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लिखना और बोलना प्रभावी बनाने के लिये अध्ययन जरूरी-विशिष्ट हिन्दी रविवारीय लेख


                     अनेक लोगों का मन करता है कि वह कुछ लिखें।  कुछ लोग शेरो शायरी कर दूसरे को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। कुछ लोग अंग्रेजी कहावतों को सुनाकर यह कोशिश करते हैं कि सामने वाला आदमी उनकी बुद्धि का लोहा माने।  वैसे अपनी बात कहने में तुलसीकृत रामचरित मानस  का अध्ययन करने वालों का जवाब नहीं है।  खास अवसरों पर वह उसके दोहे सुनाकर अपने गहन अध्ययन को प्रमाणित कर देते हैं पर उसमें उनका स्वरचित कुछ नहीं होता।  समाज पर प्रभाव तो वही डाल सकता है जो स्वयं रचनाकार हो।  वैसे आजकल शेरो शायरी कर अपनी बात का प्रभावपूर्ण ढंग से कहने का रिवाज चल पड़ा है पर यह हमारे पारंपरिक वार्तालाप का कोई स्थाई भांग नहीं है। कई विषयों पर कबीर, रहीम और तुलसी की रचनायें इतना प्रभाव रखती हैं कि उनके उद्धरण उर्दू की शायरी से बेहतर प्रभावी रहते हैं।  इन सबके बावजूद यह सच्चाई है कि आदमी का मन स्वरचना की अभिव्यक्ति के लिये तड़पता है।  लिखना और बोलना  सहज लगता है   पर वह उनके दूसरे को मस्तिष्क और हªदय को अंदर तक प्रभावित कर दे ऐसी बात लिखना  या बोलना आसान नहीं है। प्रभावी लेखन और वार्तालाप के लिये आवचश्यक है कि हम दूसरे का लिखा धीरज से पढ़ें और कही गयी बात सुने।

ब्लॉग लेखन के प्रारंभिक दौर में अनेक पाठकों ने हमसे पूछा कि आप इतना लिख कैसे लेते हैं? इसका सीधा जवाब तो यह था कि हम पढ़ते बहुत हैं पर किसी को दिया नहीं!  सोचते कि अपने हर राज को बांटना जरूरी नहीं है।  सच्चाई यह है कि   जितना ज्यादा पढ़ोगे उतना ही ज्यादा लिखोगे।  जितना अच्छा सुनोगे उतना अच्छा बोलोगे।  तय बात है कि अपनी प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिये पुस्तक प्रेम और बेहतर संगत का होना जरूरी है।  मूर्खों में बैठकर गल्तियां न करना सीखा जा सकता है पर बुद्धिमानों की संगत में बिना गल्तियां किये काम करने की  मिलने वाली प्रेरणा ही असली ही शक्ति होती है।

इधर जब फेसबुक पर अपने निजी तथा सार्वजनिक संपर्क वाले लोगों को देखते हैं तो उनके अंदर अपनी अभिव्यक्ति की कभी शांत न होने वाली भूख साफ दिखाई देती है।  उनके पास कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा है। उन्होंने फेसबुक पर खाते खोल लिये हैं।  मोबाइल से फोटो खींचकर उसमें डाल देते हैं।  दूसरे की पठनीय और दर्शनीय सामग्री अपने फेसबुक पर लाने के लिये उन्हें शेयर करना पड़ता है।  कई लोग तो ऐसे हैं जो शेयर करते समय एक शब्द भी नहीं लिखते। लिखते भी है तो रोमन में हिन्दी लिखकर अपनी भूख शांत करते हैं।  ऐसे में उनकी अभिव्यक्ति की भूख साफ दिखती है। भूख और प्यास की व्याकुलता हमने स्वयं भी झेली है पर खुशी होती है यह देखकर अभिव्यक्ति के लिये कभी तड़पना नहीं पड़ता।  हिन्दी और अंग्रेजी टाईप का शैक्षणिक काल में ज्ञान प्राप्त किया और तीस वर्ष पहले कंप्यूटर से ही अपनी जिंदगी शुरु की थी।  इसलिये वर्तमान समय में बिना हिचक इंटरनेट पर लिख लेते हैं।  लिखने के विषय का टोटा नहीं रहा पर अध्यात्मिक विषयों की पुस्तकें पढ़कर चिंत्तन लिखते हुए जीवन का ज्ञान स्वतः ही आता रहा।  हमारे अध्यात्मिक विषयों पर लिखे गये पाठों को देखकर पाठक सोचते हैं कि यह कोई पुराना ज्ञानी है पर सच्चाई यह है कि लिखते लिखते ही बहुत सारा ज्ञान आ गया है।

इस ज्ञान साधना ने जीवन के प्रति विश्वास दिया पर व्यंग्य विद्या कोे छीन लिया।  अनेक बार व्यंग्य लिखने का मन करता है पर कहीं न कहीं ज्ञान उसमें बाधा बन जाता है।  व्यंग्य विषय गंभीरता के रंग में डूब जाता है।  अपने ही बचपन गुजारने के बाद जवानी में परे हुए लोगों के फेसबुक देखते हैं।  उनको हम ढूंढते हैं पर वह भुलाये बैठे है।  हम उनके पास अपने मित्र बनने का कोई प्रस्ताव नहीं भेजते।  इसका कारण यह है कि अनेक बार वह हमारे व्यंग्यों और चिंत्तनों का हिस्सा बने हैं।  दूसरी बात यह कि हमारे लेखकीय और पाठकीय संस्कारों से न उनका कोई वास्ता है और न ही हमारी इच्छा है कि वह हमसे बिना हृदय के फेसबुक से  जुड़ें।

हम अपने उन बिछड़े लोगों का एबीसी समूह बनाकर बात करते हैं। इनमें हम बी नाम से हैं।   हम अपने ही शहर में रहे पर ए और सी बाहर जाकर बसे हैं।  इंटरनेट पर फुरसत के समय बहुत दिन तक  ए नाम के व्यक्ति का फेसबुक ढूंढा पर मिला नहीं।  अब दो महीने उन्होंने बनाया तो हमारे दृष्टिपथ में आ गया। सी की स्थिति यह थी कि उनकी पत्नी का फेसबुक  मिला। उन पर सी का फोटो क्या  नाम तक नहीं था।  चेहरे से पहचाना कि यह जान पहचान वाली भद्र महिला है।  परसों  उस पर  सी का फोटो देखने को मिला।  अपनी बेटी और दामाद के साथ सी और उसकी पत्नी ने फोटो खिंचवाया और फेसबुक  पर डाला।  ए और उसके  बेटे और बहु का फेसबुक रोज देखते हैं।

उस दिन ए का फोन बहुत दिन बाद आया।  उसे किसी दूसरे आदमी का फोन नंबर चाहिये था।  उस समय उसके बेटे के फेसबुक को ही देख रहे थे जो अधिक सक्रिय है।  हमने उसे नहीं बताया कि क्या कर रहे हैं।  संभावना यह  भी है कि सी से भी अगले सप्ताह उसके शहर आने पर मुलाकात होगी पर उससे फेसबुक की चर्चा बिल्कुल नहीं करेंगे।  दरअसल इसका कारण यह है कि हमारा लिखा देखकर लोग पूछते हैं कि इसका तुम्हें मिलता क्या है?

यहां हम स्वयं को ही प्रभाहीन अनुभव करते हैं।  यह कहते हुए शर्म आती है कि हम फोकटिया हैं। लिखने का अभ्यास इतना है कि एक हजार शब्दों का लेख हम बीस मिनट में सोचते हुए लिख देते हैं।  यह सहज इसलिये होता है कि हमारी दृष्टि हमेशा समय मिलते ही पठनीय सामग्री पर चली जाती है।  यह आवश्यक है कि उसे देखकर ही हम कुछ लिखें पर कहीं न लिखने की प्रेरणा उससे ही मिलती है।  ए और सी के साथ  उनके परिवार  के सदस्यों के फेसबुक देखकर लगता है कि हम भाग्यशाली हैं कि लिखने की शक्ति मिली है।  हालांकि इसमें अच्छा पढ़ने और सुनने का भी योगदान है।

लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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मानव का मन उसे भटकाता है-हिन्दू अध्यात्मिक चिंत्तन


                 मूलतः हिन्दू धर्मधर्म को एक धर्म नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति माना जाता है।  जब हम हिन्दू समाज की बात करें तो यह बात ध्यान रखना चाहिए कि उसके धर्म ग्रंथों में कहीं भी धर्म का कोई नाम नहीं दिया गया। कहते हैं कि सनातन धर्म से ही हिन्दू धर्म बना है पर यह नाम भी कहीं नहीं मिलता।  दरअसल हम जिन भारतीय ग्रंथों को धार्मिक कहते हैं वह अध्यात्मिक हैं जिसमें तत्वज्ञान के साथ ही सांसरिक विषयों से भी संबंधित  ज्ञान-विज्ञान का  व्यापक वर्णन मिलता है।  यह अलग बात है कि उसमें तत्वज्ञान का सर्वाधिक महत्व है।

चूंकि मानव का एक मन है। वह उसे भटकाता है इसलिये अनेक बातें मनोरंजक ढंग से कही गयी हैं जिनका संदेश अनेक प्रकार की कहानियों में मिलता है। वही तत्वज्ञान के भी उनमें दर्शन होते हैं पर उसके साथ कहानियां नहीं होती।  यह अलग बात है कि अगर कोई मनुष्य इस तत्वज्ञान का समझ ले तो वह मनोरंजन का मोहताज नहीं होता क्योंकि हर क्षण वह जीवन का आनंद लेता है।  मनोरंजन की आयु क्षणिक होती है। एक विषय से मनुष्य ऊबता है तो दूसरे में रमने की उसमें इच्छा बलवती होती है।  विषयों में लिप्त व्यक्ति केवल उनसे ही मनोरंजन पाता है जबकि तत्वज्ञानी बिना लिप्त हुए आनंदित रहता है।  उसे कभी ऊब नहीं होती।

भारतीय अध्यात्म का सार श्रीमद्भागवत गीता में सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया गया है।  उसमें कोई सांसरिक विषय नहीं पर सारे संसार की समझ उसे पढ़ने पर स्वतः आ जाती है। स्थिति यह हो जाती है कि किसी विषय में निरंतर लिप्त होने वाला आदमी अपने कार्य में इतना ज्ञानी नहीं होता जितना तत्वज्ञानी दूर बैठकर सारा सत्य जान लेता है। कर्म तथा गुण के तत्व का जानने वाले ज्ञानी हर प्रकार की क्रिया के परिणाम को सहजता से जान लेते हैं।  आम आदमी इसे सिद्धि मानते हैं पर तत्वाज्ञानियों के लिये यह ज्ञान और विज्ञान का विषय अत्यंत सहज हो जाता है।  वह अपने सिद्ध होने का दावा नहीं करते न ही किसी चमत्कार का प्रदर्शन करते हैं। धर्म उनके लिये कोई मनुष्य से परे दिखने वाला कोई विषय नहीं बल्कि चरित्र और व्यवहार का प्रमाण देने वाला एक संकेतक होता है।

पश्चिम में अनेक धर्म प्रचलित हैं पर भारत भूमि से संबंध रखने वाले धर्मों में अध्यात्म की ऐसी जानकारियां हैं जिनका वैज्ञानिक महत्व है पर अंग्रेजी के प्रभाव में फंसे भारतीय समाज ने उसे भुला दिया है।  यह अलग बात है कि यहां के लोगों में अभी भी उसकी स्मृतियां शेष हैं जिस कारण यदाकदा सच्चे साधु संतों के दर्शन हो जाते हैं। इन साधु संतों को न प्रचार से मतलब है न ही शिष्यों के संग्रह में रुचि  होती है। इस कारण लोग उनके संपर्क में नहीं आते।  इसकी वजह से धर्म प्रचार का व्यवसायिक उपयोग करने वालो संत का रूप धरकर उनके पास पहुंच जाते हैं।  इस व्यवसायिक प्रचारकों को नाम तथा नामा दोनों ही मिलता है।  अगर तत्वज्ञान की दृष्टि से देखें तो इन प्रचारकों का कोई दोष नहीं है। आम आदमी का भी दोष नहीं क्योंकि उसके पास तत्वज्ञान का अभाव है। अगर हमारे समाज में श्रीमद्भागवत गीता का पाठ्य पुस्तकों में आम प्रचलन होता तो शायद यह स्थिति नहीं होती। हालांकि यह भी केवल अनुमान है क्योंकि देखा तो यह भी जाता है कि श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान देने वाले संत भी उसमें वर्णित धर्म व्यवहार से परे ही प्रतीत होते हैं।

सच बात तो यह है कि लोग मनोरंजन के लिये मोहताज हैं और उनको बहलाने वाले धर्म, कला, फिल्म, राजनीति तथा शिक्षा के क्षेत्र में अलग व्यवसायिक प्रवृत्तियों वाले कुछ चालाक लोग सक्रिय है। अनेक जगह तो धर्म के नाम भी ऐसी गतिविधियां दिखने को मिलती हैं जिनका धर्म से कोई संबंध नहीं होता।  जिन धुनों की गीतों के लिये उपयोग किया जाता है धर्मभीरुओं के भरमाने के लिये उन्हीं पर भजन बनाये जाते हैं। संगीत मानव मन की कमजोरी तो धर्म भी मजबूरी  है उसका शिकार आम आदमी किस तरह हो सकता है इसे मनोरंजन के व्यापारी अच्छी तरह जानते हैं।  यह मनोरंजन अधिक देर नहीं टिकता। इसके विपरीत तत्वज्ञानी संसार की इन्हीं गतिविधियों पर हमेशा हंसते हुए आनंद लेते हैं।  सांसरिक आदमी मनोरंजन में लिप्त फिल्म और टीवी के साथ संगीत  में लीन होकर अपना उद्धार ढूंढता है तो ज्ञानी उसे देखकर हंसता है।  आम आदमी कल्पित कहानियों में कभी हास्य तो कभी गंभीर कभी वीभत्स तो कभी श्रृंगार रस की नदी में  बहकर मनोरंजन करता है तो ज्ञानी उसके भटकाव की असली कहानी का आनंद उठाता है।  एक सांसरिक मनुष्य और ज्ञानी में बस अंतर इतना ही है कि एक मनोरंजन के लिये बाहर साधन ढूंढता है जो क्षणिक और अप्रभावी होता है तो दूसरा अपने अंदर से ही प्राप्त कर आनंद स्थापित कर अपनी शक्ति और ज्ञान दोनों ही बढ़ाता है।

