Tag Archives: हास्य व्यंग्य

भूत की सवारी-हिन्दी व्यंग्य


एक विशेषज्ञ का मानना है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी हमले में बिन लादेन बहुत पहले ही मारा जा चुका है पर अमेरिका के रणनीतिकार युद्ध जारी रखने के लिये उसका भूत बनाये रखना चाहते हैं ताकि वहां की खनिज, कृषि और तेल संपदा पर कब्जा बना रहे। ऐसा लगता है कि अमेरिकन लोग भले ही भूत प्रेत को न मानते हों पर एशियाई देशों से उनकी मान्यता को लेकर उसका उपयोग करना सीख गये हैं। इसलिये वह रोज नयी भभूत बनाकर लादेनी भूत को निपटाने का काम करते हैं।
याद आता है जब बचपन में कई सिद्ध लोगों के पास जाते थे तब वह भूतों को भगाने के लिये भभूत दिया करते थे कि अगर जो शायद उनके यहां के यज्ञों की राख वगैरह हुआ करती थी। अब तो लगता है कि जैसे अगर किसी को बाबा बनना है तो उसे भूतों की सवारी तो करनी पड़ेगी। अपने देश के इतिहास में बहुत सारे बाबा हुए हैं। उनके नाम से चमत्कारों का प्रचार ऐसा चला कि उनके नाम पर अभी भी धंधे चल रहे हैं।
उस विशेषज्ञ की बात पर विश्वास करने के बहुत सारे कारण है। उस युद्ध के बाद फिर कभी लादेन का वीडियो नहीं आया। कुछ समय तक उसके घनिष्ट सहयोगी अल जवाहरी का वीडियो आता रहा पर फिर वह भी बंद हो गया। हालांकि विशेषज्ञ का कहना है कि लादेन बीमार भी हो सकता है पर जो हालात लगते हैं उससे तो यह लगता है कि उनका पहला ही दावा अधिक सही है कि लादेन अब केवल एक भूत का नाम है।
किसी को सिद्ध बनना या बनाना है तो वह पहले भूतों की पहचान करे। अमेरिका ने बिन लादेन नाम का एक भूत बना लिया है। दरअसल कभी कभी तो यह लगता है कि कहीं लादेन वाकई भूत तो नहीं था जिसे इंसानी शक्ल के रूप में प्रस्तुत किया गया। एक बात याद रखें अमेरिका पूरे विश्व में हथियारों का सौदागर है। वह उनका निर्माण कर फिर प्रदर्शन कर उनको बेचता है। जिस तरह कोई वाशिंग, मशीन तथा टीवी जैसी चीजें पहले चलाकर दिखाने के बाद बेची जाती हैं तो हथियारेां के लिये भी तो यही करना पड़ेगा तभी तो वह बिकेंगे। आरोप लगाने वाले तो यह भी कहते हैं कि अमेरिका दुनियां भर में युद्ध थोपता ही इसलिये है कि उसे अपने हथियारों का प्रदर्शन करना है ताकि अन्य देश उससे प्रभावित होकर अपने देश की गरीब जनता का पैसा देकर उसका खजाना भरे। आजकल आपने सुना होगा एक ‘ड्रोन’ नाम का एक हवाई जहाज है जो स्वयं ही निशाने चुनता है। उसे चलाने के लिये उसमें पायलट का होना जरूरी नहीं है। अनेक बार ऐसी खबरे आती हैं कि ‘ड्रोन’ ने लादेन के शक में अमुक वह भी जगह ‘अचूक बमबारी’ की। इससे पहले अफगानिस्तान युद्ध में भी अमेरिका के अनेक हथियारों तथा विमानों का प्रचार हुआ था।
हमारे देश में भूतों पर खूब यकीन किया जाता है। इसी कारण बाबाओं का खूब धंधा चलता है। एक आदमी ने बड़े मजे की बात कही थी। उससे उसके मित्र ने पूछा कि ‘एक बात बताओ कि तुम भूत वगैरह की बात करते हो? तुम्हें पता है कि पश्चिमी राष्ट्र हमसे अधिक प्रगति कर गये हैं वहां तो ऐसी बातों पर कोई यकीन नहीं करता। क्या वहां लोग मरते नहीं है? देखों हम लोग ऐसी फालतू बातों पर यकीन करते हैं इसलिये पिछड़ हुऐ हैं जबकि जो भूतों पर यकीन नहीं करते वह मजे कर रहे हैं। ’
उस आदमी ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि ‘वहां तो सभी कुछ आदमी को मिल जाता है। बंगला, गाड़ी, पैसा मिलने के साथ अन्य जरूरतें पूरी हो जाती है। वहां मरने वाले आदमी की कोई कोई ख्वाहिश नहीं रह जाती। यहां गरीबी के कारण लोग अनेक इच्छायें मन में दबाकर मर जाते हैं इसलिये उनको भूत की यौनि मिलती है। यही सोचकर यकीन करना पड़ता है।’

