Tag Archives: सन्देश

विदुर नीति-हर समय सहज रहने वाला ही सुखी (sahaj manushya sukhi rahta hai-hindu dharma sandesh)


  1. बोलने से न बोलना अच्छा बताया गया है, किन्तु सत्य बोलना भी एक गुण है। चुप या मौन रहने से सत्य बोलना दो गुना लाभप्रद है। सत्य मीठी वाणी में बोलना तीसरा गुण है और धर्म के अनुसार बोला जाये यह उसका चौथा गुण है।
  2. मनुष्य जैसे लोगों के साथ रहता है और जिन लोगों की सेवा में रहता है और जैसी उसकी कामनाएं होतीं है वैसा ही वह हो भी जाता है।
  3. मनुष्य जिन विषयों से मन हटाता है उससे उसकी मुक्ति हो जाती है। इस प्रकार यदि सब और से निवृत हो जाये तो उसे कभी भी दुख प्राप्त नहीं होगा।
  4. जो न तो स्वयं किसी से जीता जाता है न दूसरों को जीतने के इच्छा करता है न किसी से बैर करता और न दूसरे को हानि पहुंचाता है और अपनी निंदा और प्रशंसा में भी सहज रहता है वह दुख और सुख के भाव से परे हो जाता है।
    असूयको दन्दशूको निष्ठुरो वरकृच्छठः। सं कृच्छ्रम् महदाप्नोति न चिरात् पापमाचरन्।।
    हिंदी में भावार्थ-दूसरे व्यक्ति के गुणों में भी दोष देखने वाला, दूसरे के मर्म को आघात पहुंचाने वाला, निर्दयता और शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने वाले शठ मनुष्य अपने आचरण करे कारण शीघ्र नष्ट हो जाता है। अनूसूयुः कृतयज्ञः शोभनान्याचरन् सदा। न कृष्छ्रम महादाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।। हिंदी में भावार्थ-जिसकी दृष्टि दोष रहित है ऐसा व्यक्ति हमेशा ही शुभ कर्म करता हुआ महान सुख प्राप्त करने के सर्वत्र ही प्रशंसा का पात्र बनता है। वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- कहा जाता है कि जैसा दूसरे से व्यवहार करोगे वैसा स्वयं को भी मिलेगा। उसी तरह जिस दृष्टि से यह संसार देखोगे वैसे ही सामने दृश्य भी प्रस्तुत होंगे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनमें ज्ञान और अनुभव तो नाममात्र का होता है पर आत्मप्रचार की इच्छा उनको कुंठित कर देती है। किसी दूसरे की प्रशंसा देखकर वह उसके प्रतिकुल टिप्पणी करते हैं। भले ही दूसरे में गुण हो पर उसमें वह दोष निकालते हैं। जैसे मान लो कोई अच्छा लिखता है तो वह उसके विषय में दोष निकालेंगे या उसे गौण प्रमाणित करेंगे। कोई अच्छा खाना बनाता है तो वह उसके लिये मसालों को श्रेय देंगे। कहने का तात्पय यह है कि उनकी दृष्टि दोष देखने की आदी होती है। ऐसे लोग न हमेशा कष्ट उठाते हैं बल्कि उनकी जीवन भी जल्दी नष्ट होता है। इसके विपरीत दूसरे के गुण देखकर उनसे सीखने वाले विकास पथ पर चलते हैं। वह अपने कार्य से न केवल उपलब्धियां प्राप्त करते हैं बल्कि समाज में उनको सम्मान भी प्राप्त होता है। इसलिये अपना रवैया हमेशा सकारात्मक रखते हुए जीवन पथ पर बढ़ना चाहिये। वैसे आजकल अपने आपको तर्कशास्त्री कहने वाले लोग भारतीय धर्म ग्रंथों में ढेर सारे दोष ढूंढते हैं पर वह उन जीवन रहस्यों को नहीं जानते जिसके आधार वह सांस ले रहे हैं। वैसे हमारे समाज को आधुनिक शिक्षा ने अध्यात्मिक ज्ञान से विमुख कर दिया है इसलिये लोग दूसरों के दोषों का प्रचार अपने श्रेष्ठ होने का प्रचार करते हैं यही कारण है कि समाज में सामाजिक समरसता और प्रेम का अभाव हो गया है।

