Tag Archives: संस्कृति

कबीर के दोहे-दुष्टों की निंदा के बजाय साधुओं की प्रशंसा में वक्त बिताएं (kabir ke dohe-ninda aur prashansa)


काहू को नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय।
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय।।
       संत कबीरदास का कहना है कि चाहे व्यक्ति अच्छा हो या बुरा उसकी निंदा न करिये। इसमें समय नष्ट करने की बजाय उस आदमी की बार बार प्रशंसा करिये जिसके लक्षण साधुओं की तरह हों।
सातो सागर मैं फिर, जम्बुदीप दै पीठ।
परनिंदा नाहीं करै, सो कोय बिरला दीठ।।
       संत कबीरदास जी कहते हैं कि मैं सारा संसार फिरा पर ऐसा कोई नहीं मिला जो परनिंदा न करता हो। ऐसा तो कोई विरला ही होता है।
       वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य का स्वभाव है परनिंदा करना। सच बात तो यह है कि हर मनुष्य अपने घर संसार के कामों में व्यस्त रहता है पर यह चाहता है कि लोग उसे भला आदमी कहें। ऐसा सम्मान तभी प्राप्त हो सकता है जब अपने जीवन से समय निकालकर कोई आदमी दूसरों का काम करे और सुपात्र को दान देने के साथ ही असहाय की सहायत के लिये तत्पर रहे। यह काम विरले ही लोग करते हैं और सामान्य मनुष्य उनको फालतु या बेकार कहकर उनकी अनदेखी करते हैं अलबत्ता उनको मिलने वाली इज्जत वह भी पाना चाहते हैं। ऐसे में होता यह है कि लोग आत्मप्रचार करते हुए दूसरों की निंदा करते हैं। अपनी लकीर खींचने की बजाय थूक से दूसरे की लकीर को छोटा करते हैं। दुनियां में ऐसे लोग की बहुतायत है पर संसार में भले लोग भी कम नहीं है। सच बात तो यह है ऐसे ही परोपकारी, दानी, ज्ञान और कोमल स्वभाव लोगों की वजह से यह संसार भले लोगों की भलाई के कारण चल रहा है। सामान्य मनुष्य तो केवल अपना घर ही चला लें बहुत है।
       अधिकतर मनुष्य अपने काम में व्यस्त हैं पर सम्मान पाने का मोह किसे नहीं है। कहीं भी किसी के सामने बैठ जाईये वह आत्मप्रवंचना करता है और उससे भी उसका मन न भरे तो किसी दूसरे की निंदा करने लगता है। कबीरदास जी के कथनों पर विचार करें तो यह अनुभव होगा कि हम ऐसी गल्तियां स्वयं ही करते हैं। अतः अच्छा यही है कि खाली समय में कोई परोपकार करें या अध्ययन एवं भक्ति के द्वारा अपना मन शुद्ध करें। दूसरों की निंदा से कुछ हासिल नहीं होने वाला। हां, अगर कोई भला काम करता है तो उसकी प्रशंसा करें। एक बार नहीं बार बार करें। संभव है उसके गुण अपने अंदर भी आ जायें। याद रखिये दूसरे के अवगुणों की चर्चा करते हुए वह हमारे अंदर भी आ जाते हैं।  शायद इसलिए ही कहा जाता है कि बुरा मत कहो,बुरा मत देखो और बुरा मत सुनो।  साथ ही यह भी कहा जाता है कि सबसे अच्छा बर्ताव करो पता नहीं कब किसकी जरूरत पड़ जाए।

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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
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रहीम दर्शन-अहंकारी को जागृत करना व्यर्थ (ahankar aur jagran-rahim ke dohe)


कदल सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन

कविवर रहीम कहते हैं कि कि स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूंदें कदली में प्रवेश कर कपूर बना जाता है, समुद्र की सीपी में जाकर मोती का रूप धारण कर लेता है और वही जल सर्प के मुख में जाकर विष बन जाता है।
अनकीन्ही बातें करै, सोवत जागै जोय
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय

कविवर रहीम कहते हैं कि कई लोग ऐसे हैं जो कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं। ऐसे लोग जागते हुए भी सोते हैं। ऐसे अहंकारी व्यक्ति को सिखाना या जागृत करना बिल्कुल व्यर्थ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे व्यक्तियों की अभाव नहीं है जो अपनी कथनी और करनी में भारी भेद प्रकट करते हुए थोड़ा भी संकोच अनुभव नहीं करते। एक तरफ वह आदर्श की बात करते हुए नहीं थकते पर दिन भर वह माया के फेरे में सारी नैतिकता को तिलांजलि देते हैंं। अगर ऐसा न होता तो इस देश में इतने सारे साधु और संत और उनके करोड़ों शिष्य हैं फिर भी पूरे देश मेंे अनैतिकता, भ्रष्टाचार, गरीबों और परिश्रमियों का दोहन तथा अन्य अपराधों की प्रवृतियों वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। आजकल ईमादारी से संग्रह करना कठिन हो गया है। इसका आशय यह है कि जो कमा रहे हैं वही दान कर रहे हैं और अपने गुरुओं के आश्रमों में भी उपस्थिति दिखाते हैं। हर जगह धन सम्राज्य है पर माया से दूर रहने की बात सभी करते हैं। अपराधी हो या सामान्य आदमी भक्ति जरूर करते दिखते हैं। अपराधी अपने दुष्कर्म से बाज नहीं आता और सामान्य आदमी को अपने काम से ही समय नहीं मिलता। बातें सभी आदर्श की करते हैं। यही भेद है जिसके कारण देश में अव्यवस्था फैली है।

इसके अलावा सभी लोग भले आदमी से संगति तो करना ही नहीं चाहते। जो समाज को अपनी शक्ति से आतंकित कर सकता है लोग उससे अपने संपर्क बनाने को लालायित रहते हैं। वह सोचते हैं कि ऐसे असामाजिक तत्व समय पर उनके काम में आयेंगे पर धीरे-धीरे उनके संपर्क में रहते हुए उनका स्वयं का नैतिक आचरण पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। संगति का प्रभाव होता है-यह बात निश्चित है। अगर किसी शराबी के पास कोई व्यक्ति बैठ जाये तो उसकी बातें सुनकर उसका स्वयं का मन वितृष्णा से भर जाता है और वही व्यक्ति किसी सत्संगी के पास बैठे तो उसमें अच्छे और सुंदर भावों का प्रवाह अनभूति कर सकता है। अतः अपने लिये हमेशा अच्छी संगति ही ढूंढना चाहिए।
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भर्तृहरि नीति शतक-अनैतिकता से ऐश्वर्य नष्ट होता है (anetikta se eshvarya nasht hota hai-adhyatmik sandesh)


भर्तृहरि महाराज कहते है कि
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दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनष्यति यतिः सङगात्सुतालालनात् विप्रोऽन्ध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात्
ह्यीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्मैत्री चाप्रणयात्सृद्धिरनयात् त्यागपमादाद्धनम्

हिंदी में भावार्थ-कुमित्रता से राजा, विषयासक्ति और कामना योगी, अधिक स्नेह से पुत्र, स्वाध्याय के अभाव से विद्वान, दुष्टों की संगत से सदाचार, मद्यपान से लज्जा, रक्षा के अभाव से कृषि, परदेस में मित्रता, अनैतिक आचरण से ऐश्वर्य, कुपात्र को दान देने वह प्रमाद से धन नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ संक्षिप्त व्याख्या-आशय यह है कि जीवन में मनुष्य जब कोई कर्म करता है तो उसका अच्छा और बुरा परिणाम यथानुसार प्राप्त होता है। कोई मनुष्य ऐसा नहीं है जो हमेशा बुरा काम करे या कोई हमेशा अच्छा काम करे। कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है। अच्छे कर्म से अर्थ और सम्मान की प्राप्ति होती है। ऐसे में अपनी उपलब्ध्यिों से जब आदमी में अहंकार या लापरवाही का भाव पैदा होता है तब अपनी छबि गंवाने लगता है। अतः सदैव अपने कर्म संलिप्त रहते हुए अहंकार रहित जीवन बिताना चाहिये।
अगर हमें अपने कुल, कर्म या कांति से धन और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है तो उसका उपयोग परमार्थ में करना चाहिये न कि अनैतिक आचरण कर उसकी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए लोगों का प्रभावित करने का प्रयास करें। इससे वह जल्दी नष्ट हो जाता है।
यह मानकर चलना चहिये कि हमें मान, सम्मान तथा लोगों का विश्वास प्राप्त हो रहा है वह अच्छे कर्मों की देन है और उनमें निरंतरता बनी रहे उसके लिये कार्य करना चाहिये। अगर अपनी उपलब्धियों से बौखला कर जीवन पथ से हट गये तो फिर वह मान सम्मान और लोगों का विश्वास दूर होने लगता है।
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कबीर के दोहे: ज्ञान को ह्रदय में धारण नहीं किया तो क्या लाभ?


सीखे सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय
बिना समझै शब्द गहै, कछु न लोहा लेय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने गुरूजनों से शब्द सीखकर उसे अपने हृदय में धारण कर उनका सदुपयोग करता है वही जीवन का आनंद उठा सकता है पर जो केवल उन शब्दों को रटता है उसका कभी उद्धार नहीं हो सकता।

सीतलता तब जानिये, समता रहै समाय
विघ छोड़ै निरबिस रहै, सक दिन दूखा जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने अंदर तभी शीतलता की अनुभूति हो सकती है जब हर स्थिति के लिए हृदय में समान भाव आ जाये। भले ही अपने काम में विघ्न-बाधा आती रहे और सभी दिन दुःख रहे तब भी आदमी के मन में शांति हो-यह तभी संभव है जब वह अपने अंतर्मन में सभी स्थितियों के लिए समान भाव रखता हो।

यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय
बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि उसी शब्द के प्रभाव की प्रशंसा की जाती है जो सभी लोगों के हृदय में चुंबक की तरह प्रभाव डालता है। जो मधुर वचन नहीं बोलते या रूखा बोलते हैं वह कभी भी अपने जीवन के संकटों से कभी उबर नहीं सकते।
वर्त्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-कुछ लोग थोडा ज्ञान प्राप्त कर फिर उसे बघारना शुरू कर देते हैं।कुछ लोगों तो ऐसे भी हैं जिन्होंने भारतीय अध्यात्म ग्रंथों का अध्ययन इसलिए किया ताकि वह गुरु बन कर अपनी पूजा करा सकें। ऐसे लोगों को उस अध्यात्म ज्ञान से कोइ संबंध नहीं है जो वास्तव में ह्रदय को शांत और समभाव में स्थित रखने में सहायक होता है। ऐसे कथित गुरुओं ने ज्ञान को रट जरूर लिया है पर धारण नहीं किया इसलिए ही उनके शिष्यों पर भी उनका प्रभाव नज़र नहीं आता। उनके वाणी से निकले शब्द तात्कालिक रूप से जरूर प्रभाव डालते हैं पर श्रोता के ह्रदय की गहराई में नहीं उतरते क्योंकि वह कथित वक्ताओं के ह्रदय की गहराई से वह शब्द निकल कर नहीं आते। आजकल के गुरुओं का नाम बहुत है पर उनका प्रभाव समाज पर नहीं दिखता।
शब्द लिखे जाएँ या बोले, उनका प्रभाव तभी होता है जब वह श्रोता या लेखक से उत्पन्न होता है। यह तभी संभव है जब उसने अपना अध्ययन,चिंतन और मनन गहराई से किया हो।
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संत कबीर के दोहे: सीख,सुन और विचार करने पर ही शब्द का सुख मिलता है



सीतलता तब जानिये, समता रहै समाय
विघ छोड़ै निरबिस रहै, सक दिन दूखा जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने अंदर तभी शीतलता की अनुभूति हो सकती है जब हर स्थिति के लिए हृदय में समान भाव आ जाये। भले ही अपने काम में विघ्न-बाधा आती रहे और सभी दिन दुःख रहे तब भी आदमी के मन में शांति हो-यह तभी संभव है जब वह अपने अंतर्मन में सभी स्थितियों के लिए समान भाव रखता हो।

यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय
बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि उसी शब्द के प्रभाव की प्रशंसा की जाती है जो सभी लोगों के हृदय में चुंबक की तरह प्रभाव डालता है। जो मधुर वचन नहीं बोलते या रूखा बोलते हैं वह कभी भी अपने जीवन के संकटों से कभी उबर नहीं सकते।

सीखे सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय
बिना समझै शब्द गहै, कछु न लोहा लेय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने गुरूजनों से शब्द सीखकर उसे अपने हृदय में धारण कर उनका सदुपयोग करता है वही जीवन का आनंद उठा सकता है पर जो केवल उन शब्दों को रटता है उसका कभी उद्धार नहीं हो सकता।
वर्त्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-कुछ लोग थोडा ज्ञान प्राप्त कर फिर उसे बघारना शुरू कर देते हैं।कुछ लोगों तो ऐसे भी हैं जिन्होंने भारतीय अध्यात्म ग्रंथों का अध्ययन इसलिए किया ताकि वह गुरु बन कर अपनी पूजा करा सकें। ऐसे लोगों को उस अध्यात्म ज्ञान से कोइ संबंध नहीं है जो वास्तव में ह्रदय को शांत और समभाव में स्थित रखने में सहायक होता है। ऐसे कथित गुरुओं ने ज्ञान को रट जरूर लिया है पर धारण नहीं किया इसलिए ही उनके शिष्यों पर भी उनका प्रभाव नज़र नहीं आता। उनके वाणी से निकले शब्द तात्कालिक रूप से जरूर प्रभाव डालते हैं पर श्रोता के ह्रदय की गहराई में नहीं उतरते क्योंकि वह कथित वक्ताओं के ह्रदय की गहराई से वह शब्द निकल कर नहीं आते। आजकल के गुरुओं का नाम बहुत है पर उनका प्रभाव समाज पर नहीं दिखता।
शब्द लिखे जाएँ या बोले, उनका प्रभाव तभी होता है जब वह श्रोता या लेखक से उत्पन्न होता है। यह तभी संभव है जब उसने अपना अध्ययन,चिंतन और मनन गहराई से किया हो।
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‘बिन फेरे हम तेरे’ से चिंतित घनेरे-हास्य व्यंग्य live in reletionship


‘बिन फेरे, बने बसेरे’ को जब राज्य की वैधानिकता का प्रमाण मिलना प्रस्तावित भर हुआ है तब देश में एक नयी बहस शुरु हो गयी है-वैसे तो यहां हर वक्त कोई बहस चलती है पर बाकी इस समय पृष्ठभूमि में चली गयी हैं। इसमें एक तरफ वह लोग हैं जो समाज, संस्कृति और धर्म का किला ध्वस्त होने की वजह से आशंकित हैं तो दूसरी तरफ वह लोग इसमें स्त्रियों के अधिकारों को लेकर प्रसन्न है।

सच तो यह है कि इस देश में ऐसी कई बहसें चलती हैं जिनका अपने आप में कोई निष्कर्ष निकलता ही नहीं हैं और खास तौर से स्त्री पुरुष के संबंधों का विषय तो ऐसा है जिस पर आज तक कोइ दावे से अपनी बात नहीं कह पाया। फिर आजकल के बुद्धिजीवी जिनको वाद और नारों पर चलते हुए वैसा ही करने की आदत हो गयी है।
स्थिति यह है कि बिना विवाह किये ही स्त्री पुरुष के साथ रहने को वैधानिक रूप देने का जो प्रस्ताव है उसका स्वरूप क्या है, यह जाने बिना ही तर्क दिये जा रहे हैं। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में ‘बिन फेरे हम तेरे’ शीर्षक लगाकर लोगों का ध्यान आकर्षित किया गया। मतलब फिल्म का टाईटल या गाने के आसरे ही अपनी बात कह रहे हैं कोई नया शीर्षक नहीं मिला। जैसे कि ‘बिने फेरे अब बनंेगे बसेरे’ या ‘बिन विवाह, इक घर होगा वाह!’

उस दिन तो हद ही हो गयी एक समाजशास्त्री इस विषय पर एक फिल्म का हवाला देकर अपनी बहस आगे बढ़ा रही थी‘ उस फिल्म में जैसा दिखाया गया है’ ‘अमुक फिल्म की नायिका के साथ यह हुआ’ और ‘अमुक फिल्म का नायक यह कह रहा था’ जैसे जुमले का उपयोग किया और फिर इस कानून का समर्थन किया। अब समझ मेें यह आ नहीं आ रहा था कि वह समाजशास्त्री थीं या फिल्मी कहानी विशेषज्ञ! हिंदी फिल्में कतई समाज का आईना नहीं होती क्योंकि साहित्य से उनका कोई सरोकार नहीं होता।

बुद्धिजीवियों की इस स्थिति को यह लगता है कि या तो फिल्म के दृष्टिकोण से समाज को देखा जायेगा या फिर विदेशी विचाराधारा के आईने इसका आंकलन होगा। सब तरफ बहसे देखें तो केवल सतही तर्कों पर हो रही है। कुछ धर्मशास्त्री तो अपने धर्म के विरुद्ध बता रहे हैं। समाज शास्त्री अपने अपने दृष्टिकोण से इस पर विचार व्यक्त कर रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि इस कानून का विस्तृत ब्यौरा किसी के पास उपलब्ध नहीं है।

एक स्त्री पुरुष का बिना विवाह किये साथ रहना कोई नयी बात नहीं है। बस अंतर यह है कि अधिकतर मामलों में पुरुष का एक विवाह हुआ होता है और वह समाज के डर के मारे दूसरा विवाह तो कर नहंी पाता और फिर उसका किसी अन्य स्त्री से संपर्क हो जाता है और अधिकतर मामलों में वह अविवाहित होती है। ऐसा कोई आज नहीं बल्कि सदियों से हो रहा है। राजा, महाराजों और जमीदारों के ऐसे एक नहंी हजार किस्से हैं जिनकी अपने क्षेत्रों में कहानियां बनी हुईं हैंं। कुछ लोगों ने गोली नाम का एक उपन्यास शायद पढ़ा हो उसमें एक राजा अपनी एक रखैल का विवाह अपने ही एक नौकर से करा देता है जबकि वह उसके पास एक दिन के लिये भी नहीं रहती। उसका पूरा जीवन ही अपने मालिक के सानिध्य में बीतता है। बताते हैं कि इस तरह की गोली प्रथा देश के कुछ हिस्सों में थी जिसमें राजा,महाराज और जमीदार इस तरह महिलाओं को गुलाम बनाकर रखते थे।

आधुनिक भारत में तो यह आम चलने में आ गया है। जिस तरह पहले राजा,महाराजा और जमीदारों की पहचान थी ऐसी विलासिता तो आज वह फैशन हो गयी है। जिन फिल्मों की कहानियों से इस समाज को देखने का प्रयास हो रहे हैं उनके अभिनेता और अभिनेत्रियों के निजी जीवन में तो ऐसी अनेक कहानियां हैं जो समाज में इतनी नहीं होतीं।

एक बात निश्चित है कि देश को पाश्चात्य सभ्यता के रोग ने जिस तरह ग्रस लिया है उससे तो फिलहाल मुक्ति संभव नहीं है। इससे एक तो पारिवारिक संस्कृति ध्वस्त हुई है दूसरे सुख सुविधा के साधनों के उपयोग से आदमी का घरेलू व्यय बढ़ा है और इसने एक ऐसे तनाव को जन्म दिया है जिसकी चर्चा कम ही लोग सार्वजनिक रूप से करते हैं। जिनके पास नहीं है वह अपने परिवार में ऐसी सुविधायें लाने के लिये प्रयत्नशील हैं और यह उनके लिये साधन नहंी बल्कि जीवन का लक्ष्य बनकर रह जाता है। एक आई तो दूसरी लानी है।

‘बिन फेरे बने बसेरे’ की पद्धति को वैधानिक मान्यता मिलने या न मिलने से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला क्योंकि इसे सामाजिक मान्यता मिलने में सदियां लग जायेंगी। जैसे दहेज विरोधी कानून बन गया पर यह प्रथा एक अंश भी बाधित नहीं हुई। यही हाल ‘बिन फेरे बने बसेरे का भी होना है’। हां, यह एकदम आधुनिक किस्म के अविवाहित युवक युवतियों को तत्कालिक रूप से पसंद आयेगा पर बाद में इस पर चलने वाले पछतायेंगे भी। अभी इसका पूरा मसौदा किसी के सामने नहीं आया पर इसे अत्यंत सावधानी से बनाना होगा वरना दुरुपयोग कहीं दुरुपयोग तो तमाम ऐसी विसंगतियां समाज के सामने आयेंगी जिससे झेलना कठिन होगा।

यह बात याद रखने लायक है कि विवाह एक स्त्री और पुरुष के बीच जरूर होता है पर इससे दोनों के परिवार के अन्य लोग भी एक दूसरे के साथ जुड़ते हैं। अगर खुशी में दोनों के रिश्तेदार आते हैं तो दुःख में निभाते भी हैं। जीवन का कोई भरोसा नही है इसलिये विवाह नाम की यह संस्था बनी है। ‘बिना फेरे बने बसेरे‘की पद्धति अपनाने वालों को बाद में बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। किसी एक को दुःख पहुंचा तो दूसरा स्वयं ही उसे संभाल सकता है और बाकी रिश्तेदार तो कन्नी काट जायेंगे‘क्या हमें शादी पर बुलाया था जो अब तकलीफ में याद आ रही है?’ खासतौर से जिन लड़कियों के अधिकारों की बात कर रहे हैं उनके सामने ही सबसे अधिक संकट आ सकता है क्योंकि दुःख और तकलीफ में उसे किसी न किसी की सहायता आवश्यकता प्रतीत होती है। हां, यह बात केवल उन्हीं मामलोंे में लागू होती है जहां दोनों का पहला विवाह हो अगर किसी ने एक विवाह कर रखा है दूसरे के साथ ऐसे ही रिश्ता चला रहा है तो फिर उसके बारे में कहना तो व्यर्थ ही है। हालांकि सबसे बड़ा सवाल तो इसमें यह आने वाला है कि एक वैध विवाह करते हुए केाई दूसरे से ऐसा रिश्ता रख सकता है।

बहरहाल यह प्रथा बड़े शहरों में तो पहले ही चल रही है पर छोटे शहरों में इसका प्रचलन अभी नहीं है। वैसे जो इस कानून का विरोध कर रहे हैं उन्हें समाज का ज्ञान नहीं है। उन्हें लगता हैकि इससे तो समाज में तमाम तरह की विसंगतियां आयेंगी। उनके तर्क गलत हैं क्योंकि वह देश के युवक और युवतियों के मजबूत संस्कारों को अनदेखा कर रहे हैं। भारत में भले ही पाश्चात्य सभ्यता का बोलबाला है पर आज भी युवक युवतियों अगर किसी की तरफ आकर्षित होते हैं तो उनके मन में विवाह करने की इच्छा भी जाग उठती है। प्यार भले ही पाश्चात्य ढंग से हो पर मिलन हमेशा भारतीय तरीके से ही होता है। युवक युवतियों को एकदम बेवकूफ मानने वाले इन बुद्धिजीवियों पर तो तरस ही आता है। किसी प्रकार का तर्क वितर्क करते हुए इस बात को याद रखना चाहिये कि युवक युवतियों का खून गर्म होता है पर विषाक्त नहीं जो वह अपने अच्छे बुरे का निर्णय कर सकें। ‘बिन फेरे बने बसेरे की राह पर इतने लोग नहीं चलेंगे जितना सोचा जा रहा है और चल रहे हैं उनको रोका भी किसने था।
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