अमेरिका ने सारे झगड़े एशिया में ही किये हैं। उसका सबसे बड़ा शत्रु क्यूबा का फिदेल कास्त्रो उसके पास में ही रहता है पर कभी उस पर हमला नहीं किया। वियतनाम, इराक और अफगानिस्तान में उसके हमले चर्चित रहे हैं जो कि एशिया में ही है। एशिया में ही लोग भूत बनते हैं और इसलिये वह अपने ही लोग यहां भेजकर उनका भूत यहां रचता है।

वैसे इसमें कोई संदेह नहीं है कि भूत रचकर अपनी ताकत दिखाने की तकनीकी उसने भारत या एशिया से ही सीखा होगा। सीधी सी बात है कि ऊनी सामान बेचने वाला सर्दी का, धर्म बेचने वाला अधर्म का, शराब बेचने वाला गमों का और ऋण देने वाले पैसा देकर फिर उसे बेदर्दी से वसूलने से पहले जरूरतों का भूत नहीं खड़ा करेगा तो फिर उसका काम कैसे चलेगा? अमेरिका ने लादेन नाम के भूत से अरबों डालरों की कमाई की होगी। लादेन के मरने का मतलब है कि उसे युद्ध छोड़ना पड़ेगा। युद्ध छोड़ा तो प्रयोग कैसे करेगा? ऐसे में उसके द्वारा निर्मित हथियार और विमान कोई नहीं खरीदेगा।
जिस तरह लोग प्रायोजित भूत खड़ा करते हैं उससे तो यह लगता है कि सचमुच में लादेन रहा भी होगा कि नहीं। ऐसा तो नहीं कभी इस नाम का कोई आदमी अमेरिका में रहता हो और फिर मर गया हो। फिर अमेरिकनों ने किसी दूसरे आदमी की प्लास्टिक सर्जरी कर उसका चेहरा बना कर अफगानिस्तान भेज दिया हो। उस मरे आदमी की पारिवारिक पृष्ठभूमि का इस्तेमाल किया गया हो क्योंकि एक बार अफगानिस्तान आने के बाद वह कभी घर नहीं गया और न ही परिवार वालों से मिला। उसके बारे में अनेक कहानियां आती रहीं पर उनको प्रमाणित किसी ने नहीं किया। इस तरह फिल्मों में अनेक बार देखने को भी मिला है कि नायक का चेहरा लगाकर खलनायक उसे बदनाम करता है। ऐसा ही लादेन नाम के भूत से भी हुआ हो। जिस आदमी ने चेहरा लगाया होगा। भूत के रूप में लादेन को स्थापित करने का काम खत्म होने के बाद वह लौट गया हो। इस तरह के प्रयोजन में पश्चिमी देशों को महारत हासिल है।
हम अभी तक जो सुनते, देखते और पढ़ते हैं उनका आधार तो टीवी, फिल्म और समाचार पत्र ही हैं। कोई कहेगा कि भला यह कैसे संभव है कि भूत को इतना लंबा जीवन मिल जाये? दरअसल आदमी को न मिलता हो पर भूत को कई सदियों तक जिंदा रखा जा सकता है। जिंदा आदमी की इतनी कीमत नहीं है जितना भूत की। हमारे देश में इतने सारे भूत बनाकर रखे गये हैं कि उनके नाम पर खूब व्यापार चलता है। कोई समाज वाद के नाम से चिढ़ता है तो कोई पूंजीवाद के नाम से। किसी को चीन सताता है तो किसी को पाकिस्तान! अमीर के सामने गरीब के हमले का और गरीब के सामने अमीर के शोषण का भूत खड़ा करने में अपने यहां बहुत लोग माहिर हैं। सबसे बड़ा भूत तो अमेरिका का नाम है। उसके सम्राज्यवाद से लड़ने के लिये लोग अपने देश में भी सक्रिय हैं जो बताते हैं कि उसका भूत अब यहां भी आ सकता है। जब वह साठ सालों तक ऐसे भूत को जिंदा रख सकते हैं तो फिर यह तो नयी तकनीकी और तीक्ष्ण चालें चलने वाला अमेरिका है। चाहे जितने भूत खड़ा कर ले उसके नाम पर भभूत यानि हथियार और विमान बेचता जायेगा। बाकी लोग तो छोड़िये उसके ही लोग ऐसे भूतों पर सवाल उठाने लगे हैं। वैसे भारतीय प्रचार माध्यम भी लादेन नाम का भूत बेचकर अपने समय और पृष्ठों के लिये सामग्री भरते रहे हैं।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

इश्क में सच-हास्य कविता (ishq aur sach-hasya kavita)


आशिक शिष्य ने अपने इश्क गुरु से कहा
‘‘आदरणीय
फिर एक माशुका मेरी जिंदगी में आई
पर उसने मेरा इश्क का मामला
मंजूर करने से पहले
सच बोलने वाली मशीन के सामने
साक्षात्कार की शर्त लगाई।
आपसे सलाह लेकर अपने इश्क के मसले
सुलझाने में पहले भी
मदद नहीं मिली
इसलिये इस बार इरादा नहीं था
आपके पास आने का
पर क्या करता जो यह
एकदम नई समस्या आई।’’

इश्क गुरु ने कहा
‘‘कमबख्त! हर बार पाठ पढ़ जाता है
नाकाम होकर फिर लौट आता है
मेरे कितने चेले इश्क में इतिहास बना चुके हैं
पर केवल तेरी वजह से
मुझे असफल इश्क गुरु कहा जाता है
इस बार तुम घबड़ाना नहीं
सच का सामना करने के लिये
मैदान पर उतर जा
रख दे माशुका से भी
सच का सामना करने की शर्त
उसकी असलियत की भी उधड़ेगी पर्त
वह घबड़ा जायेगी
अपनी शर्त भूल जायेगी
तुम्हारी अक्लमंदी देखकर कर लेगी
जल्दी सगाई।’’

कुछ दिन लौटकर चेला
गुरु के सामने आया
चेहरे से ऐसा लगा जैसे पूरे जमाने ने
उस अकेले को सताया
बोला दण्डवत होकर
‘’गुरु जी, आपका पाठ इस बार भी
काम न आया
माशुका सुनकर मेरा प्रस्ताव
कुछ न बोली
बाद में उसने यह संदेश भिजवाया कि
‘भले ही न करना था
सच की मशीन का सामना
कोई बात नहीं थी
पर मुझ पर मेरी शर्त थोपकर
तुमने मेरा विश्वास गंवाया
इसलिये तय किया कि
किसी दूसरे से सच का सामना
करने के लिये नहीं कहूंगी
पर तुमने शर्त नहीं मानी
इसलिये आगे तुम्हारे इश्क को
अब दर्द की तरह नहीं सहूंगी
कर ली मैंने
अपने माता पिता के चुने लड़के से ही सगाई’
अफसोस! इस बार भी गुरु की सलाह
काम न आई’’

…………………………………
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

सामूहिक ठगी का मतलब-व्यंग्य चिंत्तन (samuhik thagi ka matlab-vyangya lekh)


एक के बाद एक सामूहिक ठगी की तीन वारदातें टीवी चैनलों और समाचार पत्रों की सुर्खियां बन गयी हैं। आप यह कहेंगे कि ठगी की हजारों वारदातें इस देश में ं होती हैं इसमें खास क्या है? याद रखिये यह सामूहिक ठगी की वारदातें हैं और कोई एक व्यक्ति को ठग कर भागने का मामला नहीं है। उन ठगों की आम ठग से तुलना करना उनका अपमान करना है। आम ठग अपनी ठगी के लिये बहुत बुद्धिमानी के साथ दूसरे के पास पहुंचकर ठगी करता है जबकि इन ठगों ने केवल दूसरों की मजबूरियों का फायदा उठाने के इरादे से विज्ञापन का जाल बिछाया बल्कि बाकायदा अपना एजेंट नियुक्त किये। शिकार खुद वह खुद उनके जाल में आया और वह भी उनके वातानुकूलित दफ्तरों में अपने पांव या वाहन पर चलकर।
यह एकल ठगी का मामला नहीं है। हर विषय पर अपना बौद्धिक ज्ञान बघारने वाले बुद्धिमान लोगों के लिये इसमें कुछ नहीं है जिस पर हायतौबा कर अपनी चर्चाओं को रंगीन बना सकें। इनमें समाजों का आपस द्वंद्व नहीं है बल्कि समाजों की छत्र छाया तले रहने वाले परिवारों और व्यक्तियों के अंतद्वंद्वों का वह दुष्परिणाम है जो कभी भी बुद्धिमान लोगों की दृष्टि के केंद्र बिंदु में नहीं आते। जो बुद्धिमान लोग इस पर ध्यान भी दे रहे हैं तो उनका ध्यान केवल घटना के कानूनी और व्यक्तिगत पक्ष पर केंद्रित है। आप सवाल पूछेंगे कि आखिर इसमें ऐसा क्या है जो कोई नहीं देख रहा?

जो लोग ठगे गये हैं वह केवल यही कह रहे हैं कि उन्होंने अपने पैसे अपनी बच्चियों की शादी के लिये रखे थे। यह सोचकर कि पैसा दुगुना या तिगुना हो जायेगा तो वह उनकी शादी अच्छी तरह कर सकेंगे। समाज पर चलती तमाम बहसों में दहेज प्रथा की चर्चा होती है पर उसकी वजह से समाज किस तरह टूट रहे हैं इस पर कोई दृष्टि नहीं डालता। पूरा भारतीय समाज अब अपना ध्यान केवल धनर्जान पर केंद्रित कर रहा है और अध्यात्मिक ज्ञान या सत्संग उसके लिये वैसे ही जैसे मनोरंजन प्राप्त करना। पैसा दूना या चैगुना होना चाहिए। किसलिये चाहिये? बेटे की उच्च शिक्षा और बेटी की अच्छी शादी करने के लिये। सारा समाज इसी पर केंद्रित हो गया है। आखिर आदमी ऐसा क्यों चाहता है? केवल इसलिये कि समाज में वह सीना तानकर वह सके कि उसने अपने सांसरिक कर्तव्यों को पूरा कर लिया और वह एक जिम्मेदारी आदमी है।
कुछ लोगों के बच्चे संस्कार, भाग्य, परिश्रम या किसी दूसरे की सहायता उच्च स्थान पर पहुंच जाते हैं तो उनके विवाह कार्यक्रम भी बहुत आकर्षक ढंग से संपन्न होते हैं जो किसी भी भारतीय नर नारी का बरसों से संजोया एक सपना होता है’-इसी सपने को पूरा करने के लिये वह जिंदगी गुजारते हैं।
जिनके बच्चे शैक्षिक और बौद्धिक क्षमता की दृष्टि से औसत स्तर के हैं उनके लिये यह समस्या गंभीर हो जाती है कि वह किस तरह उनके लिये भविष्य बनायें ताकि वह स्वयं को समाज में एक ‘जिम्मेदार व्यक्ति’ साबित कर सकें। इसके लिये चाहिए धन। आम मध्यम वर्गीय परिवार के लिये यह एक बहुत बड़ी समस्या है। अगर हम उसके जीवन का आर्थिक चक्र देखें तो वह हमेशा ही बाजार के दामों में पिछड़ता है। जब प्लाट की कीमत डेढ़ सौ रुपया फुट थी तब वह पचास खर्च कर सकता था। जब वह डेढ़ सौ खर्च करने लायक हुआ तो प्लाट की कीमत तीन सौ रुपया प्रति फुट हो गयी। जब वह तीन सौ रुपये लायक हुआ तो वह पांच सौ रुपया हो गयी। जब वह पांच सौ रुपया लायक हुआ तो पता लगा कि डेढ़ हजार रुपये प्रतिफुट हो गयी।
इस चक्र में पिछड़ता आम मध्यम और निम्न वर्ग दोगुना और चैगुना धन की लालच में भटक ही जाता है। आज के आधुनिक ठग ऐसे तो हैं नहीं कि बाजार या घर में मिलते हों जो उन पर विश्वास न किया जाये। उनके तो बकायदा वातानुकूलित दफ्तर हैं। उनके ऐजेंट हैं। एकाध बार वह धन दोगुना भी कर देते हैं ताकि लोगों का विश्वास बना रहे। ऐसे में उनका शिकार बने लोग दो तरफ से संकट बुलाते हैं। पहला तो उनकी पूरी पूंजी चली जाती है दूसरा परिवार के सभी सदस्यों का मनोबल गिर जाता है जिससे संकट अधिक बढ़ता है। बहरहाल नारी स्वातंत्र्य समर्थकों के लिये इस घटना में भले ही अधिक कुछ नहीं है पर जो लोग वाकई छोटे शहरों में बैठकर समाज को पास से देखते हैं उन्हें इन घटनाओं के समाज पर दूरगामी परिणाम दिखाई देते हैं जो अंततः नारियों को सर्वाधिक कष्ट में डालते हैं।

कन्या भ्रुण की हत्या रोकने के लिये कितने समय से प्रयास चल रहा है पर समाज विशेषज्ञ लगातार बता रहे हैं कि यह दौर अभी बंद नहीं हुआ। हालांकि अनेक लोग उन माताओं की ममता को भी दोष देते हैं जो कन्या भ्रुण हत्या के लिये तैयार हो जाती हैं पर कोई इसको नहीं मानते। शायद वह मातायें यह अनुभव करती हैं कि अगर वह लड़की पैदा हो गयी तो उसके प्रति ममता जाग्रत हो जायेगी फिर पता नहीं उसके जन्म के बाद उसके विवाह तक का दायित्व उसका पति और वह स्वयं निभा पायेंगी कि नहीं। इसमें हम समाज का दोष नहीं देखते। इतने सारे सामाजिक आंदोलन होते हैं पर बुद्धिजीवी इस दहेज प्रथा को रोकने और शादी को सादगी से करने का कोई आंदोलन नहीं चला सके। उल्टे शादी समारोहों के आकर्षण को अपनी रचनाओं में प्रकाशित करते हैं।
समस्या केवल ठगी के शिकार लोगों की नहीं है बल्कि इन ठगों की भी है। इन ठगों के अनुसार उन्होंने अपना पैसा शेयर बाजार और सट्टे में-पक्का तो पता नहीं है पर जरूर सट्टा क्रिकेट से जुड़ा हो सकता है क्योंकि आजकल के आधुनिक लोग उसी पर ही दांव खेलते हैं-लगाया होगा। अधिकतर टीवी चैनलों और अखबारों में सट्टे से बर्बाद होने वाले लोगों की खबरें आती है पर उसका स्त्रोत छिपाया जाता है ताकि लोग कहीं उसे शक से न देखने लगें। वैसे हमने यह देखा है कि सट्टा खेलने वाले-खिलाने वाले नहीं- ठगने में उस्ताद होते हैं। सच तो यह है कि वह दया के पात्र ही हैं क्योंकि वह मनुष्य होते हुए भी कीड़े मकौड़े जैसे जीवन गुजारते हैं। वह तो बस पैसा देखते हैं। किसी से लूटकर या ठगकर अपने पास रखें तो भी उन पर क्रोध करें मगर वह तो उनको कोई अन्य व्यक्ति ठगकर ले जाता है। ऐसे लोग गैरों को क्या अपनों को ही नहीं छोड़ते। बाकी की तो छोड़िये अपनी बीवी को बख्श दें तो भी उसे थोड़ा बुद्धिमान ठग मानकर उस पर क्रोध किया जा सकता है।