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://aajtak-patrika.blogspot.com

————————–

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

संत कबीर वाणी-गुरू की अवज्ञा कर कोई तर नहीं सकता


कामी तरि, क्रोधी तरै, लोभी तरै अनन्त
आन उपासी कृतधनी, तरै न गुरु कहन्त

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कामी और क्रोधी तर सकते हैं और लोभी भी इस भव सागर से तरकर परमात्मा को पा सकते हैं पर जो अपने इष्ट देव की उपासना त्यागता है और गुरु का संदेश नहीं मानता वह कभी तर नहीं सकता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर कबीरदास जी के इस दोहे का आशय समझें तो उनके अनुसार वह उस हर व्यक्ति को अपने इष्ट देव की उपासना न छोड़ने का संदेश दे रहे हैं। एक तरह से धर्म परिवर्तन को एक भ्रम बता रहे हैं। उस समय धर्म शब्द उस रूप में प्रचलित नहीं था जिस तरह आज है बल्कि लोगों को अपने अपने इष्ट देवों को उपासक के रूप में पहचान थी यही कारण है कि कबीरदास जी के साहित्य में धर्मों के नाम नहीं मिलते बल्कि सभी लोगों को एक समाज मानकर उन्होंने अपनी बात कही है।
दरअसल धर्म का आशय यह है कि निंरकार परमात्मा की उपासना, परोपकार, दान और सभी के साथ सद्व्यवहार करना। वर्तमान समय में इष्ट देवों की उपासना के नाम पर धर्म बनाकर भ्रम फैला दिया गया है और विश्व के अनेक भागों में कई लोगोंं को धन तथा रोजगार का लालच या जीवन का भय दिखाकर धर्म परिवर्तन करवाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। ऐसे कई समाचार आते हैं कि अमुक जगह धर्म अमुक ने धर्म परिवर्तन कर लिया। ऐसा समाचार केवल भारत में नहीं अन्य देशों से भी आते है। यह केवल कुछ लोगों का भ्रम है या वह भ्रम फैलाने और प्रचार पाने के लिये ऐसा करते हैं।

देख जाये तो परमात्मा एक ही है सब मानते हैं। लोग उसे विभिन्न रूपों और नामों से जानते हैं। ऐसे में उसके किसी स्वरूप का बदलकर दूसरे स्वरूप में पूजने का आशय यही है कि आदमी भ्रमित हैं। हमारे देश में तो चाहे आदमी कैसा भी हो किसी न किसी रूप में उसकी उपासना करता है। कोई न कोई पवित्र ग्रंथ ऐसा है जिसे पढ़ता न हो पर मानता है। ऐसे में वह एक स्वरूप को छोड़कर दूसरे की उपासना और एक पवित्र ग्रंथ को छोड़कर दूसरा पढ़ने लगता है तो इसका आशय यह है कि उसकी नीयत ठीक नहीं और जो इसके लिये प्रेरित कर रहे हैं उन पर भी संदेह होता है। संत कबीरदास जी के कथानुसार ऐसे लोग कभी जीवन में तर नहीं सकते भले ही दुष्ट और कामी लोग तर जायें। संत कबीरदास जी तो निरंकार के उपासक थे और वर्तमान में तो पूरा विश्व एक ही परमात्मा को मानता है और ऐसे में उसके स्वरूप को बदलकर दूसरे के रूप में पूजना वह स्वार्थ और लोभ का परिणाम मानकर सभी को उसके लिये रोकने का संदेश कबीरदास जी देते थे।
आशय यह यही है कि बचपन से जिस इष्ट का माना उसे छोड़कर दूसरे की उपासना नहीं करना चाहिए। न ही अपने गुरु, माता पिता और बंधुओं द्वारा सुझाये गये इष्ट के अलावा किसी और का विचार नहीं करना चाहिए। अगर कोई ऐसा करता है तो वह स्वार्थ से प्रेरित है और स्वार्थ से की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की चाहे जो भी इष्ट हो उसकी निष्काम भक्ति करना चाहिए।
————————-

रामायण में दिया गया है अहिंसा का संदेश (ram, ramayan, sita, aritcle on hindu dharm)