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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राजतंत्र में धनतंत्र जोड़कर बना लगता है जनतंत्र-हिन्दी लेख (rajtantra mein dhantantra jodkar bana lagta hai jantantra)


        विश्व में आधुनिक लोकतांत्रिक प्रणाली ब्रिटेन की देन है। भारत ने राजनीतिक रूप से जरूर ब्रिटेेन से स्वतंत्रतता पायी पर मानसिक रूप से कभी यहां राजकीय कर्म में प्रबंध कौशल या व्यवसायिक कला का दर्शन नहीं हुआ। एक बात याद रखने की है कि वर्तमान चुनाव प्रणाली अंग्रेजों के समय में ही विकसित हो गयी थी। यही प्रणाली भारत मे आजादी के बाद भी चली। कहने को हमारे पास अपना संविधान है पर विशेषज्ञ यह बताना नहीं भूलते कि आज भी कानूनों का अधिकतर हिस्सा अंग्रेजों का ही बना हुआ है। कहने का अभिप्राय यह है कि हम आज भी वैचारिक रूप से औपनिवेश राज्य के स्वामी हैं।
         हम यहां चुनाव प्रणाली के बारे में विचार नहीं कर रहे बल्कि हम उस जनतंत्र के स्वरूप का आंकलन कर रहे हैं जिसे अंग्रेजों ने बनाया है। जब तक प्रचार माध्यम विकसित नहीं थे हम अमेरिका और ब्रिटेन की जनतांत्रिक व्यवस्था पर मंत्रमुग्ध थे पर अब यह लगने लगा कि यह सब भ्रम था। ब्रिटेन के बारे मेें कहा जाता है कि वहां के लोग अपनी पुरानी परंपराओं के पोषक हैं। इसके दो प्रमाण हैं एक तो यह कि उन्होंने जनतंत्र का अपनाया पर राजतंत्र को छोड़ा नहीं। दूसरा यह कि अपने क्रिकेट खेल को आज भी वह प्राकृतिक पिच पर ही खेलते हैं वहां उन्होंने कृत्रिम घास या टर्फ को कभी स्वीकार नहीं किया। इतना ही लंबे समय तक तो वह दिन में ही क्रिकेट खेल जारी रखा पर रात्रिकालीन दूधिया रौशनी का चमकने नहीं दिया। इधर हम हैं कि अपनी सारी पंरपराओं को दकियानूसी मानकर छोड़ते जा रहे हैं।
            बात अगर ब्रिटेन के जनतंत्र की है तो हमें लगता है कि राजतंत्र को उन्होंने भले ही नाममात्र का रहने दिया पर धनतंत्र को राज्य कर्म से ऐसा जोड़ दिया कि किसी को आभास तक नहीं होता कि वहां का जनतंत्र वास्तव में एक ऐसी प्रणाली है जिसमें धनपतियों को राजा जैसा सम्मान मिलता है। उन्होंने भी अपने यहां सर नाम की एक उपाधि चला रखी है जिसे कुछ पूंजीपति प्राप्त कर चुके हैं। इनमें एक भारतीय भी शामिल है। ब्रिटेन तथा अमेरिका के साथ भारत के लोकतंत्र में बस एक ही अंतर है कि वहां धनपति प्रत्यक्ष रूप से राजनेताओं को प्रायोजित करते हैं। अभी अमेरिका के राष्ट्रपति ने चंदा मांगने के लिये गाना भी गाया था। भारत में यह कार्य अप्रत्यक्ष रूप से होता दिखता है।
            मूल रूप से ब्रिटेन को पूंजीवादी देश माना जाता है। इसके बावजूद वहां श्रमिक क्षेत्रों से अंसतोष की घटनायें सामने आती हैं। अमेरिका तथा ब्रिटेन में लंबे समय तक वामपंथ का भूत दिखाकर वहां की जनता को डराया गया पर इसके बावजूद वहां वामपंथी विचाराधारा के पोषक तत्व पैदा हुए हैं। यहां तक कि मजदूरों का मसीहा कार्ल मार्क्स तो ब्रिटेन में रहा था। आधुनिक विश्व में ब्रिटेन ने राजतंत्र के साथ धनतंत्र को इस तरह जोड़ा कि वह जनतंत्र हो गया है। पुराने समय धनपति भले ही धन खूब कमाते थे पर उनकी प्रतिष्ठा कभी राजा जैसी नहीं हो पाती थी। ऐसा लगता है कि ब्रिटेन के पूंजीपतियों ने राजतंत्र को कमजोर कर अपने धनतंत्र की आड़ में जनतंत्र के सहारे राज्य पर अपनी पकड़ बनायी। चुनाव चाहे जहां भी हों पैसे के बिना नहीं जीते जा सकते। यह पैसा अंततः धनपतियों के पास से ही आना है। चुनाव लड़ने वालों को धनपति अपने धन से राजा बनाते हैं जो अंततः उनके मातहत होते हैं। इस तरह ब्रिटेन में जनतंत्र प्रणाली के माध्यम से धनतंत्र ने राजतंत्र में अपना हिस्सा प्राप्त किया। जिस वैश्विक आर्थिक उदारीकरण की बात हम करते हैं वह इसी धनतंत्र की देन है। हम हम कहते हैं कि आर्थिक ताकत के कारण भारत की कोई देश उपेक्षा नहीं कर सकता तो इसका कारण यह है कि विश्व अर्थव्यवस्था में कहीं न कहीं भारतीय धनपतियों का प्रभाव इस तरह है कि उसे ब्रिटेन या अमेरिका के राजस पुरुष अनदेखा कर नहीं चल सकते। यह अलग बात है कि हमारे देश के बुद्धिमान लोग इस पर देश का सम्मान बढ़ता बताकर उछलकूदते हैं पर हम जैसे आम लेखक जानते हैं कि यह सब एक छलावा है।
          प्रगतिशील तथा जनवादी लेखक अमेरिका और ब्रिटेन का विरोध इस आधार पर करते हैं कि वह पूंजीवादी और साम्राज्यवादी हैं पर वर्तमान समय में जिस तरह धनतंत्र काम कर रहा है उसे वह नहीं समझ पाते। हम तो यह कहते हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन भी अब एक स्वतंत्र राजकीय व्यवस्था में नहीं चल रहे बल्कि वह धनतंत्र का उपनिवेश भर रह गये हैं। न हमारे पास आंकड़े हैं न हम वहां कभी गये हैं। समाचार पत्र और टीवी चैनलों पर समाचारों को देखकर उनकी कड़ियां जोड़कर विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि अनेक शक्तिशाली देशों के राजस पुरुष कहीं न कहीं धनपतियों के मुखौटे भर हैं। वह बोलते हैं तो किसी का लिखा लगता है। वह जब चलते हैं तो लगता है कि निर्देशक ने बताया है। उनकी दिनचर्यायें ही अभिनय का हिस्सा लगती हैं। कई शक्तिशाली देशों के शासनाध्यक्ष तो ऐसी हरकतें करते हैं कि कामेडी के महानायक भी शरमा जायें।
         भारत में चुनाव सुधारों की मांग उठने लगी हैं। इसका मतलब यह है कि कुछ लोग इस जनतंत्र में छिद्र देख रहे हैं। यह जनतंत्र ब्रिटेन से ही लिया गया है। छिद्र तो वहां भी होंगे। हमें यहां बैठकर नहीं दिखता। जो वहां देखते हैं उनको विश्लेषण नहीं करना आता। हमारी बात से अनेक लोग असहमत हो सकते हैं क्योंकि हमने कभी विदेशी दौरा नहीं किया मगर देश में घूमते घूमते यह अनुभव किया है कि जब यहां की व्यवस्था वहां के सिद्धांतों पर आधारित है तो वह उन समस्याओं से कैसे बच सकते हैं जिनसे हम दो चार होते हैं। राजतंत्र और धनतंत्र के मिले रूप का नाम जनतंत्र है और एक आदमी के रूप में हमें यह अनुभव होता है कि यही हमारी नियति है कि राज्य हमारा आसरा है हम उसका सहारा हों या न हों। जिनको राजतंत्र का सहारा है वह शक्तिशाली लोग राजस बोध के साथ व्यवहार करेंगे। हमें तो अध्यात्मिक रूप से ज्ञान प्राप्त कर सात्विक रहने का प्रयास करना चाहिए। लोकतंत्र में लोकप्रियता का नकदीकरण करने के लिये तमाम तरह के प्रपंच किये जाते हैं और जिनको नकदीकरण नहीं करना वह जनमानस में अपनी उछलकूद नहीं दिखाते। जो कर रहे हैं उनको इसका अधिकार भी है। 
         गणतंत्र एक शब्द है जिसका आशय लिया जाये तो मनुष्यों के एक ऐसे समूह का दृश्य सामने आता है जो उनको नियमबद्ध होकर चलने के लिये प्रेरित करता है। न चलने पर वह उनको दंड देने का अधिकार भी वही रखता है। इसी गणतंत्र को लोकतंत्र भी कहा जाता है। आधुनिक लोकतंत्र में लोगों पर शासन उनके चुने हुए प्रतिनिधि ही करते हैं। पहले राजशाही प्रचलन में थी। उस समय राजा के व्यक्तिगत रूप से बेहतर होने या न होने का परिणाम और दुष्परिणाम जनता को भोगना पड़ता था। विश्व इतिहास में ऐसे अनेक राजा महाराज हुए जिन्होंने बेहतर होने की वजह से देवत्व का दर्जा पाया तो अनेक ऐसे भी हुए जिनकी तुलना राक्षसों से की जाती है। कुछ सामान्य राजा भी हुए। आधुनिक लोकतंत्र का जनक ब्रिटेन माना जाता है यह अलग बात है कि वहां प्रतीक रूप से राजशाही आज भी बरकरार है।
          मूल बात यह है कि हम गणतंत्र में मनुष्य समुदाय पर एक नियमबद्ध संस्था शासन के रूप में रखते हैं। विश्व के जीवों में एक मनुष्य ही ऐसा है जिसे राज्य व्यवस्था की आवश्यकता है। इसकी वजह साफ है कि सबसे अधिक बुद्धिमान होने के कारण उसके ही अनियंत्रित होने की संभावना भी अधिक रहती है। माना जाता है कि राज्य ही मनुष्य का नियंता है जिसके बिना वह पशु की तरह व्यवहार कर सकता है। राज्य करना मनुष्य की प्रवृत्ति भी है। उसमें अहंकार का भाव विद्यमान रहता है। सभी मनुष्य एक दूसरे से श्रेष्ठ दिखना चाहते हैं और राज्य व्यवस्था के प्रमुख होने पर उनको यह सुखद अनुभूति स्वतः प्राप्त होती है। जिन लोगों को प्रमुख पद नहीं मिलता वह छोटे पद पर बैठकर बाकी छोटे लोगों को अपने दंड से शासित करते है। इस तरह यह क्रम नीचे तक चला आता है। वहां तक जहां से आम इंसान की पंक्ति प्रारंभ होती है। इस पंक्ति के ऊपर बैठा हर शख्स अपने श्रेष्ठ होने की अनुभूति से प्रसन्न है पर साथ ही अपने से ऊपर बैठे आदमी की श्रेष्ठता पाने का सपना भी उसमें रहता है। इस तरह यह चक्र चलता है। जो राज्य व्यवस्था से नहीं जुड़े वह भी कहीं न कहीं अपनी श्रेष्ठता दिखाने के व्यसन में लिप्त हैं।
          राज्य कर्म अंततः राजस भाव की उपज है। उसमें सात्विकता बस इतनी ही हो सकती है जितना आटे में नमक! इससे अधिक की अपेक्षा अज्ञान का प्रमाण है। राज्य कर्म में ईमानदारी एक शर्त है पर उसे न मानना भी एक कूटनीति है। प्रजा हित आवश्यक है पर अपनी सत्ता बने रहने की शर्त उसमें जोड़ना आवश्यक है। अकुशल राज्य प्रबंधकों के के लिये ईमानदारी और प्रजा हित अंततः गौण हो जाते हैं। राज्य कर्म में एक सीमा तक ही सत्य भाषण, धर्म के प्रति निष्ठा और दयाभाव दिखाया जा सकता है। छल, कपट, प्रपंच तथा क्रूर प्रदर्शन राज्य कर्म करने वालों की शक्ति का प्रमाण बनता है। वह ऐसा न करें तो उनको सम्मान नहीं मिल सकता। न्याय के सिद्धांत सुविधानुसार चाहे जब बदले जा सकते हैं।
         सभी राजस कर्म करने वाले असात्विक हैं यह मानना ठीक नहीं है पर इतना तय है कि उनमें एक बहुत वर्ग ऐसे लोगों का रहता है जो अपने लाभ के लिये इसमें लिप्त होते हैं जिसे राजस भाव माना जाता है। आज के समय में तो राजनीति एक व्यवसाय बन गया है। यह अलग बात है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से परे बुद्धिमान लोग उसमें सत्य, अहिंसा तथा दया के भाव ढूंढना चाहते है।
           विश्व में अधिकतर लोग चाहते हैं कि उन्हें राजसुख न मिल पाये तो उनकी संतान को प्राप्त हो। राजसुख क्या है? यह सभी जानते हैं। दूसरे पर हमारा नियम चले पर हम पर कोई नियम बंधन न हो! लोग हमारी माने पर हम किसी की न सुने। किसी में हमारी आलोचना की हिम्मत न हो। बस हमारी पूजा भगवान की तरह हो। इसी भाव ने राज्य व्यवस्था को महत्वपूर्ण बना दिया है।
           राज्य संकट पड़ने पर प्रजा की मदद करता है। गणतंत्र का मूल सिद्धांत है पर यह एक तरह का भ्रम भी है। प्रजा कोई इकाई नहीं बल्कि कई मनुष्य इकाईयेां का समूह है। मनुष्य अपने कर्म के अनुसार फल भोगता है। वह इंद्रियों से जैसे दृश्य चक्षुओं से, सुर कर्णों से, भोजन मुख से तथा सुगंध नासिका से ग्रहण करने के साथ ही अपने हाथ से जिन वस्तुओं का स्पर्श करता है वैसी ही अभिव्यक्ति उसकी इन्हीं इद्रियों से प्रकट होती है। विषैले विषयों से संपर्क करने वालों से अमृतमय व्यवहार की अपेक्षा केवल अपने दिल को दिलासा देने के लिये ही है। मनुष्य को अपना जीवन संघर्ष अकेले ही करना है। ऐसे में वह अपने साथ गणसमूह और उसके तंत्र के साथ होने का भ्रम पाल सकता है पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है।
       उससे बड़ा भ्रम तो यह है कि गणतंत्र हम चला रहे हैं। धन, पद और अर्थ के शिखर पुरुषों का समूह गणतंत्र को अपने अनुसार प्रभावितकरते हैं जबकि आम इंसान केवल शासित है। वह इस गणतंत्र का प्रयोक्ता है न कि स्वामी। स्वामित्व का भ्रम है जिसमें जिंदा रहना भी आवश्यक है। अगर आदमी को अकेले होने के सत्य का अहसास हो तो वह कभी इस भ्रामक गणतंत्र की संगत न करे। जिनको पता है वह सात्विक भाव से रहते हैं क्योंकि जानते हैं कि सहनशीलता, सरलता और कर्तव्यनिष्ठ से ही वह अपना जीवन संवार सकते हैं। जिनको नहीं है वह आक्रामक ढंग से अभिव्यक्त होते है। वह अनावश्यक रूप से बहसें करते है। वाद विवाद करते हैं। निरर्थक संवादों से गणतंत्र को स्वयं से संचालित होने का यह भ्रम हम अनेक लोगों में देख सकते है।
लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
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अरविंद केजरीवाल पर चप्पल फैंकने से अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन कमजोर नहीं होगा-हिन्दी लेख (arvind kejariwal par chappal fainkne se anna hazare ka bhrashtachar virodhi andolan kamjor nahin hoga-hindi lekh)


          भारत एक विशाल देश है और इसमें परिवर्तन एक दिन या वर्ष में नहीं आ सकता। ऐसे में परिवर्तन के दौर में तमाम संघर्ष होते हैं। एक बात दूसरी भी है कि संसार में आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक परिवर्तन प्रकृति का नियम है और भारतीय अध्यात्मिक ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि यथास्थितियोंवादी अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये किसी भी हद तक जा सकते हैं। ऐसे में परिवर्तन करने वाले तत्वों से उनका विरोध हिंसा की हद तक चल जाता है। भारत में समाजसेवी श्री अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने व्यापक रूप धारण कर लिया है ऐसे में जिन तत्वों के हित प्रभावित हैं वह प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से उनके विरोधी हैं। अन्ना के व्यक्तित्व में कोई छिद्र नहीं दिखता पर उनके अनेक सहयोगी पेशेवर रूप से समाज सेवा में लगे रहे हैं, इसलिये उनके आर्थिक और राजनीतिक रिश्ते विवादास्पद हैं। यही कारण है कि यथास्थितियों के लिये वह ऐसे आसन लक्ष्य हैं जिससे अन्ना साहब के आंदोलन को कमजोर कर भारतीय जनमानस में उसकी छवि को खराब किया जा सकता है।
          अन्ना के एक   सहयोगी अरविंद केजरीवाल की तरफ जूता फैंकने की घटना एक मामूली बात है पर उसका प्रचार इस बात को दर्शाता है कि कहीं न कहीं गड़बड़ है। वैसे देखा जाये तो अरविंद केजरीवाल ने कोई ऐसा बयान नहीं दिया है जिससे समग्र देश उत्तेजित हो। जिस तरह उनके एक सहयोगी ने कश्मीर में आत्मनिर्णय का समर्थन कर दिया था इस कारण कुछ युवकों ने उनके साथ मारपीट कर दी थी। उस सहयोगी और अरविंद केजरीवाल पर हमले में बस यही एक समानता है कि प्रचार माध्यमों को दोनों समाचारों पर बहस चलाकर अपने विज्ञापनों के लिये दर्शक जुटाने का अवसर मिल गया।
           यह तो पता नहीं कि अरविंद केजरीवाल पर हमला किसी बड़ी योजना का हिस्सा है या नहीं पर इतना तय है कि अन्ना के जिस सहयोगी पर पहले हमला हुआ था वह एक नियोजित हमला लग रहा था। स्थिति यह है कि लोग उस हमले को भूलकर अब जम्मू कश्मीर पर उनके बयान को लेकर नाराजगी जता रहे हैं। वैसे इस तरह के हमले एकदम बचकाने हैं क्योंकि इससे हमलावर तथा शिकार दोनों को समान प्रचार मिलता है-यह अलग बात है कि हमलावर खलनायक तो शिकार नायक हो जाता है।
          सच बात तो यह है कि हिंसा कभी परिणाममूलक नहीं होती। इतिहास इस बात का गवाह है। इसके बावजूद आज के लोकतांत्रिक समाज में कुछ लोग आत्मप्रचार के लिये हमले करते है तो कुछ लोग अपने ऊपर हुए ऐसे हमलों का आत्मप्रचार के लिये भी करते हैं। श्रीअरविंद केजरीवाल ने अभी तक ऐसा कोई बयान नहीं दिया है जिससे भारतीय जनमानस उद्वेलित हो। यह अलग बात है कि जिन व्यक्तियों या समूहों पर अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से प्रहार करते हैं वह उनसे रुष्ट हो जाता है। हालांकि ऐसे व्यक्ति या समूह प्रतिप्रचार के माध्यम से उनका सामना करने की क्षमता रखते हैं इसलिये उनको ऐसे किसी आक्रमण कराने की आवश्यकता नहीं है पर अगर कुछ सामान्य लोगों को आदत होती है कि वह ऐसी हरकतें कर प्रचार पाना चाहते हैं। जिसने अरविंद केजरीवाल पर जूता या चप्पल फैंकी वह अपने कृत्य के समर्थन में ऐसी कोई बात नहीं कह पाया जिससे लगे कि श्री केजरीवाल के किसी बयान या कृत्य से प्रेरित होकर उसने ऐसा किया। वह तो केवल यही कह रहा था कि केजरीवाल जनता को बरगला रहे हैं। कैसे, यह उसने नहीं बताया। दूसरे उसने आगे यह भी कहा कि वह तो उनकी इज्जत करता है। मतलब निहायत सिरफिरी बात कहकर उसने ऐसी किसी संभावना को समाप्त ही कर दिया कि उसे कोई समर्थन करने वाला मिल जाये। वैसे इस तरह की घटना कोई समर्थन नहीं करता पर जो लोग संवदेनशील विषयों को लेकर सक्रिय रहते हैं वह कभी ऐसी घटनओं को उचित ठहराते नजर आते हैं। इस प्रकरण में ऐसे किसी संभावना को हमलावर ने स्वतः ही समाप्त किया।
         कश्मीर पर विवादास्पद बयान देकर पहले मारपीट का शिकार हो चुके अपने सहयोगी का साथ अन्ना ने एक सीमा तक दिया था पर अरविंद केजरीवाल के साथ बड़ी मजबूती से खड़े नजर आये। अगर सीधी बात कहें तो इस चप्पल फैंकने की घटना ने अरविंद केजरीवाल का कद बड़ा दिया है। अब वह अन्ना की टीम में अन्ना के बाद दूसरे नंबर पर आ गये हैं। उनको तो अन्ना का सेनापति तक कहा जा रहा है। इसके विपरीत कश्मीर पर विवादास्पद बयान देने वाले सहयोगी को तो टीम से बाहर करने की बात तक कही जा रही है। जहां उनके साथ हुई मारपीट ने उनक ाकद गिराया वहीं अरविंद केजरीवाल की पर चप्पल फैंकने की घटना ने लोकप्रियता बढ़ाई। इसका सीधा मतलब यह है कि जनमानस का ख्याल रखकर अपने अभियान चलाने वाले लोगों को समर्थन मिलता है। हमारा मानना है कि अगर किसी मसले पर अन्ना साहब या उनकी टीम से असहमति हो तो उसका तर्क से सामना करना चाहिए। हालांकि इस तरह की घटनाओं को हम फिक्सिंग के तौर से भी देखते हैं पर इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि हमारी बात सौ फीसदी सही है। हम अभी तक अन्ना टीम के आंदोलन के सकारात्मक परिणामों का इंतजार कर रहे हैं। इसकी कोई जल्दी नहीं है पर इतना तय है कि अगर यह आंदोलन कोई परिणाम नहीं दे सका तो भारी निराशा की बात होगी।
              जिन लोगों ने यह हमले किये उनका क्या होगा, यह तो पता नहीं पर इतना तय है कि इनकी वजह से अन्ना हजारे के निवास वाले मंदिर के बाहर मेटर्ल डिटेक्टर  लगा दिये गये हैं उनकी तगड़ी सुरक्षा की जा रही है। तय बात है कि इस पर पैसा खर्च होगा इसका फायदा किसे होगा यह न हमें जानना है न कोई बताये। जब कहीं खतरे का प्रचार होता है तो सुरक्षा उपकरणों की मांग बढ़ती हैं। ऐसे मे लगता है कि सुरक्षा उपकरण बेचने वाले कहीं खतरे का प्रायोजन तो नहीं करते हैं? अन्ना हजारे जी का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जहां अनेक लोगों के लिये चिंता का विषय हो सकता है वहीं भारतीय जनमानस के लिये अभी जिज्ञासा का विषय है। सच बात तो यह है कि अंततः अन्ना की टीम प्रत्यक्ष रूप से राजनीति की तरफ आयेगी-यह बात हम दूसरी बार कह रहे हैं। यह पता नहीं कि पर्दे के पीछे कौन खेल रहा है, पर लगता है कि भारत में राजनीतिक परिदृश्य बदलने की कोई योजना चल रही है। जिस तरह देश में बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलन चल रहे हैं उससे तो फिलहाल यही लगता है कि आगामी कुछ वर्षों में राजनीतिक परिदृश्य बदल सकता है। इन दोनों की लोकप्रियता इतनी है कि यह प्रत्यक्ष राजनीति में भाग लिये बिना उसे प्रभावित कर कर सकते हैं। ऐसे मे संभव है कि भविष्य में अपने अनुयायियों को प्रत्यक्ष राजनीति में उतार सकते हैं। भारतीय जनमानस उनका कितना साथ देगा यह बात अभी कहना मुश्किल है पर इतना तय है कि तब उनको वर्तमान राजनीतिक समूहों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। ऐसे में अनेक तरह के नाटकीय घटनाक्रम देखने को मिलेंगे। कुछ प्रायोजित तो कुछ फिक्स भी होंगे। शायद इसलिये अन्ना हजारे ने अपने समर्थकों से कहा है कि जब समाज के लिये काम करते हैं तो अपमान झेलने के लिये भी तैयार रहना चाहिए। अन्ना हजारे के सबसे निकटतम होने के कारण शायद अरविंद केजरीवाल भी प्रकाशमान हो गये इसलिये उन पर चप्पल फैंकी गयी पर वह उनको फूल की तरह लगी। उन्होंने हमलावर को माफ कर यह साबित किया कि भविष्य में वह एक बड़े कदावर व्यक्ति बनने वाले हैं। हम जैसे आम लेखक और नागरिक तो अच्छी संभावनाओं के लिये उनकी तरफ दृष्टिपात करते ही है और शायद अब पूरा विश्व उनकी तरफ देखने लगेगा। साथ ही उनको यह भी देखना होगा कि उनको अभी लंबा रास्ता तय करना है और भारतीय जनमानस में अपनी छवि बनाये रखने के लिये उनको हमेशा ही इसी तरह आत्मनिंयत्रित रहना होगा।
—————
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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त्रावनकोर के स्वामी पद्मनाभ मंदिर का खजाना और भारत की अर्थव्यवस्था-हिन्दी लेख(travancor ke swami padamanabh mandir ka khazan aur bhariya arthvyavstha-hindi lekh)


           केरल ट्रावनकोर में स्वामी पद्मनाभ मंदिर में खजाना मिलने की घटना इस विश्व का आठवां आश्चर्य मानना चाहिए। आमतौर से भारत में गढ़े खजाने होने की बात अक्सर कही जाती है। अनेक सिद्ध तो इसलिये ही माने जाते हैं कि वह गढ़े खजाने का पता बताते हैं। यह अलग बात है कि वह अपने चेलों से पैसा ऐंठकर गायब हो जाते हैं। इससे एक बात तो सिद्ध होती है कि धर्म और भगवान अंध श्रद्धा रखने वालों को गढ़े खजाने में बहुत दिलचस्पी होती है और ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है।
            ट्रावणकोर का खजाना पांच लाख करोड़ से ऊपर पहुंच जायेगा ऐसा कुछ आशावादी कह रहे हैं तो कुछ विचारक लोग इस बात से चिंतित हैं कि कहीं यह खजाना भी लुट न जाये।
प्रचार माध्यमों में भले ही इस खबर की चर्चा हो रही है पर आम जनमानस की उदासीनता भी कम आश्चर्य का विषय नहीं है। मिल गया तो और लुट गया तो इसमें उनको अपना कोई हित या अहित नहीं दिखता। इससे एक बात निश्चित लग रही है कि देश के समाज, अर्थ और धर्म के शिखर पर बैठे लोग की तरह उनमें दिलचस्पी रखने का आदी बौद्धिक वर्ग के लोग भी आमजन के चिंताओं से दूर हो गया है। उसे पता ही नहीं कि जनमानस के मन में क्या चल रहा है? यह देश के लिये खतरनाक स्थिति है पर ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है क्योंकि बाजार और प्रचार से प्रयोजित बौद्धिक समूह समाज से कट चुका है।
            दरअसल हमारे देश में आधुनिक लोकतंत्र ने जहां आम आदमी के लिये सत्ता में भागीदारी का दरवाजा खोला है वहीं ऊंचा पद पाने की उसकी लालसा को बढ़ाया भी है। जिन लोगों को यह मालुम है कि उच्च पद उनके भाग्य नहंी है वह उच्च पदस्थ लोगों के अनुयायी बनकर उनके प्रचारक बन जाते हैं। यही प्रचारक अपनी बात समाज की अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने का दावा करते हैं। शिखर पुरुषों का आपस में एक तयशुदा युद्ध चलता है और आम आदमी उसे मूकभाव से देखता है। फिर इधर धनवान, पदवान, कर्मवान, धर्मवान तथा अधर्मवान लोगों का एक समूह है जो पूरे विश्व पर शासन करने लगा है। उसने इस तरह का वातावरण बनाया है कि हर व्यक्ति और क्रिया का व्यवसायीकारण हो गया है। लिखने, पढ़ने, बोलने और देखने की क्रियाओं में स्वतंत्रता नहीं रही। न अभिव्यक्ति में मौलिकता है। विचाराधाराओं, धर्मो, जातियों और भाषाओं के क्षेत्र में सक्रिय लोग प्रायोजित हैं। उनकी अभिव्यक्ति स्वतंत्र नहीं प्रायोजित है। उनकी अभिव्यक्ति सतही है। बाज़ार जैसी प्रेरणा निर्मित करता है प्रचार में वैसी ही अभिव्यक्ति दिखाई देती है।
           ऐसे में नये आदमी और नये विचार को वैसे भी कोई स्थान नहीं मिलता फिर प्रायोजन की प्रवृत्ति ने आमजान को भी इतना संकीर्ण मानसिकता का बना दिया है कि उसे गूढ़ बात समझ में नहीं आती। भारत में अभी तक कहा जाता था कि आर्थिक संकट है पर किसी ने यह नहीं कहा कि बौद्धिकता का संकट है। कुछ दिन पहले स्विस बैंक में कथित रूप से भारतीयों के चार लाख करोड़ जमा होने की बात सामने रखकर कुछ लोग कह रहे थे कि यह पैसा अगर देश में आ जाये तो देश की तस्वीर बदल जाये। अगर त्रावणकोर के खजाने की बात कही जाये तो वह भी कम नहीं है तब क्या कोई उसके सही उपयोग की बात कोई नहंी कर रहा है। ढोल जब दूर हैं तो सुहावने बताये और पास आया तो कहने लगे कि हमें बजाना नहीं आता इसलिये इसे सजाकर रखना है। फिर एक सवाल यह भी है कि इसका उपयोग किया जाये तो क्या वाकई इस देश की स्थिति सुधर जायेगी। कतई नहीं क्योंकि हमारे देश की समस्या धन की कमी नहीं बल्कि मन की कमी है। मन यानि आत्मविश्वास की कमी ही देश का असली संकट है और यह विचारणीय विषय है। इस विषय पर वह लेख एक साथ प्रस्तुत हैं जो इस लेखक ने इंटरनेट पर लिखे और पाठकीय दृष्टि से फ्लाप रहे।

सोने के खजाने से बड़ा है
आम आदमी का पसीना-हिन्दी लेख (sone ke khazane se bada hai aam admi ka
pasina-hindi
lekh      


  त्रावणकोर के स्वामी पद्मनाभ मंदिर में सोने का खजाना मिलने को
अनेक प्रकार की बहस चल रही है।  एक लेखक, एक योग साधक और एक
विष्णु भक्त होने के कारण इस खजाने में इस लेखक दिलचस्पी बस इतनी ही है कि
संसार इस खजाने के बारे में क्या सोच रहा है? क्या देख रहा है? सबसे बड़ा
सवाल इस खजाने का क्या होगा?        
          कुछ लोगों को यह लग रहा है कि इस खजाने का प्रचार अधिक नहीं होना चाहिए था
क्योंकि अब इसके लुट जाने का डर है।  इतिहासकार अपने अपने ढंग से
इतिहास का व्याख्या करते हैं पर अध्यात्मिक ज्ञानियों का अपना एक अलग
नजरिया होता है। दोनों एक नाव पर सवारी नहीं करते भले ही एक घर में रहते
हों। इस समय लोग स्विस बैंकों में कथित रूप से भारतीयों के जमा चार लाख
करोड़ के काले धन की बात भूल रहे हैं। इसके बारे में कहा जा रहा था कि यह
रकम अगर भारत आ जाये तो देश के हालत सुधर जायें।  अब त्रावनकोर के
पद्मनाभ मंदिर के खजाने की राशि पांच लाख करोड़ तक पहुंचने का अनुमान लगाया
जा रहा है। बहस अब स्विस बैंक से हटकर पद्मनाभ मंदिर में  पहुंच
गयी है।
    हमारी दिलचस्पी खजाने के संग्रह की प्रक्रिया में थी कि त्रावणकोर के
राजाओं ने इतना सोना जुटाया कैसे? इससे पहले इतिहासकारों से यह भी पूछने
चाहेंगे कि उनके इस कथन की अब क्या स्थिति है जिसमें वह कहते हैं कि भारत
की स्वतंत्रता के समय देश के दो रियासतें सबसे अमीर थी एक हैदराबाद दूसरा
ग्वालियर।  कहा जाता है कि उस समय हैदराबाद के निजाम तथा ग्वालियर
के सिंधियावंश के पास सबसे अधिक  संपत्ति थी। त्रावणकोर के राजवंश का नाम नहीं आता पर अब लगता है कि इसकी संभावना अधिक है कि वह सबसे अमीर रहा होगा। मतलब यह कि इतिहास कभी झूठ भी बोल सकता है
इसकी संभावना सामने आ रही है। बहरहाल त्रावणकोर के राजवंश विदेशी व्यापार
करता था।  बताया जाता है कि इंग्लैंड के राजाओं के महल तक उनका
सामान जाता था। हम सब जानते हैं कि केरल प्राकृतिक रूप से संपन्न राज्य रहा
है।  फिर त्रावणकोर समुद्र के किनारे बसा है।  इसलिये
विश्व में जल और नभ परिवहन के विकास के चलते उसे सबसे पहले लाभ होना ही
था।  पूरे देश के लिये विदेशी सामान वहां के बंदरगाह पर आता होगा
तो  यहां से जाता भी होगा।  पहले भारत का विश्व से
संपर्क थल मार्ग से था। यहां के व्यापारी सामान लेकर मध्य एशिया के मार्ग
से जाते थे। तमाम तरह के राजनीतिक और धार्मिक परिवर्तनों के चलते यह मार्ग
दुरुह होता गया होगा तो जल मार्ग के साधनों के विकास का उपयोग तो बढ़ना ही
था।  भारत में उत्तर और पश्चिम से मध्य एशियाई देशों से हमले हुए
पर जल परिवहन के विकास के साथ ही  पश्चिमी देशों से भी लोग आये।
पहले पुर्तगाली फिर फ्रांसिसी और फिर अंग्रेज।  ऐसे में भारत के
दक्षिणी भाग में भी उथल पुथल हुई।  संभवत अपने काल के 
शक्तिशाली और धनी राज्य होने के कारण त्रावनकोर के तत्कालीन राजाओं को
विदेशों से संपर्क बढ़ा ही होगा।  खजाने के इतिहास की जो जानकारी आ
रही है उसमें विदेशों से सोना उपहार में मिलने की भी चर्चा है। 
यह उपहार फोकट में नहीं मिले होंगे।  यकीनन विदेशियों को अनेक
प्रकार का लाभ हुआ होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस मार्ग से भारत में आना
सुविधाजनक रहा होगा।  विदेशियों ने सोना दिया तो उनको क्या मिला
होगा? यकीनन भारत की प्रकृतिक संपदा मिली होगी जिसे हम कभी सोने जैसा नहीं
मानते। बताया गया है कि त्रावणकोर का राजवंश चाय, कॉफी और काली मिर्च के
व्यापार से जुड़ा रहा है।  मतलब यह कि चाय कॉफी और काली मिर्च
हमारे लिये सोना नहीं है पर विदेशियों से उसे सोने के बदले लिया।
सोना भारतीयों की कमजोरी रहा है तो भारत की प्राकृतिक और मानव संपदा
विदेशियों के लिये बहुत लाभकारी रही है।  केवल त्रावणकोर का
राजवंश ही नहीं भारत के अनेक बड़े व्यवसायी उस समय सोना लाते  और
भारत की कृषि और हस्तकरघा से जुड़ी सामग्री बाहर ले जाते  थे।    
सोने की खदानों में मजदूर काम करता है तो प्रकृतिक संपदा का दोहन भी मजदूर
ही करता है। मतलब पसीना ही सोने का सृजन करता है।
    
          अपने लेखों में शायद यह पचासवीं बार यह बात दोहरा रहे हैं कि विश्व के
भूविशेषज्ञ भारत पर प्रकृति की बहुत कृपा मानते हैं।  यहां भारत
का अर्थ व्यापक है जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान नेपाल,
श्रीलंका,बंग्लादेश और भूटान भी शामिल है।  इस पूरे क्षेत्र को
भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता रहा है पर पाकिस्तान से मित्रता की मजबूरी के
चलते इसे हम लोग आजकल दक्षिण एशिया कहते हैं।        
          कहा जाता है कि कुछ भारतीय राज्य तो ऐसे भी हुए हैं जिनका तिब्बत तक राज्य
फैला हुआ था।  दरअसल उस समय के राजाओं में आत्मविश्वास था और
इसका कारण था अपने गुरुओं से मिला  अध्यात्मिक ज्ञान! 
वह युद्ध और शांति में अपनी प्रजा का हित ही सोचते थे।  अक्सर
अनेक लोग कहते हैं कि केवल अध्यात्मिक ज्ञान में लिप्तता की वजह से यह देश
विदेशी आक्राताओं का शिकार बना। यह उनका भ्रम है। दरअसल अध्यात्मिक शिक्षा
से अधिक आर्थिक लोभ की वजह से हमें सदैव संकटों का सामना करना
पड़ा।  समय के साथ अध्यात्म के नाम पर धार्मिक पांखड और उसकी आड़
में आमजन की भावनाओं से खिलवाड़ का ही यह परिणाम हुआ कि यहां के राजा,
जमीदार, और साहुकार उखड़ते गये।
    
          सोने से न पेट भरता है न प्यास बुझती है।  किसी समय सोने की
मुद्रायें प्रचलन में थी पर उससे आवश्यकता की वस्तुऐं खरीदी बेची जाती थी।
बाद में अन्य धातुओं की राज मुद्रायें बनी पर उनके पीछे उतने ही
मूल्य  के सोने का भंडार रखने का सिद्धांत पालन में लाया जाता था।
आधुनिक समय में पत्र मुद्रा प्रचलन में है पर उसके पास सिद्धातं यह बनाया
गया कि राज्य जितनी मुद्रा बनाये उतने ही मूल्य का सोना अपने भंडार में
रखे।  गड़बड़झाला यही से शुरु हुआ। कुछ देशों ने अपनी पत्र मुद्रा
जारी करने के पीछे कुछ प्रतिशत सोना रखना शुरु किया।  पश्चिमी
देशों का पता नहीं पर विकासशील देशों के गरीब होने कारण यही है कि जितनी
मुद्रा प्रचलन में है उतना सोना नहीं है।  अनेक देशों की सरकारों
पर आरोप है कि प्रचलित मुद्रा के पीछे सोने का प्रतिशत शून्य रखे हुए हैं।
अगर हमारी मुद्रा के पीछे विकसित देशों की तरह ही अधिक प्रतिशत में सोना हो
तो शायद उसका मूल्य विश्व में बहुत अच्छा रहे।
विशेषज्ञ बहुत समय से कहते रहे हैं कि भारतीयों के पास अन्य देशों से अधिक
अनुपात में सोना है।  मतलब यह सोना हमारी प्राकृतिक तथा मानव
संपदा की वजह से है।  यह देश लुटा है फिर भी यहां इतना सोना कैसे
रह जाता है? स्पष्टतः हमारी प्राकृतिक संपदा का दोहन आमजन अपने पसीने से
करता है जिससे सोना ही   सोने में बदलता है। 
सोना लुटने की घटनायें तो कभी कभार होती होंगी पर आमजन के पसीने से सोना
बनाने की पक्रिया कभी थमी नहीं होगी।
             भारत में आमजन जानते हैं कि सोना केवल आपातकालीन मुद्रा है।  कुछ
लोग कह रहे थे कि स्विस बैंकों से अगर काला धन वापस आ जाये तो देश विकास
करेगा मगर उतनी रकम तो हमारे यहां मौजूद है।  अगर ढूंढने निकलें
तो सोने के बहुत सारे खजाने सामने आयेंगे पर समस्या यह है कि हमारे यहां
प्रबंध कौशल वाले लोग नहीं है।  अगर होते तो ऐसे एक नहीं हजारों
खजाने बन जाते। प्रचार माध्यम इस खजाने की चर्चा खूब कर रहे हैं पर आमजन
उदासीन है। केवल इसलिये उसे पता है कि इस तरह के खजाने उसके काम नहीं आने
वाले। सुनते हैं कि त्रावणकोर के राजवंश ने अपनी प्रजा की विपत्ति में भी
इसका उपयोग नहीं किया था।  इसका मतलब है कि उस समय भी वह अपने
संघर्ष और परिश्रम से अपने को जिंदा रख सकी थी। बहरहाल यह विषय बौद्धिक
विलासिता वाले लोगों के लिये बहुत रुचिकर है तो अध्यात्मिक साधकों के लिये
अपना बौद्धिक ज्ञान बघारने का भी आया है।  जिनके सिर पर सोन का
ताज था वही कटे जिनके पास खजाने हैं वही लुटे जो अपने पसीने से अपनी रोटी
का सोना कमाता है वह हमेशा ही सुरक्षित रहा।  हमारे देश में पहले
अमीरी और खजाने भी दिख रहे हैं पर इससे बेपरवाह समाज अधिक है क्योंकि उसके
पास सोना के रूप में बस अपना पसीना है।  यह अलग बात है कि उसकी एक
रोटी में से आधी छीनकर सोना बनाया जाता है।
हम प्रबंध योग सीख
लें-हिन्दी व्यंग्य (hum prabandhyog seekh len-hindi
vyangya)
        

         देखा जाये तो अपना देश अब गरीबों का देश भले ही है पर गरीब नहीं है। सोने
की चिड़िया पहले भी था अब भी है। यह अलग बात है कि अभी तक तो यह चिड़ियायें
पैदा होकर विदेशों में घोंसला बना लेती और अपने यहां लोग हाथ मलते। कहने को
तो यह भी कहा जाता है कि यहां कभी दूध की नदियां बहती थी अब भी बहती हैं
पर उनमें दूघ कितना असली है और कितना नकली यह अन्वेषण का विषय
है।

     
             हम दरअसल स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन और केरल के पद्मनाभ
मंदिर में मिले खजाने की बात कर रहे हैं। इस खबर ने हमारे दिलोदिमाग के
सारे तार हिला दिये हैं कि पदम्नाभ मंदिर में अभी तक एक लाख करोड़ के हीरे
जवाहरात, कीमती सिक्के और सोने के आभूषण मिले हैं। अभी कुछ अन्य कमरे खोले
जाने हैं और यकीनन यह राशि बढ़ने वाली है। हम मान लेते हैं कि वहां चार लाख
करोड़ से कुछ कम ही होगी। यह आंकड़ा स्विस बैंक में जमा भारतीयों की रकम का
भी बताया जाता है। वैसे इस पर विवाद है। कोई कहता है कि दो लाख करोड़ है तो
कोई कहता तीन तो कोई कहता है कि चार लाख करोड़। हम मान लेते हैं कि स्विस
बैंकों में जमा काला धन और मंदिर में मिला लगभग बराबर की राशि का होगा। न
हो तो कम बढ़ भी हो सकता है।
    
         हमें क्या? हम न स्विस बैंकों की प्रत्यक्ष जानकारी रखते हैं न ही पद्मनाभ
मंदिर कभी गये हैं। सब अखबार और टीवी पता लगता है। जब लाख करोड़ की बात
आती है तो लगता है कि दो अलग राशियां होंगी। तीन लाख करोड़ यानि तीन लाख और
एक करोड़-यह राशियां मिलाकर पढ़ना कठिन लगता है। । अक्ल ज्यादा काम करती
नहीं। करना चाहते भी नहीं क्योंकि अगर आंकड़ों में उलझे तो दिमाग काम करना
बंद कर देगा।        
         इधर खबरों पर खबरें इस तरह आ रही हैं कि पिछली खबर फलाप लगती है। सबसे
पहले टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले की बात सामने आयी। एक लाख 79 हजार करोड़ का
घोटाला बताया गया। फिर स्विस बैंक के धन पर टीवी और अखबार में चले
सार्वजनिक विवाद में चार लाख करोड़ के जमा होने की बात आई। विवाद और आंदोलन
के चलते साधु संतों की संपत्ति की बात भी सामने आयी। हालांकि उनकी
संपत्तियां हजार करोड़ में थी पर उनकी प्रसिद्धि के कारण राशियां महत्वपूर्ण
नहीं थी। फिर पुट्टापर्थी के सत्य सांई बाबा की संपत्ति की चर्चा भी हुई
तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गयी। चालीस हजारे करोड़ का अनुमान किया
गया। यह रकम बहुत छोटी थी इसलिये स्विस बैंकों की दो से चार लाख करोड़ का
मसला लगातार चलता रहा। अब पद्मनाभ मंदिर के खजाने मिलने की खबर से उस पर
पानी फिर गया लगता है।       
          पिछले कुछ दिनों से अनेक महानुभाव यह कह रहे हैं कि विदेशों में जमा भारत
का धन वापस आ जाये तो देश का उद्धार हो जाये। अनेक लोग इस रकम का
अर्थव्यवस्था के लिये अत्यंत महत्व बताते हुए अनेक तरह की विवेचना कर रहे
हैं। अब पद्मनाभ मंदिर के नये खजाने की राशि के लिये भी यही कहा जा रहा
है। ऐसे में हमारा कहना है कि जो महानुभाव विदेशों से काले धन को भारत
लाने के लिये जूझ रहे हैं वह अपने प्रयास अब ऐसे उपलब्ध धन के सही उपयोग
करने के लिये लगा दें। वैसे भी हमारे देश के सवौच्च न्यायालय ने विदेशों से
काला धन लाने के लिये अपने संविधानिक प्रयास तेज कर दिये हैं इसलिये निज
प्रयास अब महत्वहीन हो गये हैं। वैसे केरल के पद्मनाभ मंदिर का खजाना भी
न्यायालीयन प्रयासों के कारण सामने आया है। यकीनन आगे यह देश के खजाने में
जायेगा। उसके बाद न्यायालयीन प्रयासों की सीमा है। धन किस तरह कहां और कब
खर्च हो यह तय करना अंततः देश के प्रबंधकों का है। ऐसे में उनकी कुशलता
ही उसका सही उपयोग में सहयोग कर सकती है।          
          यहीं आकर ऐसी समस्या शुरु होती है जिसे अर्थशास्त्र में भारत में कुशल
प्रबंध का अभाव कहा जाता है। अगर आप देश की आर्थिक स्थिति की बात करें तो
भूतकाल और वर्तमान काल में धन की बहुतायात के प्रमाण हैं। प्रकृति की
कृपा से यहां दुनियां के अन्य स्थानों से जलस्तर बेहतर है इसलिये खेती तथा
पशुपालन अधिक होता है। असली सोना तो वह है जो श्रमिक पैदा करता है यह अलग
बात है कि उसके शोषक उसे धातु के सोने के बदलकर अपने पास रख लेते हैं। जब
तक हिमालाय है तब तब गंगा और यमुना बहेगी और विंध्याचल है तो नर्मदा की
कृपा भी रहेगी। मतलब भविष्य में भी यहां सोना उगना है पर हमारे देश के
लोगों का प्रेम तो उस धातु के सोने से है जो यहां पैदा ही नहीं होता। मुख्य
समस्या यह है कि हमारे देश में सामाजिक सामंजस्य कभी नहीं रहा दावे चाहे
हम जितने भी करते रहें। जिसे कहीं धन, पद और बल मिला वह राज्य करना चाहता
है। इससे भी वह संतुष्ट नहीं होता। मेरा राज्य है इसके प्रमाण के लिये शोषण
और हिंसा करता है। राज्य का पद उपभोग के लिये माना जाता हैं जनहित करने के
लिये नहीं। जनहित का काम तो भगवान के भरोसे है। किसी को एक रोटी की जगह
दो देने की बजाय जिसके पास एक उसकी आधी भी छीनने का प्रयास किया जाता है यह
सोचकर कि पेट भरना तो भगवान का काम है हमें तो अपना संसार निभाना है
इसलिये किसी की रोटी छीने।            
           भारतीय अध्यात्म में त्याग और दान की अत्यंत महिमा इसलिये ही बतायी गयी है
कि धनिक, राजपदवान, तथा बाहबली आपने से कमजोर की रक्षा करें। भारतीय
मनीषियों से पूर्वकाल में यह देखा होगा कि प्रकृति की कृपा के चलते यह देश
संपन्न है पर यहां के लोग इसका महत्व न समझकर अपने अहंकार में डूबे हैं
इसलिये उन्होंने समाज क सहज भाव से संचालन के सूत्र दिये। हुआ यह कि उनके
इन्हीं सूत्रों को रटकर सुनाने वाले इसका व्यापार करते हैं। कहीं धर्म भाव
तो कहीं कर्मकांड के नाम पर आम लोगों को भावनात्मक रूप से भ्रमित कर उसके
पसीने से पैदा असली सोने को दलाल धातु के सोने में बदलकर अपनी तिजोरी भरने
लगते हैं। वह अपने घर भरने में कुशल हैं पर प्रबंधन के नाम पर पैदल हैं।
अलबत्ता समाज चलाने का प्रबंधन हथिया जरूर लेते हैं। जाति, भाषा, धर्म,
व्यापार, समाज सेवा और जनस्वास्थ्य के लिये बने अनेक संगठन और समूह है पर
प्रबंधन के नाम पर बस सभी लूटना जानते हैं। जिम्मेदारी की बात सभी करते हैं
पर जिम्मेदार कहीं नहीं मिलता ।
    हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि देश गरीब इसलिये नहीं है यहां धन नहीं है बल्कि उसका उपयेाग करना जिम्मेदार लोगों का उसका वितरण करना नहीं आता।भ्रष्टाचार आदत नहीं शौक है। मजबूरी नहीं जिम्मेदारी है। जिसके पास राजपद है अगर वह उपरी कमाई न करे तो उसका सम्मान कहीं नहीं रहता।
        स्विस बैंक हो या पद्मनाभ का मंदिर हमारे देश के खजाने की रकम बहुत बड़ी है। कुछ लोग तो कहते हैं कि ऐसे खजाने देश में अनेक जगह मिल सकते हैं। उनकी रकम इतनी होगी कि पूरे विश्व को पाल सकते हैं। यही कारण है कि विदेशों के अनेक राजा लुटेरे बनकर यहां आये। मुख्य सवाल यह है कि हमें पैसे का इस्तेमाल करना सीखना और सिखाना है। इसे हम प्रबंध योग भी कह सकते हैं।
पतंजलि योग में कहीं प्रबंध योग नहीं बताया जाता है पर अगर उसे कोई पढ़े और
समझे तो वह अच्छा प्रबंध बन सकता है। मुख्य विषय संकल्प का है और वह यह
कि पहले हम अपनी जिम्मेदारी निभाना सीखें। त्याग करना सीधें। संपत्ति संचय न
करें। जब हम कोई आंदोलन और अभियान चलाते हैं तो स्पष्टतः यह बात हमारे
मन में रहती है कि कोई दूसरा हमारा उद्देश्य पूरा करे। जबकि होना यह चाहिए
कि हम आत्मनियंत्रित होकर काम करें।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep,
Gwalior

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poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

हमें पता है कि सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण सामान्य प्राकृतिक घटना है-हिन्दी लेख (chadra grahan and sooryagrahan-hindi lekh)


    दुनियां में सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण आते रहते हैं। बरसों से हम देख रहे हैं पर इतनी चर्चा कभी नहीं होती थी। बचपन में बुजुर्गों के पहले ही पता चल जाता था कि अमुक तारीख को सूर्य ग्रहण या चंद्रग्रहण है। उस दिन कुछ सावधानी बरतने की बात कही जाती पर वह आज के टीवी चैनलों की तरह महाबहस का विषय नहीं होती थी। सच कहें तो सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण को सामान्य घटना ही माना जाता था। कहीं आतंक या डर का माहौल नहीं देखा। आजकल   टीवी चैनलों ने दोनों ग्रहणों का बाज़ारीकरण कर दिया है।
         कह रहे हैं कि डरो नहीं, खूब देखो। कुछ परेशानी नहीं है। इन चैनलों पर बहस के लिये आने वाले वही लोग होते हैं जो पहले भी आते रहे हैं। खगोलशास्त्र से जुड़ी इन घटनाओं पर चर्चा करने के लिये ज्योतिषी बुलाये जाते हैं। फिर उनका मुकाबला करने के लिये कुछ आधुनिक विज्ञान समर्थक भी होते हैं। प्रचार इस तरह किया जाता है कि जैसे हिन्दू समाज में ही अंधविश्वास हो और पश्चिमी विज्ञान एकदम प्रमाणिक है। यह सब देखकर हम तो यह सोचते हैं कि भारतीय हिन्दू समाज इतना अविकसित ओर पिछड़ा नहीं है जितना आधुनिक ज्ञानी समझते हैं। देखा जाये तो हमारी श्रीमद्भागवत गीता के प्रचलन में आने के बाद भारतीय समाज शायद दुनियां का इकलौता समाज है जो समय के साथ आगे बढ़ता जाता है। यह अलग बात है कि प्रगतिशील और जनवाद से जुड़े विद्वानों का सभी जगह बाहुल्य है जिनकी यह मनोवृत्ति है कि संपूर्ण भारतीय अध्यात्म दर्शन को अवैज्ञानिक तथा समाज को जड़ साबित कर अपनी चेतना की व्यवसायिक धारा प्रवाहित की जाये। फिर उनके साथ बहस करने वाले भारतीय अध्यात्म के ज्ञानी भी कुछ इस तरह पेश आते हैं जैसे कि अंधविश्वास का समर्थन कर रहे हों। पेशेवर ज्योतिषी अपने प्रचार क्रे लिये आते हैं तो उनका मुकाबला करने पेशेवर बहसकर्ता आते हैं। चर्चा कराने वाले उद्घोषक का तो कहना भी क्या? निरपेक्ष दिखने की कोशिश इस तरह करते हैं जैसे कि लग रहा हो कि किसी विषय पर सहमति या असहमति न देना ही उनकी योग्यता का प्रमाण हो।
       भारत के हिन्दी टीवी चैनलों में कार्यरत उद्घोषकों का यह भाग्य है कि भारतीय अध्यात्म की व्यापकता ही उनको इस तरह के कार्यक्रम प्रदान करती है। जिसमें ढेर सारे ग्रंथ हैं और उसमें जीवन के हर पक्ष के साथ -जिसमें मनुष्य तथा अन्य जीव भी शािमल हैं-प्रकृति के रहस्यों पर भी प्रकाश डाला गया है। जबकि अन्य दर्शनों में अन्य जीवों की उपेक्षा कर केवल मानव जीवन पर ही अधिक लिखा और बोला जाता हैं। कुछ बातें मनुष्य समाज के संचालन से संबंधित होती हैं।
        प्रकृति के रहस्यों पर पश्चिम तो अब दृष्टिपात कर रहा है जबकि भारतीय अध्यात्म दर्शन में बहुत पहले ही इस पर लिखा गया है। हमने पंचांगों में सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण की तारीखें देखी हैं जो कि यकीनन पश्चिमी विज्ञान से नहीं ली गयीं। पहले लोग अखबार पढ़े बिना बताते थे कि अमुक दिन चंद्रग्रहण या सूर्यग्रहण है।
बहरहाल भारत के टीवी चैनल अपने व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति अपने अध्यात्मिक दर्शन के आधार पर कर लेते हैं यह अलग बात है कि अपने चश्में से समाज को अधंविश्वासी समझने वाले उद्घोषक अपने को भले ही चालाक समझें पर हम सब जानते हैं कि उनकी अदायें ऐसी न हों तो शायद उनका काम भी न चले।
       पिछली बार के पूर्ण सूर्यग्रहण की याद आती है जब कहा गया है कि उसे देखना ठीक नहीं है और देखना है तो विशेष प्रकार के चश्में से देखें। सामान्य रंगीन चश्में से काम नहीं चलेगा। हम आज भी सामान्य काले चश्में से दोपहर मेें तपते हुए सूर्य को आसानी से देख पाते हैं। तब यह सवाल आता है कि ग्रहण के समय जब सूर्य का प्रकाश कम हो जाता है तो वह सामान्य से अधिक खतरनाक कैसे हो सकता है। उस समय खूब सूर्यगं्रहण देखने वालेचश्में बिके थे उसमें कुछ तो नकली भी बताये गये थे। तय बात है कि बाज़ार ने ही ऐसा प्रचार करवाया होगा ताकि वह अपने उत्पाद बेच सके। वैसे तो इष्ट दिवस, मित्र दिवस, पितृदिवस, मातृदिवस तथा प्रेम दिवस जैसे पश्चिमी दिवसों को भारतीय प्रचार माध्यम अपने प्रायोजक बाज़ार के लिये विज्ञापन प्रसारित कर उसके लिये ग्राहक जुटाते हैं। वैसे ही भारतीय त्यौहारों के साथ सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण भी उनके लिये विज्ञापन प्रसारण के बीच में कार्यक्रम की सामग्री बन जाते हैं।
      वैसे चर्चाओं में शामिल लोग भारतीय समाज को फालतु समझते हैं पर लोगों को लगते स्वयं फालतू हैं-हम नहंी मानते क्योंकि पता है कि यह सब कमाई करने और प्रचार पाने के लिये बहस करने आते हैं।
हम यह खग्रास चंद्रग्रहण देख पायेंगे कि पता नहीं। यह लेख लिखने के तत्काल बाद ही सोने का प्रयास करेंगे। अगर बीच में नींद टूटी तो छत पर देखने जायेंगे कि कैसा है खग्रास चंद्रग्रहण। जहां हानि लाभ, दुःख सुख, और जीवन मरण का सवाल है तो वह इस संसार का हिस्सा हैं। जब तक देह हैं तो विकार आयेंगें। भूख लगेगी, प्यास लगेगी। कभी जीभ किसी नये स्वाद के लिये चीत्कार करेगी। जिस तरह सत्य अनंत है वैसे ही माया भी अनंत है। सत्य सूक्ष्म है और उसे ध्यान आदि के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है तो माया इतनी व्यापक है कि उसके चक्र में फंसे तो सभी हैं पर समझ नहीं पाते। खेलती माया है और आदमी सोचता है कि मैं खेल रहा हूं।
      जहां तक चर्चाओं का सवाल है तो भारतीय अध्यात्म इतना विशाल है कि जिस विषय पर चाहो बहस कर लो। जहां चार बुजुर्ग मिलते हैं किसी न किसी धर्मग्रंथ पर बहस करने लगते हैं। सभी अपना ज्ञान सुनाते हैं पर सुनता कौन है पता नहीं। सभी बोलते हैं। यही हाल टीवी चैनलों का है पर वहां के उद्घोषक तमाम तरह के तामझाम और आकर्षण मे घिरे होते हैं इसलिये उनको विद्वान माना जाता है। यह अलग बात है कि उनकी महाबहस-यह शब्द आज तक हमारे समझ में नहीं आया-अध्यात्मिक में वास्तविक रुचि रखने वालों के लिये हास्य का विषय होती है।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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बाबा रामदेव की जीवन शैली भी विचार का विषय-हिन्दी लेख (baba ramdev ki jivan shaili charcha ka vishay-hindi lekh)


         ले ही कोई इंसान बाबा रामदेव से निजी रूप से न मिला हो पर टीवी और अखबारों पर उनके साक्षात्कार तथा गतिविधियां पढ़कर उसे इसमें कोई संदेह नहीं रहेगा कि स्वामी रामदेव एक भोलेभाले, मस्त और हंसमुख स्वभाव का होने के साथ ही चेतनशील मनुष्य हैं। बाबा रामदेव को देखकर कोई भी यह शक जाहिर कर सकता है कि वह अपने भ्रष्टाचार विरोधी राष्ट्रव्यापी विरोधी आंदोलन तथा भारत स्वाभिमान यात्रा में किसी दूसरे विचारशील इंसान के रिमोट कंट्रोल के संकेतों पर काम कर रहे हैं। इसकी संभावना को हम खारिज नहीं करते पर इस पर यकीन भी नहीं करते। वैसे इस देश में योग साधना में दक्ष लोगों की कमी नहीं है पर समाज को उच्च लक्ष्य पर पहुंचाने में सक्रियता के विषय में अधिक रुचि के कारण बाबा रामदेव भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में लोकप्रिय हुए हैं। ऐसे में दुनिया भर के प्रचार माध्यम उनके बारे में अपने प्रसारण करते हैं पर इसका यह आशय कतई नहीं कि हरेक कोई उनके बारे में जानने का दावा करे। वह एक महायोगी हैं और युगपुरुष बनने की तरफ अग्रसर हैं इसलिये यह सोचना कि उनसे बड़ा कोई चिंतक इस देश में है यह बात ठीक नहीं लगता।
      बाबा रामदेव के आंदोलन में  चंदा लेने के अभियान पर उठेंगे सवाल-हिन्दी लेख (baba ramdev ka andolan aur chanda abhiyan-hindi lekh)
      अंततः बाबा रामदेव के निकटतम चेले ने अपनी हल्केपन का परिचय दे ही दिया जब वह दिल्ली में रामलीला मैदान में चल रहे आंदोलन के लिये पैसा उगाहने का काम करता सबके सामने दिखा। जब वह दिल्ली में आंदोलन कर रहे हैं तो न केवल उनको बल्कि उनके उस चेले को भी केवल आंदोलन के विषयों पर ही ध्यान केंद्रित करते दिखना था। यह चेला उनका पुराना साथी है और कहना चाहिए कि पर्दे के पीछे उसका बहुत बड़ा खेल है।
    उसके पैसे उगाही का कार्यक्रम टीवी पर दिखा। मंच के पीछे भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का पोस्टर लटकाकर लाखों रुपये का चंदा देने वालों से पैसा ले रहा था। वह कह रहा था कि ‘हमें और पैसा चाहिए। वैसे जितना मिल गया उतना ही बहुत है। मैं तो यहां आया ही इसलिये था। अब मैं जाकर बाबा से कहता हूं कि आप अपना काम करते रहिये इधर मैं संभाल लूंगा।’’
          आस्थावान लोगों को हिलाने के यह दृश्य बहुत दर्दनाक था। वैसे वह चेला उनके आश्रम का व्यवसायिक कार्यक्रम ही देखता है और इधर दिल्ली में उसके आने से यह बात साफ लगी कि वह यहां भी प्रबंध करने आया है मगर उसके यह पैसा बटोरने का काम कहीं से भी इन हालातों में उपयुक्त नहीं लगता। उसके चेहरे और वाणी से ऐसा लगा कि उसे अभियान के विषयों से कम पैसे उगाहने में अधिक दिलचस्पी है।
            जहां तक बाबा रामदेव का प्रश्न है तो वह योग शिक्षा के लिये जाने जाते हैं और अब तक उनका चेहरा ही टीवी पर दिखता रहा ठीक था पर जब ऐसे महत्वपूर्ण अभियान चलते हैं कि तब उनके साथ सहयोगियों का दिखना आवश्यक था। ऐसा लगने लगा कि कि बाबा रामदेव ने सारे अभियानों का ठेका अपने चेहरे के साथ ही चलाने का फैसला किया है ताकि उनके सहयोगी आसानी से पैसा बटोर सकें जबकि होना यह चाहिए कि इस समय उनके सहयोगियों को भी उनकी तरह प्रभावी व्यक्तित्व का स्वामी दिखना चाहिए था।
अब इस आंदोलन के दौरान पैसे की आवश्यकता और उसकी वसूली के औचित्य की की बात भी कर लें। बाबा रामदेव ने स्वयं बताया था कि उनको 10 करोड़ भक्तों ने 11 अरब रुपये प्रदान किये हैं। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली आंदोलन में 18 करोड़ रुपये खर्च आयेगा। अगर बाबा रामदेव का अभियान एकदम नया होता या उनका संगठन उसको वहन करने की स्थिति में न होता तब इस तरह चंदा वसूली करना ठीक लगता पर जब बाबा स्वयं ही यह बता चुके है कि उनके पास भक्तों का धन है तब ऐसे समय में यह वसूली उनकी छवि खराब कर सकती है। राजा शांति के समय कर वसूलते हैं पर युद्ध के समय वह अपना पूरा ध्यान उधर ही लगाते हैं। इतने बड़े अभियान के दौरान बाबा रामदेव का एक महत्वपूर्ण और विश्वसीनय सहयोगी अगर आंदोलन छोड़कर चंदा बटोरने चला जाये और वहां चतुर मुनीम की भूमिका करता दिखे तो संभव है कि अनेक लोग अपने मन में संदेह पालने लगें।
            संभव है कि पैसे को लेकर उठ रहे बवाल को थामने के लिये इस तरह का आयोजन किया गया हो जैसे कि विरोधियों को लगे कि भक्त पैसा दे रहे हैं पर इसके आशय उल्टे भी लिये जा सकते हैं। यह चालाकी बाबा रामदेव के अभियान की छवि न खराब कर सकती है बल्कि धन की दृष्टि से कमजोर लोगों का उनसे दूर भी ले जा सकती है जबकि आंदोलनों और अभियानों में उनकी सक्रिय भागीदारी ही सफलता दिलाती है। बहरहाल बाबा रामदेव के आंदोलन पर शायद बहुत कुछ लिखना पड़े क्योंकि जिस तरह के दृश्य सामने आ रहे हैं वह इसके लिये प्रेरित करते हैं। हम न तो आंदोलन के समर्थक हैं न विरोधी पर योग साधक होने के कारण इसमें दिलचस्पी है क्योंकि अंततः बाबा रामदेव का भारतीय अध्यात्म जगत में एक योगी के रूप में दर्ज हो गया है जो माया के बंधन में नहीं बंधते।
         अक्सर विश्व भर की प्रसिद्ध हस्तियों के चरित्र की चर्चा होती है पर शायद ही कोई ऐसा हो जो बाबा रामदेव जैसी योग जीवन शैली जीने वाला व्यक्ति राह हो। यहां तक कि बाबा रामदेव जिस महात्मागांधी को आराध्य मानते हैं उन्होंने सादगीपूर्ण जीवन जीने का संदेश न केवल दिया बल्कि उस अमल भी किया पर वह योगसाधक थे ऐसा कोईै प्रमाण नहीं मिलता। ऐसे में हम जब खास व्यक्तियों के जीवन चरित्र का विश्लेषण करते हैं तो सामान्य मानवीय स्वभावगत सिद्धांतों का आधार जरूर बनाकर किसी निष्कर्ष पर पहुंच कर उनके सही होने का दावा भी कर सकते हैं पर योग साधकों को लेकर ऐसी बात नहीं कही जा सकती क्योंकि उनके मूल स्वभाव के बारे में अधिक लिखा नहीं गया हैं।
         यह सच है कि योग साधना से कोई मनुष्य देवता नहीं बन जाता पर उसकी जीवन शैली, रहन सहन, आचार विचार, तथा चिंत्तन के आधार आम लोगों से कुछ अलग हो जाते हैं। संभव है कि बाबा रामदेव अपने अभियानों पर दूसरों की राय लेते हों और सही होने पर उस पर चलते भी हों पर यह तय है कि उनका निर्णय स्वतंत्र और मौलिकता लिये रहता होगा। संभव है कि बाबा किसी काम को न करना चाहते हों पर वह उसे संपन्न होने देते होंगे क्योंकि संगत की बात मानना योगियों का स्वभाव है पर इसे उनकी मौज माना जा सकता है। इसे मजबूरी कहना ठीक नहीं है।
             यह पता नहीं कि बाबा रामदेव अपने आपको संत मानते हैं कि योगी पर हम उनको महायोगी मानते हैं। योगियों और संतों में अंतर है। संतों की दैहिक सक्रियता अधिक न होकर वाणी से प्रवचन करने तक ही सीमित होती है। जब कुछ संत लोग बाबा रामदेव पर टिप्पणियां करते हैं तो उन पर हंसी आती है। योग भले ही भारतीय अध्यात्म का बहुत बड़ा हिस्सा है पर सभी इस पर नहीं चलते। अनेक संतों के लिये तो यह वर्जित विषय है। गेरुए वस्त्र पहनने का मतलब यह नहीं है कि सारे संत बाबा रामदेव को अपनी जमात का समझ लें। एक योगसाधक होने के नाते हम बाबा रामदेव और श्रीलालदेव महाराज को अन्य संतों से अलग मानते हैं। इनमें कई कथित संत तो बाबा रामदेव को सलाहें देते है कि ‘यह करो, ‘वह करो’, ‘यह मत करो’ और ‘यह मत करो’ जैसी बातें बड़े अधिकार के साथ कहते हैं जैसे कि उनसे बड़े ज्ञानी हों। अभी एक कथित शंकराचार्य ने उनको राजनीति में  न आने का सदेश दे डाला तो बरबस हंसी आ गयी क्योंकि हमारे दृष्टिकोण से बाबा रामदेव के अभियान उनके कार्यक्षेत्र से बाहर का विषय है।
              इस लेख के अनेक पाठक शायद इस बात से सहमत न हों पर सच यही है कि कि बाबा रामदेव की समस्त इंदियां आम मनुष्य से अधिक तीक्ष्ण रूप से सक्रिय होंगी क्योंकि वह नियमित रूप से योग साधना, ध्यान और मंत्रजाप करते हैं। जिन लोगों ने सामान्य मात्रा में भी नियमित योग साधना की है वही इस बात को समझ सकते हैं। भले ही इस देश में बड़े बड़े चिंतक और विचारक हैं पर उनकी क्षमता बाबा के समकक्ष नहीं हो सकती। बाबा रामदेव अपने अभियान का शीघ्र परिणामों के लिये उतावले नहीं है क्योंकि वह लंबे समय की सक्रियता का विचार लेकर मैदान में उतरे हैं। फिर देश की स्थिति इतनी दयनीय है कि उसके सुधार में बरसों लग जायेंगे। योगमाता की कृपा से बाबा रामदेव तो इसी तरह बरसों तक आगे बढ़ते जायेंगे पर उनके साथियों और विरोधियों में से अनेक चेहरे समय के साथ बदलते नज़र आयेंगे। जो उन पर आरोप लगा रहे हैं वह आगे भी लगाये जायेंगे पर उस समय आवाज बदली हुई होगी। उनके समर्थन में जो नारे लग रहे हैं वह भी लगते रहेंगे पर जुबान वाले चेहरे बदल जायेंगे।   
          सांसरिक व्यक्ति इस हद तक ही चालाक होता है कि वह अपनी काम कहीं भी सिद्ध कर सके पर योगी कहीं बड़ा चालाक होता है क्योंकि उसका लक्ष्य समाज हित रहता है। संभव है कि बाबा रामदेव के सारे अभियान प्रायोजित हों और उनका चेहरा मुखौटे की तरह उपयोग होता हो पर ऐसा नहीं कि वह इस बात को नहीं जानेंगे। एक योगी जब अपनी पर आता है तो कुछ न करते हुए भी करता दिखता है और बहुत कुछ न करते हुए भी बहुत कुछ करता दिखता हे। अन्य प्रायोजित चेहरों और योगियों में अंतर यही है कि बाकी लोग मजबूरी और लालच में सब चलने देते हैं पर योगी दृष्टा की तरह चालाकी से अपना काम अंजाम देता है। काम भले ही दूसरे के कहने पर करे पर जनहित उसका स्वयं का काम रहता है। अब दूसरे भ्रम पालते रहें कि हम करवा रहे हैं। तीसरे यह भ्रम पालें कि वह दूसरे के कहने से यह काम कर रहे हैं।
          अंतिम बात यह है कि स्वामी रामदेव का आंदोलन उन योग साधकों के लिये जिज्ञासा का विषय हैं जो अभिव्यक्ति के साधनों के साथ सक्रिय हैं। हम लोग इस आंदोलन के समर्थन या विरोध से अधिक इसके भावी परिणामों का अनुमान कर रहे हैं। विरोध और समर्थन में आने वाले चेहरे को पढ़ने के साथ ही स्वर भी सुन रहे है। कोई मनुष्य संसार के बदलने की आशा करता है तो कोई करने का दावा ही करता है पर योगी और ज्ञानी जानते हैं कि इस जीवन की धारा बहने के कुछ नियम ऐसे हैं जो कभी नहीं बदलते भले ही स्थान और नाम बदल जाते हैं। मनुष्य चाहे सामान्य हो या योगी इस त्रिगुणमयी माया के वश होकर अपने स्वभाव के कारण किसी न किसी काम में तो लग ही जाता है-यह बात केवल वही योगी और योगसाधक  जानते हैं जो श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करते हैं। ऐसे में किसी के वक्तव्य और गतिविधियों पर टिप्पणी करना जरूरी नहीं है पर अंततः लेखक भी तो अपने स्वभाव के वशीभूत हेाकर कुछ न कुछ लिखने तो बैठ ही जाता है।
लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior
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श्री मदभागवत गीता से बड़ा गुरु आधुनिक युग में कोई हो नहीं सकता-हिन्दी लेख (shri madbhagawat gita a top teacher in life-hindi lekh)


                    भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार हर जीव में आत्मा होता है पर मनुष्य के मन की चंचलता अधिक है तो उसमें बुद्धि की प्रबलता है। बुद्धि की प्रेरणा से मन जहां भटकाता है वहीं उस पर विवेक से नियंत्रण भी पाया जा सकता है। इसके लिये यह जरूरी है कि ध्यान और भक्ति के द्वारा अपने आत्म तत्व को पहचाना जाये। इस प्रक्रिया को ही अध्यात्मिक ज्ञान कहा जाता है। अध्यात्म का सीधा अर्थ आत्मा ही है पर जब वह हमारे काम काज को प्रत्यक्ष प्रभावित करता है तब उसे अध्यात्म भी कहा जा सकता है। अपने कर्मयज्ञ का स्वामी अध्यात्म को बनाने के लिये यह जरूरी है कि उसके स्वरूप का समझा जाये। यह द्रव्य यज्ञ से नहीं वरन् ज्ञान यज्ञ से ही संभव है।
                मन और बुद्धि के वश होकर किये गये द्रव्य यज्ञ सांसरिक फल देने वाले तो हैं पर उसे अध्यात्म संतुष्ट नहीं होता। ज्ञान यज्ञ की बात कहना बहुत सरल है पर करना बहुत कठिन काम है क्योंकि उसमें मनुष्य की प्रत्यक्ष सक्रियता न उसे स्वयं न दूसरे को दिखाई देती है। कहीं से तत्काल प्रशंसा या परिणाम प्रकट होता नहीं दिखता बल्कि उसे केवल आत्म अनुभूति से ही देखा जा सकता है। अपनी सक्रियता की प्रतिकिया तत्काल देखने के इच्छुक तथा तत्वज्ञान से परे मनुष्य के लिये संभव नहीं है। वैसे तत्वज्ञान के प्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण भी श्रीमद्भागवतगीता में यह स्वीकार कर चुके हैं कि कोई हजार ज्ञानियों में कोई मुझे भजेगा और ऐसे भजने वालों में हजारों में कोई एक मुझे पायेगा।
                     अब यहां प्रश्न आता है कि भगवान को भजने का सर्वश्रेष्ठ तरीका क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने किसी भी प्रकार के भक्ति की नकारात्मक व्याख्या नहीं की पर भक्तों के चार रूप बताये हैंे-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। भक्ति के भी तीन रूप माने हैं सात्विक, राजस तथा तामस। उन्होंने किसी की आलोचना नहीं की बल्कि तामसी प्रवृत्ति की भक्ति को भी भक्ति माना है। दूसरे शब्दों में कहें तो उनका मानना है कि मनुष्य का मन चंचल है और वह कभी कभी उसे भक्ति में भी लगायेगा चाहे भले ही वह तामस प्रवृत्ति की भक्ति करे।
            श्रीमद्भागवत गीता का भक्ति के साथ ही जिज्ञासापूर्वक अध्ययन करने वाले मनुष्य पूर्ण ज्ञानी भले न बनें पर उनकी प्रवृत्ति इस तरह की हो जाती है कि वह उसके ज्ञान के चश्में में दुनियां तथा आईने में अपने को देखने के आदी हो जाते हैं। ऐसे में जब श्रीमद्भागवत गीता में हजारों में भी एक भक्त और उनमें भी हजारों भक्तों में एक के परमात्मा को पाने की बात सामने आती है तो लगता है कि संसार में ऐसे ज्ञानियों की बहुतायत होना संभव नहीं है जो निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया, समदर्शिता का भाव धारी तथा मान अपमान में स्थिरप्रज्ञ होने के साथ ही योग करते हुए आत्मज्ञान प्राप्त करने में तत्पर रहने वाले हों। अधिकतर लोग द्रव्य यज्ञ करते हैं जो कि तत्काल प्रतिक्रिय पाने वाले होते हैं। उनका मन जब संसार के कर्म से विरक्त हो जाता है तब भक्ति की तरफ दौड़ता है। घर परिवार की परेशानियों का हल करना मनुष्य का लक्ष्य होता है तब वह वह चमत्कारों की तरफ भागता है। ऐसे में ज्ञान देने वाले गुरुओं की बजाय चमत्कार से उनकी परेशानियों  का हल करने वाले जादूगरों उनको बहुत भाते हैं। वैसे हाथ की सफाई दिखाने वाले जादूगर इस संसार में बहुत हैं पर वह संत होने का दावा नहीं  करते पर जिनको संत कहलाने की ललक है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के ग्रंथ पढ़कर संदेश रट लेते हैं और हाथ की सफाई के साथ चमत्कार करते हुए उनका प्रवचन भी करते हैं। ऐसे ही लोग प्रसिद्ध संत भी हो जाते हैं।
              यहां तक सब ठीक है पर ऐसे संतों को भारतीय अध्यात्मिक दर्शन नकार देता है। भारत में बहुत सारे महापुरुष हुए हैं जिनके कारण भारतीय अध्यात्म की धारा अविरल बहती रही है। प्राचीन काल में भगवान के अवतारों में राम और कृष्ण तो हमारे जीवन का आधार है पर मध्य काल में महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर जी ने भी भारतीय अध्यातम ज्ञान की धारा प्रवाहित की। महान नीति विशारद चाणक्य का भी नाम हमारे देश में सम्मान से लिया जाता है। आधुनिक काल में भगवत्रूप श्री गुरुनानक जी भारतीय अध्यात्मिक धारा को नयी दिशा देने वाले माने जाते हैं तो संतप्रवन कबीर, कविवर रहीम, महात्मा तुलसीदास तथा भक्तवत्सला मीरा की अलौकिक रचनायें तथा कर्म भारतीय आध्यात्मिक की धारा को वर्तमान कलं तक बहाकर लायी है। जिससे हमारा देश में विश्व में अध्यात्मिक गुरु कहा जाता है।
                 सवाल यह है कि जब हम देश में सक्रिय ढेर सारे साधु संत, ज्ञानी, बाबा, साईं और योग शिक्षक देखते हैं और फिर नैतिक पतन की गर्त में गिरे समाज पर दृष्टि जाती है तो यकायक यह प्रश्न हमारे दिमाग में आता है कि आखिर यह विरोधाभास क्यों है?
              दरअसल मनुष्य की अध्यात्मिक भूख शांत करने के लिये व्यवसायिक लोग ही सक्रिय रह गये है और स्वप्रेरणा से निष्काम भाव से समाज का उद्धार करने वाले लोग अब दिखते ही नहीं है। पहले समाज को समझाने का यह काम गैर पेशेवर लोग किया करते थे अब बकायदा पेशेवर संगठन बनाकर यह काम किया जा रहा है। श्रद्धा और निष्काम भाव से अध्यात्मिक दर्शन की सेवा करने वाले लोग अंततः महापुरुष बन गये पर अब पेशेवर लोगों की छवि वैसी नहीं बन पायी भले ही आज के प्रचार माध्यम उनकी तारीफों के पुल बांधता हैं। उनका यह प्रयास भी अपने विज्ञापन चलाने के कार्यक्रमों के तहत किया जाता है।
आखिरी बात यह कि हमारे देश जनमानस पेशेवर संतों की असलियत जानता है। अक्सर कुछ विद्वान अपने देश के लोगों पर झल्लाते हैं कि वह ढोंगी संतों और प्रवचनकर्ताओं के पास जाते ही क्येां हैं? उनको यह पता होना चाहिए कि हर आदमी में अध्यात्मिक भूख होती है। सभी ज्ञानी हो नहीं सकते इसलिये लोगों को तात्कालिक रूप से मनोरंजन के माध्यम से शांति प्रदान करने वाले व्यवसायी प्रकृति के लिये यहां ढेर सारे अवसरे हैं। उनके लिये भारतीय अध्यात्म एक स्वर्णिम खदान है। जिसमें से मोती चुनकर लोगों को चमत्कार की तरह प्रस्तुत करते रहो और अपने लिये माया का शिखर रचते रहो।
            मनुष्य में विपरीत लिंग और स्थिति का आकर्षण स्वाभाविक रूप से रहता है। लिंग के आकर्षण के बारे में तो सब जानते हैं पर मन को विपरीत स्थितियों का आकर्षण भी मन को बांधता है। महल में रहने वाला झौंपड़ियों के रहवासियों को सुखी देखता है तो गरीब अमीर का वैभव देखकर चकित रहता है। संपन्नता में पले आदमी को अभाव की कहानियां कौतुक प्रदान करती हैं तो विपन्न आदमी को संपन्न और चमत्कारी कहानियां रोमांच प्रदान करती है। मूल बात यह है कि आदमी अपने नियमित काम से इतर मनोंरजन चाहता है चाहे वह अध्यात्म के नाम पर रचे प्रपंच से मिले यह मनोरंजन के बहाने फूहड़ता प्रस्तुत करने से मिले। यही कारण है कि हमारे देश में संत, सांई, सत्य साईं, बाबा, बापू, योगीराज तथा भगवान के अवतारी नाम से अनेक कथित महापुरुष विचरते मिल जाते हैं। अध्यात्म की खदान से निकले उनके शब्दों से उनको हमारे बौद्धिक रूप से गरीब समाज में सम्मान तो मिलना ही है जब मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता प्रदर्शित करने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों को ही देवता का दर्जा मिल जाता है।
             आखिरी बात श्रीमद्भागवत गीता के महत्व की है। विश्व की यह अकेली पुस्तक है जिसमें ज्ञान और विज्ञान है। ज्ञान का अभौतिक विस्तार शब्द स्वरूप है तो तो उसका भौतिक विस्तार विज्ञान है। शब्द स्वरूप अदृश्य है इसलिये उसकी सक्रियता नहीं देखी जाती पर उसकी शक्ति अद्भुत है। जबकि विज्ञान दृश्यव्य है इसलिये उसकी सक्रियता प्रभावित करती है जबकि उसका प्रभाव क्षणिक है। सच बात तो यह है कि हमारे समाज का बौद्धिक नेतृत्व श्रीगीता से दूर भागता है क्योंकि उसके प्रचार से उसकी अहंकार प्रकृति शांत नहीं होती जो मनुष्य में दूसरों से सम्मान पाने की भूख पैदा करती है। जिनको श्रीगीता के अध्ययन से तत्वज्ञान मिलता है वह प्रचार करने नहीं निकलते। इसलिये उसका अध्ययन करना ही श्रेष्ठ है। कम से कम आज जब संसार में अधिकतर देहधारी मनुष्य माया के भक्त हो गये। ऐसे में श्रीमद्भागवत गीता के अलावा कोई दूसरा गुरु दृष्टिगोचर नहीं होता।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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शोक, खुशी और नृत्य एक साथ-हिन्दी लेख (mourn, enjoyment and dance with all-hindi lekh)


         हिन्दी समाचार टीवी चैनलों का तो कहना ही क्या? क्रिकेट के भगवान का जन्म दिन, धार्मिक संत का परमधाम गमन दिवस और क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता के प्रचार को को बड़ी चालाकी से विज्ञापनों में एक साथ प्रसारित कर शोक, खुशी और नाच से संयोजित कार्यक्रम प्रसारित किए। क्रिकेट के भगवान को धार्मिक संत का महान शिष्य बता दिया जबकि अभी तक यह बात किसी को पता नहीं थी। दोनों एक साथ काम किये। संत को बड़ा बनाया तो खिलाड़ी को धार्मिक! सभी के हिन्दी समाचार टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में गज़ब की एकरूपता है जिसे देखकर लगता नहीं कि उनके मालिक अलग अलग हैं। अगर मालिकों के नाम अलग अलग हों तो फिर लगता है कि उनका प्रायोजक कोई एक ही होना चाहिए जिसके अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष इशारों पर ही उनके कार्यक्रम चलते हैं। अगर किसी फिल्म अभिनेता, अभिनेत्री या क्रिकेट खिलाड़ी का जन्म दिन है तो एक ही समय पर उससे संबंधित कार्यक्रम सभी टीवी चैनलों पर एक साथ आता है। उससे दर्शक के विकल्प नहीं रहता। किसी बड़ी शख्सियत का वार्तालाप अगर एक पर सीधे प्रसारित होता है तो सभी पर वही दिखाई देता है।
         इस तरह की एकरूपता शक पैदा करती है कि कोई एक व्यक्ति या समूह अपने पैसे की दम पर टीवी चैनलों पर प्रभाव डाल रहा है। वरना यह संभव नहीं है। जिन लोगों को पत्रकारिता का अनुभव है वह जानते हैं कि सभी अखबारों में खबरें एक जैसी होती हैं पर उनके क्रम में एकरूपता नहंी होती। कई बार तो प्रमुख खबरों में ही अंतर हो जाता है। इसका कारण यह है कि हर अखबार के संपादक का अपना अपना नजरिया होता है और यह संभव नहीं है कि सभी का एक जैसा हो जाये।
         इन हिन्दी समाचार टीवी चैनलों की व्यवसायिक चालाकियों का भी एक ही तरीका है और संभव है कि एक दूसरे की नकल पर आधारित हो, पर जिस तरह देश के दर्शकों को नादान तथा चेतनाविहीन इन लोगों ने समझा है वह शक पैदा करता है कि ऐसा करने के लिये कोई उनको प्रेरित करता है। वैसे तारीफ करना चाहिए इन लोगों की व्यवसायिक चालाकी की पर मुश्किल यह है कि वह ऐसा कर यह संदेश देते हैं कि उनका अस्तित्व स्वतंत्र नहीं है और वह दृश्यव्य तथा अदृश्व्य धनदाताओं के आधीन ही वह कार्य करते हैं।
क्रिकेट खिलाड़ी का जन्म दिन पड़ा तो धार्मिक संत ने भी उसी दिन देह त्यागी। बताया गया कि क्रिकेट के भगवान उन धार्मिक संत के बहुत बड़े भक्त हैं। वह आज क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता में अपना मैच नहीं खेलना चाहते। वह अपना जन्म दिन नहीं मना रहे। बताया तो यह गया कि क्रिकेट के भगवान ने अपने को कमरे में बंद कर लिया है। इस तरह क्लब स्तरीय प्रतियोगिता का प्रचार हुआ। क्रिकेट खिलाड़ी के जन्म दिन पर कसीदे भी पढ़ते हुए बताया गया कि वह तो सत्य साई के भक्त हैं। क्रिकेट के भगवान के साईं शीर्षक के कार्यक्रम प्रसारित हुए। फिर यह बताना भी नहीं भूले कि उस क्रिकेट के भगवान को लोगों ने जन्मदिन की बधाई दी।
        पुट्टापर्थी के धार्मिक संत सत्य साईं बाबा के निधन पर उनके भक्त दुःखी हैं। उन्होंने अपने क्षेत्र मेें बहुत काम किया। इस पर विवाद नहीं है पर उनके निधन पर घड़ियाली आंसु बहाता हुऐ हिन्दी समाचार चैनल अन्य लोगों के लिये हास्य का भाव पैदा कर रहे हैं। सच कहें तो एक तरह से वह शोक मना रहे हैं जिसमें क्रिकेट खिलाड़ी का जन्म दिन भी शामिल कर लिया तो क्लब स्तरीय क्रिकेट भी शामिल होना ही था। सारी दुनियां जानती हैं कि प्रचार माध्यम किसी के मरने पर कितना दुःखी होते हैं। सत्य साईं के निधन पर दुःख व्यक्त करना यकीनन प्रचार प्रबंधकों की व्यवसायिक मज़बूरी है। उनकी संपत्ति चालीस हजार करोड़ की बताई गयी है जो कि मामूली नहीं है। यकीनन उनके संगठन की पकड़ कहीं न कहीं न वर्तमान बाज़ार पर रही होगी। इसलिये उनके भावी उत्तराधिकारियों  को प्रसन्न करने के लिये यह प्रसारण होते रहे। बाज़ार के सौदागरों ने स्पष्ट रूप से प्रचार प्रबंधकों को इशारा किया होगा कि यह सब होना है। अगर ऐसा नहीं होता तो शोक जैसा माहौल बना रहे इन समाचार चैनलों ने विज्ञापन कतई प्रसारित नहीं किये होते।
              अगर ऐसा नहीं भी हो रहा है तो यह मानना पड़ेगा कि हिन्दी टीवी चैनलों के संगठनों के पास समाचार, विश्लेषण तथा चर्चाओं के लिये विद्वान नहीं है इसलिये वह क्रिकेट, फिल्म और मनोरंजन चैनलों की कतरनों के सहारे चल रहे हैं। इनके मालिक कमा खूब रहे हैं पर अपने चैनल पर खर्च कतई नहंी कर रहे। भले ही देश में ढेर सारे समाचार चैनल हैं पर प्रतियोगिता इसलिये नहीं है क्योंकि उनको विज्ञापन मिलने ही है चाहे जैसे भी कार्यक्रम प्रसारित करें। उनको बड़ी कंपनियां कार्यक्रमों या अपने उत्पाद के प्रचार के लिये प्रचार माध्यमों को विज्ञापन नहीं देती बल्कि उनके दोष सार्वजनिक रूप से लोगों के सामने नहीं आयें इसलिये देती है। यही कारण है कि प्रयोक्ताओं की पसंद नापसंद की परवाह नहीं है और थोपने वाले समाचार और विश्लेषण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। अर्थशास्त्र पढ़ने वाले जानते हैं कि भारत में धन की कमी नहीं पर फिर भी लोग गरीब हैं क्योंकि यहां प्रबंध कौशल का अभाव है। पहले यह सरकारी क्षेत्र के बारे में कहा जाता था पर निजी क्षेत्र भी उससे अलग नहीं दिखता यह सब प्रमाणित हो रहा है।

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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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होली और 19 मार्च का इंतजार, चंद्रमा जो निकट आना है-हिन्दी लेख (holi parva ka din aur super moon-hindi lekh)


होली का दिन चंदामामा और जापान में सुनामी 
खबरिया लोगों के अनुसार चंद्रमा 19 मार्च को धरती के सबसे अधिक निकट होगा। साथ ही यह भी बता रहे हैं कि जब चंद्रमा धरती के निकट होता है तब भयानक स्थिति होती है। प्रथ्वी पर अनेक तरह के अनेक प्राकृतिक प्रकोप  बरसते हैं। चूंकि यह चंद्रमा प्रथ्वी के निकट आने का दौर शुरु हो चुका है और उसका पहला झटका जापान में लग चुका है इसलिये लोग अब 19 मार्च का इंतजार कर रहे हैं कि देखें अब विध्वंस का कौनसा रूप सामने आयेगा? संभव है कहीं कोई दूसरी बड़ी दुर्घटना हो और उसमें ऐसे ही इंतजार करने वाले भी कुछ लोग निपट जायें पर तब उनका हादसा दूसरे के लिये मनोरंजन बन जायेगा। सीधी बात यह है कि यह मानवीय स्वभाव है कि वह अपने मनोरंजन के लिये कभी प्रेम प्रसंग तो कभी हादसे देखना चाहता है।
प्रसंगवश 19 मार्च को होली का पर्व आ रहा है। इधर चंद्र महाराज भी हमारे निकट चले आ रहे हैं। एक बात तो सत्य है कि समुद्र में ज्वार भाटा रात्रि के समय चंद्रमा की उपस्थिति में आता है। इसलिये समंदर के पानी और चांद की रौशनी की मोहब्बत समझी जा सकती है। जब होली के दिन चंद्रमा दुनियां के निकट होगा तब कहीं न कहीं दुर्धटना तो जरूर होगी क्योंकि उनका क्रम तो अनवरत रहना ही है। सवाल यह है कि चंद्रमा के निकट न होने पर भी तो दुर्घटनाऐं होती हैं । इसलिये चंद्रमा के निकट होने से उनको जोड़ा क्यों जाये? हत्यायें, डकैती, बलात्कार, ठगी तथा बहुत सारे पाप कर्म हर समय इस संसार में होते हैं और आगे भी होंगे। चंद्रमा दूर रहे या पास दुनियां के पापकर्म निरंतर जारी रहेंगे। कुछ लोगों को दंड भी मिलता है और कुछ साफ सुथरे बने रहते हैं। जिसको इन दिनों पापकर्म का दंड मिल जायेगा वह चंद्रमा के निकट होने को दोष देंगे। कुछ लोग पापकर्म नहीं करने पर भी किसी हादसे का शिकार हो सकते हैं तब वह भी चंद्रमा के निकट होने को दोष देंगे।
इधर टीवी चैनल कह रहे हैं कि अगले 48 घंटे जापान के लिये बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके परमाणु संयंत्र संकट में हैं और उनमें कोई बड़ा विस्फोट हो सकता है। हम यह लेख 17 मार्च रात्रि नौ बजे लिख रहे हैं। मतलब यह कि 19 मार्च 2011 को अगर कोई दुर्घटना हुई तो चंद्रमा पर आक्षेप आयेगा। अब सवाल यह है कि इंसानों को किसने कहा था कि परमाणु संयंत्र बनाओ। वह भी भूकंप वाले ऐसे देश में जो पहले ही दो परमाणु बमों का विस्फोट झेल चुका है।
बहरहाल जापान की स्थिति अनिश्चित है। पहले सुनामी आई और अब रेडियम फैलने से उसको किस तरह कितना नुक्सान होगा यह अनुमान किसी ने नहीं लगाया है पर एक बात तय है कि वायु अगर विषाक्त हुई तो वहां किसी का भी रहना मुश्किल है। जब वायु विषाक्त हुई तो जल नहीं भी वैसा हो जायेगा। इसका मतलब यह कि जीवन का आधार खत्म ही हो जायेगा। यह इंसान का भ्रम है कि दौलत से वह ंिजंदा है। वह दौलत जो अब कागज के रूप में ही दिखती है उसे सांसें नहीं दे सकती। खाना, दारु, और दूसरे सामान खरीदते हुए आदमी अपनी प्राकृतिक सांसों की कीमत भूल जाता है। जल को केवल प्यास बुझाने वाला द्रव्य समझता है। उसे लगता है कि वह स्वचालित कंप्यूटर है। ऐसी प्राकृतिक आपदाऐं उसे अपनी और माया की औकात बताती हैं।
भारत से कुछ ऐसे लोगों के वहां जाने की जानकारी भी मिली जिन्होंने वहां नौकरी पाने के लिये लाखों रुपये खर्च किये। ऐसे में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जब लाखों रुपये हैं तो नौकरी किसलिये करने गये। जापान में मौजूद भारतीयों की हालत पर भारतीय चैनल बड़ा हो हल्ला बचा रहे थे। कुछ ने तो वहां काम कर रहे भारतीयों का आर्तनाद भी दिखाया जो कह रहे थे कि‘उनको भारत बुलाया जाये। वह भूखे मर रहे हैं। सरकार बाहर का खाना खाने के लिये मना कर रही है और घर में कुछ मिल नहीं रहा’ इधर कुछ भारतीय वापस लौटे तो कह रहे थे कि ‘वहां सब ठीक है। बस तीन दिन में तीन सौ भूकंप के झटके लगे।
ऐसे में सवाल यह है कि फिर वह वापस क्यों लौटे? अगर उनके लिये वहां सब ठीक था तो उन बिचारों को आने देते जो लाचारी की हालत में हैं। जो लोग जल्दी भारत लौटे हैं उनको शायद यहां ज्यादा अच्छा नहीं लगेगा। अगर वहां दस पंद्रह दिन रह लेते तब पता लगता कि अपने देश की जलवायु की कीमत क्या है? वैसे धन्य है वह लोग जो भूकंप के झटके झेलने वाले देश जापान में बसते रहे। हम एक दिन योग साधना कर रहे थे कि अचानक धरती के अंदर हलचल अनुभव हुई। शवासन में थे और उस हलचल ने विचलित कर दिया तो उठकर बैठ गये। साथी साधक बैठा था उसने पूछा-‘क्या हुआ।’
हमने कहा-‘जमीन में हलचल लग रही थी।’
उसने कहा-‘ऐसे ही कहीं से आवाज आई होगी।’
ऐसी आवाज दो बार आई। हम योग साधना समाप्त कर घर लौटे। एक घंटे में पता चल गया कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में भूकंप आया था। उसकी हलचल हमारे शहर में भी पायी गयी थी। समय वही था जब हमने अनुभव किया कि जमीन में हलचल हो रही है। अगर ऐसी हलचल हमें प्रतिदिन अनुभव हो तो शायद हमारी मनस्थिति बिगड़ जाये और पलंग पर आसन कर उसे तोड़ना प्रारंभ कर दें। पता नहीं कितने पलंग तोड़ डालें क्योंकि हम अब योगसाधना से विरक्त नहीं हो सकते। ऐसा निरंतर आने वाला भूकंप आदमी की मनोदशा नहीं बिगाड़ेगा इस पर यकीन करना कठिन है। जापान और अमेरिका हम जैसे भारतीयों के लिये सपने में आने वाले देश हैं। हम उनको भाग्यशाली समझते है जो बाहर जाते हैं। मगर उनका इस तरह वापस लौटना या कहें भाग कर आना अजीब लगता है। प्रसंगवश बता दें कि विश्व के अनेक विशेषज्ञ प्राकृतिक रूप से भारत को संपन्न राष्ट्र मानते हैं। यह अलग बात है कि हम भारतीय यह बात आज तक नहीं समझ पाये। बहरहाल हमें 19 मार्च और होली का इंतजार तो रहना ही है। यह जानते हुए कि समय निकल ही जाता है। हम जिंदा रहें या नहीं।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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