कई तो ऐसे सट्टा लगाने वाले हैं जो लाखों की बात करते हैं पर जेब में कौड़ी नहीं होती। अगर आ जाये तो पहुंच जाते हैं दांव लगाने।
मुख्य बात यही है कि क्रिकेट के सट्टे का समाज पर बहुत विपरीत प्रभाव है पर कितने बुद्धिमान इसे देख पा रहे हैं? इससे देश की अर्थव्यवस्था पर कोई प्रभाव भले ही नहीं पड़ता हो पर इतने व्यक्तियों और परिवारों ने तबाही को गले लगाया है कि उनकी अनदेखी करना अपने आप में मूर्खता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ठगी की इन घटनाओं के कानूनी पक्ष के अलावा कुछ ऐसे भी विषय हैं जो समाज पर बुरा प्रभाव डाल रहे हैं पर कितने बुद्धिजीवी इस पर लिख या सोच पाते हैं इस आलेख को पढ़ने वाले इस पर दृष्टिपात अवश्य करें। हालांकि यह भी बुरा होगा क्योंकि तब उनको जो इस देश मेें बौद्धिक खोखलापन दिखाई देगा वह भी कम डरावना नहीं होगा। यह बौद्धिक खोखलापन ठग के साथ उनके शिकार पर ही बल्कि इन घटनाओं पर विचार करने वालों में साफ दिखाई देगा।
………………………………..

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

शराब का नशा चढ़ता नहीं तो पीता कौन-व्यंग्य कविता


एक दिन घूमते हुए उसने
चाय पिलाई तब वह अच्छा लगा
कुछ दिन बाद वह मिला तो
उसने पैसे उधार मांगे तब वह बुरा लगा
फिर एक दिन उसने
बस में साथ सवारी करते हुए
दोनों के लिये टिकिट खरीदा तब अच्छा लगा
कुछ दिन बाद मिलने पर
फिर उधार मांगा
पहली बार उसको दिया उधार पर
फिर भी बहुत बुरा लगा
एक दिन वह घर आया और
सारा पैसा वापस कर गया तब अच्छा लगा
वह एक दिन घर पर
आकर स्कूटर मांग कर ले गया तब बुरा लगा
वापस करने आया तो अच्छा लगा

क्या यह सोचने वाली बात नहीं कि
आदमी कभी बुरा या अच्छा नहीं होता
इसलिये नहीं तय की जा सकती
किसी आदमी के बारे में एक राय
हालातों से चलता है मन
उससे ही उठता बैठता आदमी
कब अच्छा होगा कि बुरा
कहना कठिन है
चलाता है मन उसे जो बहुत चंचल है
जो रात को नींद में भी नहीं सोता
कभी यहां तो कभी वहां लगा

………………………………..
मयखानों में भीड़ यूं बढ़ती जा रही हैं
जैसे बह्ती हो नदिया जहां दो घूँट पीने पर
हलक से उतारते ही शराब दर्द बन जायेगी दवा
या खुशी को बढा देगी बनकर हवा
रात को हसीन बनाने का प्रयास
हर घूँट पर दूसरा पीने की आस
अपने को धोखा देकर ढूंढ रहे विश्वास
पीते पीते जब थक जाता आदमी
उतर जाता है नशा
तब फिर लौटते हैं गम वापस
खुशी भी हो जाती है हवा
————————————-

शराब का नशा चढ़ता नहीं तो पीता कौन
उतरता नहीं तो खामोश होता कौन
गम और दर्द का इलाज करने वाली दवा होती या
खुशी को बढाने वाली हवा होती तो
इंसान शराब पर बना लेता जगह जगह
बना लेता दरिया
मगर सच से कुछ देर दूर भगा सकती हैं
बदलना उसके लिए संभव नहीं
इसलिए नशे में कहीं झूमते हैं लोग
कहीं हो जाते मौन
शराब खुद ही बीमारी हैं
यह नहीं जानता कौन

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

कोई प्यार की भाषा नहीं समझता-हास्य व्यंग्य कविता


अपने साथ भतीजे को भी
फंदेबाज घर लाया और बोला
‘दीपक बापू, इसकी सगाई हुई है
मंगेतर से रोज होती मोबाइल पर बात
पर अब बात लगी है बिगड़ने
उसने कहा है इससे कि एक ‘प्रेमपत्र लिख कर भेजो
तो जानूं कि तुम पढ़े लिखे
नहीं भेजा तो समझूंगी गंवार हो
तो पर सकता है रिश्ते में खटास’
अब आप ही से हम लोगों को आस
इसे लिखवा दो कोई प्रेम पत्र
जिसमें हिंदी के साथ उर्दू के भी शब्द हों
यह बिचारा सो नहीं पाया पूरी रात
मैं खूब घूमा इधर उधर
किसी हिट लेखक के पास फुरसत नहीं है
फिर मुझे ध्यान आया तुम्हारा
सोचा जरूर बन जायेगी बात’

सुनकर बोले दीपक बापू
‘कमबख्त यह कौनसी शर्त लगा दी
कि उर्दू में भी शब्द हों जरूरी
हमारे समझ में नहीं आयी बात
वैसे ही हम भाषा के झगड़े में
फंसा देते हैं अपनी टांग ऐसी कि
निकालना मुश्किल हो जाता
चाहे कितना भी जज्बात हो अंदर
नुक्ता लगाना भूल जाता
या कंप्यूटर घात कर जाता
फिर हम हैं तो आजाद ख्याल के
तय कर लिया है कि नुक्ता लगे या न लगे
लिखते जायेंगे
हिंदी वालों को क्या मतलब वह तो पढ़ते जायेंगे
उर्दू वाले चिल्लाते रहें
हम जो शब्द बोले उसे
हिंदी की संपत्ति बतायेंगे
पर देख लो भईया
कहीं नुक्ते के चक्कर में कहीं यह
फंस न जाये
इसके मंगेतर के पास कोई
उर्दू वाला न पहूंच जाये
हो सकता है गड़बड़
हिंदी वाले सहजता से नहीं लिखें
इसलिये जिन्हें फारसी लिपि नहीं आती
वह उर्दू वाले ही करते हैं
नुक्ताचीनी और बड़बड़
प्रेम से आजकल कोई प्यार की भाषा नहीं समझता
इश्क पर लिखते हैं
पब्लिक में हिट दिखते हैं
इसलिये मुश्क कसते हैं शायर
फारसी का देवनागरी लिपि से जोड़ते हैं वायर
इसलिये हमें माफ करो
कोई और ढूंढ लो
नहीं बनेगी हम से तुम्हारी बात
……………………………………………………………….

यह आलेख ‘दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप