाते हैं। प्रसंगवश इन्हीं चैनलों में नारी को घर की एक निष्क्रिय सदस्य माना जाता है जो हमेशा प्रपंचों में लगी रहती है। कोई नारी स्वातंत्र्य समर्थक बुद्धिजीवी इस विचार नहीं करता और कभी कभी तो लगता है कि वह भी इन्हीं से प्रभावित होकर अपने विचार व्यक्त करते हैं।
मगर इस चर्चा का उद्देश्य यह नहीं है। हम तो बात उस दृश्य की कर रहे हैं जिसने इस लेखक को हैरान कर रख दिया। वह महिला उस किताब को पढ़ते हुए जो वाक्य बोली थी वह कहीं श्रीगीता में नहीं है। श्रीगीता के संदेशों का जो आशय है उस पर यहां चर्चा नहीं की जा रही है। जब कोई यह कहता है कि वह श्रीगीता पढ़ रहा है तो उसका मतलब यह है कि वह संस्कृत के श्लोक पढ़ रहा है या उसका अनुवाद। जो लोग नियमित रूप से श्रीगीता पढ़ते हैं वह अच्छी तरह से जानते हैं कि उसमें क्या लिखा है? यकीनन उपरोक्त वाक्य कहीं भी श्रीगीता में नहंी है।
इतना ही नहीं इन संवादों भाव भी देखें। यह वैराग्य भाव को प्रेरित करते हैं जबकि श्रीगीता मनुष्य को संपूर्ण अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करते हुए विज्ञान में विकास के लिये प्रेरित करने के साथ ही जीवन में अपने स्वाभाविक कर्म करने के लिये प्रेरित करती है-जिन पाठकों को लेखक की इस बात पर संदेह हो वह उसे लेकर किसी श्रीगीता सिद्ध के पास ही जाकर उसकी जानकारी मांगें क्योंकि अनेक संतों और धार्मिक संस्थाओं द्वारा श्रीगीता के संबंध में जो उसका आशय प्रकाशित किया जाता है वह भी श्रीगीता में नहीं है।
इस दृश्य में ऐसे दिखाया गया है कि जिनकी जिंदगी की रंगीन नहीं रही है या जिनके रोमांस की आयु बीत गयी है उन्हें ही श्रीगीता का अध्ययन करना चाहिये। शायद कुछ लोगों को अजीब लगे पर सच यह है कि श्रीगीता का अध्ययन करने का समय ही युवावस्था है जिसमें लोग गल्तियां अधिक करते हैं। यही वह आयु होती है जिसमें पाप और पुण्य अर्जित किये जाते हैं। ऐसे में श्रीगीता का अध्ययन करने से ही वह बुद्धि प्राप्त होती है जो न केवल जीवन के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाती है बल्कि स्वयं को गल्तियां करने से भी बचाती है।
अब आते हैं मुख्य बात पर।
आमतौर से हिंदी, हिन्दू और हिन्दुत्व को लेकर अनेक प्रकार की बहसें चलती हैं। निश्चित रूप से इसमें बुद्धिजीवी अपनी विचाराधाराओं के अनुसार विचार व्यक्त करते हैं। देश में लोकतंत्र है और इसमें कोई आपत्ति नहीं है पर यह प्रश्न तो उठता ही है कि वह जिन ग्रंथों को लेकर भारतीय धर्म की आलोचना करते हैं क्या वह उन्होंने पढ़े है? मगर यह सवाल केवल आलोचकों से ही नहीं वरन् भारतीय धर्मों के समर्थकों से भी है।
आलोचकों ने भारतीय धर्म का आधार स्तंभ मानते हुए वेदों और मनुस्मृति से चार पांच श्लोक और तुलसीदास का एक दोहा ढूंढ लिया है जिसे लेकर वह भारतीय धर्म पर बरसते हैं मगर समर्थक भी क्या करते हैं? वह दूसरे धर्मों के दोष गिनाने शुरु कर देते हैं। मतलब भारतीय धर्म के आलोचकों और प्रशंसक दोनों ही नकारात्मक सोच के झंडाबरदार हैं। नकारात्मक बहस में शब्द और वाणी में आक्रामकता आती है और प्रचार माध्यमों के लिये वह इसलिये रोचक हो जाती है।
देश का एक बहुत बड़ा बुद्धिजीवी समुदाय बहस बहुत करता है पर न तो वह भारतीय अध्यात्म ज्ञान की जानकारी रखता है और न ही रखना चाहता है। इसकी उसे जरूरत ही नहीं है क्योंकि प्रचार माध्यम उनको वैसे ही प्रसिद्ध किये दे रहे हैं। इससे हुआ यह है कि जिन लोगों के नाम के साथ भारतीय धर्म की पहचान लगी हुई है वह अध्यात्मिक ज्ञान को समझे बगैर ही उसका प्रचार प्रसार करते हैं-बशर्त इससे उनको व्यवसायिक लाभ होता हो। वह धारावाहिक जिन लोगों ने देखा होगा उनका मन उस निर्माता, निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्री के प्रति अंधश्रद्धा से भर गया होगा-वाह क्या दृश्य है?
इधर भारतीय धर्म के व्यवसायिक साधु और संतों ने भी कोई कम हानि नहीं पहुंचाई है। अधिकतर प्रसिद्ध संतों और साधुओं ने अनेक तरह की संपत्ति का निर्माण किया है-हमें इस पर भी आपत्ति नहीं है क्योंकि लोग सभी जानते हैं और फिर भी उनके पास जाते हैं। यह लेखक भी कभी कभार उनके प्रवचनों में चला जाता है क्योंकि वही जाकर पता लगता है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान क्या है और उसे बताया किस तरह जा रहा है?
आज श्री बालसुब्रण्यम का एक आलेख पढ़ा जिसमें उन्होंने भक्तिकाल के साहित्य को सामंतशाही के विरुद्ध एक आंदोलन निरुपित किया। यह एक नया विचार था। उन्होंने वर्ण संबंधी ऐसे श्लोकों और दोहों की भी चर्चा की जिनको लेकर भारतीय धर्म को बदनाम किया जाता हैं। इस लेखक ने अपनी टिप्पणी लिखी जिसका आशय यह था कि भारतीय भाषाओं में अनेक बातें व्यंजना विद्या में लिखे जाने की प्रवृत्ति है और विदेशी पद्धति से चलने वाले विद्वानों उसका केवल शब्दिक या लाक्षणिक अर्थ लेते हैं।

सच बात तो यह है कि इस देश को सांस्कृतिक या धार्मिक खतरा विदेशी भाषाओं, विचारधाराओं और उनके प्रचारकों से नहीं बल्कि देश के लोगों की बौद्धिक गरीबी से है जो भले ही अंग्रेजी नहीं जानते पर उस पर आधारित शिक्षा पद्धति से शिक्षित होने के कारण बाहरी आवरण से अपनी भाषा और संस्कृति में रंगे जरूर लगते हैं पर भावनात्मक रूप से बहुत परे हैं। वह व्यवसायिक प्रचार माध्यमों और कथित साधु संतों की बातों से अपने अध्यात्म को समझते हैं जो उनको कर्मकांडों और अंधविश्वासों से कभी बाहर नहीं निकलने देती।
देश की फिल्मों, टीवी चैनलों, और व्यवसायिक प्रकाशनों में ऐसे ही अल्पज्ञानी लोग भारतीय धर्म के पैरोकार बनते हैं जो आलोचकों के वाद और नारों का उत्तर भी वैसा ही देते हैं जिनसे बहस और अभियानों का परिणाम नहीं निकलता।
हमें किसी की सक्रियता पर कोई आपत्ति नहीं करना चाहिए मगर जब यह बातें सामने आती हैं तो अपना दायित्व समझते हुए सचेत करना अपना कर्तव्य समझते हैं कि पहले भारतीय अध्यात्म ज्ञान को समझें फिर उसके समर्थन में आगे बढ़ें। यहां यह भी बता दें श्रीगीता में कोई लंबा चैड़ा ज्ञान भी नहीं हैं। न ही उसमें कोई रहस्य छिपा है-जैसा कि कुछ विद्वान दावा करते हैं। पढ़ने में समझ में सब आ जायेगा मगर पहले यह देखना होगा कि संकल्प किस तरह का है। अगर आप उससे सीखने और समझने के लिये पढ़ रहे हैं तो उसका ज्ञान स्वतः आता जायेगा। अगर आप ऐसे सिद्ध बनने की कामना करते हुए पढ़ना चाहते हैं जिससे ढेर सारे लोग गुरु मानकर पूजा करें तो ं तो फिर कुछ नहीं होने वाला। फिर तो आप प्रसिद्ध ज्ञानी जरूर हो जायेंगे। लोग आपके ज्ञान को श्रीगीता का ही ज्ञान कहेंगे मगर जो उसके नियमित पढ़ने वाले होंगे वह आपके पाखंड को समझ जायेंगे।
यहां कुछ उदाहरण देना अच्छा रहेगा
कई जगह लिखा मिल जाता है कि
1. ‘भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि कर्म ही मेरी पूजा है’।
स्पष्टीकरण-
पूरी श्रीगीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहीं भी ऐसा नहीं कहा। हां, उसमें निष्काम कर्म करने की प्रेरणा दी गयी है पर उसे भी अपनी पूजा नहीं कहा।
2.‘भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि सभी जीवों पर दया करो।’
स्पष्टीकरण-
श्रीगीता में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा गया बल्कि उसमें निष्प्रयोजन दया का संदेश है।
लेखक द्वारा यह चर्चा करने का उद्देश्य स्वयं को सिद्ध प्रमाणित करने के लिये नहीं किया जा रहा है बल्कि इस आशा के साथ किया जाता है कि अगर कोई ज्ञान में कमी हो तो उसमें सुधार किया जाये। शेष फिर कभी
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नस्लवाद और गुणों का स्वरूप-आलेख


शायद कुछ समाज सुधारकों को यह बुरा लगे पर सच यही है कि इस धरती पर पैदा हर जीव की नस्ल होती है और उसमें कुछ स्वाभाविक गुण जन्मजात होते हैं जिनमें इंसान भी शामिल है। इंसानों में नस्ल होती हैं यही कारण है कि शरीर विज्ञान के विशेषज्ञ अनेक प्रकार के जींसों की मौजूदगी अलग अलग लोगों में अलग अलग रूप से देखते हैं। हां, इतना अवश्य है कि अन्य जीवों से पृथक इंसान अपनी बुद्धि की व्यापकता के कारण अभ्यास से जन्मजात गुणों से प्रथक गुण भी प्राप्त करता है और दुर्गुणों से मुक्ति भी इनसे मिल जाती है।
जींसों के विषय में इस लेखक के मित्र ने लेख लिखा था उसमेें यह बताया गया था कि किस तरह कुछ जातियों के लोग गोरे और कुछ के काले होते हैं। इतना ही नहीं विचार और काम करने की शैलियां और तरीके भी अलग अलग स्थानों पर होने के बावजूद एक जैसे होते हैं जबकि उनका आपस में कोई संपर्क नहीं होता।
अगर कोई गोरा दंपत्ति ऐसे स्थान पर होता है जहां कालों की बहुतायत है उसके बच्चे भी गोरे होते हैं और कहीं काला दंपत्ति अगर गोरा बाहुल्य इलाके मेें हुआ तो उसका बच्चा भी काला होता है। उस मित्र से लेख पर चर्चा हुई थी तब इस लेखक ने उससे पूछा था कि-‘क्या जलवायु और अन्न जल मनुष्य के मूल स्वभाव को प्रभावित नहीं करता?
उसने कहा कि‘-नहीं।’
लेखक ने पूछा-‘क्या तुम्हारे मेरे स्वभाव में अंतर केवल जाति या नस्ल के कारण है या जलवायु भी इसमें शामिल है। वैसे इस समय हम दोनों एक ही स्थान का अन्न जल ग्रहण कर रहे हैं।’
मित्र हंस पड़ा और उसने कहा-‘शायद दोनो कारण से ही अंतर है। जाति और जन्म स्थान अलग अलग होने से हमारे स्वभाव और विचारों में अंतर हो सकता है।’
फिर कुछ देर बाद चुप रहने के बाद वह बोला-‘शिक्षा प्रणाली और धार्मिक साम्यता के कारण हम दोनों कई मसलों पर एक ढंग से सोचते हैं। कई मसलों पर सहमत हों सकते हैं पर अभिव्यक्ति की शैली में अंतर हो सकता है जो शायद जाति, जलवायु और के साथ हमारे वर्तमान जीवन स्तरों से कहीं न कही जरूर प्रभावित होगा।’
वह स्पष्ट जवाब नहीं दे रहा था पर उसने अपने लेख में जातियों की नस्ल को लेकर कहीं दूसरे स्थान से प्रकाशित लेख उठाकर उस पत्रिका में लिखा था जिसमें इस लेखक का व्यंग्य भी था। वह पत्रिका इस लेखक के पास अल्मारी में जमा है और ढूंढने पर वह लेख लिखने का प्रयास किया जायेगा। वह स्वयं उस लेख का महत्व नहीं समझ सका। उस दिन जब उससे उस लेख की तारीख मांगी तो उसने उस लेख का शीर्षक और विषय बताया जो इस लेखक का था। जब भी नस्ल को लेकर कहीं चर्चा होती है उस मित्र का लेख अक्सर याद आता है। उस लेख में नस्ल से मनुष्य की देह और बुद्धि के प्रभावित होने के सिद्धांत की पुष्टि करते हुए भारत के जातिगत ढांचे की सार्थकता प्रमाणित करने का प्रयास उसमें किया गया था पर लेखक स्वयं उसमें अपनी कोई राय नहीं दे सका।
बहरहाल नस्ल का संबंध देह से इसलिये उससे जुड़ी तीनों प्रकृतियां-बुद्धि, मन और अहंकार-प्रभावित होती हैं पर दूसरा सच यह है कि सभी जगह लोगों का स्वभाव एक जैसा नहीं होता। सभी जगह अपराधी नहीं होते तो सभी पुण्यात्मा भी नहीं होते। धोखा, मक्कारी, अपराध और अनावश्यक रूप से दूसरे को सताने की घटनायें सभी जगह होती है तो बचाने वाले भी सभी जगह होते हैं। हम कहते हैं कि अमुक जगह अमुक जाति, भाषा, क्षेत्र या धर्म से जुड़े लोगों पर हमले हो रहे हैं क्योंकि वह बाहर से वहां आये हैं। इसका आशय यह नहीं है कि सभी लोग हमला कर रहे हैं क्योंकि तब यह सवाल उठ सकता है कि स्थानीय लोगों की सहायता के बिना वहां बाहर के लोग कैसे पहुंच सकते हैं। तय बात है कि वहां एक समूह ऐसा भी है जो उनको अपने स्वार्थ की वजह से वहां रोके रहता है और वह ऐसे हमलों को पसंद नहीं करता।
मनुष्य के स्वभाव में कुछ गुण मूल रूप से होते हैं तो कुछ परिस्थितिजन्य भी उसे ऐसा कार्य कराते हैं जो वह सामान्य हालत में नहीं करता। कई बार वह भीड़ में शामिल होकर ऐसा काम करता है जो वह अकेले वह सोचता भी नहीं। तात्पर्य यह है कि किसी भी घटना को किसी समूह के स्वभाव से जोड़ना एक गलती है। दुनियां में हर देश, भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र में कवि पैदा होते हैं। उन समूहों में भी कवि मिल जाते हैं जिसके सदस्य आक्रामक माने जाते हैं।
इस लेखक का यह अनुभव रहा है कि जलवायु का प्रभाव आदमी के स्वभाव पर अवश्य पड़ता है-जिस मनुष्य का जन्म जिस स्थान पर हुआ है उसकी जलवायु का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है। उसकी देह की नस्ल कोई भी हो मनुष्य पर जन्म वाले स्थान की जलवायु का प्रभाव अवश्य दृष्टिगोचर होता है। उसके स्वभाव का जाति,भाषा और धर्म से अधिक संबंध नहीं होता। हां, जन्म के बाद इंसान कर्म अपनी बुद्धि के अनुसार वैसे ही करता है जैसा कि उसका अन्न जल होता है। यही बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। श्रीगीता का अध्ययन करने से भी इस बात की प्रेरणा मिलती है कि जैसे आदमी भोजन करता है वैसे ही उसकी बुद्धि हो जाती है और फिर कर्म भी उसी के अनुसार होते हैं। ‘गुण ही गुणों को बरतते है’-यह एक ऐसा नियम है जिसको आधुनिक विज्ञान मान्य नहीं करता क्योंकि उसमें उसे धर्म की बू आती है मगर सच यही है। इस देह में जैसा अन्न जल अन्दर जायेगा वैसी ही प्रवृत्ति होगी। अन्न जल से भी दो आशय है-एक तो उसको पाने के लिये धन का स्त्रोत अगर पवित्र नहीं है तो भी उसके सेवन का भी बुरा प्रभाव होगा और दूसरा यह कि अगर वह मांस आदि खाने से भी देह में स्थित बुद्धि भ्रष्ट होने के साथ मन में क्रूरता का भाव पैदा होता है जो अहंकार को बढ़ाता है। उससे आदमी फिर दूसरों की बाह्य देह देखकर ही दूसरे के गुणों और दुर्गुणों का अनुमान करते हुए पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर व्यवहार करता है। शायद ‘गुण ही गुणों को बरतते’ का सिद्धांत पूरे विश्व में प्रचारित किया जाये तो लोग यह समझ पायेंगे कि किस तरह उनके समूह के शीर्षस्थ लोग उनको भ्रमित कर आपस में झगड़ा कराते हैं। शेष फिर कभी।
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भर्तृहरि नीति शतक-काम पर विजय पाने की इच्छा क्या नहीं करवाती


भर्तृहरि महाराज कहते है कि
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स्त्रीमुद्रां कुसुमायुधस्य जविनीं सर्वार्थस्म्पत्करीं ये मूढ़ा प्रविहाय यान्ति कुधियो मिथ्याफलान्वेषणः।
ते तेनैव निहत्य निर्दयतरं नग्नीकृता मुण्डिताः केचित्तपंचशिखीकृताश्च जटिलाः कापालिश्चापरे।।

हिंदी में भावार्थ- जो मूर्ख लोग काम पर विजय प्राप्त करने के लिये स्त्री का त्याग करते हैं उनको कामदेव दंड देकर ही रहते हैं। उसमें कोई कोई वस्त्रहीन होकर धर्म का पालन करने लगता है तो कोई सिर मुंडवा लेता है। कोई बड़े बालों की जटा बना लेता है तो कोई भीख मांगने ही लग जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-भर्तृहरि जी का यह संदेश बहुत रोचक तथा प्रेरणादायक है। कितनी विचित्र बात है कि हमारे देश में कुछ लोग अध्यात्म ज्ञान का गलत अर्थ लेकर काम से बचने के लिये ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं। ऐसे लोग वैराग्य वेश धारण करते हैं। इनमें से कोई जीवन भर वस्त्र नहीं पहनता तो कोई अपने बाल मुंडवा लेता है। कोई सिर पर जटा धारण कर लेता है। यह सभी लोग अर्थाजन तो करते नहीं इसलिये पेट पालने के लिये उनको दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। यही कारण है कि उन्हें शिष्य बनाकर उनसे दान लेना ही पड़ता है। यह सभी अध्यात्म ज्ञान के गलत अर्थ लेने के कारण है। सच बात तो यह है कि हमारी श्रीमद्भागवत गीता आदमी को त्याग के लिये प्रेरित करती है पर उसका आशय यह नहीं है कि वह सांसरिक कार्यों से वैराग्य लिया जाये। सांसरिक कार्य करते हुए उनके फल में लिप्त न होना ही वास्तविक त्याग है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य अपने मूल स्वभाव के अनुकूल कर्म करने को बाध्य होता है-जिसका साीधा आशय यह है कि मनुष्य को अपने तन,मन और विचारों की तृष्णा शांत करने के लिये जीवन में कार्य तो करना ही है। श्रीगीता में सांख्यभाव की चर्चा है पर यह भी कहा गया है कि वह एक असंभव काम है। सांख्यभाव का मतलब यह है कि इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण-यानि आंखों से देखें ही नहीं, नाक से सांस ही न लें और कान से सुने ही नहीं। यह एक कठिन त्याग है और इसे विरले योगी ही कर पाते हैं। सभी के लिये यह संभव नहीं है। इसके बावजूद कुछ लोग सांस लेते, आंख से देखते,पांव से चलते और मुख से खाते हुए वैराग्य का ढोंग करते हैं और उनको अंततः दूसरे लोगों का आसरा लेना पड़ता है। एक तरह से कामदेव उनको दंड देते हैं।

देखा जाये तो भर्तृहरि के काल में भी ढोंगी थे और आज अधिक ही हो गये हैं। कहने को अनेक लोग वैरागी हैं पर उनके यौन प्रकरण अक्सर चर्चा में आते हैं। अनेक लोग तो वैराग्य का दिखावा करते हुए विवाह तक कर लेते हैं पर सार्वजनिक रूप से अपनी पत्नी को मानने से इंकार करते हैं। एक तरह से यह उनके स्वयं के लिये भी दुःखदायी है। वह कामदेव पर विजय प्राप्त करने का ढोंग करते हैं तो कामदेव भी उनको एक तरह से चोर और भिखारी बना देते हैं।
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व्यंग्य सामग्री के लिये संस्कृति की आड़ की क्या जरूरत-आलेख


यह कोई आग्रह नहीं है यह कोई चेतावनी भी नहीं है। यह कोई फतवा भी नहीं है और न ही यह अपने विचार को किसी पर लादने का प्रयास है। यह एक सामान्य चर्चा है और इसे पढ़कर इतना चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। हां, अगर मस्तिष्क में अगर चिंतन के तंतु हों तो उनको सक्रिय किया जा सकता है। किसी भी लेखक को किसी धर्म से प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिये पर उसे इस कारण यह छूट भी नहीं लेना चाहिये कि वह अपने ही धार्मिक पुस्तकों या प्रतीकों की आड़ में व्यंग्य सामग्री (गद्य,पद्य और रेखाचित्र) की रचना कर वाह वाही लूटने का विचार करे।
यह विचित्र बात है कि जो लोग अपनी संस्कृति और संस्कार से प्रतिबद्धता जताते हैंे वही ऐसी व्यंग्य सामग्रियों के साथ संबद्ध(अंतर्जाल पर लेखक और टिप्पणीकार के रूप में) हो जाते हैं जो उनके धार्मिक प्रतीकों के केंद्र बिंदु में होती है।
यह लेखक योगसाधक होने के साथ श्रीगीता का अध्ययनकर्ता भी है-इसका आशय कोई सिद्ध होना नहीं है। श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण की आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर हमें कोई पीड़ा नहीं हुई न मन विचलित हुआ। अगर अपनी इष्ट पुस्तक और देवता के आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर परेशानी नहीं हुई तो उसका श्रेय भी उनके संदेशों की प्रेरणा को ही जाता है।
यह कोई आक्षेप नहीं है। हम यहां यह चर्चा इसलिये कर रहे हैं कि कम से कम अंतर्जाल पर सक्रिय लेखक इससे बाहर चल रही पुरानी परंपरागत शैली से हटकर नहीं लिखेंगे तो यहां उनकी कोई पूछ परख नहीं होने वाली है। अंतर्जाल से पूर्व के लेखकों ने यही किया और प्रसिद्धि भी बहुत पायी पर आज भी उन्हें इस बात के लिये फिक्रमंद देखा जा सकता है कि वह कहीं गुमनामी के अंधेरे में न खो जायें।
स्वतंत्रता से पूर्व ही भारत के हिंदी लेखकों का एक वर्ग सक्रिय हो गया था जो भारतीय अध्यात्म की पुस्तकों को पढ़ न पाने के कारण उसमें स्थित संदेशों को नहीं समझ पाया इसलिये उसने विदेशों से विचारधारायें उधार ली और यह साबित करने का प्रयास किया कि वह आधुनिक भारत बनाना चाहते हैं। उन्होंने अपने को विकासवादी कहा तो उनके सामने खड़े हुए परंपरावादियों ने अपना मोर्चा जमाया यह कहकर कि वह अपनी संस्कृति और संस्कारों के पोषक हैं। यह लोग भी कर्मकांडों से आगे का ज्ञान नहीं जानते थे। बहरहाल इन्हीं दो वर्गों में प्रतिबद्ध ढंग से लिखकर ही लोगों ने नाम कमाया बाकी तो संघर्ष करते रहे। अब अंतर्जाल पर यह अवसर मिला है कि विचाराधाराओं से हटकर लिखें और अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचायें।
पर यह क्या? अगर विदेशी विचाराधाराओं के प्रवर्तक लेखक भगवान श्रीकृष्ण या श्रीगीता की आड़ में व्यंग्य लिखें तो समझा जा सकता है और उस पर उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है। निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया और ज्ञान-विज्ञान में अभिरुचि रखने का संदेश देने वाली श्रीगीता का नितांत श्रद्धापूर्वक अध्ययन किया जाये तो वह इतना दृढ़ बना देती है कि आप उसकी मजाक उड़ाने पर भी विचलित नहीं होंगे बल्कि ऐसा करने वाले पर तरस खायेंगे।
अगर श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण में विश्वास करने वाले होते तो कोई बात नहीं पर ऐसा करने वाले कुछ लेखक विकासवादी विचाराधारा के नहीं लगे इसलिये यह लिखना पड़ रहा है कि अगर ऐसे ही व्यंग्य कोई अन्य व्यक्ति करता तो क्या वह सहन कर जाते? नहीं! तब वह यही कहते कि हमारे प्रतीकों का मजाक उड़ाकर हमारा अपमान किया जा रहा है। यकीनन श्रीगीता में उनकी श्रद्धा होगी और कुछ सुना होगा तो कुछ ज्ञान भी होगा मगर उसे धारण किया कि पता नहीं। श्रीगीता का ज्ञान धारण करने वाला कभी उत्तेजित नहीं होता और न ही कभी अपनी साहित्य रचनाओं के लिये उनकी आड़ लेता है।
सच बात तो यह है कि पिछले कुछ दिनों से योगसाधना और श्रीगीता की आड़ लेकर अनेक जगह व्यंग्य सामग्री देखने,पढ़ने और सुनने को मिल रही है। एक पत्रिका में तो योगसाधना को लेकर ऐसा व्यंग्य किया गया था जिसमें केवल आशंकायें ही अधिक थी। ऐसी रचनायें देखकर तो यही कहा जा सकता है कि योगसाधना और व्यंग्य पर वही लोग लिख रहे हैं जिन्होंने स्वयं न तो अध्ययन किया है और न उसे समझा है। टीवी पर अनेक दृश्यों में योगसाधना पर व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति देखकर इस बात का आभास तो हो गया है कि यहां गंभीर लेखन की मांग नहीं बल्कि चाटुकारिता की चाहत है। लोगों को योग साधना करते हुए हादसे में हुई एक दो मौत की चर्चा करना तो याद रहता है पर अस्पतालों में रोज सैंकड़ों लोग इलाज के दौरान मरते हैं उसकी याद नहीं आती।
देह को स्वस्थ रखने के लिये योगसाधना करना आवश्यक है पर जीवन शांति और प्रसन्नता से गुजारने के लिये श्रीगीता का ज्ञान भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस धरती पर मनुष्य के चलने के लिये दो ही रास्ते हैं। मनुष्य को चलाता है उसका मन और वह श्रीगीता के सत्य मार्ग पर चलेगा या दूसरे माया के पथ पर। दोनों ही रास्तों का अपना महत्व है। मगर आजकल एक तीसरा पथ भी दिखता है वह दोनों से अलग है। माया के रास्ते पर चले रहे हैं पर वह उस विशाल रूप में साथ नहीं होती जो वह मायावी कहला सकें। तब बीच बीच में श्रीगीता या रामायण का गुणगान कर अनेक लोग अपने मन को तसल्ली देते हैं कि हम धर्म तो कर ही रहे हैं। यह स्थिति तीसरे मार्ग पर चलने वालों की है जिसे कहा जा सकता है कि न धन साथ है न धर्म।
अगर आप व्यंग्य सामग्री लिखने की मौलिक क्षमता रखते हैं तो फिर प्राचीन धर्म ग्रंथों या देवताओं की आड़ लेना कायरता है। अगर हमें किसी पर व्यंग्य रचना करनी है तो कोई भी पात्र गढ़ा जा सकता है उसके लिये पवित्र पुस्तकों और भगवान के स्वरूपों की आड़ लेने का आशय यह है कि आपकी सोच की सीमित क्षमतायें है। जो मौलिक लेखक हैं वह अध्यात्म पर भी खूब लिखते हैं तो साहित्य व्यंग्य रचनायें भी उनके हाथ से निकल कर आती हैं पर कभी भी वह इधर उधर से बात को नहीं मिलाते। अगर किसी अध्यात्म पुरुष पर लिखते हैं फिर उसे कभी अपने व्यंग्य में नहीं लाते।
अरे इतने सारे पात्र व्यंग्य के लिये बिखरे पड़े हैं। जरूरी नहीं है कि किसी का नाम दें। अगर आप चाहें तो रोज एक व्यंग्य लिख सकते हैं इसके लिये पवित्र पुस्तकों यह देवताओं के नाम की आड़ लेने की क्या आवश्यकता है? वैसे भी जब अब किसी का नाम लेकर रचना करते हैं और वह सीधे उसकी तरफ इंगित होती है तो वह व्यंजना विधा नहीं है इसलिये व्यंग्य तो हो ही नहीं सकती।
यह पाठ किसी प्रकार का विवाद करने के लिये नहीं लिखा गया है। हम तो यह कहते हैं कि दूसरा अगर हमारी पुस्तकों या देवताओं की मजाक उड़ाता है तो उस पर चर्चा ही नहीं करो। यहां यह भी बता दें कुछ लोग ऐसे है जो जानबूझकर अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित करने के लिये अपने ही देवताओं और पुस्तकों पर रची गयी विवादास्पद सामग्री को सामने लाते हैं ताकि अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित कर सकें। उनकी उपेक्षा कर दो। ऐसा लगता है कि कुछ लोग वाकई सात्विक प्रवृत्ति के हैं पर अनजाने में या उत्साह में ऐसी रचनायें कर जाते हैं। उनका यह समझाना भर है कि जब हम अपनी पवित्र पुस्तकों या देवताओं की आड़ में कोई व्यंग्य सामग्री लिखेंगे- भले ही उसमें उनके लिये कोई बुरा या मजाकिया शब्द नहीं है-तो फिर किसी ऐसे व्यक्ति को समझाइश कैसे दे सकते हैं जो बुराई और मजाक दोनों ही करता है। याद रहे समझाईश! विरोध नहीं क्योंकि ज्ञानी लोग या तो समझाते हैं या उपेक्षा कर देते हैं। यह भी समझाया अपने को जाता है गैर की तो उपेक्षा ही की जानी चाहिये। हालांकि जिन सामग्रियों को देखकर यह पाठ लिखा गया है उनमें श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण के लिये कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं थी पर सवाल यह है कि वह व्यंग्यात्मक सामग्रियों में उनका नाम लिखने की आवश्यकता क्या है? साथ ही यह भी कि अगर कोई इस विचार से असहमत है तो भी उस पर कोई आक्षेप नहीं किया जाना चाहिये। सबकी अपनी मर्जी है और अपने रास्ते पर चलने से कोई किसी को नहीं रोक सकता, पर चर्चायें तो होती रहेंगी सो हमने भी कर ली।
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श्रीगीता का ज्ञान हैं सत्य स्वरूप-आलेख


इस बार गुडफ्राइडे के अवसर पर वैटिकन सिटी में आयोजित एक प्रार्थना में हिन्दू धर्म के महान ग्रंथ श्रीगीता सार भी उल्लेख किया गया। इसके साथ ही वहां भारत के अन्य महानपुरुषों के संदेशों पर चर्चा हुई। श्रीगीता के निष्काम भाव तथा महात्मा गांधी के अहिंसा संदेश का भी उल्लेख किया गया। दरअसल इसका श्रेय भारत के ही एक पादरी को जाता है जिनको उनके प्रभावी भाषण बाद उनको खास प्रार्थना के लिये चुना गया था।
कुछ लोग इसे ईसाई धर्म के नजरिए में अन्य धर्म के प्रति बदलाव के संकेत के रूप में देख रहे हैं। यह एक अलग से चर्चा का विषय है पर इतना जरूर है कि भारत विश्व में अध्यात्मिक गुरु के रूप में जाना जाता है और श्रीगीता के मूल तत्वों को विश्व का कोई अन्य धर्मावलंबी अपने हृदय में स्थान देता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मुख्य बात यह है कि इसे उनकी सदाशयता माने या विद्वता? यकीनन दोनों ही बातें हैं। सदाशयता इस मायने में कि वह भारतीय विचारों के मूल तत्वों को पढ़ने और समझने में अपनी कट्टरता को आड़े आने नहीं देते। विद्वता इस मायने में कि वह उसे समझते हैं।
यहां ईसाई और हिंदूओं समाजों के आपसी एकता से अधिक यह बात महत्वपूर्ण है कि पूरा विश्व अब पुरानी धार्मिक परंपराओं पर अंधा होकर चलने की बजाय तार्किक ढंग से चलना चाहता है। विश्व में आर्थिक उदारीकरण ने जहां बाजार की दूरियां कम की हैं वही प्रचार माध्यमों ने भी लोगों के विचारों और विश्वासों में आपस समझ कायम करने में कोई कम योगदान नहीं दिया है-भले ही उसमें काम करने वाले कुछ लोग कई विषयों में लकीर के फकीर है।
वैसे देखा जाये तो आज जो आधुनिक भौतिक साधन उपलब्ध हैं उनके अविष्कारों का श्रेय पश्चिम देशों के वैज्ञानिकों को ही जाता है जो कि ईसाई बाहुल्य है। ईसाई धर्म को आधुनिक सभ्यता का प्रवर्तक भी माना जा सकता है पर उसका दायरा केवल भौतिकता तक ही सीमित है। हम यहां किसी धर्म के मूल तत्वों की चर्चा करने की बजाय उनके वर्तमान भौतिक स्वरूप की पहले चर्चा करें। अगर हम पूरे विश्व के खान पान रहन सहन और सोचने विचारने का तरीका देखें तो वह अब पश्चिम से प्रभावित है। आज भारत के किसी भी शहर में चले जायें वहा आपको पैंट शर्ट और जींस पहने लोग मिल जायेंगे और यकीनन वह भारत की पहचान नहीं है। खान पान में भी आप देखें तो पता लगेगा कि उस पर पश्चिमी प्रभाव है। इसे ईसाई प्रभाव कहना संकुचित मानसिकता होगी पर यह भी सच है कि पश्चिम की पहचान इसी धर्म के कारण ही यहां अधिक है।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे समाज पर भौतिक रूप से विदेशी प्रभाव हुआ है पर इसके बावजूद हमारी मूल सोच आज भी अपने प्राचीन अध्यात्मिक ज्ञान से जुड़ी हुई है। भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आधुनिक विश्व में भारत को पहचान दी यह भी एक बहुत बड़ी सच्चाई है-इसका विरोध करना रूढ़वादिता से अधिक कुछ नहीं है। अन्य धार्मिक ग्रंथों से श्रीगीता सबसे छोटा ग्रंथ है पर जीवन और सृष्टि के ऐसे सत्य उसमें वर्णित हैं जो कभी नहीं बदल सकते। इस संसार में समस्त जीवों का दैहिक रूप और उसके पोषण के साधन कभी नहीं बदल सकते -हां उसके वस्त्र, वाहन और व्यापर में बदलाव आ सकता है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि सृष्टि द्वारा प्रदत्त देह में मन, बुंद्धि अहंकार तीन ऐसी प्रवृत्तियों हैं जो हर जीव को पूरा जीवन नचाती हैं। इन पर नियंत्रण करना ही एक बहुत बड़ा यज्ञ है। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीगीता का सत्य सार कभी बदल नहीं सकता।
कुछ लोग इतिहास की बातें कर अपने धर्म की प्रशंसा करते हुए दूसरे धर्म की आलोचना करने लगते हैं। ऐसे लोग हर धर्म में हैं ऐसे में ईसाई धार्मिक स्थान पर श्रीगीता की चर्चा एक महत्वपूर्ण घटना है। विश्व में अनेक ऐसे धार्मिक संगठन है जो धर्म के नाम पर भ्रांति फैलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और धार्मिक सिद्धांतों से उनका वास्ता बस इतना ही होता है कि उनके पास पोथियां होती है।
एक पश्चिमी विद्वान ने ही कहा था कि भारतीय की असली शक्ति श्रीगीता का ज्ञान और ध्यान है। उसने यह बात धर्म से ऊपर उठकर प्रमाण के साथ यह बात कही थी। इतिहास लिखने में गड़बड़ियां होती हैं-लेखक अपने नायकों और खलनायकों की अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। इसलिये उसके साथ चिपक कर बैठना पौंगेपन के अलावा कुछ नहीं है।
आखिरी बात श्रीगीता के उल्लेख पर हमें अधिक प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं है। सच बात तो यह है कि हमारा समाज उससे दूर होकर चल रहा है। कहने को सभी कहते हैं कि ‘हमारे लिये वह पावन ग्रंथ हैं’पर उसका ज्ञान कितने लोग धारण करते हैं यह अलग से शोध का विषय है। पश्चिम के लोग भौतिकता से ऊब गये हैं इसलिये वह अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि रखते हैं और उसका महान स्त्रोत श्रीगीता है। पश्चिम के अनेक लोग अपने धर्म से उठकर श्रीगीता के संदेश को सर्वोत्तम मानते हैं। भारत में भी हिंदुओं के अलावा अन्य धर्म के वह लोग श्रीगीता को समझते हैं जो कट्टरता छोड़कर इसका अध्ययन करते हैं। इतना ही नहीं कबीर और रहीम जैसे महापुरुषों के संदेशों में में भी पूरा विश्व रुचि ले रहा है जिनको हम पुरानी बातें कहकर भूलना चाहते हैं। श्रीगीता का संदेश हो या कबीर दर्शन उस पर अपना अधिकार इसलिये जताते हैं क्योंकि उनका सृजन हमारे देश में हुआ पर याद रखें कि ज्ञान किसी की पूंजी नहीं होता और उसका उपयोग कोई भी कर सकता है। हमने परमाणु तकनीकी इसलिये तो नहीं छोड़ी कि उसका पश्चिम में हुआ है-उसकी बिजली बनाने के अनेक संयंत्र हमारे देश में हैं-उसी तरह पश्चिम भी इसलिये तो हमारे अध्यात्म से मूंह नहीं फेरेगा कि उनका सृजक भारत है। ऐसे में उस भारतीय पादरी की प्रशंसा करना जरूरी है जिसने ईसाई धर्म के लोगों को भारतीय अध्यात्म के मूल तत्वों से परिचय कराने का निष्काम प्रयास किया है।
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स्वयं कभी छोड़ नहीं पाते पर दूसरों से कहते हैं कि अहंकार छोड़ दो-चिंतन


धर्म बेचने वालों का नारा है अंहकार छोड़ दो. उनकी बात सुनकर लोग खुश हो जाते हैं. पांच तत्वों से बनी इस देह में मन बुद्धि और अहंकार ही वह तत्व हैं जिनके हर जीव इस धरती पर विचरण करता है.आपने कुछ ऐसे लोग देखने होंगे जो पागल होते हैं. आप उनसे कुछ भी कहें पर वह आपकी बात पर ध्यान नहीं देंगे. मन उनके पास भी है और बुद्धि भी पर नहीं है तो अहंकार. वह खाते-पीते हैं और बात करते हुए मुस्कराते हैं पर फिर खामोश भी हो जाते हैं. उनके पास अपने मनुष्य होने का अहंकार नहीं है और वह निरीह हो जाते हैं और हर कोई उन पर तरस खाता है.

कई बार आपने देखा होगा ऊंचे मंचों पर बैठे साधू-संत अपने भक्तों से कहते हैं”अहंकार छोड़ दो”. आर फिर मुस्कराते हुए लोगों की तरफ देखते हैं जैसे कोई बहुत बड़ा राज उजागर किया है. लोग भी खुश हो जाते हैं कि उन्होने कोई बडे रहस्य से पर्दा उठाया है. उनका धर्म बेचना व्यवसाय है यह बात जानते हुए भी उसे धारण नहीं कर पाते और उनके पास जाते हैं वजह मन हो गया खाली और बुद्धि से काम लेना नहीं है तो अहंकार है कहाँ जो वह आत्ममंथन करे. विचार करे कि इस देह से अहंकार कभी जा नहीं सकता. निरंकार की उपासना करने की जा सकते हैं पर निरंकार रहा नहीं जा सकता.

मंच पर बैठ संत जो बोलते हैं और उसके बाद क्या होते हैं यह कई लोग जानते हैं. अभी जब सात बाबा रंगे हाथों काले धन को सफ़ेद बनाते हुए पकडे गए थे उनमें एक एसे बाबा भी थे जो कई बार कृष्ण कथा करते हुए श्रीगीता के बारे में बोलते हैं और एक ही नारा-अंहकार मत करो. उनकी बातों में जो अंहकार था वह देखने योग्य था और में तो उनके तारीफ करूंगा को उन्होने अपने अहंकार को नियंत्रित किया और धर्म के शिखर पर जाकर विराजमान हुए. आखर व्यवसाय चाहे कोई भी हो उसे चलाने के लिए कई तरह की चालाकी की आवश्यकता होती है उसमें अहंकार पर नियंत्रण रखना जरूरी होता है.
सभी बाबाओं के बडे आश्रम हैं और उनमें फाईव स्टार होटलों जैसी सुविधाएं है आम भक्त उनसे इतनी आसानी से नहीं मिल सकता जितना किसी धनी व्यक्ति कि लिए संभव है. वह कहते है कि’ मन को स्वच्छ रखो और बुद्धि को सात्विक क्योंकि इनको देह से अलग नहीं किया जा सकता. फिर अंहकार छोड़ने का नारा वह क्यों लगाते हैं? भगवान् श्री कृष्ण तो कहते हैं कि तीन गुणों से -सात्विक, राजसी और तामस- परे हो जाये वही योगी है. वह इन्द्रियों पर नियंत्रित करने के लिए कहते हैं जिसका आशय यह है कि अंहकार को भी वैसे ही काबू में रखा जाये जैसे बुद्धि और मन को. अहंकार देह का एक हिस्सा है जो उसके नष्ट होते तक रहता है. उस पर नियंत्रण तो किया जा सकता है पर छोडा नहीं जा सकता.

धर्म बेचने वाले तथाकथित संतों को अहंकार पर नियंत्रण की विधि नहीं मालुम इसलिए उसे छोड़ने का नारा लगते हैं-अंहकार पर नियंत्रण की विधियां मालुम होती तो वह धर्म बेचने का व्यवसाय ही नहीं कर पाते. सबसे बड़ी बात यह हैकि भगवान् श्री कृष्ण ने गीता के ज्ञान का केवल अपने भक्तों में प्रचार की अनुमति दी है और यह चाहे जहाँ उसे सुनाने लगते हैं. इस तरह देश के लोगों की मानसिकता को ही गुलाम बना दिया है . इसी कारण हमारे देश के लोगों को वाद और नारों पर चलने का लिए अभ्यास हो गया है और इसलिए यह देश बरसों तक गुलाम रहा और आज भी गुलामी से रह रहा है. जिनके पास थोडी बहुत चतुराई हैं वह यहाँ शासन उन्हीं लोगों के सहारे करते हैं जो धर्म के नाम पर नारे लगाते हैं. (क्रमश:)

यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’ पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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बैंक कर्मचारी हड़ताल न कर आम आदमी की सेवा करें-आलेख


बहुत मुश्किल हो गया। अंतर्जाल पर ब्लाग पर ऐसी कठिनाई आयेगी यह कभी नहीं सोचा था। मैं कंप्यूटर पर बैठते ही अपने ब्लाग/पत्रिकाओं की दुर्दशा का अध्ययन कर लिखने का विचार करता हूं। सब ठीक ठाक होता है अगर सही राह पर चलें पर अगर कहीं यह विचार आता है कि किसी का ब्लाग पढ़ो तो पता लगता है कि जिस विषय पर सोचा था उसकी जगह कोई दूसरा आ जाता है। हालांकि अगर किसी की कविता पढ़ो तो कोई बात नहीं क्योंकि उस पर हम भी अपनी कविता लिखकर टिप्पणी कर दोहरा लाभ उठा लेते हैं। एक तो टिप्पणी लिख ली और अपना पाठ भी लिख लिया। मगर कोई आलेख हुआ तो?

एक के बाद एक विचार आते जाते हैं और अगर आलेख जोरदार हुआ तो विचार इतने आ जाते हैं कि पहले सोचा गया विषय हल्का लगने लगता है। ऐसा न हो अगर टिप्पणी लिखने का विचार नहीं आये। होता यह है कि जब किसी आलेख या कविता को पढ़ता हूं तो एक आम पाठक होता हूं पर टिप्पणी लिखने का विचार उसे वहां से भगा देता है। यानि या तो कोई ब्लाग न पढ़ूं या टिप्पणी लिखने का विचार ही छोड़ दूं। दोनों ही काम मुश्किल है।

मगर ऐसा बहुत दिनों बाद हुआ कि कोई आलेख पूर्व में सोचे गये विषय को ध्वस्त कर गया। यह उस पर टिप्पणी लिखने के विचार से ही हुआ।

पहले सोचा था कि आज बैंक हड़ताल पर लिखूंगा। बैंक कर्मचारी अक्सर हड़ताल कर देते हैं। भारत मे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बहुत महत्व रखते हैं। जब इन सार्वजनिक बैंकों का पूरे कारोबार पर एकाधिकार था तब उनकी हड़ताल से देश की जनता बहुत परेशान होती थी। यही कारण था कि सरकारें उनकी मांगे मान लेती थी। अब तो निजी क्षेत्रों में बैंक आ गये हैं इसलिये इनका एकाधिकार नहीं रहा पर सरकारी सरंक्षण के कारण आज भी उनकी विश्वसनीयता है और आज भी छोटे बचतकर्ता इनके सहारे हैं और बाजार में उनका महत्व आज भी यथावत है। ऐसे में बैंक कर्मचारी अपनी हड़ताल से देश की आर्थिक चाल को अस्त व्यस्त कर देते हैं। मगर अब उनको अब कई ऐसी बातें समझनी होंगी जो उनको कोई कहता नहीं है।
वह अपनी वेतन वृद्धि तथा अन्य मांगों के लिये आंदोलन करें पर हड़ताल जैसे हथियार से दूर ही रहें तो शायद देश के लिये अच्छा हो। अभी हाल ही में बैंक कर्मचारियों ने हड़ताल की थी तो उसमें उनकी एक मांग ‘कृपा नियुक्ति’ ( किसी कर्मचारी की सेवानिवृत्ति से पूर्व मृत्यु हो जाने पर उसके आश्रित को नौकरी देने की सुविधा) भी शामिल थी। आखिर यह नौबत क्यों आयी? इससे पहले ऐसी मांग क्यों नहीं रखी गयी थी।

इसका कारण यह था कि तब बैंकों में नियमित भर्तियां हो रहीं थीं और कर्मचारियों को भरोसा था कि उनके बच्चे यहीं नहीं तो वहां लग जायेंगे। अब ऐसा होना बंद हो गया क्योंकि देश में धीरे धीरे निजीकरण बढ़ रहा है और अनेक निजी बैंक उनके ग्राहक छीनते जा रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के ग्राहक कर्मचारियों के रूखे और असहयोगी व्यवहार के कारण ही इन निजी बैंकों की तरफ आकर्षित हुआ है। इस पर ऐसी हड़तालें उनको और अधिक निजी बैॅकों की तरफ जाने को प्रेरित करेंगी। शायद कुछ बैंक कर्मचारी इस आलेख को पढ़कर नाराज हो जायें पर सच्चाई को जानकर अगर वह आत्म मंथन करें तो वह न स्वयं अपनी आने वाली पीढि़यों बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को नई दिशा दे सकते हैं। उनको अपने आंदोलन के लिये जापानी तरीका इस्तेमाल करना चाहिये जिसमें कर्मचारी अधिक काम करने लगते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को यह बात समझ लेना चाहिये कि उनके प्रति जो आम आदमी का रुझान है वह सरकारी संरक्षण से है न कि उनके कामकाज के कारण। लोग उनके व्यवहार से अत्यंत नाराज हैं। जरा वह इन शिकायतों पर गौर फरमायें
1.ए.टी.एम. से नकली नोट निकल रहे हैं।
2.ए.टी.एम. से ऐसे कटे फटे नोट निकल रहे हैं जिन्हें वह कभी स्वयं ग्राहक से नहीं लेते।
3.अपने यहां आने वाले अपढ़ बचतकर्ताओं पर कभी तरस नहीं खाते और उनको फार्म आदि भरने पर मदद नहीं करते न ही पूछने पर कोई सार्थक जानकारी देते हैं।
और भी ढेर सारी शिकायतें हैं जिससे लगता है कि उनकी कार्यक्षमता संदिग्ध है। बैंक कर्मचारी कहेंगे कि यह तो सभी सरकारी विभागों में हैं पर यह कर्मचारी अन्य विभागों से अपने ‘अधिक श्रेष्ठ और प्रमाणिक’ होने को दावा भी करते हैं और समाज में सम्मान पाते है। एक बार दूसरी भी है कि ऐसा अनेक उदाहरण है कि एक ही दिन भर्ती हुए अन्य विभाग के कर्मचारी और बैंक में भर्ती हुए कर्मचारी के बीच समान पद पर डेढ़ से ढाई गुने तक वेतन में अंतर है। अभी छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के बावजूद भी इन बैंक कर्मचारियों को वेतन उनसे अधिक रहने वाला है। दूसरे विभागों के कर्मचारी पदोन्नति कभी छोड़ने के लिये तैयार नहीं होते जबकि बैंक कर्मचारी अपने शहर में बने रहने के लिये उसे लेने की भी नहीं सोचते-अपवाद स्वरूप कुछ लोग लेते हैं। इसका कारण यह है कि व्यवसायिक जगत से संबंध होने के नाते वह अपने अलग से भी व्यवसाय कर सकते हैं।

पहले तो कोई बात नहीं थी पर अब निजीकरण के कारण बैंक कर्मचारियों को इस पर विचार करना होगा कि कहीं उनके शीर्षस्थ लोग निजी बैंकों की तरफ लोगों को और अधिक आकर्षित करने के लिये जाने और अनजाने रूप से हड़ताल का नारा तो नहीं दे रहे। यह आवश्यक नहीं हैं कि वह षड़यंत्र रच रहे हों पर एक बात तय है कि आम आदमी की सहानुभूति उनके साथ नहीं है और उनकी हड़ताल गुस्सा भर देगी और वह आर्थिक मंदी में भविष्य में डांवाडोल होने की संभावना वाले निजी बैंकों की तरफ जा सकता है।

इस आर्थिक मंदी में भारत की आर्थिक सुरक्षा के प्रति लोग आश्वस्त हैं तो केवल इसलिये कि सार्वजनिक बैंकों को सरकारी संरक्षण मिला हुआ है। अमेरिका में निजी बैंक डांवाडोल हो रहे हैं ऐसे में भारत के सार्वजनिक बैंकों में कार्यरत कर्मचारियों को सोचना होगा। वह इसका जिम्मा आम आदमी पर न डालें वह उनसे नाराज होकर निजी बैंको पर अपना भविष्य का दांव लगा सकता है उसकी हानि होगी वह निपट लेगा पर बैंक कर्मचारी तो समझदार हैं इसलिये उनको अब उनको ऐसी हड़तालों से दूर रहना होगा। इसकी बजाय वह आम आदमी से और अधिक सौहार्द पूर्ण व्यवहार करने लगें। आम आदमी से मधुर भाषा में बात करने के साथ कम और अपढ़ बचतकर्ताओं को फार्म भरने के अलावा उनको अधिक बचत वाली योजनाओं में पैसा लगाने के लिये प्रेरित करें। एसा व्यवहार करें कि निजी क्षेत्र में उनको मिलने की आशा भी न रहे। बैंक के प्रति जो विश्वास है वह तो सरकारी संरक्षण के कारण बना ही हुआ है। बैंक कर्मचारी अमेरिका और जापान की बातें करते हैं अब उनको अपने आंदोलन के लिये यही तरीका अपनाना चाहिये-अधिक से अधिक काम कर।

जहां तक काम के बोझ का प्रश्न है तो अधिकतर बैंक कर्मचारी अखबार पढ़ने के साथ टीवी चैनल भी देखते होंगे जिसमें ऐसे समाचार आते हैं कि कमोबेश सभी विभागों से ऐसी शिकायतें आती हैं। उन पर चर्चा एक अलग विषय है पर ए.टी.एम. की वजह से सार्वजनिक बैंकों के कर्मचारियों को राहत जितनी मिली है उसे भी सभी जानते हैं। लोग छोटी मोटी धनराशि वहीं से निकालना पसंद करते हैं। आशय यही है कि आम आदमी के प्रति उनको अपने अंदर एक खास आदमी होने का भाव लाना होगा क्योंकि वह और उनके बैंक उन्हीं के भरोसे रहे हैं।

यह सब एक तरीके से लिखना था पर विचारों का क्रम ध्वस्त हो गया। हुआ यूं कि एक प्रतिष्ठित ब्लाग लेखिका ने अपने ब्लाग पर एक आलेख प्रकाशित किया था। वह अंतर्जाल पर हिंदी को स्थापित करने के लिये प्रतिबद्ध दिखती हैं और पिछले चार पांच दिन से कुछ नहीं लिखा तो वह अपनी टिप्पणी लिख गयी थीं। संभवतः वह याद दिला रहीं थीं कि मुझे लिखते रहना चाहिये। उनके प्रकाशित आलेख में महान लेखक और मेरठ लेखन की चर्चा थी। उसमेें लिखा गया था कि अगर मेरठ के प्रकाशकों ने चालू लेखन कर पैसा कमाया पर अगर वह सार्थक लेखन को प्रकाशित करते तो इससे भी अधिक कमाते। उसमें यह भी लिखा था कि अगर यह लोग चाहते तो देश में महान उपन्यासकार उनको तीन महीने में जोरदार उपन्यास लिख कर देते।

बात सही है पर शायद देश के मूर्धन्य लेखकों ने यह बात कभी नहीं लिखी कि यहां के धनपति कमाना चाहते हैं पर किसी दूसरे को प्रतिष्ठित कर नहीं बल्कि उसे अपना गुलाम बनाकर। वह कम कमायेंगे पर किसी आम आदमी को खास लोगों की जमात में बैठने के लिये नहीं चमकायेंगे। ऐसा नहीं है कि अंतर्जाल पर इसके प्रयास नहीं होंगे पर ब्लाग स्पाट और वर्ड प्रेस के यह ब्लाग शायद ऐसा नहीं करने देंगे। उसमें एक बात सच लिखी थी कि देश के लेखक अभी नयी सोच के साथ आगे नहीं बढ़ रहे। सच मानिये तो मैं एक बात लिखता हूं कि आने वाला समय अंतर्जाल पर ब्लाग (बेवसाईटों का नहीं) का है। हिंदी की प्रगति यहां धीमी है पर याद रखिये जिसकी गति धीमी होती है उसका जीवन अधिक होता है। अब देखिये शेयर बाजार और म्यूचल फंडों की खरीद फरोख्त ने तेजी पकड़ी और जब रुकी तो गर्त में आकर गिरी। अपने लेखक होने के जितने मजे यहां ले सकता हूं ले रहा हूं। फ्लाप है और एक भी पैसा नहीं कमा रहा पर एक दृष्टा की तरह सब देख रहा हूं।

हां एक बात याद आयी। उस आलेख में लिखा था कि अनेक लेखकों और विद्वानों ने अंधविश्वासों पर जमकर प्रहार किये है और इसकी सबसे अधिक जरूरत है। यह बात स्वीकार करने योग्य हैं। बात हिंदू धर्म की करें। एक बात तय है कि हमारे धर्म में अनेक प्रकार के अंधविश्वास हैं पर उन पर प्रहार करने के लिये जरूरी है कि पहले यह समझना आवश्यक है कि उनका अध्यात्मिक ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है। अध्यात्मिक ज्ञान और धर्म तो पृथक विषय हैं। जिन लोगों ने अंधविश्वासों पर प्रहार किये तो कोई नई बात नहीं की क्योंकि यह संत शिरोमणि कबीरदास जी और कविवर रहीम पहले ही कर चुके हैं पर वह दोनों भक्ति के चरम शिखर पर रहे यही कारण है कि आज भी आज लोगों के लोकप्रिय हैं। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से शिक्षित विद्वान और लेखक अंधविश्वासों पर जमकर प्रहार करते हैं पर उनसे परे हटाने की ताकत जिस अध्यात्मिक ज्ञान में उसको वह धारण नहीं कर सके यही कारण है कि वह प्रभावी नहीं रहे। यह अध्यात्मिक ज्ञान निष्काम भक्ति से प्राप्त होता है या योग साधना के साथ ही श्रीगीता के अध्ययन से। हां, उस तत्व ज्ञान को जाने बिना कोई किसी को अपने ज्ञान से प्रभावित नहीं कर सकता।
वह तत्व ज्ञान क्या है? इस पर फिर कभी। वैसे इस विषय पर लिखता रहता हूं।

बहरहाल आलेख बहुत अच्छा लगा। यही कारण है कि किसी एक दिशा में स्थिर नहीं रह सका। अगर कोई सोच रहा हो कि आखिर मैंने टिप्पणी लिखने की सोची ही क्यों? कम से कम तसल्ली से पढ़कर फिर कभी लिखता। क्या करता? कई बार ऐसा होता है कि दूसरे का अच्छा लिखा जब बहुत प्रभावित करता है तो अंतर्मन का लेखक कुछ लिखने के लालायित हो उठता है। वह सही दिशा में भी लिखता है पर अगर पहले से ही कुछ सोचे बैठा हो तो फिर ऐसा भी होता है। हां अगर मैंने अपना लिखने के बाद ही वह आलेख पढ़ा होता तो शायद यह हालत नहीं होती और टिप्पणी लिखने के बाद विषय अपने दिमाग में संजो कर रख लेता।
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