अपने वन प्रवास के दौरान सुतीक्षण के आश्रम से निकलकर जब श्री राम अपनी धर्म पत्नी सीताजी और भ्राता लक्ष्मण में साथ आगे चले। अपने पति द्वारा राक्षसों के वध करने के प्रतिज्ञा से वह दुखी थीं इसलिए उन्होने इससे हटने के लिए उनसे हिंसा छोड़ने का आग्रह किया और निम्नलिखित कथा सुनाई

पूर्वकाल की बात है किसी पवित्र वन में जहाँ मृग और पक्षी बडे आनंद से रहते एक सत्यवादी एवं पवित्र तपस्वी निवास करते थे। उन्हीं की तपस्या में विघ्न डालने के लिए शचिपति इन्द्र किसी योद्धा का रूप धारण कर हाथ में तलवार एक दिन उनके आश्रम पर आये। उन्होने मुनि के आश्रम में अपना उतम खड्ग रख दिया। पवित्र तपस्या में लगे हुए मुनि को धरोहर के रूप में वह खड्ग दे दिया। उस शस्त्र को पाकर मुनि उस धरोहर की रक्षा में लग गए, वे अपने विश्वास की रक्षा के लिए वन में विचरते समय भी उसे अपने साथ रखते थे। धरोहर की रक्षा में तत्पर रहने वाले वे मुनि फल-मूल लेने के लिए जहाँ-कहीं भी जाते, उस खड्ग की साथ लिए बिना नहीं जाते। तप ही जिनका धन था उस मुनि ने प्रतिदिन शस्त्र ढोते रहने के कारण क्रमश: तपस्या का निश्चय छोड़कर अपनी बुद्धि को क्रूरतापूर्ण बना लिया। फिर तो अधर्म ने उन्हें आकृष्ट कर लिया। वे मुनि प्रमादवश रोद्र कर्म में तत्पर हो गये और उस शस्त्र के सहवास से नरक जाना पडा।

इस प्रकार शास्त्र का संयोग होने के कारण पूर्वकाल में उन तपस्वी मुनि को ऐसी दुर्दशा भोगनी पडी। जैसे आग का संयोग ईंधन के जलाने का कारण होता है उसी प्रकार शस्त्रों का संयोग शस्त्रधारी के हृदय में विकार का उत्पादक कहा गया है।

आगे सीता जी कहतीं हैं कि-‘मेरे मन में आपके प्रति जो स्नेह और विशेष आदर है उसके कारण मैं आपको उस प्राचीन घटना की याद दिलाती हूँ तथा यह शिक्षा भी देती हूँ कि आपको धनुष लेकर किसी तरह बिना बिः के ही वन में रहने वाले राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिए। आपका बिना किसी अपराध के किसी को मारना संसार के लोग अच्छा नहीं समझेंगे। अपने मन और इन्दिर्यों को वश में रखने वाले वीरों के लिए वन में धनुष धारण करने का इतना प्रयोजन है कि वे संकट में पड़े हुए प्राणियों की रक्षा करें।”

अरण्यकाण्ड के नौवें सर्ग से लिए गया यह वृतांत इस उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया है कि लोग अस्त्रों-शस्त्रों को शौक के लिए अपने पास भी रखते है और उसके जो परिणाम आते हैं वह बहुत भयावह होते हैं ।

विदुर दर्शन: जैसे मनुष्यों की सेवा करोगे वैसे ही ख़ुद हो जाओगे (vidur niti-service of poor men)


  1. बोलने से न बोलना अच्छा बताया गया है, किन्तु सत्य बोलना भी एक गुण है। चुप या मौन रहने से सत्य बोलना दो गुना लाभप्रद है। सत्य मीठी वाणी में बोलना तीसरा गुण है और धर्म के अनुसार बोला जाये यह उसका चौथा गुण है।
  2. मनुष्य जैसे लोगों के साथ रहता है और जिन लोगों की सेवा में रहता है और जैसी उसकी कामनाएं होतीं है वैसा ही वह हो भी जाता है।
  3. मनुष्य जिन विषयों से मन हटाता है उससे उसकी मुक्ति हो जाती है। इस प्रकार यदि सब और से निवृत हो जाये तो उसे कभी भी दुख प्राप्त नहीं होगा।
  4. जो न तो स्वयं किसी से जीता जाता है न दूसरों को जीतने के इच्छा करता है न किसी से बैर करता और न दूसरे को हानि पहुंचाता है और अपनी निंदा और प्रशंसा में भी सहज रहता है वह दुख और सुख के भाव से परे हो जाता है।


————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

चाणक्य दर्शन-खर्च करने पर ही होती है पैसे की इज्जत


1.मन की शुद्ध भावना से यदि लकड़ी, पत्थर या किसी धातु से बनी मूर्ति की पूजा की जायेगी तो सब में व्याप्त परमात्मा वहां भी भक्त पर प्रसन्न होंगें। अगर भावना है तो जड़ वस्तु में भी भगवान का निवास होता है ।

2.इस क्षण-भंगुर संसार में धन-वैभव का आना-जाना सदैव लगा रहेगा। लक्ष्मी चंचल स्वभाव की है। घर-परिवार भी नश्वर है। बाल्यकाल, युवावस्था और बुढ़ापा भी आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी मनुष्य उन्हें सदा ही उन्हें अपने बन्धन में नहीं बाँध सकता। इस अस्थिर संसार में केवल धर्म ही अपना है। धर्म का नियम ही शाश्वत है और उसकी रक्षा करना ही सच्चा कर्तव्य है।

3.सच्ची भावना से कोई भी कल्याणकारी काम किया जाये तो परमात्मा की कृपा से उसमें अवश्य सफलता मिलेगी। मनुष्य की भावना ही प्रतिमा को भगवान बनाती है। भावना का अभाव प्रतिमा को भी जड़ बना देता है।

4.विद्या की शोभा उसकी सिद्धि में है । जिस विद्या से कोई उपलब्धि प्राप्त हो वही काम की है।

5.धन की शोभा उसके उपयोग में है । धन के व्यय में अगर कंजूसी की जाये तो वह किसी मतलब का नहीं रह जाता है, अत: उसे खर्च करते रहना चाहिऐ।
6.तेल में जल नहीं मिल सकता, घी में जल नहीं मिलता. पारा किसी से नहीं मिल सकता। इसी प्रकार विपरीत स्वभाव और संस्कार वाले एक दूसरे से नहीं मिल सकते।

———————————–

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

चाणक्य दर्शन: विद्या की शोभा उसकी सिद्धि में हैं


1.मन की शुद्ध भावना से यदि लकड़ी, पत्थर या किसी धातु से बनी मूर्ति की पूजा की जायेगी तो सब में व्याप्त परमात्मा वहां भी भक्त पर प्रसन्न होंगें। अगर भावना है तो जड़ वस्तु में भी भगवान का निवास होता है ।

2.इस क्षण-भंगुर संसार में धन-वैभव का आना-जाना सदैव लगा रहेगा। लक्ष्मी चंचल स्वभाव की है। घर-परिवार भी नश्वर है। बाल्यकाल, युवावस्था और बुढ़ापा भी आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी मनुष्य उन्हें सदा ही उन्हें अपने बन्धन में नहीं बाँध सकता। इस अस्थिर संसार में केवल धर्म ही अपना है। धर्म का नियम ही शाश्वत है और उसकी रक्षा करना ही सच्चा कर्तव्य है।

3.सच्ची भावना से कोई भी कल्याणकारी काम किया जाये तो परमात्मा की कृपा से उसमें अवश्य सफलता मिलेगी। मनुष्य की भावना ही प्रतिमा को भगवान बनाती है। भावना का अभाव प्रतिमा को भी जड़ बना देता है।

4.विद्या की शोभा उसकी सिद्धि में है । जिस विद्या से कोई उपलब्धि प्राप्त हो वही काम की है।

5.धन की शोभा उसके उपयोग में है । धन के व्यय में अगर कंजूसी की जाये तो वह किसी मतलब का नहीं रह जाता है, अत: उसे खर्च करते रहना चाहिऐ।
6.तेल में जल नहीं मिल सकता, घी में जल नहीं मिलता. पारा किसी से नहीं मिल सकता। इसी प्रकार विपरीत स्वभाव और संस्कार वाले एक दूसरे से नहीं मिल सकते।

———————————–

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप